Monday 22 October 2018

जप मंत्र के प्रकार

जप मंत्र के प्रकार गुरु से मंत्र दीक्षा लेकर साधन मंत्र का जप आरंभ करें। जिनके लिए सुभीता हो,
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वे किसी एकांत पवित्र स्थान में, नदी किनारे अथवा शिवालय में जप करें। जिनके ऐसी सुभीता न हो वे अपने घर में ही जप के लिए कोई रम्य स्थान बना लें। इस स्थान में देवताओं, तीर्थों और साधु महात्माओं के चित्र रखें। उन्हें फूलमाला चढ़ाएं, धूप दें। स्वयं स्नान करके भस्म,चंदन लगाकर चैलाजिन कुशोत्तर आसन बिछाकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके कंधे पर उपवस्त्र धारण किए, इष्टदेव और गुरु का स्मरण करते हुए आसन पर बैठें। जो नित्य कर्म करने वाले हैं वे पहले संध्या-वंदन कर लें, तब प्रात:काल में सूर्यनारायण को नमस्कार करें, पश्चात देवपूजन करके नित्य पाठ कर लें।
जो संध्या आदि करना नहीं जानते, वे पहले गंगा, नर्मदा आदि नामों से शरीर पर जल,मार्जन करें, तब एकाग्रचित्त हो सूर्य ध्यान करके नमस्कार करें, अनंतर अपने इष्टदेव का ध्यान करके गुरुमंत्र से सब उपचार उन्हें अर्पण करें। फिर स्तोत्र पाठादि करके आसन पर बैठें। आसन स्वस्तिक, पद्म अथवा सिद्ध इनमें से कोई भी हो। दृष्टि को नासाग्र करके प्राणायाम करें। अनंतर थोड़ी देर सावकाश पूरक और रेचक करें। इसके बाद माला हाथ में लेकर जप आरंभ करें। मेरु-मणि का उल्लंघन न करें। अपनी सुविधा देखकर जप संख्या निश्चित कर लें और रोज उतनी संख्या पूरी करें और वह जप अपने इष्टदेव को अर्पण करें। इसके पश्चात अपने इष्टदेव के पुराण और उपदेश से कुछ पढ़ लें।
श्रीराम के भक्त हों तो श्री अध्यात्म रामायण, श्रीराम गीता और श्रीराम चरित मानस। श्रीकृष्ण के भक्त हों तो श्रीभागवत और श्रीगीता पढ़ें। अनंतर तीर्थप्रसाद लेकर उठें। इस क्रम से श्रद्धापूर्वक कोई साधना करे तो वह कृतार्थ हो जाएगा। यह सब तर्क से नहीं, करके देखने से ही कोई जान सकता है। उसका चित्त आनंद से भर जाएगा। पाप, ताप, दैन्य सब नष्ट हो जाएगा। ईश्वर रूप में चिर विश्रांति प्राप्त होगी। संपूर्ण तत्वज्ञान स्फुरित होने लगेगा और शक्ति भी प्राप्त होगी। प्रत्येक देवता के सहस्र नाम हैं, प्रत्येक के अपने उपदेश हैं, भक्त इनका उपयोग करें। प्रात:काल गीता आदि से कोई श्लोक पढ़कर दिनभर उसका मनन करें। सायंकाल में पंचोपचार पूजा आदि होने के बाद जप करके सहस्र नाम में से कोई नाम ध्यान में लाकर उसके अर्थ का विचार करते हुए सो जाएं। इससे शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
जप के अनेक प्रकार हैं,, उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि।
1. नित्य जप
प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है।
2. नैमित्तिक जप
किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है।
3. काम्य जप
किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है।
4. निषिद्ध जप
मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है।
5. प्रायश्चित जप
अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गोमूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्या पूरी करें
6. अचल जप
यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है।
7. चल जप
यह जप नाम स्मरण जैसा है। 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सुमरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो।
8. वाचिक जप
जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है।
9. उपांशु उपाय
वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है।
10. भ्रमर जप
भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है।
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है।
योगतारावली' में भगवान श्री शंकराचार्य कहते हैं कि भगवान श्री शंकर ने मनोलय के सवा लाख उपाय बताए। उनमें नादानुसंधान को सबसे श्रेष्ठ बताया। उस अनाहत संगीत को श्रवण करने का प्रयत्न करने से पूर्व भ्रमर-जप सध जाए तो आगे का मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है। चित्त को तुरंत एकाग्र करने का इससे श्रेष्ठ उपाय और कोई नहीं है। इस जप से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और उसके द्वारा वह स्वपरहित साधन कर सकता है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों में काम देता है। शांत समय में यह जप करना चाहिए। इस जप से यौगिक तन्द्रा बढ़ती जाती है और फिर उससे योगनिद्रा आती है। इस जप के सिद्ध होने से आंतरिक तेज बहुत बढ़ जाता है और दिव्य दर्शन होने लगते हैं, दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है, इष्टदर्शन होते हैं, दृष्टांत होते हैं और तप का तेज प्राप्त होता है। कवि कुलतिलक कालिदास ने जो कहा है
शमप्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दहात्मकमस्ति तेज:।
बहुत ही ठीक है 'शमप्रधान तपस्वियों में (शत्रुओं को) जलाने वाला तेज छिपा हुआ रहता है।
11. मानस जप
यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
(प्रबोधसुधाकर 144 ,148) 'योगतारावली' में श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसका वर्णन किया है। श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने 'ज्ञानेश्वरी' में इस साधन की बात कही है। अनेक संत महात्मा इस साधन के द्वारा परम पद को प्राप्त हो गए। यह ऐसा साधन है कि अल्पायास से निजानंद प्राप्त होता है। नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है। बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनंद होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनंद ऐसा है कि तुरंत मनोलय होकर प्राणजय और वासनाक्षय होता है।
इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत:।
मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित:।।
'श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राणवायु है। प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है।'
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है।
12. अखंड जप
यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है-
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।
'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मंत्रार्थ का विचार करके उस भावना के साथ मंत्रावृत्ति करें। तब जप बंद करके स्वरूपवाचक 'अजो नित्य:' इत्यादि शब्दों का विचार करते हुए स्वरूप ध्यान करें। तब ध्यान बंद करके तत्वचिंतन करें। आत्मविचार में ज्ञानविषयक ग्रंथावलोकन भी आ ही जाता है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, शांकरभाष्य, श्रीमदाचार्य के स्वतंत्र ग्रंथ, अद्वैतसिद्धि, स्वाराज्यसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि, खंडन-खंडखाद्य, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योवासिष्ट आदि ग्रंथों का अवलोकन अवश्य करें। जो संस्कृत नहीं जानते, वे भाषा में ही इनके अनुवाद पढ़ें अथवा अपनी भाषा में संत-महात्माओं के जो तात्विक ग्रंथ हों, उन्हें देखें। आत्मानंद के साधनस्वरूप जो दो संपत्तियां हैं, उनके विषय में कहा गया है-
अत्यन्ताभावसम्पत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुन:।
युक्तया शास्त्रैर्यतन्ते ये ते तन्त्राभ्यासिन: स्थिता:।।
(यो.वा.)
ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिथ्या हैं। ऐसी स्थिर बुद्धि का स्थिर होना अभाव संपत्ति कहाता है और ज्ञाता और ज्ञेय रूप से भी उनकी प्रतीति का न होना अत्यंत अभाव संपत्ति कहाता है। इस प्रकार की संपत्ति के लिए जो लोग युक्ति और शास्त्र के द्वारा यत्नवान होते हैं, वे ही मनोनाश आदि के सच्चे अभ्यासी होते हैं।
ये अभ्यास तीन प्रकार के होते हैं- ब्रह्माभ्यास, बोधाभ्यास और ज्ञानाभ्यास।
दृश्यासम्भवबोधेन रागद्वेषादि तानवे।
रतिर्नवोदिता यासौ ब्रह्माभ्यास: स उच्यते।।
(यो.वा.)
दृश्य पदार्थों के असंभव होने के बोध से रागद्वेष क्षीण होते हैं, तब जो नवीन रति होती है, उसे ब्रह्माभ्यास कहते हैं।
सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव तत्सदा।
इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदु: परम्।।
(यो.वा.)
सृष्टि के आदि में यह जगत उत्पन्न ही नहीं हुआ। इसलिए वह यह जगत और अहं (मैं) हैं ही नहीं, ऐसा जो बोध होता है, उसे ज्ञाता लोग बोधाभ्यास कहते हैं।
तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्वबोधनम्।
एतदेकपरत्वं च ज्ञानाभ्यासं विदुर्बुधा:।।
(यो.वा.)
उसी तत्व का चिंतन करना, उसी का कथन करना, परस्पर उसी का बोध करना और उसी के परायण होकर रहना, इसको बुधजन ज्ञानाभ्यास के नाम से जानते हैं।
अभ्यास अर्थात आत्मचिंतन का यह सामान्य स्वरूप है। ये तीनों उपाय अर्थात जप, ध्यान और तत्वचिंतन सतत करना ही अखंड जप है। सतत 12 वर्षपर्यंत ऐसा जप हो, तब उसे तप कहते हैं। इससे महासिद्धि प्राप्त होती है। गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि अनेक संतों ने ऐसा तप किया था।
13. अजपा जप
यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते है
14. प्रदक्षिणा जप
इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है मनोरथ पूर्ण होता है।
यहां तक मंत्र जप के कुछ प्रकार, विस्तार भय से संक्षेप में ही निवेदन किए। अब यह देखें कि जपयोग कैसा है योग से इसका कैसा साम्य है। योग के यम नियमादि 8 अंग होते हैं। ये आठों अंग जप में आ जाते हैं। 15. यम यह बाह्येन्द्रियों का निग्रह अर्थात 'दम' है। आसन पर बैठना, दृष्टि को स्थिर करना यह सब यम ही है। (2) नियम- यह अंतरिन्द्रियों का निग्रह अर्थात् 'शम्' है। मन को एकाग्र करना इत्यादि से इसका साधन इसमें होता है। (3) स्थिरता से सुखपूर्वक विशिष्ट रीति से बैठने को आसन कहते हैं। जप में पद्मासन आदि लगाना ही पड़ता है।
16. प्राणायाम- विशिष्ट रीति से श्वासोच्छवास की क्रिया करना प्राणायाम है। जप में यह करना ही पड़ता है। (5) प्रत्याहार शब्दादि विषयों की ओर मन जाता है, वहां से उसे लौटकर अंतरमुख करना प्रत्याहार है, सो इसमें करना पड़ता है। (6) धारणा एक ही स्थान में दृष्टि को स्थिर करना जप में आवश्यक है। (7) ध्यान ध्येय पर चित्त की एकाग्रता जप में होनी ही चाहिए। (8) समाधि ध्येय के साथ तदाकारता जप में आवश्यक ही है। तात्पर्य, अष्टांग योग जप में आ जाता है, इसीलिए इसे जपयोग कहते हैं। कर्म, उपासना, ज्ञान और योग के मुख्य ,मुख्य अंग जपयोग में हैं इसलिए यह मुख्य साधन है। यह योग सदा सर्वदा सर्वत्र सबके लिए है। इस समय तो इससे बढ़कर कोई साधन ही नहीं।
मंत्र जप का मूल भाव होता है- मनन। जिस देव का मंत्र है उस देव के मनन के लिए सही तरीके धर्मग्रंथों में बताए है। शास्त्रों के मुताबिक मंत्रों का जप पूरी श्रद्धा और आस्था से करना चाहिए। साथ ही, एकाग्रता और मन का संयम मंत्रों के जप के लिए बहुत जरुरी है। माना जाता है कि इनके बिना मंत्रों की शक्ति कम हो जाती है और कामना पूर्ति या लक्ष्य प्राप्ति में उनका प्रभाव नहीं होता है।
मंत्र जप नियम
17.मंत्रों का पूरा लाभ पाने के लिए जप के दौरान सही मुद्रा या आसन में बैठना भी बहुत जरूरी है। इसके लिए पद्मासन मंत्र जप के लिए श्रेष्ठ होता है। इसके बाद वीरासन और सिद्धासन या वज्रासन को प्रभावी माना जाता है।
18, मंत्र जप के लिए सही वक्त भी बहुत जरूरी है। इसके लिए ब्रह्ममूर्हुत यानी तकरीबन 4 से 5 बजे या सूर्योदय से पहले का समय श्रेष्ठ माना जाता है। प्रदोष काल यानी दिन का ढलना और रात्रि के आगमन का समय भी मंत्र जप के लिए उचित माना गया है।
19.अगर यह वक्त भी साध न पाएं तो सोने से पहले का समय भी चुना जा सकता है।
20. मंत्र जप प्रतिदिन नियत समय पर ही करें।
एक बार मंत्र जप शुरु करने के बाद बार बार स्थान न बदलें। एक स्थान नियत कर लें।
21, मंत्र जप में तुलसी, रुद्राक्ष, चंदन या स्फटिक की 108 दानों की माला का उपयोग करें। यह प्रभावकारी मानी गई है।
22. किसी विशेष जप के संकल्प लेने के बाद निरंतर उसी मंत्र का जप करना चाहिए।
23.मंत्र जप के लिए कच्ची जमीन, लकड़ी की चौकी, सूती या चटाई अथवा चटाई के आसन पर बैठना श्रेष्ठ है। सिंथेटिक आसन पर बैठकर मंत्र जप से बचें।
24.मंत्र जप दिन में करें तो अपना मुंह पूर्व या उत्तर दिशा में रखें और अगर रात्रि में कर रहे हैं तो मुंह उत्तर दिशा में रखें।
25,मंत्र जप के लिए एकांत और शांत स्थान चुनें। जैसे कोई मंदिर या घर का देवालय।
26.मंत्रों का उच्चारण करते समय यथासंभव माला दूसरों को न दिखाएं। अपने सिर को भी कपड़े से ढंकना चाहिए।
27 .माला का घुमाने के लिए अंगूठे और बीच की उंगली का उपयोग करें।माला घुमाते समय माला के सुमेरू यानी सिर को पार नहीं करना चाहिए, जबकि माला पूरी होने पर फिर से सिर से आरंभ करना चाहिए।
करमाला
28,निश्चित संख्या में मंत्र जप के लिए जप माला का उपयोग किया जाता है, किंतु शास्त्रों में मंत्रों की गिनती के लिए ऐसा तरीका भी बताया गया है, जो किसी कारणवश जप माला न होने पर भी कारगर और शुभ माना जाता है। यह तरीका है करमाला यानी उंगलियों पर मंत्रों की गिनती से मंत्र जप।
30.घर से बाहर होने पर या जप माला न उपलब्ध हो, तो जानिए बिना जप माला उंगलियों पर मंत्रों की गिनती कर मंत्र जप का यह खास उपाय
31,दाएं हाथ की अनामिका यानी रिंग फिंगर के बीच के पोरुओं से शुरू कर कनिष्ठा यानी लिटिल फिंगर के पोरुओं से होते हुए तर्जनी यानी इंडेक्स फिंगर के मूल तक के 10 पोरुओं को गिन मंत्र जप करें।
अनामिका यानी रिंग फिंगर के बीच के शेष 2 पोरुओं को माला का सुमेरू मानकर पार न करें।
32,दाएं हाथ पर दस मंत्र की गिनती कर बाएं हाथ की अनामिका यानी मिडिल फिंगर के बीच के पोरुओं से दहाई की एक संख्या गिने।
दाएं हाथ के साथ बाएं हाथ पर दहाई के दस बार मंत्र गिनने पर 100 मंत्र संख्या पूरी हो जाती है।
33,आखिरी आठ मंत्र जप के लिए फिर से दाएं हाथ पर ही उसी तरह अनामिका यानी मिडिल फिंगर के मध्य भाग से गिनती शुरू कर शेष 8 मंत्र जप कर पूरे 108 मंत्र यानी एक माला पूरी की जा सकती है।
34,जप तीन प्रकारका होता है
वाचिक, उपांशु और मानसिक । वाचिक जप धीरे धीरे बोलकर होता है । उपांशु जप इस प्रकार किया जाता है, जिससे दूसरा न सुन सके । मानसिक जपमें जीभ और ओष्ठ नही हिलते । तीनों पहलेकी अपेक्षा दूसरा और दूसरेकी अपेक्षा तीसरा प्रकार श्रेष्ठ है ।
प्रातःकाल दोनो हाथोंको उत्तान कर, सायंकाल नीचेकी ओर करके और मध्याह्नमे सीधा करके जप करना चाहिये । प्रातःकाल हाथको नाभिके पास, मध्याह्नमे ह्रदयके समीप और सायंकाल मुँहके समानान्तरमे रखे । जपकी गणना चन्दन, अक्षत, पुष्प, धान्य, हाथके पोर और मिट्टीसे न करे । जपकी गणना के लिये लाख, कुश, सिन्दूर और सूखे गोबरको मिलाकर गोलियाँ बना ले । जप करते समय दाहिने हाथको जपमालीमें डाल ले अथवा कपड़ेसे ढक लेना आवश्यक होता है, किंतु कपड़ा गीला न हो । यदि सूखा वस्त्र न मिल सके तो सात बार उसे हवामें फटकार ले तो वह सूखा-जैसा मान लिया जाता है । जपके लिये मालाके अनामिका अँगुलीपर रखकर अँगूठेसे स्पर्श करते हुए मध्यमा अँगुलीसे फेरना चाहिये । सुमेरुका उल्लङ्घन न करे । तर्जनी न लगाए । सुमेरुके पाससे मालाको घुमाकर दुसरी बार जपे । जप करते समय हिलना, डोलना, बोलना निषिद्ध है । यदि जप करते समय बोल दिया जाय तो भगवानका स्मरण कर फिरसे जप करना चाहिये ।
35,यदि माला गिर जाय तो एक सौ आठ बार जप करे । यदि माला पैरपर गिर जाय तो इसे धोकर दुगुना जप करे ।
36,क, स्थान-भेदसे जपकी श्रेष्ठताका तारतम्य
घर में जप करनेसे के गुना, गोशालामे सौ गुना, पुण्यमय वन या वाटिका तथा तीर्थमे हजार गुना, पर्वतपर दस हजार गुना, नदी-तटपर लाख गुना, देवालयमें करोड़ गुना तथा शिवलिङ्गके निकट अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है
गृहे चैकगुणः प्रोक्तः गोष्ठे शतगुणः स्मृतः ।पुण्यारण्ये तथा तीर्थे सहस्त्रगुणमुच्यते ॥
अयुतः पर्वते पुण्यं नद्यां लक्षगुणो जपः ।कोटिर्देवलये प्राप्ते अनन्तं शिवसंनिधौ ॥
37,ख, माला-वन्दना - निम्नलिखित मन्त्रसे मालाकी वन्दना करे
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।चतुर्वर्गस्त्वयि नयस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्नामि दक्षिणे करे ।जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्ध्ये ॥
38,देवमन्त्रकी करमाला
अङ्गुल्यग्रे च यज्जप्तं यज्जप्तं मेरुलङ्घनात् ।पर्वसन्धिषु यज्जप्तं तत्सर्वं निष्फलं भवेत ॥
39,अँगुलियोंके अग्रभाग तथा पर्वकी रेखाओंपर ओर सुमेरुका उल्लङ्घन कर किया हुआ जप निष्फल होता है ।
यस्मिन् स्थाने जपं कुर्याद्धरेच्छक्रो न तत्फलम् ।तन्मृदा लक्ष्म कुर्वीत ललाटे तिलकाकृतिम् ।
40,जिस स्थानपर जप किया जाता है, उस स्थानकी मृत्तिका जपके अनन्तर मस्तकपर लगाये अन्यथा उस जपका फल इन्द्र ले लेते है ।
41, 1 ,के अनुसार अङ्क 1 से आरम्भ कर 10 अङ्कतक अँगूठेसे जप करनेसे एक करमाला होती है । इसी प्रकार दस करमाला जप करके 1 अङ्कसे आरम्भ करके 8 अङ्कतक जप करनेसे 108, संख्याकी माला होती है ।
42,अनामिकाके मध्यवाले पर्वसे आरम्भकर क्रमशः पाँचों अँगुलियोंके दसों पर्वपर (अँगूठेको घुमावे ) और मध्यमा अङ्गुलेके मूलमें जो दो पर्व है, उन्हे मेरु मानकर उसका उल्लङ्घन न करे । यह गायत्रीकल्पके अनुसार करमाला है, जिसका वर्णन ऊपरके चित्रमें भी दिखाया गया है
आरभ्यानामिकामध्यं पर्वाण्युक्तान्यनुक्रमात् ।तर्जनीमूलपर्यन्तं जपेद्‌ दशसु पर्वसु ॥
मध्यमाङ्गुलिमूले तु यत्पर्व द्वितयं भवेत् ।तद्‌ वै मेरुं विजानीयाज्जपे तं नातिलङ्घयेत ॥
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

Friday 19 October 2018

बुध पूर्णिमा बौद्ध धर्म अनुयायियों का सबसे बड़ा त्यौहार है।

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बुध पूर्णिमा बौद्ध धर्म अनुयायियों का सबसे बड़ा त्यौहार है।
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 इस दिन बौद्ध धर्म को मानने वाले कई तरह के समारोह आयोजित करते हैं। दुनिया भर में फैले बौद्ध अनुयायी इसे अपने अपने तरीके से मनाते हैं।
मान्यताएं कहते है कि अगर बुध पूर्णिमा के दिन धर्मराज के निमित्त जलपूर्ण कलश और पकवान दान किये जाएं तो सबसे बड़े दान गोदान के बराबर फल मिलता है
-हिन्दू मान्यता के अनुसार बुध पूर्णिमा के दिन पांच या सात ब्राह्मणों को मीठे तिल दान करने चाहिए। ऐसा करने से पापों का नाश होता है।
-मान्यता यह भी है क़ि बुध पूर्णिमा के दिन अगर एक समय भोजन करके पूर्णिमा, चन्द्रमा या सत्यनारायण का व्रत किया जाए, तो जीवन में कोई कष्ट नहीं होता।
श्रीलंका में बुध पूर्णिमा को काफी हद तक भारत की दीपावली की तरह मनाया जाता है, यहाँ इस दिन घरों में दीपक जलाए जाते हैं। घरों और प्रांगणों को फूलों से सजाया जाता है।
बुध पूर्णिमा के दिन लखनऊ के गोमती नदी किनारे बनारस के घाट की तर्ज पर महंत दिव्यागिरि जी महाराज गोमती आरती करती हैं
बुध पूर्णिमा के दिन बोधगया में काफी लोग आते हैं, दुनिया भर से बौद्ध धर्म को मानने वाले यहां आते हैं
बुध पूर्णिमा के दिन बोधिवृक्ष की पूजा की जाती है, बोधिवृक्ष बिहार के गया जिले में बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर में हैं, वास्तव में यह एक पील का पेड़ है। मान्यता है कि इसी पेड़ के नीचे ईसा पूर्व में भगवान् बुध को बोध यानी ज्ञान प्राप्त हुआ था।
बुध पूर्णिमा के दिन बोधिवृक्ष की टहनियों को भी सजाया जाता है, इसकी जड़ों में दूध और इत्र डाला जाता है और दीपक जलाए जाते हैं
कुछ लोग बुध पूर्णिमा के दिन पंक्षियों को भी पिंजरों से आजाद करते हैं
बुद्ध पूर्णिमा या बुद्ध जयंती सारी दुनिया में बौद्धों का सबसे बड़ा त्योहार है। बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था और यही उनकी ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ( मृत्यु ) का भी दिन है। यह पर्व वैशाख माह में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। आइये हम भगवान बुद्ध के अनमोल जीवन और उनकी शिक्षाओं के बारे में जानते हैं।
बुद्धं शरणम् गच्छामि बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ !
भगवान बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी नामक स्थान पे हुआ था। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके पिता का नाम शुद्धोधन एवं माताजी के नाम मायादेवी था। उनके बारे में प्रचलित है कि एक दिन बुद्ध घर से बाहर निकले तो उन्होंने एक अत्यंत बीमार व्यक्ति को देखा, जब थोड़ा आगे गए तो एक बूढ़े आदमी को देखा तथा अंत में एक मृत व्यक्ति को देखा। इन सब दृश्यों को देखकर उनके मन में एक प्रश्न उठा कि क्या मैं भी बीमार पडूंगा, वृद्ध हो जाऊंगा, और मर जाऊंगा! इन प्रश्नों ने उन्हें बहुत ज्यादा परेशान कर दिया था। तभी उन्होंने एक सन्यासी को देखा और उसी समय ही उन्होंने मन ही मन सन्यास ग्रहण करने की ठान ली।
29 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और सन्यास ग्रहण कर वे सन्यासी बन गए। महात्मा बुद्ध ने एक पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान की खोज में छः वर्षों तक कठोर तपस्या की जहाँ उन्हें सत्य का ज्ञान हुआ जिसे “सम्बोधि” कहा गया। उस पीपल के पेड़ को तभी से बोधि वृक्ष कहा जाता है। महात्मा बुद्ध को जिस स्थान पर बोध या ज्ञान की प्राप्ति हुई उस स्थान को बोधगया कहा जाता है। महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था एवं उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की। 483 ई.पू. में कुशीनगर में बैशाख पूणिर्मा के दिन अमृत आत्मा मानव शरीर को छोङ ब्रहमाण्ड में लीन हो गई। इस घटना को ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है।
बुद्ध ने चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया है और बौद्ध धर्म के अनुसार चार मुख्य सच्चाइयों (चार आर्य सत्य) को हमेशा याद रखना चाहिए। ये सच्चाइयां ही बौद्ध धर्म के आधार हैं जो निम्नलिखित हैं। १. संसार में दुःख है।
२. दुःख का प्रमुख कारण तृष्णा (तीव्र ईच्छा) है।
३. दुखों का समुदाय है।
४. दुखों से बचने का उपाय है।
दुःख की समाप्ति के लिए मनुष्य को सदमार्ग से परिचित होना चाहिए जिसे महात्मा बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग कहा है जिसमें उन्होंने आठ बातों को सम्मिलित किया है:-
१. सम्यकदृष्टि, २. सम्यकसंकल्प, ३. सम्यकवाक, ४. सम्यककर्म, ५. सम्यकआजीव, ६. सम्यकव्यायाम. ७. सम्यकस्मृति ८. सम्यकसमाधि
भगवान बुद्ध के अनुसार पवित्र जीवन बिताने के लिए मनुष्य को दोनों प्रकार की अति से बचना चाहिए। न तो उग्र तप करना चाहिए और न ही सांसारिक सुखों में लगे रहना चाहिए, उन्होंने मध्यम मार्ग के महत्व पर बल दिया है। बुद्ध ने ईश्वर और आत्मा दोनों को नहीं माना, वे हमेशा अपने शिष्यों से कहा करते थे कि उन्होंने किसी नये धर्म की स्थापना नहीं की है तथा यह धर्म हमेशा से चला आ रहा है धर्म ही है। उन्होंने अपने विचार लोगों को अपनी ही भाषा (प्राकृत) में समझाया। महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघों की स्थापना की जिसमे सभी जातियों के पुरूष एवं महिलाओं को प्रवेश दिया गया। बौद्ध संघ बहुत ही अनुशासनबद्ध और जनतांत्रिक संगठन थे।। बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को तीन ग्रंथों में एकत्र किया गया है जिन्हें “त्रिपिटक” कहते हैं। बुद्ध ने जात-पाँत, ऊंच-नीच के भेदभाव तथा धार्मिक जटिलता को गलत बताया है।
आइये बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर हम भगवान बुद्ध का स्मरण कर उनके दिखाए मार्ग पर चलने का प्रयास करें ।
बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ 

Saturday 13 October 2018

दुर्गा सप्तशती पाठ अद्भुत शक्तियां प्रदान करता

दुर्गा सप्तशती पाठ अद्भुत शक्तियां प्रदान करता
है
नवरात्र के दौरान माता को प्रसन्न करने के लिए साधक विभिन्न प्रकार के पूजन करते हैं
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 जिनसे माता प्रसन्न उन्हें अद्भुत शक्तियां प्रदान करती हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि नवरात्र में दुर्गा सप्तशती का नियमित पाठ विधि-विधान से किया जाए तो माता बहुत प्रसन्न होती हैं। दुर्गा सप्तशती में (700) सात सौ प्रयोग है जो इस प्रकार है:- मारण के 90, मोहन के 90, उच्चाटन के दो सौ(200), स्तंभन के दो सौ(200), विद्वेषण के साठ(60) और वशीकरण के साठ(60)। इसी कारण इसे सप्तशती कहा जाता है। दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
सर्वप्रथम साधक को स्नान कर शुद्ध हो जाना चाहिए।
तत्पश्चात वह आसन शुद्धि की क्रिया कर आसन पर बैठ जाए।
माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें। शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर चार बार आचमन करें।
 इसके बाद प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर देवी को अर्पित करें तथा मंत्रों से संकल्प लें। देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार विधि से पुस्तक की पूजा करें।
फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए।
इसके बाद उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है।
इसके जप के पश्चात् मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए।
तत्पश्चात पूरे ध्यान के साथ माता दुर्गा का स्मरण करते हुए दुर्गा सप्तशती पाठ करने से सभी प्रकार की मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं।
“दुर्गा सप्तशती ” साल में चार नवरात्रें होते हैं, ये शायद बहुत कम लोगों को पत्ता होता है | सर्वोत्तम माह महिना की नवरात्री की मान्यता है | किन्तु क्रम इस प्रकार है चैत्र ,आषाढ़ ,आश्विन ,और माह  प्रायः “उत्तर भारत” में चैत्र एवं आश्विन की नवरात्री लोग विशेष धूम धाम से मानते हैं ,किन्तु “दक्षिण भारत “में आषाढ़ और माह की नव्रत्रियाँ विशेष प्रकार से लोग मनाते हैं | सच तो यह भी है, कि जिनको पत्ता है ,वो चारो नवरात्रियों में विशेष पूजन इत्यादि करते हैं
दुर्गा अर्थात दुर्ग शब्द से दुर्गा बना है , दुर्ग =किला ,स्तंभ , शप्तशती अर्थात सात सौ | जिस ग्रन्थ को सात सौ श्लोकों में समाहित किया गया हो उसका नाम शप्तशती है
महत्व  जो कोई भी इस ग्रन्थ का अवलोकन एवं पाठ करेगा “माँ जगदम्बा” की उसके ऊपर असीम कृपा होगी
कथा  “सुरथ और “समाधी ” नाम के राजा एवं वैश्य का मिलन किसी वन में होता है ,और वे दोनों अपने मन में विचार करते हैं, कि हमलोग राजा एवं सभी संपदाओं से युक्त होते हुए भी अपनों से विरक्त हैं ,किन्तु यहाँ वन में, ऋषि के आश्रम में, सभी जीव प्रसन्नता पूर्वक एकसाथ रहते हैं | यह आश्चर्य लगता है ,कि क्या कारण है ,जो गाय के साथ सिंह भी निवास करता है, और कोई भय नहीं है,जब हमें अपनों ने परित्याग कर दिए, तो फिर अपनों की याद क्यों आती है | वहाँ ऋषि के द्वारा यह ज्ञात होता है ,कि यह उसी ” महामाया ” की कृपा है ,सो पुनः ये दोनों ” दुर्गा” की आराधना करते हैं ,और “शप्तशती ” के बारहवे अध्याय में आशीर्वाद प्राप्त करते हैं ,और अपने परिवार से युक्त भी हो जाते हैं |
भाव - जो कोई भी” माँ जगदम्बा “की शरण लेगा ,उसके ऊपर माँ की असीम कृपा होगी ,संसार की समस्त बाधा का निवारण करेंगीं  अतः सभी को “दुर्गा शप्तशती ” का पाठ तो करने ही चाहिए ,और इस ग्रन्थ को अपने कुलपुरोहित से जानना भी चाहिए….
दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग प्रयोग से कामनापूर्ति
लक्ष्मी, ऐश्वर्य, धन संबंधी प्रयोगों के लिए पीले रंग के आसन का प्रयोग करें।
वशीकरण, उच्चाटन आदि प्रयोगों के लिए काले रंग के आसन का प्रयोग करें। बल, शक्ति आदि प्रयोगों के लिए लाल रंग का आसन प्रयोग करें।
सात्विक साधनाओं, प्रयोगों के लिए कुश के बने आसन का प्रयोग करें।
वस्त्र , लक्ष्मी संबंधी प्रयोगों में आप पीले वस्त्रों का ही प्रयोग करें। यदि पीले वस्त्र न हो तो मात्र धोती पहन लें एवं ऊपर शाल लपेट लें। आप चाहे तो धोती को केशर के पानी में भिगोंकर पीला भी रंग सकते हैं।
हवन करने से
जायफल से कीर्ति और किशमिश से कार्य की सिद्धि होती है।
आंवले से सुख और केले से आभूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देकर यथाविधि हवन करें।
खांड, घी, गेंहू, शहद, जौ, तिल, बिल्वपत्र, नारियल, किशमिश और कदंब से हवन करें।
गेंहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
खीर से परिवार, वृद्धि, चम्पा के पुष्पों से धन और सुख की प्राप्ति होती है।
आवंले से कीर्ति और केले से पुत्र प्राप्ति होती है।
कमल से राज सम्मान और किशमिश से सुख और संपत्ति की प्राप्ति होती है।
खांड, घी, नारियल, शहद, जौं और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है।
व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यंत नम्रता के साथ प्रमाण करें और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दें। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। नवरात्र व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।
दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति-
1- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
3- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये।
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।
दुर्गा सप्तशती के लाभ
वैदिक आहुति की सामग्री
प्रथम अध्याय-एक पान पर देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना।
द्वितीय अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष
तृतीय अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद
चतुर्थ अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,
चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से देह नाश होता है। इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है।
पंचम अध्ययाय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है।
षष्टम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र।
सप्तम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं।
अष्टम अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन।
नवम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना।
दशम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था।
एकादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र 39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 में अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मेें फूल चावल और सामग्री।
द्वादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मेें नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41 पर इत्र, फूल और चावल
त्रयोदश अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल।
साधक जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारता रहता है जबकि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारने का विधान है- चार बार चरणों पर से दो बार नाभिे पर से, एक बार मुख पर से, सात बार पूरे शरीर पर से। इस प्रकार चौदह बार आरती की जाती है। जहां तक हो सके विषम संख्या अर्थात 1, 5, 7 बत्तियॉं बनाकर ही आरती की जानी चाहिये।
शैलपुत्री साधना- भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छा पूर्ति।
ब्रहा्रचारिणी साधना- विजय एवं आरोग्य की प्राप्ति।
चंद्रघण्टा साधना- पाप-ताप व बाधाओं से मुक्ति हेतु।
कूष्माण्डा साधना- आयु, यश, बल व ऐश्वर्य की प्राप्ति।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार रोजगार सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।
विभिनन मनोकामनाओं के लिए दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग श्लोक मंत्र रूप में प्रयुक्त होते हैं जिनका ज्ञान किसी योग्य विद्वान से पूछकर किया जा सकता है।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार रोजगार सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।
दुर्गा सप्तशती का पाठ, विधि :-
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें, शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व शुद्धि के लिए चार बार आचमन करें। इस समय निम्न मंत्रों को बोलें-
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
तत्पश्चात प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्‌यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ  काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।’ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये करिष्यामि।
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, (पुस्तक पूजा का मन्त्रः- “ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।” (वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता))। योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करें, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए। इसके अनेक प्रकार हैं।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करें। यह “शापोद्धार मंत्र” कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जप के पश्चात्‌ आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-
‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’
मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-
‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’
इस मन्त्र का आरंभ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र का आरंभ में ही पाठ करना चाहिए। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्‌यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्वर। चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः। आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छ: अंग माने गए हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है, किन्तु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।
जिस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।
 देवी माहात्म्यम्
श्रीचण्डिकाध्यानम्
ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् । स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ।।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् । पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ।। दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् ।
अथवा
या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी ।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी

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