Saturday 25 February 2017

केदारनाथ की जय ,, श्री केदारनाथ शिवजी की आरती
जय केदार उदार शंकर, भव भयंकर दु:ख हरम्।
गौरी, गणपति, स्कन्द, नन्दी, श्री केदार नमाम्यहम्॥ जय...
शैल सुन्दर अति हिमालय, शुभ्र मन्दिर सुन्दरम्।
निकट मंदाकिनी सरस्वती, जय केदार नमाम्यहम्॥ जय...
उदक कुण्ड है अधम पावन, रेतस कुण्ड मनोहरम्।
हंस कुंड समीप सुन्दर, जै केदार नमाम्यहम्॥ जय...
अन्नपूर्णा सह अपर्णा, काल भैरव शोभितम्।
पांच पांडव द्रोपदी सह, जय केदार नमाम्हयम्॥ जय...
शिव दिगम्बर भस्मधारी, अर्द्ध चन्द्र विभूषितम।
शीश गंगा कंठ फणिपति, जै केदार नमाम्यहम्॥ जय...
कर त्रिशूल विशाल डमरू, ज्ञान गान विशारदम्।
मध्य महेश्वर तुंग ईश्वर, रुद्र कल्प महेश्वरम्॥ जय...
पंच धन्य विशाल आलय, जै केदार नमाम्यहम्।
नाथ पावन हे विशालम्, पुण्यप्रद हर दर्शनम्॥ जय...
जय केदार उदार शंकर, पाप ताप नमाम्यहम्॥
जय श्री केदारनाथ की जय जय श्री केदारनाथ की जय जय श्री केदारनाथ की जय केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की जय ,,केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की जय
देश के सबसे उत्तरी हिस्से और हिमालय की दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं पर स्थित इस शिवलिंग के दर्शन के लिए हर साल लाखों श्रद्धालु उमड़ते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत की लड़ाई में अपने ही परिजनों का वध करने से दुखी पांडव पश्चाताप करते हुए शिव के दर्शन के लिए यहां आए थे। शिव यहां नंदी रूप में मौजूद थे, मगर पांडवों के पहुंचने के पहले ही वे धरती में समा गए और यहां रह गया केवल नंदी का कूबड़। भक्तगण आज भी शिव के इसी रूप की यहां उपासना करते हैं। इसके साथ ही तुंगनाथ में शिव की भुजाओं, रूद्रनाथ में मुख, मढ़ माहेश्वर में नाभि और कल्पेश्वर में जटाओं की पूजा की जाती है। इन पांचों तीर्थ स्थानों को एक साथ पंच केदार के नाम से भी जाना जाता है।॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557

बगुला मुखी दिग्बन्धन रक्षा स्त्रोतम

बगुला मुखी दिग्बन्धन रक्षा स्त्रोतम
ब्रह्मास्त्र प्रवक्ष्यामि बगलां नारदसेविताम् ।देवगन्धर्वयक्षादि सेवितपादपंकजाम् ।।
त्रैलोक्य-स्तम्भिनी विद्या सर्व-शत्रु-वशंकरी आकर्षणकरी उच्चाटनकरी विद्वेषणकरी जारणकरी मारणकरी जृम्भणकरी स्तम्भनकरी ब्रह्मास्त्रेण सर्व-वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां द्राविणि-द्राविणि भ्रामिणि एहि एहि सर्वभूतान् उच्चाटय-उच्चाटय सर्व-दुष्टान निवारय-निवारय भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनीः छिन्धि-छिन्धि खड्गेन भिन्धि-भिन्धि मुद्गरेण संमारय संमारय, दुष्टान् भक्षय-भक्षय, ससैन्यं भुपर्ति कीलय कीलय मुखस्तम्भनं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
आत्मा रक्षा ब्रह्म रक्षा विष्णु रक्षा रुद्र रक्षा इन्द्र रक्षा अग्नि रक्षा यम रक्षा नैऋत रक्षा वरुण रक्षा वायु रक्षा कुबेर रक्षा ईशान रक्षा सर्व रक्षा भुत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनी रक्षा अग्नि-वैताल रक्षा गण गन्धर्व रक्षा तस्मात् सर्व-रक्षा कुरु-कुरु, व्याघ्र-गज-सिंह रक्षा रणतस्कर रक्षा तस्मात् सर्व बन्धयामि ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं भो बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बगलामुखि एहि-एहि पूर्वदिशायां बन्धय बन्धय इन्द्रस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय इन्द्रशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं पीताम्बरे एहि-एहि अग्निदिशायां बन्धय बन्धय अग्निमुखं स्तम्भय स्तम्भय अग्निशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं अग्निस्तम्भं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महिषमर्दिनि एहि-एहि दक्षिणदिशायां बन्धय बन्धय यमस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय यमशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं हृज्जृम्भणं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं चण्डिके एहि-एहि नैऋत्यदिशायां बन्धय बन्धय नैऋत्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय नैऋत्यशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं करालनयने एहि-एहि पश्चिमदिशायां बन्धय बन्धय वरुण मुखं स्तम्भय स्तम्भय वरुणशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं कालिके एहि-एहि वायव्यदिशायां बन्धय बन्धय वायु मुखं स्तम्भय स्तम्भय वायुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं महा-त्रिपुर-सुन्दरि एहि-एहि उत्तरदिशायां बन्धय बन्धय कुबेर मुखं स्तम्भय स्तम्भय कुबेरशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं महा-भैरवि एहि-एहि ईशानदिशायां बन्धय बन्धय ईशान मुखं स्तम्भय स्तम्भय ईशानशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं गांगेश्वरि एहि-एहि ऊर्ध्वदिशायां बन्धय बन्धय ब्रह्माणं चतुर्मुखं मुखं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्मशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ललितादेवि एहि-एहि अन्तरिक्ष दिशायां बन्धय बन्धय विष्णु मुखं स्तम्भय स्तम्भय विष्णुशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं चक्रधारिणि एहि-एहि अधो दिशायां बन्धय बन्धय वासुकि मुखं स्तम्भय स्तम्भय वासुकिशस्त्रं निवारय निवारय सर्वसैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु-कुरु ॐ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
दुष्टमन्त्रं दुष्टयन्त्रं दुष्टपुरुषं बन्धयामि शिखां बन्ध ललाटं बन्ध भ्रुवौ बन्ध नेत्रे बन्ध कर्णौ बन्ध नसौ बन्ध ओष्ठौ बन्ध अधरौ बन्ध जिह्वा बन्ध रसनां बन्ध बुद्धिं बन्ध कण्ठं बन्ध हृदयं बन्ध कुक्षिं बन्ध हस्तौ बन्ध नाभिं बन्ध लिंगं बन्ध गुह्यं बन्ध ऊरू बन्ध जानू बन्ध हंघे बन्ध गुल्फौ बन्ध पादौ बन्ध स्वर्ग मृत्यु पातालं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि इन्द्राय सुराधिपतये ऐरावतवाहनाय स्वेतवर्णाय वज्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् निरासय निरासय विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि अग्नये तेजोधिपतये छागवाहनाय रक्तवर्णाय शक्तिहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि यमाय प्रेताधिपतये महिषवाहनाय कृष्णवर्णाय दण्डहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वरूणाय जलाधिपतये मकरवाहनाय श्वेतवर्णाय पाशहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वायव्याय मृगवाहनाय धूम्रवर्णाय ध्वजाहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ईशानाय भूताधिपतये वृषवाहनाय कर्पूरवर्णाय त्रिशूलहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि ब्रह्मणे ऊर्ध्वदिग्लोकपालाधिपतये हंसवाहनाय श्वेतवर्णाय कमण्डलुहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि वैष्णवीसहिताय नागाधिपतये गरुडवाहनाय श्यामवर्णाय चक्रहस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभञ्जय विभञ्जय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्लीं अमुकस्य मुखं भेदय भेदय ॐ ह्लीं वश्यं कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ऐं ॐ ह्लीं बगलामुखि रविमण्डलमध्याद् अवतर अवतर सान्निध्यं कुरु-कुरु । ॐ ऐं परमेश्वरीम् आवाहयामि नमः । मम सान्निध्यं कुरु कुरु । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बगले चतुर्भुजे मुद्गरशरसंयुक्ते दक्षिणे जिह्वावज्रसंयुक्ते वामे श्रीमहाविद्ये पीतवस्त्रे पञ्चमहाप्रेताधिरुढे सिद्धविद्याधरवन्दिते ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-पूजिते आनन्द-सवरुपे विश्व-सृष्टि-स्वरुपे महा-भैरव-रुप धारिणि स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-स्तम्भिनी वाममार्गाश्रिते श्रीबगले ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-रुप-निर्मिते षोडश-कला-परिपूरिते दानव-रुप सहस्रादित्य-शोभिते त्रिवर्णे एहि एहि मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय शत्रुमुखं स्तम्भय स्तम्भय अन्य-भूत-पिशाचान् खादय-खादय अरि-सैन्यं विदारय-विदारय पर-विद्यां पर-चक्रं छेदय-छेदय वीरचक्रं धनुषां संभारय-संभारय त्रिशूलेन् छिन्ध-छिन्धि पाशेन् बन्धय-बन्धय भूपतिं वश्यं कुरु-कुरु सम्मोहय-सम्मोहय विना जाप्येन सिद्धय-सिद्धय विना मन्त्रेण सिद्धि कुरु-कुरु सकलदुष्टान् घातय-घातय मम त्रैलोक्यं वश्यं कुरु-कुरु सकल-कुल-राक्षसान् दह-दह पच-पच मथ-मथ हन-हन मर्दय-मर्दय मारय-मारय भक्षय-भक्षय मां रक्ष-रक्ष विस्फोटकादीन् नाशय-नाशय ॐ ह्लीं विष-ज्वरं नाशय-नाशय विषं निर्विषं कुरु-कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहा ।
ॐ बगलामुखि स्वाहा । ॐ पीताम्बरे स्वाहा । ॐ त्रिपुरभैरवि स्वाहा । ॐ विजयायै स्वाहा । ॐ जयायै स्वाहा । ॐ शारदायै स्वाहा । ॐ सुरेश्वर्यै स्वाहा । ॐ रुद्राण्यै स्वाहा । ॐ विन्ध्यवासिन्यै स्वाहा । ॐ त्रिपुरसुन्दर्यै स्वाहा । ॐ दुर्गायै स्वाहा । ॐ भवान्यै स्वाहा । ॐ भुवनेश्वर्यै स्वाहा । ॐ महा-मायायै स्वाहा । ॐ कमल-लोचनायै स्वाहा । ॐ तारायै स्वाहा । ॐ योगिन्यै स्वाहा । ॐ कौमार्यै स्वाहा । ॐ शिवायै स्वाहा । ॐ इन्द्राण्यै स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लीं शिव-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि स्वाहा । ॐ ह्लीं माया-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि हृदयाय स्वाहा । ॐ ह्लीं विद्या-तत्त्व-व्यापिनि बगलामुखि शिरसे स्वाहा । ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः शिरो रक्षतु बगलामुखि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः भालं रक्षतु पीताम्बरे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नेत्रे रक्षतु महा-भैरवि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कर्णौ रक्षतु विजये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नसौ रक्षतु जये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वदनं रक्षतु शारदे विन्ध्यवासिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः बाहू त्रिपुर-सुन्दरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः करौ रक्षतु दुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः हृदयं रक्षतु भवानी रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु भुवनेश्वरि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः नाभिं रक्षतु महामाये रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः कटिं रक्षतु कमललोचने रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु तारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः सर्वांगं रक्षतु महातारे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः अग्रे रक्षतु योगिनि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः पृष्ठे रक्षतु कौमारि रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः दक्षिणपार्श्वे रक्षतु शिवे रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ ह्लां ह्लीं ह्लूं ह्लैं ह्लौं ह्लः वामपार्श्वे रक्षतु इन्द्राणि रक्ष रक्ष स्वाहा ।
ॐ गं गां गूं गैं गौं गः गणपतये सर्वजनमुखस्तम्भनाय आगच्छ आगच्छ मम विघ्नान् नाशय नाशय दुष्टं खादय खादय दुष्टस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय अकालमृत्युं हन हन भो गणाधिपते ॐ ह्लीम वश्यं कुरु कुरु ॐ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा ।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा सिद्धिर्भवति नान्यथा । भ्रूयुग्मं तु पठेत नात्र कार्यं संख्याविचारणम् ।।
यन्त्रिणां बगला राज्ञी सुराणां बगलामुखि । शूराणां बगलेश्वरी ज्ञानिनां मोक्षदायिनी ।।
एतत् स्तोत्रं पठेन् नित्यं त्रिसन्ध्यं बगलामुखि । विना जाप्येन सिद्धयेत साधकस्य न संशयः ।।
निशायां पायसतिलाज्यहोमं नित्यं तु कारयेत् । सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि देवी तुष्टा सदा भवेत् ।।
मासमेकं पठेत् नित्यं त्रैलोक्ये चातिदुर्लभम् । सर्व-सिद्धिमवाप्नोति देव्या लोकं स गच्छति।।
॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557


महा शिवरात्रि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है

महा शिवरात्रि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। कई स्थानों पर यह भी माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था | तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों ने से महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
महाशिवरात्रि से संबधित कई पौराणिक कथा
एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?' उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था | पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।'

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।

शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।' उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए'।॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557


शिवजी की विचित्र बारात और विवाह

शिवजी की विचित्र बारात और विवाह
दोहा :   लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान। होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
भावार्थ: सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥91॥

चौपाई : * सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥ कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥
भावार्थ: शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥

 ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥ गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥
भावार्थ:-शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥

 कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥ देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥
भावार्थ:-एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥
भावार्थ:-विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥

दोहा :  बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज। बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥
भावार्थ:-तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥92॥

चौपाई :  बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥ बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥
भावार्थ:-हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥1॥

 मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥ अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥
भावार्थ:-महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥2॥

 सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥ नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥
भावार्थ:-शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥3॥

 कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥ बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥
भावार्थ:-कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥4॥

छंद :  तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें। भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै। बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
भावार्थ:-कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।

सोरठा :  नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब। देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥
भावार्थ:-भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं॥93॥

चौपाई :   जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥ इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥
भावार्थ:-जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥1॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥ बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥
भावार्थ:-जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥

 कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥ गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥3॥
भावार्थ:-वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं॥3॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥ पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥4॥
भावार्थ:-हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥

छन्द :  लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही। बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं। बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
भावार्थ:-नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥

दोहा :  जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ। रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥
भावार्थ:-जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥94॥

चौपाई :  नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥ करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥
भावार्थ:-बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥1॥

 हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥ सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥
भावार्थ:-देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले॥2॥

 धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥ गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥
भावार्थ:-कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं॥3॥

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥ बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥
भावार्थ:-क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं॥4॥

छन्द :  तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा। सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही। देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
भावार्थ:-दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।

दोहा :  समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं। बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥
भावार्थ:-महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है॥95॥

चौपाई :  लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥ मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
भावार्थ:-अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं॥1॥

 कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥ बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥
भावार्थ:-सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया॥2॥

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥ मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥
भावार्थ:-बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया॥3॥

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥ जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया?॥4॥

छन्द :  कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई। जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं। घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
भावार्थ:-जिस विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।

दोहा :  भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि। करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।
भावार्थ:-हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं-॥96॥

चौपाई : * नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥ अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया॥1॥

* साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥ पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥
भावार्थ:-सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने॥2॥

* जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥ अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥
भावार्थ:-माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो!॥3॥
* करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥
भावार्थ:-जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका मत लो॥4॥

छन्द : * जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं। दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं। बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
भावार्थ:-हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।

दोहा : * तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥
भावार्थ:-इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥97॥

चौपाई : * तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥ मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥
भावार्थ:-तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है॥1॥

* अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥ जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥
भावार्थ:-ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्द्धांग में रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं॥2॥

* जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥ तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥
भावार्थ:-पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थीं। यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है॥3॥

* एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥ भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥
भावार्थ:-एक बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए (राह में) रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया॥4॥

छन्द : * सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं। हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया। अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥
भावार्थ:-सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं।

दोहा : * सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद। छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥
भावार्थ:-तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥98॥

चौपाई : * तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥ नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥
भावार्थ:-तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए॥1॥

* लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥ भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥
भावार्थ:-नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। पाक शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)॥2॥

*सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥ सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥
भावार्थ:-जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया॥3॥

* बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥ नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥
भावार्थ:-भोजन (करने वालों) की बहुत सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं॥4॥

छन्द : * गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं। भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो। अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
भावार्थ:-सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

दोहा : *बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ। समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥
भावार्थ:-फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान्‌ को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥99॥
चौपाई : * बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥ बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
भावार्थ:-सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं॥1॥

* सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥ बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥
भावार्थ:-वेदिका पर एक अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुंदरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए॥2॥

* बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं॥ देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥
भावार्थ:-फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुंदरता का वर्णन कर सके?॥3॥
जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥ सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥
भावार्थ:-पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥

छन्द : * कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा। सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ। अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
भावार्थ:-जगज्जननी पार्वतीजी की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा) था।॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557


Gayatri Mantras ,,, different DEVI- DEVTA'S


Gayatri Mantras ,,, different DEVI- DEVTA'S

RAM Gayatri : Om Dashrathputray vidmahe sita vandanai Dhimahi Tanno ram Prochodyat.
SITA Gayatri : Om Janak nandiney vidmahe bhoomi jaye dhimahi tanno sita prachodyat.
AGNI Gayatri : Om mahajawalaya vidmahe Agni Devay Dhimahi Tanno Agni Prachodyat.
INDRA Gayatri : Om sahshtra Netraya Vidmahe Vajrahastaya Dhimahi tanno Indra Prachodyat.
DURGA Gayatri : Om Girijaye Vidmahe shiv Prijaye dhimahi tanno durga prachodyat.
SARASWATI Gayatri : Om Saraswati vidmahe Bramhaputreeye dhimahi tanno sharda prachodyat.
TULSI Gayatri : Om Tlsaye vidmahe vishnu Priyaye dhimahi Tanno vrunda prachodyat.
HANSH Gayatri : Om Vauishvarai Vidmahe Haigrivaya Dhimahi Tanno Hansh Prachodyat.
HANSH Gayatri : Om Param Hansai Vidmahe maha nasai dhimahi tanno mansh prachodyat.
KRISHNA Gayatri : Om Devakinandanai vidmahe vasudevai Dhimahi Tanno Krishna Prachodyat.
PRITHAVI Gayatri : Om Prithavidevye vidmahe Sahastra Nurutaye dhimahi tanno prithavi prachodiyat.
SURYA Gayatri : Om Bhaskarai vidmahe Divakarai dhimahi tanno surya prachodyat.
SURYA Gayatri : Om bhaskarai vidmahe sahastra kirnai dhimahi tanno bhanu prachodyat.
CHANDRA Gayatri : Om kshirputrai vidmahe amrut tatvai dhimahi tanno chandra prachodyat.
YAM Gayatri : Om surya Putrai vidmahe Mahakalai dhimahi tanno yamah prachodyat.
BRAHMA Gayatri : Om chaturmukhay vidmahe hansha rudhaya dhimahi tanno brahma prachodyat.
BRAHMA Gayatri : Om Chaturmakhay vidmahe kamandaludharai Dhimahi Tanno Brahma Prachodyat.
VARUN Gayatri : Om Jalbimbai Vidmahe Nilpurushai Dhimahi Tanno Varuna Prachodyat.
VISHNU Gayatri : Om ekshurngai vidmahe Maha Matsayay dhimahi tanno vishnu prachodyat.
LAXMI Gayatri : Om Maha Laxmaiye vidmahe vishnu priyaye Dhimahi Tanno Laxmi Prachodyat.
GANESH Gayatri : Om Lambodarai vidmahe Maha devay Dhimahi Tanno dantee prachodyat.
GANESH Gayatri : Om ekdantai vidmahe Vakra tundai dhimahi tanno dantee prachodyat.
KARTIK Gayatri : Om Sanmukhai Vidmahe Maha Senai dhimahi tanno sastha prachodyat.
GARUD Gayatri : Om tata purushai vidmahe suvarna pakshayaydhimahi tanno Garud prachodyat.
VRUSHABH Gayatri : Om tatpurushai vidmahe nandikeshavarai dhimahi tanno vrusabha prachodyat.
SHIV Gayatri : Om tat purushai vidmahe mahadevai dhimahi tanno rudra prachodyat.
SKANDA Gayatri : Om tatpurushai vidmahe Maha senai dhimahi tanno skanda prachodyat.
GOPAL Gayatri : Om Gopalai vidmahe gopijan vallabhai dhimahi tanno gopalo prachodyat.
GURU Gayatri : Om gnanhupai vidmahe gurudevai dhimahi tanno guruh prachodyat.
GURU Gayatri : Om gurudevai vidmahe par bramane dhimahi tanno guruh prachodyat.
DUTT Gayatri : Om digambrai vidmahe avdhutai dhimahi tanno dutt prachodyat.
HANUMAN Gayatri : Om Anjaneyay vidmahe vayu Putrai dhimahi tanno hanuman prachodyat.
BRAHMA Gayatri : Om parameshwarai vidmahe param tatwai dhimahi tanno brahma prachodyat.
ANNAPURNA Gayatri : Om bhagvattay vidmahe Maheshwariya dhimahi tanno annapurna prachodyat.
MAHAKALI Gayatri : Om kalikaye vidmahe smashan vashiney dhimahi tanno A ghora prachodyat.
NRUSINH Gayatri : Om vajra Nakhay vidmahe Tikshna drashtay dhimahi tanno nrusinh prachodyat.
DEVI Gayatri : Om vagdevaye vidmahe kan Rajaye dhimahi tanno devi Prachodyat.
SHANKH Gayatri : Om Panch Janayay Vidmahe Pavmanay Dhimahi Tanno Shankh Prachodyat.
SHANI Gayatri : Om krushnagay vidmahe raviputray dhimahi tanno sauree prachodyat.
RADHA Gayatri : Om radhikaye vidmahe krushna priyaye dhimahi tanno radhe prachodyat.
SAI Gayatri : Om saishavarai vidmahe sai nathay dhimahe tanna anant Prachodyat.
VISHNU Gayatri : Om narayanay vidmahe vasudevay dhimahi tanno prachodyat.
BRAHAMANI Gayatri : Om Devyey bramahanyey vidmahe maha shaktey dhimahi tanno devi prachodyat.
ADITAY Gayatri : Om bhaskarai vidmahe mah dhutikarai dhimahi tanno aditaya prachodyat.
VISHWAKARMA Gayatri : Om vishwarupay vidmahe vishwa karmane dhimahi tanno parbrahma prachodyat.!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
PITRA Gayatri : Om Pitra Ganay vidmahe Jagat dharinaye dhimahi tanno pitro prachodyat.

Latest Blog

शीतला माता की पूजा और कहानी

 शीतला माता की पूजा और कहानी   होली के बाद शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी का पर्व मनाया जाता है. इसे बसौड़ा पर्व भी कहा जाता है  इस दिन माता श...