Tuesday 19 February 2019

श्री हनुमान चालीसा में महाबली हनुमानजी के 109

श्री हनुमान चालीसा में महाबली हनुमानजी के 109 नामों का उल्लेख श्री गोस्वामीजी ने बड़ी चतुराई के साथ किया है। 
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हनुमान चालीसा के 109 नाम हैं श्री हनुमान चालीसा में (गुप्त रूप) से 
वर्णित 109 नामावली 
1. हनुमान- विशाल टेढ़ी ठुड्डी वाले।
2. ज्ञानसागर - ज्ञान के अथाह सागर।
3.गुण सागर - गुणों के अथाह सागर।
4. कपीश - वानरों के राजा।
5. तीनों लोकों को उजागर करने वाले।
6. श्री बाबा रामचन्द्रजी के दूत बनने वाले।
7. अतुल बलशाली।
8. माता अंजनी के पुत्र कहलाने वाले।
9. पवन (वायुदेव) के पुत्र कहलाने वाले।
10. वीरों के वीर कहलाने वाले महावीर
11. विक्रम - विशेष पराक्रमी।
12. बजरंगी - वज्र के समान अंग वाले।
13. सभी प्रकार की कुमति का निवारण करने वाले।
14.सभी प्रकार की सुमति प्रदान करने वाले।
15. कंचन वर्ण- स्वर्ण के समान वेश धारण करने वाले।
16. सुवेशा - भली प्रकार से वेश धारण करने वाले।
17. कानों में कुण्डल धारण करने वाले।
18. कुंचीत केशा- घुंघराले बाल वाले।
19. हाथ में गदा धारण करने वाले।
20. हाथ में ध्वजा धारण करने वाले।
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21. कांधे मुन्ज : कंधे पर मुन्ज जनेऊ धारण करने वाले।
22. परमात्मा : शिवशंकर के अवतारी।
23. वानरराज केशरी सुपुत्र।
24. तेज प्रताप धारण करने वाले।
25. महाजग वंदन : सारे विश्व से पुजित।
26. विद्यावान : सारी विद्याओं में पारंगत।
27. गुणी : सर्वगुण संपन्न।
28. अति चातुर : अत्यंत कार्यकुशल।
29. श्रीराम के कार्य हेतु सदा आतुर रहने वाले।
30. श्रीराम चरित्र सुनने में आनंद रस लेने वाले।
31.श्री राजा रामजी के हृदय में बसने वाले।
32. लक्ष्मणजी के हृदय में बसने वाले।
33. श्री सीताजी के हृदय में बसने वाले।
34. अति लघुरूप धारण करने वाले।
35. अति भयंकर रूप धारण करने वाले।
36. लंका दहन करने वाले।
37. भीमकाय (विशाल) रूप धारण करने वाले।
38. असुरों का नाश करने वाले।
39. श्री रामचन्द्रजी के काज संवारने वाले।
40. संजीवनी बूटी लाने वाले।
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41. लक्ष्मणजी के प्राण बचाने वाले।
42. रघुपतिजी का आलिंगन पाने वाले।
43. रघुपतिजी से प्रशंसा पाने वाले।
44.श्री भरतजी के समान प्रेम पाने वाले
45.हजारों मुखों से यशोगान श्रवण करने वाले।
46. सनकादिक ऋषियों, महर्षियों द्वारा।
यशोगान श्रवण करने वाले।
47. मुनियों द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
48. ब्रह्माजी द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
49. देवताओं द्वारा यशोगान करने वाले।
50. नारदजी द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
51. सरस्वती द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
52. शेषनागजी द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
53. यमराजजी द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
54. कुबेरजी द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
55. सब दिशाओं के रक्षकों द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
56. कवियों द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
57. विद्वानों द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
58. पंडितों द्वारा यशोगान श्रवण करने वाले।
59. श्री सुग्रीवजी पर उपकार करने वाले।
60. श्री सुग्रीवजी को रामजी से मिलाने वाले।
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61. श्री सुग्रीवजी को राजपद दिलाने वाले।
62. श्री विभीषणजी को मंत्र प्रदान करने वाले।
63. श्री विभीषणजी को लंकापति बनाने वाले।
64. हजारों योजन तक उड़ने वाले।
65. श्री सूर्यनारायण को फल समझकर निगलने वाले।
66. श्रीराम नाम मुद्रिका मुख में रखने वाले।
67. जलधी (समुद्र) को लांघने वाले।
68. कठिन कार्य को सरल बनाने वाले।
69. श्री रामचन्द्रजी के द्वार के रखवाले।
70 श्री रामचन्द्रजी के दरबार में प्रवेश की आज्ञा प्रदान करने वाले
(श्री रामजी की आज्ञा के बगैर कहीं न जाने वाले)
71. शरणागत को सब सुख प्रदान करने वाले।
72. निज भक्तों को निर्भय (रक्षा) प्रदान करने वाले।
73. अपने वेग को स्वयं ही संभालने वाले।
74. अपनी ही हांक से तीनों लोक
कम्पायमान करने वाले।
75. भूतों के भय से भक्तों को मुक्त करने वाले।
76. पिशाचों के भय से भक्तों को मुक्त करने वाले।
77. महावीर श्रीराम नाम श्रवण करने वाले।
78. भक्तों के सभी रोगों का नाश करने वाले।
79. भक्तों की सभी पीड़ाओं का नाश करने वाले।
80. मन से ध्यान करने वालों के संकट से छुड़ाने वाले।
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81. कर्म से ध्यान करने वालों को संकट से छुड़ाने वाले।
82. वचन से ध्यान करने वालों के संकट से छुड़ाने वाले।
83. तपस्वी राजा रामजी के कार्य को सहज करने वाले।
84. भक्तों के मनोरथ (कामनाएं) पूर्ण करने वाले।
85. भक्तों को जीवन फल (रामभक्ति) प्रदान करने वाले।
86.चारों युगों में अपना यश (प्रताप) फैलाने वाले।
87. कीर्ति को सर्वत्र फैलाने वाले।
88. जगत में ज्ञान का उजियारा करने वाले।
89. सज्जनों की रक्षा करने वाले।
90. दुष्टों का नाश करने वाले।
91. श्रीरामजी का असीम प्रेम पाने वाले।
92. अष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले।
93. नवनिधि प्रदान करने वाले।
94. माता सीताजी से वरदान पाने वाले।
95. रामनाम औषधि रखने वाले।
96. श्री रघुपतिजी के दास कहलाने वाले।
97. अपने भजन से रामजी की प्राप्ति कराने वाले।
98. जन्म-जन्मांतर के दुख दूर करने वाले।
99. अंतकाल में राम दरबार में पहुंचाने वाले।
100. निज भक्तों को श्रीराम भक्त बनाने वाले।
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101. अपने सेवकों को सब सुख प्रदान करने वाले।
102. अपने सेवकों के संकट मिटाने वाले।
103. अपने सेवकों की सब पीड़ा मिटाने वाले।
104. श्री हनुमानजी बलियों के वीर।
105. श्री सद्गुरुदेव स्वरूप श्री हनुमानजी।
106. अपने भक्तों को बंधनों से छुड़ाने वाले।
107. अपने भक्तों को महासुख प्रदान करने वाले।
108. नित्य पाठ करने वालों को सिद्धियों की साक्षी करवाने वाले।
109. श्री तुलसीदासजी के हृदय में निवास करने वाले।
जय जय जय श्री राम!
आपका सेवक।!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557
सच्चे मन से जो कोई गावे, उसका बेरा पार है
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माघी पूर्णिमा माघ महीने में पड़ने वाली पूर्णिमा

माघी पूर्णिमा माघ महीने में पड़ने वाली पूर्णिमा । 
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ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस संबंध में बताया गया है कि माघी पूर्णिमा पर भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करते हैं। इसलिए इस दिन गंगा नदी में स्नान करना चाहिए, अगर ऐसा न हो सके तो घर में ही पानी में गंगाजल डालकर नहा लेना चाहिए। इसके अलावा गंगाजल का आचमन यानी हथेली में थोड़ा सा गंगाजल पी लेने से भी पुण्य मिलता है। माघी पूर्णिमा पर भगवान विष्णु की पूजा और व्रत करना चाहिए। इससे हर तरह के पाप खत्म हो जाते हैं।
माघी पूर्णिमा की सुबह स्नान आदि करने के बाद भगवान विष्णु की पूजा करें। फिर पितरों का श्राद्ध कर गरीबों को भोजन, वस्त्र, तिल, कंबल, कपास, गुड़, घी, जूते, फल, अन्न आदि का दान करें।
इस दिन सोने एवं चांदी का दान भी किया जाता है। गौ दान का विशेष फल प्राप्त होता है। इसी दिन संयमपूर्वक आचरण कर व्रत करें। दिन भर कुछ खाए नहीं। संभव न हो तो एक समय फलाहार कर सकते हैं।
इस दिन ज्यादा जोर से बोलना या किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए। गृह क्लेश से बचना चाहिए। गरीबों एवं जरुरतमंदों की सहायता करनी चाहिए।
इस बात का विशेष ध्यान रखें कि आपके द्वारा या आपके मन, वचन या कर्म के माध्यम से किसी का अपमान न हो। इस प्रकार संयमपूर्वक व्रत करने से व्रती को पुण्य फल प्राप्त होते हैं।

इसलिए खास है ये तिथि,,,,मान्यता है कि माघी पूर्णिमा पर देवता भी रूप बदलकर गंगा स्नान के लिए प्रयाग आते हैं। इसलिए इस तिथि का विशेष महत्व धर्म ग्रंथों में बताया गया है।
जो श्रद्धालु तीर्थराज प्रयाग में एक मास तक कल्पवास करते हैं। माघी पूर्णिमा पर उनके व्रत का समापन होता है।

सभी कल्पवासी माघी पूर्णिमा पर माता गंगा की आरती पूजन करके साधु संन्यासियों और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। बची हुई सामग्री का दान कर देवी गंगा से फिर बुलाने का निवेदन कर अपने घर जाते हैं।
कहते हैं कि माघ पूर्णिमा पर ब्रह्म मुहूर्त में नदी स्नान करने से रोग दूर होते हैं। इस दिन तिल और कंबल का दान करने से नरक लोक से मुक्ति मिलती है।

धार्मिक मान्यता,,,माघ माह के बारे में कहते हैं कि इन दिनों देवता पृथ्वी पर आते हैं। प्रयाग में स्नान-दान आदि करते हैं। सूर्य मकर राशि में आ जाता है। देवता मनुष्य रूप धारण करके भजन-सत्संग आदि करते हैं। माघ पूर्णिमा के दिन सभी देवी-देवता अंतिम बार स्नान करके अपने लोकों को प्रस्थान करते हैं। नतीजतन इसी दिन से संगम तट पर गंगा, यमुना एवं सरस्वती की जलराशियों का स्तर कम होने लगता है। मान्यता है कि इस दिन अनेकों तीर्थ, नदी-समुद्र आदि में प्रातः स्नान, सूर्य अर्घ्य, जप-तप, दान आदि से सभी दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से मुक्ति मिल जाती है। शास्त्र कहते हैं कि यदि माघ पूर्णिमा के दिन पुष्य नक्षत्र हो तो इस दिन का पुण्य अक्षुण हो जाता है।

पौराणिक प्रसंग,,,शास्त्रों में एक प्रसंग है कि भरत ने कौशल्या से कहा कि 'यदि राम को वन भेजे जाने में उनकी किंचितमात्र भी सम्मति रही हो तो वैशाख, कार्तिक और माघ पूर्णिमा के स्नान सुख से वो वंचित रहें। उन्हें निम्न गति प्राप्त हो।' यह सुनते ही कौशल्या ने भरत को गले से लगा लिया।" इस तथ्य से ही इन अक्षुण पुण्यदायक पर्व का लाभ उठाने का महत्त्व पता चलता है।

संक्षिप्त कथा,,,माघ माह की पूर्णिमा को 'बत्तीस पूर्णिमा' भी कहते हैं। पुत्र और सौभाग्य को प्राप्त करने के लिए मध्याह्न में शिवोपासना की जाती है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार- "कांतिका नगरी में धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह नि:संतान था। बहुत उपाय किया, लेकिन उसकी पत्नी रूपमती से कोई संतान नहीं हुई। ब्राह्मण दान आदि मांगने भी जाता था। एक व्यक्ति ने ब्राह्मण दंपत्ति को दान देने से इसलिए मना कर दिया कि वह नि:संतान दंपत्ति को दान नहीं करता है। लेकिन उसने उस नि:संतान दंपत्ति को एक सलाह दी कि चंद्रिका देवी की वे आराधना करें। इसके पश्चात् ब्राह्मण दंपत्ति ने माँ काली की घनघोर आराधना की। 16 दिन उपवास करने के पश्चात् माँ काली प्रकट हुईं। माँ बोलीं कि "तुमको संतान की प्राप्ति अवश्य होगी। अपनी शक्ति के अनुसार आटे से बना दीप जलाओं और उसमें एक-एक दीप की वृद्धि करते रहना। यह कर्क पूर्णिमा के दिन तक 22 दीपों को जलाने की हो जानी चाहिए।" देवी के कथनानुसार ब्राह्मण ने आम के वृक्ष से एक आम तोड़ कर पूजन हेतु अपनी पत्नी को दे दिया। पत्नी इसके बाद गर्भवती हो गयी। देवी के आशीर्वाद से देवदास नाम का पुत्र पैदा हुआ। देवदास पढ़ने के लिए काशी गया, उसका मामा भी साथ गया। रास्ते में घटना हुई। प्रपंचवश उसे विवाह करना पड़ा। देवदास ने जबकि साफ-साफ बता दिया था कि वह अल्पायु है, लेकिन विधि के चक्र के चलते उसे मजबूरन विवाह करना पड़ा। उधर, काशी में एक रात उसे दबोचने के लिए काल आया, लेकिन व्रत के प्रताप से देवदास जीवित हो गया।
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ललिता जयंती

माँ ललिता दस महाविद्याओं में से एक हैं.
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 ललिता जयंती का व्रत भक्तजनों के लिए बहुत ही फलदायक होता है. ऐसी मान्यता है कि यदि कोई इस दिन मां ललिता देवी की पूजा भक्ति-भाव सहित करता है तो उसे देवी मां की कृपा अवश्य प्राप्त होती है और जीवन में हमेशा सुख शांति एवं समृद्धि बनी रहती है।
श्री ललिता जयंती कथा
देवी ललिता आदि शक्ति का वर्णन देवी पुराण में प्राप्त होता है. जिसके अनुसार पिता दक्ष द्वारा अपमान से आहत होकर जब दक्ष पुत्री सती ने अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये तो सती के वियोग में भगवान शिव उनका पार्थिव शव अपने कंधों में उठाए चारों दिशाओं में घूमने लगते हैं. इस महाविपत्ति को यह देख भगवान विष्णु चक्र द्वारा सती के शव के 108 भागों में विभाजित कर देते हैं. इस प्रकार शव के टूकडे़ होने पर सती के शव के अंश जहां गिरे वहीं शक्तिपीठ की स्थापना हुई. उसी में एक माँ ललिता का स्थान भी है. भगवान शंकर को हृदय में धारण करने पर सती नैमिष में लिंगधारिणीनाम से विख्यात हुईं इन्हें ललिता देवी के नाम से पुकारा जाने लगा.
एक अन्य कथा अनुसार ललिता देवी का प्रादुर्भाव तब होता है जब ब्रह्मा जी द्वारा छोडे गये चक्र से पाताल समाप्त होने लगा. इस स्थिति से विचलित होकर ऋषि-मुनि भी घबरा जाते हैं, और संपूर्ण पृथ्वी धीरे-धीरे जलमग्न होने लगती है. तब सभी ऋषि माता ललिता देवी की उपासना करने लगते हैं. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी जी प्रकट होती हैं तथा इस विनाशकारी चक्र को थाम लेती हैं. सृष्टि पुन: नवजीवन को पाती है.
श्री ललिता जयंती महत्व
मां ललिता देवी मंदिर में हमेशा ही भक्तों का तांता लगा रहता है, परन्तु जयंती के अवसर पर मां की पूजा-आराधना का कुछ विशेष ही महत्व होता है.
यह पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. पौराणिक मान्यतानुसार इस दिन देवी ललिता भांडा नामक राक्षस को मारने के लिए अवतार लेती हैं. राक्षस भांडा कामदेव के शरीर के राख से उत्पन्न होता है. इस दिन भक्तगण षोडषोपचार विधि से मां ललिता का पूजन करते है. इस दिन मां ललिता के साथ साथ स्कंदमाता और शिव शंकर की भी शास्त्रानुसार पूजा की जाती है.
श्री ललिता पूजा
देवी ललिता जी का ध्यान रुप बहुत ही उज्जवल व प्रकाश मान है.
माँ की पूजा तीन स्वरूपों में होती है
1. बाल सुंदरी 8 वर्षीया कन्या रूप में
2. षोडशी त्रिपुर सुंदरी - 16 वर्षीया सुंदरी
3. ललिता त्रिपुर सुंदरी- युवा स्वरूप
माँ की दीक्षा और साधना भी इसी क्रम में करनी चाहिए। ऐसा देखा गया है की सीधे ललिता स्वरूप की साधना करने पर साधक को शुरू में कई बार आर्थिक संकट भी आते हैं और फिर धीरे धीरे साधना बढ़ने पर लाभ होता है।
बृहन्नीला तंत्र के अनुसार काली के दो भेद कहे गए हैं कृष्ण वर्ण और रक्त वर्ण।
कृष्ण वर्ण काली दक्षिणकालिका स्वरुप है और
रक्त वर्ण त्रिपुर सुंदरी स्वरुप।
अर्थात माँ ललिता त्रिपुर सुंदरी रक्त काली स्वरूपा हैं।
महा विद्याओं में कोई स्वरुप भोग देने में प्रधान है तो कोई स्वरूप मोक्ष देने में परंतु त्रिपुरसुंदरी अपने साधक को दोनों ही देती हैं।
शुक्ल पक्ष के समय प्रात:काल माता की पूजा उपासना करनी चाहिए. कालिकापुराण के अनुसार देवी की दो भुजाएं हैं, यह गौर वर्ण की, रक्तिम कमल पर विराजित हैं.
ललिता देवी की पूजा से समृद्धि की प्राप्त होती है. दक्षिणमार्गी शाक्तों के मतानुसार देवी ललिता को चण्डी का स्थान प्राप्त है. इनकी पूजा पद्धति देवी चण्डी के समान ही है।
ये श्री यंत्र की मूल अधिष्ठात्री देवी हैं। आज श्री यंत्र को पंचामृत से स्नान करवा कर यथोचित पूजन और ललिता सहस्त्रनाम, ललिता त्रिशति ललितोपाख्यान और श्री सूक्त का पाठ करें।
ध्यान,,,बालार्क युत तैजसं त्रिनयनां रक्ताम्बरोल्लसिनीं।
नानालंकृतिराजमानवपुषं बालोडुराट शेखराम्।।
हस्तैरिक्षु धनुः सृणि सुमशरं पाशं मुदा विभ्रतीं।
श्री चक्र स्थितःसुन्दरीं त्रिजगतधारभूतां भजे।।
मन्त्र... ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नमः।
इस ध्यान मन्त्र से माँ को रक्त पुष्प , वस्त्र आदि चढ़ाकर अधिकाधिक जप करें। आपकी आर्थिक भौतिक समस्याएं समाप्त होंगी।
माँ ललिताम्बा सबका कल्याण करें।
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गुरू रविदास (रैदास)

गुरू रविदास (रैदास) जी का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को को हुआ था।उनके जन्म के बारे में एक दोहा प्रचलित है । https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास । दुखियों के कल्याण हित प्रगटे स्री रविदास।
उनके पिता रघ्घू या राघवदास तथा माता का नाम घुरबिनिया था। उनकी पत्नी लोना एवं एक पुत्र विजयदास हुए।उनकी एक पुत्री रविदासिनी थी।
बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। वे जूते बनाने का काम कभी नहीं किया औऱ न ही कभी उनका ये व्यवसाय था और उन्होंने अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।प्रारम्भ से ही रविदा स जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से भगा दिया। रविदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग इमारत बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
स्वभाव,,,,उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु । गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
चारो वेद के करे खंडौती । जन रैदास करे दंडौती।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
रैदास जी के ४० पद गुरु ग्रन्थ साहब में मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन सिंह देव ने १६ वीं सदी में किया था ।
रैदास के पद,,,अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी॥
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’॥
दोहे,,,,जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
मन चंगा तो कठौती में गंगा ||
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीनपूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन
बाभन कहत वेद के जाये, पढ़त लिखत कछु समुझ न आवत ।
मन ही पूजा मन ही धूप ,मन ही सेऊँ सहज सरूप।
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