Sunday 27 January 2013

.सिंदूर क्यों लगाते हैं हनुमानजी को


.सिंदूर क्यों लगाते हैं हनुमानजी को........ वैसे तो सिंदूर सुहाग का प्रतीक है और इसे सभी सुहागन स्त्रियों द्वारा मांग में लगाने की परंपरा है। सिंदूर का पूजन-पाठ में भी गहरा महत्व है। बहुत से देवी-देवताओं को सिंदूर अर्पित किया जाता है। श्री गणेश, माताजी, भैरव महाराज के अतिरिक्त मुख्य रूप से हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाया जाता है।
हनुमानजी का पूरा श्रंगार ही सिंदूर से किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार हर युग में बजरंग बली की आराधना सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाली मानी गई है। हनुमानजी श्रीराम के अनन्य भक्त हैं और जो भी इन पर आस्था रखता है उनके सभी कष्टों को ये दूर करते हैं। हनुमानजी को सिंदूर क्यों लगाया जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में एक प्रसंग बताया गया है।
रामचरित मानस के अनुसार हनुमानजी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते हुए देखा। तब उनके मन में जिज्ञासा जागी कि माता मांग में सिंदूर क्यों लगाती है? यह प्रश्न उन्होंने माता सीता से पूछा। इसके जवाब में सीता ने कहा कि वे अपने स्वामी, पति श्रीराम की लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन की कामना के लिए मांग में सिंदूर लगाती हैं। शास्त्रों के अनुसार सुहागन स्त्री मांग में सिंदूर लगाती है तो उसके पति की आयु में वृद्धि होती है और वह हमेशा स्वस्थ रहते हैं।
माता सीता का उत्तर सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि जब थोड़े सा सिंदूर लगाने का इतना लाभ है तो वे पूरे शरीर पर सिंदूर लगाएंगे तो उनके स्वामी श्रीराम हमेशा के लिए अमर हो जाएंगे। यही सोचकर उन्होंने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाना प्रारंभ कर दिया। तभी से बजरंग बली को सिंदूर चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई।
वैसे तो सभी के जीवन में समस्याएं सदैव बनी रहती हैं लेकिन यदि किसी व्यक्ति के जीवन में अत्यधिक परेशानियां उत्पन्न हो गई है और उसे कोई रास्ता नहीं मिल रहा हो तब हनुमानजी की सच्ची भक्ति से उसके सारे बिगड़े कार्य बन जाएंगे। दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाएगा। प्रतिदिन हनुमान के चरणों का सिंदूर अपने सिर या मस्तक पर लगाने से मानसिक शांति प्राप्त होती है और विचार सकारात्मक बनते हैं। जीवन की परेशानियां दूर हो जाती हैं।
 

विष्णु के पैरों में ही क्यों रहती हैं महालक्ष्मी .


विष्णु के पैरों में ही क्यों रहती हैं महालक्ष्मी .............. हर व्यक्ति देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए कई तरह के जतन करता है। जिसे धन प्राप्त नहीं होता वह भाग्य को दोष देता है। जो ईमानदारी और कड़ी मेहनत से कर्म करता है, उससे धन की देवी लक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहती हैं और सदैव पैसों की बारिश करती हैं। इसी वजह से कहा जाता है कि महालक्ष्मी व्यक्ति के भाग्य से नहीं कर्म से प्रसन्न होती हैं।
महालक्ष्मी सदैव भगवान विष्णु की सेवा में लगी रहती हैं, शास्त्रों में जहां-जहां विष्णु और लक्ष्मी का उल्लेख आता है वहां लक्ष्मी श्री हरि के चरण दबाते हुए ही बताई गई हैं। विष्णु ने उन्हें अपने पुरुषार्थ के बल पर ही वश में कर रखा है। लक्ष्मी उन्हीं के वश में रहती है जो हमेशा सभी के कल्याण का भाव रखता हो। समय-समय पर भगवान विष्णु ने जगत के कल्याण के लिए जन्म लिए और देवता तथा मनुष्यों को सुखी किया। विष्णु का स्वभाव हर तरह की मोह-माया से परे है। वे दूसरों को मोह में डालने वाले हैं। समुद्र मंथन के समय उन्होंने देवताओं को अमृत पान कराने के लिए असुरों को मोहिनी रूप धारण करके सौंदर्य जाल में फंसाकर मोह में डाल दिया। मंथन के समय ही लक्ष्मी भी प्रकट हुईं। देवी लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए देवता और असुरों में घमासान लड़ाई हुई। भगवान विष्णु ने लक्ष्मी का वरण किया। लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है, उन्हें एक स्थान पर रोक पाना असंभव है। फिर भी वे भगवान विष्णु के चरणों में ही रहती है। जो व्यक्ति लक्ष्मी के चंचल और मोह जाल में फंस जाता है लक्ष्मी उसे छोड़ देती है। जो व्यक्ति भाग्य को अधिक महत्व देता है और कर्म को तुच्छ समझता है, लक्ष्मी उसे छोड़ देती हैं। विष्णु के पास जो लक्ष्मी हैं वह धन और सम्पत्ति है। भगवान श्री हरि उसका उचित उपयोग जानते हैं। इसी वजह से महालक्ष्मी श्री विष्णु के पैरों में रहती हैं
 
 

द्वारिकाधीश की जय,, श्री जय द्वारिकाधीश की जय



द्वारिकाधीश की जय,, श्री जय द्वारिकाधीश की जय shri Jay Dwarkadhish ki jay
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव एक दिन साँवले सलोने बालश्रीकृष्ण रत्नों से जड़ित पालने पर शयन कर रहे थे। उनके मुख पर लोगों के मन को मोहने वाली मंद हास्य की छटा स्पष्ट झलक रही थी। कुटिल दृष्टि न लग जाए इसलिए उनके ललाट पर काजल का चिह्न शोभायमान हो रहा था। कमल के सदृश उनके दोनों सुंदर नेत्रों में काजल विद्यमान था।

अपने मनमोहक पुत्र को यशोदा ने अपनी गोद में ले लिया। उस समय वे अपने पैर का अंगूठा चूस रहे थे। उनका स्वभाव पूर्णतः चपल था। घुंघराले केशों के कारण उनकी अंगछटा अत्यंत अद्भुत दिखाई पड़ रही थी। वक्षस्थल पर श्रीवत्सचिह्न, बाजूबंद और चमकीला अर्द्धचंद्र उनकी देहयष्टि पर शोभायमान हो रहा था।

ऐसे अपने पुत्र श्रीकृष्ण को लाड़-प्यार करती हुई यशोदा आनंद का अनुभव कर रही थीं। बालक कृष्ण दूध पी चुके थे। उन्हें जम्हाई आ रही थी। सहसा माता की दृष्टि उनके मुख के अंदर पड़ी। उनके मुख में पृथिव्यादि पाँच तत्वों सहित संपूर्ण विराट् तथा इंद्र प्रभृति श्रेष्ठ देवता दृष्टिगोचर हुए।

बच्चे के मुख में संपूर्ण विश्व को अकस्मात् देखकर वह कंपायमान हो गईं और उनके मन में त्रास छा गया। अतः उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं, उनकी माया के प्रभाव से यशोदा की स्मृति टिक न सकी। अतः अपने बालक पर पुनः वात्सल्य पूर्ण दयाभाव, प्रेम उत्पन्न हो गया।
 

सूर्य मंत्र : सूर्याय नमः ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः

सूर्य  मंत्र : सूर्याय नमः ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः
वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है।  https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5     समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही हैं। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य शाश्वत सच्चाई है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता-धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक। यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी हैं। ऋग्वेद के अनुसार देवताओं में सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने ``चक्षो सूर्यो जायत'' कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छांदोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरुपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एकमात्र कारण निरुपित किया गया है और उन्हीं को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते हैं। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नहीं कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी, बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र-तत्र सूर्य मंदिरों का निर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा-विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा तथा मंदिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्रीकृष्ण पुत्र सांब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुिक्त पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मंदिर भारत में बने हुए थे। उनमें से कुछ आज विश्व प्रसिद्ध हैं। कोणार्क का सूर्य मंदिर उनमें से एक है। वैदिक साहित्य में ही नहीं, बल्कि आयुर्वेद और ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में भी सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
सूर्य के आदित्य मंत्र
विनियोग : ॐ आकृष्णेनि मंत्रस्य हिरण्यस्तूपांगिरस ऋषि स्त्रिष्टुप्छंद: सूर्यो देवता सूर्यप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:
देहांगन्यास : आकृष्णेन शिरसि, रजसा ललाटे, वर्तमानो मुखे, निवेशयन हृदये, अमृतं नाभौ, मर्त्यं च कट्याम, हिरण्येन सविता ऊर्व्वौ, रथेना जान्वो:, देवो याति जंघयो:, भुवनानि पश्यन पादयो:
करन्यास : आकृष्णेन रजसा अंगुष्ठाभ्याम नम:, वर्तमानो निवेशयन तर्जनीभ्याम नम:, अमृतं: मर्त्यं च मध्यामाभ्याम नम:, हिरण्ययेन अनामिकाभ्याम नम:, सविता रथेना कनिष्ठिकाभ्याम नम:, देवो याति भुवनानि पश्यन करतलपृष्ठाभ्याम नम:
हृदयादिन्यास : आकृष्णेन रजसा हृदयाय नम:, वर्तमानो निवेशयन शिरसे स्वाहा, अमृतं मर्त्यं च शिखायै वषट, हिरण्येन कवचाय हुम, सविता रथेना नेत्रत्र्याय वौषट, देवो याति भुवनानि पश्यन अस्त्राय फ़ट (दोनों हाथों को सिर के ऊपर घुमाकर दायें हाथ की पहली दोनों उंगलियों से बायें हाथ पर ताली बजायें।)
ध्यानम : पदमासन: पद मकरो द्विबाहु: पद मद्युति: सप्ततुरंगवाहन: । दिवाकरो लोकगुरु: किरीटी मयि प्रसादं विद्धातु देव:।

सूर्य गायत्री : ॐ आदित्याय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात।
सूर्य बीज मंत्र : ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्तंच। हिण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: ह्रौं ह्रीं ह्रां ॐ सूर्याय नम: ।।सूर्य जप मंत्र : ॐ ह्राँ ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम: । नित्य जाप 7000 प्रतिदिन।
चन्द्र के साथ इसकी मित्रता है।अमावस्या के दिन यह अपने आगोश में लेलेता है।
मंगल भी सूर्य का मित्र है।
बुध भी सूर्य का मित्र है तथा हमेशा सूर्य के आसपास घूमा करता है।
गुरु बृहस्पति यह सूर्य का परम मित्र है, दोनो के संयोग से जीवात्मा का संयोग माना जाता है। गुरु जीव है तो सूर्य आत्मा.
शनि सूर्य का पुत्र है लेकिन दोनो की आपसी दुश्मनी है, जहां से सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा चालू हो जाती है।"छाया मर्तण्ड सम्भूतं" के अनुसार सूर्य की पत्नी छाया से शनि की उतपत्ति मानी जाती है। सूर्य और शनि के मिलन से जातक कार्यहीन हो जाता है, सूर्य आत्मा है तो शनि कार्य, आत्मा कोई काम नहीं करती है। इस युति से ही कर्म हीन विरोध देखने को मिलता है।
शुक्र रज है सूर्य गर्मी स्त्री जातक और पुरुष जातक के आमने सामने होने पर रज जल जाता है। सूर्य का शत्रु है।
राहु सूर्य का दुश्मन है। एक साथ होने पर जातक के पिता को विभिन्न समस्याओं से ग्रसित कर देता है।
केतु यह सूर्य से सम है।
सूर्य का अन्य ग्रहों के साथ होने पर ज्योतिष से किया जाने वाला फ़ल कथन
सूर्य और चन्द्र दोनो के एक साथ होने पर सूर्य को पिता और चन्द्र को यात्रा मानने पर पिता की यात्रा के प्रति कहा जा सकता है। सूर्य राज्य है तो चन्द्र यात्रा , राजकीय यात्रा भी कही जा सकती है। एक संतान की उन्नति जन्म स्थान से बाहर होती है।
सूर्य और मंगल के साथ होने पर मंगल शक्ति है अभिमान है, इस प्रकार से पिता शक्तिशाली और प्रभावी होता है।मंगल भाई है तो वह सहयोग करेगा,मंगल रक्त है तो पिता और पुत्र दोनो में रक्त सम्बन्धी बीमारी होती है, ह्रदय रोग भी हो सकता है। दोनो ग्रह १-१२ या १७ में हो तो यह जरूरी हो जाता है। स्त्री चक्र में पति प्रभावी होता है, गुस्सा अधिक होता है, परन्तु आपस में प्रेम भी अधिक होता है,मंगल पति का कारक बन जाता है।
सूर्य और बुध में बुध ज्ञानी है, बली होने पर राजदूत जैसे पद मिलते है, पिता पुत्र दोनो ही ज्ञानी होते हैं।समाज में प्रतिष्ठा मिलती है। जातक के अन्दर वासना का भंडार होता है, दोनो मिलकर नकली मंगल का रूप भी धारण करलेता है। पिता के बहन हो और पिता के पास भूमि भी हो, पिता का सम्बन्ध किसी महिला से भी हो।
सूर्य और गुरु के साथ होने पर सूर्य आत्मा है,गुरु जीव है। इस प्रकार से यह संयोग एक जीवात्मा संयोग का रूप ले लेता है।जातक का जन्म ईश्वर अंश से हो, मतलब परिवार के किसी पूर्वज ने आकर जन्म लिया हो,जातक में दूसरों की सहायता करने का हमेशा मानस बना रहे, और जातक का यश चारो तरफ़ फ़ैलता रहे, सरकारी क्षेत्रों में जातक को पदवी भी मिले। जातक का पुत्र भी उपरोक्त कार्यों में संलग्न रहे, पिता के पास मंत्री जैसे काम हों, स्त्री चक्र में उसको सभी प्रकार के सुख मिलते रहें, वह आभूषणों आदि से कभी दुखी न रहे, उसे अपने घर और ससुराल में सभी प्रकार के मान सम्मान मिलते रहें.
सूर्य और शुक्र के साथ होने पर सूर्य पिता है और शुक्र भवन, वित्त है, अत: पिता के पास वित्त और भवन के साथ सभी प्रकार के भौतिक सुख हों, पुत्र के बारे में भी यह कह सकते हैं।शुक्र रज है और सूर्य गर्मी अत: पत्नी को गर्भपात होते रहें, संतान कम हों,१२ वें या दूसरे भाव में होने पर आंखों की बीमारी हो, एक आंख का भी हो सकता है। ६ या ८ में होने पर जीवन साथी के साथ भी यह हो सकता है। स्त्री चक्र में पत्नी के एक बहिन हो जो जातिका से बडी हो, जातक को राज्य से धन मिलता रहे, सूर्य जातक शुक्र पत्नी की सुन्दरता बहुत हो। शुक्र वीर्य है और सूर्य गर्मी जातक के संतान पैदा नहीं हो। स्त्री की कुन्डली में जातिका को मूत्र सम्बन्धी बीमारी देता है। अस्त शुक्र स्वास्थ्य खराब करता है।
सूर्य और शनि के साथ होने पर शनि कर्म है और सूर्य राज्य, अत: जातक के पिता का कार्य सरकारी हो, सूर्य पिता और शनि जातक के जन्म के समय काफ़ी परेशानी हुई हो। पिता के सामने रहने तक पुत्र आलसी हो, पिता और पुत्र के साथ रहने पर उन्नति नहीं हो। वैदिक ज्योतिष में इसे पितृ दोष माना जाता है। अत: जातक को रोजाना गायत्री का जाप २४ या १०८ बार करना चाहिये।
सूर्य और राहु के एक साथ होने पर सूचना मिलती है कि जातक के पितामह प्रतिष्ठित व्यक्ति होने चाहिये, एक पुत्र सूर्य अनैतिक राहु हो, कानून विरुद्ध जातक कार्य करता हो, पिता की मौत दुर्घटना में हो, जातक के जन्म के समय में पिता को चोट लगे,जातक को संतान कठिनाई से हो, पिता के किसी भाई को अनिष्ठ हो। शादी में अनबन हो।
सूर्य और केतु साथ होने पर पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों, कार्यों में कठिनाई हो, पिता के पास भूमि हो लेकिन किसी काम की नहीं हो।
सूर्य के साथ अन्य ग्रहों के अटल नियम जो कभी असफ़ल नही हुये
सूर्य मंगल गुरु=सर्जन
सूर्य मंगल राहु=कुष्ठ रोग
सूर्य मंगल शनि केतु=पिता अन्धे हों
सूर्य के आगे शुक्र = धन हों.
सूर्य के आगे बुध = जमीन हो।
सूर्य केतु =पिता राजकीय सेवा में हों,साधु स्वभाव हो,अध्यापक का कार्य भी हो सकता है।
सूर्य बृहस्पति के आगे = जातक पिता वाले कार्य करे.
सूर्य शनि शुक्र बुध =पेट्रोल,डीजल वाले काम।
सूर्य राहु गुरु =अधिकारी.
सूर्य के आगे मंगल राहु हों तो पैतृक सम्पत्ति समाप्त.
बारह भावों में सूर्य की स्थिति
प्रथम भाव में सूर्य -स्वाभिमानी, शूरवीर, पर्यटन प्रिय, क्रोधी परिवार से व्यथित, धन में कमी ,वायु पित्त आदि से शरीर में कमजोरी.
दूसरे भाव में सूर्य - भाग्यशाली, पूर्ण सुख की प्राप्ति, धन अस्थिर लेकिन उत्तम कार्यों के अन्दर व्यय, स्त्री के कारण परिवार में कलह, मुख और नेत्र रोग, पत्नी को ह्रदय रोग. शादी के बाद जीवन साथी के पिता को हानि.
तीसरे भाव में सूर्य - प्रतापी, पराक्रमी, विद्वान, विचारवान, कवि, राज्यसुख, मुकद्दमे में विजय, भाइयों के अन्दर राजनीति होने से परेशानी.
चौथे भाव में सूर्य - ह्रदय में जलन, शरीर से सुन्दर, गुप्त विद्या प्रेमी, विदेश गमन, राजकीय चुनाव आदि में विजय, युद्ध वाले कारण, मुकद्दमे आदि में पराजित, व्यथित मन.
पंचम भाव में सूर्य - कुशाग्र बुद्धि, धीरे धीरे धन की प्राप्ति, पेट की बीमारियां, राजकीय शिक्षण संस्थानो से लगाव,मोतीझारा,मलेरिया बुखार.
छठवें भाव में सूर्य - निरोगी न्यायवान, शत्रु नाशक, मातृकुल से कष्ट.
सप्तम भाव में सूर्य - कठोर आत्म रत, राज्य वर्ग से पीडित,व्यापार में हानि, स्त्री कष्ट.
आठवें भाव में सूर्य - धनी, धैर्यवान, काम करने के अन्दर गुस्सा, चिन्ता से ह्रदय रोग, आलस्य से धन नाश, नशे आदि से स्वास्थ्य खराब.
नवें भाव में सूर्य - योगी, तपस्वी, ज्योतिषी,साधक,सुखी, लेकिन स्वभाव से क्रूर.
दसवें भाव में सूर्य - व्यवहार कुशल, राज्य से सम्मान, उदार, ऐश्वर्य, माता को नकारात्मक विचारों से कष्ट, अपने ही लोगों से बिछोह.
ग्यारहवें भाव में सूर्य - धनी, सुखी ,बलवान , स्वाभिमानी, सदाचारी, शत्रुनाशक, अनायास सम्पत्ति की प्राप्ति, पुत्र की पत्नी या पुत्री के पति (दामाद) से कष्ट.
बारहवें भाव में सूर्य - उदासीन, आलसी, नेत्र रोगी, मस्तिष्क रोगी, लडाई झगडे में विजय,बहस करने की आदत.
हस्त रेखा में सूर्य
जीवन में पडने वाले प्रभाव को हथेली में अनामिका उंगली की जड में सूर्य पर्वत और उस पर बनी रेखाओं को देख कर सूर्य की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। सूर्य पर्वत पर बनी रेखायें ही सूर्य रेखा या सूर्य रेखायें कहलाती है।अनामिका उंगली के तर्जनी से लम्बी होने की स्थिति में ही व्यक्ति के राजकीय जीवन का फ़ल कथन किया जाता है। उन्नत पर्वत होने पर और पर्वत के मध्य सूक्ष्म गोल बिन्दु होने पर पर्वत के गुलाबी रंग का होने पर प्रतिष्ठ्त पद का कथन किया जाता है। इसी पर्वत के नीचे विवाह रेखा के उदय होने पर विवाह में राजनीति के चलते विवाह टूटने और अनैतिक सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।
अंकशास्त्र में सूर्य
ज्योतिष विद्याओं में अंक विद्या भी एक महत्वपूर्ण विद्या है। जिसके द्वारा हम थोडे समय में ही प्रश्न कर्ता के उत्तर दे सकते है।अंक विद्या में "१" का अंक सूर्य को प्राप्त हुआ है। जिस तारीख को आपका जन्म हुआ है, उन तारीखों में अगर आपकी जन्म तारीख १,१०,१९,२८, है तो आपका भाग्यांक सूर्य का नम्बर "१" ही माना जायेगा.इसके अलावा जो आपका कार्मिक नम्बर होगा वह जन्म तारीख,महिना, और पूरा सन जोडने के बाद जो प्राप्त होगा, साथ ही कुल मिलाकर अकेले नम्बर को जब सामने लायेंगे, और वह नम्बर एक आता है तो कार्मिक नम्बर ही माना जायेगा.जिन लोगों के जन्म तारीख के हिसाब से "१" नम्बर ही आता है उनके नाम अधिकतर ब, म, ट, और द से ही चालू होते देखे गये हैं। अम्क १ शुरुआती नम्बर है, इसके बिना कोई भी अंक चालू नहीं हो सकता है। इस अंक वाला जातक स्वाभिमानी होता है, उसके अन्दर केवल अपने ही अपने लिये सुनने की आदत होती है। जातक के अन्दर ईमानदारी भी होती है, और वह किसी के सामने झुकने के लिये कभी राजी नहीं होता है। वह किसी के अधीन नहीं रहना चाहता है और सभी को अपने अधीन रखना चाहता है। अगर अंक १ वाला जातक अपने ही अंक के अधीन होकर यानी अपने ही अंक की तारीखों में काम करता है तो उसको सफ़लता मिलती चली जाती है। सूर्य प्रधान जातक बहुत तेजस्वी सदगुणी विद्वान उदार स्वभाव दयालु, और मनोबल में आत्मबल से पूर्ण होता है। वह अपने कार्य स्वत: ही करता है किसी के भरोसे रह कर काम करना उसे नहीं आता है। वह सरकारी नौकरी और सरकारी कामकाज के प्रति समर्पित होता है। वह अपने को अल्प समय में ही कुशल प्रसाशक बनालेता है। सूर्य प्रधान जातक में कुछ बुराइयां भी होतीं हैं। जैसे अभिमान,लोभ,अविनय,आलस्य,बाह्य दिखावा,जल्दबाजी,अहंकार, आदि दुर्गुण उसके जीवन में भरे होते हैं। इन दुर्गुणों के कारण उसका विकाश सही तरीके से नहीं हो पाता है। साथ ही अपने दुश्मनो को नहीं पहिचान पाने के कारण उनसे परेशानी ही उठाता रहता है। हर काम में दखल देने की आदत भी जातक में होती है। और सब लोगों के काम के अन्दर टांग अडाने के कारण वह अधिक से अधिक दुश्मनी भी पैदा कर लेता है।
सूर्य ग्रह सम्बन्धी अन्य विवरण
सूर्य प्रत्यक्ष देवता है, सम्पूर्ण जगत के नेत्र हैं। इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन होता है। इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने वाला और कोई देवता नहीं है। इन्ही के उदय होने पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है, और इन्ही के अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है। इन्ही के उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने वाले का स्वागत करते हैं, और अस्त होने पर अपने घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं। सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है। सूर्य से ही दिन रात पल मास पक्ष तथा संवत आदि का विभाजन होता है। सूर्य सम्पूर्ण संसार के प्रकाशक हैं। इनके बिना अन्धकार के अलावा और कुछ नहीं है। सूर्य आत्माकारक ग्रह है, यह राज्य सुख,सत्ता,ऐश्वर्य,वैभव,अधिकार, आदि प्रदान करता है। यह सौरमंडल का प्रथम ग्रह है, कारण इसके बिना उसी प्रकार से हम सौरजगत को नहीं जान सकते थे, जिस प्रकार से माता के द्वारा पैदा नहीं करने पर हम संसार को नहीं जान सकते थे। सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत का आधार स्तम्भ है। अर्थात सारा सौर मंडल,ग्रह,उपग्रह,नक्षत्र आदि सभी सूर्य से ही शक्ति पाकर इसके इर्द गिर्द घूमा करते है, यह सिंह राशि का स्वामी है,परमात्मा ने सूर्य को जगत में प्रकाश करने,संचालन करने, अपने तेज से शरीर में ज्योति प्रदान करने, तथा जठराग्नि के रूप में आमाशय में अन्न को पचाने का कार्य सौंपा है।<ज्योतिष< शास्त्र में सूर्य को मस्तिष्क का अधिपति बताया गया है,ब्रह्माण्ड में विद्यमान प्रज्ञा शक्ति और चेतना तरंगों के द्वारा मस्तिष्क की गतिशीलता उर्वरता और सूक्षमता के विकाश और विनाश का कार्य भी सूर्य के द्वारा ही होता है। यह संसार के सभी जीवों द्वारा किये गये सभी कार्यों का साक्षी है। और न्यायाधीश के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने जैसा काम करता है। यह जातक के ह्रदय के अन्दर उचित और अनुचित को बताने का काम करता है, किसी भी अनुचित कार्य को करने के पहले यह जातक को मना करता है, और अंदर की आत्मा से आवाज देता है। साथ ही जान बूझ कर गलत काम करने पर यह ह्रदय और हड्डियों में कम्पन भी प्रदान करता है। गलत काम को रोकने के लिये यह ह्रदय में साहस का संचार भी करता है।
जो जातक अपनी शक्ति और अंहकार से चूर होकर जानते हुए भी निन्दनीय कार्य करते हैं, दूसरों का शोषण करते हैं, और माता पिता की सेवा न करके उनको नाना प्रकार के कष्ट देते हैं, सूर्य उनके इस कार्य का भुगतान उसकी विद्या,यश, और धन पर पूर्णत: रोक लगाकर उसे बुद्धि से दीन हीन करके पग पग पर अपमानित करके उसके द्वारा किये गये कर्मों का भोग करवाता है। आंखों की रोशनी का अपने प्रकार से हरण करने के बाद भक्ष्य और अभक्ष्य का भोजन करवाता है, ऊंचे और नीचे स्थानों पर गिराता है, चोट देता है।
श्रेष्ठ कार्य करने वालों को सदबुद्धि,विद्या,धन, और यश देकर जगत में नाम देता है, लोगों के अन्दर इज्जत और मान सम्मान देता है। उन्हें उत्तम यश का भागी बना कर भोग करवाता है। जो लोग आध्यात्म में अपना मन लगाते हैं, उनके अन्दर भगवान की छवि का रसस्वादन करवाता है। सूर्य से लाल स्वर्ण रंग की किरणें न मिलें तो कोई भी वनस्पति उत्पन्न नहीं हो सकती है। इन्ही से यह जगत स्थिर रहता है,चेष्टाशील रहता है, और सामने दिखाई देता है।
जातक अपना हाथ देख कर अपने बारे में स्वयं निर्णय कर सकता है, यदि सूर्य रेखा हाथ में बिलकुल नहीं है, या मामूली सी है, तो उसके फ़लस्वरूप उसकी विद्या कम होगी, वह जो भी पढेगा वह कुछ कल बाद भूल जायेगा,धनवान धन को नहीं रोक पायेंगे, पिता पुत्र में विवाद होगा, और अगर इस रेखा में द्वीप आदि है तो निश्चित रूप से गलत इल्जाम लगेंगे.अपराध और कोई करेगा और सजा जातक को भुगतनी पडेगी.
सूर्य क्रूर ग्रह भी है, और जातक के स्वभाव में तीव्रता देता है। यदि ग्रह तुला राशि में नीच का है तो वह तीव्रता जातक के लिये घातक होगी, दुनियां की कोई औषिधि,यंत्र,जडी,बूटी नहीं है जो इस तीव्रता को कम कर सके। केवल सूर्य मंत्र में ही इतनी शक्ति है, कि जो इस तीव्रता को कम कर सकता है।
सूर्य जीव मात्र को प्रकाश देता है। जिन जातकों को सूर्य आत्मप्रकाश नहीं देता है, वे गलत से गलत औ निंदनीय कार्य क बैठते है। और यह भी याद रखना चाहिये कि जो कर्म कर दिया गया है, उसका भुगतान तो करना ही पडेगा.जिन जातकों के हाथ में सूर्य रेखा प्रबल और साफ़ होती है, उन्हे समझना चाहिये कि सूर्य उन्हें पूरा बल दे रहा है। इस प्रकार के जातक कभी गलत और निन्दनीय कार्य नहीं कर सकते हैं। उनका ओज और तेज सराहनीय होता है।
सूर्य ग्रह से प्रदान किये जाने वाले रोग
जातक के गल्ती करने और आत्म विश्लेषण के बाद जब निन्दनीय कार्य किये जाते हैं, तो सूर्य उन्हे बीमारियों और अन्य तरीके से प्रताडित करने का काम करता है, सबसे बड़ा रोग निवारण का उपाय है कि किये जाने वाले गलत और निन्दनीय कार्यों के प्रति पश्चाताप, और फ़िर से नहीं करने की कसम, और जब प्रायश्चित कर लिया जाय तो रोगों को निवारण के लिये रत्न,जडी, बूटियां, आदि धारण की जावें, और मंत्रों का नियमित जाप किया जावे.सूर्य ग्रह के द्वारा प्रदान कियेजाने वाले रोग है- सिर दर्द,बुखार, नेत्र विकार,मधुमेह,मोतीझारा,पित्त रोग,हैजा,हिचकी. यदि औषिधि सेवन से भी रोग ना जावे तो समझ लेना कि सूर्य की दशा या अंतर्दशा लगी हुई है। और बिना किसी से पूंछे ही मंत्र जाप,रत्न या जडी बूटी का प्रयोग कर लेना चाहिये। इससे रोग हल्का होगा और ठीक होने लगेगा।
सूर्य ग्रह के रत्न उपरत्न
सूर्य ग्रह के रत्नों में माणिक और उपरत्नो में लालडी, तामडा, और महसूरी.पांच रत्ती का रत्न या उपरत्न रविवार को कृत्तिका नक्षत्र में अनामिका उंगली में सोने में धारण करनी चाहिये। इससे इसका दुष्प्रभाव कम होना चालू हो जाता है। और अच्छा रत्न पहिनते ही चालीस प्रतिशत तक फ़ायदा होता देखा गया है। रत्न की विधि विधान पूर्वक उसकी ग्रहानुसार प्राण प्रतिष्ठा अगर नहीं की जाती है, तो वह रत्न प्रभाव नहीं दे सकता है। इसलिये रत्न पहिनने से पहले अर्थात अंगूठी में जडवाने से पहले इसकी प्राण प्रतिष्ठा करलेनी चाहिये। क्योंकि पत्थर तो अपने आप में पत्थर ही है, जिस प्रकार से मूर्तिकार मूर्ति को तो बना देता है, लेकिन जब उसे मन्दिर में स्थापित किया जाता है, तो उसकी विधि विधान पूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद ही वह मूर्ति अपना असर दे सकती है। इसी प्रकार से अंगूठी में रत्न तभी अपना असर देगा जब उसकी विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा की जायेगी.
सूर्य ग्रह की जडी बूटियां
बेल पत्र जो कि शिवजी पर चढाये जाते है, आपको पता होगा, उसकी जड रविवार को हस्त या कृत्तिका नक्षत्र में लाल धागे से पुरुष दाहिने बाजू में और स्त्रियां बायीं बाजू में बांध लें, इस के द्वारा जो रत्न और उपरत्न खरीदने में अस्मर्थ है, उनको भी फ़ायदा होगा।
सूर्य ग्रह के लिये दान
सूर्य ग्रह के दुष्प्रभाव से बचने के लिये अपने बजन के बराबर के गेंहूं, लाल और पीले मिले हुए रंग के वस्त्र, लाल मिठाई, सोने के रबे, कपिला गाय, गुड और तांबा धातु, श्रद्धा पूर्वक किसी गरीब ब्राहमण को बुलाकर विधि विधान से संकल्प पूर्वक दान करना चाहिये।।'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
सूर्य ग्रह से प्रदत्त व्यापार और नौकरी
स्वर्ण का व्यापार, हथियारों का निर्माण, ऊन का व्यापार, पर्वतारोहण प्रशिक्षण, औषधि विक्रय, जंगल की ठेकेदारी, लकड़ी या फ़र्नीचर बेचने का काम, बिजली वाले सामान का व्यापार आदि सूर्य ग्रह की सीमा रेखा में आते है। शनि के साथ मिलकर हार्डवेयर का काम, शुक्र के साथ मिलकर पेन्ट और रंगरोगन का काम, बुध के साथ मिलकर रुपया पैसा भेजने और मंगाने का काम, आदि हैं। सचिव, उच्च अधिकारी, मजिस्ट्रेट, साथ ही प्रबल राजयोग होने पर राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, राज्य मंत्री, संसद सदस्य, इन्जीनियर, न्याय सम्बन्धी कार्य, राजदूत, और व्यवस्थापक आदि के कार्य नौकरी के क्षेत्र में आते हैं। सूर्य की कमजोरी के लिये सूर्य के सामने खडे होकर नित्य सूर्य स्तोत्र, सूर्य गायत्री, सूर्य मंत्र आदि का जाप करना हितकर ह
सूर्य के लिये आदित्य मंत्र
विनियोग :- ऊँ आकृष्णेनि मन्त्रस्य हिरण्यस्तूपांगिरस ऋषि स्त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्यप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:
देहान्गन्यास :- आकृष्णेन शिरसि, रजसा ललाटे, वर्तमानो मुखे, निवेशयन ह्रदये, अमृतं नाभौ, मर्त्यं च कट्याम, हिरण्येन सविता ऊर्व्वौ, रथेना जान्वो:, देवो याति जंघयो:, भुवनानि पश्यन पादयो:.
करन्यास :- आकृष्णेन रजसा अंगुष्ठाभ्याम नम:, वर्तमानो निवेशयन तर्जनीभ्याम नम:, अमृतं मर्त्यं च मध्यामाभ्याम नम:, हिरण्ययेन अनामिकाभ्याम नम:, सविता रथेना कनिष्ठिकाभ्याम नम:, देवो याति भुवनानि पश्यन करतलपृष्ठाभ्याम नम:
ह्रदयादिन्यास :- आकृष्णेन रजसा ह्रदयाय नम:, वर्तमानो निवेशयन शिरसे स्वाहा, अमृतं मर्त्यं च शिखायै वषट, हिरण्येन कवचाय हुम, सविता रथेना नेत्रत्र्याय वौषट, देवो याति भुवनानि पश्यन अस्त्राय फ़ट (दोनो हाथों को सिर के ऊपर घुमाकर दायें हाथ की पहली दोनों उंगलियों से बायें हाथ पर ताली बजायें.
ध्यानम :- पदमासन: पद मकरो द्विबाहु: पद मद्युति: सप्ततुरंगवाहन:। दिवाकरो लोकगुरु: किरीटी मयि प्रसादं विदधातु देव: ॥
सूर्य गायत्री :- ऊँ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात.
सूर्य बीज मंत्र :- ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: ऊँ भूभुर्व: स्व: ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्तंच। हिण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: ह्रौं ह्रीं ह्रां ऊँ सूर्याय नम: ॥
सूर्य जप मंत्र :- ऊँ ह्राँ ह्रीँ ह्रौँ स: सूर्याय नम:। नित्य जाप ७००० प्रतिदिन।
सूर्याष्टक स्तोत्र
आदि देव: नमस्तुभ्यम प्रसीद मम भास्कर। दिवाकर नमस्तुभ्यम प्रभाकर नमोअस्तु ते ॥
सप्त अश्व रथम आरूढम प्रचंडम कश्यप आत्मजम। श्वेतम पदमधरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
लोहितम रथम आरूढम सर्वलोकम पितामहम। महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम
त्रैगुण्यम च महाशूरम ब्रह्मा विष्णु महेश्वरम। महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
बृंहितम तेज: पुंजम च वायुम आकाशम एव च। प्रभुम च सर्वलोकानाम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
बन्धूक पुष्प संकाशम हार कुण्डल भूषितम। एक-चक्र-धरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
तम सूर्यम जगत कर्तारम महा तेज: प्रदीपनम। महापाप हरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥सूर्य-अष्टकम पठेत नित्यम ग्रह-पीडा प्रणाशनम। अपुत्र: लभते पुत्रम दरिद्र: धनवान भवेत ॥
आमिषम मधुपानम च य: करोति रवे: दिने। सप्त जन्म भवेत रोगी प्रतिजन्म दरिद्रता ॥
स्त्री तैल मधु मांसानि य: त्यजेत तु रवेर दिने। न व्याधि: शोक दारिद्रयम सूर्यलोकम गच्छति
सूर्याष्टक सिद्ध स्तोत्र है, प्रात: स्नानोपरान्त तांबे के पात्र से सूर्य को अर्घ देना चाहिये, तदोपरान्त सूर्य के सामने खडे होकर सूर्य को देखते हुए १०८ पाठ नित्य करने चाहिये। नित्य पाठ करने से मान, सम्मान, नेत्र ज्योति जीवनोप्रयन्त बनी रहेगी


स्वामी अयप्पा, शरणम स्वामी अयप्पा स्वामी अयप्पा

  स्वामी अयप्पा, शरणम स्वामी अयप्पा  स्वामी अयप्पा
केरल। दक्षिण भारत में शबरीमलई में अयप्पा स्वामी मंदिर है
। इस मंदिर के पास मकर संक्रांति की रात घने अंधेरे में रह रहकर यहां एक ज्योति दिखती है। इस ज्योति के दर्शन के लिए दुनियाभर से करोड़ों श्रद्धालु हर साल आते हैं।
केरल में भगवान अयप्पा का यह मंदिर करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है।जहां करोड़ों की संख्या में हर साल तीर्थयात्री आते हैं।यहां विराजते हैं भगवान अय्यप्पा। इनकी कहानी भी बहुत अनूठी है। अय्यप्पा का एक नाम 'हरिहरपुत्र' है यानी हरि (विष्णु) और हर (शिव) के पुत्र। हरि के मोहनी रूप को ही अय्यप्पा की मां माना जाता है।
शबरीमलई का नाम शबरी के नाम पर पड़ा है। जी हां, वही रामायण वाली शबरी जिसने भगवान राम को जूठे फल खिलाए थे और राम ने उसे नवधा-भक्ति का उपदेश दिया था।
इतिहासकारों के मुताबिक, पंडालम के राजा राजशेखर ने अय्यप्पा को पुत्र के रूप में गोद लिया। लेकिन भगवान अय्यप्पा को ये सब अच्छा नहीं लगा और वो महल छोड़कर चले गए।
आज भी यह प्रथा है कि हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर पंडालम राजमहल से अय्यप्पा के आभूषणों को संदूकों में रखकर एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। जो 90 किलोमीटर की यात्रा तय करके तीन दिन में शबरीमलई पहुंचती है।
कहा जाता है इसी दिन यहां एक निराली घटना होती है। पहाड़ी की कांतामाला चोटी पर असाधारण चमक वाली ज्योति दिखलाई देती है।
15 नवंबर का मंडलम और 14 जनवरी की मकर विलक्कू, ये शबरीमलई के प्रमुख उत्सव हैं। मलयालम पंचांग (माह) के पहले पांच दिनों और विशु माह यानी अप्रैल में ही इस मंदिर के पट खोले जाते हैं।
उत्सव के दौरान भक्त घी से प्रभु अय्यप्पा की मूर्ति का अभिषेक करते हैं। यहां आने वाले श्रद्धालुओं को 'स्वामी तत्वमसी' के नाम से संबोधित किया जाता है। उन्हें कुछ बातों का खास ख्याल रखना पड़ता है। इस समय श्रद्धालुओं को तामसिक प्रवृत्तियों और मांसाहार से बचना पड़ता है।
इस मंदिर में सभी जाति के लोग जा सकते हैं
।।'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
 

जय सोमनाथ की जय



जय सोमनाथ की जय jai somnath ki jai
सोमवार मंगलम शिव ज्योति लिंग मंगलम
ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। सः जूं ह्रौं ॐ  धन धन भोलेनाथ तुम्हारे कौड़ी नहीं खजाने में,
तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में |
जटा जूट के मुकुट शीश पर गले में मुंडन की माला,
माथे पर छोटा चन्द्रमा कृपाल में करके व्याला |
जिसे देखकर भय ब्यापे सो गले बीच लपटे काला,
और तीसरे नेत्र में तेरे महा प्रलय की है ज्वाला |
पीने को हर भंग रंग है आक धतुरा खाने का,
तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में |
नाम तुम्हारा है अनेक पर सबसे उत्तत है गंगा,
वाही ते शोभा पाई है विरासत सिर पर गंगा |
भूत बोतल संग में सोहे यह लश्कर है अति चंगा,
तीन लोक के दाता बनकर आप बने क्यों भिखमंगा |
अलख मुझे बतलाओ क्या मिलता है अलख जगाने में,
ये तो सगुण स्वरूप है निर्गुन में निर्गुन हो जाये |
पल में प्रलय करो रचना क्षण में नहीं कुछ पुण्य आपाये,
चमड़ा शेर का वस्त्र पुराने बूढ़ा बैल सवारी को |
जिस पर तुम्हारी सेवा करती, धन धन शैल कुमारी को,
क्या जान क्या देखा इसने नाथ तेरी सरदारी को |
सुन तुम्हारी ब्याह की लीला भिखमंगे के गाने में,
तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में |
किसी का सुमिरन ध्यान नहीं तुम अपने ही करते हो जाप,
अपने बीच में आप समाये आप ही आप रहे हो व्याप |
हुआ मेरा मन मग्न ओ बिगड़ी ऐसे नाथ बचाने में,
तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में |
कुबेर को धन दिया आपने, दिया इन्द्र को इन्द्रासन,
अपने तन पर ख़ाक रमाये पहने नागों का भूषण |
मुक्ति के दाता होकर मुक्ति तुम्हारे गाहे चरण,
"भक्त ये नाथ तुम्हारे हित से नित से करो भजन |
तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में |
ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। सः जूं ह्रौं ॐ ॥मैं विकारों से रहित , विकल्पों से रहित , निराकार , परम एश्वर्य युक्त , सर्वदा यत्किंच सभी में सर्वत्र,समान रूप में ब्याप्त हूँ , मैं ईक्षा रहित , सर्व संपन्न ,जन्म -मुक्ति से परे ,सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ 
।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!



नारायण हृदय स्तोत्रं



जय जय नारायण नारायण हरी हरी
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ...शांताकरम भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगम। लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगभिर्ध्यानिगम्यम। वंदे विष्णु भवभयहरणम् सर्वलोकैकनाथम॥
श्री नारायण हृदयम् उद्यादादित्यसङ्काशं पीतवासं चतुर्भुजम् | शङ्खचक्रगदापाणिं ध्यायेल्लक्ष्मीपतिं हरिम् || त्रैलोक्याधारचक्रं तदुपरि कमठं तत्र चानन्तभोगी | तन्मध्ये भूमि- पद्माङ्कुश- शिखरदळ कर्णिकाभूत- मेरुम् | तत्रत्यं शान्तमूर्तिं मणिमय- मकुटं कुण्डलाद्भासिताङ्गं | लक्ष्मीनारायणाख्यं सरसिज- नयनं संततं चिन्तयामः || नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः | नारायणः परं ब्रह्म नारायण नमोऽस्तु ते || नारायणः परो देवो धाता नारायणः परः | नारायणः परो धाता नारायण नमोऽस्तु ते || नारायणः परं धाम ध्यानं नारायणः परः | नारायण परो धर्मो नारायण नमोऽस्तु ते || नारायणः परो देवो विद्या नारायणः परः | विश्वं नारायणः साक्षान् नारायण नमोऽस्तु ते || नारायणाद् विधिर्जातो जातो नारायणाद् भवः | जातो नारायणादिन्द्रो नारायण नमोऽस्तु ते || रविर्नारायणस्तेजः चन्द्रो नारायणो महः | वह्निर्नारायणः साक्षात् नारायण नमोऽस्तु ते || नारायण उपास्यः स्याद् गुरुर्नारायणः परः | नारायणः परो बोधो नारायण नमोऽस्तु ते || नारायणः फलं मुख्यं सिद्धिर्नारायणः सुखम् | हरिर्नारायणः शुद्धिर्नारायण नमोऽस्तु ते || निगमावेदितानन्त- कल्याणगुण- वारिधे | नारायण नमस्तेऽस्तु नरकार्णव- तारक || जन्म- मृत्यु- जरा- व्याधि- पारतन्त्र्यादिभिः सदा | दोषैरस्पृष्टरूपाय नारायण नमोऽस्तु ते || वेदशास्त्रार्थविज्ञान- साध्यभक्त्येकगोचर | नारायण नमस्तेऽस्तु मामुद्धर भवार्णवात् || नित्यानन्द महोदार परात्पर जगत्पते | नारायण नमस्तेऽस्तु मोक्षसाम्राज्य- दायिने || आब्रह्मस्थम्ब- पर्यन्त- मखिलात्म- महश्रय | सर्वभूतात्म- भूतात्मन् नारायण नमोऽस्तु ते || पालिताशेष- लोकाय पुण्यश्रवण- कीर्तन | नारायण नमस्तेऽस्तु प्रलयोदकशायिने || निरस्त- सर्वदोषाय भक्त्यादिगुणदायिने | नारायण नमस्तेऽस्तु त्वां विना नहि मे गतिः || धर्मार्थ- काम- मोक्षाख्य- पुरुषार्थ- प्रदायिने | नारायण नमस्तेऽस्तु पुनस्तेऽस्तु नमो नमः || नारायण त्वमेवासि दहराख्ये हृदि स्थितः | प्रेरिता प्रेर्यमाणानां त्वया प्रेरित मानसः || त्वदज्ञां शिरसा कृत्वा भजामि जन- पावनम् | नानोपासन- मार्गाणां भवकृद् भावबोधकः || भावार्थकृद् भवातीतो भव सौख्यप्रदो मम | त्वन्मायामोहितं विश्वं त्वयैव परिकल्पितम् || त्वदधिष्ठान- मात्रेण सा वै सर्वार्थकारिणी | त्वमेव तां पुरस्कृत्य मम कामान् समर्थय || न मे त्वदन्यस्त्रातास्ति त्वदन्यन्न दैवतम् | त्वदन्यं न हि जानामि पालकं पुण्यवर्धनम् || यावत्सांसारिको भावो मनस्स्थो भावनात्मकः | तावत्सिद्धिर्भवेत् साध्या सर्वदा सर्वदा विभो || पापिनामहमेकाग्रो दयालूनां त्वमग्रणीः | दयनीयो मदन्योऽस्ति तव कोऽत्र जगत्त्रये || त्वयाहं नैव सृष्टश्चेत् न स्यात्तव दयालुता | आमयो वा न सृष्टश्चे- दौषधस्य वृथोदयः || पापसङ्ग- परिश्रान्तः पापात्मा पापरूप- धृक् | त्वदन्यः कोऽत्र पापेभ्यः त्रातास्ति जगतीतले || त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव | त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव || प्रार्थनादशकं चैव मूलष्टकमथःपरम् | यः पठेच्छृणुयान्नित्यं तस्य लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् || नारायणस्य हृदयं सर्वाभीष्ट- फलप्रदम् | लक्ष्मीहृदयकं स्तोत्रं यदि चैतद्विनाकृतम् || तत्सर्वं निष्फलं प्रोक्तं लक्ष्मीः क्रुध्यति सर्वदा | एतत्सङ्कलितं स्तोत्रं सर्वाभीष्ट- फलप्रदम् || जपेत् सङ्कलितं कृत्वा सर्वाभीष्ट- मवाप्नुयात् | नारायणस्य हृदयं आदौ जप्त्वा ततःपरम् || लक्ष्मीहृदयकं स्तोत्रं जपेन्नारायणं पुनः | पुनर्नारायणं जप्त्वा पुनर्लक्ष्मीनुतिं जपेत् || तद्वद्धोमाधिकं कुर्यादेतत्सङ्कलितं शुभम् | एवं मध्ये द्विवारेण जपेत् सङ्कलितं शुभम् || लक्ष्मीहृदयके स्तोत्रे सर्वमन्यत् प्रकाशितम् | सर्वान् कामानवाप्नोति आधिव्याधिभयं हरेत् || गोप्यमेतत् सदा कुर्यात् न सर्वत्र प्रकाशयेत् | इति गुह्यतमं शास्त्रं प्रोक्तं ब्रह्मादिभिः पुरा || लक्ष्मीहृदयप्रोक्तेन विधिना साधयेत् सुधी | तस्मात् सर्वप्रयत्नेन साधयेद् गोपयेत् सुधीः || यत्रैतपुस्तकं तिष्ठेत् लक्ष्मीनारायणात्मकम् | भूत पेशाच वेताळ भयं नैव तु सर्वदा || भृगुवारे तथा रात्रौ पूजयेत् पुस्तकद्वयं | सर्वदा सर्वदा स्तुत्यं गोपयेत् साधयेत् सुधीः | गोपनात् साधनाल्लोके धन्यो भवति तत्त्वतः || || इति नारायण हृदय स्तोत्रं संपूर्णम् ||।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

महाकल,, महाकल की जय ,,श्री महाकल



महाकल,,महाकल की जय,,,जय श्री महाकल कालो के काल जय श्री महाकाल की जय
ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। सः जूं ह्रौं ॐ
दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कणामृताय शशिशेखरधारणाय | कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || १|| गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय | गंगाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || २|| भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय | ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ३|| चर्मम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय | मंझीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ४|| पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय | आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ५|| भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय | नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ६|| रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय | पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ७|| मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय | मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ८|| वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणं | सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम् | त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात् || ९|| || इति श्रीवसिष्ठविरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

हनुमान चालीसा का अर्थ



 जय श्री राम !! पवन पुत्र हनुमान की जय !!
 हनुमान चालीसा का अर्थ
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन कुमार।
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस विकार॥
सद्गुरु के चरण कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ कर, श्रीराम के दोषरहित यश का वर्णन करता हूँ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चार फल देने वाला है। स्वयं को बुद्धिहीन जानते हुए, मैं पवनपुत्र श्रीहनुमान का स्मरण करता हूँ जो मुझे बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करेंगे और मेरे मन के दुखों का नाश करेंगे॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥१॥
राम दूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥२॥
श्री हनुमान की जय हो जो ज्ञान और गुण के सागर हैं, तीनों लोकों में वानरों के ईश्वर के रूप में विद्यमान श्री हनुमान की जय हो॥ आप श्रीराम के दूत, अपरिमित शक्ति के धाम, श्री अंजनि के पुत्र और पवनपुत्र नाम से जाने जाते हैं॥
महावीर विक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥३॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥४॥
आप महान वीर और बलवान हैं, वज्र के समान अंगों वाले, ख़राब बुद्धि दूर करके शुभ बुद्धि देने वाले हैं, आप स्वर्ण के समान रंग वाले, स्वच्छ और सुन्दर वेश वाले हैं, आपके कान में कुंडल शोभायमान हैं और आपके बाल घुंघराले हैं॥
हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै।
काँधे मूँज जनेऊ साजै॥५॥
शंकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बंदन॥६॥
आप हाथ में वज्र (गदा) और ध्वजा धारण करते हैं, आपके कंधे पर मूंज का जनेऊ शोभा देता है, आप श्रीशिव के अंश और श्रीकेसरी के पुत्र हैं, आपके महान तेज और प्रताप की सारा जगत वंदना करता है॥
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥७॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लषन सीता मन बसिया॥८॥
आप विद्वान, गुणी और अत्यंत बुद्धिमान हैं, श्रीराम के कार्य करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं, आप श्रीराम कथा सुनने के प्रेमी हैं और आप श्रीराम, श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मण के ह्रदय में बसते हैं॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
विकट रूप धरि लंक जरावा॥९॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥१०॥
आप सूक्ष्म रूप में श्रीसीताजी के दर्शन करते हैं, भयंकर रूप लेकर लंका का दहन करते हैं, विशाल रूप लेकर राक्षसों का नाश करते हैं और श्रीरामजी के कार्य में सहयोग करते हैं॥
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥११॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥१२॥
आपने संजीवनी बूटी लाकर श्रीलक्ष्मण की प्राण रक्षा की, श्रीराम आपको हर्ष से हृदय से लगाते हैं। श्रीराम आपकी बहुत प्रशंसा करते हैं और आपको श्रीभरत के समान अपना प्रिय भाई मानते हैं॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावै।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावै॥१३॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥१४॥
आपका यश हजार मुखों से गाने योग्य है, ऐसा कहकर श्रीराम आपको गले से लगाते हैं। सनक आदि ऋषि, ब्रह्मा आदि देव और मुनि, नारद, सरस्वती जी और शेष जी -
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोविद कहि सके कहाँ ते॥१५॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥१६॥
यम, कुबेर आदि दिग्पाल भी आपके यश का वर्णन नहीं कर सकते हैं, फिर कवि और विद्वान कैसे उसका वर्णन कर सकते हैं। आपने सुग्रीव का उपकार करते हुए उनको श्रीराम से मिलवाया जिससे उनको राज्य प्राप्त हुआ॥
तुम्हरो मंत्र विभीषन माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना॥१७॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥१८॥
आपकी युक्ति विभीषण माना और उसने लंका का राज्य प्राप्त किया, यह सब संसार जानता है। आप सहस्त्र योजन दूर स्थित सूर्य को मीठा फल समझ कर खा लेते हैं॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥१९॥
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥२०॥
प्रभु श्रीराम की अंगूठी को मुख में रखकर आपने समुद्र को लाँघ लिया, आपके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस संसार के सारे कठिन कार्य आपकी कृपा से आसान हो जाते हैं॥
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥२१॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रच्छक काहू को डरना॥२२॥
श्रीराम तक पहुँचने के द्वार की आप सुरक्षा करते हैं, आपके आदेश के बिना वहाँ प्रवेश नहीं होता है, आपकी शरण में सब सुख सुलभ हैं, जब आप रक्षक हैं तब किससे डरने की जरुरत है॥
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै॥२३॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै॥२४॥
अपने तेज को आप ही सँभाल सकते हैं, तीनों लोक आपकी ललकार से काँपते हैं। केवल आपका नाम सुनकर ही भूत और पिशाच पास नहीं आते हैं॥
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥२५॥
संकट तें हनुमान छुडावैं।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥२६॥
महावीर श्री हनुमान जी का निरंतर नाम जप करने से रोगों का नाश होता है और वे सारी पीड़ा को नष्ट कर देते हैं। जो श्री हनुमान जी का मन, कर्म और वचन से स्मरण करता है, वे उसकी सभी संकटों से रक्षा करते हैं॥
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा॥२७॥
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै॥२८॥
सबसे पर, श्रीराम तपस्वी राजा हैं, आप उनके सभी कार्य बना देते हैं। उनसे कोई भी इच्छा रखने वाले, सभी लोग अनंत जीवन का फल प्राप्त करते हैं॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥२९॥
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥३०॥
आपका प्रताप चारों युगों में विद्यमान रहता है, आपका प्रकाश सारे जगत में प्रसिद्ध है। आप साधु- संतों की रक्षा करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले और श्रीराम के प्रिय हैं॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥३१॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥३२॥
आप आठ सिद्धि और नौ निधियों के देने वाले हैं, आपको ऐसा वरदान माता सीताजी ने दिया है। आपके पास श्रीराम नाम का रसायन है, आप सदा श्रीराम के सेवक बने रहें॥
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥३३॥
अंत काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि – भक्त कहाई॥३४॥
आपके स्मरण से जन्म- जन्मान्तर के दुःख भूल कर भक्त श्रीराम को प्राप्त करता है और अंतिम समय में श्रीराम धाम (वैकुण्ठ) में जाता है और वहाँ जन्म लेकर हरि का भक्त कहलाता है॥
और देवता चित न धरई।
हनुमत से हि सर्व सुख करई॥३५॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥३६॥
दूसरे देवताओं को मन में न रखते हुए, श्री हनुमान से ही सभी सुखों की प्राप्ति हो जाती है। जो महावीर श्रीहनुमान जी का नाम स्मरण करता है, उसके संकटों का नाश हो जाता है और सारी पीड़ा ख़त्म हो जाती है॥
जै जै जै हनुमान गोसाई।
कृपा करहु गुरुदेव की नाई॥३७॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥३८॥
भक्तों की रक्षा करने वाले श्री हनुमान की जय हो, जय हो, जय हो, आप मुझ पर गुरु की तरह कृपा करें। जो कोई इसका सौ बार पाठ करता है वह जन्म-मृत्यु के बंधन से छूटकर महासुख को प्राप्त करता है॥
जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥३९॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा॥४०॥
जो इस श्री हनुमान चालीसा को पढ़ता है उसको सिद्धि प्राप्त होती है, इसके साक्षी भगवान शंकर है । श्री तुलसीदास जी कहते हैं, मैं सदा श्रीराम का सेवक हूँ, हे स्वामी! आप मेरे हृदय में निवास कीजिये॥
पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप।
राम लषन सीता सहित ह्रदय बसहु सुर भूप॥
पवनपुत्र, संकटमोचन, मंगलमूर्ति श्री हनुमान आप देवताओं के ईश्वर श्रीराम, श्रीसीता जी और श्रीलक्ष्मण के साथ मेरे हृदय में निवास कीजिये॥
 

स्वामीनारायण,,जय श्री स्वामीनारायण


सुप्रभात मित्रो आज का दिन मंगल मय हो जय श्री स्वामीनारायण
जय श्री स्वामीनारायण
स्वामी नारायण नारायण हरी हरी
तेरी लीला सबसे न्यारी न्यारी हरी हरी
तेरी महिमा, तेरी महिमा, तेरी महिमा सबसे
प्यारी प्यारी हरी हरी
जय जय नारायणा नारायणा हरी हरी
स्वामी नारायण नारायण हरी हरी
अलख निरंजन भाव भय भंजन जन्म निरंजन दाता
हमे शरण दे अपने चरण में कर निर्भय जग त्राता
तुने लाखों की नैया तारी तारी हरी हरी
प्रभु के नाम का पारस जो छूनले , वो हो जाये सोना
दो अक्षर का शब्द हरी है लेकिन बड़ा सलोना ,
उसने संकट टाली भारी भारी हरी हरी .
स्वामी नारायण नारायण हरी हरी
 

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण


.या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम...सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयंबके गौरी नारायणि नमोअस्तुते
हे अम्बे बलिहारी लगे सबको तू प्यारी तेरी शेरों की सवारी देखें सब नर नारी हे अम्बे बलिहारी .
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥१॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्ना यै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥२॥
कल्याण्यै प्रणतां वृध्दै सिध्दयै कुर्मो नमो नमः ।
नैऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥३॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यातै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥४॥
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥५॥
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शाध्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥६॥
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥७॥
या देवी सर्वभूतेषु बुध्दिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥८॥
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥९॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१०॥
या देवी सर्वभूतेषु छायारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥११॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१२॥
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१३॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१४॥
 

तिरुपति बालाजी ,,श्रीवेङ्कटेश मङ्गलाष्टकम् ॥

तिरुपति बालाजी श्री वेङ्कटेश मङ्गलाष्टकम् ॥
श्रीक्षोण्यौ रमणीयुगं सुरमणीपुत्रोऽपि वाणीपतिः
पौत्रश्चन्द्रशिरोमणिः फणिपतिः शय्या सुराः सेवकाः ।
तार्क्ष्यो यस्य रथो महश्च भवनं ब्रह्माण्डमाद्यः पुमान्
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ १॥
यत्तेजो रविकोटिकोटिकिरणान् धिक्कृत्य जेजीयते
यस्य श्रीवदनाम्बुजस्य सुषमा राकेन्दुकोटीरपि ।
सौन्दर्यं च मनोभवानपि बहून् कान्तिश्च कादम्बिनीं
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ २॥
नानारत्न किरीटकुण्डलमुखैर्भूषागणैर्भूषितः
श्रीमत्कौस्तुभरत्न भव्यहृदयः श्रीवत्ससल्लाञ्छनः ।
विद्युद्वर्णसुवर्णवस्त्ररुचिरो यः शङ्खचक्रादिभिः
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ३॥
यत्फाले मृगनाभिचारुतिलको नेत्रेऽब्जपत्रायते
कस्तूरीघनसारकेसरमिलच्छ्रीगन्धसारो द्रवैः ।
गन्धैर्लिप्ततनुः सुगन्धसुमनोमालाधरो यः प्रभुः
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ४॥
एतद्दिव्यपदं ममास्ति भुवि तत्सम्पश्यतेत्यादरा-
द्भक्तेभ्यः स्वकरेण दर्शयति यद्दृष्ट्याऽतिसौख्यं गतः ।
एतद्भक्तिमतो महानपि भवाम्भोधिर्नदीति स्पृशन्
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ५॥
यः स्वामी सरसस्तटे विहरतो श्रीस्वामिन्नाम्नः सदा
सौवर्णालयमन्दिरो विधिमुखैर्बर्हिर्मुखैः सेवितः ।
यः शत्रून् हनयन् निजानवति च श्रीभूवराहात्मकः
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ६॥
यो ब्रह्मादिसुरान् मुनींश्च मनुजान् ब्रह्मोत्सवायागतान्
दृष्ट्वा हृष्टमना बभूव बहुशस्तैरर्चितः संस्तुतः ।
तेभ्यो यः प्रददाद्वरान् बहुविधान् लक्ष्मीनिवासो विभुः
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ७॥
यो देवो भुवि वर्तते कलियुगे वैकुण्ठलोकस्थितो
भक्तानां परिपालनाय सततं कारुण्यवारां निधिः ।
श्रीशेषाख्यमहीध्रमस्तकमणिर्भक्तैकचिन्तामणि
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ८॥
शेषाद्रिप्रभुमङ्गलाष्टकमिदं तुष्टेन यस्येशितुः
प्रीत्यर्थं रचितं रमेशचरणद्वन्द्वैकनिष्टावता ।
वैवाह्यादिशुभक्रियासु पठितं यैः साधु तेषामपि
श्रीमद्वेङ्कटभूधरेन्द्ररमणः कुर्याद्धरिर्मङ्गलम् ॥ ९॥
॥ इति श्री वेङ्कटेश मङ्गलाष्टकम् सम्पूर्णम् ॥



हनुमान अष्टक,,, श्री हनुमान अष्टक

हनुमान अष्टक ,,श्री हनुमान अष्टक !! श्री राम जय राम जय जय राम !!

बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुँ लोक भयो अँधियारो ।
ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो ॥
... देवन आन करि बिनती तब, छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 1 ॥
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि, जात महाप्रभु पंथ निहारो ।
चौंकि महा मुनि शाप दिया तब, चाहिय कौन बिचार बिचारो ॥
के द्विज रूप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 2 ॥
अंगद के संग लेन गये सिय, खोज कपीस यह बैन उचारो ।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु, बिना सुधि लाय इहाँ पगु धारो ॥
हेरि थके तट सिंधु सबै तब, लाय सिया-सुधि प्राण उबारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 3 ॥
रावन त्रास दई सिय को सब, राक्षसि सों कहि शोक निवारो ।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु, जाय महा रजनीचर मारो ॥
चाहत सीय अशोक सों आगि सु, दै प्रभु मुद्रिका शोक निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 4 ॥
बाण लग्यो उर लछिमन के तब, प्राण तजे सुत रावण मारो ।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत, तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो ॥
आनि सजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्राण उबारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 5 ॥
रावण युद्ध अजान कियो तब, नाग कि फाँस सबै सिर डारो ।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल, मोह भयो यह संकट भारो ॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु, बंधन काटि सुत्रास निवारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 6 ॥
बंधु समेत जबै अहिरावन, लै रघुनाथ पाताल सिधारो ।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि, देउ सबै मिति मंत्र बिचारो ॥
जाय सहाय भयो तब ही, अहिरावण सैन्य समेत सँहारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 7 ॥
काज किये बड़ देवन के तुम, वीर महाप्रभु देखि बिचारो ।
कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसों नहिं जात है टारो ॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु, जो कछु संकट होय हमारो !




बृहस्पतये नमः,, ॐ बृं बृहस्पतये नमः..

बृहस्पतये नमः

  ॐ बृं बृहस्पतये नमः...... इस व्रत को करने से समस्त इच्छ‌एं पूर्ण होती है और वृहस्पति महाराज प्रसन्न होते है । धन, विघा, पुत्र तथा मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । परिवार में सुख तथा शांति रहती है । इसलिये यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अतिफलदायक है ।
इस व्रत में केले का पूजन ही करें । कथा और पूजन के समय मन, कर्म और वचन से शुद्घ होकर मनोकामना पूर्ति के लिये वृहस्पतिदेव से प्रार्थना करनी चाहिये । दिन में एक समय ही भोजन करें । भोजन चने की दाल आदि का करें, नमक न खा‌एं, पीले वस्त्र पहनें, पीले फलों का प्रयोग करें, पीले चंदन से पूजन करें । पूजन के बाद भगवान वृहस्पति की कथा सुननी चाहिये ।
||इस दिन ब्रह्स्पतेश्वर महादेव जी की पूजा होती है |
-- दिन में एक समय ही भोजन करें |
-- पीले वस्त्र धारण करें, पीले पुष्पों को धारण करें |
-- भोजन भी चने की दाल का होना चाहिए |
-- नमक नहीं खाना चाहिए |
-- पीले रंग का फूल, चने की दाल, पीले कपडे तथा पीले चन्दन से पूजा करनी चाहिए |
-- पूजन के बाद कथा सुननी चाहिए |
-- इस व्रत से ब्रहस्पति जी खुश होते है तथा धन और विद्या का लाभ होता है |
-- यह व्रत महिलाओ के लिए अति आवश्यक है |
-- इस व्रत मे केले का पूजन होता है |वृहस्पतिहवार व्रत कथा...... प्राचीन समय की बात है – एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था । वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पून करता था ।
यह उसकी रानी को अच्छा न लगता । न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती । राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती । एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले ग‌ए । घर पर रानी और दासी थी । उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आ‌ए । साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज । मैं इस दान और पुण्य से तंग आ ग‌ई हूँ । आप को‌ई ऐसा उपाय बता‌एं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं ।
साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी । तुम बड़ी विचित्र हो । संतान और धन से भी को‌ई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगा‌ओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें ।
परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हु‌ई । उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये ।
साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना । वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना । इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा । इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये ।
साधु के कहे अनुसार करते हु‌ए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो ग‌ई । भोजन के लिये परिवार तरसने लगा । एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी । तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है । इसलिये मैं को‌ई छोटा कार्य नही कर सकता । ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया । वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता । इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा ।

 

अम्बा माताजी की जय



श्री अम्बा माताजी की जय......अम्बे बलिहारी लगे सबको तू प्यारी तेरी शेरों की सवारी देखें सब नर नारी हे अम्बे बलिहारी ... अष्ट भुजाएं वेष अनोखा खडग तेग है तेरी शोभा तेरे जैसा कोई न होगा माँ अब आँखें खोल जय माता दी जय माता दी जय माता दी बोल हे.
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥१॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्ना यै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥२॥
कल्याण्यै प्रणतां वृध्दै सिध्दयै कुर्मो नमो नमः ।
नैऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥३॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यातै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥४॥
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥५॥
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शाध्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥६॥
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥७॥
या देवी सर्वभूतेषु बुध्दिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥८॥
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥९॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१०॥
या देवी सर्वभूतेषु छायारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥११॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१२॥
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१३॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरुपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

DEVI PUJA by VISHNU108

शुक्रवार विशेष : श्री महालक्ष्मी.


शुक्रवार विशेष : श्री महालक्ष्मी...
ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः। .श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा ।. ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः
।स्तुति-पाठ।। ।।ॐ नमो नमः।।
पद्मानने पद्मिनि पद्म-हस्ते पद्म-प्रिये पद्म-दलायताक्षि।
विश्वे-प्रिये विष्णु-मनोनुकूले, त्वत्-पाद-पद्मं मयि सन्निधत्स्व।।
पद्मानने पद्म-उरु, पद्माक्षी पद्म-सम्भवे।
त्वन्मा भजस्व पद्माक्षि, येन सौख्यं लभाम्यहम्।।
अश्व-दायि च गो-दायि, धनदायै महा-धने।
धनं मे जुषतां देवि, सर्व-कामांश्च देह मे।।
पुत्र-पौत्र-धन-धान्यं, हस्त्यश्वादि-गवे रथम्।
प्रजानां भवति मातः, अयुष्मन्तं करोतु माम्।।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रा वृहस्पतिर्वरुणो धनमश्नुते।।
वैनतेय सोमं पिब, सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो, मह्मं ददातु सोमिनि।।
न क्रोधो न च मात्सर्यं, न लोभो नाशुभा मतीः।
भवन्ती कृत-पुण्यानां, भक्तानां श्री-सूक्तं जपेत्।।...
. ॐ श्रीं श्रियै नमः। . ॐ ह्री श्रीं क्रीं श्रीं क
रीं क्लीं श्रीं महालक्ष्मी मम गृहे धनं पूरय पूरय चिंतायै दूरय दूरय स्वाहा ।
. धन लाभ एवं समृद्धि मंत्र ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिभुवन महालक्ष्म्यै अस्मांक दारिद्
र्य नाशय प्रचुर धन देहि देहि क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ ।
अक्षय धन प्राप्ति मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ॐ ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्री ॐ ।

LAXMI LOTUS by VISHNU108

ॐ भूर्भुवः स्वः


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
अर्थः उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध पवणीय तेज का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।
महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान
"'गायत्री मंत्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्माओं की उन्नति के लिऐ उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त ह्रुदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।"
-महात्मा गाँधी
"ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमको दिऐ हैं, उनमें से ऐक अनुपम रत्न गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है।"
-महामना मदन मोहन मालवीय
"भारतवर्ष को जगाने वाला जो मंत्र है, वह इतना सरल है कि ऐक ही श्वाँस में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह मंत्र है गायत्री मंत्र।"
-रवींद्रनाथ टैगोर
"गायत्री मे ऍसी शक्ति सन्निहित है, जो महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है।"
-योगी अरविंद
"गायत्री का जप करने से बडी‍-बडी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह मंत्र छोटा है, पर इसकी शक्ति भारी है।"
-स्वामी रामकृष्ण परमहंस
"गायत्री सदबुद्धि का मंत्र है, इसलिऐ उसे मंत्रो का मुकुटमणि कहा गया है।"

शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश

शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश.............
एक बार पार्वती जी भगवान शंकर जी के साथ सत्संग कर रही थीं। उन्होंने भगवान भोलेनाथ से पूछा, गृहस्थ लोगों का कल्याण किस तरह हो सकता है? शंकर जी ने बताया, सच बोलना, सभी प्राणियों पर दया करना, मन एवं इंद्रियों पर संयम रखना तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं। जो व्यक्ति अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों की सेवा करता है, जो शील एवं सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है, ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि एवं महर्षि प्रसन्न रहते हैं।
भगवान शिव ने आगे उन्हें बताया, जो दूसरों के धन पर लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की नजर से नहीं देखता, जो झूठ नहीं बोलता, जो किसी की निंदा-चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया भाव रखता है, जो सौम्य वाणी बोलता है और स्वेच्छाचार से दूर रहता है, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है।
भगवान शिव ने माता पार्वती को आगे बताया कि मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और शुभ प्रारब्ध बनता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही प्रारब्ध बनता है।,,
'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.,,  प्रारब्ध अत्यंत बलवान होता है, उसी के अनुसार जीव भोग करता है। प्राणी भले ही प्रमाद में पड़कर सो जाए, परंतु उसका प्रारब्ध सदैव जागता रहता है। इसलिए हमेशा सत्कर्म करते रहना चाहिए।
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शुभ रात्रि मित्रो कल मिलते हेँ

शुभ रात्रि मित्रो कल मिलते हेँ आप सभी मित्रों को मेरा सादर नमस्कार
जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणा-कर करतार हरे,जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशि, सुख-सार हरेजय शशि-शेखर, जय डमरू-धर जय-जय प्रेमागार हरे,जय त्रिपुरारी, जय मदहारी,
जय शिव शंकर जय महादेवा,शिव शंकर जय महादेव बम बम भोले


शनिदेव,,जय श्री शनिदेव.शनि शिंगणापुर

 शनिदेव,,जय श्री शनिदेव.शनि शिंगणापुर **शनि की साढेसाती के अशुभ फलों के उपाय

नीलांजन समाभासम रविपुत्रं यमाग्रजम छाया मार्तण्ड सम्भूतं तम नमामि ..... शनैश्चरम**लगभग तीन हजार जनसंख्या के शनि शिंगणापुर गाँव में किसी भी घर में दरवाजा नहीं है। कहीं भी कुंडी तथा कड़ी लगाकर ताला नहीं लगाया जाता। इतना ही नहीं, घर में लोग आलीमारी, सूटकेस आदि नहीं रखते। ऐसा शनि भगवान की आज्ञा से किया जाता है।
शनि की साढेसाती के अशुभ फलों के उपाय..
1. राजा दशरथ विरचित शनि स्तोत्र के सवा लक्ष जप।
2. शनि मंदिर या चित्र पूजन कर प्रतिदिन इस मंत्र का पाठ करें:-
नमस्ते कोण संस्थाय, पिंगलाय नमोस्तुते।
नमस्ते वभु्ररूपाय, कृष्णाय च नमोस्तुते ।।
नमस्ते रौद्रदेहाय, नमस्ते चांतकाय च।
नमस्ते यमसंज्ञाय, नमस्ते सौरये विभौ।।
नमस्ते मंदसंज्ञाय, शनैश्चर नमोस्तुते।
प्रसादं कुरू में देवेश, दीनस्य प्रणतस्य च।।
3. घर में पारद और स्फटिक शिवलिंग (अन्य नहीं) एक चौकी पर, शुचि बर्तन में स्थापित कर, विधानपूर्वक पूजा अर्चना कर, रूद्राक्ष की माला से महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए।
4. सुंदरकाण्ड का पाठ एवं हनुमान उपासना, संकटमोचन का पाठ करें।
5. हनुमान चालीसा, शनि चालीसा और शनैश्चर देव के मंत्रों का पाठ करें। ऊँ शं शनिश्चराय नम:।।
6. शनि जयंती पर, शनि मंदिर जाकर, शनिदेव का अभिषेक कर दर्शन करें।
7. ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम: के 23,000 जप करें फिर 27 दिन तक शनि स्तोत्र के चार पाठ रोज करें।
अन्य उपाय
1. शनिवार को सायंकाल पीपल के पेड के नीचे मीठे तेल का दीपक जलाएं।
2. घर के मुख्य द्वार पर, काले घोडे की नाल, शनिवार के दिन लगावें।
3. काले तिल, ऊनी वस्त्र, कंबल, चमडे के जूते, तिल का तेल, उडद, लोहा, काली गाय, भैंस, कस्तूरी, स्वर्ण, तांबा आदि का दान करें।
4. शनिदेव के मंदिर जाकर, उन्हें काले वस्त्रों से सुसज्जित कराकर यथाविध काले गुलाब जामुन का प्रसाद चढाएं।
5. घोडे की नाल अथवा नाव की कील का छल्ला बनवाकर मघ्यमा अंगुली में पहनें।
6. अपने घर के मंदिर में एक डिबिया में सवा तीन रत्ती का नीलम सोमवार को रख दें और हाथ में 12 रूपये लेकर प्रार्थना करें शनिदेव ये आपके नाम के हैं फिर शनिवार को इन रूपयों में से 10 रूपये के सप्तधान्य (सतनाज) खरीदकर शेष 2 रूपये सहित झाडियों या चींटी के बिल पर बिखेर दें और शनिदेव से कष्ट निवारण की प्रार्थना करें।
7. कडवे तेल में परछाई देखकर, उसे अपने ऊपर सात बार उसारकर दान करें, पहना हुआ वस्त्र भी दान दे दें, पैसा या आभूषण आदि नहीं।
8. शनि विग्रह के चरणों का दर्शन करें, मुख के दर्शन से बचें।
9. शनिव्रत : श्रावण मास के शुक्ल पक्ष से, शनिव्रत आरंभ करें, 33 व्रत करने चाहिएँ, तत्पश्चात् उद्यापन करके, दान करें।
शनि मेहनत और कठिन समय में अन्धेरे में बिना साधनों के कार्य करने की शिक्षा देता है,राहु छुपी हुयी शक्ति के रूप मे कार्य करने की शिक्षा देता है,केतु सहायता लेकर कार्य करने की शिक्षा को देता है। जीवन में शनि का समय उन्नीस साल का होता है,और अन्य ग्रहों का अलग अलग समय नियत किया गया है। लेकिन शनि का साढेशाती का समय जीवन में लगभग छ: बार आता है,जिसमें तीन बार ऊपर उठने का और तीन बार नीचे गिरने का होता है। इस उठने और गिरने के समय में मनुष्य को कठिन समय का उपयोग करना पडता है,लेकिन जैसे ही वह कठिन समय को व्यतीत कर लेता है तो उसे आगे के जीवन में दूसरे ग्रहों से सम्बन्धित कार्य करने में दिक्कत नही आती है,वह अपने को किसी भी समय की विकट परिस्थितियों में काम करने का आदी हो जाता है।
जो कार्य मनुष्य अपने आराम के लिये करने के लिये उद्धत रहता है। प्रत्येक ग्रह अपने अपने अनुसार मनुष्य को कार्य करने की शिक्षा देता है। उन शिक्षाओं में सूर्य देखने के बाद कार्य करने की शिक्षा देता है,चन्द्रमा सोचने के बाद कार्य करने की शिक्षा देता है,मंगल हिम्मत से कार्य करने की शिक्षा देता है,बुध पूंछ पूंछ कर और महसूस करने के बाद कार्य करने की शिक्षा देता है,गुरु सम्बन्ध बनाकर और शिक्षा को लेकर ज्ञान को बढा कर कार्य करने की शिक्षा देता है,शुक्र भावनाओं को और प्रतिस्पर्धा को सामने रखकर एक दूसरे की कला को विकसित करने के बाद कार्य को करने की शिक्षा देता है

अक्सर जीव कभी अपने अपने अनुसार कार्य नही करता है,अगर वह करता भी है तो उसे आराम करने की अधिक तलब होती है,आराम के साधनों के लिये वह तरह तरह के प्रयोग करता है और कार्य को पूरा करने के लिये वह नियत समय का उपयोग नही करता है,इन सब के लिये शनि उस किये जाने वाले कार्य को करने के लिये अपने अपने अनुसार उन साधनों से दूर करता है

शनि कर्म करने का अधिकार और कर्म करने की शक्ति के साथ क्रिया के दौरान काम करने के बाद सीखने और किये जाने वाले कार्यों से थकने के बाद आराम करने के साधन देता है,राहु किये जाने वाले कार्यों में अचानक परिवर्तन करने की शक्ति देता है,केतु हर जीव के अन्दर सहायता के रूप में शरीर के अंगों सह्ति संसारिक प्राणियों के रूप में अपनी अपनी क्रिया से सहायता के लिये पैदा करता है। क्रियाओं को करने के बाद जीव के द्वारा जो गल्ती होती है और जो कार्य सुचारु रूप से नही किये जाते है या जिन कार्यों के दौरान कार्य नियम से नही किये जाते है,अथवा जीव अपनी बुद्धि के अनुसार जो कार्य जिस समय पर किया जाना था उस कार्य को उस समय पर नही करता है तो शनि उस जीव को अपने अपने समय में कार्य को दुबारा करने के लिये या कार्य को कठिन अवस्था में करने के लिये अपने समय को देता है। जो कर्म मनुष्य के द्वारा समय पर नही किया गया है,या समय पर उस कार्य की शिक्षा अपने ऐशो आराम के कारण नही ले पाया है तो शनि उस कार्य को करने के लिये प्रेक्टिकल रूप से कार्य को करने की शिक्षा देता है।
.जय जय श्री शनिदेव.शनि शिंगणापुर 

 

हनुमान नाम।


साक्षात शिव का अवतार हैं हनुमान यूं तो भगवान हनुमान जी को अनेक नामों से पुकारा जाता है, जिसमें से उनका एक नाम वायु पुत्र भी है। जिसका शास्त्रों में सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है। शास्त्रों में इन्हें वातात्मज कहा गया है अर्थात् वायु से उत्पन्न होने वाला।
पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।
कैसे पड़ा हनुमान नाम।
वायु द्वारा उत्पन्न हनुमान के जन्म का नाम वायु पुत्र था परंतु उनका नाम हनुमान कैसे पड़ा इसके पीछे भी एक रोचक घटना है।
इसके पीछे भी एक रोचक घटना है।
एक बार की बात है। कपिराज केसरी कहीं बाहर गए हुए थे। माता अंजना भी बालक हनुमान को पालने में लिटाकर वन में फल-फूल लेने चली गई थीं। बालक हनुमान जी को भूख लगी, माता अंजना की अनुपस्थिति में ये क्रंदन करने लगे। सहसा इनकी दृष्टि उगते हुए सूर्य भगवान पर गई। हनुमान जी ने सूर्य को कोई लाल मीठा फल समझकर छलांग लगाई|
 

हनुमान चालीसा जय हनुमान ज्ञान गुण सागर


शुभ रात्रि मित्रो कल मिलते हेँ आप सभी मित्रों को मेरा सादर नमस्कार
!! श्री राम जय राम जय जय राम !Bhadra Maruti Temple, Khuldabad is a famous temple dedicated to Hanuman located at Khuldabad, near Aurangabad, Maharashtra. The temple is just four km from world famous Ellora caves भद्रा मारुति मंदिर, खुल्दाबाद औरंगाबाद, महाराष्ट्र, में स्थित हनुमान को समर्पित मंदिर है. मंदिर विश्व प्रसिद्ध एलोरा की गुफाओं से सिर्फ चार किमी दूर है

दोहा श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।।
चौपाई  य हनुमान ज्ञान गुन सागर
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥१॥
राम दूत अतुलित बल धामा
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥२॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी
कुमति निवार सुमति के संगी॥३॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा
कानन कुंडल कुँचित केसा॥४॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥५॥
शंकर सुवन केसरी नंदन
तेज प्रताप महा जगवंदन॥६॥
विद्यावान गुनी अति चातुर
राम काज करिबे को आतुर॥७॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया
राम लखन सीता मन बसिया॥८॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥९॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे
रामचंद्र के काज सँवारे॥१०॥
लाय संजीवन लखन जियाए
श्रीरघुबीर हरषि उर लाए॥११॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥१२॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावै
अस कहि श्रीपति कंठ लगावै॥१३॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा
नारद सारद सहित अहीसा॥१४॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते
कवि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥१५॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥१६॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना
लंकेश्वर भये सब जग जाना॥१७॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू
लिल्यो ताहि मधुर फ़ल जानू॥१८॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥१९॥
दुर्गम काज जगत के जेते
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥२०॥
राम दुआरे तुम रखवारे
होत ना आज्ञा बिनु पैसारे॥२१॥
सब सुख लहैं तुम्हारी सरना
तुम रक्षक काहु को डरना॥२२॥
आपन तेज सम्हारो आपै
तीनों लोक हाँक तै कापै॥२३॥
भूत पिशाच निकट नहिं आवै
महावीर जब नाम सुनावै॥२४॥
नासै रोग हरे सब पीरा
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥२५॥
संकट तै हनुमान छुडावै
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥२६॥
सब पर राम तपस्वी राजा
तिन के काज सकल तुम साजा॥२७॥
और मनोरथ जो कोई लावै
सोई अमित जीवन फल पावै॥२८॥
चारों जुग परताप तुम्हारा
है परसिद्ध जगत उजियारा॥२९॥
साधु संत के तुम रखवारे
असुर निकंदन राम दुलारे॥३०॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता
अस बर दीन जानकी माता॥३१॥
राम रसायन तुम्हरे पासा
सदा रहो रघुपति के दासा॥३२॥
तुम्हरे भजन राम को पावै
जनम जनम के दुख बिसरावै॥३३॥
अंतकाल रघुवरपुर जाई
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥३४॥
और देवता चित्त ना धरई
हनुमत सेई सर्व सुख करई॥३५॥
संकट कटै मिटै सब पीरा
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥३६॥
जै जै जै हनुमान गोसाई
कृपा करहु गुरु देव की नाई॥३७॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहिं बंदि महा सुख होई॥३८॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥३९॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मह डेरा॥४०॥
दोहा  पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥



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