Monday 30 October 2017

देवउठनी एकादशी , , तुलसी विवाह,,Devotthan Ekadashi,Tulsi Vivah,,


देवउठनी एकादशी , तुलसी विवाह,,Devotthan Ekadashi,Tulsi Vivah,,9 ,को, पारण (व्रत तोड़ने का) समय 06,,24 ,, से 08,,37

पारण तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समय 14,,39,,
एकादशी तिथि प्रारम्भ 7,,/नवम्बर,,2019 को 09,,54 ,, बजे
एकादशी तिथि समाप्त 8 ,,नवम्बर,,20196 को 12,,24 .बजे
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 ,, 
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में मनाई जाती है। दीपावली के बाद आने वाली कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकादशी, देवउठनी एकादशी, देवउठान एकादशी, देवउठनी ग्यारस अथवा प्रबोधिनी एकादशी आदि नाम से भी जाना जाता है | कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है। कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
शास्त्रों में वर्णित है कि आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयनी एकादशी से भगवान विष्णु चार मास तक पाताललोक में शयन करते हैं और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागते हैं। संसार के पालनहार श्रीहरि विष्णु को समस्त मांगलिक कार्यों में साक्षी माना जाता है। पर इनकी निद्रावस्था में हर शुभ कार्य बंद कर दिया जाता है। इसलिए हिंदुओं के समस्त शुभ कार्य भगवान विष्णु के जाग्रत अवस्था में संपन्न करने का विधान धर्मशास्त्रों में वर्णित है। भगवान विष्णु के जागने का दिन है देवोत्थान एकादशी। इसी दिन से सभी शुभ कार्य, विवाह, उपनयन आदि शुभ मुहूर्त देखकर प्रारंभ किए जाते हैं।

आषाढ़ से कार्तिक तक के समय को चातुर्मास कहते हैं। इन चार महीनों में भगवान विष्णु क्षीरसागर की अनंत शैय्या पर शयन करते हैं, इसलिए कृषि के अलावा विवाह आदि शुभ कार्य इस समय तक बंद रहते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से ये चार मास भगवान की निद्राकाल का माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान श्री हरि विष्णु शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर भगवान शयन कर उठते हैं। भगवान जब सोते हैं, तो चारों वर्ण की विवाह, यज्ञ आदि सभी क्रियाएं संपादित नहीं होती। यज्ञोपवीतादि संस्कार, विवाह, दीक्षा ग्रहण, यज्ञ, नूतन गृह प्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म हैं, वे चातुर्मास में त्याज्य माने गए हैं। आषाढ शुक्ल एकादशी को देव-शयन हो जाने के बाद से प्रारम्भ हुए चातुर्मास का समापन तक शुक्ल एकादशी के दिन देवोत्थान-उत्सव होने पर होता है। इस दिन वैष्णव ही नहीं, स्मार्त श्रद्धालु भी बडी आस्था के साथ व्रत करते हैं।

भगवान विष्णु के स्वरुप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व तुलसी विवाह हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है.

पद्मपुराण के पौराणिक कथानुसार राजा जालंधर की पत्नी वृंदा के श्राप से भगवान विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है और भक्तगण इस रूप में भी उनकी पूजा करते हैं.इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को अपने शालिग्राम स्वरुप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था और उसी समय से कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को तुलसी विवाह का उत्सव मनाया जाता है।

पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी विवाह रचाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका विवाह तुलसी जी से किया जाता है. विवाह के बाद नवमी, दशमी तथा एकादशी को व्रत रखा जाता है और द्वादशी तिथि को भोजन करने के विषय में लिखा गया है. कई प्राचीन ग्रंथों के अनुसार शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी की स्थापना की जाती है. कई श्रद्धालु कार्तिक माह की एकादशी को तुलसी विवाह करते हैं और द्वादशी को व्रत अनुष्ठान करते हैं.

देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी विवाह विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं।  देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहावान। कार्तिक, शुक्ल पक्ष, एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है। वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक, शुक्ल पक्ष, नवमी की तिथि ठीक है, परन्तु कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है।

देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन मनाए जानेवाले इस मांगलिक प्रसंग के सुअवसर पर सनातन धर्मावलम्बी घर की साफ़-सफाई करते हैं और रंगोली सजाते हैं. शाम के समय तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मंडप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण स्वरुप शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं और फिर विधि-विधानपूर्वक उनके विवाह को संपन्न कराते हैं. मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को यानी लड़की को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है। तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं। शालिग्राम
को दोनों हाथों में लेकर यजमान लड़के के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं। विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। कार्तिक मास में स्नान करने वाले स्त्रियाँ भी कार्तिक शुक्ल एकादशी को शालिग्राम और तुलसी का विवाह रचाती है। समस्त विधि विधान पूर्वक गाजे बाजे के साथ एक सुन्दर मण्डप के नीचे यह कार्य सम्पन्न होता है विवाह के स्त्रियाँ गीत तथा भजन गाती है ।

कार्तिक माह की देवोत्थान एकादशी से ही विवाह आदि से संबंधित सभी मंगल कार्य आरम्भ हो जाते हैं. इसलिए इस एकादशी के दिन तुलसी विवाह रचाना उचित भी है. कई स्थानों पर विष्णु जी की सोने की प्रतिमा बनाकर उनके साथ तुलसी का विवाह रचाने की बात कही गई है. विवाह से पूर्व तीन दिन तक पूजा करने का विधान है. नवमी,दशमी व एकादशी को व्रत एवं पूजन कर अगले दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को
देना शुभ होता है। लेकिन लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवे दिन तुलसी का विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति बहुत प्रचलित है।

शास्त्रों में कहा गया है कि जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती,वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करें।तुलसी विवाह करने से कन्यादान के समान पुण्यफल की प्राप्ति होती है.

कार्तिक शुक्ल एकादशी पर तुलसी विवाह का विधिवत पूजन करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।हिन्दुओं के संस्कार अनुसार तुलसी को देवी रुप में हर घर में पूजा जाता है. इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि मिलती है. यह बहुत पवित्र मानी जाती है और सभी
पूजाओं में देवी तथा देवताओं को अर्पित की जाती है. सभी कार्यों में तुलसी का पत्ता अनिवार्य माना गया है. प्रतिदिन तुलसी में जल देना तथा उसकी पूजा करना अनिवार्य माना गया है. तुलसी घर-आँगन के वातावरण को सुखमय तथा स्वास्थ्यवर्धक बनाती है.तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है। तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है. आस्थावान भक्तों के अनुसार इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है

तुलसी  शालिग्राम विवाह  कथा
प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह
सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय
किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया,
'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ
सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।

एक अन्य प्रसंग के अनुसार वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, 'हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।' बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।

कथा विस्तार से ,,,,
एक लड़की थी जिसका नाम वृंदा था राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु जी की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा,पूजा किया करती थी.जब वे बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.

एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा - स्वामी आप  युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते में अपना संकल्प नही छोडूगी, जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी,उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गये.

सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि  वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले - भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है.

भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा,वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा,युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है? उन्होंने पूँछा आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया,तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई,उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ,भगवान तुंरत पत्थर के हो गये सबी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्राथना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी.

उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा.तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे.और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है.देवउठनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है|
कथा ,, २  ।।ऐसा माना जाता है कि देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु चार माह की नींद के बाद जागते हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से प्रचलित है कि जब विष्णु भगवान ने शंखासुर नामक राक्षस को मारा था और उस विशेष परिश्रम के कारण उस दिन सो गए थे, उसके बाद वह कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे थे, इसलिए इस दिन उनकी पूजा का विशेष विधान है।इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि

शंखासुर बहुत पराक्रमी दैत्य था इस वजह से लंबे समय तक भगवान विष्णु का युद्ध उससे चलता रहा। अंतत: घमासन युद्ध के बाद भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु ने दैत्य
शंखासुर को मारा था। इस युद्ध से भगवान विष्णु बहुत अधिक थक गए।
तब वे थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर लौटकर सो गए। वे वहां चार महिनों तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागे। तब सभी देवी-देवताओं द्वारा भगवान विष्णु का पूजन किया
गया। इसी वजह से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की इस एकादशी को देवप्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन व्रत-उपवास करने का विधान है।

कथा ,,,,,३  एक बार भगवान विष्णु से उनकी प्रिया लक्ष्मी जी ने आग्रह के भाव में कहा- हे भगवान, अब आप दिन रात जागते हैं। लेकिन, एक बार सोते हैं,तो फिर लाखों-करोड़ों वर्षों के लिए सो जाते हैं। तथा उस
समय समस्त चराचर का नाश भी कर डालते हैं। इसलिए आप नियम से विश्राम किया कीजिए। आपके ऐसा करने से मुझे भी कुछ समय आराम का मिलेगा।

लक्ष्मी जी की बात भगवान को उचित लगी। उन्होंने कहा, तुम ठीक कहती हो। मेरे जागने से सभी देवों और खासकर तुम्हें कष्ट होता है। तुम्हें मेरी सेवा से वक्त नहीं मिलता। इसलिए आज से मैं हर वर्ष
चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करुंगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी।यह मेरी अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी रहेगी। इस दौरान जो भी भक्त मेरे शयन
की भावना कर मेरी सेवा करेंगे, मैं उनके घर तुम्हारे समेत निवास करुंगा।

तुलसी विवाह व्रत कथा
प्राचीन ग्रंथों में तुलसी विवाह व्रत की अनेक कथाएं दी हुई हैं. उन कथाओं में से एक कथा निम्न है. इस कथा के अनुसार एक कुटुम्ब में ननद तथा भाभी साथ रहती थी. ननद का विवाह अभी नहीं हुआ
था. वह तुलसी के पौधे की बहुत सेवा करती थी. लेकिन उसकी भाभी को यह सब बिलकुल भी पसन्द नहीं था. जब कभी उसकी भाभी को अत्यधिक क्रोध आता तब वह उसे ताना देते हुए कहती कि जब
तुम्हारा विवाह होगा तो मैं तुलसी ही बारातियों को खाने को दूंगी और तुम्हारे दहेज में भी तुलसी ही दूंगी.

कुछ समय बीत जाने पर ननद का विवाह पक्का हुआ. विवाह के दिन भाभी ने अपनी कथनी अनुसार बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ दिया और खाने के लिए कहा. तुलसी की कृपा से वह फूटा
हुआ गमला अनेकों स्वादिष्ट पकवानों में बदल गया. भाभी ने गहनों के नाम पर तुलसी की मंजरी से बने गहने पहना दिए. वह सब भी सुन्दर सोने - जवाहरात में बदल गए. भाभी ने वस्त्रों के स्थान पर
तुलसी का जनेऊ रख दिया. वह रेशमी तथा सुन्दर वस्त्रों में बदल गया.

ननद की ससुराल में उसके दहेज की बहुत प्रशंसा की गई. यह बात भाभी के कानों तक भी पहुंची. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसे अब तुलसी माता की पूजा का महत्व समझ आया. भाभी की एक लड़की थी.
वह अपनी लड़की से कहने लगी कि तुम भी तुलसी की सेवा किया करो. तुम्हें भी बुआ की तरह फल मिलेगा. वह जबर्दस्ती अपनी लड़की से सेवा करने को कहती लेकिन लड़की का मन तुलसी सेवा में नहीं
लगता था.
लड़की के बडी़ होने पर उसके विवाह का समय आता है. तब भाभी सोचती है कि जैसा व्यवहार मैने अपनी ननद के साथ किया था वैसा ही मैं अपनी लड़की के साथ भी करती हूं तो यह भी गहनों से लद
जाएगी और बारातियों को खाने में पकवान मिलेंगें. ससुराल में इसे भी बहुत इज्जत मिलेगी. यह सोचकर वह बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ देती है. लेकिन इस बार गमले की मिट्टी, मिट्टी ही रहती है. मंजरी तथा पत्ते भी अपने रुप में ही रहते हैं. जनेऊ भी अपना रुप नहीम बदलता है. सभी लोगों तथा बारातियों द्वारा भाभी की बुराई की जाती है. लड़की के ससुराल वाले भी लड़की की बुराई करते हैं.

भाभी कभी ननद को नहीं बुलाती थी. भाई ने सोचा मैं बहन से मिलकर आता हूँ. उसने अपनी पत्नी से कहा और कुछ उपहार बहन के पास ले जाने की बात कही. भाभी ने थैले में ज्वार भरकर कहा कि
और कुछ नहीं है तुम यही ले जाओ. वह दुखी मन से बहन के पास चल दिया. वह सोचता रहा कि कोई भाई अपने बहन के घर जुवार कैसे ले जा सकता है. यह सोचकर वह एक गौशला के पास रुका और
जुवार का थैला गाय के सामने पलट दिया. तभी गाय पालने वाले ने कहा कि आप गाय के सामने हीरे-मोती तथा सोना क्यों डाल रहे हो. भाई ने सारी बात उसे बताई और धन लेकर खुशी से अपनी बहन
के घर की ओर चल दिया. दोनों बहन-भाई एक-दूसरे को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं.
तुलसी विवाह की पूजन विधि
भगवान विष्णु को चार मास की योग-निद्रा से जगाने के लिए घण्टा ,शंख,मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीचये श्लोक पढकर जगाते हैं-

उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते।
त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत्॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे।
हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमङ्गलम्कुरु॥

संस्कृत बोलने में असमर्थ सामान्य लोग-उठो देवा, बैठो देवा कहकर श्रीनारायण को उठाएं।

श्रीहरिको जगाने के पश्चात् तुलसी विवाह के लिए तुलसी के पौधे का गमले को गेरु आदि से सजाकर उसके चारों ओर ईख (गन्ने) का मंडप बनाकर उसके ऊपर ओढऩी या सुहाग की प्रतीक चुनरी ओढ़ाते हैं। गमले को साड़ी में लपेटकर तुलसी को चूड़ी पहनाकर उनका श्रंगार करते हैं। तत्पश्चात तुलसी के पौधे को अर्ध्य दे कर  शुद्ध घी का दीया जलाना चाहिए. धूप, सिंदूर, चंदन लगाना चाहिए.

श्री गणेश सहित सभी देवी-देवताओं का विधिवत पूजन करें  तथा श्री तुलसी एवं शालिग्रामजी  का षोडशोपचारविधि से पूजा करें। पूजन के करते समय तुलसी मंत्र (तुलस्यै नम:) का जप करें। फिर अनेक प्रकार के फलों के साथ नैवेद्य (भोग) निवेदित करें।  तथा पुष्प अर्पित करने चाहिए.

इसके बाद एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें। भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा कराएं। जैसे विवाह में जो सभी रीति-रिवाज होते हैं उसी तरह तुलसी विवाह के सभी कार्य किए जाते हैं। विवाह से संबंधित मंगल गीत भी गाए जाते हैं।आरती के पश्चात विवाहोत्सव पूर्ण किया जाता है।

तुलसी पूजा करने के कई विधान दिए गए हैं. उनमें से एक तुलसी नामाष्टक का पाठ करने का विधान दिया गया है. तुलसी जी को कई नामों से पुकारा जाता है. इनके आठ नाम मुख्य हैं - वृंदावनी, वृंदा, विश्व पूजिता, विश्व पावनी, पुष्पसारा, नन्दिनी, कृष्ण जीवनी और तुलसी. जो व्यक्ति तुलसी नामाष्टक का नियमित पाठ करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य फल मिलता है. इस नामाष्टक का पाठ पूरे विधान से करना चाहिए. विशेष रुप से कार्तिक माह में इस पाठ को अवश्य ही करना चाहिए.

नामाष्टक पाठ |
वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी.
पुष्पसारा नन्दनीच तुलसी कृष्ण जीवनी.
एतभामांष्टक चैव स्तोत्रं नामर्थं संयुतम.
य: पठेत तां च सम्पूज सौsश्रमेघ फलंलमेता..
संभव हो तो उपवास रखें अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करें। इस एकादशी में रातभर जागकर हरि नाम-संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।

किसी-किसी प्रांत में इस दिन ईख के खेतों में जाकर सिंदूर, अक्षत आदि से ईख की पूजा करते हैं और उसके बाद इस दिन पहले-पहल ईख चूसते हैं। इस दिन भगवान का कीर्तन करना चाहिए, साथ ही शंख, घड़ियाल या थाली बजाकर इस प्रकार भगवान को जगाना चाहिए,
महिमा ।।पद्मपुराणके उत्तरखण्डमें वर्णित एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि-प्रबोधिनी (देवोत्थान) एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है। इस
परमपुण्यप्रदाएकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं तथा व्रती मरणोपरान्त बैकुण्ठ जाता है। इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं,वह
सब अक्षय फलदायक हो जाता है। देवोत्थान एकादशी के दिन व्रतोत्सवकरना प्रत्येक सनातनधर्मी का आध्यात्मिक कर्तव्य है। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

Wednesday 18 October 2017

महालक्ष्मी पूजन की विधि Mahalaxmi Pooja Ki vidhi

महालक्ष्मी पूजन की विधि
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्र सीद मह्यम्।।
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 ,, 
अर्थात्-कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करने वाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होने वाली, भगवान विष्णु की प्रिया, लावण्यमयी तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हे भगवति! मुझ पर प्रसन्न होइए।

विष्णुप्रिया महालक्ष्मी सभी चल-अचल, दृश्य-अदृश्य सम्पत्तियों, सिद्धियों व निधियों की अधिष्ठात्री हैं। जीवन की सफलता, प्रसिद्धि और सम्मान का कारण लक्ष्मीजी ही हैं। चंचला लक्ष्मीजी का स्थिर रहना ही जीवन में उमंग, जोश और उत्साह पैदा करता है। मनुष्य ही नही देवताओं को भी लक्ष्मीजी की प्रसन्नता और कृपादृष्टि की आवश्यकता होती है। लक्ष्मी के रुष्ट हो जाने पर देवता भी श्रीहीन, निस्तेज व भयग्रस्त हो गए।

लक्ष्मीजी का रुष्ट होकर देवलोक का त्याग व इन्द्र का श्रीहीन होना

प्राचीनकाल में दुर्वासा के शाप से इन्द्र, देवता और मृत्युलोक–सभी श्रीहीन हो गए। रूठी हुई लक्ष्मी स्वर्ग का त्याग करके वैकुण्ठ में महालक्ष्मी में विलीन हो गयीं। सभी देवताओं के शोक की सीमा न रही। वे ब्रह्माजी को लेकर भगवान नारायण की शरण में गए। भगवान की आज्ञा मानकर इन्द्रसम्पत्तिस्वरूपा लक्ष्मी अपनी कला से समुद्र की कन्या हुईं। देवताओं व दैत्यों ने मिलकर क्षीरसागर का मन्थन किया। उससे लक्ष्मीजी का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने भगवान विष्णु को वरमाला अर्पित की। फिर देवताओं के स्तवन करने पर लक्ष्मीजी ने उनके भवनों पर केवल दृष्टि डाल दी। इतने से ही दुर्वासा मुनि के शाप से मुक्त होकर देवताओं को असुरों के हाथ में गया राज्य पुन: प्राप्त हो गया।

देवराज इन्द्र ने ‘स्वर्गलक्ष्मी’ किस प्रकार पुन: प्राप्त की, किस विधि से उन्होंने लक्ष्मी का पूजन किया, इसी का वर्णन यहां किया गया है। उस दिव्य विधि का अनुसरण करके हम भी अपने घरों में महालक्ष्मी का आह्वान कर सकें ताकि महालक्ष्मी अपने सहस्त्ररूपों में हमारे घर स्वयं आने के लिए व्याकुल हो उठें और हमारे जीवन के समस्त दु:ख-दारिद्रय दूर हो सकें।

देवराज इन्द्र द्वारा लक्ष्मीजी का सोलह उपचारों से (षोडशोपचार) पूजन

देवराज इन्द्र ने क्षीरसमुद्र के तट पर कलश स्थापना करके गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव व दुर्गा की गन्ध, पुष्प आदि से पूजा की। फिर उन्होंने अपने पुरोहित बृहस्पति तथा ब्रह्माजी द्वारा बताये अनुसार महालक्ष्मी की पूजा की।

इन्द्र द्वारा महालक्ष्मी का ध्यान

देवराज इन्द्र ने पारिजात का चंदन-चर्चित पुष्प लेकर महालक्ष्मी का निम्न प्रकार ध्यान किया।

पराम्बा महालक्ष्मी सहस्त्रदल वाले कमल की कर्णिकाओं पर विराजमान हैं। वे शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति से दीप्तिमान हैं, तपाये हुए सुवर्ण के समान वर्ण वाली, मुखमण्डल पर मन्द-मन्द मुसकान से शोभित, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत तथा पीताम्बर से सुशोभित व सदैव स्थिर रहने वाले यौवन से सम्पन्न हैं। ऐसी सम्पत्तिदायिनी व कल्याणमयी देवी की मैं उपासना करता हूँ।

इस प्रकार ध्यान करके देवराज इन्द्र ने सोलह प्रकार के उपचारों (षोडशोपचार) से लक्ष्मी का पूजन किया। इन्द्र ने मन्त्रपूर्वक विविध प्रकार के उपचार इस प्रकार समर्पित किए
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्ये स्वाहा’

(कुबेर ने इसी मन्त्र से महालक्ष्मी की आराधना करके परम ऐश्वर्य प्राप्त किया था। इसी मन्त्र के प्रभाव से मनु को राजाधिराज की पदवी प्राप्त हुई। प्रियव्रत, उत्तानपाद और राजा केदार इसी मन्त्र को सिद्ध करके ‘राजेन्द्र’ कहलाए।)
मन्त्र सिद्ध होने पर महालक्ष्मी ने इन्द्र को दर्शन दिए। देवराज इन्द्र ने वैदिक स्तोत्रराज से उनकी स्तुति की।

ॐ नमो महालक्ष्म्यै।।
ॐ नम: कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नम:।
कृष्णप्रियायै सततं महालक्ष्म्यै नमो नम:।।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।
सर्वसम्पत्स्वरूपिण्यै सर्वाराध्यै नमो नम:।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नम:।।
कृष्णवक्ष:स्थितायै च कृष्णेशायै नमो नम:।
चन्द्रशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने।।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नम:।
नमो वृद्धिस्वरूपायै वृद्धिदायै नमो नम:।।
वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मी: क्षीरसागरे।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये।।
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता।
सुरभि सागरे जाता दक्षिणा यज्ञकामिनी।।
अर्थात्–देवी कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को नमस्कार है, कृष्णप्रिया महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है। कमलपत्र के समान नेत्रवाली और कमल के समान मुख वाली को बार-बार नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी और वैष्णवी को बार-बार नमस्कार है। सर्वसम्पत्स्वरूपा और सबकी आराध्या को बार-बार नमस्कार है। भगवान श्रीहरि की भक्ति प्रदान करने वाली तथा हर्षदायिनी लक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है। हे रत्नपद्मे! हे शोभने! श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर सुशोभित होने वाली तथा चन्द्रमा की शोभा धारण करने वाली आप कृष्णेश्वरी को बार-बार नमस्कार है। सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी को नमस्कार है। महादेवी को नमस्कार है। वृद्धिस्वरूपिणी महालक्ष्मी को नमस्कार है। वृद्धि प्रदान करने वाली महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है।  आप वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, क्षीरसागर में लक्ष्मी, इन्द्र के स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, राजाओं के भवन में राजलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी और गृहदेवता, सागर के यहां सुरभि तथा यज्ञ के पास दक्षिणा के रूप में विराजमान रहती हैं।

'चंदन धारण करने से नित्य पाप नाश होते हैं, पवित्रता प्राप्त होती है, आपदाएँ समाप्त होती हैं एवं लक्ष्मी का वास बना रहता है।'

(स्वयं के मस्तक पर चंदन या कुंकु से तिलक लगाएँ)।

पूजन हेतु वांछनीय जानकारियाँ
शुभ समय में, शुभ लग्न में पूजन प्रारंभ करें। (दीपावली पूजन की मुहूर्त तालिका पृथक से दी गई है, वहाँ देखें।)

पूजन सामग्री को व्यवस्थित रूप से (पूजन शुरू करने के पूर्व) पूजा स्थल पर जमा कर रख लें, जिससे पूजन में अनावश्यक व्यवधान न हो।

(पूजन सामग्री की सूची भी पृथक से दी गई है, वहाँ देखें।)

सूर्य के रहते हुए अर्थात दिन में पूर्व की तरफ मुँह करके एवं सूर्यास्त के पश्चात उत्तर की तरफ मुँह करके पूजन करना चाहिए।

महालक्ष्मी पूजन लाल ऊनी आसन अथवा कुशा के आसन पर बैठकर करना चाहिए।

पूजन सामग्री में जो वस्तु विद्यमान न हो उसके लिए उस वस्तु का नाम बोलकर 'मनसा परिकल्प समर्पयामि' बोलें।

गणेश पूजन यदि गणेश की मूर्ति न हो तो पृथक सुपारी पर नाड़ा लपेटकर कुंकु लगाकर एक कोरे लाल वस्त्र पर अक्षत बिछाकर, उस पर स्थापित कर गणेश पूजन करें।

पूजन प्रारंभ,,,पवित्रकरण :
पवित्रकरण हेतु बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से स्वयं पर एवं समस्त पूजन सामग्री पर निम्न मंत्र बोलते हुए जल छिड़कें-

'भगवान पुण्डरीकाक्ष का नाम उच्चारण करने से पवित्र अथवा अपवित्र व्यक्ति, बाहर एवं भीतर से पवित्र हो जाता है। भगवान पुण्डरीकाक्ष मुझे पवित्र करें।'
(स्वयं पर व पूजन सामग्री पर जल छिड़कें)

आचमन :  दाहिने हाथ में जल लेकर प्रत्येक मंत्र के साथ एक-एक बार आचमन करें-

पश्चात
ओम्‌ केशवाय नम-ह स्वाहा (आचमन करें)
ओम्‌ माधवाय नम-ह स्वाहा (आचमन करें)
ओम्‌ गोविन्दाय नम-ह स्वाहा (आचमन करें)

निम्न मंत्र बोलकर हाथ धो लें-
ओम्‌ हृषिकेशाय्‌ नम-ह हस्त-म्‌ प्रक्षाल्‌-यामि।

दीपक :
शुद्ध घृत युक्त दीपक जलाएँ (हाथ धो लें)। निम्न मंत्र बोलते हुए कुंकु, अक्षत व पुष्प से दीप-देवता की पूजा करें-

'हे दीप ! तुम देवरूप हो, हमारे कर्मों के साक्षी हो, विघ्नों के निवारक हो, हमारी इस पूजा के साक्षीभूत दीप देव, पूजन कर्म के समापन तक सुस्थिर भाव से आप हमारे निकट प्रकाशित होते रहें।'
(गंध, पुष्प से पूजन कर प्रणाम कर लें)

स्वस्ति-वाचन :
(निम्न मंगल मंत्रों का पाठ करें)

ॐ! हे पूजनीय परब्रह्म परमेश्वर! हम अपने कानों से शुभ सुनें। अपनी आँखों से शुभ ही देखें, आपके द्वारा प्रदत्त हमारी आयु में हमारे समस्त अंग स्वस्थ व कार्यशील रहें। हम लोकहित का कार्य करते रहें।

ॐ ! हे परब्रह्म परमेश्वर ! गगन मंडल व अंतरिक्ष हमारे लिए शांति प्रदाता हो। भू-मंडल शांति प्रदाता हो। जल शांति प्रदाता हो, औषधियाँ आरोग्य प्रदाता हों, अन्न पुष्टि प्रदाता हो। हे विश्व को शक्ति प्रदान करने वाले परमेश्वर ! प्रत्येक स्रोत से जो शांति प्रवाहित होती है। हे विश्व नियंत्रा ! आप वही शांति मुझे प्रदान करें।

श्री महागणपति को नमस्कार, लक्ष्मी-नारायण को नमस्कार, उमा-महेश्वर को नमस्कार, माता-पिता के चरण कमलों को नमस्कार, इष्ट देवताओं को नमस्कार, कुल देवता को नमस्कार, सब देवों को नमस्कार।

संकल्प : दाहिने हाथ में जल, अक्षत और द्रव्य लेकर निम्न वाक्यांश संकल्प हेतु पढ़ें-
(शास्त्रोक्त संकल्प के अभाव में निम्न संकल्प बोलें)

आज दीपावली महोत्सव- शुभ पर्व की इस शुभ बेला में हे, धन वैभव प्रदाता महालक्ष्मी, आपकी प्रसन्नतार्थ यथा उपलब्ध वस्तुओं से आपका पूजन करने का संकल्प करता हूँ। इस पूजन कर्म में महासरस्वती, महाकाली, कुबेर आदि देवों का पूजन करने का भी संकल्प लेता हूँ। इस कर्म की निर्विघ्नता हेतु श्री गणेश का पूजन करता हूँ।'

श्री गणेश पूजन
(अ) श्री गणेश का ध्यान व आवाहन-
श्री गणेशजी! आपको नमस्कार है। आप संपूर्ण विघ्नों की शांति करने वाले हैं। अपने गणों में गणपति, क्रांतदर्शियों में श्रेष्ठ कवि, शिवा-शिव के प्रिय ज्येष्ठ पुत्र, अतिशय भोग और सुख आदि के प्रदाता, हम आपका इस पूजन कर्म में आवाहन करते हैं। हमारी स्तुतियों को सुनते हुए पालनकर्ता के रूप में आप इस सदन में आसीन हों क्योंकि आपकी आराधना के बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं किया जा सकता है। आप यहाँ पधारकर पूजा ग्रहण करें और हमारे इस याग (पूजन कर्म) की रक्षा भी करें।

(पुष्प, अक्षत अर्पित करें)
स्थापना- (अक्षत)
ॐ भूर्भुवः स्वः निधि बुद्धि सहित भगवान गणेश पूजन हेतु आपका आवाहन करता हूँ, यहाँ स्थापित कर आपका पूजन करता हूँ।
(अक्षत अर्पित करें)
पाद्य, आचमन, स्नान पुनः आचमन-
ॐ भूर्भुवः स्वः श्री गणेश आपकी सेवा में पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पुनः आचमन हेतु सुवासित जल समर्पित है। आप इसे ग्रहण करें।
(यह बोलकर आचमनी से जल एक तासक (तसली) में छोड़ दें)

पूजन-
लं पृथ्व्यात्मकम्‌ गंधम्‌ समर्पयामि ।
(कुंकु-चंदन अर्पित करें)
हं आकाशत्मकम्‌ पुष्पं समर्पयामि ।
(पुष्प अर्पित करें)
यं वायव्यात्मकं धूपं आघ्रापयामि ।
(धूप आघ्र्रापित करें)
रं तेजसात्मकं दीपं दर्शयामि ।
(दीपक प्रदर्शित करें)
वं अमृतात्मकं नैवेद्यम्‌ निवेदयामि ।
(नैवेद्य निवेदित करें)
सं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि ।
(तांबूलादि अर्पित करें)

प्रार्थना-
हे गणेश ! यथाशक्ति आपका पूजन किया, मेरी त्रुटियों को क्षमा कर आप इसे स्वीकार करें।

श्री लक्ष्मी पूजन-प्रारंभ

1 .ध्यान एवं आवाहन-
(ध्यान एवं आवाहन हेतु अक्षत, पुष्प प्रदान करें)
परमपूज्या भगवती महालक्ष्मी सहस्र दलवाले कमल की कर्णिकाओं पर विराजमान हैं। इनकी कांति शरद पूर्णिमा के करोड़ों चंद्रमाओं की शोभा को हरण कर लेती है। ये परम साध्वी देवी स्वयं अपने तेज से प्रकाशित हो रही हैं। इस परम मनोहर देवी का दर्शन पाकर मन आनंद से खिल उठता है। वे मूर्तमति होकर संतप्त सुवर्ण की शोभा को धारण किए हुए हैं। रत्नमय आभूषण इनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्होंने पीतांबर पहन रखा है। इस प्रसन्न वदनवाली भगवती महालक्ष्मी के मुख पर मुस्कान छा रही है। ये सदा युवावस्था से संपन्न रहती हैं। इनकी कृपा से संपूर्ण संपत्तियाँ सुलभ हो जाती हैं। ऐसी कल्याणस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मी की हम उपासना करते हैं।

(अक्षत एवं पुष्प अर्पित कर प्रणाम करें) पुनः अक्षत व पुष्प लेकर आवाहन करें-

हे माता! महालक्ष्मी पूजन हेतु मैं आपका आवाहन करता हूँ। आप यहाँ पधारकर पूजन स्वीकार करें।
(अक्षत, पुष्प अर्पित करें)

2.आसन :- (अक्षत)
भगवती महालक्ष्मी ! जो अमूल्य रत्नों का सार है तथा विश्वकर्मा जिसके निर्माता हैं, ऐसा यह विचित्र आसन स्वीकार कीजिए।
(आसन हेतु अक्षत अर्पित करें)

3.पादय एवं अर्घ्य :- ॐ महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपके चरणों में यह पाद्य जल अर्पित है। आपके हस्त में यह अर्घ्य जल अर्पित है।
4.स्नान :- (हल्दी, केशर, अक्षतयुक्त जल)
श्री हरिप्रिये ! यह उत्तम गंधवाले पुष्पों से सुवासित जल तथा सुगंधपूर्ण आमलकी चूर्ण शरीर की सुंदरता बढ़ाने का परम साधन है। आप इस स्नानोपयोगी वस्तु को स्वीकार करें।

ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपके समस्त अंगों में स्नान हेतु यह सुवासित जल अर्पित है।
(श्रीदेवी को स्नान कराएँ)

5.वस्त्र एवं उपवस्त्र :- (वस्त्र)
देवी ! इन कपास तथा रेशम के सूत्र से बने हुए वस्त्रों को आप ग्रहण कीजिए।

ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नतार्थ विभिन्न वस्त्र एवं उपवस्त्र अर्पित करता हूँ।
(श्रीदेवी को वस्त्र व उपवस्त्र अर्पित है)

6.चंदन :- (घिसा हुआ चंदन)
देवी ! सुखदायी एवं सुगंधियुक्त यह चंदन सेवा में समर्पित है, स्वीकार करें।
ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नतार्थ चंदन अर्पित है।
(चंदन अर्पित करें)

7.पुष्पमाला :- (पुष्पों की माला)
विविध ऋतुओं के पुष्पों से गूँथी गई, असीम शोभा की आश्रय तथा देवराज के लिए भी परम प्रिय इस मनोरम माला को स्वीकार करें।

ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नतार्थ विभिन्न पुष्पों की माला अर्पित करता हूँ।
(कमल, लाल गुलाब के पुष्पों की माला अर्पित करें)

8.नाना परिमल द्रव्य :- (अबीर-गुलाल आदि)
देवी ! यही नहीं, किंतु पृथ्वी पर जितने भी अपूर्व द्रव्य शरीर को सजाने के लिए परम उपयोगी हैं, वे दुर्लभ वस्तुएँ भी आपकी सेवा में उपस्थित हैं, स्वीकार करें।

ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नतार्थ विभिन्न नाना परिमल द्रव्य अर्पित करता हूँ।
(अबीर, गुलाल आदि वस्तुएँ अर्पित करें)

9.दशांग धूप :- (सुगंधित धूप बत्ती जलाएँ)
श्रीकृष्णकांते ! वृक्ष का रस सूखकर इस रूप में परिणत हो गया है। इसमें सुगंधित द्रव्य मिला दिए गए हैं। ऐसा यह पवित्र धूप स्वीकार कीजिए।

ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नतार्थ सुगंधित धूप अर्पित करता हूँ।
(सुगंधित धूप बत्ती के धुएँ को आध्रार्पित करें)

10.दीपक :- (घी का दीपक जलाकर हाथ धो लें)
सुरेश्वरी ! जो जगत्‌ के लिए चक्षुस्वरूप है, जिसके सामने अंधकार टिक नहीं सकता तथा जो सुखस्वरूप है, ऐसे इस प्रज्वलित दीप को स्वीकार कीजिए।
ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नतार्थ यह दीप प्रदर्शित है।

11.नैवेद्य :- (विभिन्न मिष्ठान, ऋतुफल व सूखे मेवे आदि)
देवी ! यह नाना प्रकार के उपहार स्वरूप नैवेद्य अत्यंत स्वादिष्ट एवं विविध प्रकार के रसों से परिपूर्ण हैं। कृपया इसे स्वीकार कीजिए। देवी! अन्न को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। प्राण की रक्षा इसी पर निर्भर है। तुष्टि और पुष्टि प्रदान करना इसका सहज गुण है। आप इसे ग्रहण कीजिए। महालक्ष्मी! यह उत्तम पकवान चीनी और घृत से युक्त एवं अगहनी चावल से तैयार हैं। इसे आप स्वीकार कीजिए। देवी! शर्करा और घृत में किया हुआ परम मनोहर एवं स्वादिष्ट स्वस्तिक नामक नैवेद्य है। इसे आपकी सेवा में समर्पित किया है। स्वीकार करें।

ॐ श्री महालक्ष्मी आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नार्थ नैवेद्य एवं सूखे मेवे आदि अर्पित हैं।

(नैवेद्य अर्पित कर, बीच-बीच में जल छोड़ते हुए निम्न मंत्र बोलें) :-
1.ओम प्राणाय स्वाहा।
2.ओम अपानाय स्वाहा।
3.ओम समानाय स्वाहा।
4.ओम उदानाय स्वाहा।
5.ओम व्यानाय स्वाहा।

इसके पश्चात पुनः आचमन हेतु जल छोड़ें

'हे माता! नैवेद्य के उपरांत आचमन ग्रहण करें।'
निम्न बोलकर चंदन अर्पित करें
ॐ हे माता! करोदवर्तन हेतु चंदन अर्पित है।

12.ताम्बूल : (पान का बीड़ा)
हे माता ! यह उत्तम ताम्बूल कर्पूर आदि सुगंधित वस्तुओं से सुवासित है। यह जिह्वा को स्फूर्ति प्रदान करने वाला है, इसे आप स्वीकार कीजिए।

ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। आपकी प्रसन्नार्थ ताम्बूल अर्पित करता हूँ।
(पान का बीड़ा अर्पित करें)

13.दक्षिणा व नारियल :- (द्रव्य व नारियल)
'हे जगजननी ! फलों में श्रेष्ठ यह नारियल एवं हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के गर्भ स्थित अग्नि का बीज यह स्वर्ण आपकी सेवा में अर्पित है। आप इन्हें स्वीकार करें। मुझे शांति व प्रसन्नता प्रदान करें।'

श्री महालक्ष्मी देवी ! आपको नमस्कार है। द्रव्य दक्षिणा एवं श्रीफल आपको अर्पित करता हूँ।
(श्रीफल दक्षिणा सहित अर्पित करें।)

14.आरती : (कपूर की आरती)
'हे माता ! केले के गर्भ से उत्पन्न यह कपूर आपकी आरती हेतु जलाया गया है। आप इस आरती को देखकर मुझे वर प्रदान करें।'

श्री महाकाली देवी आपको नमस्कार है। कपूर निराजन आरती आपको अर्पित है।
(आरती उतारें, आरती लें व हाथ धो लें।)
(नोट :- महाआरती बाद में होगी। पहले नीचे बताए अनुसार पूजन करें।)

देहरी, दवात, कलम, बही-खाता, तिजोरी, तुला एवं दीपावली पूजन

अ. देहरी (विनायक) पूजन
अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान के मुख्य द्वार, घर के प्रवेश द्वार के ऊपर घी में घुले हुए सिंदूर से-
''स्वास्तिक चिन्ह'', ''शुभ-लाभ'',
''श्री गणेशाय नमः''
इत्यादि मंगलसूचक शब्द लिखें। पश्चात्‌ स्वस्तिक चिन्हों पर निम्न मंत्र बोलकर कुंकु, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें-

'ॐ देहली विनायक आपको नमस्कार है।'

ब. दवात (महाकाली) पूजन
दवात पर नाड़ा बाँधें, स्वस्तिक चिन्ह लगाऐँ एवं महालक्ष्मी की दाहिनी ओर रखकर दवात में महाकाली की भावना करें।

'ॐ महाकाली आपको नमस्कार है।'
(जल के छींटे डालें, प्रणाम करें) पश्चात्‌ गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन कर प्रणाम करें :-
'ॐ महाकाली आपको नमस्कार है'
निम्न प्रार्थना करें-
हे जगन्माता कालिके ! तुम वन्दित होने पर भक्तों को सुख प्रदान करती हो एवं रोग इत्यादि हर लेती हो। माता ! जिस तरह तुम जन-जन के भय हर लेती हो, उसी तरह मुझे सौख्य प्रदान करो।'

स. लेखनी (कलम) पूजन
लेखनी (काली स्याही का पेन) पर नाड़ा बाँधकर सामने रखें। कुंकु, अक्षत से पूजन करें। निम्न मंत्र से प्रणाम करें-

ॐ लेखनी-स्थायै देवी आपको नमस्कार है।
जल छींटें, तत्पश्चात प्रार्थना करें :
'परम पिता ब्रह्मा ने आपको लोक हितार्थ निर्मित किया है। आप मेरे हाथों में स्थिर भाव से स्थित रहें।'
द. बही-खाता पूजन
नवीन बहियों एवं खाता पुस्तकों पर केसर युक्त चंदन से अथवा लाल कुंकु से स्वस्तिक चिन्ह बनाएँ। ऊपर 'श्री गणेशाय नमः' लिखें। साथ ही एक कोरी थैली में हल्दी की पाँच गाँठें, कमलगट्टा, अक्षत, दुर्वा, धनिया एवं द्रव्य रखकर, उस पर स्वस्तिक का चिन्ह बनाएँ।

यहाँ पर भगवती, सरस्वती की भावना करके निम्न ध्यान बोलें-
'जो अपने कर कमलों में घंटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, कुन्द के समान जिनकी मनोहर कांति है, जो शुंभ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं, वाणी बीज, जिनका स्वरूप है तथा जो सच्चिदानन्दमय विग्रह से संपन्न हैं, उन भगवती महासरस्वती का मैं ध्यान करता हूँ।'

ध्यान के पश्चात गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें व निम्न मंत्र बोलें-
'ॐ वीणा पुस्तक धारिणी सरस्वती आपको नमस्कार है।'
पश्चात निम्न प्रार्थना करें-
हे सर्वस्वरूपिणी! आपको नमस्कार है। हे मूल प्रकृति स्वरूपा एवं अखिल ज्ञान-सागर आप हमें सद्बुद्धि प्रदान करें।

इ. तिजोरी पूजन
तिजोरी अथवा कीमती आभूषण व नकद द्रव्य रखे जाने वाली पेटी (संदूक) पर स्वस्तिक चिन्ह बनाकर शुभ लाभ लिखें एवं धनपति कुबेर को प्रणाम कर पुष्पं, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन कर प्रार्थना करें-

'हे धन प्रदान करने वाले कुबेर ! आपको नमस्कार है, निधि के अधिपति भगवान कुबेर ! आपकी कृपा से मुझे धन, धान्य संपत्ति प्राप्त हो।'

क. तुला पूजन
सिंदूर से तराजू पर स्वस्तिक बनाएँ, नाड़ा लपेटें एवं निम्न मंत्र बोलें : 'तुला-अधिष्ठात्र देवता आपको नमस्कार है'
यह बोलकर गंध, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें एवं प्रार्थना करें-
'शक्ति एवं सत्य के देवता आपकी प्रसन्नता से हमें धन-धान्य संपत्ति की प्राप्ति हो।'

ख. दीपमाला (दीपावली) पूजन
एक थाली में स्वस्तिक बनाकर उस पर ग्यारह या इक्कीस दीपक प्रज्वलित कर महालक्ष्मी के सम्मुख रखें एवं निम्न मंत्र से गंध, अक्षत, धूप से पूजन करें-
'ॐ दीपावल्यै नमः'
इसके पश्चात गन्ना, सीताफल, साल की धानी, पतासे, ऋतुफल दीपक के सम्मुख रखें, साथ ही श्री गणेश, महालक्ष्मी एवं अन्य देवताओं को भी अर्पित करें। इसके पश्चात पूजित दीपकों को दुकान, घर के विभिन्न हिस्सों में सजाएँ।

15.महाआरती
कपूर एवं घी का दीपक जलाकर महालक्ष्मी की आरती करें-
लक्ष्मीजी की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निसिदिन सेवत, हर-विष्णु विधाता ॥ॐ जय...॥
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग माता ।
सूर्य-चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥ॐ जय...॥
दुर्गारूप निरंजनि, सुख-संपत्ति दाता ।
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता ॥ॐ जय...॥
तुम पाताल निवासिनि तुम ही शुभदाता ।
कर्मप्रभाव प्रकाशिनी भवनिधि की त्राता ॥ॐ जय...॥
जिस घर तुम रहती तहं, सब सद्गुण आता ।
सब संभव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥ॐ जय...॥
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।
खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता ॥ॐ जय...॥
शुभ-गुण मंदिर सुंदर, क्षिरोदधि जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहिं पाता ॥ॐ जय...॥
महालक्ष्मी की आरती, जो कोई नर गाता ।
उर आनंद समाता, पाप उतर जाता ॥ॐ जय...॥
आरती करके शीतलीकरण हेतु जल छोड़ें।
(स्वयं व परिवार के सदस्य आरती लेकर हाथ धो लें।)

16.पुष्पांजलि : (सुगंधित पुष्प हाथों में लेकर बोलें)
'हे माता ! नाना प्रकार के सुगंधित पुष्प मैंने आपको पुष्पांजलि के रूप में अर्पित किए हैं। आप इन्हें स्वीकार करें व मुझे आशीर्वाद प्रदान करें।'

ॐ! श्री महालक्ष्मी आपको नमस्कार है। पुष्पांजलि आपको अर्पित है।
(चरणों में पुष्प अर्पित करें)

17.प्रदक्षिणा : (परिक्रमा करें)
'जाने-अनजाने में जो कोई पाप मनुष्य द्वारा किए गए हैं वे परिक्रमा करते समय पग-पग पर नष्ट होते हैं।'
ॐ श्री महालक्ष्मी ! आपको नमस्कार है। प्रदक्षिणा आपको अर्पित है।
(प्रदक्षिणा करें, दंडवत करें)

18.क्षमा प्रार्थना :
'सबको संपत्ति प्रदान करने वाली माता ! मैं पूजा की विधि नहीं जानता। माँ ! मैं न मंत्र जानता हूँ न यंत्र। अहो! मुझे न स्तुति का ज्ञान है, न आवाहन एवं ध्यान की विधि का पता। मैं स्वभाव से आलसी तुम्हारा बालक हूँ। शिवे ! संसार में कुपुत्र का होना संभव है किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती।

माँ ! नाना प्रकार की पूजन सामग्रियों से कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी। महादेवी ! मेरे समान कोई पातकी नहीं और तुम्हारे समान कोई पापहारिणी नहीं है। किन्हीं कारणों से तुम्हारी सेवा में जो त्रुटि हो गई हो उसे क्षमा करना। हे माता ! ज्ञान अथवा अज्ञान से जो यथाशक्ति तुम्हारा पूजन किया है उसे परिपूर्ण मानना। सजल नेत्रों से यही मेरी विनती है।'

19.समर्पण :
हे देवी ! सुरेश्वरी ! तुम गोपनीय से भी गोपनीय वस्तु की रक्षा करने वाली हो। मेरे निवेदन किए हुए इस पूजन को ग्रहण करो। तुम्हारी कृपा से मुझे अभीष्ट की प्राप्ति हो।
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ओम आनंद ! ओम आनंद !! ओम आनंद !!!
 लक्ष्मी पूजन विधि समाप्त

श्री महालक्ष्मी स्तवकवच पूजा

श्री महालक्ष्मी स्तवकवच पूजा 
नारद उवाच ।आविर्भूय हरिस्तस्मै किं स्तोत्रं कवचं ददौ ।
महालक्ष्म्याश्च लक्ष्मीशस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ १
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 ,, 
नारायण उवाच ।पुष्करे च तपस्तप्त्वा विरराम सुरेश्वरः ।
आविर्बभूव तत्रैव क्लिष्टं दृष्ट्वा हरिः स्वयम् ॥ २॥
तमुवाच हृषीकेशो वरं वृणु यथेप्सितम् ।
स च वव्रे वरं लक्ष्मीमीशस्तस्मै ददौ मुदा ॥ ३॥
वरं दत्त्वा हृषीकेशः प्रवक्तुमुपचक्रमे ।
हितं सत्यं च सारं च परिणामसुखावहम् ॥ ४॥
मधुसूदन उवाच ।गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम् ।
परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम् ॥ ५॥
ब्रह्मणे च पुरा दत्तं विष्टपे च जलप्लुते ।
यद्धृत्वा जगतां श्रेष्ठः सर्वैश्वर्ययुतो विधिः ॥ ६॥
बभूवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुता यतः ।
सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य ऋषिर्विधिः ॥ ७॥
पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं पद्मालया वरा ।
सिद्ध्यैश्वर्यसुखेष्वेव विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ 
यद्धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी भवेत् ।
मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु हरिप्
नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु लोचने ।
केशान्केशवकान्ता च कपालं कमलालया ॥ १०॥
जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं सम्पत्प्रदा सदा ।
ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ११॥
ॐ ह्रीं श्रीं पद्मालयायै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ।
पातु श्रीर्मम कङ्कालं बाहुयुग्मं च ते नमः ॥ १२॥
ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ पातु मे सन्ततं चिरम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा पातु नितम्बकम् ॥ १३॥
ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा सर्वाङ्गं पातु मे सदा ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मां पातु सर्वतः ॥ १४॥
इति ते कथितं वत्स सर्वसम्पत्करं परम् ।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ १५॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स सर्वविजयी भवेत् ॥ १६॥
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन ।
तस्यच्छायेव सततं सा च जन्मनि जन्मनि ॥ १७॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीं स मन्दधीः ।
शतलक्षप्रजापेऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ १८॥
नारायण उवाच ।
दत्त्वा तस्मै च कवचं मन्त्रं वै षोडशाक्षरम् ।
सन्तुष्टश्च जगन्नाथो जगतां हितकारणम् ॥ १९॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै स्वाहा ।
ददौ तस्मै च कृपया चेन्द्राय च महामुने ॥ २०॥
ध्यानं च सामवेदोक्तं गोपनीयं सुदुर्लभम् ।
सिद्धैर्मुनीन्द्रैर्दुष्प्राप्यं ध्रुवं सिद्धिप्रदं शुभम् ॥ २१॥
श्वेतचम्पकवर्णाभां शतचन्द्रसमप्रभाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २२॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकारिकाम् ।
कस्तूरीबिन्दुमध्यस्थं सिन्दूरं भूषणं तथा ॥ २३॥
अमूल्यरत्नरचितकुण्डलोज्ज्वलभूषणम् ।
बिम्रती कबरीभारं मालतीमाल्यशोभितम् ॥ २४॥
सहस्रदलपद्मस्थां स्वस्थां च सुमनोहराम् ।
शान्तां च श्रीहरेः कान्तां तां भजेज्जगतां प्रसूम् ॥ २५॥
ध्यानेनानेन देवेन्द्रो ध्यात्वा लक्ष्मीं मनोहराम् ।
भक्त्या सम्पूज्य तस्यै च चोपचारांस्तु षोडश ॥ २६॥
स्तुत्वाऽनेन स्तवेनैव वक्ष्यमाणेन वासव ।
नत्वा वरं गृहीत्वा च लभिष्यसि च निर्वृतिम् ॥ २७॥
स्तवनं शृणु देवेन्द्र महालक्ष्म्याः सुखप्रदम् ।
कथयामि सुगोप्यं च त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २८॥
नारायण उवाच ।
देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि न क्षमाः स्तोतुमीश्वराः ।
बुद्धेरगोचरां सूक्ष्मां तेजोरूपां सनातनीम् ।
अत्यनिर्वचनीयां च को वा निर्वक्तुमीश्वरः ॥ २९॥
स्वेच्छामयीं निराकारां भक्तानुग्रहविग्रहाम् ।
स्तौमि वाङ्मनसोः पारां किंवाऽहं जगदम्बिके ॥ ३०॥
परां चतुर्णां वेदानां पारबीजं भवार्णवे ।
सर्वसस्याधिदेवीं च सर्वासामपि सम्पदाम् ॥ ३१॥
योगिनां चैव योगानां ज्ञानानां ज्ञानिनां तथा ।
वेदानां वै वेदविदां जननीं वर्णयामि किम् ॥ ३२॥
यया विना जगत्सर्वमबीजं निष्फलं ध्रुवम् ।
यथा स्तनन्धयानां च विना मात्रा सुखं भवेत् ॥ ३३॥
प्रसीद जगतां माता रक्षास्मानतिकातरान् ।
वयं त्वच्चरणाम्भोजे प्रपन्नाः शरणं गताः ॥ ३४॥
नमः शक्तिस्वरूपायै जगन्मात्रे नमो नमः ।
ज्ञानदायै बुद्धिदायै सर्वदायै नमो नमः ॥ ३५
हरिभक्तिप्रदायिन्यै मुक्तिदायै नमो नमः ।
सर्वज्ञायै सर्वदायै महालक्ष्म्यै नमो नमः ॥ ३६॥
कुपुत्राः कुत्रचित्सन्ति न कुत्रापि कुमातरः ।
कुत्र माता पुत्रदोषं तं विहाय च गच्छति ॥ ३७॥
स्तनन्धयेभ्य इव मे हे मातर्देहि दर्शनम् ।
कृपां कुरु कृपासिन्धो त्वमस्मान्भक्तवत्सले ॥ ३८॥
इत्येवं कथितं वत्स पद्मायाश्च शुभावहम् ।
सुखदं मोक्षदं सारं शुभदं सम्पदः प्रदम् ॥ ३९॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं पूजाकाले च यः पठेत् ।
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन ॥ ४०॥
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तं च तत्रैवान्तरधीयत ।
देवो जगाम क्षीरोदं सुरैः सार्धं तदाज्ञया ॥ ४१॥
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॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे लक्ष्मीस्तवकवचपूजाकथनं
नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥

श्री महालक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्रम् अथवा कमलासहस्रनामस्तोत्रम्

श्री महालक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्रम् अथवा कमलासहस्रनामस्तोत्रम्
ॐ तामाह्वयामि सुभगां लक्ष्मीं त्रैलोक्यपूजिताम् ।
एह्येहि देवि पद्माक्षि पद्माकरकृतालये ॥ १॥
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आगच्छागच्छ वरदे पश्य मां स्वेन चक्षुषा ।
आयाह्यायाहि धर्मार्थकाममोक्षमये शुभे ॥ २॥
एवंविधैः स्तुतिपदैः सत्यैः सत्यार्थसंस्तुता ।
कनीयसी महाभागा चन्द्रेण परमात्मना ॥ ३॥
निशाकरश्च सा देवी भ्रातरौ द्वौ पयोनिधेः ।
उत्पन्नमात्रौ तावास्तां शिवकेशवसंश्रितौ ॥ ४॥
सनत्कुमारस्तमृषिं समाभाष्य पुरातनम् ।
प्रोक्तवानितिहासं तु लक्ष्म्याः स्तोत्रमनुत्तमम् ॥ ५॥
अथेदृशान्महाघोराद् दारिद्र्यान्नरकात्कथम् ।
मुक्तिर्भवति लोकेऽस्मिन् दारिद्र्यं याति भस्मताम् ॥ ६॥
सनत्कुमार उवाच -पूर्वं कृतयुगे ब्रह्मा भगवान् सर्वलोककृत् ।
सृष्टिं नानाविधां कृत्वा पश्चाच्चि न्तामुपेयिवान् ॥ ७॥
किमाहाराः प्रजास्त्वेताः सम्भविष्यन्ति भूतले ।
तथैव चासां दारिद्र्यात्कथमुत्तरणं भवेत् ॥ ८॥
दारिद्र्यान्मरणं श्रेयस्ति्वति सञ्चिन्त्य चेतसि ।
क्षीरोदस्योत्तरे कूले जगाम कमलोद्भवः ॥ ९॥
तत्र तीव्रं तपस्तप्त्वा कदाचित्परमेश्वरम् ।
ददर्श पुण्डरीकाक्षं वासुदेवं जगद्गुरुम् ॥ १०॥
सर्वज्ञं सर्वशक्तीनां सर्वावासं सनातनम् ।
सर्वेश्वरं वासुदेवं विष्णुं लक्ष्मीपतिं प्रभुम् ॥ ११॥
सोमकोटिप्रतीकाशं क्षीरोद विमले जले ।
अनन्तभोगशयनं विश्रान्तं श्रीनिकेतनम् ॥ १२॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशं महायोगेश्वरेश्वरम् ।
योगनिद्रारतं श्रीशं सर्वावासं सुरेश्वरम् ॥ १३॥
जगदुत्पत्तिसंहारस्थितिकारणकारणम् ।
लक्ष्म्यादि शक्तिकरणजातमण्डलमण्डितम् ॥ १४॥
आयुधैर्देहवद्भिश्च चक्राद्यैः परिवारितम् ।
दुर्निरीक्ष्यं सुरैः सिद्धः महायोनिशतैरपि ॥ १५॥
आधारं सर्वशक्तीनां परं तेजः सुदुस्सहम् ।
प्रबुद्ध ं देवमीशानं दृष्ट्वा कमलसम्भवः ॥ १६॥
शिरस्यञ्जलिमाधाय स्तोत्रं पूर्वमुवाच ह ।
मनोवाञ्छितसिद्धि ं त्वं पूरयस्व महेश्वर ॥ १७॥
जितं ते पुण्डरीक्ष नमस्ते विश्वभावन ।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश महापुरुषपूर्वज ॥ १८॥
सर्वेश्वर जयानन्द सर्वावास परात्पर ।
प्रसीद मम भक्तस्य छिन्धि सन्देहजं तमः ॥ १९॥
एवं स्तुतः स भगवान् ब्रह्म णाऽव्यक्तजन्मना ।
प्रसादाभिमुखः प्राह हरिर्विश्रान्तलोचनः ॥ २०॥
श्रीभगवानुवाच -
हिरण्यगर्भ तुष्टोऽस्मि ब्रूहि यत्तेऽभिवाञ्छितम् ।
तद्वक्ष्यामि न सन्देहो भक्तोऽसि मम सुव्रत ॥ २१॥
केशवाद्वचनं श्रुत्वा करुणाविष्टचेतनः ।
प्रत्युवाच महाबुद्धिर्भगवन्तं जनार्दनम् ॥ २२॥
चतुर्विधं भवस्यास्य भूतसर्गस्य केशव ।
परित्राणाय मे ब्रूहि रहस्यं परमाद्भुतम् ॥ २३॥
दारिद्र्यशमनं धन्यं मनोज्ञं पावनं परम् ।
सर्वेश्वर महाबुद्ध स्वरूपं भैरवं महत् ॥ २४॥
श्रियः सर्वातिशायिन्यास्तथा ज्ञानं च शाश्वतम् ।
नामानि चैव मुख्यानि यानि गौणानि चाच्युत ॥ २५॥
त्वद्वक्त्रकमलोत्थानि श्रेतुमिच्छामि तत्त्वतः ।
इति तस्य वचः श्रुत्वा प्रतिवाक्यमुवाच सः ॥ २६॥
श्रीभगवानुवाच -
महाविभूतिसंयुक्ता षाड्गुण्यवपुषः प्रभो ।
भगवद्वासुदेवस्य नित्यं चैषाऽनपायिनी ॥ २७॥
एकैव वर्ततेऽभिन्ना ज्योत्स्नेव हिमदीधितेः ।
सर्वशक्त्यात्मिका चैव विश्वं व्याप्य व्यवस्थिता ॥ २८॥
सर्वैश्वर्यगुणोपेता नित्यशुद्ध स्वरूपिणी ।
प्राणशक्तिः परा ह्येषा सर्वेषां प्राणिनां भुवि ॥ २९॥
शक्तीनां चैव सर्वासां योनिभूता परा कला ।
अहं तस्याः परं नाम्नां सहस्रमिदमुत्तमम् ॥ ३०॥
शृणुष्वावहितो भूत्वा परमैश्वर्यभूतिदम् ।
देव्याख्यास्मृतिमात्रेण दारिद्र्यं याति भस्मताम् ॥ ३१॥
अथ महालक्ष्मीसह्सरनामस्तोत्रम् अथवा कमलासहस्रनामस्तोत्रम् ।
श्रीः पद्मा प्रकृतिः सत्त्वा शान्ता चिच्छक्तिरव्यया ।
केवला निष्कला शुद्धा व्यापिनी व्योमविग्रहा ॥ १॥
व्योमपद्मकृताधारा परा व्योमामृतोद्भवा ।
निर्व्योमा व्योममध्यस्था पञ्चव्योमपदाश्रिता ॥ २॥
अच्युता व्योमनिलया परमानन्दरूपिणी ।
नित्यशुद्धा नित्यतृप्ता निर्विकारा निरीक्षणा ॥ ३॥
ज्ञानशक्तिः कर्तृशक्तिर्भोक्तृशक्तिः शिखावहा ।
स्नेहाभासा निरानन्दा विभूतिर्विमलाचला ॥ ४॥
अनन्ता वैष्णवी व्यक्ता विश्वानन्दा विकासिनी ।
शक्तिर्विभिन्नसर्वार्तिः समुद्रपरितोषिणी ॥ ५॥
मूर्तिः सनातनी हार्दी निस्तरङ्गा निरामया ।
ज्ञानज्ञेया ज्ञानगम्या ज्ञानज्ञेयविकासिनी ॥ ६॥
स्वच्छन्दशक्तिर्गहना निष्कम्पार्चिः सुनिर्मला ।
स्वरूपा सर्वगा पारा बृंहिणी सुगुणोर्जिता ॥ ७॥
अकलङ्का निराधारा निःसंकल्पा निराश्रया ।
असंकीर्णा सुशान्ता च शाश्वती भासुरी स्थिरा ॥ ८॥
अनौपम्या निर्विकल्पा नियन्त्री यन्त्रवाहिनी ।
अभेद्या भेदिनी भिन्ना भारती वैखरी खगा ॥ ९॥
अग्राह्या ग्राहिका गूढा गम्भीरा विश्वगोपिनी ।
अनिर्देश्या प्रतिहता निर्बीजा पावनी परा ॥ १०॥
अप्रतर्क्या परिमिता भवभ्रान्तिविनाशिनी ।
एका द्विरूपा त्रिविधा असंख्याता सुरेश्वरी ॥ ११॥
सुप्रतिष्ठा महाधात्री स्थितिर्वृद्धिर्ध्रुवा गतिः ।
ईश्वरी महिमा ऋद्धिः प्रमोदा उज्ज्वलोद्यमा ॥ १२॥
अक्षया वर्द्धमाना च सुप्रकाशा विहङ्गमा ।
नीरजा जननी नित्या जया रोचिष्मती शुभा ॥ १३॥
तपोनुदा च ज्वाला च सुदीप्तिश्चांशुमालिनी ।
अप्रमेया त्रिधा सूक्ष्मा परा निर्वाणदायिनी ॥ १४॥
अवदाता सुशुद्धा च अमोघाख्या परम्परा ।
संधानकी शुद्धविद्या सर्वभूतमहेश्वरी ॥ १५॥
लक्ष्मीस्तुष्टिर्महाधीरा शान्तिरापूरणानवा ।
अनुग्रहा शक्तिराद्या जगज्ज्येष्ठा जगद्विधिः ॥ १६॥
सत्या प्रह्वा क्रिया योग्या अपर्णा ह्लादिनी शिवा ।
सम्पूर्णाह्लादिनी शुद्धा ज्योतिष्मत्यमृतावहा ॥ १७॥
रजोवत्यर्कप्रतिभाऽऽकर्षिणी कर्षिणी रसा ।
परा वसुमती देवी कान्तिः शान्तिर्मतिः कला ॥ १८॥
कला कलङ्करहिता विशालोद्दीपनी रतिः ।
सम्बोधिनी हारिणी च प्रभावा भवभूतिदा ॥ १९॥
अमृतस्यन्दिनी जीवा जननी खण्डिका स्थिरा ।
धूमा कलावती पूर्णा भासुरा सुमतीरसा ॥ २०॥
शुद्धा ध्वनिः सृतिः सृष्टिर्विकृतिः कृष्टिरेव च ।
प्रापणी प्राणदा प्रह्वा विश्वा पाण्डुरवासिनी ॥ २१॥
अवनिर्वज्रनलिका चित्रा ब्रह्माण्डवासिनी ।
अनन्तरूपानन्तात्मानन्तस्थानन्तसम्भवा ॥ २२॥
महाशक्तिः प्राणशक्तिः प्राणदात्री ऋतम्भरा ।
महासमूहा निखिला इच्छाधारा सुखावहा ॥ २३॥
प्रत्यक्षलक्ष्मीर्निष्कम्पा प्ररोहाबुद्धिगोचरा ।
नानादेहा महावर्ता बहुदेहविकासिनी ॥ २४॥
सहस्राणी प्रधाना च न्यायवस्तुप्रकाशिका ।
सर्वाभिलाषपूर्णेच्छा सर्वा सर्वार्थभाषिणी ॥ २५॥
नानास्वरूपचिद्धात्री शब्दपूर्वा पुरातनी ।
व्यक्ताव्यक्ता जीवकेशा सर्वेच्छापरिपूरिता ॥ २६॥
संकल्पसिद्धा सांख्येया तत्त्वगर्भा धरावहा ।
भूतरूपा चित्स्वरूपा त्रिगुणा गुणगर्विता ॥ २७॥
प्रजापतीश्वरी रौद्री सर्वाधारा सुखावहा ।
कल्याणवाहिका कल्या कलिकल्मषनाशिनी ॥ २८॥
नीरूपोद्भिन्नसंताना सुयन्त्रा त्रिगुणालया ।
महामाया योगमाया महायोगेश्वरी प्रिया ॥ २९॥
महास्त्री विमला कीर्तिर्जया लक्ष्मीर्निरञ्जना ।
प्रकृतिर्भगवन्माया शक्तिर्निद्रा यशस्करी ॥ ३०॥
चिन्ता बुद्धिर्यशः प्रज्ञा शान्तिः सुप्रीतिवर्द्धिनी ।
प्रद्युम्नमाता साध्वी च सुखसौभाग्यसिद्धिदा ॥ ३१॥
काष्ठा निष्ठा प्रतिष्ठा च ज्येष्ठा श्रेष्ठा जयावहा ।
सर्वातिशायिनी प्रीतिर्विश्वशक्तिर्महाबला ॥ ३२॥
वरिष्ठा विजया वीरा जयन्ती विजयप्रदा ।
हृद्गृहा गोपिनी गुह्या गणगन्धर्वसेविता ॥ ३३॥
योगीश्वरी योगमाया योगिनी योगसिद्धिदा ।
महायोगेश्वरवृता योगा योगेश्वरप्रिया ॥ ३४॥
ब्रह्मेन्द्ररुद्रनमिता सुरासुरवरप्रदा ।
त्रिवर्त्मगा त्रिलोकस्था त्रिविक्रमपदोद्भवा ॥ ३५॥
सुतारा तारिणी तारा दुर्गा संतारिणी परा ।
सुतारिणी तारयन्ती भूरितारेश्वरप्रभा ॥ ३६॥
गुह्यविद्या यज्ञविद्या महाविद्या सुशोभिता ।
अध्यात्मविद्या विघ्नेशी पद्मस्था परमेष्ठिनी ॥ ३७॥
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिर्नयात्मिका ।
गौरी वागीश्वरी गोप्त्री गायत्री कमलोद्भवा ॥ ३८॥
विश्वम्भरा विश्वरूपा विश्वमाता वसुप्रदा ।
सिद्धिः स्वाहा स्वधा स्वस्तिः सुधा सर्वार्थसाधिनी ॥ ३९॥
इच्छा सृष्टिर्द्युतिर्भूतिः कीर्तिः श्रद्धा दयामतिः ।
श्रुतिर्मेधा धृतिर्ह्रीः श्रीर्विद्या विबुधवन्दिता ॥ ४०॥
अनसूया घृणा नीतिर्निर्वृतिः कामधुक्करा ।
प्रतिज्ञा संततिर्भूतिर्द्यौः प्रज्ञा विश्वमानिनी ॥ ४१॥
स्मृतिर्वाग्विश्वजननी पश्यन्ती मध्यमा समा ।
संध्या मेधा प्रभा भीमा सर्वाकारा सरस्वती ॥ ४२॥
काङ्क्षा माया महामाया मोहिनी माधवप्रिया ।
सौम्याभोगा महाभोगा भोगिनी भोगदायिनी ॥ ४३॥
सुधौतकनकप्रख्या सुवर्णकमलासना ।
हिरण्यगर्भा सुश्रोणी हारिणी रमणी रमा ॥ ४४॥
चन्द्रा हिरण्मयी ज्योत्स्ना रम्या शोभा शुभावहा ।
त्रैलोक्यमण्डना नारी नरेश्वरवरार्चिता ॥ ४५॥
त्रैलोक्यसुन्दरी रामा महाविभववाहिनी ।
पद्मस्था पद्मनिलया पद्ममालाविभूषिता ॥ ४६॥
पद्मयुग्मधरा कान्ता दिव्याभरणभूषिता ।
विचित्ररत्नमुकुटा विचित्राम्बरभूषणा ॥ ४७॥
विचित्रमाल्यगन्धाढ्या विचित्रायुधवाहना ।
महानारायणी देवी वैष्णवी वीरवन्दिता ॥ ४८॥
कालसंकर्षिणी घोरा तत्त्वसंकर्षिणीकला ।
जगत्सम्पूरणी विश्वा महाविभवभूषणा ॥ ४९॥
वारुणी वरदा व्याख्या घण्टाकर्णविराजिता ।
नृसिंही भैरवी ब्राह्मी भास्करी व्योमचारिणी ॥ ५०॥
ऐन्द्री कामधेनुः सृष्टिः कामयोनिर्महाप्रभा ।
दृष्टा काम्या विश्वशक्तिर्बीजगत्यात्मदर्शना ॥ ५१॥
गरुडारूढहृदया चान्द्री श्रीर्मधुरानना ।
महोग्ररूपा वाराही नारसिंही हतासुरा ॥ ५२॥
युगान्तहुतभुग्ज्वाला कराला पिङ्गलाकला ।
त्रैलोक्यभूषणा भीमा श्यामा त्रैलोक्यमोहिनी ॥ ५३॥
महोत्कटा महारक्ता महाचण्डा महासना ।
शङ्खिनी लेखिनी स्वस्था लिखिता खेचरेश्वरी ॥ ५४॥
भद्रकाली चैकवीरा कौमारी भवमालिनी ।
कल्याणी कामधुग्ज्वालामुखी चोत्पलमालिका ॥ ५५॥
बालिका धनदा सूर्या हृदयोत्पलमालिका ।
अजिता वर्षिणी रीतिर्भरुण्डा गरुडासना ॥ ५६॥
वैश्वानरी महामाया महाकाली विभीषणा ।
महामन्दारविभवा शिवानन्दा रतिप्रिया ॥ ५७॥
उद्रीतिः पद्ममाला च धर्मवेगा विभावनी ।
सत्क्रिया देवसेना च हिरण्यरजताश्रया ॥ ५८॥
सहसावर्तमाना च हस्तिनादप्रबोधिनी ।
हिरण्यपद्मवर्णा च हरिभद्रा सुदुर्द्धरा ॥ ५९॥
सूर्या हिरण्यप्रकटसदृशी हेममालिनी ।
पद्मानना नित्यपुष्टा देवमाता मृतोद्भवा ॥ ६०॥
महाधना च या शृङ्गी कर्द्दमी कम्बुकन्धरा ।
आदित्यवर्णा चन्द्राभा गन्धद्व
वराचिता वरारोहा वरेण्या विष्णुवल्लभा ।
कल्याणी वरदा वामा वामेशी विन्ध्यवासिनी ॥
योगनिद्रा योगरता देवकी कामरूपिणी ।
कंसविद्राविणी दुर्गा कौमारी कौशिकी क्षमा ॥ ६३॥
कात्यायनी कालरात्रिर्निशितृप्ता सुदुर्जया ।
विरूपाक्षी विशालाक्षी भक्तानांपरिरक्षिणी ॥ ६४॥
बहुरूपा स्वरूपा च विरूपा रूपवर्जिता ।
घण्टानिनादबहुला जीमूतध्वनिनिःस्वना ॥ ६५॥
महादेवेन्द्रमथिनी भ्रुकुटीकुटिलानना ।
सत्योपयाचिता चैका कौबेरी ब्रह्मचारिणी ॥ ६६॥
आर्या यशोदा सुतदा धर्मकामार्थमोक्षदा ।
दारिद्र्यदुःखशमनी घोरदुर्गार्तिनाशिनी ॥ ६७॥
भक्तार्तिशमनी भव्या भवभर्गापहारिणी ।
क्षीराब्धितनया पद्मा कमला धरणीधरा ॥ ६८॥
रुक्मिणी रोहिणी सीता सत्यभामा यशस्विनी ।
प्रज्ञाधारामितप्रज्ञा वेदमाता यशोवती ॥ ६९॥
समाधिर्भावना मैत्री करुणा भक्तवत्सला ।
अन्तर्वेदी दक्षिणा च ब्रह्मचर्यपरागतिः ॥ ७०॥
दीक्षा वीक्षा परीक्षा च समीक्षा वीरवत्सला ।
अम्बिका सुरभिः सिद्धा सिद्धविद्याधरार्चिता ॥ ७१॥
सुदीक्षा लेलिहाना च कराला विश्वपूरका ।
विश्वसंधारिणी दीप्तिस्तापनी ताण्डवप्रिया ॥ ७२॥
उद्भवा विरजा राज्ञी तापनी बिन्दुमालिनी ।
क्षीरधारासुप्रभावा लोकमाता सुवर्चसा ॥ ७३॥
हव्यगर्भा चाज्यगर्भा जुह्वतोयज्ञसम्भवा ।
आप्यायनी पावनी च दहनी दहनाश्रया ॥ ७४॥
मातृका माधवी मुख्या मोक्षलक्ष्मीर्महर्द्धिदा ।
सर्वकामप्रदा भद्रा सुभद्रा सर्वमङ्गला ॥ ७५॥
श्वेता सुशुक्लवसना शुक्लमाल्यानुलेपना ।
हंसा हीनकरी हंसी हृद्या हृत्कमलालया ॥ ७६॥
सितातपत्रा सुश्रोणी पद्मपत्रायतेक्षणा ।
सावित्री सत्यसंकल्पा कामदा कामकामिनी ॥ ७७॥
दर्शनीया दृशा दृश्या स्पृश्या सेव्या वराङ्गना ।
भोगप्रिया भोगवती भोगीन्द्रशयनासना ॥ ७८॥
आर्द्रा पुष्करिणी पुण्या पावनी पापसूदनी ।
श्रीमती च शुभाकारा परमैश्वर्यभूतिदा ॥ ७९॥
अचिन्त्यानन्तविभवा भवभावविभावनी ।
निश्रेणिः सर्वदेहस्था सर्वभूतनमस्कृता ॥ ८०॥
बला बलाधिका देवी गौतमी गोकुलालया ।
तोषिणी पूर्णचन्द्राभा एकानन्दा शतानना ॥ ८१॥
उद्याननगरद्वारहर्म्योपवनवासिनी ।
कूष्माण्डा दारुणा चण्डा किराती नन्दनालया ॥ ८२॥
कालायना कालगम्या भयदा भयनाशिनी ।
सौदामनी मेघरवा दैत्यदानवमर्दिनी ॥ ८३॥
जगन्माता भयकरी भूतधात्री सुदुर्लभा ।
काश्यपी शुभदाता च वनमाला शुभावरा ॥ ८४॥
धन्या धन्येश्वरी धन्या रत्नदा वसुवर्द्धिनी ।
गान्धर्वी रेवती गङ्गा शकुनी विमलानना ॥ ८५॥
इडा शान्तिकरी चैव तामसी कमलालया ।
आज्यपा वज्रकौमारी सोमपा कुसुमाश्रया ॥ ८६॥
जगत्प्रिया च सरथा दुर्जया खगवाहना ।
मनोभवा कामचारा सिद्धचारणसेविता ॥ ८७॥
व्योमलक्ष्मीर्महालक्ष्मीस्तेजोलक्ष्मीः सुजाज्वला ।
रसलक्ष्मीर्जगद्योनिर्गन्धलक्ष्मीर्वनाश्रया ॥ ८८॥
श्रवणा श्रावणी नेत्री रसनाप्राणचारिणी ।
विरिञ्चिमाता विभवा वरवारिजवाहना ॥ ८९॥
वीर्या वीरेश्वरी वन्द्या विशोका वसुवर्द्धिनी ।
अनाहता कुण्डलिनी नलिनी वनवासिनी ॥ ९०॥
गान्धारिणीन्द्रनमिता सुरेन्द्रनमिता सती ।
सर्वमङ्गल्यमाङ्गल्या सर्वकामसमृद्धिदा ॥ ९१॥
सर्वानन्दा महानन्दा सत्कीर्तिः सिद्धसेविता ।
सिनीवाली कुहू राका अमा चानुमतिर्द्युतिः ॥ ९२॥
अरुन्धती वसुमती भार्गवी वास्तुदेवता ।
मायूरी वज्रवेताली वज्रहस्ता वरानना ॥ ९३॥
अनघा धरणिर्धीरा धमनी मणिभूषणा ।
राजश्री रूपसहिता ब्रह्मश्रीर्ब्रह्मवन्दिता ॥ ९४॥
जयश्रीर्जयदा ज्ञेया सर्गश्रीः स्वर्गतिः सताम् ।
सुपुष्पा पुष्पनिलया फलश्रीर्निष्कलप्रिया ॥ ९५॥
धनुर्लक्ष्मीस्त्वमिलिता परक्रोधनिवारिणी ।
कद्रूर्द्धनायुः कपिला सुरसा सुरमोहिनी ॥ ९६॥
महाश्वेता महानीला महामूर्तिर्विषापहा ।
सुप्रभा ज्वालिनी दीप्तिस्तृप्तिर्व्याप्तिः प्रभाकरी ॥ ९७॥
तेजोवती पद्मबोधा मदलेखारुणावती ।
रत्ना रत्नावली भूता शतधामा शतापहा ॥ ९८॥
त्रिगुणा घोषिणी रक्ष्या नर्द्दिनी घोषवर्जिता ।
साध्या दितिर्दितिदेवी मृगवाहा मृगाङ्कगा ॥ ९९॥
चित्रनीलोत्पलगता वृषरत्नकराश्रया ।
हिरण्यरजतद्वन्द्वा शङ्खभद्रासनास्थिता ॥ १००॥
गोमूत्रगोमयक्षीरदधिसर्पिर्जलाश्रया ।
मरीचिश्चीरवसना पूर्णा चन्द्रार्कविष्टरा ॥ १०१॥
सुसूक्ष्मा निर्वृतिः स्थूला निवृत्तारातिरेव च ।
मरीचिज्वालिनी धूम्रा हव्यवाहा हिरण्यदा ॥ १०२॥
दायिनी कालिनी सिद्धिः शोषिणी सम्प्रबोधिनी ।
भास्वरा संहतिस्तीक्ष्णा प्रचण्डज्वलनोज्ज्वला ॥ १०३॥
साङ्गा प्रचण्डा दीप्ता च वैद्युतिः सुमहाद्युतिः ।
कपिला नीलरक्ता च सुषुम्णा विस्फुलिङ्गिनी ॥ १०४
अर्चिष्मती रिपुहरा दीर्घा धूमावली जरा ।
सम्पूर्णमण्डला पूषा स्रंसिनी सुमनोहरा ॥ १०५
जया पुष्टिकरीच्छाया मानसा हृदयोज्ज्वला ।
सुवर्णकरणी श्रेष्ठा मृतसंजीविनीरणे ॥ १०६
विशल्यकरणी शुभ्रा संधिनी परमौषधिः ।
ब्रह्मिष्ठा ब्रह्मसहिता ऐन्दवी रत्नसम्भवा ॥ १०७
विद्युत्प्रभा बिन्दुमती त्रिस्वभावगुणाम्बिका ।
नित्योदिता नित्यहृष्टा नित्यकामकरीषिणी ॥ १०८
पद्माङ्का वज्रचिह्ना च वक्रदण्डविभासिनी ।
विदेहपूजिता कन्या माया विजयवाहिनी ॥ १०९॥
मानिनी मङ्गला मान्या मालिनी मानदायिनी ।
विश्वेश्वरी गणवती मण्डला मण्डलेश्वरी ॥ ११०॥
हरिप्रिया भौमसुता मनोज्ञा मतिदायिनी ।
प्रत्यङ्गिरा सोमगुप्ता मनोऽभिज्ञा वदन्मतिः ॥ १११
यशोधरा रत्नमाला कृष्णा त्रैलोक्यबन्धनी ।
अमृता धारिणी हर्षा विनता वल्लकी शची ॥ ११
संकल्पा भामिनी मिश्रा कादम्बर्यमृतप्रभा ।
अगता निर्गता वज्रा सुहिता संहिताक्षता ॥ ११३
सर्वार्थसाधनकरी धातुर्धारणिकामला ।
करुणाधारसम्भूता कमलाक्षी शशिप्रिया ॥ ११४
सौम्यरूपा महादीप्ता महाज्वाला विकाशिनी ।
माला काञ्चनमाला च सद्वज्रा कनकप्रभा ॥ ११५
प्रक्रिया परमा योक्त्री क्षोभिका च सुखोदया ।
विजृम्भणा च वज्राख्या शृङ्खला कमलेक्षणा ॥ ११६
जयंकरी मधुमती हरिता शशिनी शिवा ।
मूलप्रकृतिरीशानी योगमाता मनोजवा ॥ ११७
धर्मोदया भानुमती सर्वाभासा सुखावहा ।
धुरन्धरा च बाला च धर्मसेव्या तथागता ॥ ११
सुकुमारा सौम्यमुखी सौम्यसम्बोधनोत्तमा ।
सुमुखी सर्वतोभद्रा गुह्यशक्तिर्गुहालया ॥ ११९
हलायुधा चैकवीरा सर्वशस्त्रसुधारिणी ।
व्योमशक्तिर्महादेहा व्योमगा मधुमन्मयी ॥ १२०॥
गङ्गा वितस्ता यमुना चन्द्रभागा सरस्वती ।
तिलोत्तमोर्वशी रम्भा स्वामिनी सुरसुन्दरी ॥ १२१॥
बाणप्रहरणावाला बिम्बोष्ठी चारुहासिनी ।
ककुद्मिनी चारुपृष्ठा दृष्टादृष्टफलप्रदा ॥ १२२॥
काम्याचरी च काम्या च कामाचारविहारिणी ।
हिमशैलेन्द्रसंकाशा गजेन्द्रवरवाहना ॥ १२३॥
अशेषसुखसौभाग्यसम्पदा योनिरुत्तमा ।
सर्वोत्कृष्टा सर्वमयी सर्वा सर्वेश्वरप्रिया ॥ १२४॥
सर्वाङ्गयोनिः साव्यक्ता सम्प्रधानेश्वरेश्वरी ।
विष्णुवक्षःस्थलगता किमतः परमुच्यते ॥ १२५॥
परा निर्महिमा देवी हरिवक्षःस्थलाश्रया ।
सा देवी पापहन्त्री च सान्निध्यं कुरुतान्मम ॥ १२६॥
इति नाम्नां सहस्रं तु लक्ष्म्याः प्रोक्तं शुभावहम् ।
परावरेण भेदेन मुख्यगौणेन भागतः ॥ १२७॥
यश्चैतत् कीर्तयेन्नित्यं शृणुयाद् वापि पद्मज ।
शुचिः समाहितो भूत्वा भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥ १२८॥
श्रीनिवासं समभ्यर्च्य पुष्पधूपानुलेपनैः ।
भोगैश्च मधुपर्काद्यैर्यथाशक्ति जगद्गुरुम् ॥ १२९॥
तत्पार्श्वस्थां श्रियं देवीं सम्पूज्य श्रीधरप्रियाम् ।
ततो नामसहस्रोण तोषयेत् परमेश्वरीम् ॥ १३०॥
नामरत्नावलीस्तोत्रमिदं यः सततं पठेत् ।
प्रसादाभिमुखीलक्ष्मीः सर्वं तस्मै प्रयच्छति ॥ १३१॥
यस्या लक्ष्म्याश्च सम्भूताः शक्तयो विश्वगाः सदा ।
कारणत्वे न तिष्ठन्ति जगत्यस्मिंश्चराचरे ॥ १३२॥
तस्मात् प्रीता जगन्माता श्रीर्यस्याच्युतवल्लभा ।
सुप्रीताः शक्तयस्तस्य सिद्धिमिष्टां दिशन्ति हि ॥ १३३॥
एक एव जगत्स्वामी शक्तिमानच्युतः प्रभुः ।
तदंशशक्तिमन्तोऽन्ये ब्रह्मेशानादयो यथा ॥ १३४॥
तथैवैका परा शक्तिः श्रीस्तस्य करुणाश्रया ।
ज्ञानादिषाङ्गुण्यमयी या प्रोक्ता प्रकृतिः परा ॥ १३५॥
एकैव शक्तिः श्रीस्तस्या द्वितीयात्मनि वर्तते ।
परा परेशी सर्वेशी सर्वाकारा सनातनी ॥ १३६॥
अनन्तनामधेया च शक्तिचक्रस्य नायिका ।
जगच्चराचरमिदं सर्वं व्याप्य व्यवस्थिता ॥ १३७॥
तस्मादेकैव परमा श्रीर्ज्ञेया विश्वरूपिणी ।
सौम्या सौम्येन रूपेण संस्थिता नटजीववत् ॥ १३८॥
यो यो जगति पुम्भावः स विष्णुरिति निश्चयः ।
या या तु नारीभावस्था तत्र लक्ष्मीर्व्यवस्थिता ॥ १३९॥
प्रकृतेः पुरुषाच्चान्यस्तृतीयो नैव विद्यते ।
अथ किं बहुनोक्तेन नरनारीमयो हरिः ॥ १४०॥
अनेकभेदभिन्नस्तु क्रियते परमेश्वरः ।
महाविभूतिं दयितां ये स्तुवन्त्यच्युतप्रियाम् ॥ १४१॥
ते प्राप्नुवन्ति परमां लक्ष्मीं संशुद्धचेतसः ।
पद्मयोनिरिदं प्राप्य पठन् स्तोत्रमिदं क्रमात् ॥ १४२॥
दिव्यमष्टगुणैश्वर्यं तत्प्रसादाच्च लब्धवान् ।
सकामानां च फलदामकामानां च मोक्षदाम् ॥ १४३॥
पुस्तकाख्यां भयत्रात्रीं सितवस्त्रां त्रिलोचनाम् ।
महापद्मनिषण्णां तां लक्ष्मीमजरतां नमः ॥ १४४॥
करयुगलगृहीतं पूर्णकुम्भं दधाना
क्वचिदमलगतस्था शङ्खपद्माक्षपाणिः ।
क्वचिदपि दयिताङ्गे चामरव्यग्रहस्ता
क्वचिदपि सृणिपाशं बिभ्रती हेमकान्तिः ॥ १४५॥
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॥ इत्यादिपद्मपुराणे काश्मीरवर्णने हिरण्यगर्भहृदये
सर्वकामप्रदायकं पुरुषोत्तमप्रोक्तं
श्रीलक्ष्मीसहस्रनामस्तोत्रं समाप्तम् ॥

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