Friday 20 November 2015

देवउठनी एकादशी कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है

देवउठनी एकादशी कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इसे देवोत्थान एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी आदि नामों से भी जाना जाता है। आइए जानते हैं कैसे करें भगवान विष्णु का व्रत-पूजन
देवउठनी एकादशी के दिन व्रत करने वाली महिलाएं प्रातःकाल में स्नानादि से निवृत्त होकर आंगन में चौक बनाएं।
  पश्चात भगवान विष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें।
  फिर दिन की तेज धूप में विष्णु के चरणों को ढंक दें।
  देवउठनी एकादशी को रात्रि के समय सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का श्रवण और भजन आदि का गायन करें।
  घंटा, शंख, मृदंग, नगाड़े और वीणा बजाएं।
 विविध प्रकार के खेल-कूद, लीला और नाच आदि के साथ इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान को जगाएं : -
 उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥''उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥''शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।'
 इसके बाद विधिवत पूजा करें।
पूजन के लिए भगवान का मन्दिर अथवा सिंहासन को विभिन्न प्रकार के लता पत्र, फल, पुष्प और वंदनबार आदि से सजाएं।
 आंगन में देवोत्थान का चित्र बनाएं, तत्पश्चात फल, पकवान, सिंघाड़े, गन्ने आदि चढ़ाकर डलिया से ढंक दें तथा दीपक जलाएं।
  विष्णु पूजा या पंचदेव पूजा विधान अथवा रामार्चनचन्द्रिका आदि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजन तथा दीपक, कपूर आदि से आरती करें।
  इसके बाद इस मंत्र से पुष्पांजलि अर्पित करें : -
'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्तिदेवाः॥'
 पश्चात इस मंत्र से प्रार्थना करें ,,,,,, इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता। त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थ शेषशायिना॥'
इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो।  न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जनार्दन॥'
साथ ही प्रह्लाद, नारद, पाराशर, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष,शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत, पंचामृत व प्रसाद वितरित करें। तत्पश्चात एक रथ में भगवान को विराजमान कर स्वयं उसे खींचें तथा नगर, ग्राम या गलियों में भ्रमण कराएं।
'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557. Gems For Everyone,
शास्त्रानुसार जिस समय वामन भगवान तीन पद भूमि लेकर विदा हुए थे, उस समय दैत्यराज बलि ने वामनजी को रथ में विराजमान कर स्वयं उसे चलाया था। ऐसा करने से 'समुत्थिते ततो विष्णौ क्रियाः सर्वाः प्रवर्तयेत्‌' के अनुसार भगवान विष्णु योग निद्रा को त्याग कर सभी प्रकार की क्रिया करने में प्रवृत्त हो जाते हैं   अंत में कथा श्रवण कर प्रसाद का वितरण करें।

देवउठनी एकादशी कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है

देवउठनी एकादशी कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इसे देवोत्थान एकादशी, देवउठनी ग्यारस, प्रबोधिनी एकादशी आदि नामों से भी जाना जाता है। आइए जानते हैं कैसे करें भगवान विष्णु का व्रत-पूजन
देवउठनी एकादशी के दिन व्रत करने वाली महिलाएं प्रातःकाल में स्नानादि से निवृत्त होकर आंगन में चौक बनाएं।
  पश्चात भगवान विष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें।
  फिर दिन की तेज धूप में विष्णु के चरणों को ढंक दें।
  देवउठनी एकादशी को रात्रि के समय सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का श्रवण और भजन आदि का गायन करें।
  घंटा, शंख, मृदंग, नगाड़े और वीणा बजाएं।
 विविध प्रकार के खेल-कूद, लीला और नाच आदि के साथ इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान को जगाएं : -
 उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥''उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥''शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।'
 इसके बाद विधिवत पूजा करें।
पूजन के लिए भगवान का मन्दिर अथवा सिंहासन को विभिन्न प्रकार के लता पत्र, फल, पुष्प और वंदनबार आदि से सजाएं।
 आंगन में देवोत्थान का चित्र बनाएं, तत्पश्चात फल, पकवान, सिंघाड़े, गन्ने आदि चढ़ाकर डलिया से ढंक दें तथा दीपक जलाएं।
  विष्णु पूजा या पंचदेव पूजा विधान अथवा रामार्चनचन्द्रिका आदि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजन तथा दीपक, कपूर आदि से आरती करें।
  इसके बाद इस मंत्र से पुष्पांजलि अर्पित करें : -
'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्तिदेवाः॥'
 पश्चात इस मंत्र से प्रार्थना करें ,,,,,, इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता। त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थ शेषशायिना॥'
इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो।  न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जनार्दन॥'
साथ ही प्रह्लाद, नारद, पाराशर, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष,शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत, पंचामृत व प्रसाद वितरित करें। तत्पश्चात एक रथ में भगवान को विराजमान कर स्वयं उसे खींचें तथा नगर, ग्राम या गलियों में भ्रमण कराएं।
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शास्त्रानुसार जिस समय वामन भगवान तीन पद भूमि लेकर विदा हुए थे, उस समय दैत्यराज बलि ने वामनजी को रथ में विराजमान कर स्वयं उसे चलाया था। ऐसा करने से 'समुत्थिते ततो विष्णौ क्रियाः सर्वाः प्रवर्तयेत्‌' के अनुसार भगवान विष्णु योग निद्रा को त्याग कर सभी प्रकार की क्रिया करने में प्रवृत्त हो जाते हैं   अंत में कथा श्रवण कर प्रसाद का वितरण करें।

श्री राम १०८ नामावली

श्री राम १०८ नामावली 1 ॐ राम रामाय नमह:
2 ॐ राम भद्राया नमह: 
3 ॐ राम चंद्राय नमह: 
4 ॐ राम शाश्वताया नमह: 
5 ॐ राजीवलोचनाय नमह: 
6 ॐ वेदात्मने नमह: 
7 ॐ भवरोगस्या भेश्हजाया नमह: 
8 ॐ दुउश्हना त्रिशिरो हंत्रे नमह: 
9 ॐ त्रिमुर्तये नमह: 
10 ॐ त्रिगुनात्मकाया नमह: 
11 ॐ श्रीमते नमह: 
12 ॐ राजेंद्राय नमह: 
13 ॐ रघुपुंगवाय नमह: 
14 ॐ जानकिइवल्लभाय नमह: 
15 ॐ जैत्राय नमह: 
16 ॐ जितामित्राय नमह: 
17 ॐ जनार्दनाय नमह: 
18 ॐ विश्वमित्रप्रियाय नमह: 
19 ॐ दांताय नमह: 
20 ॐ शरणात्राण तत्पराया नमह: 
21 ॐ वालिप्रमाथानाया नमह: 
22 ॐ वाग्मिने नमह: 
23 ॐ सत्यवाचे नमह: 
24 ॐ सत्यविक्रमाय नमह: 
25 ॐ सत्यव्रताय नमह: 
26 ॐ व्रतधाराय नमह: 
27 ॐ सदाहनुमदाश्रिताय नमह: 
28 ॐ कौसलेयाय नमह: 
29 ॐ खरध्वा.सिने नमह: 
30 ॐ विराधवाधपन दिताया नमह: 
31 ॐ विभीषना परित्रात्रे नमह: 
32 ॐ हरकोदांद खान्दनाय नमह: 
33 ॐ सप्तताला प्रभेत्त्रे नमह: 
34 ॐ दशग्रिइवा शिरोहराया नमह: 
35 ॐ जामद्ग्ंया महादर्पदालनाय नमह: 
36 ॐ तातकांतकाय नमह: 
37 ॐ वेदांतसाराय नमह: 
38 ॐ त्रिविक्रमाय नमह: 
39 ॐ त्रिलोकात्मने नमह: 
40 ॐ पुंयचारित्रकिइर्तनाया नमह: 
41 ॐ त्रिलोकरक्षकाया नमह: 
42 ॐ धंविने नमह: 
43 ॐ दंदकारंय पुण्यक्रिते नमह: 
44 ॐ अहल्या शाप शमनाय नमह: 
45 ॐ पित्रै भक्ताया नमह: 
46 ॐ वरप्रदाय नमह: 
47 ॐ राम जितेंद्रियाया नमह: 
48 ॐ राम जितक्रोधाय नमह: 
49 ॐ राम जितामित्राय नमह: 
50 ॐ राम जगद्गुरवे नमह: 
51 ॐ राम राक्षवानरा संगथिने नमह: 
52 ॐ चित्रकुउता समाश्रयाया नमह: 
53 ॐ राम जयंतत्रनवरदया नमह: 
54 ॐ सुमित्रापुत्र सेविताया नमह: 
55 ॐ सर्वदेवादि देवाय नमह: 
56 ॐ राम मृतवानर्जीवनया नमह: 
57 ॐ राम मायामारिइचहंत्रे नमह: 
58 ॐ महादेवाय नमह: 
59 ॐ महाभुजाय नमह: 
60 ॐ सर्वदेवस्तुताय नमह: 
61 ॐ सौम्याय नमह: 
62 ॐ ब्रह्मंयाया नमह: 
63 ॐ मुनिसंसुतसंस्तुतया नमह: 
64 ॐ महा योगिने नमह: 
65 ॐ महोदराया नमह: 
66 ॐ सच्चिदानंद विग्रिहाया नमह: 
67 ॐ परस्मै ज्योतिश्हे नमह: 
68 ॐ परस्मै धाम्ने नमह: 
69 ॐ पराकाशाया नमह: 
70 ॐ परात्पराया नमह: 
71 ॐ परेशाया नमह: 
72 ॐ पारगाया नमह: 
73 ॐ पाराया नमह: 
74 ॐ सर्वदेवात्मकाया परस्मै नमह: 
75 ॐ सुग्रिइवेप्सिता राज्यदाया नमह: 
76 ॐ सर्वपुंयाधिका फलाया नमह: 
77 ॐ स्म्रैता सर्वाघा नाशनाया नमह: 
78 ॐ आदिपुरुष्हाय नमह: 
79 ॐ परमपुरुष्हाय नमह: 
80 ॐ महापुरुष्हाय नमह: 
81 ॐ पुंयोदयाया नमह: 
82 ॐ अयासाराया नमह: 
83 ॐ पुरान पुरुशोत्तमाया नमह: 
84 ॐ स्मितवक्त्राया नमह: 
85 ॐ मितभाश्हिने नमह: 
86 ॐ पुउर्वभाश्हिने नमह: 
87 ॐ राघवाया नमह: 88 ॐ अनंतगुना गम्भिइराया नमह: 
89 ॐ धिइरोत्तगुनोत्तमाया नमह: 
90 ॐ मायामानुश्हा चरित्राया नमह: 
91 ॐ महादेवादिपुउजिताया नमह: 
92 ॐ राम सेतुक्रूते नमह: 
93 ॐ जितवाराशये नमह: 
94 ॐ सर्वतिइर्थमयाया नमह: 
95 ॐ हरये नमह: 
96 ॐ श्यामानगाया नमह: 
97 ॐ सुंदराया नमह: 
98 ॐ शुउराया नमह: 
99 ॐ पितवाससे नमह: 
ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone,
100 ॐ धनुर्धराया नमह: 
101 ॐ सर्वयज्ञाधिपाया नमह:  102 ॐ यज्वने नमह: 103 ॐ जरामरनवर्जिताया नमह: 
104 ॐ विभिषनप्रतिश्थात्रे नमह: 
105 ॐ सर्वावगुनवर्जिताया नमह: 
106 ॐ परमात्मने नमह: 
107 ॐ परस्मै ब्रह्मने नमह: 
108

Wednesday 18 November 2015

गोपाष्टमी कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी को



गोपाष्टमी कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी को यह
मानुष हों तो वही 'रसखानि', बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन
जो 'पसु' हौं तो कहा बस मेरो, चरों नित नन्द की 'धेनु' मंझारन।
इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गौ चारण लीला शुरू की थी। इस दिन प्रातः काल में उठकर नित्य कर्म से निवृत होकर स्नान आदि करते हैं। गोपाष्टमी हमारे निजी सुख और वैभव में हिस्सेदार होने वाले गौवंश का सत्कार है। द्वापर युग में जब भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज में गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा लिया था तभी से इस महोत्सव को मनाने की परम्परा शुरु हुई।
श्रीमद्भागवत के अनुसार भगवान ने अपने भक्तों की रक्षा करने और अपने भक्तों को दिए वचन को पूरा करने के लिए धरती पर अवतार लेकर गिरिराज गोवर्धन का मान बढ़ाने गोसंवर्धन के लिए ही यह लीला की।
प्राचीनकाल से ही ब्रज क्षेत्र में देवाधिदेव इन्द्र की पूजा की जाती थी। लोगों की मान्यता थी कि इन्द्र समस्त मानव जाति, प्राणियों, जीव जंतुओं को जीवन दान देते हैं और उन्हें तृप्त करने के लिए वर्षा भी करते हैं। इन्द्र को इस बात का बहुत अभिमान हो गया कि लोग उनसे बहुत अधिक डरने लगे हैं।
श्री कृष्ण भगवान ने नंद बाबा को कहा कि वन और पर्वत हमारे घर हैं। गिरि राज गोवर्धन की छत्रछाया में उनका पशुधन चरता है उनसे सभी को वनस्पतियां और छाया मिलती है। गोवर्धन महाराज सभी के देव, हमारे कुलदेवता और रक्षक हैं, इसलिए सभी को गिरिराज गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।
नंद बाबा की आज्ञा से सभी ने जो सामान इन्द्र देव की पूजा के लिए तैयार किया था उसी से गिरिराज गोवर्धन की पूजा की। भगवान की यह अद्भुत लीला तो देखते ही बनती थी क्योंकि एक ओर तो वह ग्वाल बालों के साथ थे तथा दूसरी ओर साक्षात गिरिराज के रूप में भोग ग्रहण कर रहे थे। सभी ने बड़े आनंद से गिरिराज भगवान का प्रसाद खाया और जो बचा उसे सभी मेें बांटा। इन्द्र को पता चला तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने गोकुल पर इतनी वर्षा की कि चारों तरफ जल थल हो गया। भगवान श्री कृष्ण ने तब गिरिराज पर्वत को अंगुली पर उठाकर सभी गोकुलवासियों की वर्षा से रक्षा की। जब इन्द्र को वास्तविकता का पता चला तो उन्होंने भगवान से क्षमा याचना की। तभी से कार्तिक शुक्ल अष्टमी को गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है।
कार्तिक मास में आने वाला यह महोत्सव अति उत्तम फलदायक है। जो लोग नियम से कार्तिक स्नान करते हुए जप, होम, अर्चन का फल पाना चाहते हैं उन्हेें गोपाष्टमी पूजन अवश्य करना चाहिए। इस दिन गाय, बैल और बछड़ों को स्नान करवा कर उन्हें सुन्दर आभूषण पहनाएं। यदि आभूषण सम्भव न हो तो उनके सींगों को रंग से सजाएं अथवा उन्हें पीले फूलों की माला से सजाएं। उन्हें हरा चारा और गुड़ खिलाना चाहिए। उनकी आरती करते हुए उनके पैर छूने चाहिएं। गौशाला के लिए दान दें। गोधन की परिक्रमा करना अति उत्तम कर्म है। गोपाष्टमी को गऊ पूजा के साथ गऊओं के रक्षक 'ग्वाले या गोप' को भी तिलक लगा कर उन्हें मीठा खिलाएं। ज्योतिषियों के अनुसार गोपाष्टमी पर पूजन करने से भगवान प्रसन्न होते हैं, उपासक को धन और सुख-समृ्द्धि की प्राप्ति होती है और घर-परिवार में लक्ष्मी का वास होता है। ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,Gems For Everyone अन्य मान्यता के अनुसार इस दिन नन्द बाबा ने श्रीकृष्ण को स्वतन्त्र रूप से गायों को वन में ले जाकर चराने की स्वीकृति दी थी।  

Friday 13 November 2015

छठ पूजा व्रत 2015 के महत्त्वपूर्ण दिवस

छठ पूजा व्रत 2015 के महत्त्वपूर्ण दिवस
छठ पूजा दिवस 1 - नहा खा – 15-नवंबर-2015
छठ पूजा दिवस 2 -खरना / लोहंडा - 16-नवंबर-2015
छठ पूजा दिवस 3 -सांझा अर्ग - 17-नवंबर-2015
छठ पूजा दिवस 4 -सुबह अर्ग - 18-नवंबर-2015
छठ पूजा दिवस 4 -पारण - 18-नवंबर-2015
छठ पूजा के लिए आवश्यक समाग्री
पाँच प्रकार में फल के अतिरिक्त कन्दम , अनानास , सक्करकंद , बड़ा नींबू, सिंघाड़ा , सिंघाड़ा हरी हल्दी ,हरा अदरक , पाँच गन्ने साबुत, एक नयी साड़ी , आम की लकड़ियाँ (प्रसाद बनाने के लिए) आदि , एक नयी साड़ी
छठ पूजा विधि,,,,1. छठ पूजा के दिन औरते (जिनका कम से कम एक पुत्र हो) निर्जल व्रत रखती हैं और शाम में केले के पत्ते पर लौकी खा कर पास करती हैं.
2. छठ पूजा के दिन औरते आटे की ठेकुए बनाती हैं प्रसाद के लिए.
3. छठ पूजा के दिन औरते सारे फलों को पितल के परात में या खचीये में रख कर पूजा करती हैं और घर से घाट तक जाती हैं. घर का कोई सदस्य उसे अपने सर पर रख बिना कही उतारे घाट तक ले जाता हैं.
4. छठ पूजा के दिन पाँच गन्नो को एक नयी साड़ी में कुछ ठेकुए चने और फल के साथ बाँध दिया जाता हैं . इसे भी बिना कही उतारे घाट तक ले जया जाता हैं.
5. छठ पूजा के दिन घाट पर मिट्टी से बेदी बनाते हैं और उस पर एक पुत्र का नाम अंकित किया जाता हैं. जिसके दो या तीन पुत्र हो तो दो या तीन बेदी एक साथ पास में ही बनाते हैं और उन पाँच गन्नो से उसे घेर दिया जाता हैं.
6. छठ पूजा के दिन औरते एक पीतल के सुष में सारे फल और चने आदि रख कर दिये जला कर सूर्य अस्त होने तक पूजा करती हैं
7. छठ पूजा के दिन औरते सूर्य अस्त के समय गंगा में नहाती हैं और आधे जल में ही खड़ी रहकर अरग देती हैं.
8. पुत्र उस पितल के सूप को प्रसाद सहित अपनी माँ के पास ले जाकर सूप उसे देता हैं और एक बर्तन में गाय के दूध से पाँच बार अरग देता हैं . प्रत्येक अरग पर उसकी माँ सूप को अपने बालो के साथ और साड़ी के साथ पहन कर पाँच परीक्रमा करती हैं.
9. फिर वो घर आती हैं और बखीर पूड़ी खाती हैं और सुबह फिर यही काम सूर्य उदय होने तक करती हैं.
10. दूसरी और आख़िरी अरग के बाद वो कथा सुनती हैं और घाट पर प्रसाद बाँट कर घर आकर अपना व्रत पूजा करने के बाद तोड़ती हैं.
छठ व्रत कथा.....एक थे राजा प्रियव्रत उनकी पत्नी थी मालिनी. राजा रानी नि:संतान होने से बहुत दु:खी थे. उन्होंने महर्षि कश्यप से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया. यज्ञ के प्रभाव से मालिनी गर्भवती हुई परंतु न महीने बाद जब उन्होंने बालक को जन्म दिया तो वह मृत पैदा हुआ. प्रियव्रत इस से अत्यंत दु:खी हुए और आत्म हत्या करने हेतु तत्पर हुए.
प्रियव्रत जैसे ही आत्महत्या करने वाले थे उसी समय एक देवी वहां प्रकट हुईं. देवी ने कहा प्रियव्रत मैं षष्टी देवी हूं. मेरी पूजा आराधना से पुत्र की प्राप्ति होती है, मैं सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ण करने वाली हूं. अत: तुम मेरी पूजा करो तुम्हे पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी. राजा ने देवी की आज्ञा मान कर कार्तिक शुक्ल षष्टी तिथि को देवी षष्टी की पूजा की जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. इस दिन से ही छठ व्रत का अनुष्ठान चला आ रहा है.
एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान श्रीरामचन्द्र जी जब अयोध्या लटकर आये तब राजतिलक के पश्चात उन्होंने माता सीता के साथ कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को सूर्य देवता की व्रतोपासना की और उस दिन से जनसामान्य में यह पर्व मान्य हो गया और दिनानुदिन इस त्यहार की महत्ता बढ़ती गई व पूर्ण आस्था एवं भक्ति के साथ यह त्यहार मनाया जाने लगा.
छठ पूजा का महत्व,,,छठ का त्यौहार सूर्य की आराधना का पर्व है, हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य देव का अग्रीण स्थान है और हिंदू धर्म में इन्हें विशेष स्थान प्राप्त है. प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण को अघ्र्य देकर दोनों का नमन किया जाता है सूर्योपासना की परंपरा ऋग वैदिक काल से होती आ रही है सूर्य की पूजा महत्व के विषय में विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार पूर्वक उल्लेख प्राप्त होता है.
सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के अनेक विकास क्रमों में देखी जा सकती है. पौराणिक काल से ही सूर्य को आरोग्य के देवता माना गया है वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की किरणों में कई रोगों को समाप्त करने की क्षमता पाई गई है .सूर्य की वंदना का उल्लेख ऋगवेद में मिलता है तथा अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में इसकी महत्ता व्यक्त कि गई है.
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता है भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़,चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों का गाया जाता है.
छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के कोने-कोने में देखा जा सकता है. प्रशासन इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करता है देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग भी इस पर्व को बहुत धूम धाम से मनाते हैं
मान्यता अनुसार सूर्य देव और छठी मइया भाई-बहन है, छठ त्यौहार का धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत महत्व माना गया है इस कथन के अनुसार षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगौलीय अवसर होता है इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं उसके संभावित कुप्रभावों से रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में रहा है. छठ व्रत नियम तथा निष्ठा से किया जाता है भक्ति-भाव से किए गए इस व्रत द्वारा नि:संतान को संतान सुख प्राप्त होता है. इसे करने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है तथा जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहता है.,,ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone


Friday 6 November 2015

पुखराज एक बहुमूल्य रत्नों

पुखराज एक बहुमूल्य रत्नों में से एक है। यह गुरु ग्रह के प्रभाव को बढ़ाने वाला होता है। यह रत्न धनु राशि एवं मीन राशि वालों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके पहनने से ज्ञान में वृद्धि होती है। 

गुरु, जिनका जन्म के समय पत्रिका में कमजोर है या अशुभ प्रभाव दे रहा है ऐसे जातक को इसके पहनने से शुभत्व की प्राप्ति होती है। इसे राजनीतिज्ञ, न्यायाधीश, प्रशासनिक सेवाओं से जुडे़ व्यक्ति, आईपीएस जैसे व्यक्ति पहन कर लाभान्वि‍त होते हैं।
यह रत्न सोचने-समझने की शक्ति को बढ़ाता है। इसके पहनने से बुरे विचार दूर होते हैं। अन्याय के प्रति लड़ने की ताकत बढ़ती है। इसे कई कलाकार, टीवी सीरियलों के अभिनेता-अभिनेत्रियों को पहने देखा जा सकता है।
इस रत्न के साथ मूंगा पहनने से नई ऊर्जा के साथ साहस बल की कमी को दूर करता है। जो जातक प्रशासनिक सेवाओं में है वे भी धारण कर सकते हैं।
वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, मकर, कुंभ राशि व लग्न वालों को इस रत्न से बचना चाहिए अथवा कुंडली में गुरु की स्थिति देखकर पहनना चाहिए।
मेष लग्न वालों के लिए गुरु भाग्य यानी नवम भाव का स्वामी होता है। इसकी अशुभता में भाग्य में कमी आती है। अत: भाग्यवृद्धि के लिए इसे पहन सकते हैं।
कर्क लग्न वालों के लिए गुरु भाग्येश के साथ षष्टेश भी होता है। अत: पुखराज पहनना शुभ रहता है। धर्म-कर्म में आस्था बढ़ाने के साथ-साथ भाग्य में भी वृद्धि करता है। स्वयं व संतान को भी लाभ पहुंचाता है। इस लग्न के जातक मोती के साथ पुखराज धारण कर शुभफल पा सकते हैं।
सिंह लग्न वालों के लिए गुरु पंचम यानी विद्या, मनोरंजन का प्रति‍निधित्व करता है अत: इस क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति पुखराज पहनने से लाभ पा सकते हैं। सिंह लग्न वाले माणिक के साथ पुखराज पहनकर विशेष लाभ पाने में समर्थ होते हैं।
वृश्चिक लग्न वाले जातकों के लिए गुरु धनेश होकर पंचमेश होता है अत: धन, वाणी, संतान, मनोरंजन भाव के लिए लाभप्रद है। मनोरंजन से जुड़े व्यक्ति लाभ पा सकते हैं। इस लग्न वाले जातक सिंदूरिया मूंगे के साथ पुखराज पहनें।
धनु लग्न वालों के लिए लग्न का स्वामी होने के साथ-साथ गुरु सुख, माता, भवन, जायदाद का स्वामी भी होता है। जातक स्वतंत्र रूप से पुखराज का लॉकेट बनवाकर गले में धारण कर सकते हैं।
मीन लग्न वाले जातकों के लिए गुरु लग्नेश होकर दशमेश भी है। व्यापार, पिता, नौकरी, राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है। उच्च प्रशासनिक सेवा वाले जातक इस रत्न को पहन सकते है। जातक मूंगा व मोती के साथ पुखराज पहन कर अनेक लाभ पा सकते हैं।
अन्य लग्न व राशि वाले (वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, मकर, कुंभ राशि व लग्न) जातकों के लिए पुखराज अकारक होने से पहनना अशुभ भी हो सकता है। पुखराज गुरु की महादशा में या किसी भी दशा में गुरु की अंतर्दशा हो तो इस रत्न को धारण किया जा सकता है।
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इस रत्न का मोल बहुत ही समझदारी से करना चाहिए। इस रत्न को रंगत देकर कई व्यापारी बहुत ही कीमत में बेचते हैं। इसके वास्तविक कीमत रंग, गुणवत्ता, पारदर्शिता व वजन के हिसाब से तय होती है। पुखराज के साथ अन्य रत्न पहनने से पहले किसी योग्य ज्योतिष की सलाह अवश्य लें।



चन्द्र का रत्न ,,मोती,,

चन्द्र का रत्न है ,,मोती,,,I इसे पहनने से चन्द्र को बल मिलता है Iदधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम । नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।। 
ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:।। ॐ ऐं क्लीं सोमाय नम:।
ॐ भूर्भुव: स्व: अमृतांगाय विदमहे कलारूपाय धीमहि तन्नो सोमो प्रचोदयात्। इससे आत्मविश्वास में वृद्धि होती है तथा मानसिक दुर्बलता दूर होकर याददाश्त में वृद्धि होती है I इस रत्न से क्रोध शांत होता है I जिन लोगों को नजला, जुकाम अधिक रहता है मोती पहनने से इस रोग में सुधार आता है I
अलग अलग लग्नों में इसका फल अलग अलग होता है I
मेष लग्न वालों को मोती जमीन, मुक़दमे और वाहन आदि मामलों में सफलता प्रदान करता है I
वृषभ लग्न वालों को मोती मित्रों से संबंधों को सुधारने में उपयोगी साबित होता है I भाइयों से विवाद चल रहा हो तो वह शांत होता है I छोटे छोटे काम जो अटके पड़े हैं वे मोती पहनने से पूरे हो जाते हैं I
मिथुन लग्न वाले अगर मोती पहनें तो उन्हें धन सम्बन्धी मामलों में सफलता मिलती है अवरोध दूर होता है तथा पैसों की तंगी दूर होकर अनावश्यक खर्चों से राहत मिलती है I
कर्क लग्न वालों के अगर चन्द्र ६,८,१२ वें स्थान में न बैठा हो तो स्वास्थ्य में सुधार होता है I सेहत बनती है I साहस में वृद्धि होतीहै I मान सम्मान बढ़ता है I मेहनत का फल मिलता है और चेहरे का सौंदर्य बढ़ता है I दूसरों पर आपके व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है I भाग्य में वृद्धि होती है तथा अनेक कार्यों में सफलता मिलती है |
सिंह लग्न वालों को मोती पहनने पर अनावश्यक खर्चों पर अंकुश लगाने में सहायता मिलती है I नींद में कमी दूर होती है I बुरे स्वप्न दिखने बंद हो जाते हैं I इसके अतिरिक्त सिंह राशि वालों को मोती से बहुत अधिक फायदा नहीं होता I
कन्या लग्न वालों को मोती पहनने से धन लाभ होता है I आय में वृद्धि होती है I नित प्रतिदिन कोई न कोई शुभ समाचार मिलना, या किसी पुराने मित्र से मुलाकात होना, अचानक धन लाभ होना आदि फल प्राप्त होते हैं I
तुला लग्न वालों को मोती पहनने से नौकरी में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं I सरकारी नौकरी में आ रही दिक्कतें दूर होती हैं I में सफलता मिलती है I इसके अतिरिक्त मान यश बढ़ता है अधिकार में वृद्धि होती है I कई रुके हुए काम बन जाते हैं I
वृश्चिक लग्न में उत्पन्न होने वाले लोग यदि मोती धारण करें तो मोती उनके भाग्य का निर्माता बन जाता है I अर्थात यह सबसे शुभ रत्न साबित होता है I इसके बाद अगर चन्द्र की स्थिति २,४,५,७,९,१०,११ वे स्थान में हो तो सोने पे सुहागा यानी और भी उत्तम फल I इन लोगों का कोई भी काम अगर रुक रहा हो तो मोती पहनने मात्र से काम बन जाता है I
धनु लग्न वालों को मोती नहीं पहनना चाहिए I
मकर लग्न वालों के वैवाहिक जीवन में आ रही समस्याओं को मोती सुलझा देता है I आपसी प्रेम बढ़ता है I व्यापार में भी वृद्धि होती है I ७० प्रतिशत प्रभाव पत्नी या जीवनसाथी पर पड़ता है Iज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone
कुम्भ लग्न वालों को मोती नहीं पहनना चाहिए I
मीन लग्न वालों की संतान सम्बन्धी समस्याओं को मोती द्वारा सुलझाया जा सकता है I इनके लिए भी मोती बहुत भाग्यशाली सिद्ध होता है I विशेषकर जो विद्यार्थी हैं वे मोती द्वारा विद्या में सफलता प्राप्त कर सकते हैं परन्तु कर्म भी आवश्यक है I इसके अतिरिक्त प्रेम संबंधों में आई दरार को भी इस रत्न द्वारा दूर किया जा सकता है I



पन्ना बुध ग्रह का रत्न


पन्ना बुध ग्रह का रत्न है। इसे अनेक नामों से जाना जाता है जैसे संस्कृत में मरकत मणि, फारसी में जमरन, हिन्दी में पन्ना और अँग्रेजी में एमराल्ड। यह गहरे से हल्के हरे रंग का होता है। यह अधिकतर दक्षिण महानदी, हिमालय, गिरनार और सोम नदी के पास पाया जाता है। इस रत्न को धारण करने वाला सौभाग्यशाली होता है।
पन्ना मुख्यतः पाँच रंगों में पाया जाता है। तोते के पंख के समान रंग वाला, पानी के रंग जैसा, सरेस के पुष्प के रंगों वाला, मयूरपंख जैसा और हल्के संदुल पुष्प के समान होता है। पन्ना अत्यंत नरम पत्थर होता है तथा अत्यंत मूल्यवान पत्थरों में से एक है। रंग, रूप, चमक, वजन, पारदर्शिता के अनुसार इसका मूल्य निर्धारित होता है।
यह रत्न 500 रुपए कैरेट से 5 हजार रुपए कैरेट तक आता है। इस रत्न को धारण करने से अनिश्चितता निश्चितता में बदल जाती है। विद्यार्थी वर्ग यदि पन्ना पहने तो बुद्धि तीक्ष्ण बनती है। यह रोगियों के लिए बलवर्धक, आरोग्यदायक एवं सुख देने वाला होता है। जिस घर में यह रत्न होता है, वहाँ अन्न-धन की वृद्धि, सुयोग्य संतान तथा भूत-प्रेत की बाधा शांत होती है। सर्प भय नहीं रहता। नेत्र रोगों में भी यह अत्यंत लाभकारी होता है। इस रत्न को पाँच मिनट तक प्रातः एक गिलास पानी में घुमाएँ फिर आँखों पर छिटका जाए तो नेत्र रोग में फायदा होता है।
पन्ना यदि मिथुन लग्न वाले धारण करें तो पारिवारिक परेशानियों से राहत मिल सकती है। माता का स्वास्थ्य ठीक रहेगा। जनता से संबंधित कार्यों में सफलता मिलेगी।
कन्या लग्न वाले व्यक्ति भी पन्ना पहनकर राज्य, व्यापार, पिता, नौकरी, शासकीय कार्यों में लाभ पा सकते हैं। यदि कन्या लग्न वाले बेरोजगार हैं, तो रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
यदि किसी के जन्म लग्न में बुध 6, 8, 12वें भाव में हो तो वे पन्ना पहन सकते हैं।
बुध यदि नीच मीन राशि का हो तो वह भी पन्ना पहन सकते हैं।
यदि बुध धनेश होकर नवम भाव में हो, तृतीयेश होकर दशम भाव में हो, चतुर्थेश सुखेश होकर आय एकादश स्थान में हो तो पन्ना पहनना अत्यंत लाभकारी होता है।
बुध यदि सप्तमेश होकर दूसरे भाव में हो नवमेश होकर चतुर्थ भाव में हो, एकादशेश होकर छठे भाव में हो तो पन्ना अवश्य पहनना चाहिए।
यदि बुध शुभ स्थान का स्वामी होकर अष्टम भाव में हो तो पन्ना पहनना शुभ रहता है।
यदि बुध की महादशा या अंतरदशा चल रही हो तो पन्ना अवश्य पहनें।
यदि जन्म कुंडली में शुभ भाव 2, 3, 4, 5, 7, 9, 10 , 11वें भाव का स्वामी होकर छठे भाव में हो तो पन्ना पहनना श्रेष्ठ रहेगा।
यदि बुध, मंगल, शनि, राहू या केतु के साथ स्थित हो तो पन्ना अवश्य पहनना चाहिए।
यदि बुध पर शत्रु ग्रहों की दृष्टि हो तो पन्ना अवश्य पहनना चाहिए।
बुध यदि लग्नेश होकर चतुर्थ, पंचम या नवम भाव में शुभ ग्रहों के साथ हो तो पन्ना हितकर रहेगा।
पन्ना उन व्यक्तियों को भी पहनना चाहिए जो व्यापारी हों, गणित से संबंधित कार्य करने वाले हों या सेल्समैन हों। ऐसे व्यक्तियों को पन्ना उत्तम प्रभाव देकर लाभान्वित करेगा।ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone
पन्ना बुधवार के दिन अश्लेषा, ज्येष्ठा या रेवती, नक्षत्र हो उस दिन सूर्योदय से लगभग 10 बजे तक पन्ना पहन सकते हैं। पन्ना सदैव स्वर्ण की धातु में शुभ घड़ी में बनाकर ही पहनें। पन्ना कम से कम 3 कैरेट का होना चाहिए व उससे अधिक हो तो उत्तम रहेगा।
बुध ग्रह का मंत्र ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते मल्लि तीर्थंकराय कुबेरयक्ष |
अपराजिता यक्षी सहिताय ॐ आं क्रों ह्रीं ह्र: बुधमहाग्रह मम दुष्‍टग्रह,
रोग कष्‍ट निवारणं सर्व शान्तिं च कुरू कुरू हूं फट् || 14000 जाप्‍य ||
मध्‍यम यंत्र -ॐ ह्रौं क्रौं आं श्रीं बुधग्रहारिष्‍ट निवारक श्री विमल अनन्‍तधर्म शान्ति कुन्‍थअरहनमिवर्धमान अष्‍टजिनेन्‍द्रेभ्‍यो नम: शान्तिं कुरू कुरू स्‍वाहा || 8000 जाप्‍य ||
लघु मंत्र- ॐ ह्रीं णमो उवज्‍झायाणां || 10000 जाप्‍य ||
तान्त्रिक मंत्र- ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: || 9000 जाप्‍य ||

माणिक सिंह लग्न ,,,,माणिक

माणिक सिंह लग्न ,,,,माणिक ,,,सब रत्नों का राजा माना गया है। इसके बारे में एक धारणा यह है कि माणिक की दलाली में हीरे मिलते हैं। कहने का मतलब यह रत्न अनमोल है। यह रत्न सूर्य ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है और इसे सूर्य के कमजोर व पत्रिकानुसार स्थिति जानकर धारण करने का विधान है। 
कीमत में इसका कोई मोल नहीं है, इसकी क्वॉलिटी पारदर्शिता व कलर पर निर्भर करता है इसका मूल्य। सबसे उत्तम बर्मा का माणिक माना गया है। यह अनार के दाने-सा दिखने वाला गुलाबी आभा वाला रत्न बहुमूल्य है।
इसकी कीमत वजन के हिसाब से होती है। यह बैंकॉक का भी मिलता है; लेकिन कीमत सिर्फ बर्मा की ही अधिक होती है। बाकी लेकिन बर्मा माणिक की कीमत । एक कैरेट 200 मिली का होता है व पक्की रत्ती 180 मिली की होती है।
माणिक को मोती के साथ पहन सकते हैं और पुखराज के साथ भी पहन सकते हैं। मोती के साथ पहनने से पूर्णिमा नाम का योग बनता है। जबकि माणिक व पुखराज प्रशासनिक क्षेत्र में उत्तम सफलता का कारक होता है। माणिक व मूंगा भी पहन सकते हैं, ऐसा जातक प्रभावशाली व कोई प्रशासनिक क्षेत्र में सफलता पाता है।
इसे पुखराज, मूंगा के साथ भी पहना जा सकता है। पन्ना व माणिक भी पहन सकते है, इसके पहनने से बुधादित्य योग बनता है। जो पहनने वाले को दिमागी कार्यों में सफल बनाता है।
माणिक, पुखराज व पन्ना भी साथ पहन सकते हैं। माणिक के साथ नीलम व गोमेद नहीं पहना जा सकता है। सिंह लग्न में जब सूर्य पंचम या नवम भाव में हो तब माणिक पहनना शुभ रहता है। वृषभ लग्न में सूर्य केंद्र से चतुर्थ का स्वामी होता है अत: सूर्य की स्थितिनुसार इस लग्न के जातक भी माणिक पहन सकते हैं।
मेष, मिथुन, कन्या, वृश्चिक, धनु मीन लग्न वाले सूर्य की शुभ स्थिति में माणिक पहन सकते हैं।
माणिक को शुक्ल पक्ष के किसी भी रविवार को सुबह धारण कर सकते हैं।
सिंह लग्न है,,इस लग्न के स्वामी सूर्य,चौथे भाव वृश्चिक और नवम् भाव मेष के स्वामी मंगल और पंचम भाव धनु के स्वामी बृहस्पति की प्रबल मित्रता है। इसलिए इन्हीं के रत्न माणिक्य, मूंगा और पुखराज इस लग्न में पहने जा सकते हैं।
अशुभ आठवें भाव मीन के स्वामी बृहस्पति लग्न के स्वामी सूर्य के परम मित्र है और शुभ त्रिकोण पंचम भाव धनु के स्वामी होने के कारण इनके रत्न पुखराज को पहनना चाहिए। राहु और केतु सूर्य के उसी तरह शत्रु हैं जैसे शनि,शुर्क और बुध हैं। तीसरे और दसवें भाव के स्वामी शुर्क का रत्न हीरा, छठे और सातवें भाव के स्वामी शनि के रत्न नीलम को भी इस लग्न में पहनने से बचना चाहिए।
आइये जानते हैं कि इस लग्न में किस रत्न से शुभ फल प्राप्त होगें।
माणिक्य-लग्न और प्रथम भाव सिंह के स्वामी सूर्य के रत्न माणिक्य को इस लग्नवाले को अवश्य पहनना चाहिए। जिन लोगों का सूर्य नीच राशि अथार्त तुला में है उन्हें तो हर हाल में माणिक्य पहनना चाहिए। जिन लोगों का मेष या सिंह का सूर्य है उन्हें माणिक्य नहीं पहनना चाहिए। सूर्य महादशा आने पर तो अवश्य पहने माणिक्य।
मोती-लग्न के स्वामी सूर्य के परम मित्र चंद्रमा के रत्न मोती को केवल कर्क राशि का चंद्रमा होने की दशा में सिर्फ चंद्र महादशा में ही पहना जा सकता है। ज्यादा गुस्सा आने पर प्रयोगधर्मी ज्योतिषी इसे बारहवें भाव का स्वामी होने के बावजूद हमेशा पहनने को कहते हैं। लेकिन निरीक्षण-परीक्षण करते रहना चाहिए मोती पहनने पर। खर्चा बढने की स्थिति में तुरंत उतार दें।
मूंगा-चौथे भाव वृश्चिक और नवम भाव मेष के स्वामी मंगल का इस लग्न में योगकारक कहा जाता है। इसलिए इसके रत्न मूंगे को माणिक्य के साथ पहनना चाहिए। मंगल की महादशा आने की स्थिति में इसे अवश्य पहनना चाहिए। लेकिन जिनका मंगल मेष,वृश्चिक और मकर का है उन्हें मूंगा नही पहनना चाहिए। दुर्धटना में बचाव भी करता है मूंगा।
पन्ना-दूसरे भाव कन्या और ग्याहरवें भाव मिथुन के स्वामी बुध के रत्न पन्ना को केवल बुध की महादशा आने की स्थिति में पहनने की सलाह देते हैं प्रयोगधर्मी ज्योतिषी। दूसरे भाव को मारक भी माना जाता है इसलिए सांसारिक भोग-विलास, भारी मात्रा में रूपया-पैसा देकर ये परेशान भी कर सकता है।
पुखराज-लग्न के रत्न माणिक्य के साथ बृहस्पति के रत्न पुखराज को कम से कम बृहस्पति की महादशा में तो अवश्य पहनना चाहिए।
ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone ॐ धृणि: सुर्य आदित्य: ॐ ! ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सुर्याय नम: ! .ॐ आदित्याय विह्महे दिवाकराय धीमही तन्नो सुर्य प्रचोदयात् !जप संख्या : ७०००


श्री लक्ष्मी कवचम्

श्री लक्ष्मी कवचम्
महालक्ष्म्याः प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
सर्वपापप्रशमनं दुष्टव्याधिविनाशनम् ॥ १॥
ग्रहपीडाप्रशमनं ग्रहारिष्टप्रभञ्जनम् ।
दुष्टमृत्युप्रशमनं दुष्टदारिद्र्यनाशनम् ॥ २॥
पुत्रपौत्रप्रजननं विवाहप्रदमिष्टदम् ।
चोरारिहं च जपतां अखिलेप्सितदायकम् ॥ ३॥
सावधानमना भूत्वा श्रुणु त्वं शुक सत्तम ।
अनेकजन्मसंसिद्धिलभ्यं मुक्तिफलप्रदम् ॥ ४॥
धनधान्यमहाराज्यसर्वसौभाग्यकल्पकम् ।
सकृत्स्मरणमात्रेण महालक्ष्मीः प्रसीदति ॥ ५॥
क्षीराब्धिमध्ये पद्मानां कानने मणिमण्टपे ।
तन्मध्ये सुस्थितां देवीं मनीषाजनसेविताम् ॥ ६॥
सुस्नातां पुष्पसुरभिकुटिलालकबन्धनाम् ।
पूर्णेन्दुबिम्बवदनां अर्धचन्द्रललाटिकाम् ॥ ७॥
इन्दीवरेक्षणां कामकोदण्डभ्रुवमीश्वरीम् ।
तिलप्रसवसंस्पर्धिनासिकालङ्कृतां श्रियम् ॥ ८॥
कुन्दकुड्मलदन्तालिं बन्धूकाधरपल्लवाम् ।
दर्पणाकारविमलकपोलद्वितयोज्ज्वलाम् ॥ ९॥
रत्नताटङ्ककलितकर्णद्वितयसुन्दराम् ।
माङ्गल्याभरणोपेतां कम्बुकण्ठीं जगत्प्रियाम् ॥ १०॥
तारहारिमनोहारिकुचकुम्भविभूषिताम् ।
रत्नाङ्गदादिललितकरपद्मचतुष्टयाम् ॥ ११॥
कमले च सुपत्राढ्ये ह्यभयं दधतीं वरम् ।
रोमराजिकलाचारुभुग्ननाभितलोदरीम् ॥ १२॥
पत्तवस्त्रसमुद्भासिसुनितम्बादिलक्षणाम् ।
काञ्चनस्तम्भविभ्राजद्वरजानूरुशोभिताम् ॥ १३॥
स्मरकाह्लिकागर्वहारिजम्भां हरिप्रियाम् ।
कमठीपृष्ठसदृशपादाब्जां चन्द्रसन्निभाम् ॥ १४॥
पङ्कजोदरलावण्यसुन्दराङ्घ्रितलां श्रियम् ।
सर्वाभरणसंयुक्तां सर्वलक्षणलक्षिताम् ॥ १५॥
पितामहमहाप्रीतां नित्यतृप्तां हरिप्रियाम् ।
नित्यं कारुण्यललितां कस्तूरीलेपिताङ्गिकाम् ॥ १६॥
सर्वमन्त्रमयां लक्ष्मीं श्रुतिशास्त्रस्वरूपिणीम् ।
परब्रह्ममयां देवीं पद्मनाभकुटुम्बिनीम् ।
एवं ध्यात्वा महालक्ष्मीं पठेत् तत्कवचं परम् ॥ १७॥
ध्यानम् ।एकं न्यञ्च्यनतिक्षमं ममपरं चाकुञ्च्यपदाम्बुजं
मध्ये विष्टरपुण्डरीकमभयं विन्यस्तहस्ताम्बुजम् ।
त्वां पश्येम निषेदुषीमनुकलङ्कारुण्यकूलङ्कष-
स्फारापाङ्गतरङ्गमम्ब मधुरं मुग्धं मुखं बिभ्रतीम् ॥ १८
अथ कवचम् ।महालक्ष्मीः शिरः पातु ललाटं मम पङ्कजा ।
कर्णे रक्षेद्रमा पातु नयने नलिनालया ॥ १९॥
नासिकामवतादम्बा वाचं वाग्रूपिणी मम ।
दन्तानवतु जिह्वां श्रीरधरोष्ठं हरिप्रिया ॥ २०॥
चुबुकं पातु वरदा गलं गन्धर्वसेविता ।
वक्षः कुक्षिं करौ पायूं पृष्ठमव्याद्रमा स्वयम् ॥ २१॥
कटिमूरुद्वयं जानु जघं पातु रमा मम ।
सर्वाङ्गमिन्द्रियं प्राणान् पायादायासहारिणी ॥ २२॥
सप्तधातून् स्वयं चापि रक्तं शुक्रं मनो मम ।
ज्ञानं बुद्धिं महोत्साहं सर्वं मे पातु पङ्कजा ॥ २३॥
मया कृतं च यत्किञ्चित्तत्सर्वं पातु सेन्दिरा ।
ममायुरवतात् लक्ष्मीः भार्यां पुत्रांश्च पुत्रिका ॥ २४॥
मित्राणि पातु सततमखिलानि हरिप्रिया ।
पातकं नाशयेत् लक्ष्मीः महारिष्टं हरेद्रमा ॥ २५॥
ममारिनाशनार्थाय मायामृत्युं जयेद्बलम् ।
सर्वाभीष्टं तु मे दद्यात् पातु मां कमलालया॥ २६॥
फलश्रुतिः ।य इदं कवचं दिव्यं रमात्मा प्रयतः पठेत् ।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति सर्वरक्षां तु शाश्वतीम् ॥ २७॥
दीर्घायुष्मान् भवेन्नित्यं सर्वसौभाग्यकल्पकम् ।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सुखदश्च शुभोज्ज्वलः ॥ २८॥
सुपुत्रो गोपतिः श्रीमान् भविष्यति न संशयः ।
तद्गृहे न भवेद्ब्रह्मन् दारिद्र्यदुरितादिकम् ॥ २९॥
नाग्निना दह्यते गेहं न चोराद्यैश्च पीड्यते ।
भूतप्रेतपिशाचाद्याः सन्त्रस्ता यान्ति दूरतः ॥ ३०॥
लिखित्वा स्थापयेद्यत्र तत्र सिद्धिर्भवेत् ध्रुवम् ।
नापमृत्युमवाप्नोति देहान्ते मुक्तिभाग्भवेत् ॥ ३१॥
आयुष्यं पौष्टिकं मेध्यं धान्यं दुःस्वप्ननाशनम् ।
प्रजाकरं पवित्रं च दुर्भिक्षर्तिविनाशनम् ॥ ३२॥
चित्तप्रसादजननं महामृत्युप्रशान्तिदम् ।
महारोगज्वरहरं ब्रह्महत्यादिशोधनम् ॥ ३३॥
महाधनप्रदं चैव पठितव्यं सुखार्थिभिः ।
ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,
ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone
धनार्थी धनमाप्नोति विवहार्थी लभेद्वधूम् ॥ ३४॥
विद्यार्थी लभते विद्यां पुत्रार्थी गुणवत्सुतम् ।
राज्यार्थी राज्यमाप्नोति सत्यमुक्तं मया शुक ॥ ३५॥
एतद्देव्याःप्रसादेन शुकः कवचमाप्तवान् ।
कवचानुग्रहेणैव सर्वान् कामानवाप सः ॥ ३६॥
इति लक्ष्मीकवचं ब्रह्मस्तोत्रं समाप्तम् ।

श्री लक्ष्मीनारायण कवचम् ॥

श्री लक्ष्मीनारायण कवचम् ॥
अधुना देवि वक्ष्यामि लक्ष्मीनारायणस्य ते ।
कवचं मन्त्रगर्भं च वज्रपञ्जरकाख्यया ॥ १॥
श्रीवज्रपञ्जरं नाम कवचं परमाद्भुतम् ।
रहस्यं सर्वदेवानां साधकानां विशेषतः ॥ २॥
यं धृत्वा भगवान् देवः प्रसीदति परः पुमान् ।
यस्य धारणमात्रेण ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ३
ईश्वरोऽहं शिवो भीमो वासवोऽपि दिवस्पतिः ।
सूर्यस्तेजोनिधिर्देवि चन्द्रर्मास्तारकेश्वरः ॥ ४॥
वायुश्च बलवांल्लोके वरुणो यादसाम्पतिः ।
कुबेरोऽपि धनाध्यक्षो धर्मराजो यमः स्मृतः ॥ ५॥
यं धृत्वा सहसा विष्णुः संहरिष्यति दानवान् ।
जघान रावणादींश्च किं वक्ष्येऽहमतः परम् ॥ ६॥
कवचस्यास्य सुभगे कथितोऽयं मुनिः शिवः ।
त्रिष्टुप् छन्दो देवता च लक्ष्मीनारायणो मतः ॥ ७॥
रमा बीजं परा शक्तिस्तारं कीलकमीश्वरि ।
भोगापवर्गसिद्ध्यर्थं विनियोग इति स्मृतः ॥ ८॥
ॐ अस्य श्रीलक्ष्मीनारायणकवचस्य शिवः ऋषिः ,
त्रिष्टुप् छन्दः , श्रीलक्ष्मीनारायण देवता ,
श्रीं बीजं , ह्रीं शक्तिः , ॐ कीलकं ,
भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः ।
अथ ध्यानम् । पूर्णेन्दुवदनं पीतवसनं कमलासनम् ।
लक्ष्म्या श्रितं चतुर्बाहुं लक्ष्मीनारायणं भजे ॥ ९॥
अथ कवचम् । ॐ वासुदेवोऽवतु मे मस्तकं सशिरोरुहम् ।
ह्रीं ललाटं सदा पातु लक्ष्मीविष्णुः समन्ततः ॥ १०॥
ह्सौः नेत्रेऽवताल्लक्ष्मीगोविन्दो जगतां पतिः ।
ह्रीं नासां सर्वदा पातु लक्ष्मीदामोदरः प्रभुः ॥ ११॥
श्रीं मुखं सततं पातु देवो लक्ष्मीत्रिविक्रमः ।
लक्ष्मी कण्ठं सदा पातु देवो लक्ष्मीजनार्दनः ॥ १२॥
नारायणाय बाहू मे पातु लक्ष्मीगदाग्रजः ।
नमः पार्श्वौ सदा पातु लक्ष्मीनन्दैकनन्दनः ॥ १३॥
अं आं इं ईं पातु वक्षो ॐ लक्ष्मीत्रिपुरेश्वरः ।
उं ऊं ऋं ॠं पातु कुक्षिं ह्रीं लक्ष्मीगरुडध्वजः ॥ १४॥
लृं लॄं एं ऐं पातु पृष्ठं ह्सौः लक्ष्मीनृसिंहकः ।
ओं औं अं अः पातु नाभिं ह्रीं लक्ष्मीविष्टरश्रवः ॥ १५॥
कं खं गं घं गुदं पातु श्रीं लक्ष्मीकैटभान्तकः ।
चं छं जं झं पातु शिश्र्नं लक्ष्मी लक्ष्मीश्वरः प्रभुः ॥ १६॥
टं ठं डं ढं कटिं पातु नारायणाय नायकः ।
तं थं दं धं पातु चोरू नमो लक्ष्मीजगत्पतिः ॥ १७॥
पं फं बं भं पातु जानू ॐ ह्रीं लक्ष्मीचतुर्भुजः ।
यं रं लं वं पातु जङ्घे ह्सौः लक्ष्मीगदाधरः ॥ १८॥
शं षं सं हं पातु गुल्फौ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीरथाङ्गभृत् ।
ळं क्षः पादौ सदा पातु मूलं लक्ष्मीसहस्रपात् ॥ १९॥
ङं ञं णं नं मं मे पातु लक्ष्मीशः सकलं वपुः ।
इन्द्रो मां पूर्वतः पातु वह्निर्वह्नौ सदावतु ॥ २०॥
यमो मां दक्षिणे पातु नैरृत्यां निरृतिश्च माम् ।
वरुणः पश्चिमेऽव्यान्मां वायव्येऽवतु मां मरुत् ॥ २१॥
उत्तरे धनदः पायादैशान्यामीश्वरोऽवतु ।
वज्रशक्तिदण्डखड्ग पाशयष्टिध्वजाङ्किताः ॥ २२॥
सशूलाः सर्वदा पान्तु दिगीशाः परमार्थदाः ।
अनन्तः पात्वधो नित्यमूर्ध्वे ब्रह्मावताच्च माम् ॥ २३॥
दशदिक्षु सदा पातु लक्ष्मीनारायणः प्रभुः ।
प्रभाते पातु मां विष्णुर्मध्याह्ने वासुदेवकः ॥ २४॥
दामोदरोऽवतात् सायं निशादौ नरसिंहकः ।
सङ्कर्षणोऽर्धरात्रेऽव्यात् प्रभातेऽव्यात् त्रिविक्रमः ॥ २५॥
अनिरुद्धः सर्वकालं विश्वक्सेनश्च सर्वतः ।
रणे राजकुले द्युते विवादे शत्रुसङ्कटे
ॐ ह्रीं ह्सौः ह्रीं श्रीं मूलं लक्ष्मीनारायणोऽवतु ॥ २६॥
ॐॐॐरणराजचौररिपुतः पायाच्च मां केशवः
ह्रींह्रींह्रींहह्हाह्सौः ह्सह्सौः वह्नेर्वतान्माधवः ।
ह्रींह्रींह्रीञ्जलपर्वताग्निभयतः पायादनन्तो विभुः
श्रींश्रींश्रींशशशाललं प्रतिदिनं लक्ष्मीधवः पातु माम् ॥ २७॥
इतीदं कवचं दिव्यं वज्रपञ्जरकाभिधम् ।
लक्ष्मीनारायणस्येष्टं चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥ २८॥
सर्वसौभाग्यनिलयं सर्वसारस्वतप्रदम् ।
लक्ष्मीसंवननं तत्वं परमार्थरसायनम् ॥ २९॥
मन्त्रगर्भं जगत्सारं रहस्यं त्रिदिवौकसाम् ।
दशवारं पठेद्रात्रौ रतान्ते वैष्णवोत्तमः ॥ ३०
स्वप्ने वरप्रदं पश्येल्लक्ष्मीनारायणं सुधीः ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं कवचं मन्मुखोदितम् ॥ ३१॥
स याति परमं धाम वैष्णवं वैष्णवेश्वरः ।
महाचीनपदस्थोऽपि यः पठेदात्मचिन्तकः ॥ ३२॥
आनन्दपूरितस्तूर्णं लभेद् मोक्षं स साधकः ।
गन्धाष्टकेन विलिखेद्रवौ भूर्जे जपन्मनुम् ॥ ३३॥
पीतसूत्रेण संवेष्ट्य सौवर्णेनाथ वेष्टयेत् ।
धारयेद्गुटिकां मूर्ध्नि लक्ष्मीनारायणं स्मरन् ॥ ३४॥
रणे रिपुन् विजित्याशु कल्याणी गृहमाविशेत् ।
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च याङ्गना ॥ ३५॥
सा बध्नीयान् कण्ठदेशे लभेत् पुत्रांश्चिरायुषः ।
गुरुपदेशतो धृत्वा गुरुं ध्यात्वा मनुं जपन् ॥ ३६॥
वर्णलक्षपुरश्चर्या फलमाप्नोति साधकः ।
बहुनोक्तेन किं देवि कवचस्यास्य पार्वति ॥ ३७॥
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विनानेन न सिद्धिः स्यान्मन्त्रस्यास्य महेश्वरि ।
सर्वागमरहस्याढ्यं तत्वात् तत्वं परात् परम् ॥ ३८॥
अभक्ताय न दातव्यं कुचैलाय दुरात्मने ।
दीक्षिताय कुलीनाय स्वशिष्याय महात्मने ॥ ३९॥
महाचीनपदस्थाय दातव्यं कवचोत्तमम् ।
गुह्यं गोप्यं महादेवि लक्ष्मीनारायणप्रियम् ।
वज्रपञ्जरकं वर्म गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ४०॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये
लक्ष्मीनारायणकवचं सम्पूर्णम् ॥

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