Sunday 23 March 2014

एकादशी व्रत,, पापमोचनी एकादशी व्रत,,,,चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी

पापमोचनी एकादशी व्रत,,,,चैत्र  मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी

धर्मराज युधिष्‍ठिर बोले- हे जनार्दन! चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसकी विधि क्या है? कृपा करके आप मुझे बताइए। 
श्री भगवान बोले हे राजन् - चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम पापमोचनी एकादशी है। इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्‍य के सभी पापों का नाश होता हैं। यह सब व्रतों से उत्तम व्रत है। इस पापमोचनी एकादशी के महात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नाश को प्राप्त हो जाते हैं। एक समय देवर्षि नारदजी ने जगत् पिता ब्रह्माजी से कहा महाराज! आप मुझसे चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी विधान कहिए। 
ब्रह्माजी कहने लगे कि हे नारद! चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी पापमोचनी एकादशी के रूप में मनाई जाती है। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता हैं। इसकी कथा के अनुसार प्राचीन समय में चित्ररथ नामक एक रमणिक वन था। इस वन में देवराज इन्द्र गंधर्व कन्याओं तथा देवताओं सहित स्वच्छंद विहार करते थे। 
एक बार मेधावी नामक ऋषि भी वहाँ पर तपस्या कर रहे थे। वे ऋषि शिव उपासक तथा अप्सराएँ शिव द्रोहिणी अनंग दासी (अनुचरी) थी। एक बार कामदेव ने मुनि का तप भंग करने के लिए उनके पास मंजुघोषा नामक अप्सरा को भेजा। युवावस्था वाले मुनि अप्सरा के हाव भाव, नृत्य, गीत तथा कटाक्षों पर काम मोहित हो गए। रति-क्रीडा करते हुए 57 वर्ष व्यतीत हो गए। 
एक दिन मंजुघोषा ने देवलोक जाने की आज्ञा माँगी। उसके द्वारा आज्ञा माँगने पर मुनि को भान आया और उन्हें आत्मज्ञान हुआ कि मुझे रसातल में पहुँचाने का एकमात्र कारण अप्सरा मंजुघोषा ही हैं। क्रोधित होकर उन्होंने मंजुघोषा को पिशाचनी होने का श्राप दे दिया। 
श्राप सुनकर मंजुघोषा ने काँपते हुए ऋषि से मुक्ति का उपाय पूछा। तब मुनिश्री ने पापमोचनी एकादशी का व्रत रखने को कहा। और अप्सरा को मुक्ति का उपाय बताकर पिता च्यवन के आश्रम में चले गए। पुत्र के मुख से श्राप देने की बात सुनकर च्यवन ऋषि ने पुत्र की घोर निन्दा की तथा उन्हें पापमोचनी चैत्र कृष्ण एकादशी का व्रत करने की आज्ञा दी। व्रत के प्रभाव से मंजुघोष अप्सरा पिशाचनी देह से मुक्त होकर देवलोक चली गई। 
अत: हे नारद! जो कोई मनुष्य विधिपूर्वक इस व्रत को करेगा, उसके सारों पापों की मुक्ति होना निश्चित है। और जो कोई इस व्रत के महात्म्य को पढ़ता और सुनता है उसे सारे संकटों से मुक्ति मिल जाती है।

नवरात्रि व्रत,,, Navratri नवरात्र व्रत


नवरात्रि  व्रत ,,Navratri  ,,,नवरात्र व्रत  शक्ति स्वरूपा देवी मां की पूजा के लिए श्रद्धालु देश के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में पहुंच रहे हैं। आप में से अधिकांश लोग माता के बहुत से शक्तिपीठों का दर्शन पहले भी कर चुके होंगे और बहुत से लोगों ने पुराणों आदि में इसके बारे में पढ़ा भी होगा। लेकिन क्या आपको पता है कि इन शक्तिपीठों का जन्म कैसे हुआ? इसकी संख्या कितनी हैं? यह शक्तिपीठ कहां-कहां हैं? और उसकी महत्ता क्या है?
यूं तो मुख्य रूप से 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं। लेकिन देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में 26, शिवचरित्र में 51, दुर्गा सप्तशती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। लेकिन संख्याओं के इन मकड़जाल से अगर आप बाहर निकलेंगे तो आप पाएंगे कि सभी शक्तिपीठों की स्थापना के बारे में जो कथा बताई जाती है वह एक ही है।
कहा जाता है कि प्रजापति दक्ष की पुत्री बनकर माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और बाद में भगवान शिव से विवाह किया। दक्ष अपने दामाद शिव को हमेशा निरादर भाव से देखते थे।
एक बार की बात है, दक्ष प्रजापति ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन अपने बेटी-दामाद को नहीं बुलाया। तब सती बिना बुलाए ही यज्ञ में शामिल होने चली गईं।
यज्ञ-स्थल पहुंचने पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित नहीं करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर के बारे में अपशब्द कहे। सती अपने पति के इस अपमान को सह नहीं पाईं और यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।
भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गए।
भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठाकर तांडव नृत्य किया। ऐसे में हर तरफ हाहाकार मच गया। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए।
जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े,धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का निर्माण हुआ। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठ अस्तित्व में आए।

नवरात्रि पूजन विधि ,,नवरात्रि के प्रत्येक दिन माँ भगवती के एक स्वरुप की पूजा की जाती है


नवरात्रि पूजन विधि ,,नवरात्रि के प्रत्येक दिन माँ भगवती के एक स्वरुप की पूजा की जाती है।  प्रतिदिन जल्दी स्नान करके माँ भगवती का ध्यान तथा पूजन करना चाहिए। सर्वप्रथम कलश स्थापना की जाती है।
कलश / घट स्थापना विधि ,,,सामग्री:,,,जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र ,,,जौ बोने के लिए शुद्ध साफ़ की हुई मिटटी ,,,पात्र में बोने के लिए जौ ,,घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश ,,,कलश में भरने के लिए शुद्ध जल, गंगाजल ,,मोली,,,इत्र ,,साबुत सुपारी ,,कलश में रखने के लिए कुछ सिक्के ,,,अशोक या आम के 5 पत्ते ,,कलश ढकने के लिए ढक्कन ,,,ढक्कन में रखने के लिए बिना टूटे चावल ,,,पानी वाला नारियल ,,,नारियल पर लपेटने के लिए लाल कपडा ,,,फूल माला ,,,,
विधि ,,सबसे पहले जौ बोने के लिए मिट्टी का पात्र लें। इस पात्र में मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब एक परत जौ की बिछाएं। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब फिर एक परत जौ की बिछाएं। जौ के बीच चारों तरफ बिछाएं ताकि जौ कलश के नीचे न दबे। इसके ऊपर फिर मिट्टी की एक परत बिछाएं। अब कलश के कंठ पर मोली बाँध दें। अब कलश में शुद्ध जल, गंगाजल कंठ तक भर दें। कलश में साबुत सुपारी डालें। कलश में थोडा सा इत्र दाल दें। कलश में कुछ सिक्के रख दें। कलश में अशोक या आम के पांच पत्ते रख दें। अब कलश का मुख ढक्कन से बंद कर दें। ढक्कन में चावल भर दें। नारियल पर लाल कपडा लपेट कर मोली लपेट दें। अब नारियल को कलश पर रखें। अब कलश को उठाकर जौ के पात्र में बीचो बीच रख दें। अब कलश में सभी देवी देवताओं का आवाहन करें। "हे सभी देवी देवता और माँ दुर्गा आप सभी नौ दिनों के लिए इस में पधारें।" अब दीपक जलाकर कलश का पूजन करें। धूपबत्ती कलश को दिखाएं। कलश को माला अर्पित करें। कलश को फल मिठाई अर्पित करें। कलश को इत्र समर्पित करें।
कलश स्थापना के बाद माँ दुर्गा की चौकी स्थापित की जाती है।
नवरात्री के प्रथम दिन एक लकड़ी की चौकी की स्थापना करनी चाहिए। इसको गंगाजल से पवित्र करके इसके ऊपर सुन्दर लाल वस्त्र बिछाना चाहिए। इसको कलश के दायीं और रखना चाहिए। उसके बाद माँ भगवती की धातु की मूर्ति अथवा नवदुर्गा का फ्रेम किया हुआ फोटो स्थापित करना चाहिए। माँ दुर्गा को लाल चुनरी उड़ानी चाहिए। माँ दुर्गा से प्रार्थना करें "हे माँ दुर्गा आप नौ दिन के लिए इस चौकी में विराजिये।" उसके बाद सबसे पहले माँ को दीपक दिखाइए। उसके बाद धूप, फूलमाला, इत्र समर्पित करें। फल, मिठाई अर्पित करें।
नवरात्रि में नौ दिन मां भगवती का व्रत रखने का तथा प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने का विशेष महत्व है। हर एक मनोकामना पूरी हो जाती है। सभी कष्टों से छुटकारा दिलाता है।
नवरात्री के प्रथम दिन ही अखंड ज्योत जलाई जाती है जो नौ दिन तक जलती रहती है।
नवरात्रि के प्रतिदिन माता रानी को फूलों का हार चढ़ाना चाहिए। प्रतिदिन घी का दीपक जलाकर माँ भगवती को मिष्ठान का भोग लगाना चाहिए। मान भगवती को इत्र/अत्तर विशेष प्रिय है।
नवरात्री के प्रतिदिन कंडे की धूनी जलाकर उसमें घी, हवन सामग्री, बताशा, लौंग का जोड़ा, पान, सुपारी, कपूर, गूगल, इलायची, किसमिस, कमलगट्टा जरूर अर्पित करना चाहिए।
मां दुर्गा को प्रतिदिन विशेष भोग लगाया जाता है। किस दिन किस चीज़ का भोग लगाना है ये हम विस्तार में आगे बताएँगे।
प्रतिदिन कन्याओं का विशेष पूजन किया जाता है। किस दिन क्या सामग्री गिफ्ट देनी चाहिए ये भी आगे बताएँगे।
प्रतिदिन कुछ मन्त्रों का पाठ भी करना चाहिए।
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।
जयन्ती मङ्गलाकाली भद्रकाली कपालिनी ।दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते ।।
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

Friday 21 March 2014

शीतला माता पूजन,,शीतला सप्‍तमी


शीतला माता पूजन,,शीतला सप्‍तमी  चैत्र माह कृष्ण पक्ष अष्टमी को शीतलाष्टमी का व्रत रखा जाता है। इसमें भगवती स्वरूप शीतलादेवी को बासी या शीतल भोजन का भोग लगाया जाता है। इसलिए यह व्रत बसोरा या बासीडा के नाम से भी जाना जाता है।
पुराणों में माता शीतला के रूप का जो वर्णन है, उसके मुताबिक उनका वाहन गधा बताया गया। उनके हाथ में कलश, झाडू होते हैं। वह नग्र स्वरुपा, नीम के पत्ते पहने हुए और सिर पर सूप सजाए हुए होती है।
इस व्रत और रोग के संबंध में धार्मिक दर्शन यह है कि पुराणों में माता के सात मुख्य रूप बताए गए हैं। ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा। धर्मावलंबी इनमें से भाव के अनुसार किसी माता को सौम्य एवं किसी को उग्र भाव मानते हैं। इस रोग से कौमारी, वाराही और चामुण्डा को प्रभाव भयानक माना जाता है। जिसके संयम और लापरवाही की स्थिति में रोगी नेत्र, जीभ के साथ ही शरीर से हमेशा के लिए असहाय हो जाता है।
स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है।
शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।
गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत: स्पष्ट है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।
मान्यता अनुसार इस व्रत को करनेसे शीतला माता प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतला की फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं।
जय ठण्‍डी माता , शीतला माता, सेजल माता तेरी जय हो ।।

वैसे शीतला सप्‍तमी , 

नवग्रह तांत्रिक मंत्र: श्री नवग्रह देवाय नमः

श्री नवग्रह देवाय नमः श्री नवग्रह देवाय नमः,श्री नवग्रह तांत्रिक मंत्र: श्री नवग्रह तांत्रिक मंत्र: श्री नवग्रह देवाय नमः श्री नवग्रह देवाय नमः
सभी प्रकार की पूजा में नवग्रहों की पूजा प्रायः नवग्रहों की शांति के .. ... .महीना भर रोज एक घंटे का पूजन और जप स्वयं करने के ... अच्छे साधक अपनी साधना श्री गणेश और नवग्रह पूजन व साधना से ही आरंभ करते हैं, फिर निश्चिंत होकर आगे चलते जाते हैं। नवग्रह साधना प्रायः दो सप्ताह में पूर्ण हो जाती है। शनि या राहु केतु से आरंभ करें। शनिवार के दिन से फिर रवि, सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र और वापस शनिवार को उक्त तीन उग्रग्रहों में से एक या दो की कर लें। एक की करें, तो की ठीक। पुनः शेष ग्रहों का जप दिनानुसार पूर्ण करता जाए। इससे समान रूप से सभी ग्रहों की समान रूप से शांति हो जाती है।
साधना — प्रत्येक ग्रह का सामान्य पंचोपचार पूजन कर इन्हीं मंत्रों का निश्चित संख्यानुसार जप कर लें। माला रूद्राक्ष की, बृहस्पति में चंदन, चंद्रमा में चंदन की, शेष में रूद्राक्ष है। प्रत्येक ग्रह का दिन के अनुसार आधा-आधा जप दो बार (दो सप्ताह) में पूर्ण कर लें। हर बार हवन करता जाए, तो इससे वर्ष भर की ग्रह शांति हो जाती है। अधिक समय तक भी इसका प्रभाव बना रह सकता है। ग्रहों के विषय में इतनी भी चिंता आवश्यक नहीं है, जितना भय दिखाया गया है।
साधना की तैयारी — बाजार से नवग्रहों का एक चित्र तथा नवग्रह पूजन की सामग्री ले आएं, जो कम से कम दो बार पूजन के काम आ सके। प्रथम सप्ताह आधी, फिर दूसरे सप्ताह आधी प्रयोग कर लें।
साधना विधान
केतु साधना — शनिवार के दिन पहली पूजा केतु की करके ११,००० जप कर लें। अगले शनिवार पुनः केतु साधना करके १०,००० जप कर लें। कर सकें, तो दिन भर में सायंकाल तक २१,००० एक ही दिन में पूर्ण करके हवन कर लें या दूसरे शनिवार के साथ हवन करें। तत्पश्चात प्रसाद बांट दें।
राहु — पूर्वोक्त मंत्र से शनिवार के दिन ही राहु की पूजा चित्र पर करके इसका भी पूर्वानुसार जप और हवन कर लें। २१,००० के जप से सारे दोष स्वयं मिट जाते हैं। अधिक प्रपंच में पड़ने से कठिनाई अधिक है। सरल विधान ही ठीक रहता है। तत्पश्चात प्रसाद बांट दें।
शनि — अगले शनिवार को शनिदेव के चित्र पर शनि पदार्थों से पूजा करके शनि का भी जप एक या दो शनिवार में पूर्ण कर हवन कर दें और प्रसाद बांट दें।
सूर्य — रविवार के दिन सूर्यदेव की पूजा करके उनका भी जप एक या दो रविवार में पूरा करके हवन करके प्रसाद बांट दें। पूजा लाल पदार्थों से करें, हवन में थोड़ी सूर्य पूजा सामग्री मिला लें। यही विधि सभी ग्रहों के हवन में करनी होगी।
चंद्र — सोमवार को चंद्रमा की पूजा जप हवन करके एक या दो सेमवार में वही २१,००० जप पूर्ण करके बच्चों में प्रसाद बांट दें। गरीबों में दे दें।
मंगल — मंगलवार के दिन मंगल की पूजा (२१,०००) हवन पूरा करके प्रसाद बांट दें।
बुध — बुधवार के दिन बुधमंत्र से पूजा कर बुध का हवन कर दें। सभी का जप २१,००० ही करना है। यही श्रेष्ठ संख्या है।
गुरु — बृहस्पतिवार को गुरु की पूजा जप हवन करके प्रसाद बांट दें, जप वही २१,०००।
शुक्र — शुक्रवार के दिन शुक्रमंत्र से शुक्र पूजा जप (२१,०००) हवन कर प्रसाद बांट दें, हो गई नवग्रह साधना।
फल - स्वयं किया हुआ जप हवन दूसरे के द्वारा किए हुए से ६ गुना अधिक फल देता है।
साधना मंत्र —
साधना मंत्र संख्या ग्रह दिन
ॐ कें केतवे नमः १७,००० केतु शनि
ॐ शं शनैश्चराय नमः २३,००० शनि शनि
ॐ रां राहवे नमः १८,००० राहु शनि
ॐ ऐं घृणि सूर्याय नमः ७,००० सूर्य रवि
ॐ सों सोमाय नमः ११,००० सोम चंद्र
ॐ अं अंगारकाय नमः १०,००० मंगल मंगल
ॐ बुं बुधाय नमः ८,००० बुध बुध
ॐ बृं बृहस्पतये नमः ११,००० बृहस्पति गुरु
ॐ शुं शुक्राय नमः १६,००० शुक्र शुक्र

श्री हनुमान श्री आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलि


श्री हनुमान,,,श्री आञ्जनेय अष्टोत्तरशत नामावलि ॐ आञ्जनेयाय नमः ।ॐ महावीराय नमः ।ॐ हनूमते नमः ।ॐ मारुतात्मजाय नमः ।ॐ तत्वज्ञानप्रदाय नमः ।ॐ सीतादेविमुद्राप्रदायकाय नमः ।ॐ अशोकवनकाच्छेत्रे नमःॐ सर्वमायाविभंजनाय नमः।ॐ सर्वबन्धविमोक्त्रे नमः ।ॐ रक्षोविध्वंसकारकाय नमः ।ॐ परविद्या परिहाराय नमः ।ॐ पर शौर्य विनाशकाय नमः ।ॐ परमन्त्र निराकर्त्रे नमः ।ॐ परयन्त्र प्रभेदकाय नमः ।ॐ सर्वग्रह विनाशिने नमः ।ॐ भीमसेन सहायकृथे नमः ।ॐ सर्वदुखः हराय नमः।ॐ सर्वलोकचारिणे नमः ।ॐ मनोजवाय नमः ।ॐ पारिजात द्रुमूलस्थाय नमः ।ॐ सर्व मन्त्र स्वरूपाय नमः ।ॐ सर्व तन्त्र स्वरूपिणे नमः ।ॐ सर्वयन्त्रात्मकाय नमः ।ॐ कपीश्वराय नमः।ॐ महाकायाय नमः ॐ सर्वरोगहराय नमः ।ॐ प्रभवे नमः ।ॐ बल सिद्धिकराय नमः।ॐ सर्वविद्या सम्पत्तिप्रदायकाय नमः ।ॐ कपिसेनानायकाय नमः ।ॐ भविष्यथ्चतुराननाय नमः ।ॐ कुमार ब्रह्मचारिणे नमः ।ॐ रत्नकुन्डलाय नमः ।ॐ लक्ष्मणप्राणदात्रे नमः ।ॐ वज्र कायाय नमः ।ॐ महाद्युथये नमः ।ॐ चिरंजीविने नमः ।ॐ राम भक्ताय नमः ।ॐ दैत्यकार्य विघातकाय नमः ।ॐ अक्षहन्त्रे नमः ।ॐ काञ्चनाभाय नमः ।ॐ पञ्चवक्त्राय नमः ।ॐ महा तपसे नमः ।ॐ लन्किनी भञ्जनाय नमः ।ॐ श्रीमते नमःॐ सिंहिका प्राण भन्जनाय नमः ।ॐ गन्धमादन शैलस्थाय नमः ।ॐ लंकापुर विदायकाय नमः ।ॐ सुग्रीव सचिवाय नमः ।ॐ धीराय नमः ।ॐ शूराय नमः ।ॐ दैत्यकुलान्तकाय नमः ।ॐ सुवार्चलार्चिताय नमः ।ॐ दीप्तिमते नमः ।ॐ चन्चलद्वालसन्नद्धाय नमः ।ॐ लम्बमानशिखोज्वलाय नमः ।ॐ गन्धर्व विद्याय नमः ।ॐ तत्वञाय नमः ।ॐ महाबल पराक्रमाय नमः ।ॐ काराग्रह विमोक्त्रे नमः ।ॐ शृन्खला बन्धमोचकाय नमः ।ॐ सागरोत्तारकाय नमः ।ॐ प्राज्ञाय नमः ।ॐ रामदूताय नमः ।ॐ प्रतापवते नमः ।ॐ वानराय नमः ।ॐ केसरीसुताय नमः।ॐ सीताशोक निवारकाय नमः ।ॐ अन्जनागर्भ संभूताय नमः ।ॐ बालार्कसद्रशाननाय नमः।ॐ विभीषण प्रियकराय नमः ।ॐ दशग्रीव कुलान्तकाय नमः ।ॐ तेजसे नमः ।ॐ रामचूडामणिप्रदायकाय नमः ।ॐ कामरूपिणे नमः।ॐ पिन्गाळाक्षाय नमः ।ॐ वार्धि मैनाक पूजिताय नमः ।ॐकबळीकृत मार्तान्ड मन्डलाय नमः ।ॐ विजितेन्द्रियाय नमः ।ॐ रामसुग्रीव सन्धात्रे नमः ।ॐ महिरावण मर्धनाय नमः ।ॐ स्फटिकाभाय नमः ।ॐ वागधीशाय नमः।ॐ नवव्याकृतपण्डिताय नमः ।ॐ चतुर्बाहवे नमः ।ॐ दीनबन्धुराय नमः ।ॐ मायात्मने नमः ।ॐ भक्तवत्सलाय नमः।ॐ संजीवननगायार्था नमः ।ॐ सुचये नमः ।ॐ वाग्मिने नमः ।ॐ दृढव्रताय नमः ।ॐ कालनेमि प्रमथनाय नमः ।ॐ हरिमर्कट मर्कटाय नमः।ॐ दान्ताय नमः।ॐ शान्ताय नमः।ॐ प्रसन्नात्मने नमः ।ॐ शतकन्टमुदापहर्त्रे नमः ॐ योगिने नमः ।ॐ रामकथा लोलाय नमः ।ॐ सीतान्वेशण पठिताय नमः ।ॐ वज्रद्रनुष्टाय नमः ।ॐ वज्रनखाय नमः ।ॐ रुद्र वीर्य समुद्भवाय नमः ।ॐ इन्द्रजित्प्रहितामोघब्रह्मास्त्र विनिवारकाय नमःॐ पार्थ ध्वजाग्रसंवासिने नमः ।ॐ शरपंजरभेधकाय नमः ।ॐ दशबाहवे नमः ।ॐ लोकपूज्याय नमः ।ॐ जाम्बवत्प्रीतिवर्धनाय नमः

जय श्री राम जय हनुमान

जय श्री राम जय हनुमान,,जय श्री राम जय हनुमान आञ्जनेय गायत्रि त्रिकाल वंदनं"||
आञ्जनेय गायत्रि ||ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि |तन्नो हनुमत् प्रचोदयात् ||
आञ्जनेय त्रिकाल वंदनं || प्रातः स्मरामि हनुमन् अनन्तवीर्यं श्री रामचन्द्र चरणाम्बुज चंचरीकम् |
लंकापुरीदहन नन्दितदेववृन्दं सर्वार्थसिद्धिसदनं प्रथितप्रभावम् ||
 माध्यम् नमामि वृजिनार्णव तारणैकाधारं शरण्य मुदितानुपम प्रभावम् |
 सीताधि सिंधु परिशोषण कर्म दक्षंवंदारु कल्पतरुं अव्ययं आञ्ज्नेयम् |
| सायं भजामि शरणोप स्मृताखिलार्ति पुञ्ज प्रणाशन विधौ प्रथित प्रतापम् |
 अक्षांतकं सकल राक्षस वंश धूम केतुं प्रमोदित विदेह सुतं दयालुम्

या देवी सर्वभूतेषु

या देवी सर्वभूतेषु, शक्तिरूपेण संस्थिता नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम: नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:। नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम्॥1॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धा˜यै नमो नम:। ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नम:॥2॥
कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नम:। नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नम:॥3॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै। ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नम:॥4॥
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नम:। नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नम:॥5॥
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥6॥
या देवी सर्वभेतेषु चेतनेत्यभिधीयते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥7॥
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥8॥
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥9॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥10॥
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥11॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥12॥
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥13॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥14॥
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥15॥
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥16॥
या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥17॥
यादेवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥18॥
या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥19॥
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥20॥
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥21॥
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥22॥
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥23॥
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥24॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥25॥
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥26॥
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या। भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नम:॥ 27॥
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत्। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥28॥
स्तुता सुरै: पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:॥29॥
या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै-रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति न: सर्वापदो भक्ति विनम्रमूर्तिभि:॥30॥

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