Sunday, 31 May 2015

ॐ निर्वाण षडकम श्री आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित

ॐ निर्वाण षडकम श्री आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित
मैं मन, बुद्धि, न चित्त अहंता, न मैं धरनि न व्योम अनंता.
मैं जिव्हा ना, श्रोत, न वयना, न ही नासिका ना मैं नयना .
मैं ना अनिल, न अनल सरूपा, मैं तो ब्रह्म रूप, तदरूपा .
चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥१॥
न च प्राण-संज्ञो न वै पञ्च-वायु:,
न वा सप्त-धातुर्न वा पञ्च-कोष: ।
न वाक्-पाणी-पादौ न चोपस्थ पायु:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ २ ॥
न गतिशील, न प्राण आधारा, न मैं वायु पांच प्रकारा.
सप्त धातु , पद, पाणि न संगा, अन्तरंग न ही पाँचों अंगा.
पंचकोष ना , वाणी रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप, तदरूपा
चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥२॥
न मे द्वेष-रागौ न मे लोभ-मोहौ,
मदे नैव मे नैव मात्सर्य-भाव: .
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं .. ॥ ३ ॥
ना मैं राग, न द्वेष, न नेहा, ना मैं लोभ, मोह, मन मोहा.
मद-मत्सर ना अहम् विकारा, ना मैं, ना मेरो ममकारा
काम, धर्म, धन मोक्ष न रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा,
चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥३॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं ,
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञा: ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ४ ॥
ना मैं पुण्य न पाप न कोई, ना मैं सुख-दुःख जड़ता जोई.
ना मैं तीर्थ, मन्त्र, श्रुति, यज्ञाः, ब्रह्म लीन मैं ब्रह्म की प्रज्ञा.
भोक्ता, भोजन, भोज्य न रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा.
चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा,, मैं शिव रूपा ॥४॥
न मे मृत्यु न मे जातिभेद:,
पिता नैव मे नैव माता न जन्मो ।
न बन्धुर्न मित्र: गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ५॥
ना मैं मरण भीत भय भीता, ना मैं जनम लेत ना जीता.
मैं पितु, मातु, गुरु, ना मीता. ना मैं जाति-भेद कहूँ कीता.
ना मैं मित्र बन्धु अपि रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा.
चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥५॥
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो,
विभुत्त्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणां ।
सदा मे समत्त्वं न मुक्तिर्न बंध:
चिदानंद रूपं शिवो-हं शिवो-हं ..॥ ६॥
निर्विकल्प आकार विहीना, मुक्ति, बंध- बंधन सों हीना.
मैं तो परमब्रह्म अविनाशी, परे, परात्पर परम प्रकाशी.
व्यापक विभु मैं ब्रह्म अरूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा.
चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥६॥

Friday, 1 May 2015

नृसिंह जयंती महामहोत्सव वैशाख शुक्ल चतुर्दशी ,,,नरसिंघ जयन्ती

नृसिंह जयंती महामहोत्सव,, वैशाख शुक्ल चतुर्दशी  , नरसिंह जयंती
श्रीनृसिंह मंत्र ॐ उग्रवीरं महा विष्णुं ज्वलन्तं सर्वतो मुखम्। नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्यु मृत्युं नमाम्यहम्॥"
हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक 
फैली हुई है। हे नृसिंहदेव, तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी 
यम हो और मैं तुम्हारे समक्ष   आत्मसमर्पण करता हूँ।"

श्रीनृसिंह देवाय नमो नम:ॐ  ॐश्रीभक्त प्रह्लादाय नमो नम: ॐ
श्रीनृसिंहजी एवं श्रीप्रह्लाजी चरित्र!!  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
हमारे परम पवित्र सनातन धर्म में भक्त और भगवान् का "प्रेम और करुणा" का 
अटूट संबंधऔर उनकी पवित्र कथाओ  
का वर्णन सदा से ही हमे अतिदुर्लभ और मूल्यवान, जो हमे केवल उस परमात्मा 
की दया दृष्टि से ही प्राप्त होने वाली उनकी श्री चरणों की "भक्ति" और "अनुराग" के 
मार्ग को प्रशस्त कर नित्य प्रति हमें मार्गदर्शन करती है...और हमारे अंतर्मन में
निहित प्रभु के प्रति भक्ति-भाव मेंउत्साहवर्धन करती है !!!
श्रीविष्णुपुराण" में वर्णित एक कथा   के अनुसार- दैत्यों के आदि पुरुष 
श्रीकश्यपजी और उनकी पत्नी दिति  के दो राक्षस पुत्र हुए.......
हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष (श्रापित- 'जय-विजय') वे दोनों बहुत 
ही क्रूर स्वाभाव के थे और सदा से ही भगवान श्री हरि विष्णु से द्वेष भाव रखते थे !!
जब हिरण्याक्ष ने श्री भगवती पृथ्वी देवी को समुद्र के  रसातल में ले गया था... क्योकि वह 
देवताओ और श्री हरि विष्णु से द्वेष करता था, उसका मानना था की पृथ्वी 
पर रहने वाले लोगों के पूजा, अर्चना और यज्ञ आदि कर्मो से देवताओ को बल मिलता हैं !!!
ॐ श्री वराह अवतार
अपने भक्तों की करुण पुकार सुन  भक्त वत्सल भगवन श्री हरि विष्णु 
ने स्वयं वराह के रूप में अवतार लेकर भगवती पृथ्वी के उद्धार हेतु राक्षस 
हिरण्याक्ष से समद्र के रसातल में युद्ध किया और अंततः हिरण्याक्ष का 
संहार कर भगवती पृथ्वी देवी को अपने नथुने के दांतों से रसातल  से बाहर निकाला था !!
जब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप को अपने भाई की मृत्यु का समाचार 
ज्ञात हुआ तो वो बहुत ही क्रोधित हुआ और मन ही मन भगवन श्री हरि विष्णु 
से और ज्यादा द्वेष करने लगा !!
हिरण्यकश्यप ने एक दिन अपने मंत्रियों की एक सभा का आयोजन 
किया ! उस सभा में सभी दैत्य मंत्री और राक्षस भी आये थे, उन्हें संबोधित 
कर हिरण्यकश्यप अत्यंत ही क्रोधित होकर इस प्रकार कहने लगा-
आज हम अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष की मृत्यु का शोक मनाने के लिए 
यहाँ एकत्रित हुए हैं ! इन्द्र जैसे हमारे क्षुद्र शत्रुओ ने दैत्य शिरोमणि हिरण्याक्ष 
को विष्णु के हाथो मरवा डाला हैं !जिसका बदला न केवल विष्णु से बल्कि समस्त देवताओ से लेना होगा !!
आज मैं सबके सामने ये प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने इस त्रिशूल से विष्णु का 
वध करूँगा, और अपने भाई की  मृतात्मा को तृप्त करूँगा !
ऐसी प्रतिज्ञा कर हिरण्यकश्यप ने सभा विसर्जित की, और उस प्रतिज्ञा को 
पूरा करने के लिए उपाय सोचने लगा !वो यह जानता था की भगवान् 
श्री हरि विष्णु से युद्ध में जीतना आसान  नहीं है ! ऐसा सोच वो वन में तपस्या
करने के लिए गया ! और वहां जाकर उसने भगवान् श्री ब्रम्हा जी की तपस्या 
की !! हिरण्यकश्यप, अमरता के  वरदान की लालसा में तपस्या करते हुए...
काफी वर्ष तपस्या में बीत जाने के बाद, जबउसका शरीर अत्यंत ही क्षीण हो 
गया, एकदिन स्वयं ब्रह्मा जी उसे वरदान  देने के लिए उपस्थित हुए...
हिरण्यकश्यप ने उनसे अमरता का 
वरदान माँगा, परन्तु सृष्टि की मर्यादा के अनुकूल न होने पर ब्रह्मा जी ने उसे 
कोई और वरदान मांगने को कहा...तो हिरण्यकश्यप ने उनसे वरदान 
मांगते हुए कहा- हे ! ब्रह्मा जी मुझे ऐसावरदान दीजिए जिससे मैं किसी व्यक्ति 
से मरू न किसी पशु से.... न मैं किसी अस्त्र से मरू न शस्त्र से.... न मैं दिन में
मरू न रात्रि में.... न मैं धरती में मरू न आकाश में..... न में घर के अंदर मरू न बाहर मरू..... न ही मैं इन बारह 
महीनो में किसी भी एक महीनो में मरू..! हिरण्यकश्यप की तपस्या से प्रसन्न 
हो श्रीब्रह्मा जी ने हिरण्यकश्यप को तथास्तु कह वो वरदान दे दिया, और वह से चले गए...!
इस वरदान को पाकर हिरण्यकश्यप यह सोचने लगा कि... अब उसे इन 
परिस्थितियों में कोई नहीं मार सकता, इस प्रकार उस वरदान ने हिरण्यकश्यप
को अहंकारी बना दिया और वह अपनेआप को अमर समझने लगा !
उसने स्वर्ग के राजा इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित 
करने लगा ! वह चाहता था कि-सब लोग उसे ही भगवान मानें और 
उसकी पूजा करें ! उसने अपने राज्य में 
श्री हरि विष्णु की पूजा को वर्जित कर   दिया उसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड में अपना 
आधिपत्य बना लिया !!
और जो कोई भी श्री हरि विष्णु की पूजा अर्चना या उनका नाम लेता वो उसे 
मृत्युदंड दे देता था !
देवताओ सहित तीनों लोको के प्राणी  उस दैत्य हिरण्यकश्यप के सामने नतमस्तक हो गए !!!

हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु एक धर्मपरायण स्त्री थी, जब वो गर्भवती 
थी तो उसकी धरम परायणता को देख  स्वयं नारद जी ने उसे श्री हरि विष्णु 
की कथा का उपदेश दिया था ! जिसके फलस्वरूप उसका गर्भ में स्थित
शिशु जो कि प्रह्लाद थे, उनको गर्भकाल से ही भगवन श्री हरि विष्णु 
के नाम के प्रति अनुराग हो गया !
उस समय सारी सृष्टि में केवल एक नन्हा सा बालक ही ऐसा था जो भगवान् 
श्री हरि विष्णु के नाम का निरंतर कीर्तन करता रहता था... और वो 
उसी हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद था !श्री प्रह्लाद पांच वर्ष कि अवस्था में ही
श्री हरि नरायण का नाम जपते रहते थे !हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद 
को श्री हरि के प्रति भक्ति भाव देख उन्हें बहुत ही तरीके से समझया, 
डराया और प्रताड़ित किया ! परन्तु  प्रह्लाद, श्री हरि की परम भक्ति से 
विमुख न हुए ! हिरण्यकश्यप ने  अपने पुत्र प्रह्लाद को राक्षसी गुरुकुल 
भेजा ! ताकि वो श्री हरि विष्णु की भक्ति से विमुख हो सके ! प्रह्लाद  अपने गुरुकुल के मित्रो को 
श्री हरि नाम का उपदेश और उसका महत्व बताने लगा !
हिरण्यकश्यप मदिरा पान में तन्मय हो सम्पूर्ण सृष्टि को अपनी 
क्रूरता से प्रताड़ित करने लगा, नर नारी,नाग, किन्नर, गंधर्व और स्वयं इन्द्र 
आदि देवतागण भी उससे भयभीत रहने लगे !इधर भक्त प्रह्लाद गुरुकुल 
में श्री हरि का नाम निरंतर जपते रहे !अपने राक्षस सखाओ को भी 
श्री हरि विष्णु के नाम संकीर्तन महत्व समझाया और जिससे प्रभावित हो 
उनके सभी सखा और गुरुजनों को भी श्री हरि विष्णु के श्री चरणों में अनुराग हो गया ! 
जिसे आत्मज्ञान हो जाता है, उसे शरीर नहीं दिखता, केवल परमात्मा ही 
दिखते हैं ! यह सुन हिरण्यकश्यप की आँखे क्रोध से लाल लाल हो गयी !
उसकी भृकुटी तन गयी और उसनें प्रह्लाद से कहा-
अरे मुर्ख !! और कहाँ-कहाँ दिखता है तुझे तेरा परमात्मा ?
श्री प्रह्लााद ने कहा- प्रत्येक वस्तु में आकाश में, धरती में, 
वायु में, आप में, मुझे में, सारे संतो में, और इन दैत्य सैनिको में भी.... आप 
विश्वास कीजिये पिताश्री... वे सृष्टीके कण-कण में विद्यमान हैं !!
हिरण्यकश्यप ने कहा- यहाँ के हर वस्तु में भी ! प्रह्लाद ने हाथ जोड़ कर कहा-जी पिताश्री !
हिरण्यकश्यप ने पुनः कहा :इस महल में भी ?प्रह्लाद ने कहा -
जी पिताश्री !! मैं तो उन्हें इस महल की हर वस्तु में देख रहा हूँ !
हिरण्यकश्यप ने पुनः कहा- तो इस अग्नि से दहकते हुए खम्बे 
में भी दिखता है...तुझे तेरा परमात्मा...?
प्रह्लाद ने कहा-जी पिताश्री ...वे उस खम्बे में भी हैं !हिरण्यकश्यप ने पुनः कहा-
अरे मूढ़ !! यदि वो इस अग्नि से दहकते हुए खम्बे में भी अगर तेरा वो विष्णु है तो जा आलिंगन कर उसका !!
यह सुन प्रह्लाद उस दहकते हुए खम्बे की ओर श्री हरि विष्णु नारायण का ध्यान करते हुए बढे !!
अपने प्रिय भक्त का अटूट विश्वास और हिरण्यकश्यप के पाप का घड़ा 
भरा हुआ देख स्वयं भगवान 
श्री हरि विष्णु नारायण-श्रीनृसिंह जी के रूप में सिंह की सी गर्जना करते
हुए उस खम्बे को फाड़कर प्रकट हुए !!!भगवान श्री हरि विष्णु नारायण का 
वो रौद्र रूप बहुत ही भयंकर था !उनका मुख सिंह का था... उनका 
शरीर मनुष्य का था... हाथों में सिंह के से बड़े बड़े नाख़ून थे... श्री भगवान 
का वह रूप देख वहां उपस्थित सभी लोग डरने लगे...यहा तक स्वयं 
प्रह्लाद भी एक क्षण के लिए डर गए ! हिरण्यकश्यप ने श्री भगवान का यह
रूप देखा तो वो भी डर से कांपने लगा !!
फिर हिरण्यकश्यप कुछ संभलकर 
भगवान श्रीनृसिंहजी पर प्रहार करने लगा... परन्तु श्री भगवान के प्रहार 
का वेग वो सहन न कर सका और कुछ ही समय में थक गया...और 
श्री हरि विष्णु नारायण जिन्होंने  नृसिंह देव जी के रूप में अवतार 
लिया था... वे उसी क्रोधित मुद्रा में सिंह की सी गर्जना करते हुए 
हिरण्यकश्यप के समीप गए... और उसे अपने नाखून वाले हाथो से
पकड़ के बीच सभा में घसीटते हुए उस सभा के द्वार की देहली पर 
ले गए... और हिरण्यकश्यप को अपनी गोद में उठा कर लिटा लिया...
श्री भगवान का ये रूप देख  हिरण्यकश्यप के मुख से एक भी 
स्वर नहीं निकला... और फिर भगवान नृसिंह देव यह देख उससे इस प्रकार कहने लगे-
हे असुरवंशी हिरण्यकश्यप !! तुझे ब्रह्मा जी का वरदान था... की तू 
किसी ब्रह्मा की सृष्टि से नहीं मरेगा... तो देख मैं स्वयं ब्रह्मा की सृष्टि में
नहीं हूँ... न मैं नर हूँ न पशु... न देवता न दैत्य हूं !!! इस समय न दिन हैं न रात्रि हैं... इस समय 
सायंकाल हैं... तुझे न अस्त्र से मारा जा रहा है न शस्त्र से... तुझे स्वयं 
मैं अपने इन नाखूनों से मारूंगा... तू न धरती में है न आकाश में... 
देख तू मेरी गोद में हैं... तू उन बारह महीनो में भी नहीं मारा जा रहा... केवल तेरे लिए ही मैंने इस अधिक 
{पुरषोतम} मास की रचना की हैं... न तू अन्दर हैं न बाहर... तुझे मैं घर की द्वार की देहली पर मार रहा हूँ !

ऐसा कह श्री हरि नृसिंहजी सिंह की सी तेज गर्जना करते हुए... 
अपने नुकीले लंबे लंबे नाखूनों सेहिरण्यकश्यप का पेट फाड़ देते हैं... 
और हिरण्यकश्यप का वध कर पाप का अंत कर देते हैं !!! 
भगवान नृसिंह जी हिरण्यकश्यप के शव को दूर फेंक खड़े हो... 
जोर जोर से सिंह के समान गर्जना करने लगते हैं !
यह दृश्य देख प्रह्लाद के आँखों से अश्रु धाराएं बहने लगती हैं और 
वे अपने हाथो में श्रीनृसिंहजी के लिए फूलो की माला लिए श्री हरि विष्णु 
का ध्यान करने लगते हैं.!! वहां पर उपस्थित समस्त असुर, दैत्य सैनिक 
अदि नतमस्तक हो भगवान नृसिंहजी से हाथ जोड़ क्षमा प्रार्थना करने 
लगते हैं ! तत्पश्चात उस सभा में भगवान शिव, भगवान ब्रह्मा , इन्द्र 
आदि देवतागण प्रकट हो, भगवान श्री नृसिंह देवजी की करबद्ध स्तुति करने लगे !!

भगवान श्री नृसिंहजी का रौद्र रूप किसी प्रकार से शांत होता न देख... 
तत्क्षण श्री प्रह्लाद अपने अश्रु पूर्ण नेत्रो के साथ अपने आराध्य देव 
श्री नृसिंहजी की स्तुति व प्रार्थना करते हैं !!!
श्री प्रह्लाद हाथ जोड़ इस प्रकार श्री हरि नृसिंहदेवजी की स्तुति करते है.....
नमो नमो नारायणा......नमो नमो नारायणा...
जय नरसिंह नारायणा.....अद्भुत छवि नारायणा.....
नमो नमो नारायणा......नमो नमो नारायणा...
नृसिंह रूप हरे, प्रभु नृसिंह रूप हरे ....शांत शांत जगदीश्वर, कृपा करो परमेश्वर....
चरण पडू मैं तुम्हरे, ॐ जय नृसिंह हरे...नृसिंह रूप हरे, प्रभु नृसिंह रूप हरे ....
हे शरणागत वत्सल, भक्तन हितकारी....तुम्हरा यश गावेंगे, युग युग नर नारी....
हे प्रह्लाद के रक्षक, हे पालक यह बालक...चरणन शीश धरे, ॐ जय नृसिंह हरे.....
नृसिंह रूप हरे... प्रभु नृसिंह रूप हरे ....शांत शांत जगदीश्वर, कृपा करो परमेश्वर....

नमो नमो नारायणा......नमो नमो नारायणा...जय नृसिंह नारायणा.....
अद्भुत छवि नारायणा.....नमो नमो नारायणा......नमो नमो नारायणा...

श्री प्रह्लाद को श्री हरि नृसिंह नारायण अपनी गोद में बैठा लेते हैं, और श्री हरि नृसिंह जी अपने हाथो से, 
श्री प्रह्लाद के बालो को संवारते हैं... और अपनी जीभ से उनको चाटने लगते हैं... 
श्री नृसिंह भगवान श्री प्रह्लाद से बोले- हे वत्स !! 
मैं तुमसे और तुम्हारी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हूँ... तुम मुझसे कुछ वरदान 
मांग लो... श्री प्रह्लाद बोले- हे नाथ !! मैं जिन भी हजारों योनियों 
में विराजूं, उन उन सभी जन्मों में मैं सदा आप की निरन्तर भक्ति करूं....
हे ! अच्युत आप कृपा कर मेरी यह इच्छा पूर्ण करो...श्री नृसिंह भगवान 
बोले- हे प्रह्लाद !! मुझमें तो तुम्हारी अनन्य भक्ति है ही और आगे भी 
ऐसे ही रहेगी ! तुम्हें और जो भी वर  की इच्छा हो मुझ से ले लो ! 
श्री प्रहलाद बोले- हे श्री हरि नारायण !! आपकी स्तुति करने के कारण, मुझसे 
जो पिताश्री ने द्वेष किया था, उससे  उन्हें जो पाप लगा था, उनका वह 
पाप नष्ट हो जाये !मुझे पर्वत के ऊपर से गिराया...
अग्नि में जलाया...मुझे नागो के भरे हुए कुण्ड में डाला...और हाथी के 
नीचे दबवाने की कोशिश की... तेल की गरम गरम कढ़ाई में मुझे 
बिठाया गया तथा और जो भी असाधु कार्य मेरे पिता श्री ने मेरे 
विरुद्ध किये, आप में भक्तिमान मनुष्य से द्वेष करने के कारण जो 
उनहें पाप प्राप्त हुआ है...हे ! प्रभु !! आप की कृपा से जल्द ही मेरे पिता 
उस से मुक्त हो जायें...और मेरे पिताश्री को मोक्ष प्रदान करे प्रभु !!
श्री नृसिंह भगवान बोले- हे भक्त प्रह्लाद मैं तुम्हारी पितृ भक्ति से 
भी बहुत प्रसन्न हुआ ! मेरी कृपा से तुम्हारे पिता हिरण्यकश्यप मोक्ष
को प्राप्त करेंगे ! मैं तुम्हें और वर देना चाहता हूं, वर माँगो !श्री प्रह्लाद बोले- 
हे भगवान, आप ने जो मुझे वर दिया की मैं आप की कृपा से भविष्य 
में भी आप की अव्यभिचारिणी भक्ति करूँगा. मैं तो उस से ही 
कृत कृत हो गया हूँ ! धर्म, अर्थ, काम उसके लिये क्या हैं, वह तो मुक्ति को 
अपने हथेली पर स्थित किये हुये है !जो इस सारे संसार की मूल आपकी 
भक्ति में स्थित है ! श्री नृसिंह भगवान बोले- जैसी तुम्हारा चित्त निश्चल मेरी 
भक्ति में स्थित है, वैसे ही मेरी कृपा से तुम परम निर्वाण पद प्राप्त करोगे !!!
तत्पश्चात श्री प्रह्लाद ने पुनः श्री हरि नृसिंह जी की स्तुति
'हरि अष्टकम' नामक 'स्त्रोत' से की जो इस प्रकार करते हैं ......

श्री हरि: अष्टकम
हरिर्हरति पापानि दुष्टचितैरपि स्मृतः ।अनिच्छयाऽपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥१॥
भगवान श्री हरि समस्त पापों को हर लेते हैं चाहे दुष्ट चित् ने ही उन्हें क्यों 
न याद किया हो, या न चाहते हुये भी उन्हें किसी ने याद किया हो.....बिलकुल 
वैसे ही जैसे अग्नि का स्पर्श करने से वह हर वस्तु को जला कर भस्म कर 
देती हैं.... वह, यह नहीं देखती कौनसी वस्तु पवित्र है और कौन से अपवित्र...
स गँगा स गया सेतुः स काशी स च पुष्करम् । जिह्वाग्रे वर्तते यस्या हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥२॥
उस प्राणी ने श्री गंगा, सेतु, काशी और पुष्कर के दर्शन कर लिये जिसके 
मुँह मे भगवान श्री हरि का नाम के ये दो अक्षर निरंतर रहते हैं.....
वाराणस्यां कुरुक्षेत्रे नैमिशारण्य एव च ।
यत्कृतं तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥३॥
उस प्राणी ने वाराणसी, कुरुक्षेत्र, नैमिशारण में जो भी पुण्य कार्य हुये हैं 
वो सब कर लिये जो हरि नाम के ये दो अक्षरों का उच्चारण करता हैं ....
पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुन्यान्यायतनानि च ।
तानि सर्वाण्यशेषाणि हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥४॥
पृथ्वी पर जितने भी तीर्थ हैं और अन्य भी जितने पुण्य और पवित्र स्थान हैं 
वो सब हरि, ये दो अक्षरों में हैं .....
गवां कोटिसहस्राणि हेमकन्यासहस्रकम् ।
दत्तं स्यात्तेन येनोक्तं  हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥५॥
....ॠग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदोऽप्यथर्वणः ।अधीतस्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥६॥
ॠग, साम, यजुर और अथर्व, ये चारों वेद उस ने पढ़ लिये हैं जो हरि, इन 
दो अक्षरों का ऊच्चारण करता है....
अश्वमेधैर्महायज्ञैः नरमेधैस्तथैव च ।
इष्टं स्यात्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥७॥
अश्वमेध नाम के महायज्ञ से और नरमेध यज्ञ से जो पुण्य फल प्राप्त 
होते हैं वो सब भगवान हरि का नाम लेने वाले को प्राप्त होते हैं....
प्राण प्रयाण पाथेयं संसार व्याधिनाशनम् ।
दुःखात्यन्त परित्राणं हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥८॥
हरि नाम के ये दो अक्षर कानों द्वारा प्राणों के रस्ते जाकर संसार रूपी 
बीमारी का नाश कर देते हैं और अत्यन्त दुख का अन्त करते हैं....
बद्ध परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति ।
सकृदुच्चारितं येन हरिरित्यक्षर द्वयम् ॥
जो हरि का नाम लेते हैं वे पुण्यशील लोग हाथजोड़े मोक्ष कि तरफ बढते हैं....
!! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
श्री प्रह्लाद के मुख से "श्रीहरि अष्टकम स्त्रोत्र" सुन 
भगवान श्रीनृसिंहदेवजी बहुत ही प्रसन्न होते हैं और भक्त प्रह्लाद
को अपना स्नेहाशीष प्रदान कर श्रीनृसिंहदेव भगवान वहां से 
अन्तर्ध्यान हो जाते हैं...!!!*ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone 
जो कोई भी प्राणी सच्चे हृदय से श्रीप्रह्लादजी द्वारा रचित यह 
हरिअष्टकम का स्त्रोत्रसुनता अथवा कहता हैं.... 
उसके पापों का जल्दी ही क्षय हो जाता है......
दिन और रात मे किये पाप से, श्री नरसिंह जी की स्तुति सुनने या 
पढने से, मनुष्य मुक्त हो जाता है, इस में कोई शक नहीं है .....
जैसे भगवान हरिजी ने प्रह्लादजी की सभी संकटों से रक्षा की थी, उसी 
प्रकार वे उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनके श्री स्तुति हृदय से सदा सुनता और कहता है। 
भगवान श्री नृसिंह देवाय नमो नम श्री भक्त प्रह्लादाय नमो नम:


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