Monday 31 December 2018

रत्न भगाएं रोग रत्न,,कई बीमारियों को नष्ट हैं

रत्न भगाएं रोग रत्न,,कई बीमारियों को नष्ट हैं ,   
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,,रोगोपचार में भी इनका महत्व है क्योंकि रत्न भी उन्हीं तत्वों और यौगिकों के सम्मिश्रण से बने हैं जिनसे मानव देह और ब्रह्मांड। अपने यौगिकों के अनुसार ही इन रत्नों का रंग होता है। अपनी आकर्षण एवं विकर्षण शक्तियों के द्वारा शरीर में विभिन्न तत्वों का संतुलन बनाए रखने में ये सक्षम होते हैं तथा जिस तत्व (दोष या मल) की वृद्धि से शरीर में विकृति (रोग) उत्पन्न हुई हो उसे नियंत्रित करते हैं। रत्न धारण से स्वास्थ्य लाभ और रोगोपचार तो होता ही है, आयुर्वेद में भी विभिन्न रत्नों की भस्म आदि के द्वारा रोगी का उपचार होता है। रत्न धारण में रत्नों के द्वारा विभिन्न रंगों की बह्मांडीय ग्रह रश्मियों, किरणों को शरीर में प्रविष्ट कराकर विसर्जित किया जाता है, क्योंकि रत्न इसके सशक्त माध्यम हैं। विद्वानों ने विभिन्न रत्नों का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है और किस रत्न से किस रोग की शांति होती है इस पर व्यापक अनुसंधान किया है। माणिक्य, पद्मराग या याकूत: यह सूर्य का रत्न है। वैसे तो सूर्य में सातों रंग हैं, लेकिन लाल रंग मुख्य है। इसीलिए नंगे वदन सूर्य स्नान (प्रातः काल) स्वास्थ्यवर्द्धक माना गया है। माणिक्य शरीर में सभी धातुओं को पुष्ट कर उसे स्वस्थ रखता है, जीवनी शक्ति बढ़ा कर दीर्घायु प्रदान करता है। रक्त को बढ़ाने वाला और आत्मशक्ति तथा आत्मविश्वासदायक है। हृदय रोग, विशेषकर उच्च रक्तचाप, में माणिक्य धारण करना अत्यंत लाभकारी है। नेत्र दोष में भी, यदि गर्मी से बढ़ता हो, तो लाभकारी है। यह साहस बढ़ाता है। आयुर्वेद के अनुसार नपुंसकता, धातुक्षीणता, हृदयरोग, मन्दाग्नि, क्षय, जननेन्द्रिय की शिथिलता, रक्ताल्पता, तथा पांडुरोग (पीलिया) में विशेष लाभदायक है तथा बल-वीर्यवर्धक है। रक्ताल्पता की महौषधि है। नाड़ी की गति बढ़ाता है और शरीर को रोग से लड़ने की शक्ति देता है। मोती, मुक्ता या मोतिया: इसका मुख्य कार्य मन तथा मस्तिष्क को नियंत्रित करना है, अतः यह मन और मस्तिष्क के रोगियों के लिए अत्यंत उपयोगी है। नेत्र दोष में भी (यदि शीत से रोग बढ़ता हो) यह विशेष लाभकारी है। मूच्र्छा, मिरगी, दंतरोग, पायरिया, हृदय रोग, कम्पवायु, श्वास रोग, कफज रोग, क्षय, खांसी इत्यादि में विशेष लाभदायक है। यह वीर्यवर्द्धक है तथा मूत्रदोष में भी लाभकारक है। यह कैल्शियम को बढ़ाता है।

चंद्रमा ,,,के समान ही शीतलता और शांतिदायक है। मूंगा, प्रवाल या मिरजान: इस का मुख्य कार्य रक्त दोष निवारण है। दूषित रक्त को शुद्ध करना, विष को दूर करना, घाव, चोट, फोड़ा-फुंसी आदि के क्षत चिह्नों को शीघ्र पूरा करना, रक्त स्राव को नियंत्रित करना, गर्भ स्राव को रोकना, मासिक धर्म को नियमित करना, आदि इसके मुख्य कार्य हैं। कैंसर तथा रक्त कैंसर में यह विशेष प्रभावकारी है। शरीर की कांति को बढ़ाता है और भूख जगाता है। आयुर्वेद के अनुसार विषम ज्वर (मलेरिया) में यह ताप को शांत करता है। कफ विकार, पित्त विकार, दाह, उन्माद, भूतबाधा, रक्तचाप, हृदय रोग, नेत्र विकार, क्षय, कुक्कुरखांसी, चेचक, खसरा आदि से बचाव में विशेष लाभकारी है। वर्ण चिकित्सा पद्धति के अनुसार सिंदूरी रंग अर्थात देशी मूंगा गुर्दे तथा कर्मेंद्रिय को उत्तेजित करता है जबकि नारंगी रंग रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। ऐंठन, जकड़न में लाभदायक है। कैल्शियम चयापचय में अभिवृद्धि तथा फेफड़े, अग्न्याशय (पैंक्रियाज) एवं प्लीहा को सशक्त बनाता है। नाड़ी की गति बढ़ाता है किंतु रक्त चाप को नियंत्रित रखता है। पन्ना, मरकत, ताक्ष्र्य, मारूत्मत या जमूरन: पन्ने के तत्व शरीर में बढ़ जाने से पिट्युइटरी ग्रंथि और मांसपेशियों पर कुप्रभाव पड़ता है। पन्ना हृदय में उत्तम और शुद्ध भावनाओं को जन्म देता है। मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाना और रक्त धमनियों का विस्तार इसका मुख्य कार्य है। त्वचा, मांस, बालों, नसों, हड्डियों पर इस का विशेष रूप से प्रभाव पड़ता है और इन्हें पुष्ट कर के शरीर को शक्तिशाली बनाने में सहायक होता है। इसके साथ ही त्वचा रोग (चर्मरोग), नसों के दोष, हड्डी के रोग, मांस के विकार (कुष्ठ), बालों के गिरने, टूटने, सफेद होने आदि से बचाव में लाभकारी है। फिरोजी रंग का पन्ना अथवा फिरोजा त्वचा में होने वाले किसी भी रोग से बचाव में लाभकारी है। साइनुसाइटिस के उपचार में उपयोगी है।

पन्ना,,,, पित्त रोग से बचाव में भी लाभकारी है। आयुर्वेद के अनुसार यह सन्निपात ज्वर, विषविकार, वमन, प्यास, अम्लपित्त, पांडु, मलावरोध, शोथ, मंदाग्नि, हृदय रोग, स्मरणशक्ति की कमी आदि से मुक्ति में लाभकारी है। गरुड़ महापुराण के अनुसार जो विष किसी औषधि या मंत्र से दूर न हो, वह इससे दूर होता है।
पुखराज या पुष्पराग: यह भी मानसिक रोगों में विशेष रूप से लाभदायक है। बुद्धि तथा विद्या एवं विवेक शक्ति बढ़ाने में यह परम उपयोगी है। मन मस्तिष्क में अकारण एवं निरर्थक उपजने वाले भय, भ्रम, संशय, मोह और -भूत-प्रेत बाधा, जादू-टोना आदि के संशय एवं चिंता से मुक्ति में यह अत्यंत लाभकारी है। यह रत्न यदि हल्के रंग में हो तो मस्तिष्क के सेरिब्रल भाग को अनुप्राणित करने वाला तथा अम्ल, पित्त शामक होता है। गहरे रंग का पुखराज मोटर तंत्रिकाओं की क्रियाशीलता बढ़ाने, मांसपेशियों को मजबूत बनाने और पाचन संस्थान को नियंत्रित करने में भी लाभकारी होता है। यह मांस बढ़ाने वाला और मांस दोष से मुक्ति में लाभकारक है।

पुखराज ,,की ग्रह रश्मियों (पीली) की वृद्धि होने पर पित्त दोष के बढ़ने, आंतों और पाचन क्रिया की प्रणाली में गड़बड़ी उत्पन्न होने, सन्निपात तथा हृदय रोग (उच्च रक्तचाप) बढ़ने की संभावना होती है। आयुर्वेद के अनुसार पुखराज विषविकार, वमन, कफ, वात, मंदाग्नि, दाह, कुष्ठ, बवासीर में लाभदायक है। कीटाणुनाशक, पित्तवर्धक, जठराग्नि उद्दीपक एवं बुद्धि-वीर्यवर्द्धक है। हीरा, वज्र या अलिमास: हीरे का सर्वाधिक प्रभाव वीर्य, प्रजनन अंगों एवं संबंधित रोगों, स्त्री रोगों (स्वप्नदोष, प्रमेह, प्रसूति, नपुंसकता, मूत्र दोष आदि) पर पड़ता है। रक्त, लार, मज्जा और शुक्र को पुष्ट करने तथा इनसे संबंधित रोगों के निवारण में यह विशेष सहायक है। नेत्र और मस्तिष्क रोगों से मुक्ति में भी लाभदायक है।

हीरे ,,के पुरुष, स्त्री, नपुंसक नाम से भी तीन भेद हैं। बड़े आकार का गोल हीरा पुरुष संज्ञक और उत्तम होता है। षट्कोण का हीरा स्त्री संज्ञक होता है। तिकोना तथा बड़े आकार का हीरा नपुंसक कहलाता है। आयुर्वेद के अनुसार हीरा शरीर को पुष्ट करता है। यह बलवर्धक, कामोत्तेजक और वात, पित्त, कुष्ठ, क्षय, भ्रम, कफ, शोथ, प्रमेह, भगंदर तथा पांडुरोग (पीलिया) से बचाव में लाभदायक है

कुछ विद्वानों के मत से स्त्रियों को पुत्र की कामना से त्रिकोण या सिंघाड़े के आकार का हीरा पहनना चाहिए। कुछ विद्वानों के अनुसार हीरा धारण करने से युद्ध में विजय, शत्रु वशीकरण, तेज में वृद्धि, सुख, विद्या लाभ और संपत्ति आदि लाभ होते है। बिजली का भय नहीं होता, अकाल मृत्यु नहीं होती, जादू टोने का प्रभाव नहीं होता, मिरगी में लाभ होता है। विषैले जीवों का भय कम होता है।

नीलम,,, नीलमणि, दाक्षायण, नीलाविल याकूत: नीलम का मुख्य प्रभाव शरीर के संचालन पर पड़ता है। नीलम के तत्व शरीर में ऐसे कारण है- जिस के कारण ही मानव शरीर के अवयवों को हिलाडुला सकता है एवं शरीर में ऐसी सामथ्र्य रहती है जिस के तत्व की कमी से शरीर अपंग एवं अशक्त हो जाएगा। मिरगी, पक्षाघात, पोलियो, वात, रक्तचाप ,अल्प. से बचाव में यह परम लाभकारी है। यह नेत्र ज्योति भी बढ़ाता है। यह शरीर में चयापचय को बढ़ाता है। मस्तिष्क की उच्चतम स्थिति अर्थात अंतप्र्रज्ञा को जगाता है। त्वचा के जलने में आराम देता है।
जामुनी और बैंगनी रंग का नीलम (व इसका उपरत्न लाजवर्त) रक्त कोशिकाओं के शोधन में और पोटैशियम की मात्रा को संतुलित रखने में सहायक होता है। तीव्र भूख लगने के रोग से बचाव में लाभदायक है। ट्यूमर को रोकने में भी यह सहायक है। आयुर्वेद के अनुसार खांसी (कफ ज्यादा) दमा, मलेरिया सन्निपात, शुक्राणु दोष बवासीर आदि से मुक्ति में भी लाभकारी है।

गोमेद,,, सीलोबी, मेदक या गोमेदकः यह निरर्थक भय, मानसिक तनाव, अशांति और घबराहट से मुक्ति में फायदेमंद है। अकारण भयभीत एवं उद्विग्न रहने वाले लोगों के लिए यह लाभकारी है। पोटैशियम का संतुलन बनाए रखने और ट्यूमर के विकास को रोकने में भी सहायक है। यह पेट के कीड़े, भगंदर, वायुगोला, सूखी खांसी, क्षय, रक्ताल्पता, पीलिया तथा मंदाग्नि में लाभ करता है।

गुर्दा रोग, पथरी, मिरगी और पेट के अल्सर में परम उपयोगी है। लहसुनिया,,, सूत्रमणि, वैदूर्य: यह शत्रुनाशक, अस्त्र-शस्त्र से रक्षा करने वाला और आत्मशक्तिदायक है। इसके धारण से भूत-प्रेत बाधा और जादू-टोने का प्रभाव नहीं होता है। मन और मस्तिष्क के रोगों में भी यह लाभदायक है।

1,, पन्ना - अच्छी स्मरण शक्ति के लिए धारण करें।
2 ,,नीलम - गठिया, मिर्गी, हिचकी एवं नपुंसकता को नष्ट करता है।
3,, फिरोजा-दैविक आपदाओं से बचाने के लिए फिरोजा धारण करें।
4 मरियम - बवासीर या बहते हुए रक्त को रोकने के लिए।
5 ,,माणिक - रक्त वृद्धि के लिए।
6,, मोती - तनाव व स्नायु रोगों के लिए।
7,, किडनी स्टोन -किडनी रोग निवारण के लिए।
8,, लाड़ली-हृदय रोग, बवासीर एवं नजर रोग के लिए धारण कर सकते हैं।
9 ,मूंगा, मोती - मुंहासों के लिए धारण करें।
10,, पन्ना, नीलम, लाजवर्त-पेप्टीक अल्सर में उपयोगी है।
11,, पुखराज,लाजावर्त्त, मूनस्टोन - दांतों के लिए
12,, माणिक, मोती, पन्ना - सिरदर्द के लिए।
13 ,,गौमेद या मून स्टोन -गले की खराबी के लिए।
14 ,,माणिक, मूंगा, पुखराज - सर्दी, खांसी, बुखार जिसे बार-बार होता है, वह धारण करें।
15 ,,मूंगा, मोती, पुखराज, फिरोजा- दुर्घटना से बचने के लिए...या बार-बार दुर्घटना होने पर धारण करें।
16,, तांबे की चेन - कूकर खांसी के लिए
17,, मूंगा, मोती, पन्ना -मूंगा, मोती, पन्ना एक ही अंगूठी में मोतियाबिंद को नष्ट करने के लिए धारण करें।
18,, मूंगा, पुखराज- कब्ज मुक्ति के लिए।
19,, पन्ना, पुखराज, मूंगा-पन्ना, पुखराज, मूंगा,एक ही अंगूठी में ब्रेन ट्यूमर के लिए धारण करें।
20 ,,मोती, पुखराज - चांदी की चेन में हर्निया के लिए धारण करें।
रत्नों को ऐसे अनेक प्रकार से कई बीमारियों को नष्ट करने के लिए स्वास्थ्य बल प्राप्ति के लिए धारण करते हैं। कोई भी रत्न शुभ-अशुभ दोनों प्रकार से फल प्रदान करता है। अतः अधिक सुखफल प्राप्ति के लिए अपनी कुंडली किसी प्रतिष्ठित ज्योतिषी को दिखाकर रत्न ही धारण करें,,ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,https://www.facebook.com/gemsforeveryone/?ref=bookmarks

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Sunday 11 November 2018

श्री हनुमत्तन्त्रान्तर्गतमन्त्रसमुच्चयः ॐ हं हनुमते नमः

श्री हनुमत्तन्त्रान्तर्गतमन्त्रसमुच्चयः ॐ हं हनुमते नमः https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
ॐ नमो भगवते हनुमते आञ्जनेयाय
महाबलाय स्वाहा ॐ हं हनुमते मुख्यप्राणाय नमः ॐ हूं पवननन्दनाय हनुमते स्वाहा ॐ नमो भगवते हनुमते सर्वभूतात्मने स्वाहा ॐ नमो हरिमर्कटमर्कटमहावीराय स्वाहा ॐ भूभुर्वःसुवः श्रीहनुमते नमः ॐ श्रीहनुमद्देवतायै नमः ॐ श्रीहनुमन्महारुद्राय नमः ॐ ह्रीं श्रीं हौं ह्रां फट् स्वाहा । ॐ हं नमो हनुमते रामदूताय रुद्रात्मकाय स्वाहा ॐ अञ्जनीसुताय महावीर्यप्रमथनाय महाबलाय जानकीशोकनिवारणाय श्रीरामचन्द्रकृपापादुकाय ब्रह्माण्डनाथाय कामदाय पञ्चमुखवीरहनुमते स्वाहा ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय आत्मतत्त्वप्रकाशाय स्वाहा ॐ ऐं ह्रां हनुमते रामदूताय किलिकिलिबुबुकारेण विभीषणाय नमो हनुमद्देवाय ॥ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि । तन्नो हनूमान् प्रचोदयात् ॥ ॐ नमो भगवते वीरहनुमते पीताम्बरधराय कर्णकुण्डलाद्या- भरणकृतभूषणाय वनमालाविभूषिताय कनकयज्ञोपवीतिने कौपीनकटिसूत्रविराजिताय श्रीरामचन्द्रमनोभिलाषिताय लङ्कादहनकारणाय घनकुलगिरिवज्रदण्डाय अक्षकुमारप्राणहरणाय ॐ यं ॐ भगवते रामदूताय स्वाहा । ॐ श्रीवीरहनुमते ह्रौं हूं फट् स्वाहा ॥ ॐ श्रीवीरहनुमते स्फ्रें हूं फट् स्वाहा । ॐ श्रीरामपादुकाधराय महावीराय वायुपुत्राय कनिष्ठाय ब्रह्मनिष्ठाय एकादशरुद्रमूर्तये महाबलपराक्रमाय भानुमण्डलग्रसनग्रहाय चतुर्मुखवरप्रदाय महाभयनिवारकाय ये ह्रौं ॐ स्फ्रें हं स्फ्रें हैं स्फ्रें ॐ वीर । सर्वारिष्टशमनार्थम् ॐ नमो वीरहनुमते सर्वाण्यरिष्टानि सद्यः शमय शमय स्वाहा ॥ ॐ वीराञ्जनेय भगवन् मम सर्वकार्याणि साधय साधय सर्वतो मां रक्ष रक्ष स्वाहा ॥ ॐ महावीर हनुमन् सर्वयन्त्रतन्त्रमायाश्छेदय छेदय स्वाहा ॥ रक्षणार्थम् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय वायुसुताय अञ्जनीगर्भसम्भूताय अखण्डब्रह्मचर्यपालनतत्पराय धवलीकृतजगत्त्रितयाय ज्वलदग्निसूर्यकोटिसमप्रभाय प्रकटपराक्रमाय आक्रान्तदिङ्मण्डलाय यशोवितानाय यशोऽलङ्कृताय शोभिताननाय महासामर्थ्याय महातेजःपुञ्जविराजमानाय श्रीरामभक्तितत्पराय श्रीरामलक्ष्मणानन्दकारणाय कपिसैन्यप्राकाराय सुग्रीवसख्यकारणाय सुग्रीवसाहाय्यनिमित्ताय ब्रह्मास्त्रब्रह्मशक्तिग्रसनाय लक्ष्मणशक्तिभेदनिवारणाय शल्यविशल्यौषधिसमानयनाय बालोदितभानुमण्डलग्रसनोद्युक्ताय अक्षकुमारछेदनाय वनरक्षाकरसमूहविभञ्जनाय द्रोणपर्वतोत्पाटनाय स्वामिवचनसम्पादितार्जुनसंयुगसङ्ग्रामाय गम्भीरशब्दोदयाय दक्षिणाशामार्तण्डाय मेरुपर्वतरक्षकाय (मेरुपर्वतपीठिकार्चनाय दावानलकालाग्निरुद्राय समुद्रलङ्घनाय सीताश्वासनाय सीतारक्षकाय) राक्षसीसङ्घविदारणाय अशोकवनिकाविध्वंसनाय (विदारणाय) लङ्गापुरदाहनाय दशग्रीवशिरःकृन्तनाय कुम्भकर्णादिवधकारणाय वालिनिबर्हणकारणाय मेघनादहोमविनाशकाय (विध्वंसनाय) इन्द्रजिद्वधकारणाय सर्वशास्त्रपारङ्गताय सर्वग्रहनिबर्हणाय (विनाशकाय) सर्वज्वरहराय सर्वभयनिवारणाय सर्वकष्टनिवारणाय सर्वापत्तिनिवारणाय सर्वकार्यसाधकाय प्राणिमात्ररक्षकाय रामदूताय स्वाहा ॥ सर्वत्र रक्षार्थम् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय विश्वरूपाय अमितविक्रमाय प्रकटपराक्रमाय महाबलाय सूर्यकोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय रामसेवकाय रामभक्तितत्पराय रामहृदयाय (लक्ष्मणशक्तिभेदनिवारणाय) लक्ष्मणरक्षकाय दुष्टनिबर्हणाय रामदूताय स्वाहा ॥ वशीकरणार्थम् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारकाय सर्वरोगहराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा ॥ तापत्रयनिवारणार्थम् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय आध्यत्मिकाधिदैविकाधि- भौतिकतापत्रयनिवारणाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय देवदानवर्षिमुनिवरदाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय भक्तजनमनःकल्पनाकल्पद्रुमाय दुष्टमनोरथस्तम्भनाय प्रभञ्जनप्राणप्रियाय महाबलपराक्रमाय महाविपत्तिनिवारणाय पुत्रपौत्रधनधान्यादिविविधसम्पत्प्रदाय रामदूताय स्वाहा । ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय परयन्त्रमन्त्रतन्त्रत्राटकनाशकाय सर्वज्वरच्छेदकाय सर्वव्याधिनिकृन्तनाय सर्वभयप्रशमनाय सर्वदुष्टमुखस्तम्म्भनाय सर्वकार्यसिद्धिप्रदाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय वज्रदेहाय वज्रनखाय वज्ररोम्णे वज्रनेत्राय वज्रदन्ताय वज्रकराय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय देवदानवयक्षराक्षसभूतप्रेत-पिशाचडाकिनीशाकिनीदुष्टग्रहबन्धनाय रामदूताय स्वाहा ॥ पञ्चमुखहनुमत्तन्त्रतः ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पञ्चवदनाय पूर्वमुखे सकलशत्रुसंहारकाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पञ्चवदनाय दक्षिणमुखे करालवदनाय नारसिंहाय सकलभूतप्रेतदमनाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पञ्चवदनाय पश्चिममुखे गरुडाय सकलविघ्ननिवारणाय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पञ्चवदनाय उत्तरमुखे आदिवराहाय सकलसम्पत्कराय रामदूताय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय ऊर्ध्वमुखे हयग्रीवाय सकलजनवशीकरणाय रामदूताय स्वाहा ॥ ग्रहोच्चाटनार्थम् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सर्वग्रहान् भूतभविष्यद्वर्तमानान् समीपस्थान् सर्वकालदुष्टबुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलानि क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्याणि साधय साधय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावतारायपरकृतयन्त्रमन्त्रपराहङ्कार- भूतप्रेतपिशाचपरसृष्टिविघ्नतर्जनचेटकविद्यासर्वग्रहभयं निवारय निवारय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय डाकिनीशाकिनीब्रह्मराक्षसकुल- पिशाचोरुभयं निवारय निवारय स्वाहा ॥ व्याधिनिवारणार्थम् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय भूतज्वरप्रेतज्वरचातुर्थिकज्वर- विष्णुज्वरमहेशज्वरं निवारय निवारय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय अक्षिशूल-पक्षशूल-शिरोऽभ्यन्तरशूल- पित्तशूल-ब्रह्मराक्षसशूल-पिशाचकुलच्छेदनं निवारय निवारय स्वाहा ॥ भूतादिग्रहबन्धनार्थम् ॐ नमो भगवते वीरहनुमते प्रलयकालानलप्रभाज्वलनाय प्रतापवज्रदेहाय अञ्जनागर्भसम्भूताय प्रकटविक्रमवीरदैत्यदानव- यक्षरक्षोगणग्रहबन्धनाय भूतग्रहनिबन्धनाय ब्रह्मबन्धनाय शाकिनीकामिनीग्रहबन्धनाय ब्रह्मराक्षसग्रहबन्धनाय चोरग्रहबन्धनाय मारिकाग्रहबन्धनाय एह्येहि आगच्छागच्छ आवेशयावेशय मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय स्वाहा ॥ ॐ यं ह्रीं वायुपुत्राय एह्येहि आगच्छागच्छ आवेशयावेशय श्रीरामचन्द्र आवेशयावेशय श्रीरामचन्द्र आज्ञापयति स्वाहा ॥ सर्वतो विजयार्थम् ॐ हूं हनुमते रुद्रात्मकाय हूं फट् स्वाहा ॥ ॐ हं पवननन्दनाय हनुमते स्वाहा ॥ ॐ ह्रीं यं ह्रीं रामदूताय रिपुपुरीदहनाय अक्षकुक्षिविदारणाय अपरिमितबलपराक्रमाय रावणगिरिवज्रायुधाय ह्रीं स्वाहा ॥ ॐ भगवते अञ्जनापुत्राय उज्जयिनीनिवासिने गुरुतरपराक्रमाय श्रीरामदूताय लङ्कापुरीदाहनाय यक्षराक्षससंहारकारिणे हुं फट् स्वाहा ॥ ॐ श्रीं महाञ्जनेय पवनपुत्राऽवेशयाऽवेशय ॐ हनुमते फट् स्वाहा ॥ ज्ञानार्थम् ॐ नमो हनुमते मम मदनक्षोभं संहर संहर आत्मतत्वंप्रकाशय प्रकाशय हुं फट् स्वाहा ॥ बन्धमोचनार्थम् ॐ हरिमर्कट वामकरे परिमुञ्च मुञ्च शृङ्खलिकां स्वाहा । ॐ यो यो हनूमन्त फलिफलिति धिगिधिगिति हर हर हूं फट् स्वाहा ॥ ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय शृङ्खलां त्रोटय त्रोटय बन्धमोक्षं कुरु कुरु स्वाहा ॥ ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते आवेशयाऽवेशय स्वाहा ॥ ॐ नमो हरिमर्कटाय स्वाहा । ॐ नमो रामदूताञ्जनेयाय वायुपत्राय महाबलाय कोलाहलसकलब्रह्माण्डविश्वरूपाय सप्तसमुद्रनीरलङ्घनाय पिङ्गलनयनायामितविक्रमाय दृष्टिनिरालङ्कृताय सञ्जीविनीसञ्जीविताङ्गदलक्ष्मणमहाकपिसैन्य- प्राणदाय रामेष्टाय स्वाहा ॥ सम्पत्प्राप्त्यर्थम् ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रों ह्रः हनुमते श्रियं देहि दापय दापय ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रों ह्रः श्रीं स्वाहा ॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सकलसम्पत्कराय स्वाहा ॥ ॐ पवननन्दनाय रमेराम रमेराम रमेरामाः ह्रीं श्रीं क्लीं ॐ स्वाहा ॥ ॐ श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं वित्तेश्वराय हनुमद्देवताय श्रीं ह्रीं एं ॐ स्वाहा ॥ स्वपनदृष्टान्तार्थम् ॐ शिवहरिमर्कटमर्कटाय स्वाहा ॥ ॐहरिमर्कटमर्कटाय स्वपनं दर्शय दर्शय ॐ स्वाहा ॥ भयनाशनार्थम् ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय आद्यकपिमुखाय वीरहनुमते सर्वशत्रुसंहारणाय ठं ठं ठं ठं ठं ठं ठं ॐ नमः स्वाहा ॥ ॐ नमो भगवते सप्तवदनाय द्वितीयनारसिंहास्याय अत्युग्रतेजोवपुषे भीषणाय भयनाशनाय हं हं हं हं हं हं हं ॐ नमः स्वाहा ॥ रं हरिमर्कट हरिमर्कट भूतप्रेतब्रह्मराक्षसवेतालादि नाशय नाशय मर्कटमर्कटाय हरि हूं फट् ॥ ॐ नमो हनुमते अञ्जनीगर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणानन्दकराय कपिसैन्यप्रकाशनाय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवामात्याय रणपरोद्धाटनाय कुमारब्रह्मचारिणे गम्भीरशब्दोदयाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं सर्वदुष्टनिवारणाय सर्वभूतप्रेतडाकिनीशाकिनीनिवारणाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् ॥ वादविजयार्थम् ॐ नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा । वेतालसिद्ध्यर्थम् हौं ह्स्फ्र्ं ख्फों ह्रसों ह्स्ख्फ्रों ह्सौः हनुमते नमः ॥ रक्षार्थम् अञ्जनीगर्भसम्भूताय कपीन्द्रसचिवोत्तम रामप्रिय नमस्तुभ्यंहनुमन् रक्ष रक्ष सर्वदा ॥ बन्धमोक्षार्थम् ॐ हरिमर्कटमर्कटाय बन्धमोक्षं कुरु स्वाहा ॥ दृष्टिदोषपरिहारार्थम् ॐ रं मङ्गल ॐ ॥ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हूं फट् ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय परमन्त्रपरयन्त्रपरतन्त्र- मूढघातत्राटकचेटक-नाशाय सर्वज्वरच्छेदकाय सर्वव्याधिनिकृन्तनाय सर्वभयप्रशमनाय सर्वदुष्टमुखस्तम्भनाय सर्वकार्यसिद्धिप्रदाय रामदूताय हुं हुं हुं फट् फट् ॥ हनुमद्गायत्री रामदूताय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि । तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॥ सामर्थ्यावाप्त्यर्थं ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं वज्रकायाय लङ्गेश्वरवधाय महासेतुबन्धाय महाशैलप्रवाह गगनेचर एह्येहि महाबलपराक्रमाय भैरवायाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घपुच्छेन वेष्टय वैरिणो भञ्जय हूं फट् ॥ षट्कर्मसिद्ध्यर्थम् आकर्षणार्थम् ॐ नमो मर्कट मर्कटाय लुं लुं लुं लुं लुं लुं लुंआकर्षितसकलसम्पत्कराय हरिमर्कटमर्कटाय ॐ ॥ वशीकरणार्थम् ॐ नमो हनुमते ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुं रुं रुद्रमूर्तये प्रयोजननिर्वाहकाय स्वाहा ॥ मारणार्थम् रं ह्रां रं ह्रीं रं ह्रूं रं ह्रैं रं ह्रौं रं ह्रःरुद्रावताराय शत्रुसंहारणाय रं ह्रां रं ह्रीं रं ह्रूं रं ह्रैं रं ह्रौं रं ह्रः फट्स्वाहा ॥ विद्वेषणार्थम् ॐ हरिमर्कटमर्कटाय बं बं बं बं बंअमुकामुकं विद्वेषय विद्वेषय हूं फट् ॥ स्तम्भनार्थम् ॐ नमो हनुमते पञ्चवदनाय टं टं टं टं टंअमुकं स्तम्भय स्तम्भय टं टं टं टं टं हूं फट् ॥ मोहनार्थम् ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं हूं ह्स्फ्रें ह्स्फ्रें ह्स्रौं ॐहनुमते अमुकं मोहय मोहय हुं फट् ॥ त्रिदोषसन्निपातनिवृत्त्यर्थम् ॐ हनुमते श्रीरामदूताय नमः । आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् । हार्दचक्रजागरणार्थम् गुरवे मम अञ्जनीसूनवे नमः ॥ सर्वमनोरथपूरणार्थम् ॐ नमो भगवते महावीराय श्रीमते सर्वकामप्रदाय हुं स्वाहा ॥ असाध्यसाधक स्वामिन् असाध्यं तव किं वद । !!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 रामदूत महोत्साह ममाभीष्टं प्रसाधय

Monday 22 October 2018

जप मंत्र के प्रकार

जप मंत्र के प्रकार गुरु से मंत्र दीक्षा लेकर साधन मंत्र का जप आरंभ करें। जिनके लिए सुभीता हो,
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
वे किसी एकांत पवित्र स्थान में, नदी किनारे अथवा शिवालय में जप करें। जिनके ऐसी सुभीता न हो वे अपने घर में ही जप के लिए कोई रम्य स्थान बना लें। इस स्थान में देवताओं, तीर्थों और साधु महात्माओं के चित्र रखें। उन्हें फूलमाला चढ़ाएं, धूप दें। स्वयं स्नान करके भस्म,चंदन लगाकर चैलाजिन कुशोत्तर आसन बिछाकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके कंधे पर उपवस्त्र धारण किए, इष्टदेव और गुरु का स्मरण करते हुए आसन पर बैठें। जो नित्य कर्म करने वाले हैं वे पहले संध्या-वंदन कर लें, तब प्रात:काल में सूर्यनारायण को नमस्कार करें, पश्चात देवपूजन करके नित्य पाठ कर लें।
जो संध्या आदि करना नहीं जानते, वे पहले गंगा, नर्मदा आदि नामों से शरीर पर जल,मार्जन करें, तब एकाग्रचित्त हो सूर्य ध्यान करके नमस्कार करें, अनंतर अपने इष्टदेव का ध्यान करके गुरुमंत्र से सब उपचार उन्हें अर्पण करें। फिर स्तोत्र पाठादि करके आसन पर बैठें। आसन स्वस्तिक, पद्म अथवा सिद्ध इनमें से कोई भी हो। दृष्टि को नासाग्र करके प्राणायाम करें। अनंतर थोड़ी देर सावकाश पूरक और रेचक करें। इसके बाद माला हाथ में लेकर जप आरंभ करें। मेरु-मणि का उल्लंघन न करें। अपनी सुविधा देखकर जप संख्या निश्चित कर लें और रोज उतनी संख्या पूरी करें और वह जप अपने इष्टदेव को अर्पण करें। इसके पश्चात अपने इष्टदेव के पुराण और उपदेश से कुछ पढ़ लें।
श्रीराम के भक्त हों तो श्री अध्यात्म रामायण, श्रीराम गीता और श्रीराम चरित मानस। श्रीकृष्ण के भक्त हों तो श्रीभागवत और श्रीगीता पढ़ें। अनंतर तीर्थप्रसाद लेकर उठें। इस क्रम से श्रद्धापूर्वक कोई साधना करे तो वह कृतार्थ हो जाएगा। यह सब तर्क से नहीं, करके देखने से ही कोई जान सकता है। उसका चित्त आनंद से भर जाएगा। पाप, ताप, दैन्य सब नष्ट हो जाएगा। ईश्वर रूप में चिर विश्रांति प्राप्त होगी। संपूर्ण तत्वज्ञान स्फुरित होने लगेगा और शक्ति भी प्राप्त होगी। प्रत्येक देवता के सहस्र नाम हैं, प्रत्येक के अपने उपदेश हैं, भक्त इनका उपयोग करें। प्रात:काल गीता आदि से कोई श्लोक पढ़कर दिनभर उसका मनन करें। सायंकाल में पंचोपचार पूजा आदि होने के बाद जप करके सहस्र नाम में से कोई नाम ध्यान में लाकर उसके अर्थ का विचार करते हुए सो जाएं। इससे शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
जप के अनेक प्रकार हैं,, उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि।
1. नित्य जप
प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है।
2. नैमित्तिक जप
किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है।
3. काम्य जप
किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है।
4. निषिद्ध जप
मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है।
5. प्रायश्चित जप
अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गोमूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्या पूरी करें
6. अचल जप
यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है।
7. चल जप
यह जप नाम स्मरण जैसा है। 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सुमरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो।
8. वाचिक जप
जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है।
9. उपांशु उपाय
वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है।
10. भ्रमर जप
भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है।
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है।
योगतारावली' में भगवान श्री शंकराचार्य कहते हैं कि भगवान श्री शंकर ने मनोलय के सवा लाख उपाय बताए। उनमें नादानुसंधान को सबसे श्रेष्ठ बताया। उस अनाहत संगीत को श्रवण करने का प्रयत्न करने से पूर्व भ्रमर-जप सध जाए तो आगे का मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है। चित्त को तुरंत एकाग्र करने का इससे श्रेष्ठ उपाय और कोई नहीं है। इस जप से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और उसके द्वारा वह स्वपरहित साधन कर सकता है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों में काम देता है। शांत समय में यह जप करना चाहिए। इस जप से यौगिक तन्द्रा बढ़ती जाती है और फिर उससे योगनिद्रा आती है। इस जप के सिद्ध होने से आंतरिक तेज बहुत बढ़ जाता है और दिव्य दर्शन होने लगते हैं, दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है, इष्टदर्शन होते हैं, दृष्टांत होते हैं और तप का तेज प्राप्त होता है। कवि कुलतिलक कालिदास ने जो कहा है
शमप्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दहात्मकमस्ति तेज:।
बहुत ही ठीक है 'शमप्रधान तपस्वियों में (शत्रुओं को) जलाने वाला तेज छिपा हुआ रहता है।
11. मानस जप
यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
(प्रबोधसुधाकर 144 ,148) 'योगतारावली' में श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसका वर्णन किया है। श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने 'ज्ञानेश्वरी' में इस साधन की बात कही है। अनेक संत महात्मा इस साधन के द्वारा परम पद को प्राप्त हो गए। यह ऐसा साधन है कि अल्पायास से निजानंद प्राप्त होता है। नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है। बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनंद होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनंद ऐसा है कि तुरंत मनोलय होकर प्राणजय और वासनाक्षय होता है।
इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत:।
मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित:।।
'श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राणवायु है। प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है।'
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है।
12. अखंड जप
यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है-
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।
'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मंत्रार्थ का विचार करके उस भावना के साथ मंत्रावृत्ति करें। तब जप बंद करके स्वरूपवाचक 'अजो नित्य:' इत्यादि शब्दों का विचार करते हुए स्वरूप ध्यान करें। तब ध्यान बंद करके तत्वचिंतन करें। आत्मविचार में ज्ञानविषयक ग्रंथावलोकन भी आ ही जाता है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, शांकरभाष्य, श्रीमदाचार्य के स्वतंत्र ग्रंथ, अद्वैतसिद्धि, स्वाराज्यसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि, खंडन-खंडखाद्य, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योवासिष्ट आदि ग्रंथों का अवलोकन अवश्य करें। जो संस्कृत नहीं जानते, वे भाषा में ही इनके अनुवाद पढ़ें अथवा अपनी भाषा में संत-महात्माओं के जो तात्विक ग्रंथ हों, उन्हें देखें। आत्मानंद के साधनस्वरूप जो दो संपत्तियां हैं, उनके विषय में कहा गया है-
अत्यन्ताभावसम्पत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुन:।
युक्तया शास्त्रैर्यतन्ते ये ते तन्त्राभ्यासिन: स्थिता:।।
(यो.वा.)
ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिथ्या हैं। ऐसी स्थिर बुद्धि का स्थिर होना अभाव संपत्ति कहाता है और ज्ञाता और ज्ञेय रूप से भी उनकी प्रतीति का न होना अत्यंत अभाव संपत्ति कहाता है। इस प्रकार की संपत्ति के लिए जो लोग युक्ति और शास्त्र के द्वारा यत्नवान होते हैं, वे ही मनोनाश आदि के सच्चे अभ्यासी होते हैं।
ये अभ्यास तीन प्रकार के होते हैं- ब्रह्माभ्यास, बोधाभ्यास और ज्ञानाभ्यास।
दृश्यासम्भवबोधेन रागद्वेषादि तानवे।
रतिर्नवोदिता यासौ ब्रह्माभ्यास: स उच्यते।।
(यो.वा.)
दृश्य पदार्थों के असंभव होने के बोध से रागद्वेष क्षीण होते हैं, तब जो नवीन रति होती है, उसे ब्रह्माभ्यास कहते हैं।
सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव तत्सदा।
इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदु: परम्।।
(यो.वा.)
सृष्टि के आदि में यह जगत उत्पन्न ही नहीं हुआ। इसलिए वह यह जगत और अहं (मैं) हैं ही नहीं, ऐसा जो बोध होता है, उसे ज्ञाता लोग बोधाभ्यास कहते हैं।
तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्वबोधनम्।
एतदेकपरत्वं च ज्ञानाभ्यासं विदुर्बुधा:।।
(यो.वा.)
उसी तत्व का चिंतन करना, उसी का कथन करना, परस्पर उसी का बोध करना और उसी के परायण होकर रहना, इसको बुधजन ज्ञानाभ्यास के नाम से जानते हैं।
अभ्यास अर्थात आत्मचिंतन का यह सामान्य स्वरूप है। ये तीनों उपाय अर्थात जप, ध्यान और तत्वचिंतन सतत करना ही अखंड जप है। सतत 12 वर्षपर्यंत ऐसा जप हो, तब उसे तप कहते हैं। इससे महासिद्धि प्राप्त होती है। गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि अनेक संतों ने ऐसा तप किया था।
13. अजपा जप
यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते है
14. प्रदक्षिणा जप
इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है मनोरथ पूर्ण होता है।
यहां तक मंत्र जप के कुछ प्रकार, विस्तार भय से संक्षेप में ही निवेदन किए। अब यह देखें कि जपयोग कैसा है योग से इसका कैसा साम्य है। योग के यम नियमादि 8 अंग होते हैं। ये आठों अंग जप में आ जाते हैं। 15. यम यह बाह्येन्द्रियों का निग्रह अर्थात 'दम' है। आसन पर बैठना, दृष्टि को स्थिर करना यह सब यम ही है। (2) नियम- यह अंतरिन्द्रियों का निग्रह अर्थात् 'शम्' है। मन को एकाग्र करना इत्यादि से इसका साधन इसमें होता है। (3) स्थिरता से सुखपूर्वक विशिष्ट रीति से बैठने को आसन कहते हैं। जप में पद्मासन आदि लगाना ही पड़ता है।
16. प्राणायाम- विशिष्ट रीति से श्वासोच्छवास की क्रिया करना प्राणायाम है। जप में यह करना ही पड़ता है। (5) प्रत्याहार शब्दादि विषयों की ओर मन जाता है, वहां से उसे लौटकर अंतरमुख करना प्रत्याहार है, सो इसमें करना पड़ता है। (6) धारणा एक ही स्थान में दृष्टि को स्थिर करना जप में आवश्यक है। (7) ध्यान ध्येय पर चित्त की एकाग्रता जप में होनी ही चाहिए। (8) समाधि ध्येय के साथ तदाकारता जप में आवश्यक ही है। तात्पर्य, अष्टांग योग जप में आ जाता है, इसीलिए इसे जपयोग कहते हैं। कर्म, उपासना, ज्ञान और योग के मुख्य ,मुख्य अंग जपयोग में हैं इसलिए यह मुख्य साधन है। यह योग सदा सर्वदा सर्वत्र सबके लिए है। इस समय तो इससे बढ़कर कोई साधन ही नहीं।
मंत्र जप का मूल भाव होता है- मनन। जिस देव का मंत्र है उस देव के मनन के लिए सही तरीके धर्मग्रंथों में बताए है। शास्त्रों के मुताबिक मंत्रों का जप पूरी श्रद्धा और आस्था से करना चाहिए। साथ ही, एकाग्रता और मन का संयम मंत्रों के जप के लिए बहुत जरुरी है। माना जाता है कि इनके बिना मंत्रों की शक्ति कम हो जाती है और कामना पूर्ति या लक्ष्य प्राप्ति में उनका प्रभाव नहीं होता है।
मंत्र जप नियम
17.मंत्रों का पूरा लाभ पाने के लिए जप के दौरान सही मुद्रा या आसन में बैठना भी बहुत जरूरी है। इसके लिए पद्मासन मंत्र जप के लिए श्रेष्ठ होता है। इसके बाद वीरासन और सिद्धासन या वज्रासन को प्रभावी माना जाता है।
18, मंत्र जप के लिए सही वक्त भी बहुत जरूरी है। इसके लिए ब्रह्ममूर्हुत यानी तकरीबन 4 से 5 बजे या सूर्योदय से पहले का समय श्रेष्ठ माना जाता है। प्रदोष काल यानी दिन का ढलना और रात्रि के आगमन का समय भी मंत्र जप के लिए उचित माना गया है।
19.अगर यह वक्त भी साध न पाएं तो सोने से पहले का समय भी चुना जा सकता है।
20. मंत्र जप प्रतिदिन नियत समय पर ही करें।
एक बार मंत्र जप शुरु करने के बाद बार बार स्थान न बदलें। एक स्थान नियत कर लें।
21, मंत्र जप में तुलसी, रुद्राक्ष, चंदन या स्फटिक की 108 दानों की माला का उपयोग करें। यह प्रभावकारी मानी गई है।
22. किसी विशेष जप के संकल्प लेने के बाद निरंतर उसी मंत्र का जप करना चाहिए।
23.मंत्र जप के लिए कच्ची जमीन, लकड़ी की चौकी, सूती या चटाई अथवा चटाई के आसन पर बैठना श्रेष्ठ है। सिंथेटिक आसन पर बैठकर मंत्र जप से बचें।
24.मंत्र जप दिन में करें तो अपना मुंह पूर्व या उत्तर दिशा में रखें और अगर रात्रि में कर रहे हैं तो मुंह उत्तर दिशा में रखें।
25,मंत्र जप के लिए एकांत और शांत स्थान चुनें। जैसे कोई मंदिर या घर का देवालय।
26.मंत्रों का उच्चारण करते समय यथासंभव माला दूसरों को न दिखाएं। अपने सिर को भी कपड़े से ढंकना चाहिए।
27 .माला का घुमाने के लिए अंगूठे और बीच की उंगली का उपयोग करें।माला घुमाते समय माला के सुमेरू यानी सिर को पार नहीं करना चाहिए, जबकि माला पूरी होने पर फिर से सिर से आरंभ करना चाहिए।
करमाला
28,निश्चित संख्या में मंत्र जप के लिए जप माला का उपयोग किया जाता है, किंतु शास्त्रों में मंत्रों की गिनती के लिए ऐसा तरीका भी बताया गया है, जो किसी कारणवश जप माला न होने पर भी कारगर और शुभ माना जाता है। यह तरीका है करमाला यानी उंगलियों पर मंत्रों की गिनती से मंत्र जप।
30.घर से बाहर होने पर या जप माला न उपलब्ध हो, तो जानिए बिना जप माला उंगलियों पर मंत्रों की गिनती कर मंत्र जप का यह खास उपाय
31,दाएं हाथ की अनामिका यानी रिंग फिंगर के बीच के पोरुओं से शुरू कर कनिष्ठा यानी लिटिल फिंगर के पोरुओं से होते हुए तर्जनी यानी इंडेक्स फिंगर के मूल तक के 10 पोरुओं को गिन मंत्र जप करें।
अनामिका यानी रिंग फिंगर के बीच के शेष 2 पोरुओं को माला का सुमेरू मानकर पार न करें।
32,दाएं हाथ पर दस मंत्र की गिनती कर बाएं हाथ की अनामिका यानी मिडिल फिंगर के बीच के पोरुओं से दहाई की एक संख्या गिने।
दाएं हाथ के साथ बाएं हाथ पर दहाई के दस बार मंत्र गिनने पर 100 मंत्र संख्या पूरी हो जाती है।
33,आखिरी आठ मंत्र जप के लिए फिर से दाएं हाथ पर ही उसी तरह अनामिका यानी मिडिल फिंगर के मध्य भाग से गिनती शुरू कर शेष 8 मंत्र जप कर पूरे 108 मंत्र यानी एक माला पूरी की जा सकती है।
34,जप तीन प्रकारका होता है
वाचिक, उपांशु और मानसिक । वाचिक जप धीरे धीरे बोलकर होता है । उपांशु जप इस प्रकार किया जाता है, जिससे दूसरा न सुन सके । मानसिक जपमें जीभ और ओष्ठ नही हिलते । तीनों पहलेकी अपेक्षा दूसरा और दूसरेकी अपेक्षा तीसरा प्रकार श्रेष्ठ है ।
प्रातःकाल दोनो हाथोंको उत्तान कर, सायंकाल नीचेकी ओर करके और मध्याह्नमे सीधा करके जप करना चाहिये । प्रातःकाल हाथको नाभिके पास, मध्याह्नमे ह्रदयके समीप और सायंकाल मुँहके समानान्तरमे रखे । जपकी गणना चन्दन, अक्षत, पुष्प, धान्य, हाथके पोर और मिट्टीसे न करे । जपकी गणना के लिये लाख, कुश, सिन्दूर और सूखे गोबरको मिलाकर गोलियाँ बना ले । जप करते समय दाहिने हाथको जपमालीमें डाल ले अथवा कपड़ेसे ढक लेना आवश्यक होता है, किंतु कपड़ा गीला न हो । यदि सूखा वस्त्र न मिल सके तो सात बार उसे हवामें फटकार ले तो वह सूखा-जैसा मान लिया जाता है । जपके लिये मालाके अनामिका अँगुलीपर रखकर अँगूठेसे स्पर्श करते हुए मध्यमा अँगुलीसे फेरना चाहिये । सुमेरुका उल्लङ्घन न करे । तर्जनी न लगाए । सुमेरुके पाससे मालाको घुमाकर दुसरी बार जपे । जप करते समय हिलना, डोलना, बोलना निषिद्ध है । यदि जप करते समय बोल दिया जाय तो भगवानका स्मरण कर फिरसे जप करना चाहिये ।
35,यदि माला गिर जाय तो एक सौ आठ बार जप करे । यदि माला पैरपर गिर जाय तो इसे धोकर दुगुना जप करे ।
36,क, स्थान-भेदसे जपकी श्रेष्ठताका तारतम्य
घर में जप करनेसे के गुना, गोशालामे सौ गुना, पुण्यमय वन या वाटिका तथा तीर्थमे हजार गुना, पर्वतपर दस हजार गुना, नदी-तटपर लाख गुना, देवालयमें करोड़ गुना तथा शिवलिङ्गके निकट अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है
गृहे चैकगुणः प्रोक्तः गोष्ठे शतगुणः स्मृतः ।पुण्यारण्ये तथा तीर्थे सहस्त्रगुणमुच्यते ॥
अयुतः पर्वते पुण्यं नद्यां लक्षगुणो जपः ।कोटिर्देवलये प्राप्ते अनन्तं शिवसंनिधौ ॥
37,ख, माला-वन्दना - निम्नलिखित मन्त्रसे मालाकी वन्दना करे
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।चतुर्वर्गस्त्वयि नयस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्नामि दक्षिणे करे ।जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्ध्ये ॥
38,देवमन्त्रकी करमाला
अङ्गुल्यग्रे च यज्जप्तं यज्जप्तं मेरुलङ्घनात् ।पर्वसन्धिषु यज्जप्तं तत्सर्वं निष्फलं भवेत ॥
39,अँगुलियोंके अग्रभाग तथा पर्वकी रेखाओंपर ओर सुमेरुका उल्लङ्घन कर किया हुआ जप निष्फल होता है ।
यस्मिन् स्थाने जपं कुर्याद्धरेच्छक्रो न तत्फलम् ।तन्मृदा लक्ष्म कुर्वीत ललाटे तिलकाकृतिम् ।
40,जिस स्थानपर जप किया जाता है, उस स्थानकी मृत्तिका जपके अनन्तर मस्तकपर लगाये अन्यथा उस जपका फल इन्द्र ले लेते है ।
41, 1 ,के अनुसार अङ्क 1 से आरम्भ कर 10 अङ्कतक अँगूठेसे जप करनेसे एक करमाला होती है । इसी प्रकार दस करमाला जप करके 1 अङ्कसे आरम्भ करके 8 अङ्कतक जप करनेसे 108, संख्याकी माला होती है ।
42,अनामिकाके मध्यवाले पर्वसे आरम्भकर क्रमशः पाँचों अँगुलियोंके दसों पर्वपर (अँगूठेको घुमावे ) और मध्यमा अङ्गुलेके मूलमें जो दो पर्व है, उन्हे मेरु मानकर उसका उल्लङ्घन न करे । यह गायत्रीकल्पके अनुसार करमाला है, जिसका वर्णन ऊपरके चित्रमें भी दिखाया गया है
आरभ्यानामिकामध्यं पर्वाण्युक्तान्यनुक्रमात् ।तर्जनीमूलपर्यन्तं जपेद्‌ दशसु पर्वसु ॥
मध्यमाङ्गुलिमूले तु यत्पर्व द्वितयं भवेत् ।तद्‌ वै मेरुं विजानीयाज्जपे तं नातिलङ्घयेत ॥
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

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