Sunday 29 July 2018

श्रावण सोमवार की कथा


श्रावण सोमवार की कथा ,,, अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतरमन से बहुत दुखी था, क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था।
दिन रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन संपत्ति को कौन संभालेगा।
पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था।
उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वतीजी ने भगवान शिव से कहा 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।'
भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।'
इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।'
पार्वतीजी का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र प्राप्ति का वरदान देता हूं, लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।'
उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के 16 वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई।
भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया।
व्यापारी को पुत्र जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई, क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम 'अमर' रखा।
जब अमर 12 वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे।
लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इंकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी।
वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा, क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं? विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा।
वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया।
अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया राजकुमारी चंद्रिका तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।'
जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इंकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया।
जब अमर की आयु 16 वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न-वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे।
मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।'
भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे 16 वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।'
पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें, नहीं तो इसके माता पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।'
पार्वतीजी के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा।
शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा।
राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत सा धन वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया।
रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे।
व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ।
श्रावण में सोमवार की महिमा ,,,,शिव का एक नाम 'सोम' भी बताया गया है। सोम का अर्थ होता है चंद्रमा। चंद्रमा मन का कारक है। शिव द्वारा चंद्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। इसलिए जब हम शिव की आराधना करते हैं तो अपने मन को स्थिर करने का उपाय भी करते हैं। भगवान शंकर के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के बारे में कथा प्रचलित है कि जब भगवान शिव ने चंद्रमा को श्राप से मुक्त किया था तो उन्होंने सोमनाथ में शिवलिंग की स्थापना की थी। इसी कारण यह ज्योतिर्लिंग सोमनाथ प्रसिद्ध हुआ।

जलाभिषेक,,,पौराणिक कथाओं के अनुसार श्रावण मास में ही समुद्र मंथन किया गया था। मंथन से जो हलाहल विष निकला उसे भगवान शिव ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की थी। विष के प्रभाव से कंठ नीला पड़ जाने के कारण शिव 'नीलकंठ" कहलाए। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवताओं ने शिवजी को जल अर्पित किया।
यही वजह है कि श्रावण मास में शिवजी को जल चढ़ाने का विशेष महत्व है। इस महीने में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, शतरूद्रिपाठ और पुरुषसूक्त का पाठ एवं पंचाक्षर और षडाक्षर आदि शिव मंत्रों व नामों का जप विशेष फल देने वाला है। इस पूरे मास जो भी निष्काम भाव से भगवान शिव की भक्ति करता है उसे शिव की कृपा प्राप्त होती है और जीवन के कष्ट दूर होते हैं।'
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मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्ये'
ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्‌। पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्‌॥

पार्वती पति हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥

पार्वती पति हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
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जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणा-कर करतार हरे,
जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशि, सुख-सार हरे
जय शशि-शेखर, जय डमरू-धर जय-जय प्रेमागार हरे,
जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, अमित अनन्त अपार हरे,
निर्गुण जय जय, सगुण अनामय, निराकार साकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय रामेश्वर, जय नागेश्वर वैद्यनाथ, केदार हरे,
मल्लिकार्जुन, सोमनाथ, जय, महाकाल ओंकार हरे,
त्र्यम्बकेश्वर, जय घुश्मेश्वर भीमेश्वर जगतार हरे,
काशी-पति, श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अघहार हरे,
नील-कण्ठ जय, भूतनाथ जय, मृत्युंजय अविकार हरे।
पार्वती पति हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय महेश जय जय भवेश, जय आदिदेव महादेव विभो,
किस मुख से हे गुरातीत प्रभु! तव अपार गुण वर्णन हो,
जय भवकार, तारक, हारक पातक दारक शिव शम्भो,
दीन दुःख हर सर्व सुखाकर, प्रेम सुधाधर दया करो,
पार लगा दो भव सागर से, बनकर कर्णाधार हरे।
पार्वती पति हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय मन भावन, जय अति पावन, शोक नशावन,
विपद विदारन, अधम उबारन, सत्य सनातन शिव शम्भो,
सहज वचन हर जलज नयनवर धवल-वरन-तन शिव शम्भो,
मदन-कदन-कर पाप हरन-हर, चरन-मनन, धन शिव शम्भो,
विवसन, विश्वरूप, प्रलयंकर, जग के मूलाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
भोलानाथ कृपालु दयामय, औढरदानी शिव योगी, सरल हृदय,
अतिकरुणा सागर, अकथ-कहानी शिव योगी, निमिष में देते हैं,
नवनिधि मन मानी शिव योगी, भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर, बने मसानी
शिव योगी, स्वयम्‌ अकिंचन,जनमनरंजन पर शिव परम उदार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
आशुतोष! इस मोह-मयी निद्रा से मुझे जगा देना,
विषम-वेदना, से विषयों की मायाधीश छड़ा देना,
रूप सुधा की एक बूँद से जीवन मुक्त बना देना,
दिव्य-ज्ञान- भंडार-युगल-चरणों को लगन लगा देना,
एक बार इस मन मंदिर में कीजे पद-संचार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
दानी हो, दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,
शक्तिमान हो, दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो,
त्यागी हो, दो इस असार-संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,
परमपिता हो, दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो,
स्वामी हो निज सेवक की सुन लेना करुणा पुकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
तुम बिन ‘बेकल’ हूँ प्राणेश्वर, आ जाओ भगवन्त हरे,
चरण शरण की बाँह गहो, हे उमारमण प्रियकन्त हरे,
विरह व्यथित हूँ दीन दुःखी हूँ दीन दयालु अनन्त हरे,
आओ तुम मेरे हो जाओ, आ जाओ श्रीमंत हरे,
मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे।
पार्वती पति हर हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
।!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

Friday 27 July 2018

शिव बहुत भोले हैं सावन में रोज 21 बिल्वपत्रों पर चंदन से ॐ नम: शिवाय लिखकर शिवलिंग पर चढ़ाएं।

शिव बहुत भोले हैं, यदि कोई भक्त सच्ची श्रद्धा से उन्हें सिर्फ एक लोटा पानी भी अर्पित करे तो भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। इसीलिए उन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है। भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए कुछ छोटे और अचूक उपायों के बारे शिवपुराण में भी लिखा है।
1. सावन में रोज 21 बिल्वपत्रों पर चंदन से ॐ नम: शिवाय लिखकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं।
2. अगर आपके घर में किसी भी प्रकार की परेशानी हो तो सावन में रोज सुबह घर में गोमूत्र का छिड़काव करें तथा गुग्गुल का धूप दें।
3. यदि आपके विवाह में अड़चन आ रही है तो सावन में रोज शिवलिंग पर केसर मिला हुआ दूध चढ़ाएं। इससे जल्दी ही आपके विवाह के योग बन सकते हैं।
4. सावन में रोज नंदी (बैल) को हरा चारा खिलाएं। इससे जीवन में सुख-समृद्धि आएगी और मन प्रसन्न रहेगा।
5. सावन में गरीबों को भोजन कराएं, इससे आपके घर में कभी अन्न की कमी नहीं होगी तथा पितरों की आत्मा को शांति मिलेगी।
6. सावन में रोज सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निपट कर समीप स्थित किसी शिव मंदिर में जाएं और भगवान शिव का जल से अभिषेक करें और उन्हें काले तिल अर्पण करें। इसके बाद मंदिर में कुछ देर बैठकर मन ही मन में ऊं नम: शिवाय मंत्र का जाप करें। इससे मन को शांति मिलेगी।
7. सावन में किसी नदी या तालाब जाकर आटे की गोलियां मछलियों को खिलाएं। जब तक यह काम करें मन ही मन में भगवान शिव का ध्यान करते रहें। यह धन प्राप्ति का बहुत ही सरल उपाय है।
आमदनी बढ़ाने के लिए
8 .सावन के महीने में किसी भी दिन घर में पारद शिवलिंग की स्थापना करें और उसकी यथा विधि पूजन करें। इसके बाद नीचे लिखे मंत्र का 108 बार जप करें
ऐं ह्रीं श्रीं ॐ नम: शिवाय: श्रीं ह्रीं ऐं
9 .प्रत्येक मंत्र के साथ बिल्वपत्र पारद शिवलिंग पर चढ़ाएं। बिल्वपत्र के तीनों दलों पर लाल चंदन से क्रमश: ऐं, ह्री, श्रीं लिखें। अंतिम 108 वां बिल्वपत्र को शिवलिंग पर चढ़ाने के बाद निकाल लें तथा उसे अपने पूजन स्थान पर रखकर प्रतिदिन उसकी पूजा करें। माना जाता है ऐसा करने से व्यक्ति की आमदानी में इजाफा होता है।
10, संतान प्राप्ति के लिए उपाय,,,,सावन में किसी भी दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करने के बाद भगवान शिव का पूजन करें। इसके पश्चात गेहूं के आटे से 11 शिवलिंग बनाएं। अब प्रत्येक शिवलिंग का शिव महिम्न स्त्रोत से जलाभिषेक करें। इस प्रकार 11 बार जलाभिषेक करें। उस जल का कुछ भाग प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। यह प्रयोग लगातार 21 दिन तक करें। गर्भ की रक्षा के लिए और संतान प्राप्ति के लिए गर्भ गौरी रुद्राक्ष भी धारण करें। इसे किसी शुभ दिन शुभ मुहूर्त देखकर धारण करें।
11. बीमारी ठीक करने के लिए उपाय,,,सावन में किसी सोमवार को पानी में दूध व काले तिल डालकर शिवलिंग का अभिषेक करें। अभिषेक के लिए तांबे के बर्तन को छोड़कर किसी अन्य धातु के बर्तन का उपयोग करें।
12. अभिषेक करते समय ॐ जूं स: मंत्र का जाप करते रहें। इसके बाद भगवान शिव से रोग निवारण के लिए प्रार्थना करें और प्रत्येक सोमवार को रात में सवा नौ बजे के बाद गाय के सवा पाव कच्चे दूध से शिवलिंग का अभिषेक करने का संकल्प लें। इस उपाय से बीमारी ठीक होने में लाभ मिलता है।
भगवान शिव को प्रसन्न करने के उपाय
13. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।
14. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।
15. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।
16. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।
यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में बांट देना चाहिए।
शिवपुराण के अनुसार, जानिए भगवान शिव को कौन-सा रस (द्रव्य) चढ़ाने से क्या फल मिलता है-
17 . बुखार होने पर भगवान शिव को जल चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जल द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।
18 . तेज दिमाग के लिए शक्कर मिला दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।
19 . शिवलिंग पर गन्ने का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।
20. शिव को गंगा जल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
21. शहद से भगवान शिव का अभिषेक करने से टीबी रोग में आराम मिलता है।
22. यदि शारीरिक रूप से कमजोर कोई व्यक्ति भगवान शिव का अभिषेक गाय के शुद्ध घी से करे तो उसकी कमजोरी दूर हो सकती है।
23. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
24. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।
25 . अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने पर मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।
26. शमी वृक्ष के पत्तों से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
27. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।
28. जूही के फूल से भगवान शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।
29 . कनेर के फूलों से भगवान शिव का पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।
30. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।
31. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।
32. लाल डंठलवाला धतूरा शिव पूजन में शुभ माना गया है।
33. शमी का पत्र शिवलिंग पर चढ़ाने से धन और सौभाग्य म ए वृद्धि होती है। प्रतिदिन शिवमंदिर जाकर तांबे के लोटे में गंगाजल या पवित्र जल भरकर ले जाएँ। उसमें चावल और सफ़ेद चन्दन मिलाकर शिवलिंग पर "ॐ नमः शिवाय" बोलते हुए अर्पित कर दें। जल चढ़ाने के उपरांत भगवान शिव को चावल, बेलपत्र, सफ़ेद वस्त्र, जनेऊ और मिठाई के साथ शमी का पत्र भी चढ़ाएँ।ॐ सोम सोमाय नमः
34.शमी पत्रों (पत्तों) से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
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Monday 16 July 2018

गुरु पूर्णिमा, आषाढ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप मेंमनाया जाता है.

गुरु पूर्णिमा, आषाढ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप मेंमनाया जाता है. हमारी संकृति में गुरु का विशेष महत्व है. गुरु ही हमें ईश्वर से मिलने का मार्ग हमें दिखाते है और हमें सद्‌गति प्रदान करते है. हमारे जन्मदाता तो माता पिता हैं, पर हमारे कर्म के दाता गुरुदेव है. इनकी शरण में आकर दुखिया और रोगी को चैन मिल जाता है. गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा का विधान है. प्राचीन काल में विार्थी प्रायः गुरुकुलों में ही शिक्षा प्राप्त करने जाते थे. छात्र इस दिन श्रृद्धा भाव से प्रेरित अपने गुरू का पूजन करके अपनी सामर्थ्य के अनुसार गुरुजी को प्रसन्न करते थे. इस दिन विद्या ग्रहण करने वाले छात्रों को पूजा आदि से निवृत्त होकर अपने गुरु के पास जाकर वस्त्र, फल व माला अर्पण करके उन्हें प्रसन्न करना चाहिए. गुरु का आशीर्वाद ही मंगलकारी और ज्ञानवर्द्धक होता है. चारों वेदों के व्याख्याता गुरु व्यास थे. हमें वेदों का दान देने वाले व्यास जी ही हैं. इसलिए वो हमारे आदि गुरु हुए. गुरु पूर्णिमा के दिन ही ऋषि व्यास का भी जन्मदिन मनाया जाता है. उन की स्मृति को ताजा रखने के लिए हमें अपने गुरु को व्यास जी का ही अंश मान कर सम्मानपूर्वक उन की पूजा करनी चाहिए. गुरु की कृपा से ही विद्या की प्राप्ति होती है.
गुरु के महत्व को हमारे सभी संतो, ऋषियों एवं महान विभूतियों ने उध स्थान दिया है. संस्कृत में गु का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान)एवं रु का अर्थ होता है प्रकाश(ज्ञान)। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं.
हमारे जीवन के प्रथम गुरु हमारे माता-पिता होते हैं. जो हमारा पालन-पोषण करते हैं, सांसारिक दुनिया में हमें प्रथम बार बोलना, चलना तथा शुरुआती आवश्यकताओं को सिखाते हैं. अतः माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है. जीवन का विकास सुचारू रूप से चलता रहे, उसके लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है. भावी जीवन का निर्माण गुरू द्वारा ही होता है.
मानव मन में व्याप्त बुराई रूपी विष को दूर करने में गुरु का विशेष योगदान है. महर्षि वाल्मीकि जिनका पूर्व नाम रत्नाकर था. वे अपने परिवार कापालन पोषण करने हेतु दस्युकर्म करते थे. महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की, ये तभी संभव हो सका, जब गुरू रूपी नारद जी ने उनका ह्दय परिर्वतित किया. मित्रों, पंचतंत्र की कथाएं हम सब ने सुनी है. नीति कुशल गुरू विष्णु शर्मा ने किस तरह राजा अमरशक्ति के तीनों अज्ञानी पुत्रों को कहानियों एवं अन्य माध्यमों से उन्हें ज्ञानी बना दिया.
गुरु शिष्य का संबंध सेतु के समान होता है. गुरू की कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान होता है.
स्वामी विवेकानंद जी को बचपन से परमात्मा को पाने की चाह थी. उनकी ये इच्छा तभी पूरी हो सकी, जब उनको गुरु परमहंस का आशीर्वाद मिला. गुरु की कृपा से ही आत्म साक्षात्कार हो सका.
छत्रपति शिवाजी पर अपने गुरु समर्थ गुरु रामदास का प्रभाव हमेशा रहा.
गुरु द्वारा कहा एक शब्द या उनकी छवि मानव की कायापलट सकती है. कबीर दास जी का अपने गुरु के प्रति जो समर्पण था, उसको स्पष्ट करना आवश्यक है क्योंकि गुरु के महत्व को सबसे ज्यादा कबीर दास जी के दोहों में देखा जा सकता है. एक बार रामानंद जी गंगा स्नान को जा रहे थे, सीढी उतरते समय उनका पैर कबीर दास जी के शरीर पर पड गया. रामानंद जी के मुख से राम-राम शब्द निकल पडा. उसी शब्द को कबीर दास जी ने दीक्षा मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया. ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि जीवन में गुरु के महत्व का वर्णन कबीर दास जी ने अपने दोहों में पूरी आत्मियता से किया है.
गुरू गोविंद दोऊ खडे काके लागू पांव
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय.
गुरू का स्थान ईश्वर से भी श्रेष्ठ है. हमारे सभ्य सामाजिक जीवन का आधार स्तभ गुरू हैं। कई ऐसे गुरू हुए हैं, जिन्होने अपने शिष्य को इस तरह शिक्षित किया कि उनके शिष्यों ने राष्ट्र की धारा को ही बदल दिया।
आचार्य चाणक्य ऐसी महान विभूती थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। गुरू चाणक्य कुशल राजनितिज्ञ एवं प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में विश्व विख्यात हैं। उन्होने अपने वीर शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को शासक पद पर सिहांसनारूढ करके अपनी जिस विलक्षंण प्रतिभा का परिचय दिया उससे समस्त विश्व परिचित है।
गुरु हमारे अंतर मन को आहत किये बिना हमें सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते हैं। दुनिया को देखने का नजरिया गुरू की कृपा से मिलता है। पुरातन काल से चली आ रही गुरु महिमा को शब्दों में लिखा ही नही जा सकता। संत कबीर भी कहते हैं कि
सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा न जाए॥
गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु को सिर्फ याद करने का प्रयास है। गुरू की महिमा बताना तो सूरज को दीपक दिखाने के समान है। गुरु की कृपा हम सब को प्राप्त हो। अंत में कबीर दास जी के निम्न दोहे से अपनी कलम को विराम देते हैं।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥
इस दिन क्या करना चाहिए
१. जिसने अपने गुरु बनाए हैं वह गुरु के दर्शन करें।
२. हिन्दु शास्त्र में श्री आदि शंकराचार्य को जगतगुरु माना जाता है इसलिए उनकी पूजा करनी चाहिए।
३. गुरु के भी गुरु यानि गुरु दत्तात्रेय की पूजा करनी चाहिए एवं दत बावनी का पठन करना चाहिए।
ज्योतिष और कुंडली के आधार पर नीचे दी गयी स्थिति में गुरु यंत्र रखना चाहिए, एवं गुरु यंत्र की पूजा करनी चाहिए-
१. आपकी कुंडली में गुरु नीचस्थ राशि में यानि की मकर राशि में है तो गुरु यंत्र की पूजा करनी चाहिए।
२. गुरु-राहु, गुरु-केतु या गुरु-शनि युति में होने पर भी यह यंत्र लाभदायी है।
३. आपकी कुंडली में गुरु नीचस्थ स्थान में यानि कि ६, ८ या १२ वे स्थान में है तो आपको गुरु यंत्र रखना चाहिए एवं उसकी नियमित तौर पर पूजा करनी चाहिए।
४. कुंडली में गुरु वक्री या अस्त है तो गुरु अपना बल प्राप्त नहीं कर पाता, इसलिए आपको इस यंत्र की पूजा करनी चाहिए।
५. जिनकी कुंडली में विद्याभ्यास, संतान, वित्त एवं दाम्पत्यजीवन सम्बंधित तकलीफ है तो उन्हें विद्वान ज्योतिष की सलाह लेकर गुरु का रत्न पुखराज कल्पित करना आवश्यक है।
६. इस के अलावा आपकी कुंडली में हो रहे हर तरह के वित्तीय दोष को दूर करने के लिए आप श्री यंत्र की पूजा करेंगे तो अधिक लाभ होगा।

देवशयनी एकादशी तिथि



देवशयनी एकादशी तिथि  23,,जुलाई,,2018 को  ,   https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5    आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इस तिथि को 'पद्मनाभा' भी कहते हैं। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है।पुराणों में ऎसा उल्लेख है, कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है. और कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी दिन से चौमासे का आरम्भ माना जाता है। इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को 'हरिशयनी एकादशी' तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को 'प्रबोधिनी एकादशी' कहते हैं। इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। धार्मिक दृष्टि से यह चार मास भगवान विष्णु का निद्रा काल माना जाता है। इन दिनों में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या (चातुर्मास) करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में भू-मण्डल (पृथ्वी) के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष माहात्म्य लिखा है। देवशयनी एकादशी के दिन लोग व्रत रखते हैं और भगवान विष्णु की पूजा करते हैं.
इस व्रत को करने से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, सभी पाप नष्ट होते हैं तथा भगवान हृषीकेश प्रसन्न होते हैं। सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा-आराधना की जाती है, परंतु आज की रात्रि से भगवान का शयन प्रारम्भ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस दिन उपवास करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करके, उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म सुशोभित कर उन्हें पीताम्बर, पीत वस्त्रों व पीले दुपट्टे से सजाया जाता है। पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप,दीप, पुष्प आदि से पूजा कर आरती उतारी जाती है। भगवान को पान (ताम्बूल), सुपारी (पुंगीफल) अर्पित करने के बाद निम्न मन्त्र द्वारा स्तुति की जाती है।
सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम्।।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा
देवशयनी एकादशी से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है. सूर्यवंशी मान्धाता नम का एक राजा था. वह सत्यवादी, महान, प्रतापी और चक्रवती था. वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता है. उसके राज्य में कभी भी अकाल नहीं पडता था.एक समय राजा के राज्य में अकाल पड गया. और प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यन्त दु:खी रहने लगी. राज्य में यज्ञ होने बन्द हो गयें. एक दिन प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी की हे राजन, समस्त विश्व की सृष्टि का मुख्य कारण वर्षा है. इसी वर्षा के अभाव से राज्य में अकाल पड गया है. और अकाल से प्रजा अन्न की कमी से मर रही है.

यह देख दु;खी होते हुए राजा ने भगवान से प्रार्थना की हे भगवान, मुझे इस अकाल को समाप्त करने का कोई उपाय बताईए. यह प्रार्थना कर मान्धाता मुख्य व्यक्तियोम को साथ लेकर वन की और चल दिया. घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंच गयें. उस स्थान पर राजा रथ से उतरा और आश्रम में गया. वहां मुनि अभी प्रतिदिन की क्रियाओं से निवृ्त हुए थें. राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम क्या, और मुनि ने उनको आशिर्वाद दिया, फिर राजा से बोला, कि हे महर्षि, मेरे राज्य में तीन वर्ष से वर्षा नहीं हो रही है. चारों और अकाल पडा हुआ है. और प्रजा दु:ख भोग रही है. राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट मिलता है. ऎसा शास्त्रों में लिखा है, जबकि मैं तो धर्म के सभी नियमों का पालन करता हूँ.
इस पर ऋषि बोले की हे राजन, यदि तुम ऎसा ही चाहते हो, तो आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की पद्मा नाम की एकादशी का विधि-पूर्वक व्रत करो. एक व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी. और प्रजा सुख प्राप्त करेगी.मुनि की बात सुनकर राजा अपने नगर में वापस आया और उसने एकादशी का व्रत किया. इस व्रत के प्रभाव से राज्य में वर्षा हुई और मनुष्यों को सुख प्राप्त हुआ. देवशयनी एकाद्शी व्रत को करने से भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते है. अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले व्यक्तियों को इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए.
देवशयनी एकादशी व्रत विधि
देवशयनी एकादशी व्रत विधि
देवशयनी एकादशी व्रत को करने के लिये व्यक्ति को इस व्रत की तैयारी दशमी तिथि की रात्रि से ही करनी होती है. दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृ्ति का भोजन नहीं होना चाहिए. भोजन में नमक का प्रयोग नही होना चाहिए . और व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए. और जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए. यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल तक चलता है. दशमी तिथि और एकाद्शी तिथि दोनों ही तिथियों में सत्य बोलना और दूसरों को दु:ख या अहित होने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए.
एकाद्शी तिथि में व्रत करने के लिये सुबह जल्दी उठना चाहिए.
नित्यक्रियाओं को करने के बाद, स्नान करना चाहिए. एकादशी तिथि का स्नान अगर किसी तीर्थ स्थान या पवित्र नदी में किया जाता है, तो वह विशेष रुप से शुभ रहता है. किसी कारण वश अगर यह संभव न हो, तो उपवासक इस दिन घर में ही स्नान कर सकता है. स्नान करने के लिये भी मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए.
स्नान कार्य करने के बाद भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए. पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुम्भ रख कर, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से बांधना चाहिए. इसके बाद कुम्भ की पूजा करनी चाहिए. जिसे कुम्भ स्थापना के नाम से जाना जाता है. कुम्भ के ऊपर भगवान की प्रतिमा या तस्वीर रख कर पूजा करनी चाहिए. भगवान श्री हरि विष्णु की सोने ,चाँदी ,तांबे या पीतल की प्रतिमा स्थापित करे .भगवान श्री हरी विष्णु को प्रिय पीतांबर वस्त्र धारण कराए .ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीप और पुष्प से पूजा करनी चाहीए. व्रत कथा सुननी चाहिए . विष्णु स्त्रोत , विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करेइसके बाद आरती का प्रसाद वितरण करे.
विधि पूर्वक व्रत के पालन से शास्त्रों के अनुसार व्रती सभी पापों और दोषों से मुक्त हो जाता है।
देवशयनी एकादशी का महत्व
देवशयनी एकादशी बहुत महत्वपूर्ण एकादशी मानी जाती हैं भारतीय कॅलंडर के अनुसार. पुराणो के अनुसार भगवान इस दिन आराम करने क्षीर सागर चले जाते हैं और 4 माह बाद आते हैं . इस दिन को प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता हैं जो भी बहुत महत्वपूर्ण दिन हैं. देवशयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं. इस अवधि में भगवान विष्णु आराम करते हैं और श्रद्धालु भगवान के प्रति बहुत अध्यात्मिक होते हैं. यह समय भक्तों द्वारा भगवान में अधिक से अधिक आस्था और भक्ति को दर्शाता हैं. यह दिन भक्तों को संसारिक कामों से मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त करने में मदद करता हैं.
यह माना जाता हैं की जो व्यक्ति इस दिन पर व्रत,जाप, तप, नियम, उपवास रखता हैं उसकी सभी इच्छायें पूरी हो जाती हैं और वह इस तरह की तपस्या से अधिक से अधिक शुभदायक फल प्राप्त करता हैं. यह दिन हमे जीवन में कई तरह की चुनोतियों का सामना करने के लिए शक्ति प्रदान करता हैं. इस दिन किसी धार्मिक गतिविधियों का आयोजन नही किया जाता हैं .यह दिन हमारे सभी इच्छाओं को पूरा करने और मोक्ष और मुक्ति के मार्ग पर ले जाने में मदद करता हैं. देवशयनी एकादशी का दिन सबसे शुद्धतम और अनुकूल समय माना जाता हैं.
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श्रावण मास में आशुतोष भगवान्‌ शंकर की पूजा का विशेष महत्व है।


श्रावण मास में आशुतोष भगवान्‌ शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। जो प्रतिदिन पूजन न कर सकें उन्हें सोमवार को शिव पूजा अवश्य करनी चाहिये और व्रत रखना चाहिये। सोमवार भगवान्‌ शंकर का प्रिय दिन है, अत: सोमवार को शिवाराधन करना चाहिये। श्रावण मास में पार्थिव शिव पूजा का विशेष महत्व है। अत: प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिवपूजा या पार्थिव शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये।
सोमवार (Shravan Somvar) के व्रत के दिन प्रातः काल ही स्नान ध्यान के उपरांत मंदिर देवालय या घर पर श्री गणेश जी की पूजा के साथ शिव-पार्वती और नंदी की पूजा की जाती है। इस दिन प्रसाद के रूप में जल , दूध , दही , शहद , घी , चीनी , जनेऊ , चंदन , रोली , बेल पत्र , भांग , धतूरा , धूप , दीप और दक्षिणा के साथ ही नंदी के लि‌ए चारा या आटे की पिन्नी बनाकर भगवान पशुपतिनाथ का पूजन किया जाता है। रात्रिकाल में घी और कपूर सहित गुगल, धूप की आरती करके शिव महिमा का गुणगान किया जाता है। लगभग श्रावण मास के सभी सोमवारों को यही प्रक्रिया अपना‌ई जाती है। इस मासमें लघुरुद्र, महारुद्र अथवा अतिरुद्र पाठ कराने का भी विधान है।
इस मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर शिवामूठ च़ढ़ा‌ई जाती है। वह क्रमशः इस प्रकार है :
1 प्रथम सोमवार को- कच्चे चावल एक मुट्ठी,
2 दूसरे सोमवार को- सफेद तिल्ली एक मुट्ठी,
3 तीसरे सोमवार को- ख़ड़े मूँग एक मुट्ठी,
4 चौथे सोमवार को- जौ एक मुट्ठी और यदि
5 पाँचवाँ सोमवार आ‌ए तो एक मुट्ठी सत्तू च़ढ़ाया जाता है।
शिव की पूजा में बिल्वपत्र अधिक महत्व रखता है। शिव द्वारा विषपान करने के कारण शिव के मस्तक पर जल की धारा से जलाभिषेक शिव भक्तों द्वारा किया जाता है। शिव भोलेनाथ ने गंगा को शिरोधार्य किया है।
अगर आप उपरोक्त विधि का पालन करने में असमर्थ हैं तो शिवलिंग उअर जल अर्पण कर एक सवच, कोमल अखंडित बिल्वपत्र को भगवन भोले नाथ पर अर्पण कर श्रधा के साथ बिल्वाष्टक या यह लघु मन्त्र जाप करें
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम्
त्रिजन्मपाप संहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥
बिल्वाष्टकम ,,,यह स्तोत्र भगवन शिव को अति प्रिये हे क्योंकि बिल्वपत्र भगवन शिव की पूजा के लिए सर्वॊच
है। प्रतिदिन भगवन शिव के लिंग स्वरुप पर बिल्वपत्र अर्पण करने और बिल्वाष्टक का पाठ करने से समस्त जन्मों के पापों का नाश होता है।

बिल्वाष्टकम
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम्त्रि जन्मपाप संहारं एक बिल्वं शिवार्पणम् अखण्ड बिल्व पात्रेण पूजिते नन्दिकेश्र्वरे शुद्ध्यन्ति सर्वपापेभ्यो एक बिल्वं शिवार्पणम् ॥
शालिग्राम शिलामेकां विप्राणां जातु चार्पयेत्सो मयज्ञ महापुण्यं एक बिल्वं शिवार्पणम् ॥
दन्तिकोटि सहस्राणि वाजपेय शतानि च कोटि कन्या महादानं एक बिल्वं शिवार्पणम् ॥
लक्ष्म्या स्तनुत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम्बि ल्ववृक्षं प्रयच्छामि एक बिल्वं शिवार्पणम् ॥
दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् अघोरपापसंहारं एक बिल्वं शिवार्पणम् ॥
काशीक्षेत्र निवासं च कालभैरव दर्शनम्प्र यागमाधवं दृष्ट्वा एक बिल्वं शिवार्पणम्
मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे अग्रतः शिवरूपाय एक बिल्वं शिवार्पणम् ॥ 

!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!इति श्री बिल्वाष्टकम संपूर्णम्

Thursday 12 July 2018

गुप्त नवरात्रि का पर्व आषाढ़ 13 जुलाई 2018 शुक्रवार से शुरू हो रहा है।


गुप्त नवरात्रि का पर्व आषाढ़ 13 जुलाई 2018 शुक्रवार से शुरू हो रहा है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकम तिथि से नवरात्रि की शुरुआत होकर 21 जुलाई को नवरात्रि का अंतिम दिन होगा।
आइए जानें नवरात्रि पूजन का सर्वश्रेष्ठ समय और मुहूर्त एवं वार के अनुसार किस दिन होगा कौन-सी माता का पूजन :-
गुप्त नवरात्रि 2018 के शुभ मंगलमयी मुहूर्त
1 घटस्थापना एवं देवी शैलपुत्री पूजा-13 जुलाई 2018 शुक्रवार।
2 देवी ब्रह्मचारिणी पूजा-14 जुलाई 2018, शनिवार।
3 देवी चंद्रघंटा पूजा-15 जुलाई 2018, रविवार।
4 देवी कुष्मांडा पूजा- 16 जुलाई 2018, सोमवार।
5 देवी स्कंदमाता पूजा-17 जुलाई 2018, मंगलवार।
6 देवी कात्यायनी पूजा-18 जुलाई 2018, बुधवार।
7 देवी कालरात्रि पूजा-19 जुलाई 2018, बृहस्पतिवार।
8 देवी महागौरी पूजा, दुर्गा अष्टमी-20 जुलाई 2018, शुक्रवार।
9 देवी सिद्धिदात्री, नवरात्री पारण-21 जुलाई 2018, शनिवार।
10 गुप्त नवरात्रि 2018 : 13 जुलाई से पुष्य नक्षत्र में शुरू होगी 10 महाविद्याओं की साधना
11 नवरात्रि में पूजन का शुभ समय निम्न रहेगा ,,
12 आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पूजन का समय सुबह 7.49 से 10.01 बजे तक।
13 आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पूजन का शुभ मंगलकारी समय दोपहर 2.27 से 4.44 बजे तक।
14 आषाढ़ गुप्त नवरात्रि पूजन का समय रात 8.36 से 10.09 बजे तक।
15 गुप्त नवरात्रि की देवियां ,,, मां काली, तारादेवी, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी माता, छिन्न माता, त्रिपुर भैरवी मां, धुमावती माता, बगलामुखी, मातंगी और कमला देवी।
16 महत्व ... देवी भागवत पुराण के अनुसार जिस तरह वर्ष में 4 बार नवरात्रि आती है और जिस प्रकार नवरात्रि में देवी के 9 रूपों की पूजा होती है, ठीक उसी प्रकार गुप्त नवरात्रि में 10 महाविद्याओं की साधना की जाती है।
17 गुप्त नवरात्रि विशेष कर तांत्रिक कियाएं, शक्ति साधनाएं, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्व रखती है।
18 इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना करते हैं। इस दौरान लोग दुर्लभ शक्तियों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। गुप्त नवरात्रि के दौरान कई साधक महाविद्या के लिए मां दुर्गा के सभी स्वरूपों का पूजन करते हैं।
19 अष्टमी या नवमी के दिन कन्या-पूजन के साथ नवरात्रि व्रत का उद्यापन करने की मान्यता है। नवरात्रि उद्यापन में कुंआरी कन्याओं को भोजन कराकर यथाशक्ति दान, दक्षिणा, वस्त्र और आभूषण तथा श्रृंगार सामग्री भेंट करने से मां भगवती की अपार कृपा मिलती है।
20 गुप्त नवरात्रि में भी नौ दिनों तक क्रमानुसार देवी के स्वरूपों की पूजा की जाती है। इन दिनों में मां दुर्गा की आराधना गुप्त रूप से की जाएगी।
21 तांत्रिक सिद्धियां प्राप्त करने के लिए ये महा अवसर है। किसी एकांत \
22 इन नौ दिनों तक माता के 32 नाम के साथ उनके मंत्र का 108 बार जाप भी करें।
23 सिद्धिकुंजिकास्तोत्र का 18 बार पाठ कीजिए
24 यदि संभव हो तो दुर्गासप्तशती का एक पाठ प्रातः और एक रात्रि में कीजिए।
25 ब्रम्ह मुहूर्त में श्रीरामरक्षास्तोत्र का पाठ करने से दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का नाश होता है।
कलश की स्थापना और उसके पूजन के समय पुजारी शास्त्रसम्मत कुछ मंत्रों का उच्चारण करते हैं।
कलशस्य मुखे विष्णु : कंठे रुद्र: समाश्रित। मूल तस्य, स्थिति ब्रह्मा मध्ये मातगण: समाश्रित:।।
कलश के मुख में श्री विष्णु विराजमान हैं।
भ्रात: कान्चलेपगोपितबहिस्ताम्राकृते सर्वतो।
मा भैषी: कलश: स्थिरो भव चिरं देवालयस्योपरि।।
ताम्रत्वं गतमेव कांचनमयी कीर्ति: स्थिरा ते धुना।
नान्स्तत्त्वविचारणप्रणयिनो लोका बहिबरुद्धय:।।
कलश भारतीय संस्कृति का अग्रगण्य प्रतीक है इसलिए तो महत्वपूर्ण सभी शुभ प्रसंगों में पुण्याहवाचन कलश की साक्षी में तथा सान्निध्य में होता है।
प्रत्येक शुभ प्रसंग या कार्य के आरंभ में जिस तरह विघ्नहर्ता गणोशजी की पूजा की जाती है उसी तरह कलश की भी पूजा होती है। देवपूजा के स्थान पर इस कलश को अग्रस्थान प्राप्त होता है। पहले इसका पूजन, फिर इसे नमस्कार और बाद में विघ्नहर्ता गणपति को नमस्कार! ऐसा प्राधान्यप्राप्त कलश और उसके पूजन के पीछे अति सुंदर भाव छिपा हुआ है।
स्वस्तिक चिह्न अंकित करते ही जिस तरह सूर्य आकर उस पर आसनस्थ होता है उसी तरह कलश को सजाते ही वरुणदेव उसमें विराजमान होते हैं। जो संबंध कमल-सूर्य का है वही संबंध कलश वरुण का है। वास्तव में कलश यानी लोटे में भरा हुआ या घड़े में भरा हुआ साधारण जल। परंतु कलश की स्थापना के बाद उसके पूजन के बाद वह जल सामान्य जल न रहकर दिव्य ओजस्वी बन जाता है।
तत्वायामि ब्रह्मणा वंदमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भि:।
अहेळमानो वरुणोहबोध्यु रुशंसा मा न आयु: प्रमोषी:।।
हे वरुणदेव! तुम्हें नमस्कार करके मैं तुम्हारे पास आता हूं। यज्ञ में आहुति देने वाले की याचना करता हूं कि तुम हम पर नाराज मत होना। हमारी उम्र कम नहीं करना आदि वैदिक दिव्य मंत्रों से भगवान वरुण का आवाहन करके उनकी प्रस्थापना की जाती है और उस दिव्य जल का अंग पर अभिषेक करके रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है। कलश पूजन की प्रार्थना के श्लोक भी भावपूर्ण हैं। उसकी प्रार्थना के बाद वह कलश केवल कलश नहीं रहता, किंतु उसमें पिंड ब्रह्मांड की व्यापकता समाहित हो जाती है
कलशस्य मुखे विष्णु: कंठे रुद्र: समाश्रित:।
मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुंधरा।
ऋग्वेदोअथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथवर्ण:।।
अंगैच्श सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता:।
अत्र गायत्री सावित्री शांतिपृष्टिकरी तथा।
आयांतु मम शांत्यर्थ्य दुरितक्षयकारका:।।
सर्वे समुद्रा: सरितस्तीर्थानि जलदा नदा:।
आयांतु मम शांत्यर्थ्य दुरितक्षयकारका:।।
हमारे ऋषियों ने छोटे से पानी के लोटे में सभी देवता, वेद, समुद्र, नदियां, गायत्री, सावित्री आदि की स्थापना कर पापक्षय और शांति की भावना से सभी को एक ही प्रतीक में लाकर जीवन में समन्वय साधा है। बिंदु में सिंधु के दर्शन कराए हैं।
कब होते हैं गुप्त नवरात्र
चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र के बारे में तो सभी जानते ही हैं जिन्हें वासंती और शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है लेकिन गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में मनाये जाते हैं। गुप्त नवरात्र की जानकारी अधिकतर उन लोगों को होती है जो तंत्र साधना करते हैं।
कब होते हैं गुप्त नवरात्र,,,,चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र के बारे में तो सभी जानते ही हैं जिन्हें वासंती और शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है लेकिन गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में मनाये जाते हैं। गुप्त नवरात्र की जानकारी अधिकतर उन लोगों को होती है जो तंत्र साधना करते हैं।
गुप्त नवरात्र पौराणिक कथा,,,गुप्त नवरात्र के महत्व को बताने वाली एक कथा भी पौराणिक ग्रंथों में मिलती है कथा के अनुसार एक समय की बात है कि ऋषि श्रंगी एक बार अपने भक्तों को प्रवचन दे रहे थे कि भीड़ में से एक स्त्री हाथ जोड़कर ऋषि से बोली कि गुरुवर मेरे पति दुर्व्यसनों से घिरे हैं जिसके कारण मैं किसी भी प्रकार के धार्मिक कार्य व्रत उपवास अनुष्ठान आदि नहीं कर पाती। मैं मां दुर्गा की शरण लेना चाहती हूं लेकिन मेरे पति के पापाचारों से मां की कृपा नहीं हो पा रही मेरा मार्गदर्शन करें। तब ऋषि बोले वासंतिक और शारदीय नवरात्र में तो हर कोई पूजा करता है सभी इससे परिचित हैं। लेकिन इनके अलावा वर्ष में दो बार गुप्त नवरात्र भी आते हैं इनमें 9 देवियों की बजाय 10 महाविद्याओं की उपासना की जाती है। यदि तुम विधिवत ऐसा कर सको तो मां दुर्गा की कृपा से तुम्हारा जीवन खुशियों से परिपूर्ण होगा। ऋषि के प्रवचनों को सुनकर स्त्री ने गुप्त नवरात्र में ऋषि के बताये अनुसार मां दुर्गा की कठोर साधना की स्त्री की श्रद्धा व भक्ति से मां प्रसन्न हुई और कुमार्ग पर चलने वाला उसका पति सुमार्ग की ओर अग्रसर हुआ उसका घर खुशियों से संपन्न हुआ।
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