Sunday 15 September 2013

विशवकर्मा-पुजा

प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है । भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है । पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है । ये "शिल्पशास्त्र" के आविष्कर्ता हैं। पुराणानुसार यह प्रभास वसु के पुत्र हैं। "महाभारत" में इन्हें लावण्यमयी के गर्भ से जन्मा बताया है। विश्वकर्मा रचना के पति हैं। देवताओं के विमान भी विश्वकर्मा बनाते हैं। इन्हें अमर भी कहते हैं। "रामायण" के अनुसार विश्वकर्मा ने राक्षसों के लिए लंका की सृष्टि की। सूर्य की पत्नी संज्ञा इन्हीं की पुत्री थी। सूर्य के ताप को संज्ञा सहन नहीं कर सकी, तब विश्वकर्मा ने सूर्य तेज का आठवां अंश काट उससे चक्र, वज्र आदि शस्त्र बनाकर देवताओं को प्रदान किए ! विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।
विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है।'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.

 

वराह जयंती, भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया


वराह जयंती, भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया
वराह अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से तृतीय अवतार हैं जो भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया को अवतरित हुए
वराह अवतार की कथा,,,,हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे
, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। ,,,,,
ब्रह्माजी का वरदान
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो।तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।'
हिरण्याक्ष और वराहावतार,,,, वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे। हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।
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कालसर्प दोष भंग के लिए दैनिक छोटे उपाय


कालसर्प दोष भंग के लिए दैनिक छोटे उपाय 1 108 राहु यंत्रों को जल में प्रवाहित करें। 2 सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं। 3 शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग.। 4 अमावस्या के दिन पितरों को शान्त कराने हेतु दान आदि करें तथा कालसर्प योग शान्ति पाठ कराये।
5 शुभ मुहूर्त में नागपाश यंत्रा अभिमंत्रित कर धारण करें और शयन कक्ष में बेडशीट व पर्दे लाल रंग के प्रयोग में लायें।
6. हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान पर सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं।.
7 शनिवार को पीपल पर शिवलिंग चढ़ाये व मंत्र जाप करें (ग्यारह शनिवार )
8 सवा महीने देवदारु, सरसों तथा लोहवान - इन तीनों को जल में उबालकर उस जल से स्नान करें।
9 काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके उसकी नित्य प्रति पूजा करें ।
10 सोमवार को शिव मंदिर में चांदी के नाग की पूजा करें, पितरों का स्मरण करें तथा श्रध्दापूर्वक बहते पानी में नागदेवता का विसर्जन करें।
11 श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
12 प्रत्येक सोमवार को दही से भगवान शंकर पर - हर हर महादेव' कहते हुए अभिषेक करें। हर रोज श्रावण के महिने में करें।
13. सरल उपाय- कालसर्प योग वाला युवा श्रावण मास में प्रतिदिन रूद्र-अभिषेक कराए एवं महामृत्युंजय मंत्र की एक माला रोज करें।
14 यदि रोजगार में तकलीफ आ रही है अथवा रोजगार प्राप्त नहीं हो रहा है तो पलाश के फूल गोमूत्र में डूबाकर उसको बारीक करें। फिर छाँव में रखकर सुखाएँ। उसका चूर्ण बनाकर चंदन के पावडर में मिलाकर शिवलिंग पर त्रिपुण्ड बनाएँ। 41 दिन दिन में नौकरी अवश्य मिलेगी।.
15 शिवलिंग पर प्रतिदिन मीठा दूध उसी में भाँग डाल दें, फिर चढ़ाएँ इससे गुस्सा शांत होता है, साथ ही सफलता तेजी से मिलने लगती है।
16 किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय' की 21 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प शिवलिंग पर समर्पित करें।
17 शत्रु से भय है तो चाँदी के अथवा ताँबे के सर्प बनाकर उनकी आँखों में सुरमा लगा दें, फिर शिवलिंग पर चढ़ा दें, भय दूर होगा व शत्रु का नाश होगा।
18 यदि पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका में क्लेश हो रहा हो, आपसी प्रेम की कमी हो रही हो तो भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या बालकृष्ण की मूर्ति जिसके सिर पर मोरपंखी मुकुट धारण हो घर में स्थापित करें एवं प्रतिदिन उनका पूजन करें एवं ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम: शिवाय का यथाशक्ति जाप करे। कालसर्प योग की शांति होगी।
19 किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें।
20 किसी शुभ मुहूर्त में सूखे नारियल के फल को बहते जल में तीन बार प्रवाहित करें तथा किसी शुभ मुहूर्त में शनिवार के दिन बहते पानी में तीन बार कोयला भी प्रवाहित करें
21 मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।
22 महामृत्युंजय कवच का नित्य पाठ करें और श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें।
23 मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।
24 86 शनिवार का व्रत करें और राहु,केतु व शनि के साथ हनुमान की आराधना करें। शनिवार को श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें
25 नव नाग स्तोत्रा का एक वर्ष तक प्रतिदिन पाठ करें।
26 प्रत्येक बुधवार को काले वस्त्रों में उड़द या मूंग एक मुट्ठी डालकर, राहु का मंत्रा जप कर भिक्षाटन करने वाले को दे दें। यदि दान लेने वाला कोई नहीं मिले तो बहते पानी में उस अन्न हो प्रवाहित करें। 72 बुधवार तक करने से अवश्य लाभ मिलता है।
27 कालसर्प योग हो और जीवन में लगातार गंभीर बाधा आ रही हो तब किसी विद्वान ब्राह्मण से राहु और केतु के मंत्रों का जप कराया जाना चाहिए और उनकी सलाह से राहु और केतु की वस्तुओं का दान या तुलादान करना चाहिए।)-
28 शिव के ही अंश बटुक भैरव की आराधना से भी इस दोष से बचाव हो सकता है।
29 प्रथम पूज्य शिव पुत्र श्री गणेश को विघ्रहर्ता कहा जाता है। इसलिए कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए गणेश पूजा भी करनी चाहिए।
30-पुराणों में बताया गया है कि भगवान श्री कृष्ण ने कालिय नाग का मद चूर किया था। इसलिए इस दोष शांति के लिए श्री कृष्ण की आराधना भी श्रेष्ठ है।
31विद्यार्थीजन सरस्वती जी के बीज मंत्रों का एक वर्ष तक जाप करें और विधिवत उपासना करें।
32 एक वर्ष तक गणपति अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करें,,
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गणेश चतुर्थी चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए


गणेश चतुर्थी चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए,,,गणेश चतुर्थी के दिन भगवान विनायक का जन्मोत्सव शुरू हो जाएगा। यद्यपि चंद्रमा उनके पिता शिव के मस्तक पर विराजमान हैं, किंतु गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए ,,शास्त्रीय मान्यता है कि इस दिन चंद्रदर्शन से मनुष्य को निश्चय ही मिथ्या कलंक का सामना करना पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार भाद्र शुक्ल चतुर्थी के दिन श्रीकृष्ण ने चंद्रमा का दर्शन कर लिया।,,,फलस्वरूप उन पर भी मणि चुराने का कलंक लगा। ज्योतिषाचार्यों का मानना है कि इस दिन किसी भी सूरत में चंद्रमा का दर्शन करने से बचना चाहिए। शास्त्रों में इसे कलंक चतुर्थी भी कहा गया है,,,चंद्रदर्शन देता मिथ्या कलंक
जब श्री गणेश का जन्म हुआ, तब उनके गज बदन को देख कर चंद्रमा ने हंसी उड़ाई। क्रोध में गणेश जी ने चंद्रमा को शाप दे दिया कि उस दिन से जो भी व्यक्ति चंद्रमा का दर्शन करेगा, उसे कलंक भोगने पड़ेंगे।
चंद्रमा के क्षमा याचना करने पर गणपति ने अपने शाप की अवधि घटाकर केवल अपने जन्मदिवस के लिए कर दी। फलस्वरूप यदि गलती से चंद्रमा का दर्शन गणेश चतुर्थी के दिन हो जाए तो गणेश सहस्त्रनाम का पाठ कर दोष निवारण करना चाहिए।,,,,गणपति की बेडोल काया देख कर चंद्रमा उन पर हंसे थे, इसलिए श्रीगणेश ने उन्हें श्रापित कर दिया था।,,,गणपति के श्राप के कारण चतुर्थी का चंद्रमा दर्शनीय होने के बावजूद दर्शनीय नहीं है। गणेश ने कहा था कि इस दिन जो भी तुम्हारा दर्शन करेगा, उसे कोई न कोई कलंक भुगतना पडे़गा। इस दिन यदि चंद्रदर्शन हो जाए, तो चांदी का चंद्रमा दान करना चाहिए।
GANESH THRONE by VISHNU108

ऋषि पंचमी : सप्तऋषियों के पूजन का दिन

 ऋषि पंचमी : सप्तऋषियों के पूजन का दिन
एक समय राजा सिताश्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी के पास गए और उनके चरणों में शीश नवाकर बोले- हे आदिदेव! आप समस्त धर्मों के प्रवर्तक और गुढ़ धर्मों को जानने वाले हैं।
आपके श्री मुख से धर्म चर्चा श्रवण कर मन को आत्मिक शांति मिलती है। भगवान के चरण कमलों में प्रीति बढ़ती है। वैसे तो आपने मुझे नाना प्रकार के व्रतों के बारे में उपदेश दिए हैं। अब मैं आपके मुखारविन्द से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने की अभिलाषा रखता हूं, जिसके करने से प्राणियों के समस्त पापों का नाश हो जाता है।
राजा के वचन को सुन कर ब्रह्माजी ने कहा- हे श्रेष्ठ, तुम्हारा प्रश्न अति उत्तम और धर्म में प्रीति बढ़ाने वाला है। मैं तुमको समस्त पापों को नष्ट करने वाला सर्वोत्तम व्रत के बारे में बताता हूं। यह व्रत ऋषिपंचमी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को करने वाला प्राणी अपने समस्त पापों से सहज छुटकारा पा लेता है।
ऋषि पंचमी की व्रतकथा
विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थी, जिसका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण के एक पुत्र तथा एक पुत्री दो संतान थी। विवाह योग्य होने पर उसने समान कुलशील वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। दैवयोग से कुछ दिनों बाद वह विधवा हो गई। दुखी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।
एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात मां से कही। मां ने पति से सब कहते हुए पूछा- प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?
उत्तंक ने समाधि द्वारा इस घटना का पता लगाकर बताया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।
धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी।
पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।
। ऋषि पंचमी सभी वर्ग क‍ी स्त्रियों को करना चाहिए। इस दिन स्नानादि कर अपने घर के स्वच्छ स्थान पर हल्दी, कुंकुम, रोली आदि से चौकोर मंडल बनाकर उस पर सप्तऋषियों की स्थापना करें।
गन्ध, पुष्प, धूप, दीप नैवेद्यादि से पूजन कर-
'कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
दहन्तु पापं सर्व गृह्नन्त्वर्ध्यं नमो नमः'॥
से अर्घ्य दें। इसके पश्चात बिना बोया पृथ्वी में पैदा हुए शाकादिका आहार करके ब्रह्मचर्य का पालन करके व्रत करें।
इस प्रकार सात वर्ष करके आठवें वर्ष में सप्तर्षिकी पीतवर्ण सात मूर्ति युग्मक ब्राह्मण-भोजन कराके उनका विसर्जन करें।
कहीं-कहीं, किसी प्रांत में स्त्रियां पंचताडी तृण एवं भाई के दिए हुए चावल कौवे आदि को देकर फिर स्वयं भोजन करती है।
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BRAHMA CREATION II by VISHNU108

तुलजा भवानी की जय हो

तुलजा भवानी की जय हो, तुलजा भवानी माँ तेरी जय हो या देवी सर्व भुतेशु शक्ति रुपेन संस्थिथा नम: तस्ये नम: तस्ये नम: तस्ये नमो नम: माँ तू ही दुर्गा है, तू ही काली है। तेरी महिमा निराली है। हे जग की माता, महामाया मैं तेरे द्वार आया हूँ।तुलजा भवानी माँ तेरी जय हो।

डोल ग्यारस:,,,जलझूलनी एकादशी


डोल ग्यारस:,,,जलझूलनी एकादशी ,,,,,, कृष्ण जन्म के ग्यारहवें दिन माता यशोदा ने उनका जलवा पूजन किया था। इसी दिन को 'डोल ग्यारस' के रूप में मनाया जाता है। जलवा पूजन के बाद ही संस्कारों की शुरूआत होती है। जलवा पूजन को कुआँ पूजन भी कहा जाता है।
'डोल ग्यारस' के अवसर पर कृष्ण मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है तथा भगवान कृष्ण की मूर्ति को 'डोल' में विराजमान कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस अवसर पर कई शहरों में मेले, चल समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है।
ग्यारस का महत्व : शुक्ल-कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को चंद्रमा की ग्यारह कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है। फलत: शरीर की अस्वस्था और मन की चंचलता स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। इसी कारण उपवास द्वारा शरीर को संभालना और इष्टपूजन द्वारा मन को नियंत्रण में रखना एकादशी व्रत विधान का मुख्य रहस्य है।
एकादशी तिथि (ग्यारस) का वैसे भी सनातन धर्म में बहुत महत्‍व माना गया है। ऐसी मान्‍यता है, कि डोल ग्‍यारस का व्रत रखे बगैर जन्‍माष्‍टमी का व्रत पूर्ण नहीं होता। एकादशी तिथि में भी शुक्ल पक्ष की एकादशी को श्रेष्ठ माना गया है। शुक्ल पक्षों में भी पद्मीनी एकादशी का पुराणों में बहुत महत्व बताया गया है।
एकादशी के दिन व्रत रखकर भगवान कृष्ण की भक्ति करना चाहिए। इस व्रत में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस व्रत को करने से सभी तरह की कामना पूर्ण होती है तथा रोग और शोक मिट जाते हैं।

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दधीचि जयंती प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की अष्टमी को दाधीच जंयती मनाई जाती है


दधीचि जयंती प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की अष्टमी को दाधीच जंयती मनाई जाती है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियो को दान में देकर देवताओं की रक्षा की थी. 13 सितंबर 2013 को दधिचि जयंती मनाई जाएगी. महर्षि दधीचि जयंती
महर्षि दधीचि कथा | ,,,,,,,,,भारतीय प्राचीन ऋषि मुनि परंपरा के महत्वपूर्ण ऋषियों में से एक रहे ऋषि दधीचि जिन्होंने विश्व कल्याण हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. इसलिए इन महान आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है. महर्षि दधीची के पिता महान ऋषि अथर्वा जी थे और इनकी माता का नाम शान्ति था. ऋषि दधीचि जी ने अपना संपूर्ण जीवन भगवान शिव की भक्ति में व्यतीत किया. उन्होंने कठोर तप द्वारा अपने शरीर को कठोर बना लिया था. अपनी कठोर तपस्या द्वारा तथा अटूट शिवभक्ति से ही यह सभी के लिए आदरणीय हुए.
महर्षि दधीचि और इंद्र | ,,,,,,,इन्हीं के तपसे एक बार भयभीत होकर इन्होंने सभी लोगों को हैरान कर दिया था. कथा इस प्रकार है एक बार महर्षि दधीचि ने बहुत कठोर तपस्या आरंभ कि उनकी इस तपस्या से सभी लोग भयभीत होने लगे इंद्र का सिंहांसन डोलने लग इनकी तपस्या के तेज़ से तीनों लोक आलोकित हो गये. इसी प्रकार सभी उनकी तपस्या से प्रभावित हुए बिना न रह सके. समस्त देवों के सथ इंद्र भी इस तपस्या से प्रभावित हुए और इन्द्र को लगा कि अपनी कठोर तपस्या के द्वारा दधीचि इन्द्र पद प्राप्त करना चाहते हैं.
अत: इंद्र ने महर्षि की तपस्या को भंग करने के लिए अपनी परम रूपवती अप्सरा को महर्षि दधीचि के समक्ष भेजा. अपसरा के अथक प्रयत्न के पश्चात भी महर्षि की तपस्या जारी रहती है. असफल अपसरा इन्द्र के पास लौट आती हैं बाद में इंद्र को उनकी शक्ति का भान होता है तो वह ऋषि के समक्ष अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करते हैं.
वृत्रासुर और दधीचि का अस्थि दान | ,,,एक बार वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगते हैं वह अपनी व्यथा ब्रह्मा जी को बताते हैं तो ब्रह्मा जी उन्हें ऋषि दधीचि के पास जाने की सलाह देते हैं क्योंकि इस संकट समय़ केवल दधीचि ही उनकी सहायता कर सकते थे. यदि वह अपनी अस्थियो का दान देते तो उनकी अस्थियो से बने शस्त्रों से वृत्रासुर मारा जा सकता है.,,,,,,,महर्षि दधीचि की अस्थियों मे ब्रहम्म तेज था जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता था. वृत्रासुर पर इंद्र के किसी भी कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था तथा समस्त देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र भी उसके अभेद्य दुर्ग को न भेद सके सभी अस्त्र-शस्त्र भी उस दैत्य के सामने व्यर्थ हो जाते हैं.
दधीचि का दान | ,,,,तब इंद्र ब्रह्मा जी के कहे अनुसार महर्षि दधीचि के पास जाते हैं “ क्योंकि ऋषि को शिव के वरदान स्वरुप मजबूत देह का वरदान प्राप्त था अत: उनकी हड्डीयों से निर्मित अस्त्र द्वारा ही वृतासुर को मारा जा सकता था” इंद्र महर्षि से प्रार्थना करते हुए उनसे उनकी हड्डियाँ दान स्वरुप मांगते हैं. महर्षि दधीचि उन्हें निस्वार्थ रुप से लोकहित के लिये मैं अपना शरीर प्रदान कर देते हैं.,,,,,इस प्रकार महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण होता है और जिसके उपयोग द्वारा इंद्र देव ने वृत्रासुर का अंत किया. इस प्रकार परोपकारी ऋषि दधीचि के त्याग द्वारा तीनों लोकों की रक्षा होती है और इंद्र को उनका स्थान पुन: प्राप्त होता है.

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वामन जयंती भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी,16-09-2013,सोमवार


वामन जयंती भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी,16-09-2013,सोमवार,, को वामन द्वादशी या वामन जयंती के रुप में मनाया जाता है
वामन जयंती कथा,,,,,,,,,,,वामन अवतार भगवान विष्णु का महत्वपूर्ण अवतार माना जाता है. भगवान की लीला अनंत है और उसी में से एक वामन अवतार है इसके विषय में श्रीमद्भगवदपुराण में विस्तार से उल्लेख है. वामन अवतार कथानुसार देव और दैत्यों के युद्ध में दैत्य पराजित होने लगते हैं. पराजित दैत्य मृत एवं आहतों को लेकर अस्ताचल चले जाते हैं और दूसरी ओर दैत्यराज बलि इन्द्र के वज्र से मृत हो जाते हैं तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से बलि और दूसरे दैत्य को भी जीवित एवं स्वस्थ कर देते हैं. राजा बलि के लिए शुक्राचार्यजी एक यज्ञ का आयोजन करते हैं तथ अग्नि से दिव्य रथ, बाण, अभेद्य कवच पाते हैं इससे असुरों की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और असुर सेना अमरावती पर आक्रमण करने लगती है.
इंद्र को राजा बलि की इच्छा का ज्ञान होता है कि राजा बलि इस सौ यज्ञ पूरे करने के बाद स्वर्ग को प्राप्त करने में सक्षम हो जाएंगे, तब इन्द्र भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं. भगवान विष्णु उनकी सहायता करने का आश्वासन देते हैं और भगवान विष्णु वामन रुप में माता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने का वचन देते हैं. दैत्यराज बलि द्वारा देवों के पराभव के बाद कश्यपजी के कहने से माता अदिति पयोव्रत का अनुष्ठान करती हैं जो पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है. तब भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन माता अदिति के गर्भ से प्रकट हो अवतार लेते हैं तथा ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण करते हैं.
महर्षि कश्यप ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार करते हैं वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, अगस्त्य ने मृगचर्म, मरीचि ने पलाश दण्ड, आंगिरस ने वस्त्र, सूर्य ने छत्र, भृगु ने खड़ाऊं, गुरु देव जनेऊ तथा कमण्डल, अदिति ने कोपीन, सरस्वती ने रुद्राक्ष माला तथा कुबेर ने भिक्षा पात्र प्रदान किए. तत्पश्चात भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के पास जाते हैं. उस समय राजा बलि नर्मदा के उत्तर-तट पर अन्तिम यज्ञ कर रहे होते हैं.
वामन अवतारी श्रीहरि, राजा बलि के यहां भिक्षा मांगने पहुंच जाते हैं. ब्राह्मण बने श्रीविष्णु भिक्षा में तीन पग भूमि मांगते हैं. राजा बलि दैत्यगुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी अपने वचन पर अडिग रहते हुए, श्रीविष्णु को तीन पग भूमि दान में देने का वचन कर देते हैं. वामन रुप में भगवान एक पग में स्वर्गादि उर्ध्व लोकों को ओर दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लेते हैं. अब तीसरा पीजी रखने को कोई स्थान नहीं रह जाता है. बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया. ऎसे मे राजा बलि यदि अपना वचन नहीं निभाए तो अधर्म होगा. आखिरकार बलि अपना सिर भगवान के आगे कर देता है और कहता है तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए. वामन भगवान ने ठीक वैसा ही करते हैं और बलि को पटल लोक में रहने का आदेश करते हैं. बलि सहर्ष भवदाज्ञा को शिरोधार्य करता है.
बलि के द्वारा वचनपालन करने पर, भगवान श्रीविष्णु अत्यन्त प्रसन्न्द होते हैं और दैत्यराज बलि को वर् माँगने को कहते हैं. इसके बदले में बलि रात-दिन भगवान को अपने सामने रहने का वचन मांग लेता है, श्रीविष्णु को अपना वचन का पालन करते हुए, पातललोक में राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार करते हैं..
(भगवान कैसे इस वरदान से मुक्त होते हैं, ये चर्चा फिर कभी)
* वामन जयंती महत्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अगर इस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो इस व्रत की महत्ता और भी बढ़ जाती है. भक्तों को इस दिन उपवास करके वामन भगवान की स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर पंचोपचार सहित उनकी पूजा करनी चाहिए. जो भक्ति श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक वामन भगवान की पूजा करते हैं वामन भगवान उनको सभी कष्टों से उसी प्रकार मुक्ति दिलाते हैं जैसे उन्होंने देवताओं को राजा बलि के कष्ट से मुक्त किया था.

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Monday 3 June 2013

अंगारकी चतुर्थी श्री गणेश अंगारकी चतुर्थी

श्री गणेश अंगारकी चतुर्थी...........अंगारकी गणेश चतुर्थी के विषय में गणेश पुराण में विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है, कि किस प्रकार गणेश जी द्वारा दिया गया वरदान कि मंगलवार के दिन चतुर्थी तिथि अंगारकी चतुर्थी के नाम प्रख्यात संपन्न होगा आज भी उसी प्रकार से स्थापित है. अंगारकी चतुर्थी का व्रत मंगल भगवान और गणेश भगवान दोनों का ही आशिर्वाद प्रदान करता है तथा किसी भी कार्य में कभी विघ्न नहीं आने देते.
मंगलवार के दिन चतुर्थी का संयोग अत्यन्त शुभ एवं सिद्धि प्रदान करने वाला होता है. भक्त को संकट, विघ्न तथा सभी प्रकार की बाधाएँ दूर करने के लिए इस व्रत को अवश्य करना चाहिए. चतुर्थी को भगवान गणेश जी की पूजा का विशेष नियम बताया गया है. भगवान गणेश समस्त संकटों का हरण करने वाले होते हैं.
गणेश चतुर्थी के साथ अंगारकी का संबोधित होना इस बात को व्यक्त करता है कि यह चतुर्थी मंगलवार के दिन सम्पन्न होनी है. धर्म ग्रंथों में अंगारकि गणेश चतुर्थी के विषय में विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार, पृथ्वी पुत्र मंगल देव जी ने भगवान गणेश को प्रसन्न करने हेतु बहुत कठोर तप किया. मंगल देव की तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान गणेश जी ने उन्हें दर्शन दिए.
और चतुर्थी तिथि का संयोग जब भी मंगलवार अर्थात अंगारक के साथ आएगा वह तिथि अंगारकी गणेश चतुर्थी के नाम से संबोधित होने का आशिर्वाद प्रदान किया. इसी कारण मंगलवार के दिन चतुर्थी तिथि होने पर यह चतुर्थी अंगारक कहलाती है. श्री गणेश जी की पूजा समस्त देव पूजित हो जाते हैं, यदि इस दिन ‘ ऊं गं गौं गणपतये नम:’ का जाप करता है, तो निश्चय ही व्यक्ति को समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है




बद्रीनाथ जी की जय

श्री बद्रीनाथ जी की जय,श्री बद्रीनाथ जी की जय,श्री बद्रीनाथ जी की जय,
पवन मन्द सुगंधशीतल हेम मंदिर शोभितम निकट गंगा बहत निर्मल श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम शेष सुमिरन करत निशिदिन धरतध्यान महेश्वरम श्री वेद ब्रह्मा करद स्तुति श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम शक्ति गौरी गणेश शारद नारद मुनि उच्चारणम योग ध्यान अपार लीला श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम इन्द्र, चन्द्र कुबेर, धुनिकर, धूपदीप प्रकाशितम सिद्ध मुनिजन करत जै-जै श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम यक्ष किन्नर करत कौतुक ज्ञान गन्धर्व प्रकाशितम कैलाश में एक देव निरंजन शैल शिखर महेश्वरम राजा युधिष्ठर करत स्तुति श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम श्री बद्रीजी के पंचरत्न पढ़त पाप विनाशनम कौटि तीर्थ भवेत पुण्य प्राप्येत फलदायकम।

श्रीनाथजी की जय हो


श्रीनाथजी की जय हो, श्रीनाथजी की जय हो,श्रीनाथजी की जय हो,
मारा घटमां बिराजता श्रीनाथजी, यमुनाजी, महाप्रभुजी मारु मनडुं छे गोकुळ वनरावन मारा तनना आंगणियामां तुलसीनां वन मारा प्राण जीवन….मारा घटमां. मारा आतमना आंगणे श्रीमहाकृष्णजी मारी आंखो दीसे गिरिधारी रे धारी मारु तन मन गयुं छे जेने वारी रे वारी हे मारा श्याम मुरारि…..मारा घटमां.
हे मारा प्राण थकी मने वैष्णव व्हाला नित्य करता श्रीनाथजीने काला रे वाला में तो वल्लभ प्रभुजीनां कीधां छे दर्शन मारुं मोही लीधुं मन…..मारा घटमां.
ुं तो नित्य विठ्ठल वरनी सेवा रे करुं हुं तो आठे समा केरी झांखी रे करुं में तो चितडुं श्रीनाथजीने चरणे धर्युं जीवन सफळ कर्युं … मारा घटमां.
में तो पुष्टि रे मारग केरो संग रे साध्यो मने धोळ किर्तन केरो रंग रे लाग्यो में तो लालानी लाली केरो रंग रे मांग्यो हीरलो हाथ लाग्यो … मारा घटमां.
आवो जीवनमां ल्हावो फरी कदी ना मळे वारे वारे मानवदेह फरी न मळे फेरो लख रे चोर्यासीनो मारो रे फळे मने मोहन मळे … मारा घटमां...


सरस्वती ,,या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दितासा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5   1॥शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌। हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌ वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥
जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2
मां शारदे! हंसासिनी!वागीश! वीणावादिनी!मुझको अगम स्वर-ज्ञान दो।।माँ सरस्वती! वरदान दो।।निष्काम हो मन कामना,मेरी सफल हो साधना,नव गति, नई लय तान दो।माँ सरस्वती! वरदान दो।।हो सत्य जीवन-सारथी,तेरी करूँ नित आरती,समृद्धि, सुख, सम्मान दो।माँ सरस्वती! वरदान दो।।मन, बुद्धि, हृदय पवित्र हो,मेरा महान चरित्र हो,विद्या, विनय, बल दान दो।माँ सरस्वती! वरदान दो।।सौ वर्ष तक जीते रहें,सुख-अमिय हम पीते रहें,निज चरण में सुस्थान दो।माँ सरस्वती! वरदान दो।।यह विश्व ही परिवार हो,सबके लिए सम प्यार हो,'आदेश' लक्ष्य महान दो।माँ सरस्वती! वरदान दो।।
!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

शुभ रात्रि जग मे सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम

शुभ रात्रि जग मे सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम बोलो राम राम राम, बोलो शाम शाम श्याम माखन ब्रिज मे एक चुरावे, एक बेर भीलनी के खावे प्रेम् भावः से भरे अनोखे दोनों के है काम चाहे कृष्ण कहो या राम एक कंस पापी को मारे, एक दुष्ट रावन संहारे दोनों दिन के दुःख हरत है दोनों बल के धाम चाहे कृष्ण कहो या राम एक राधिका के संग राजे , एक जानकी संग विराजेचाहे सीता राम कहो या बोलो राधे श्याम

नवरात्रि व्रत,,, Navratri नवरात्र व्रत दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमश:

 नवरात्रि  व्रत,,,  Navratri  नवरात्र व्रत
दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमश: शैलपुत्री, ब्रम्ह्चारिणी, चंद्रघण्टा, कूश्माण्डी,स्कंदमाता,कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धदात्री का उल्लेख मिलता है। उमा, पार्वती, रम्भा, तोतला और त्रिपुरा उल्लेखनीय है। द्वादश गौरी के नाम और उनके आयुध निम्नानुसार है :-१. उमा :- अक्षसूत्र, पद्म, दर्पण, कमंडलु।२. पार्वती :- वाहन सिंह और दोनों पार्श्वों में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु। ३. गौरी :- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु। ४. ललिता :- भाूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु। ५. श्रिया :- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा। ६. कृश्णा :- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड। ७. महे वरी :- पद्म और दर्पण। ८. रम्भा :- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश। ९. सावित्री :- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु। १०. त्रिशण्डा या श्रीखण्डा :- अक्षसूत्र, वज्र, भाक्ति और कमण्डलु। ११. तोतला :- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर। १२. त्रिपुरा :- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।

 DURGA MAA by VISHNU108

Sunday 26 May 2013

वामन का स्वण धारण किया।


देवताओं की कार्य सिद्धि के लिये भगवान ने वामन का स्वण धारण किया। इसलिये यह पुराण वामन पुराण कहलाया। वामन के दो अर्थ हैं, पहला-ब्राह्मण एवं दूसरा-छोटा, अर्थात् बावन उंगल। भगवान ने ब्राह्मण बालक का बौना स्वरूप बनाया इसलिये वे वामन कहलाये। वामन पुराण में 10 हजार श्लोक तथा दो भाग - पूर्व भाग एवं उत्तर भाग हैं। जिसमें से वर्तमान में केवल एक भाग पूर्व भाग ही प्राप्त होता है। जिसमें 6 हजार श्लोकों का वर्णन है।
पुराने समय की बात है जब राजा बलि ने स्वर्ग पर आक्रमण कर न केवल स्वर्ग पर अपितु पूरे त्रिलोकी को अपने अधीन कर लिया। देवराज इन्द्र व समस्त देवता स्वर्ग से भयभीत होकर भागते हुये गुरू बृहस्पति के पास पहूँचे एवं अपना पूरा हाल सुनाया। गुरू बृहस्पति ने बताया कि बलि को भृगुवंशाी ब्राह्ममणों ने अजेय बना दिया है। लेकिन जब भी वह अपने गुरू का अपमान करेगा तब वह अपने परिवार के साथ पाताल लोक को चला जायेगा, तब तक तुम प्रतीक्षा करो।
देवगण निराशा होकर माता अदिती की शरण में आये। माता अदिति महर्षि कश्यप की धर्मपत्नी हुयी। माता अदिति ने महर्षि कश्यप से एक बुद्धिमान पुत्र की कामना की तत्पश्चात् महर्षि कश्यप ने माता अदिति को पयोव्रत नामक व्रत बताया और कहा कि इस व्रत को करने से तुम्हें नारायण के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा। माँ अदिति ने फाल्गुन मास में बड़ी श्रद्धा व नियम से इस व्रत को किया। जिसके प्रभाव से भाद्र पद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि श्रवण नक्षत्र अविचित मुहुर्त की पावन मंगलमय बेला पर भगवान विष्णु माता अदिति के सामने प्रकट हो गये। उनका यह स्वरूप बड़ा अलौकिक था। उनकी चार भुजायें थी। जिसमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुये थे। शरीर पीताम्बरी शोभायमान हो रहा था। गले में वनमाला सुशोभित हो रही थी। माँ अदिति ने भगवान को प्रणाम किया और बालक का स्वरूप धारण करने को कहा। तब भगवान ने वटोवामन का स्वरूप धारण कर लिया और वामन स्वरूप धारण कर बलि महाराज के यज्ञ-मण्डप पर जा पहूँचे।
भगवान वामन का शरीर बड़ा सुन्दर लग रहा था। छोटा-सा उनका शरीर केवल लंगोट धारण किये हुये है, एक हाथ में छाता है, एक हाथ में कमण्डलु है। कान्धे में जनेऊ धारण किया है, पाँव में खड़ाऊ हैं। इतना सुन्दर स्वरूप देखकर बलि महाराज बड़े गदगद होने लगे एवं कहा इतना तेजस्वी ब्राह्मण तो मैंनें अपने जीवन में कभी नहीं देखा। और आकर भगवान के चरणों में गिर पड़े व कहने लगे, ‘‘ब्राह्मण देव, मेरे यहाँ यज्ञ चल रहा है। इस अवसर मैं आपको दान करना चाहता हूँ। आप कुछ भी माँग लीजिये। तब भगवान बोले हे राजन, मुझे धन-सम्पदा कुछ नहीं चाहिये। यदि देना चाहते हो तो मुझे केवल तीन पग भूमि मेरे पाँव से नाप कर दे दीजिये।
गजाश्व भूहिरण्यादि तदार्थिभ्यः प्रद्रीयताम्।
एतावतां त्वहं चार्थी देहि राजन् पदत्रयम्।।
भगवान वामन के कहने पर बलि ने हाथ में जल लेकर तीन पग भूमि देने का संकल्प लिया। तब भगवान ने विराट स्वरूप धारण कर दो पगों में ही पूरे त्रिलोक को नाप लिया एवं तीसरे पग के पूर्ण न होने पर सर्वव्यापी भगवान विष्णु बलि के निकट आकर क्रोधवश बलि से बोले, हे बलि, अब तुम ऋणी हो गये हो क्योंकि तुमने तीन पग भूमि देने का संकल्प लिया है और मुझे केवल दो पग ही भूमि दे पाये हो, बताओ तीसरा पग कहाँ रखूँ?
तब बलि ने कहा प्रभु, अभी आपने मेरे धन और राज्य ही को तो नापा है, आप तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजियेगा। भगवान के नेत्रों से आँसू छलक आये, और बलि से बोले मैं तुम से बहुत प्रसन्न हूँ और आर्शीवाद दिया, तुम अपने पूरे परिवार के साथ सुतल लोक में एक कल्प तक राज्य करो। मैं वहाँ सदा तुम्हें दर्शन देता रहूँगा। भगवान ने दैत्य राज बलि को पुत्र-पत्नी सहित वहाँ से विदा किया और देवताओं को स्वर्ग का राज्य वापिस दिलवाया।
वामन पुराण में भगवान की बहुत सी लीलायें हैं। प्रह्लाद तथा श्रीदामा आदि भक्तों के अद्भूत चरित्रों का वर्णन है तथा सुदर्शन चक्र की कथा, जीमूत वाहन आख्यान, कामदेव दहन, गंगा महत्तम्, ब्रह्मा का मस्तिष्क छेदन, प्रह्लाद एवं भगवान नारायण का युद्ध इत्यादि कथाओं का श्रवण करने से जीव के सिर से समस्त पाप दूर हो जाते हैं।
वामन पुराण कथा सुनने का फल:-
वामन पुराण की कथा सुनने से स्वाभाविक पूण्य लाभ तथा अन्तःकरण की शुद्धि हो जाती है। साथ ही मनुष्य को ऐहिक और पारलौकिक हानि-लाभ का भी यर्थाथ ज्ञान हो जाता है। जीवन से घोर सन्ताप्त को मिटाने वाली अशान्ति, चिन्ता, पाप एवं दुर्गति को दूर करने वाली तथा मोक्ष को प्रदान करने वाली यह अद्भूत वामन पुराण की कथा है।..
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नृसिंह जयंती ,, नरसिंह जयंती,,, Narasimha Jayanthi


 नृसिंह जयंती,पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था. जिस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है. भगवान नृसिंह जयंती की कथा इस प्रकार से है-कथानुसार अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए राक्षसराज हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या करके ब्रह्माजी व शिवजी को प्रसन्न कर उनसे अजेय होने का वरदान प्राप्त कर लिया. उसने बरदान में माँगा कि उसे कोई मनुष्य या देवता राक्षस या फिर जानबर न मार सके, उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात में,नाग, असुर, गन्धर्व, किन्नर आदि से अभय मिले, ऐसा वरदान प्राप्त करते ही अहंकारवश वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा और उन्हें तरह-तरह के यातनाएं और कष्ट देने लगा. उसने ये घोषणा कर ली कि वो स्वम भगवान है, आज से सभी उसकी पूजा करेंगे और उसे भगवान् न मानने वाले को मिलेगा कठोर दंड, हिरण्यकशिपु नें ऋषि मुनियों सहित सभी ईश्वर भक्तों पर अत्याचार शुरू भी कर दिये, जिससे प्रजा अत्यंत दुखी रहती थी. इन्हीं दिनों हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु गर्भवती हुई और उनहोंने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रहलाद रखा गया. राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी बचपन से ही श्री हरि भक्ति से प्रहलाद को गहरा लगाव था. हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद का मन भगवद भक्ति से हटाने के लिए कई असफल प्रयास किए तरह तरह की कठोर यातनाएं दी, पर्वत पर से फिकवा दिया, हाथियों से कुचलवाना चाहा,कारागार और कालकोठरी का भय दिखाने का प्रयास भी किया, परन्तु वह सफल नहीं हो सका. एक बार उसने अपनी बहन होलिका की सहायता से उसे अग्नि में जलाने के प्रयास किया, परन्तु प्रहलाद पर भगवान की असीम कृपा होने के कारण उहोलिका तो जल गयी लेकिन प्रल्हाद सुरक्षित रहे, अंततः एक दिन अत्यंत क्रोधित हो कर हिरण्यकशिपु नें स्वयं अपने दरवार में प्रहलाद को तलवार से मारने का प्रयास किया, तब भगवान नृसिंह पापी के विनाश के लिए और अपने भक्त की रक्षा के लिए महल में ही स्थित खम्भे से प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु को अपने जांघों पर लेते हुए उसके सीने को अपने नाखूनों से फाड़ दिया और अपने भक्त की रक्षा की. शास्त्रों के अनुसार इस दिन यदि कोई व्रत रखते हुए श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवान नृसिंह की सेवा-पूजा करता है तो वह सभी जन्मों के पापों से मुक्त होकर पृथ्वी पर अपनी मनोकामनाओं को पूरा करते हुये, प्रभु के परमधाम को प्राप्त करता है. नरसिंह भगवान को उग्रवीर भी कहा जाता है, जो भी भगवान् नरसिंह जी की भक्ति पूजा करता है भगवान् स्वयं उन भक्तों की रक्षा करते हैं, उन्हें जीवन में कोई आभाव रह ही नहीं सकता, शत्रु स्वमेव नष्ट हो जाते हैं, रोग शोक पास भी नहीं फटकते, जीवन सुखमय हो जाता है, तो वो शुभ घडी आ गयी है जब आप भगवान नरसिंह को प्रसन्न कर कष्टों से मुक्ति पा सकते हैं और पूरी कर सकते हैं जीवन की बड़ी से बड़ी इच्छा
भगवान् नरसिंह की उपासना सौम्य रूप में करनी चाहिए
भगवान नरसिंह के प्रमुख 10 रूप है १) उग्र नरसिंह २) क्रोध नरसिंह ३) मलोल नरसिंह ४) ज्वल नरसिंह ५) वराह नरसिंह ६) भार्गव नरसिंह ७) करन्ज नरसिंह ८) योग नरसिंह ९) लक्ष्मी नरसिंह १०) छत्रावतार नरसिंह/पावन नरसिंह/पमुलेत्रि नरसिंह
दस नामों का उच्चारण करने से कष्टों से मुक्ति और गंभीर रोगों के नाश में लाभ मिलाता है
उनकी प्रतिमा या चित्र की विधिबत पूजा सभी कष्टों का नाश करती है
भगवान नरसिंह जी की पूजा के लिए गूगल,जटामांसी, फल, पुष्प, पंचमेवा, कुमकुम केसर, नारियल, अक्षत व पीताम्बर रखें
गंगाजल, काले तिल, शहद, पञ्च गव्य, व हवन सामग्री का पूजन में प्रयोग सकल लाभ देता है
मूर्ती या चित्र को लकड़ी के बाजोट या पटड़े पर वस्त्र बिछा कर स्थापित करना चाहिए अखंड दीपक की स्थापना मूर्ती की दाहिनी और करनी चाहिए
भगवान नरसिंह को प्रसन्न करने के लिए उनके नरसिंह गायत्री मंत्र का जाप करें
ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्ण दंष्ट्राय धीमहि |तन्नो नरसिंह प्रचोदयात ||
पांच माला के जाप से आप पर भगवान नरसिंह की कृपा होगी
इस महा मंत्र के जाप से क्रूर ग्रहों का ताप शांत होता है
कालसर्प दोष, मंगल, राहु ,शनि, केतु का बुरा प्रभाव नहीं हो पाटा
एक माला सुबह नित्य करने से शत्रु शक्तिहीन हो जाते हैं
संध्या के समय एक माला जाप करने से कवच की तरह आपकी सदा रक्षा होती है
यज्ञ करने से भगवान् नरसिंह शीघ्र प्रसन्न होते हैं
जो बिधि-विधान से पूजा नहीं कर पाते और जो मनो कामना पूरी करना चाहते है, उन्हें बीज मंत्र द्वारा साधना करनी चाहिए
)संपत्ति बाधा नाशक मंत्र
यदि आपने किसी भी तरह की संपत्ति खरीदी है गाड़ी, फ्लेट, जमीन या कुछ और उसके कारण आया संकट या बाधा परेशान कर रही है तो संपत्ति का नरसिंह मंत्र जपें
भगवान नरसिंह या विष्णु जी की प्रतिमा का पूजन करें
धूप दीप पुष्प अर्पित कर प्रार्थना करें
सात दिये जलाएं
हकीक की माला से पांच माला मंत्र का जाप करें
काले रंग के आसन पर बैठ कर ही मंत्र जपें
मंत्र-ॐ नृम मलोल नरसिंहाय पूरय-पूरय
मंत्र जाप संध्या के समय करने से शीघ्र फल मिलता है
2)ऋण मोचक नरसिंह मंत्र
है यदि आप ऋणों में उलझे हैं और आपका जीवन नरक हो गया है, आप तुरंत इस संकट से मुक्ति चाहते हैं तो ऋणमोचक नरसिंह मंत्र का जाप करें
भगवान नरसिंह की प्रतिमा का पूजन करें
पंचोपचार पूजन कर फल अर्पित करते हुये प्रार्थना करें
मिटटी के पात्र में गंगाजल अर्पित करें
हकीक की माला से छ: माला मंत्र का जाप करें
काले रंग के आसन पर बैठ कर ही मंत्र जपें
मंत्र-ॐ क्रोध नरसिंहाय नृम नम:
रात्रि के समय मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है
3)शत्रु नाशक नरसिंह मंत्र
यदि आपको कोई ज्ञात या अज्ञात शत्रु परेशान कर रहा हो तो शत्रु नाश का नरसिंह मंत्र जपें
भगवान विष्णु जी की प्रतिमा का पूजन करें
धूप दीप पुष्प सहित जटामांसी अवश्य अर्पित कर प्रार्थना करें
चौमुखे तीन दिये जलाएं
हकीक की माला से पांच माला मंत्र का जाप करें
काले रंग के आसन पर बैठ कर ही मंत्र जपें
मंत्र-ॐ नृम नरसिंहाय शत्रुबल विदीर्नाय नमः
रात्री को मंत्र जाप से जल्द फल मिलता है
4)यश रक्षक मंत्र
यदि कोई आपका अपमान कर रहा है या किसी माध्यम से आपको बदनाम करने की कोशिश कर रहा है तो यश रक्षा का नरसिंह मंत्र जपें
भगवान नरसिंह जी की प्रतिमा का पूजन करें
कुमकुम केसर गुलाबजल और धूप दीप पुष्प अर्पित कर प्रार्थना करें
सात तरह के अनाज दान में दें
हकीक की माला से सात माला मंत्र का जाप करें
काले रंग के आसन पर बैठ कर ही मंत्र जपें
मंत्र-ॐ करन्ज नरसिंहाय यशो रक्ष
संध्या के समय किया गया मंत्र शीघ्र फल देता है

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्


अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्,,आदिलक्ष्मी सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि चन्द्र सहोदरि हेममये मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि मञ्जुळभाषिणि वेदनुते पङ्कजवासिनि देवसुपूजित सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि आदिलक्ष्मि सदा पालय माम् १ धान्यलक्ष्मी अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि वैदिकरूपिणि वेदमये क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि देवगणाश्रित पादयुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम् २ धैर्यलक्ष्मी जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते भवभयहारिणि पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादयुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम् ३ गजलक्ष्मी जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि सर्वफलप्रद शास्त्रमये रथगज तुरगपदादि समावृत परिजनमण्डित लोकनुते हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित तापनिवारिणि पादयुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम् ४ सन्तानलक्ष्मी अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि रागविवर्धिनि ज्ञानमये गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि स्वरसप्त भूषित गाननुते सकल सुरासुर देवमुनीश्वर मानववन्दित पादयुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम् ५ विजयलक्ष्मी जय कमलासनि सद्गतिदायिनि ज्ञानविकासिनि गानमये अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर- भूषित वासित वाद्यनुते कनकधरास्तुति वैभव वन्दित शङ्कर देशिक मान्य पदे जयजय हे मधुसूदन कामिनि विजयलक्ष्मि सदा पालय माम् ६ विद्यालक्ष्मी प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि शोकविनाशिनि रत्नमये मणिमयभूषित कर्णविभूषण शान्तिसमावृत हास्यमुखे नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि कामित फलप्रद हस्तयुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम् ७ धनलक्ष्मी धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते वेदपुराणेतिहास सुपूजित वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते जयजय हे मधुसूदन कामिनि धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम्,,

नारद जयन्ती,

देवर्षि नारद जयन्ती,हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के प्रथम दिन
देवर्षि नारद ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों मे से एक हैं । उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है । वे भगवान विष्णु के प्रिय भक्तों में से एक माने जाते है।
महायोगी नारद जी ब्रह्मा जी के मानसपुत्र हैं। वे प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं।
भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवज्जप-महती के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है।
भक्ति का प्रसार करते हुए वे अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों का सहयोग करते रहते हैं। ये भगवान् के विशेष कृपापात्र और लीला-सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है।
देवर्षि नारद, व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वायम्भुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित 'भक्तिसूत्र' बहुत महत्वपूर्ण है। नारदजी को अपनी विभूति बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत् गीता के दशम अध्याय में कहते हैं- अश्वत्थ: सर्ववूक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।
नारद के भक्तिसूत्र के अलावा
नारद-महापुराण,
बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता-(स्मृतिग्रंथ),
नारद-परिव्राज कोपनिषद नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं। देविर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है- सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:।
अर्थात सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए।
देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं।..

जय श्री गणेश विघ्न हरण, मंगल करण,

विघ्न हरण, मंगल करण, गणनायक गणराज|रिद्धि सिद्धि सहित पधारजो, म्हारा पूरण करजो काज,,,श्री गणेश प्रार्थना जय जय श्री गणेश दिव्य शारीरम् lजय जय श्री गणेश अज्ञान विनाशंम् lजय जय श्री गणेश सर्व दुख़हरणंम् lजय जय शक्तिपुत्र नम:स्तुते ll

विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल श्री विठ्ठल,जय श्री रुक्मिणी,

श्री विठ्ठल,जय श्री रुक्मिणी,जय श्री विठ्ठल,जय श्री रुक्मिणी,
केशवा माधवा तुझ्या नामात रे गोडवा ||
तुझ्या सारखा तूच देवा | तुला कुणाचा नाही हेवा
वेळोवेळी संकटातुनी तारिसी मानवा ||
वेडा होऊनी भक्तीसाठी | गोप गड्यांसह यमुनाकाठी
नंदाघरच्या गाई हाकीशी गोकुळी यादवा ||
वीर धनुर्धर पार्थासाठी | चक्र सुदर्शन घेऊनी हाती
रथ हाकुनिया पांडवांचा पळविशी कौरवा ||

सरस्वती मंत्र:


सरस्वती मंत्र:या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्र वृस्तावता ।या वीणा वर दण्ड मंडित करा या श्वेत पद्मसना ।।या ब्रह्माच्युत्त शंकर: प्रभृतिर्भि देवै सदा वन्दिता । सा माम पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्या पहा ॥१॥
भावार्थ: जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह श्वेत वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर अपना आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती आप हमारी रक्षा करें।
सरस्वती मंत्र तन्त्रोक्तं देवी सूक्त से :या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेणसंस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
विद्या प्राप्ति के लिये सरस्वती मंत्र: घंटाशूलहलानि शंखमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दघतीं धनान्तविलसच्छीतांशु तुल्यप्रभाम्‌। गौरीदेहसमुद्भवा त्रिनयनामांधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वती मनुमजे शुम्भादि दैत्यार्दिनीम्‌॥
भावार्थ: जो अपने हस्त कमल में घंटा, त्रिशूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण को धारण करने वाली, गोरी देह से उत्पन्ना, त्रिनेत्रा, मेघास्थित चंद्रमा के समान कांति वाली, संसार की आधारभूता, शुंभादि दैत्य का नाश करने वाली महासरस्वती को हम नमस्कार करते हैं। माँ सरस्वती जो प्रधानतः जगत की उत्पत्ति और ज्ञान का संचार करती है।
अत्यंत सरल सरस्वती मंत्र प्रयोग:
प्रतिदिन सुबह स्नान इत्यादि से निवृत होने के बाद मंत्र जप आरंभ करें। अपने सामने मां सरस्वती का यंत्र या चित्र स्थापित करें । अब चित्र या यंत्र के ऊपर श्वेत चंदन, श्वेत पुष्प व अक्षत (चावल) भेंट करें और धूप-दीप जलाकर देवी की पूजा करें और अपनी मनोकामना का मन में स्मरण करके स्फटिक की माला से किसी भी सरस्वती मंत्र की शांत मन से एक माला फेरें।
सरस्वती मूल मंत्र:,ॐ ऎं सरस्वत्यै ऎं नमः।
सरस्वती मंत्र:ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महासरस्वती देव्यै नमः।
सरस्वती गायत्री मंत्र: १ – ॐ सरस्वत्यै विधमहे, ब्रह्मपुत्रयै धीमहि । तन्नो देवी प्रचोदयात। २ – ॐ वाग देव्यै विधमहे काम राज्या धीमहि । तन्नो सरस्वती: प्रचोदयात।
ज्ञान वृद्धि हेतु गायत्री मंत्र :ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
परीक्षा भय निवारण हेतु:ॐ ऐं ह्रीं श्रीं वीणा पुस्तक धारिणीम् मम् भय निवारय निवारय अभयम् देहि देहि स्वाहा।
स्मरण शक्ति नियंत्रण हेतु:ॐ ऐं स्मृत्यै नमः।
विघ्न निवारण हेतु: ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अंतरिक्ष सरस्वती परम रक्षिणी मम सर्व विघ्न बाधा निवारय निवारय स्वाहा।
स्मरण शक्ति बढा के लिए :ऐं नमः भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा।
परीक्षा में सफलता के लिए :१ – ॐ नमः श्रीं श्रीं अहं वद वद वाग्वादिनी भगवती सरस्वत्यै नमः स्वाहा विद्यां देहि मम ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा।
२ -जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी, कवि उर अजिर नचावहिं बानी।
मोरि सुधारिहिं सो सब भांती, जासु कृपा नहिं कृपा अघाती॥
हंसारुढा मां सरस्वती का ध्यान कर मानस-पूजा-पूर्वक निम्न मन्त्र का २१ बार जप करे-” ॐ ऐं क्लीं सौः ह्रीं श्रीं ध्रीं वद वद वाग्-वादिनि सौः क्लीं ऐं श्रीसरस्वत्यै नमः।” विद्या प्राप्ति एवं मातृभाव हेतु:
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥
अर्थातः- देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो।
उपरोक्त मंत्र का जप हरे हकीक या स्फटिक माला से प्रतिदिन सुबह १०८ बार करें, तदुपरांत एक माला जप निम्न मंत्र का करें।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं महा सरस्वत्यै नमः।
देवी सरस्वती के अन्य प्रभावशाली मंत्र
एकाक्षरः
“ऐ”।
द्वियक्षर:
१ “आं लृं”,।
२ “ऐं लृं”।
त्र्यक्षरः
“ऐं रुं स्वों”।
चतुर्क्षर:
“ॐ ऎं नमः।”
नवाक्षरः
“ॐ ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः”।
दशाक्षरः
१ – “वद वद वाग्वादिन्यै स्वाहा”।
२ – “ह्रीं ॐ ह्सौः ॐ सरस्वत्यै नमः”।
एकादशाक्षरः
१ – “ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः”।
२ – “ऐं वाचस्पते अमृते प्लुवः प्लुः”
३ – “ऐं वाचस्पतेऽमृते प्लवः प्लवः”।
एकादशाक्षर-चिन्तामणि-सरस्वतीः
“ॐ ह्रीं ह्स्त्रैं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः”।
एकादशाक्षर-पारिजात-सरस्वतीः
१ – “ॐ ह्रीं ह्सौं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः”।
२ – “ॐ ऐं ह्स्त्रैं ह्रीं ॐ सरस्वत्यै नमः”।
द्वादशाक्षरः
“ह्रीं वद वद वाग्-वादिनि स्वाहा ह्रीं”
अन्तरिक्ष-सरस्वतीः
“ऐं ह्रीं अन्तरिक्ष-सरस्वती स्वाहा”।
षोडशाक्षरः
“ऐं नमः भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा”।
अन्य मंत्र
• ॐ नमः पद्मासने शब्द रुपे ऎं ह्रीं क्लीं वद वद वाग्दादिनि स्वाहा।
• “ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा”।
• “ऐंह्रींश्रींक्लींसौं क्लींह्रींऐंब्लूंस्त्रीं नील-तारे सरस्वति द्रांह्रींक्लींब्लूंसःऐं ह्रींश्रींक्लीं सौं: सौं: ह्रीं स्वाहा”।
• “ॐ ह्रीं श्रीं ऐं वाग्वादिनि भगवती अर्हन्मुख-निवासिनि सरस्वति ममास्ये प्रकाशं कुरु कुरु स्वाहा ऐं नमः”।
• ॐ पंचनद्यः सरस्वतीमयपिबंति सस्त्रोतः सरस्वती तु पंचद्या सो देशे भवत्सरित्।
उपरोक्त आवश्यक मंत्र का प्रतिदिन जाप करने से विद्या की प्राप्ति होती है।
नोट :
स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ कपडे पहन कर मंत्र का जप प्रतिदिन एक माला करें।
ब्राह्म मुहूर्त मे किये गए मंत्र का जप अधिक फलदायी होता हैं। इस्से अतिरीक्त अपनी सुविधाके
अनुशार खाली में मंत्र का जप कर सकते हैं।
मंत्र जप उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके करें।
जप करते समय शरीर का सीधा संपर्क जमीन से न हो इस लिए ऊन के आसन पर बैठकर जप
करें। Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
जमीन के संपर्क में रहकर जप करने से जप प्रभाव हीन होते हैं।

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