Thursday, 24 April 2014

वल्लभाचार्य ,,,श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म वरूथिनी एकादशी चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को

श्री वल्लभाचार्य का जन्म वरूथिनी एकादशी चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को संवत् १५३५ अर्थात सन् १४७९ ई. को रायपुर जिले में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चम्पारण्य (चम्पारण) में हुआ था। बाद में वे अपने पिता के साथ काशी आकर बसे।
महाप्रभु वल्लभाचार्य के पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट तथा माता का नाम इल्लमा गारू था। वे भारद्वाज गोत्र के तैलंग ब्राम्हण थे, कृष्ण यजुर्वेद की तैतरीय शाखा के अन्तर्गत इनका भारद्वाज गोत्र था। वे समृद्ध परिवार के थे और उनके अधिकांश संबंधी दक्षिण के आंध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर कांकरवाड ग्राम में निवास करते थे। उनकी दो बहिनें और तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम रामकृष्ण भट्ट था। वे माधवेन्द्र पुरी के शिष्य और दक्षिण के किसी मठ के अधिपति थे। संवत १५६८ में वल्लभाचार्य जी बदरीनाथ धाम की यात्रा के समय वे उनके साथ थे। अपने उत्तर जीवन में उन्होने सन्यास ग्रहण करते हुए केशवपुरी नाम धारण किया। वल्लभाचार्य जी के छोटे भाई रामचन्द्र और विश्वनाथ थे। रामचंद्र भट्ट बड़े विद्वान और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनके एक चाचा ने उन्हें गोद ले लिया था और वे अपने पालक पिता के साथ अयोध्या में निवास करते थे।
वल्लभाचार्य की शिक्षा पाँच वर्ष की अवस्था में प्रारंभ हुई। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई, त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। आगे चलकर वे विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक बने। उन्होंने एकमात्र शब्द को ही प्रमाण बतलाया और प्रस्थान चतुष्टयी (वेद, ब्रह्मसूत्र, गीता और भागवत) के आधार पर साकार ब्रह्म के विरूद्ध धर्माश्रयत्व और जगत का सत्यत्व सिद्ध किया तथा मायावाद का खण्डन किया।
श्री वल्लभाचार्य का सिद्धान्त है कि जो सत्य तत्त्व है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। जगत भी ब्रह्म का अविकृत परिणाम होने से ब्रह्मरूप ही है, सत्य है इसलिए उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। उसका केवल अविर्भाव और तिरोभाव होता है। सृष्टि के पूर्व और प्रलय की स्थिति में जगत अव्यक्त होता है, यह उसके तिरोभाव की स्थिति होती है। जब सृष्टि की रचना होती है तो जगत पुनः व्यक्त हो जाता है, यह उसके अविर्भाव की स्थिति है। तिरोभाव की स्थिति में जगत अपने कारण रूप ब्रह्म में अव्यक्तावस्था में लीन रहता है। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि जब ब्रह्म ( ब्रह्म भगवान कृष्ण) प्रपंच में (जगत के रूप में) रमण करना चाहते है तो वे अनन्त रूप-नाम के भेद से स्वयं ही जगत रूप बनकर क्रिड़ा करने लगते है। चूँकि जगत - रूप में भगवान ही क्रीड़ा करते हैं, इसलिए जगत भगवान का ही रूप है और इसी कारण वह सत्य है, मिथ्या या मायिक नहीं है।
शुद्धाद्वैत दर्शन में जगत और संसार को भिन्न माना जाता है। भगवान जगत के अभिन्न-निमित-उपादान कारण है। वे जगत रूप में प्रकट हुए है, इसलिए जगत भगवान का रूप है, सत्य है। जगत भगवान की रचना है, कृति है। संसार भगवान की रचना नहीं है। वास्तव में संसार उत्पन्न ही नहीं होता, वह काल्पनिक है। अविद्याग्रस्त जीव 'यह मैं हूँ यह मेरा है', ऐसी कल्पना कर लेता है। इस प्रकार जीव स्वयं अहं और ममता का घेरा बनाकर अहंता-ममतात्मक संसार की कल्पना कर लेता है। वह अपने अहंता-ममतात्मक संसार में रचा-बसा रहता है, उसी में फँसे रहते हुए बंधन में पड़ जाता है। जीव के द्वारा अज्ञानवश रचा गया यह संसार काल्पनिक, असत्य और नाशवान् होता है।
अपने इन सिद्धांतों की स्थापना के लिये उन्होंने तीन बार पूरे भारत का भ्रमण किया तथा विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। ये यात्राएँ लगभग उन्नीस वर्षो में पूरी हुई। प्रथम संवत् १५५३, दूसरी संवत् १५५८ तथा तीसरी संवत् १५६६ में। प्रवास के समय वे अपना ठिकाना भीड़-भाड़ से दूर एकांत में किसी जलाशय के किनारे पर करते थे। ये स्थान आज भी बैठक नाम से जाने जाते हैं।
अपनी यात्राओं के दौरान मथुरा, गोवर्धन आदि स्थानों में उन्होंने श्रीनाथजी की पूजा आदि की व्यवस्था की तथा श्रीकृष्ण के प्रति निष्काम भक्ति के लिये लोगों को प्रेरित किया। अपनी दूसरी यात्रा के समय उनका विवाह महालक्ष्मी के साथ संपन्न हुआ। विवाह के पश्चात वे प्रयाग के निकट यमुना के तट पर स्थित अडैल ग्राम में बस गये। उनके दो पुत्र हुए। बड़े पुत्र गोपीनाथ जी का जन्म सं. १५६८ की आश्विन कृष्ण १२ को अड़ैल में और छोटे पुत्र विट्ठलनाथ जी का जन्म सं. १५७२ की पौष कृष्ण ९ को चरणाट में। दोनों पुत्र अपने पिता के समान विद्वान और धर्मनिष्ठ थे।

फिर वे वृन्दावन चले गये और भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में निमग्न रहे। वहीं उन्हें बालगोपाल के रूप में भगवान श्री कृष्ण के दर्शन हुए। संवत् १५५६ में महाप्रभु की प्रेरणा से गिरिराज में श्रीनाथ जी के विशाल मंदिर का निर्माण हुआ। इस मंदिर को पूरा होने में २० वर्ष लगे। कुम्भनदास जी इस मंदिर के प्रधान कीर्तिनिया बने और कृष्णदास जी अधिकारी।

महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा संस्थापित पुष्टि मार्ग में अनेक भक्त कवि हुए हैं। उनमें प्रमुख थे महाकवि सूरदास, कुम्भनदास, परमानंददास, कृष्णदास। गोसाई विट्ठलदास ने पुष्टि मार्ग के इन आठ कवियों को अष्ट छाप के रूप में सम्मानित किया है। छत्तीसगढ़ के महाकवि गोपाल पर भी पुष्टिमार्ग का गहरा प्रभाव था। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘भक्ति चिंतामणि’ श्रीमद भागवत के दशमस्कंध पर आधारित है।
श्री वल्लभाचार्यजी की ८४ बैठक, ८४ शिष्य और ८४ ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। उनके ग्रंथों में टीका भाष्य निबंध, शिक्षा और साहित्य आदि सभी कुछ है। इनमें गायत्री भाष्य, पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, तत्त्वार्थदीप निबन्ध, शास्त्रार्थ प्रकरण, सर्वनिर्णय प्रकरण, भगवातार्थ निर्णय, सुबोधिनी और षोडश ग्रंथ प्रमुख हैं। उपर्युक्त ग्रन्थो के अतिरिक्त महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने अन्य अनेक ग्रन्थों और स्तोत्रों की रचना की है जिनमें- पंचश्लोकी, शिक्षाश्लोक, त्रिविधनामावली, भगवत्पीठिका आदि ग्रन्थ तथा मधुराष्टक, परिवृढाष्टक, गिरिराजधार्याष्टक आदि स्तोत्र प्रसिद्ध है।
सर्वदा सर्वभावेनभजनीयोब्रजाधिप:।..तस्मात्सर्वात्मना नित्यंश्रीकृष्ण: शरणंमम।

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