Wednesday 30 April 2014

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्‌

परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रम्‌,,,ऋषिरुवाच-

यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम्‌। त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम्‌॥1॥
दुष्टं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत्‌।तस्य नामानि पुण्यानि वच्मि ते पुरुषर्षभ॥2॥
भू-भार-हरणार्थाय माया-मानुष-विग्रहः।जनार्दनांशसम्भूतः स्थित्युत्पत्तयप्ययेश्वरः॥3॥
भार्गवो जामदग्न्यश्च पित्राज्ञापरिपालकः।मातृप्राणप्रदो धीमान्‌ क्षत्रियान्तकरः प्रभु॥4॥
रामः परशुहस्तश्च कार्तवीर्यमदापह।रेणुकादुःखशोकघ्नो विशोकः शोकनाशन॥5॥
नवीन-नीरद-श्यामो रक्तोत्पलविलोचनः।घोरो दण्डधरो धीरो ब्रह्मण्यो ब्राह्मणप्रियस॥6॥
तपोधनो महेन्द्रादौ न्यस्तदण्डः प्रणान्तधीः।उपगीयमानचरित-सिद्ध-गन्धर्व-चारणै॥7॥
जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि दुःख शोक-भयातिग।इत्यष्टाविंशतिर्नाम्नामुक्ता स्तोत्रात्मिका शुभा॥8॥
अनया प्रीयतां देवो जामदग्न्यो महेश्वरः।नेदं स्तोत्रमशान्ताय नादान्तायातपस्विने॥9॥
नावेदविदुषे वाच्यमशिष्याय खलाय च।नासूयकायानृजवे न चाऽनिर्दिष्टकारिणे॥10॥
इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुगताय च।रहस्यधर्मं वक्तव्यं नाऽन्यस्मै तु कदाचन॥11॥
॥ इति परशुरामाष्टाविंशतिनामस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥
PARASURAMA by VISHNU108

Sunday 27 April 2014

मांगलिक दोष: कारण और उपाय ,,,कुंडली के योग ही दूर करते हैं मंगल दोष

मांगलिक दोष: कारण और उपाय ,,,कुंडली के योग ही दूर करते हैं मंगल दोष
यदि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्ठम व द्वादश भावों में कहीं भी मंगल हो तो उसे मंगल दोष कहा जाता है लेकिन उन दोषों के बावजूद अगर अन्य ग्रहों की स्थिति, दृष्टि या युति निम्नलिखित प्रकार से हो, तो मंगल दोष खुद ही प्रभावहीन हो जाता है :-
* यदि मंगल ग्रह वाले भाव का स्वामी बली हो, उसी भाव में बैठा हो या दृष्टि रखता हो, साथ ही सप्तमेश या शुक्र अशुभ भावों (6/8/12) में न हो।
* यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान होकर केंद्र त्रिकोण में हो।
* यदि गुरु या शुक्र बलवान, उच्च के होकर सप्तम में हो तथा मंगल निर्बल या नीच राशिगत हो।
* मेष या वृश्चिक का मंगल चतुर्थ में, कर्क या मकर का मंगल सप्तम में, मीन का मंगल अष्टम में तथा मेष या कर्क का मंगल द्वादश भाव में हो।
* यदि मंगल स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या अपनी उच्च राशि में स्थित हो।
* यदि वर-कन्या दोनों में से किसी की भी कुंडली में मंगल दोष हो तथा कुंडली में उन्हीं पाँच में से किसी भाव में कोई पाप ग्रह स्थित हो। कहा गया है -
शनि भौमोअथवा कश्चित्‌ पापो वा तादृशो भवेत्‌।
तेष्वेव भवनेष्वेव भौम-दोषः विनाशकृत्‌॥
इनके अतिरिक्त भी कई योग ऐसे होते हैं, जो मंगली दोष का परिहार करते हैं। अतः मंगल के नाम पर मांगलिक अवसरों को नहीं खोना चाहिए।  ,, ,,*ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,,
सौभाग्य की सूचिका भी है मंगली कन्या : कन्या की जन्मकुंडली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में मंगल होने के बाद भी प्रथम (लग्न, त्रिकोण), चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम तथा दशम भाव में बलवान गुरु की स्थिति कन्या को मंगली होते हुए भी सौभाग्यशालिनी व सुयोग्य पत्नी तथा गुणवान व संतानवान बनाती है।

वैष्णो देवी ,वैष्णो देवी, वैष्णो देवी

वैष्णो देवी ,, बड़ा प्यारा सजा है द्वार भवानी ।भक्तों की लगी है कतार भवानी ॥ऊँचे पर्बत भवन निराला ।आ के शीश निवावे संसार, भवानी ॥प्यारा सजा है द्वार भवानी ॥जगमग जगमग ज्योत जगे है ।तेरे चरणों में गंगा की धार, भवानी ॥तेरे भक्तों की लगी है कतार, भवानी ॥लाल चुनरिया लाल लाल चूड़ा ।गले लाल फूलों के सोहे हार, भवानी ॥प्यारा सजा है द्वार, भवानी ॥सावन महीना मैया झूला झूले ।देखो रूप कंजको का धार भवानी ॥प्यारा सजा है द्वार भवानी ॥पल में भरती झोली खाली ।तेरे खुले दया के भण्डार, भवानी ॥तेरेभक्तों की लगी है कतार, भवानी ॥भक्तों को है तेरा सहारा माँ ।करदे अपने सरल का बेडा पार, भवानी ॥प्यारा सजा है द्वार भवानी ॥

बिल्वपत्र शिवलिंग चढ़ाने से सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं

जानिये महाशिवरात्री पर्व के कुछ मुख्य शास्त्रिय पहलू
कम ही लोगों को पता है शिवपुराण में बताए बिल्वपत्र के ये अचूक उपाय ---
शिव पुराण के अनुसार शिवलिंग पर कई प्रकार की सामग्री फूल-पत्तियां चढ़ाई जाती हैं। इन्हीं में से सबसे महत्वपूर्ण है बिल्वपत्र। बिल्वपत्र से जुड़ी खास बातें जानने के बाद आप भी मानेंगे कि बिल्व का पेड बहुत चमत्कारी है-
पुराणों के अनुसार रविवार के दिन और द्वादशी तिथि पर बिल्ववृक्ष का विशेष पूजन करना चाहिए। इस पूजन से व्यक्ति से ब्रह्महत्या जैसे महापाप से भी मुक्त हो जाता है।
क्या आप जानते हैं कि बिल्वपत्र छ: मास तक बासी नहीं माना जाता। इसका मतलब यह है कि लंबे समय शिवलिंग पर एक बिल्वपत्र धोकर पुन: चढ़ाया जा सकता है।
आयुर्वेद के अनुसार बिल्ववृक्ष के सात पत्ते प्रतिदिन खाकर थोड़ा पानी पीने से स्वप्न दोष की बीमारी से छुटकारा मिलता है। इसी प्रकार यह एक औषधि के रूप में काम आता है।
शिवलिंग पर प्रतिदिन बिल्वपत्र चढ़ाने से सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। भक्त को जीवन में कभी भी पैसों की कोई समस्या नहीं रहती है।
शास्त्रों में बताया गया है जिन स्थानों पर बिल्ववृक्ष हैं वह स्थान काशी तीर्थ के समान पूजनीय और पवित्र है। ऐसी जगह जाने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
बिल्वपत्र उत्तम वायुनाशक, कफ-निस्सारक व जठराग्निवर्धक है। ये कृमि व दुर्गन्ध का नाश करते हैं। इनमें निहित उड़नशील तैल व इगेलिन, इगेलेनिन नामक क्षार-तत्त्व आदि औषधीय गुणों से भरपूर हैं। चतुर्मास में उत्पन्न होने वाले रोगों का प्रतिकार करने की क्षमता बिल्वपत्र में है।
ध्यान रखें इन कुछ तिथियों पर बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए। ये तिथियां हैं चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति और सोमवार तथा प्रतिदिन दोपहर के बाद बिल्वपत्र नहीं तोडऩा चाहिए। ऐसा करने पर पत्तियां तोडऩे वाला व्यक्ति पाप का भागी बनता है।
शास्त्रों के अनुसार बिल्व का वृक्ष उत्तर-पश्चिम में हो तो यश बढ़ता है, उत्तर-दक्षिण में हो तो सुख शांति बढ़ती है और बीच में हो तो मधुर जीवन बनता है।
घर में बिल्ववृक्ष लगाने से परिवार के सभी सदस्य कई प्रकार के पापों के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। इस वृक्ष के प्रभाव से सभी सदस्य यशस्वी होते हैं, समाज में मान-सम्मान मिलता है। ऐसा शास्त्रों में वर्णित है।
- बिल्ववृक्ष के नीचे शिवलिंग पूजा से सभी मनोकामना पूरी होती है।
- बिल्व की जड़ का जल अपने सिर पर लगाने से उसे सभी तीर्थों की यात्रा का पुण्य पा जाता है।
- गंध, फूल, धतूरे से जो बिल्ववृक्ष की जड़ की पूजा करता है, उसे संतान और सभी सुख मिल जाते हैं।
- बिल्ववृक्ष के बिल्वपत्रों से पूजा करने पर सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं।
- बिल्व की जड़ के पास किसी शिव भक्त को घी सहित अन्न या खीर दान देता है, वह कभी भी धनहीन या दरिद्र नहीं होता। क्योंकि यह श्रीवृक्ष भी पुकारा जाता है। यानी इसमें देवी लक्ष्मी का भी वास होता है



Koti Devi Devta's photo.

हर हर महादेव हर हर महादेव हर हर महादेव

हर हर महादेव ॐ जय शिवशंकर भगवान शंकर परात्पर परम तत्व हैं। वे सर्वत्र अनुस्यूत हैं, सभी कारणों के कारण हैं। वे जगन्नियन्ता जगदीश्वर हैं। सृष्टि के पूर्व न सत् ही था और न असत्, किंतु केवल शिव ही थे, 'न सन्न चासच्छिव एव केवल:।' यह बात सर्व सम्मत है कि जो वस्तु सृष्टि के पूर्व हो, वही जगत का कारण है, और जो जगत का कारण है, वही ब्रह्म है। ब्रह्म ही जगत के जन्मादि का कारण है। कार्य की उत्पत्ति के पूर्व जो नियमन रहता है, वही कारण है। अर्थात सदसद् वस्तुओं की उत्पत्ति के पूर्व 'शिव' था। 'शिव एव केवल:', 'शिवमद्वैतम' 'शिवं प्रशान्तममृतं ब्रह्मयोनिम', 'तस्मात सर्वगत: शिव:' इत्यादि श्रुतियों में शिव स्वयं अति परिशुद्ध, आश्रितों के कल्याणदाता, सबके साथ समता रखने वाले और भक्तों के सिद्धिप्रद हैं। 'उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तमं' इत्यादि। श्रुति वाक्यों से भी वही प्रतिपादित होता है कि उमारूपी शक्ति के विशिष्ट ही परम शिव ब्रह्म है। शिव शब्द नित्य, विज्ञानानन्द धन परमात्मा का वाचक है। वे कीट से लेकर हिरण्य गर्भ पर्यंत सब में एक रस होकर अनुस्यूत हैं। वे सबके अधिष्ठान, मूलाधार और अभिन्न निमित्तोपादान कारण हैं। वे ही परमात्मा हैं। वह एक, अद्वितीय, परम पुरुष हैं। वही एक मात्र सत्यवस्तु हैं। वे योग विद्या के प्रवर्तक, नृत्य विद्या के उत्पादक, व्याकरण शास्त्र के संचालक, आशुतोष, नित्य अजन्मा और परमाराध्य हैं। भगवती पार्वती उन्हें अपना पति बनाने के लए कठोर तप करती हैं। क्योंकि, वह जानती है कि 'तथा विधं प्रेम पतिश्च ताद्वश:' अन्य विधि से अप्राप्य है।
श्रुति का कथन है कि मुक्तिप्रदाता शिव को जानकर मानव परमशांति प्राप्त करता है, 'ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।' भगवान शिव के न तो कोई जनक है और न कोई अधिपति। उनके कोई समकक्ष भी नहीं है। वही सर्वदेवों में श्रेष्ठ हैं, ज्येष्ठ हैं

लक्ष्मी जी के 108 नाम

लक्ष्मी जी के 108 नाम,,ॐ प्रकृत्यै नमः । ॐ विकृत्यै नमः । ॐ विद्यायै नमः । ॐ सर्वभूतहितप्रदायै नमः । ॐ श्रद्धायै नमः । ॐ विभूत्यै नमः ।
ॐ सुरभ्यै नमः । ॐ परमात्मिकायै नमः । ॐ वाचे नमः ।
ॐ पद्मालयायै नमः । ॐ पद्मायै नमः । ॐ शुचये नम ।
ॐ स्वाहायै नमः । ॐ स्वधायै नमः । ॐ सुधायै नमः ।
ॐ धन्यायै नमः । ॐ हिरण्मय्यै नमः । ॐ लक्ष्म्यै नमः । ॐ नित्यपुष्टायै नमः ।
ॐ विभावर्यै नमः । ॐ अदित्यै नमः । ॐ दित्ये नमः । ॐ दीपायै नमः ।
ॐ क्रोधसंभवायै नमः । ॐ अनुग्रहप्रदायै नमः । ॐ बुद्धये नमः । ॐ अनघायै नमः ।
ॐ वसुधायै नमः । ॐ वसुधारिण्यै नमः । ॐ कमलायै नमः । ॐ कान्तायै नमः । ॐ कामाक्ष्यै नमः ।ॐ हरिवल्लभायै नमः । ॐ अशोकायै नमः । ॐ अमृतायै नमः । ॐ दीप्तायै नमः ।
ॐ लोकशोकविनाशिन्यै नमः । ॐ धर्मनिलयायै नमः । ॐ करुणायै नमः ।
ॐ लोकमात्रे नमः । ॐ पद्मप्रियायै नमः । ॐ पद्महस्तायै नमः । ॐ पद्माक्ष्यै नमः ।
ॐ पद्मसुन्दर्यै नमः । ॐ पद्मोद्भवायै नमः । ॐ पद्ममुख्यै नमः । ॐ पद्मनाभप्रियायै नमः ।
ॐ रमायै नमः । ॐ पद्ममालाधरायै नमः । ॐ देव्यै नमः । ॐ पद्मिन्यै नमः ।
ॐ पद्मगन्धिन्यै नमः । ॐ पुण्यगन्धायै नमः । ॐ सुप्रसन्नायै नमः ।
ॐ प्रसादाभिमुख्यै नमः ।ॐ प्रभायै नमः । ॐ चन्द्रवदनायै नमः । ॐ चन्द्रायै नमः ।
ॐ चन्द्रसहोदर्यै नमः । ॐ चतुर्भुजायै नमः । ॐ चन्द्ररूपायै नमः । ॐ इन्दिरायै नमः ।
ॐ इन्दुशीतलायै नमः । ॐ आह्लादजनन्यै नमः । ॐ पुष्टयै नमः । ॐ शिवायै नमः ।
ॐ शिवकर्यै नमः । ॐ सत्यै नमः । ॐ विमलायै नमः । ॐ विश्वजनन्यै नमः ।
ॐ तुष्टयै नमः । ॐ दारिद्र्यनाशिन्यै नमः । ॐ प्रीतिपुष्करिण्यै नमः । ॐ शान्तायै नमः ।
ॐ शुक्लमाल्यांबरायै नमः । ॐ श्रियै नमः । ॐ भास्कर्यै नमः । ॐ बिल्वनिलयायै नमः ।
ॐ वरारोहायै नमः । ॐ यशस्विनयै नमः । ॐ वसुन्धरायै नमः । ॐ उदारांगायै नमः ।
ॐ हरिण्यै नमः । ॐ हेममालिन्यै नमः । ॐ धनधान्यकर्ये नमः । ॐ सिद्धये नमः ।
ॐ स्त्रैणसौम्यायै नमः । ॐ शुभप्रदाये नमः । ॐ नृपवेश्मगतानन्दायै नमः ।
ॐ वरलक्ष्म्यै नमः । ॐ वसुप्रदायै नमः । ॐ शुभायै नमः । ॐ हिरण्यप्राकारायै नमः ।
ॐ समुद्रतनयायै नमः । ॐ जयायै नमः । ॐ मंगळा देव्यै नमः ।
ॐ विष्णुवक्षस्स्थलस्थितायै नमः । ॐ विष्णुपत्न्यै नमः । ॐ प्रसन्नाक्ष्यै नमः ।
ॐ नारायणसमाश्रितायै नमः । ॐ दारिद्र्यध्वंसिन्यै नमः । ॐ देव्यै नमः ।

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ॐ सर्वोपद्रव वारिण्यै नमः । ॐ नवदुर्गायै नमः । ॐ महाकाल्यै नमः । ॐ ब्रह्माविष्णुशिवात्मिकायै नमः । ॐ त्रिकालज्ञानसंपन्नायै नमः । ॐ भुवनेश्वर्यै नमः ।॥
इति ्रीलक्ष्म्यष्टोत्तरशत सहस्रनामावली ॥

शनि देव: पौराणिक मान्यता है कि शनिदेव का जन्म अमावस्या तिथि की ही शुभ घड़ी में हुआ था।


शनि देव: पौराणिक मान्यता है कि शनिदेव का जन्म अमावस्या तिथि की ही शुभ घड़ी में हुआ था। इसलिए हिन्दू पंचांग के हर माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि पर शनि भक्ति बड़ी संकटमोचक होती है। खासतौर पर उन लोगों के लिए जो शनि ढैय्या, साढ़े साती, महादशा या कुण्डली में बने शनि के बुरे असर दु:ख, दारिद्र, कष्ट, संताप, संकट से जूझ रहे हों।
दरअसल, शास्त्रों पर गौर करें तो शनिदेव का चरित्र मात्र क्रूर या पीड़ादायी ही नहीं, बल्कि मुकद्दर संवारने वाले देवता के रूप भी प्रकट होता है। यही नहीं शास्त्रों में बताए शनिदेव के परिवार के अन्य सदस्य भी हमारे सुख-दु:ख को नियत करते हैं।
शनि के पिता सूर्यदेव और माता छाया हैं।
शनि के भाई-बहन यमराज, यमुना और भद्रा है। यमराज मृत्युदेव, यमुना नदी को पवित्र व पापनाशिनी और भद्रा क्रूर स्वभाव की होकर विशेष काल और अवसरों पर अशुभ फल देने वाली बताई गई है।
शनि ने शिव को अपना गुरु बनाया और तप द्वारा शिव को प्रसन्न कर शक्तिसंपन्न बने।
शनि का रंग कृष्ण या श्याम वर्ण सरल शब्दों में कहें तो काला माना गया है।
शनि का जन्म क्षेत्र - सौराष्ट क्षेत्र में शिंगणापुर माना गया है।
शनि का स्वभाव क्रूर किंतु गंभीर, तपस्वी, महात्यागी बताया गया है।
शनि, कोणस्थ, पिप्पलाश्रय, सौरि, शनैश्चर, कृष्ण, रोद्रान्तक, मंद, पिंगल, बभ्रु नामों से भी जाने जाते हैं।
शनि के जिन ग्रहों और देवताओं से मित्रता है, उनमें श्री हनुमान, भैरव, बुध और राहु प्रमुख है।
शनि को भू-लोक का दण्डाधिकारी व रात का स्वामी भी माना गया है।
शनि का शुभ प्रभाव अध्यात्म, राजनीति और कानून संबंधी विषयों में दक्ष बनाता है।
शनि की प्रसन्नता के लिए काले रंग की वस्तुएं जैसे काला कपड़ा, तिल, उड़द, लोहे का दान या चढ़ावा शुभ होता है। वहीं गुड़, खट्टे पदार्थ या तेल भी शनि को प्रसन्न करता है।
शनि की महादशा 19 वर्ष की होती है। शनि को अनुकूल करने के लिये नीलम रत्न धारण करना प्रभावी माना गया है।
शनि के बुरे प्रभाव से डायबिटिज, गुर्दा रोग, त्वचा रोग, मानसिक रोग, कैंसर और वात रोग होते हैं। जिनसे राहत का उपाय शनि की वस्तुओं का दान है।
* ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नदी या कुएँ के जल से स्नान करें।
* तत्पश्चात पीपल के वृक्ष पर जल अर्पण करें।
* लोहे से बनी शनि देवता की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराएँ।
* फिर इस मूर्ति को चावलों से बनाए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें।
* इसके बाद काले तिल, फूल, धूप, काला वस्त्र व तेल आदि से पूजा करें।
* पूजन के दौरान शनि के निम्न दस नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, कृष्ण, पिप्पला, सौरि, यम, पिंगलो, रोद्रोतको, बभ्रु, मंद, शनैश्चर।
* पूजन के बाद पीपल के वृक्ष के तने पर सूत के धागे से सात परिक्रमा करें।
* इसके पश्चात निम्न मंत्र से शनिदेव की प्रार्थना करें-
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।
केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव।
* इसी तरह सात शनिवार तक व्रत करते हुए शनि के प्रकोप से सुरक्षा के लिए शनि मंत्र की समिधाओं में, राहु की कुदृष्टि से सुरक्षा के लिए दूर्वा की समिधा में, केतु से सुरक्षा के लिए केतु मंत्र में कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ, काले तिल से 108 आहुति प्रत्येक के लिए देनी चाहिए।

*ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,,
* फिर अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर लौह वस्तु धन आदि का दान अवश्य करें।
नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
* शनिवार की पूजा सूर्योदय के समय करने से श्रेष्ठ फल मिलता है।
* शनिवार का व्रत और पूजा करने से शनि के प्रकोप से सुरक्षा के साथ राहु, केतु की कुदृष्टि से भी सुरक्षा होती है।
* मनुष्य की सभी मंगलकामनाएँ सफल होती हैं।
* व्रत करने तथा शनि स्तोत्र के पाठ से मनुष्य के जीवन में धन, संपत्ति, सामाजिक सम्मान, बुद्धि का विकास और परिवार में पुत्र, पौत्र आदि की प्राप्ति होती है।

महाशिवरात्रि की कथा,

महाशिवरात्रि की कथा, ऐसे प्रसन्न हुए थे भोलेनाथ
महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव के निमित्त व्रत रखा जाता है तथा विशेष पूजा की जाती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत की कथा इस प्रकार है-

किसी समय वाराणसी के वन में एक भील रहता था। उसका नाम गुरुद्रुह था। वह वन्यप्राणियों का शिकार कर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। एक बार शिवरात्रि के दिन वह शिकार करने वन में गया। उस दिन उसे दिनभर कोई शिकार नहीं मिला और रात भी हो गई। तभी उसे वन में एक झील दिखाई दी। उसने सोचा मैं यहीं पेड़ पर चढ़कर शिकार की राह देखता हूं। कोई न कोई प्राणी यहां पानी पीने आएगा। यह सोचकर वह पानी का पात्र भरकर बिल्ववृक्ष पर चढ़ गया। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था।
थोड़ी देर बाद वहां एक हिरनी आई। गुरुद्रुह ने जैसे ही हिरनी को मारने के लिए धनुष पर तीर चढ़ाया तो बिल्ववृक्ष के पत्ते और जल शिवलिंग पर गिरे। इस प्रकार रात के प्रथम प्रहर में अंजाने में ही उसके द्वारा शिवलिंग की पूजा हो गई। तभी हिरनी ने उसे देख लिया और उससे पुछा कि तुम क्या चाहते हो। वह बोला कि तुम्हें मारकर मैं अपने परिवार का पालन करूंगा। यह सुनकर हिरनी बोली कि मेरे बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। मैं उन्हें अपनी बहन को सौंपकर लौट आऊंगी। हिरनी के ऐसा कहने पर शिकारी ने उसे छोड़ दिया।
थोड़ी देर बाद उस हिरनी की बहन उसे खोजते हुए झील के पास आ गई। शिकारी ेने उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर तीर चढ़ाया। इस बार भी रात के दूसरे प्रहर में बिल्ववृक्ष के पत्ते व जल शिवलिंग पर गिरे और शिव की पूजा हो गई। उस हिरनी ने भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर रखकर आने को कहा। शिकारी ने उसे भी जाने दिया। थोड़ी देर बाद वहां एक हिरन अपनी हिरनी को खोज में आया। इस बार भी वही सब हुआ और तीसरे प्रहर में भी शिवलिंग की पूजा हो गई। वह हिरन भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़कर आने की बात कहकर चला गया। जब वह तीनों हिरनी व हिरन मिले तो प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण तीनों शिकारी के पास आ गए। सबको एक साथ देखकर शिकारी बड़ा खुश हुआ और उसने फिर से अपने धनुष पर बाण चढ़ाया जिससे चौथे प्रहर में पुन: शिवलिंग की पूजा हो गई।
इस प्रकार गुरुद्रुह दिनभर भूखा-प्यासा रहकर वह रातभर जागता रहा और चारों प्रहर अंजाने में ही उससे शिव की पूजा हो गई और शिवरात्रि का व्रत संपन्न हो गया, जिसके प्रभाव से उसके पाप तत्काल भी भस्म हो गए। पुण्य उदय होते ही उसने सभी हिरनों को मारने का विचार त्याग दिया। तभी शिवलिंग से भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने गुरुद्रुह को वरदान दिया कि त्रेतायुग में भगवान राम तुम्हारे घर आएंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम्हें मोक्ष भी प्राप्त होगा। इस प्रकार अंजाने में किए गए शिवरात्रि व्रत से भगवान शंकर ने शिकारी को मोक्ष प्रदान कर दिया।

ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय

ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय वाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय

हनुमते नम:

ॐ हं हनुमते नम:।’ ॐ हं हुं हनुमते नम:।
’ ॐ हं हनुमते मां रक्ष रक्ष स्वाहा।
’ ॐ नमो भगवते आंजनेयाय महाबलाय स्वाहा।
दोहा श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि बरनउ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार चौपाई जय हनुमान ज्ञान गुन सागर जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
ॐ हं हनुमान् अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ वायुदेवता तर्जनीभ्यां नमः, ॐ अञ्जनी-सुताय मध्यमाभ्यां नमः, ॐ रामदूताय अनामिकाभ्यां नमः, ॐ श्री हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ रुद्र-मूर्तये करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः । ... ॐ ह्रीं हरिमर्कटमर्कटाय हुं हुं हुं हुं हुं वषट् स्वाहा ।

Saturday 26 April 2014

शनि मृत्युंजय स्तोत्र ,,,महाकाल-शनि मृत्युञ्जय स्तोत्रं

ॐ अस्य श्री महाकाल शनि मृत्युञ्जय स्तोत्र मन्त्रस्य पिप्लाद ऋषिरनुष्टुप्छन्दो महाकाल शनिर्देवता शं बीजं मायसी शक्तिः काल पुरुषायेति कीलकं मम अकाल अपमृत्यु निवारणार्थे पाठे विनियोगः।
श्री गणेशाय नमः।
ॐ महाकाल शनि मृत्युंजयाय नमः।
नीलाद्रीशोभाञ्चितदिव्यमूर्तिः खड्गो त्रिदण्डी शरचापहस्तः।
शम्भुर्महाकालशनिः पुरारिर्जयत्यशेषासुरनाशकारी ॥1
मेरुपृष्ठे समासीनं सामरस्ये स्थितं शिवम्‌ ।
प्रणम्य शिरसा गौरी पृच्छतिस्म जगद्धितम्‌ ॥2
॥पार्वत्युवाच॥भगवन्‌ ! देवदेवेश ! भक्तानुग्रहकारक ! ।
अल्पमृत्युविनाशाय यत्त्वया पूर्व सूचितम्‌ ॥3॥
तदेवत्वं महाबाहो ! लोकानां हितकारकम्‌ ।
तव मूर्ति प्रभेदस्य महाकालस्य साम्प्रतम्‌ ॥4
शनेर्मृत्युञ्जयस्तोत्रं ब्रूहि मे नेत्रजन्मनः ।
अकाल मृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम्‌ ॥5
शनिमन्त्रप्रभेदा ये तैर्युक्तं यत्स्तवं शुभम्‌ ।
प्रतिनाम चथुर्यन्तं नमोन्तं मनुनायुतम्‌ ॥6
श्रीशंकर उवाच॥नित्ये प्रियतमे गौरि सर्वलोक-हितेरते ।
गुह्याद्गुह्यतमं दिव्यं सर्वलोकोपकारकम्‌ ॥7
शनिमृत्युञ्जयस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि तवऽधुना ।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वशत्रु विमर्दनम्‌ ॥8
सर्वरोगप्रशमनं सर्वापद्विनिवारणम्‌ ।
शरीरारोग्यकरणमायुवर्ृिद्धकरं नृणाम्‌ ॥9
यदि भक्तासि मे गौरी गोपनीयं प्रयत्नतः ।
गोपितं सर्वतन्त्रेषु तच्छ्रणुष्व महेश्वरी ! ॥10
ऋषिन्यासं करन्यासं देहन्यासं समाचरेत्‌ ।
महोग्रं मूर्घ्नि विन्यस्य मुखे वैवस्वतं न्यसेत्‌ ॥11
गले तु विन्यसेन्मन्दं बाह्वोर्महाग्रहं न्यसेत्‌ ।
हृदि न्यसेन्महाकालं गुह्ये कृशतनुं न्यसेत्‌ ॥12
जान्वोम्तूडुचरं न्यस्य पादयोस्तु शनैश्चरम्।
एवं न्यासविधि कृत्वा पश्चात्‌ कालात्मनः शनेः ॥13
न्यासं ध्यानं प्रवक्ष्यामि तनौ श्यार्वा पठेन्नरः ।
कल्पादियुगभेदांश्च करांगन्यासरुपिणः ॥14
कालात्मनो न्यसेद् गात्रे मृत्युञ्जय ! नमोऽस्तु ते ।
मन्वन्तराणि सर्वाणि महाकालस्वरुपिणः ॥15
भावयेत्प्रति प्रत्यंगे महाकालाय ते नमः ।
भावयेत्प्रभवाद्यब्दान्‌ शीर्षे कालजिते नमः ॥16
नमस्ते नित्यसेव्याय विन्यसेदयने भ्रुवोः ।
सौरये च नमस्तेऽतु गण्डयोर्विन्यसेदृतून्‌ ॥17
श्रावणं भावयेदक्ष्णोर्नमः कृष्णनिभाय च ।
महोग्राय नमो भार्दं तथा श्रवणयोर्न्यसेत्‌ ॥18
नमो वै दुर्निरीक्ष्याय चाश्विनं विन्यसेन्मुखे ।
नमो नीलमयूखाय ग्रीवायां कार्तिकं न्यसेत्‌ ॥19
मार्गशीर्ष न्यसेद्-बाह्वोर्महारौद्राय ते नमः ।
ऊर्द्वलोक-निवासाय पौषं तु हृदये न्यसेत्‌ ॥20
नमः कालप्रबोधाय माघं वै चोदरेन्यसेत्‌ ।
मन्दगाय नमो मेढ्रे न्यसेर्द्वफाल्गुनं तथा ॥21
ऊर्वोर्न्यसेच्चैत्रमासं नमः शिवोस्भवाय च ।
वैशाखं विन्यसेज्जान्वोर्नमः संवर्त्तकाय च ॥22
जंघयोर्भावयेज्ज्येष्ठं भैरवाय नमस्तथा ।
आषाढ़ं पाद्योश्चैव शनये च नमस्तथा ॥23
कृष्णपक्षं च क्रूराय नमः आपादमस्तके ।
न्यसेदाशीर्षपादान्ते शुक्लपक्षं ग्रहाय च ॥24
नयसेन्मूलं पादयोश्च ग्रहाय शनये नमः ।
नमः सर्वजिते चैव तोयं सर्वांगुलौ न्यसेत्‌ ॥25
न्यसेद्-गुल्फ-द्वये विश्वं नमः शुष्कतराय च ।
विष्णुभं भावयेज्जंघोभये शिष्टतमाय ते ॥26
जानुद्वये धनिष्ठां च न्यसेत्‌ कृष्णरुचे नमः ।
ऊरुद्वये वारुर्णांन्यसेत्कालभृते नमः ॥27
पूर्वभाद्रं न्यसेन्मेढ्रे जटाजूटधराय च ।
पृष्ठउत्तरभाद्रं च करालाय नमस्तथा ॥28
रेवतीं च न्यसेन्नाभो नमो मन्दचराय च ।
गर्भदेशे न्यसेद्दस्त्रं नमः श्यामतराय च ॥29
नमो भोगिस्त्रजे नित्यं यमं स्तनयुगे न्यसेत्‌ ।
न्येसत्कृत्तिकां हृदये नमस्तैलप्रियाय च ॥30
रोहिणीं भावयेद्धस्ते नमस्ते खड्गधारीणे ।
मृगं न्येसतद्वाम हस्ते त्रिदण्डोल्लसिताय च ॥31
दक्षोर्द्ध्व भावयेद्रौद्रं नमो वै बाणधारिणे ।
पुनर्वसुमूर्द्ध्व नमो वै चापधारिणे ॥32
तिष्यं न्यसेद्दक्षबाहौ नमस्ते हर मन्यवे ।
सार्पं न्यसेद्वामबाहौ चोग्रचापाय ते नमः ॥33
मघां विभावयेत्कण्ठे नमस्ते भस्मधारिणे ।
मुखे न्यसेद्-भगर्क्ष च नमः क्रूरग्रहाय च ॥34
भावयेद्दक्षनासायामर्यमाणश्व योगिने ।
भावयेद्वामनासायां हस्तर्क्षं धारिणे नमः ॥35
त्वाष्ट्रं न्यसेद्दक्षकर्णे कृसरान्न प्रियाय ते ।
स्वातीं न्येसद्वामकर्णे नमो बृह्ममयाय ते ॥36
विशाखां च दक्षनेत्रे नमस्ते ज्ञानदृष्टये ।
विष्कुम्भं भावयेच्छीर्षेसन्धौ कालाय ते नमः ॥37
प्रीतियोगं भ्रुवोः सन्धौ महामन्दं ! नमोऽस्तु ते ।
नेत्रयोः सन्धावायुष्मद्योगं भीष्माय ते नमः ॥38
सौभाग्यं भावयेन्नासासन्धौ फलाशनाय च ।
शोभनं भावयेत्कर्णे सन्धौ पिण्यात्मने नमः ॥39
नमः कृष्णयातिगण्डं हनुसन्धौ विभावयेत्‌ ।
नमो निर्मांसदेहाय सुकर्माणं शिरोधरे ॥40
धृतिं न्यसेद्दक्षवाहौ पृष्ठे छायासुताय च ।
तन्मूलसन्धौ शूलं च न्यसेदुग्राय ते नमः ॥41
तत्कूर्परे न्यसेदगण्डे नित्यानन्दाय ते नमः ।
वृद्धिं तन्मणिबन्धे च कालज्ञाय नमो न्यसेत्‌ ॥42
ध्रुवं तद्ङ्गुली-मूलसन्धौ कृष्णाय ते नमः ।
व्याघातं भावयेद्वामबाहुपृष्ठे कृशाय च ॥43
हर्षणं तन्मूलसन्धौ भुतसन्तापिने नमः ।
तत्कूर्परे न्यसेद्वज्रं सानन्दाय नमोऽस्तु ते ॥44
सिद्धिं तन्मणिबन्धे च न्यसेत्‌ कालाग्नये नमः ।
व्यतीपातं कराग्रेषु न्यसेत्कालकृते नमः ॥45
वरीयांसं दक्षपार्श्वसन्धौ कालात्मने नमः ।
परिघं भावयेद्वामपार्श्वसन्धौ नमोऽस्तु ते ॥46
न्यसेद्दक्षोरुसन्धौ च शिवं वै कालसाक्षिणे ।
तज्जानौ भावयेत्सिद्धिं महादेहाय ते नमः ॥47
साध्यं न्यसेच्च तद्-गुल्फसन्धौ घोराय ते नमः ।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ शुभं रौद्राय ते नमः ॥48
न्यसेद्वामारुसन्धौ च शुक्लकालविदे नमः ।
ब्रह्मयोगं च तज्जानो न्यसेत्सद्योगिने नमः ॥49
ऐन्द्रं तद्-गुल्फसन्धौ च योगाऽधीशाय ते नमः ।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ नमो भव्याय वैधृतिम्‌ ॥50
चर्मणि बवकरणं भावयेद्यज्वने नमः ।
बालवं भावयेद्रक्ते संहारक ! नमोऽस्तु ते ॥51
कौलवं भावयेदस्थ्नि नमस्ते सर्वभक्षिणे ।
तैत्तिलं भावयेन्मसि आममांसप्रियाय ते ॥52
गरं न्यसेद्वपायां च सर्वग्रासाय ते नमः ।
न्यसेद्वणिजं मज्जायां सर्वान्तक ! नमोऽस्तु ते ॥53
विर्येविभावयेद्विष्टिं नमो मन्यूग्रतेजसे ।
रुद्रमित्र ! पितृवसुवारीण्येतांश्च पञ्च च ॥54
मुहूर्तांश्च दक्षपादनखेषु भावयेन्नमः ।
खगेशाय च खस्थाय खेचराय स्वरुपिणे ॥55
पुरुहूतशतमखे विश्ववेधो-विधूंस्तथा ।
मुहूर्तांश्च वामपादनखेषु भावयेन्नमः ॥56
सत्यव्रताय सत्याय नित्यसत्याय ते नमः ।
सिद्धेश्वर ! नमस्तुभ्यं योगेश्वर ! नमोऽस्तु ते ॥57
वह्निनक्तंचरांश्चैव वरुणार्यमयोनकान्‌ ।
मुहूर्तांश्च दक्षहस्तनखेषु भावयेन्नमः ॥58
लग्नोदयाय दीर्घाय मार्गिणे दक्षदृष्टये ।
वक्राय चातिक्रूराय नमस्ते वामदृष्टये ॥59
वामहस्तनखेष्वन्त्यवर्णेशाय नमोऽस्तु ते ।
गिरिशाहिर्बुध्न्यपूषाजपष्द्दस्त्रांश्च भावयेत्‌ ॥60
राशिभोक्त्रे राशिगाय राशिभ्रमणकारिणे ।
राशिनाथाय राशीनां फलदात्रे नमोऽस्तु ते ॥61
यमाग्नि-चन्द्रादितिजविधातृंश्च विभावयेत्‌ ।
ऊर्द्ध्व-हस्त-दक्षनखेष्वत्यकालाय ते नमः ॥62
तुलोच्चस्थाय सौम्याय नक्रकुम्भगृहाय च ।
समीरत्वष्टजीवांश्च विष्णु तिग्म द्युतीन्नयसेत्‌ ॥63
ऊर्ध्व-वामहस्त-नखेष्वन्यग्रह निवारिणे ।
तुष्टाय च वरिष्ठाय नमो राहुसखाय च ॥64
रविवारं ललाटे च न्यसेद्-भीमदृशे नमः ।
सोमवारं न्यसेदास्ये नमो मृतप्रियाय च ॥65
भौमवारं न्यसेत्स्वान्ते नमो ब्रह्म-स्वरुपिणे ।
मेढ्रं न्यसेत्सौम्यवारं नमो जीव-स्वरुपिणे ॥66
वृषणे गुरुवारं च नमो मन्त्र-स्वरुपिणे ।
भृगुवारं मलद्वारे नमः प्रलयकारिणे ॥67
पादयोः शनिवारं च निर्मांसाय नमोऽस्तु ते ।
घटिका न्यसेत्केशेषु नमस्ते सूक्ष्मरुपिणे ॥68
कालरुपिन्नमस्तेऽस्तु सर्वपापप्रणाशकः !।
त्रिपुरस्य वधार्थांय शम्भुजाताय ते नमः ॥69
नमः कालशरीराय कालनुन्नाय ते नमः ।
कालहेतो ! नमस्तुभ्यं कालनन्दाय वै नमः ॥70
अखण्डदण्डमानाय त्वनाद्यन्ताय वै नमः ।
कालदेवाय कालाय कालकालाय ते नमः ॥71
निमेषादिमहाकल्पकालरुपं च भैरवम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥72
दातारं सर्वभव्यानां भक्तानामभयंकरम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥73
कर्त्तारं सर्वदुःखानां दुष्टानां भयवर्धनम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥74
हर्त्तारं ग्रहजातानां फलानामघकारिणाम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥75
सर्वेषामेव भूतानां सुखदं शान्तमव्ययम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥76
कारणं सुखदुःखानां भावाऽभाव-स्वरुपिणम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥77
अकाल-मृत्यु-हरणऽमपमृत्यु निवारणम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥78
कालरुपेण संसार भक्षयन्तं महाग्रहम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥79
दुर्निरीक्ष्यं स्थूलरोमं भीषणं दीर्घ-लोचनम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥80
ग्रहाणां ग्रहभूतं च सर्वग्रह-निवारणम्‌ ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम्‌ ॥81
कालस्य वशगाः सर्वे न कालः कस्यचिद्वशः ।
तस्मात्त्वां कालपुरुषं प्रणतोऽस्मि शनैश्चरम्‌ ॥82
कालदेव जगत्सर्वं काल एव विलीयते ।
कालरुपं स्वयं शम्भुः कालात्मा ग्रहदेवता ॥83
चण्डीशो रुद्रडाकिन्याक्रान्तश्चण्डीश उच्यते ।
विद्युदाकलितो नद्यां समारुढो रसाधिपः ॥84
चण्डीशः शुकसंयुक्तो जिह्वया ललितः पुनः ।
क्षतजस्तामसी शोभी स्थिरात्मा विद्युता युतः ॥85
नमोऽन्तो मनुरित्येष शनितुष्टिकरः शिवे ।
आद्यन्तेऽष्टोत्तरशतं मनुमेनं जपेन्नरः ॥86
यः पठेच्छ्रणुयाद्वापि ध्यात्त्वा सम्पूज्य भक्तितः ।
त्रस्य मृत्योर्भयं नैव शतवर्षावधिप्रिये !॥87
ज्वराः सर्वे विनश्यन्ति दद्रु-विस्फोटकच्छुकाः ।
दिवा सौरिं स्मरेत्‌ रात्रौ महाकालं यजन्‌ पठेत ॥88
जन्मर्क्षे च यदा सौरिर्जपेदेतत्सहस्त्रकम्‌ ।
वेधगे वामवेधे वा जपेदर्द्धसहस्त्रकम्‌ ॥89
द्वितीये द्वादशे मन्दे तनौ वा चाष्टमेऽपि वा ।
तत्तद्राशौ भवेद्यावत्‌ पठेत्तावद्दिनावधि ॥90
चतुर्थे दशमे वाऽपि सप्तमे नवपञ्चमे ।
गोचरे जन्मलग्नेशे दशास्वन्तर्दशासु च ॥91
गुरुलाघवज्ञानेन पठेदावृत्तिसंख्यया ।
शतमेकं त्रयं वाथ शतयुग्मं कदाचन ॥92
आपदस्तस्य नश्यन्ति पापानि च जयं भवेत्‌ ।
महाकालालये पीठे ह्यथवा जलसन्निधौ ॥93
पुण्यक्षेत्रेऽश्वत्थमूले तैलकुम्भाग्रतो गृहे ।
नियमेनैकभक्तेन ब्रह्मचर्येण मौनिना ॥94
श्रोतव्यं पठितव्यं च साधकानां सुखावहम्‌ ।
परं स्वस्त्ययनं पुण्यं स्तोत्रं मृत्युञ्जयाभिधम्‌ ॥95
कालक्रमेण कथितं न्यासक्रम समन्वितम्‌ ।
प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा पूजायां च निशामुखे ॥96
पठतां नैव दुष्टेभ्यो व्याघ्रसर्पादितो भयम्‌ ।
नाग्नितो न जलाद्वायोर्देशे देशान्तरेऽथवा ॥97
नाऽकाले मरणं तेषां नाऽपमृत्युभयं भवेत्‌ ।
आयुर्वर्षशतं साग्रं भवन्ति चिरजीविनः ॥98
नाऽतः परतरं स्तोत्रं शनितुष्टिकरं महत्‌ ।
शान्तिकं शीघ्रफलदं स्तोत्रमेतन्मयोदितम्‌ ॥99
रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,https://www.facebook.com/gemsforeveryone/?ref=bookmarks
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यदीच्छेदात्मनो हितम्‌ ।
कथनीयं महादेवि ! नैवाभक्तस्य कस्यचित्‌ ॥100
॥ इति मार्तण्ड-भैरव-तन्त्रे महाकाल-शनि-मृत्युञ्जय-स्तोत्रं सम्पूर्णम्‌ ॥

Friday 25 April 2014

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः 
जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय! भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय। जगजननी
तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा। सत्य सनातन, सुन्दर, पर-शिव सुर-भूपा॥ जगजननी ..
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी। अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥ जगजननी ..
अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥ जगजननी ..
तू विधिवधू, रमा, तू उमा महामाया। मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥ जगजननी ..
राम, कृष्ण तू, सीता, ब्रजरानी राधा।तू वाँछाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाघा॥ जगजननी ..
दश विद्या, नव दुर्गा नाना शस्त्रकरा।अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव रूप धरा॥ जगजननी ..
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू॥ जगजननी ..
सुर-मुनि मोहिनि सौम्या, तू शोभाधारा।विवसन विकट सरुपा, प्रलयमयी, धारा॥ जगजननी ..
तू ही स्नेहसुधामयी, तू अति गरलमना।रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि तना॥ जगजननी ..
मूलाधार निवासिनि, इह-पर सिद्धिप्रदे।कालातीता काली, कमला तू वरदे॥ जगजननी ..
शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।भेद प्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥ जगजननी ..
हम अति दीन दु:खी माँ! विपत जाल घेरे।हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥ जगजननी ..
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।करुणा कर करुणामयी! चरण शरण दीजै॥ जगजननी .

शिव पंचाक्षर स्त्रोत :

शिव पंचाक्षर स्त्रोत :नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय !
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय: !!
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय !
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे म काराय नम: शिवाय: !!
शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय !
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै शि काराय नम: शिवाय: !!
वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय !
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै व काराय नम: शिवाय: !!
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय !
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै य काराय नम: शिवाय: !!
पंचाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेत शिव सन्निधौ !
शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते !!
शिव पंचाक्षर स्त्रोत भक्तों की हर मनोकामना पूरी करता है....!! दुनिया का हर सुख चाहते हैं तो इस शिव स्त्रोत का जप किया करें

कार्तिकेय स्तोत्रे

कार्तिकेय स्तोत्रे || श्रीसुब्रह्मण्याष्टकम् ||
हे स्वामीनाथ करूणाकर दीनबन्धो श्रीपार्वतीशमुखपङ्कज पद्मबन्धो |
श्रीशादिदेवगणपूजितपादपद्म वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||१||
देवाधिदेवसुत देवगणादिनाथ देवेन्द्रवन्द्य मृदुपङ्कजमञ्जुपाद |
देवर्षिनारदमुनीन्द्रसुगीतकीर्ते वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||२||
नित्यान्नदाननिरताखिलरोगहारिन् भाग्यप्रदानपरिपूरितभक्तकाम |
श्रुत्यागमप्रणववाच्यनिजस्वरूप वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||३||
क्रौञ्चासुरेन्द्रपरिखण्डनशक्तिशूलचापादिशस्त्रपरिमण्डितदिव्यपाणे |
श्रीकुण्डलीशधृततुण्डशिखीन्द्रवाह वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||४ ||
देवाधिदेवरथमण्डलमध्यमेत्य देवेन्द्रपीठनगरं दृढचापहस्त |
शूरं निहत्य सुरकोटिभिरीड्यमान वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||५||
हीरादिरत्नवलयुक्तकिरीटहार केयूरकुण्डललसत्कवचाभिराम |
हे वीर तारक जयामरबृन्दवन्द्य वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||६||
पञ्चाक्षरादिमनुमन्त्रितगाङ्गतोयै: पञ्चामृतै: प्रमुदितेन्द्रमुखैर्मुनिन्द्रै: |
पट्टाभिषिक्त हरियुक्त परासनाथ वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||७||
श्रीकार्तिकेय करूणामृतपूर्णदृष्ट्या कामादिरोगकलुषीकृतदुष्टचित्तम् |
सिक्त्वा तु मामव कलाधर कान्तिकान्त्या वल्लीश नाथ मम देहि करावलम्बम् ||८||
सुब्रह्मण्याष्टकं पुण्यं ये पठन्ति द्विजोत्तमा: |ते सर्व मुक्तिमायान्ति सुब्रमण्य प्रसादत: ||९||
सुब्रह्मण्याष्टकमिदं पुण्यं प्रातरुत्थाय य: पठेत् |कोटिजन्मकृतं पापं तत्क्षणात्तस्य नश्यति ||१०||

जग मे सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम बोलो राम राम राम

जग मे सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम बोलो राम राम राम, बोलो शाम शाम श्याम जग में सुन्दर है दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम.बोलो राम,राम,राम. बोलो श्याम,श्याम,श्याम. बोलो राम,राम,राम.बोलो श्याम,श्याम,श्याम.माखन ब्रिज में एक चुराबे, एक बेर भिलनी के खाबे. माखन ब्रिज में एक चुराबे, एक बेर के खाबे.प्रेम भाब से भरे आनोखे, दोनों के है काम.चाहे कृष्ण कहो या राम

महालक्ष्मी-कवच,नारायण उवाच

महालक्ष्मी-कवच,नारायण उवाच
सर्व सम्पत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम्।।१
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः।
पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्भुतम्।।२
ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः।।३
ॐ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदावतु।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम्।।४
ॐ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तं सदावतु।
ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदावतु।।५
ॐ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदावतु।
ॐ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदावतु।।६
ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदावतु।।७
ॐ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा मम हस्तौ सदावतु।।८
ॐ श्रीं निवासकान्तायै मम पादौ सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा सर्वांगं मे सदावतु।।९
प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया।
पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया।।१०
पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु श्रीः स्वयम्।
उत्तरे कमला पातु ऐशान्यां सिन्धुकन्यका।।११
नारायणेशी पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियावतु।
संततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम।।१२
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्।।१३
सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये।
यत् फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम्।।१४
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् तु यः।
कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ स श्रीमान् प्रतिजन्मनि।।१५
अस्ति लक्ष्मीर्गृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम्।
देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽत्रध्यो निश्चितं भवेत्।।१६
स सर्वपुण्यवान् धीमान् सर्वयज्ञेषु दीक्षितः।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले।।१७
यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि।
गुरुभक्ताय शिष्याय शरणाय प्रकाशयेत्।।१८
इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्सूम्।
कोटिसंख्यं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सोद्धिदायकः।।१९
।।श्री ब्रह्मवैवर्ते महालक्ष्मी कवचं।।
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तुलसी का पौधा महालक्ष्मी का स्वरूप माना गया है

तुलसी का पौधा महालक्ष्मी का स्वरूप माना गया है व देवी लक्ष्मी जगतपालक भगवान विष्णु की पत्नी मानी गईं है। वे विष्णुप्रिया भी पुकारी गईं हैं। इस तरह तुलसी भी पवित्र और पापनाशिनी मानी गई है। यही वजह है कि धार्मिक दृष्टि से घर में तुलसी के पौधे की पूजा और उपासना हर तरह की दरिद्रता का नाश कर सुख-समृद्ध करने वाली होती है।
यही नहीं, शास्त्रों में तुलसी को वेदमाता गायत्री का स्वरूप भी पुकारा गया है। इसलिए खासतौर पर हिन्दू माह कार्तिक माह की देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु का ध्यान कर गायत्री व लक्ष्मी स्वरूप तुलसी पूजा मन, घर-परिवार व कारोबार से कलह व दु:खों का अंत कर खुशहाली लाने वाली मानी गई है। इसके लिए तुलसी गायत्री मंत्र का पाठ मनोरथ व कार्य सिद्धि में चमत्कारी भी माना गया है।
सुबह स्नान के बाद घर के आंगन या देवालय में लगे तुलसी के पौधे की गंध, फूल, लाल वस्त्र अर्पित कर पूजा करें। फल का भोग लगाएं।
धूप व दीप जलाकर उसके नजदीक बैठकर तुलसी की ही माला से तुलसी गायत्री मंत्र का श्रद्धा व सुख-समृद्धि की कामना से कम से कम 108 बार स्मरण करें व अंत में तुलसी की आरती करें-
तुलसी गायत्री मंत्र -ॐ श्री तुलस्यै विद्महे।विष्णु प्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।।

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