Monday 29 April 2019

श्री वल्लभाचार्य जी

श्री वल्लभाचार्य जी श्री कृष्ण: शरणम् ममः॥ 
वैशाख कृष्ण एकादशी" 
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
भक्तिकालीन सगुणधारा की
कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ
एवं पुष्टिमार्गके प्रणेता
"श्रीवल्लभाचार्यजी" (१४७९-१५३१)
का प्रादुर्भाव (प्राकट्य) वि.संवत् १५३५
वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत
के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण
श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारू
के गर्भ से हुआ। यह स्थान वर्तमान
छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर के निकट
चम्पारण्य है। जहाँ पर वर्तमान में
श्रीमहाप्रभुजी की बैठक भी स्थित है।
जिस दिन श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य
हुआ उसके समकालीन व्रज में
श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द
का प्राकट्य हुआ।
श्रीवल्लभाचार्यजी के भूतल पर
प्रकट होने के मुख्य कारण
१>दैवी जीवों का उद्धार करना !
२>श्रीमद्भागवत महापुराण के गूढ़
आशय को प्रकट करना !
‘‘दैवोद्धार प्रयत्नात्मा“
‘‘श्री भागवत गूढ़ार्थ प्रकाशन परायण।“
मुख्य वैष्णव सम्प्रदाय चार हैं –
१>श्रीरामानुजाचार्य सम्प्रदाय !
२>श्रीमध्वाचार्य सम्प्रदाय !
३>श्रीनिम्बार्काचार्यसम्प्रदाय !
४>श्रीवल्लभाचार्य सम्प्रदाय !
(पुष्टि सम्प्रदाय) "पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय"
हे श्रीकृष्ण ! मैं आपका दास हूँ !!
॥श्री कृष्ण: शरणम् ममः॥
॥जय श्रीकृष्ण॥
भगवान श्रीकृष्ण परमब्रह्म पुरुषोत्तम हैं।
उनकी अनन्यभाव से भक्ति करने वाले
जीवों का सर्व विधि कल्याण है।
शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय एवं पुष्टिमार्ग में शरण,
समर्पण और सेवा का क्रम निश्चित किया
गया है। जिनमें नवधा भक्ति का समावेश
हो जाता है इसलिए हमारे आचार्य श्री के
उपदेशानुसार प्रथम प्रभु की शरण में
जाने का आदेश है। जीव प्रभु का अंश है।
प्रभु से वियोग होने के कारण वह
विविध दोष तथा दुःखों से युक्त हो रहा है।
आचार्य श्री ने समस्त दोषों तथा दुःखों की
निवृत्ति के लिये एवं निर्दोष बनने के लिये
तथा आत्यन्तिक सुख प्राप्ति के लिये
भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाने की
शिक्षा तथा दीक्षा दी है। इसी दीक्षा के
अवसर पर आचार्य श्री ने शरण भावना
प्रधान अष्टाक्षर महामन्त्र का उपदेश देकर
सदैव शरण भावना रखने की शिक्षा दी है।
जीव के दोष मात्र का कारण उसका
अहंकार तथा अभिमान है। इस अहंकार
का उदय न हो तथा दीनताभाव सदैव
सुदृढ रहे इसके लिये
“श्रीकृष्ण: शरणम् ममः” अर्थात मेरे लिये
श्रीकृष्ण ही शरण हैं, रक्षक हैं, आश्रय हैं –
वही मेरे लिये सर्वस्व हैं। मैं दास हूं, प्रभु
मेरे स्वामी हैं और मैं आपकी शरण में हूँ।
इस भावना से दीनता बनी रहती है, तथा
अहंकार का उदय नही होता।
श्रीवल्लभाचार्यजी" के मतानुसार -
*तीन स्वीकार्य तत्त्व हैं-
ब्रह्म, जगत् और जीव।
ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं-
आधिदैविक,आध्यात्मिक एवं
अंतर्यामी रूप। अनंत दिव्य गुणों
से युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही
परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर
रूप एवं लीलाओं को ही जीव में
आनंद के आविर्भाव का स्त्रोत
माना गया है। जगत् ब्रह्म की लीला
का विलास है। संपूर्ण सृष्टि लीला
के निमित्त ब्रह्म की आत्म-कृति है।
*भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह को पुष्टि
कहा गया है। भगवान के इस विशेष
अनुग्रह से उत्पन्न होने वाली भक्ति
को 'पुष्टि भक्ति' कहा जाता है। जीवों
के तीन प्रकार हैं-
'पुष्टि जीव' जो भगवान के अनुग्रह
पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में
प्रवेश के अधिकारी बनते हैं।
'मर्यादा जीव' जो वेदोक्त विधियों
का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न
लोक प्राप्त करते हैं। और
'प्रवाह जीव' जो जगत्-प्रपंच में
ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखों
की प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टारत रहते हैं।
"भगवान् श्रीकृष्ण"
भक्तों के निमित्त व्यापी वैकुण्ठ में
{जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थित है}
नित्य क्रीडाएं करते हैं। इसी व्यापी
वैकुण्ठ का एक खण्ड है-
'गोलोक' जिसमें यमुना, वृन्दावन,
निकुंज व गोपियां सभी नित्य
विद्यमान हैं। भगवद्सेवा के माध्यम
से वहां भगवान की नित्य लीला-सृष्टि
में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है।
प्रेम लक्षणा भक्ति उक्त मनोरथ की
पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव
की प्रवृत्ति मात्र भगवद्नुग्रह द्वारा
ही संभव है।
श्री मन्महाप्रभु वल्लभाचार्यजी
के पुष्टिमार्ग {अनुग्रह मार्ग} का यही
आधारभूत सिद्धांत है। पुष्टि-भक्ति
की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं-
प्रेम, आसक्ति और व्यसन।
मर्यादा-भक्ति में भगवद्प्राप्ति
शमदमादि साधनों से होती है,
किंतु पुष्टि-भक्ति में भक्त को
किसी साधन की आवश्यकता
न होकर मात्र भगवद्कृपा का
आश्रय होता है। मर्यादा-भक्ति
स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति
ही श्रेष्ठ मानी गई है।
यह भगवान में मन की निरंतर
स्थिति है। पुष्टिभक्ति का लक्षण
यह है कि भगवान के स्वरूप की
प्राप्ति के अतिरिक्त भक्त अन्य
किसी फल की आकांक्षा ही न रखे।
पुष्टिमार्गीय जीव की सृष्टि
भगवत्सेवार्थ ही है-
"भगवद्रूप सेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत्" !
प्रेमपूर्वक भगवत्सेवाभक्ति का
यथार्थ स्वरूप है। भागवतीय
आधार पर भगवान श्रीकृष्ण
ही सदा सर्वदा सेव्य, स्मरणीय
तथा कीर्तनीय हैं
ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का संबंध
निरूपण करते हुए उनका मत था
कि जीव ब्रह्म का सदंश है, जगत्
भी ब्रह्म का सदंश है। अंश एवं
अंशी में भेद न होने के कारण
जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर
अभेद है। अंतर मात्र इतना है कि
जीव में ब्रह्म का आनंदांश आवृत्त
रहता है, जबकि जड़ जगत में
इसके आनन्दांश व चैतन्यांश
दोनों ही आवृत्त रहते हैं। ब्रह्म को
कारण और जीव-जगत को उसके
कार्य रूप में वर्णित कर तीनों
शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित
किए जाने के कारण ही उक्त मत
"शुद्धाद्वैतवाद" कहलाया !!!
श्री कृष्ण: शरणम् मम:॥
ॐश्रीकृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्ॐ
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने !
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः !!
"जय-जय श्रीकृष्ण !!!!”
॥ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय
गोपीजनवल्लभाय नम:॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
"जय जय ठाकुर"
श्रीराधेकृष्णाय नमो नमः !
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी
हे नाथ नारायण वासुदेवाय !
॥जय श्रीकृष्ण॥
श्रीनाथजी शरणम् मम: !
श्रीयमुनाजी शरणम् मम: !
श्रीठाकुरजी शरणम् मम !
हे महाप्रभुजी शरणम् मम: !
पुष्टि मार्ग में भगवान कृष्ण के
उस स्वरूप की आराधना की
जाती है जिसमें उन्होंने बाएँ हाथ
से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और
उनका दायाँ हाथ कमर पर है।
श्रीनाथ जी का बायाँ हाथ
वि. सं.१४१० में गोवर्धन पर्वत पर
प्रकट हुआ। उनका मुख तब प्रकट
हुआ जब श्री वल्लभाचार्यजी का
जन्म वि. सं.१४७९ में हुआ।
अर्थात् कमल के समान मुख का
प्राकट्य हुआ।
वि. सं.१४९३ में श्रीवल्लभाचार्यजी
को अर्धरात्रि में भगवान श्रीनाथ जी
के दर्शन हुए।
साधू पांडे जो गोवर्धन पर्वत की
तलहटी में रहते थे उनकी एक गाय
थी। एक दिन गाय ने श्रीनाथजी
को दूध चढ़ाया। शाम को दुहने पर
दूध न मिला तो दूसरे दिन साधू पांडे
गाय के पीछे गया और पर्वत पर
श्रीनाथजी के दर्शन पाकर धन्य हो
गया। दूसरी सुबह सब लोग पर्वत
पर गए तो देखा कि वहाँ दैवीय बालक
भाग रहा था। वल्लभाचार्यजी को
उन्होंने आदेश दिया कि मुझे एक
स्थल पर विराजित कर नित्य प्रति
मेरी सेवा करो।
श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी ने
सब ब्रजवासियों बताया की
लीला अवतार "भगवान श्रीनाथजी"
का प्राकट्य हुआ है, इस पर सब
ब्रजवासी बडे हर्षित हुये।
श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी सभी
को साथ ले श्रीगोवर्धन पर्वत पर
पहुँचे और श्रीनाथजी का
भव्य मंदिर निर्माण कराया
और ब्रजवासियों को श्रीनाथजी
की सेवा आराधना की विधिवत
जानकारी प्रदान कर उन्हें
श्रीनाथजी की सेवा में नियुक्त किया।
तभी से श्रीनाथ जी की सेवा मानव
दिनचर्या के अनुरूप की जाती है।
इसलिए इनके मंगला, श्रृंगार, ग्वाल,
राजभोग, उत्थापन, आरती, भोग,
शयन के दर्शन होते हैं।
"श्रीबालकृष्ण ही श्रीनाथजी है"
पुष्टिमार्गके प्रणेता "श्रीवल्लभाचार्यजी"
के प्राकट्योत्सव पर
॥जय श्री कृष्ण॥
॥श्रीकृष्ण शरणम् मम:॥
"बहुलोक कल्याणमस्तु"
॥स्वस्ति सर्वदा श्रीरस्तु॥
ॐस्वस्तिश्री॥ ॥जय श्रीकृष्ण॥
"श्रीबालकृष्ण ही श्रीनाथजी है"
पुष्टिमार्गके प्रणेता "श्रीवल्लभाचार्यजी"
के प्राकट्योत्सव पर
॥जय श्री कृष्ण॥
॥श्री कृष्ण: शरणम् मम:॥
ॐश्रीकृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्ॐ
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने !
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः !!
"जय-जय श्रीकृष्ण !!!!”
॥ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय
गोपीजनवल्लभाय नम:॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
"जय जय ठाकुर"
श्रीराधेकृष्णाय नमो नमः !
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी
हे नाथ नारायण वासुदेवाय !
॥जय श्रीकृष्ण॥
श्रीनाथजी शरणम् मम: !
श्रीयमुनाजी शरणम् मम: !
श्रीठाकुरजी शरणम् मम !
हे महाप्रभुजी शरणम् मम: !
!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557
"बहुलोक कल्याणमस्तु"

वरूथिनी एकादशी

वरूथिनी एकादशी के व्रत से दानों में जो उत्तम दान कन्या दान कहा गया है उसका फल मिलता है।
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
माधव यह भी कहते है कि पृथ्वी पर मनुष्य के कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले चित्रगुप्त जी भी इस एकदशी के व्रत के पुण्य को लिखने में असमर्थ हैं। पापी से पापी व्यक्ति भी इस व्रत का पालन करे तो उसके पाप विचार धीरे धीरे लोप हो जाते हैं व स्वर्ग का अधिकारी बन जाता है।
पृथ्वी के राजा मान्धाता ने वैसाख कृष्ण पक्ष में एकादशी का व्रत रखा था जिसके फलस्वरूप मृत्यु पश्चात उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। त्रेतायुग में जन्मे राम के पूर्वज इच्छवाकु वंश के राजा धुन्धुमार को भगवान शिव ने एक बार श्राप दे दिया था। धुन्धुमार ने तब इस एकादशी का व्रत रखा जिससे वह श्राप से मुक्त हो कर उत्तम लोक को प्राप्त हुए।
व्रत विधान,,,,,,,श्री कृष्ण द्वारा व्रत के महात्मय को सुनने के पश्चात युधिष्ठिर बोले हे गुणातीत हे योगेश्वर अब आप इस व्रत का विधान जो है वह सुनाइये। युधिष्ठिर की बात सुनकर श्री कृष्ण कहते हैं हे धर्मराज इस व्रत का पालन करने वाले को दशमी के दिन स्नानादि से पवित्र होकर भगवान की पूजा करनी चाहिए। इस दिन कांसे के बर्तन, मसूर दाल, मांसाहार, शहद, शाक, उड़द, चना, का सेवन नहीं करना चाहिए। व्रती को इस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और स्त्री प्रसंग से दूर रहना चाहिए। आत्मिक शुद्धि के लिए पुराण का पाठ और भग्वद् चिन्तन करना चाहिए।
एकादशी के दिन प्रात: स्नान करके श्री विष्णु की पूजा विधि सहित करनी चाहिए। विष्णु सहस्त्रनाम का जाप एवं उनकी कथा का रसपान करना चाहिए। श्री विष्णु के निमित्त निर्जल रहकर व्रत का पालन करना चाहिए। किसी के लिए अपशब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए व परनिन्दा से दूर रहना चाहिए। रात्रि जागरण कर भजन, कीर्तन एवं श्री हरि का स्मरण करना चाहिए।
द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात स्वयं तुलसी से परायण करने के पश्चात अन्न जल ग्रहण करना चाहिए।!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

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