Wednesday 31 July 2019

हरियाली अमावस्या का बहुत महत्त्व है

हरियाली अमावस्या का बहुत महत्त्व है। इस दिन पूजा करने से जीवन की बहुत सी समस्याएं दूर हो सकती हैं।
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 इसके साथ ही धन की प्राप्ति के लिए भी यह दिन बेहद खास है। इस दिन पूजा करने से धन लाभ होता है। 
आइए जानते हैं कि कैसे इस दिन पूजा-अर्चना करके अपनी विभिन्न समस्याओं से निजात मिल सकती है।
1. हरियाली अमावस्या के दिन सूरज ढलने के बाद खीर बनाएं और उसे शिव जी को चढ़ाएं।
2. शाम को घर के मुख्य द्वार पर सरसों के तेल के दीपक जलाएं।
3. इस दिन हनुमान जी के सामने चमेली के तेल का दीपक जलाएं साथ ही लाल फूल चढ़ाएं, इससे धनलाभ होता है।
4. इस दिन शाम को आखिरी रोटी पर सरसों का तेल लगाकर काले कुत्ते को खिलाएं। इससे शानिदोष दूर होता है और साथ ही आपके घर में हमेशा सुख-शान्ति बनी रहेगी।
5. अमावस्या की रात को तुलसी के सामने सरसों का तेल जलाने से भी धन लाभ होता है।
मेष राशि - भगवान शिव का गाय के दूध से अभिषेक करना लाभदायी रहेगा
वृषभ राशि - आज के दिन भगवान शिव को 5 सफेद पुष्प अर्पण कर पीपल की पूजा करें।
मिथुन राशि - भगवान भोलेनाथ को 11 बिल्वपत्र चढ़ाएं।
कर्क राशि - भगवान शिव को पंचामृत चढ़ाएं।
सिंह राशि - आज शंकरजी को 3 धतूरा चढ़ाएं।
कन्या राशि - आज के दिन काली गाय को गुड़ खिलाकर शिवजी की पूजा करें।
तुला राशि - शिवजी का दुग्धाभिषेक करें, अति लाभदायी रहेगा।
वृश्चिक राशि - शंकरजी को तीर्थ जल चढ़ाने के बाद 5 बिल्वपत्र चढ़ाएं
धनु राशि - शिवजी को 108 बिल्वपत्र चढाकर पूजन करें।
मकर राशि - शिवजी को 2 सफेद मिठाई अर्पित करें।
कुंभ राशि - आज के दिन भोलेनाथ को शहद अर्पित करने से लाभ होगा।
मीन राशि - शिवजी को 5 पीली वस्तु चढ़ाएं, तो मनोकामना पूर्ण होगी।

सावन अौर अमावस्या के योग में पूजा-अर्चना करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही व्यक्ति के सभी कष्ट दूर होते हैं अौर भोलेनाथ की कृपा बनी रहती है। 
अमावस्या के दिन सुबह शीघ्र उठकर स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर तांबे के लोटे में जल लें। जल में चावल अौर फूल डालकर सूर्य को अर्पित करें। 
इस दिन शिवलिंग पर जल, दूध व काले तिल अर्पित करें। इससे सदैव भोलेनाथ की कृपा बनी रहती है।
गेहूं के आटे की गोलियां बनाकर अमावस्या के दिन मछलियों को खिलाएं।
अमावस्या के दिन भगवान विष्णु, हनुमान जी या भोलेनाथ के मंदिर में ध्वज लगवाएं।
मंदिर में जाकर हनुमान जी के सामने चमेली का दीपक प्रज्वलित कर हनुमान चालीसा का पाठ करें। उसके बाद हनुमान जी को लड्डू का भोग लगाएं।
अमावस्या के दिन किसी मंदिर में जाकर अनाज का दान करें। झाडू का भी दान करें। इसके साथ ही ब्राह्मण को भोजन कराना भी शुभ होता है।
अमावस्या को शनिदेव के लिए तेल का दान करें। इसके साथ ही काली उड़द, काले तिल, लोहा, काला कपड़ा आदि चीजों का भी दान करें।
सुबह उठते ही अपनी दोनों हथेलियों को देखें अौर कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम॥ मंत्र का जाप करें। इस उपाय को प्रतिदिन भी किया जा सकता है।
अमावस्या का दिन पितरों के लिए विशेष महत्व होता है। इस दिन पितरों के निमित्त किसी गरीब को दूध का दान करें। इससे पितर प्रसन्न होते हैं
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Sunday 7 July 2019

चैत्र नवरात्रि घटस्थापना मंगलवार, अप्रैल 13, 2021 को

चैत्र नवरात्रि घटस्थापना मंगलवार, अप्रैल 13, 2021 को
पहला नवरात्र, मां शैलपुत्री की पूजा, गुड़ी पड़वा, नवरात्रि आरंभ, घटस्थापना, हिंदू नव वर्ष की शुरुआत। 
घटस्थापना मुहूर्त - 05:56 से 10:08 अवधि - 04 घण्टे 12 मिनट्स
घटस्थापना अभिजित मुहूर्त - 11:49 से 12:39 अवधि - 00 घण्टे 50 मिनट्स
घटस्थापना मुहूर्त प्रतिपदा तिथि पर है।
प्रतिपदा तिथि प्रारम्भ - अप्रैल 12, 2021 को 08:00 बजे
प्रतिपदा तिथि समाप्त - अप्रैल 13, 2021 को 10:16 बजे
नवरात्रि का पहला दिन 13 अप्रैल 2021  शैलपुत्री
नवरात्रि का दूसरा दिन 14 अप्रैल 2021 ब्रह्मचारिणी
नवरात्रि का तीसरा दिन 15 अप्रैल 2021 चंद्रघंटा
नवरात्रि का चौथा दिन 16 अप्रैल 2021 कूष्मांडा
नवरात्रि का पांचवां दिन 17 अप्रैल 2021स्कंदमाता
नवरात्रि का छठा दिन 18 अप्रैल 2021 कात्यायनी
नवरात्रि का सातवां दिन 19 अप्रैल 2021 कालरात्रि
नवरात्रि का आठवां दिन 20 अप्रैल 2021 महागौरी
नवरात्रि का नौवां दिन  21 अप्रैल 2021 सिद्धिदात्री
नवरात्रि का दसवां दिन 22 अप्रैल 2021 व्रत पारण
चैत्र नवरात्र दस महाविद्याओं के होते हैं, यदि कोई इन महाविद्याओं के रूप में 
शक्ति की उपासना करे, तो जीवन धन-
धान्य, राज्य सत्ता, ऐश्वर्य से भर जाता है। गुप्त नवरात्र में
की गई मंत्र साधना निष्फल
नहीं जाती।
सिद्धिदायक हैं  
चैत्र नवरात्र
मानव के समस्त रोग-दोष व कष्टों के निवारण के लिए गु# नवरात्र
से बढ़कर कोई साधना काल नहीं हैं।
श्री, वर्चस्व, आयु, आरोग्य और धन प्राप्ति के
साथ ही शत्रु संहार के लिए गु# नवरात्र में अनेक
प्रकार के अनुष्ठान व व्रत-उपवास के विधान शास्त्रों में मिलते
हैं।
इन अनुष्ठानों के प्रभाव से मानव को सहज
ही सुख व अक्षय ऎश्वर्य
की प्राप्ति होती है। "दुर्गावरिवस्या"
नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि साल में दो बार आने वाले गुप्त नवरात्रों में भी माघ में पड़ने वाले मानव
को न केवल आध्यात्मिक बल ही प्रदान करते हैं
बल्कि इन दिनों में संयम-नियम व श्रद्धा के साथ
माता दुर्गा की उपासना करने वाले व्यक्ति को अनेक
सुख व साम्राज्य भी प्राप्त होते हैं। "शिवसंहिता"
के अनुसार ये नवरात्र भगवान शंकर और
आदिशक्ति मां पार्वती की उपासना के लिए
भी श्रेष्ठ है।
विवाह बाधा करें दूर
कुमारी कन्याओं को भी अच्छे वर
की प्राप्ति के लिए इन
नौ दिनों माता कात्यायनी की पूजा-
उपासना करनी चाहिए। "दुर्गास्तवनम्" जैसे प्रामाणिक
प्राचीन ग्रंथों में लिखा है कि इस मंत्र का 108 बार
जप करने से कुमारी कन्या का विवाह
शीघ्र ही योग्य वर से संपन्न
हो जाता है।
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरू ते नम:।।
इसी तरह जिन पुरूषों के विवाह में विलंब
हो रहा हो उन्हें भी लाल
पुष्पों की माला देवी को चढ़ाकर इस मंत्र
के 108 बार जप पूरे नौ दिन तक करने चाहिए-
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।
देवी की महिमा अपार
शास्त्र कहते हैं कि आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में
हुआ था। कभी सागर
की पुत्री सिंधुजा-लक्ष्मी
तो कभी पर्वतराज हिमालय
की कन्या अपर्णा-पार्वती। तेज, द्युति,
दीप्ति, ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना और
जीवन शक्ति संसार में
जहां कहीं भी दिखाई
देती है,
वहां देवी का ही दर्शन होता है।
ऋषियों की विश्व-दृष्टि तो सर्वत्र
विश्वरूपा देवी को ही देखती है,
इसलिए माता दुर्गा ही महाकाली,
महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप
में प्रकट होती है। देवीभागवत में
लिखा है कि देवी ही ब्रह्मा, विष्णु
तथा महेश का रूप धर संसार का पालन और संहार
करती हैं।
जगन्माता दुर्गा सुकृती मनुष्यों के घर संपत्ति,
पापियों के घर में अलक्ष्मी, विद्वानों-वैष्णवों के
ह्वदय में बुद्धि व विद्या, सज्जनों में श्रद्धा व
भक्ति तथा कुलीन महिलाओं में लज्जा एवं मर्यादा के
रूप में निवास करती है। मार्कण्डेयपुराण कहता है
कि "हे देवि! तुम सारे वेद-शास्त्रों का सार हो। भगवान् विष्णु के
ह्वदय में निवास करने
वाली मां लक्ष्मी-शशिशेखर भगवान्
शंकर की महिमा बढ़ाने वाली मां तुम
ही हो।"
महानवमी को पूर्णाहुति
गुप्त नवरात्र में संपूर्ण फल की प्राप्ति के लिए
अष्टमी और नवमी को आवश्यक रूप से
देवी के पूजन का विधान शास्त्रों में वर्णित है।
माता के संमुख "जोत दर्शन" एवं कन्या भोजन करवाना चाहिए।
नारीरूप में पूजित देवी
कूर्मपुराण में धरती पर देवी के बिंब के
रूप में स्त्री का पूरा जीवन
नवदुर्गा की मूर्ति के रूप से बताया है। जन्म
ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री",
कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" व विवाह से
पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से "चंद्रघंटा"
कहलाती हंै। नए जीव को जन्म देने
के लिए गर्भधारण करने से "कूष्मांडा" व संतान को जन्म देने के
बाद वही स्त्री "स्कंदमाता"
होती है। संयम व साधना को धारण करने
वाली स्त्री "कात्यायनी" व
पतिव्रता होने के कारण पति की अकाल मृत्यु
को भी जीत लेने से "कालरात्रि"
कहलाती है। संसार का उपकार करने से
"महागौरी" व धरती को छोड़कर स्वर्ग
प्रयाण करने से पहले संसार को सिद्धि का आशीर्वाद
देने वाली "सिद्धिदात्री"
मानी जाती है।
नवरात्र में घट स्थापना
शा स्त्रीय मान्यता के अनुसार स्वच्छ
दीवार पर सिंदूर से
देवी की मुख-
आकृति बना ली जाती है।
सर्वशुद्धा माता दुर्गा की जो तस्वीर मिल
जाए, वही चौकी पर स्थापित कर
दी जाती है, परंतु
देवी की असली प्रतिमा तो "घट"
है। घट पर घी-सिंदूर से कन्या चिह्न और
स्वस्तिक बनाकर उसमें देवी का आह्वान
किया जाता है। देवी के दायीं ओर जौ व
सामने हवनकुंड। नौ दिनों तक नित्य
देवी का आह्वान फिर स्नान, वस्त्र व गंध आदि से
षोडशोपचार पूजन। नैवेद्य में पतासे और नारियल
तथा खीर। पूजन और हवन के बाद
"दुर्गास शती" का पाठ करना श्रेष्ठ है। साथ
ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने के
लिए नवदुर्गा के प्रत्येक रूप की प्रतिदिन पूजा-
स्तुति करनी चाहिए।
दस महाविद्या व कामना मंत्र
सर्व प्रथम गुप्त नवरात्रों की प्रमुख
देवी सर्वेश्वर्यकारिणी माता को धूप,
दीप, प्रसाद अर्पित करें। रुद्राक्ष
की माला से प्रतिदिन ग्यारह माला ॐ
ह्नीं सर्वैश्वर्याकारिणी देव्यै
नमो नम:।’ मंत्र का जप करें। पेठे का भोग लगाएं। इसके बाद
मनोकामना के अनुसार निम्न में से किसी मंत्र का जप
करें। यह क्रम नौ दिनों तक गुप्त रूप से जारी रखें।
काली : लम्बी आयु, ग्रह जनित
दुष्प्रभाव, कालसर्प, मांगलिक प्रभाव, अकाल मृत्यु का भय
आदि के लिए काली की साधना करें।
मंत्र- ‘क्रीं ह्नीं ह्नुं दक्षिणे कालिके
स्वाहा:।’
हकीक की माला से नौ माला जप प्रतिदिन
करें।
तारा : तीव्र बुद्धि, रचनात्मकता, उच्च शिक्षा के लिए
मां तारा की साधना नीले कांच
की माला से बारह माला मंत्र जप प्रतिदिन करें।
मंत्र- ‘ह्नीं स्त्रीं हुम फट।’
त्रिपुर सुंदरी : व्यक्तित्व विकास, स्वस्थ्य और
सुन्दर काया के लिए त्रिपुर
सुंदरी देवी की साधना करें।
रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करें। दस माला मंत्र जप
अवश्य करें।
मंत्र- ‘ऐं ह्नीं श्रीं त्रिपुर
सुंदरीयै नम:।’
भुवनेश्वरी: भूमि, भवन, वाहन सुख के लिए
भुवनेश्वरी देवी की आराधना करें।
स्फटिक की माला से ग्यारह माला प्रतिदिन जप करें।
मंत्र-‘ह्नीं भुवनेश्वरीयै
ह्नीं नम:।’
छिन्नमस्ता : रोजगार में सफलता, नौकरी,
पदोन्नति आदि के लिए
छिन्नमस्ता देवी की आराधना करें।
रुद्राक्ष की माला से दस माला प्रतिदिन जप करें।
मंत्र- ‘श्रीं ह्नीं ऐं वज्र वैरोचानियै
ह्नीं फट स्वाहा’।
त्रिपुर भैरवी : सुन्दर
पति या पत्नी प्राप्ति, शीघ्र विवाह, प्रेम
में सफलता के लिए मूंगे की माला से पंद्रह माला मंत्र
का जप करें।
मंत्र-
‘ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:।’
धूमावती : तंत्र, मंत्र, जादू टोना,
बुरी नजर, भूत प्रेत, वशीकरण,
उच्चाटन, सम्मोहन, स्तंभन, आकर्षण और मारण
जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के
लिए देवी घूमावती के मंत्र
की नौ माला का जप
मोती की माला से करें।
मंत्र- ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:।’
बगलामुखी: शत्रु पराजय, कोर्ट
कचहरी में विजय, प्रतियोगिता में सफलता के लिए
हल्दी या पीले कांच
की माला से आठ माला मंत्र का जप करें।
मंत्र- ‘ह्नीं बगुलामुखी देव्यै
ह्नी ॐ नम:।’
मातंगी : संतान, पुत्र आदि की प्राप्ति के
लिए स्फटिक की माला से बारह माला मंत्र जप करें।
मंत्र-‘ह्नीं ऐं
भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:।’
कमला : अखंड धन-धान्य प्राप्ति, ऋण मुक्ति और
लक्ष्मी जी की के लिए
देवी कमला की साधना करें। कमल गट्टे
की माला से दस माला प्रतिदिन मंत्र का जप करें।
मंत्र- ‘हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:।’
रात्री का वैज्ञानिक रहस्य
रात्रि का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक रहस्य क्या है 
 नवरात्र शब्द से नव अहोरात्रों (विशेष रात्रियां) का बोध होता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है। 'रात्रि' शब्द सिद्धि का प्रतीक है। भारत के प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है, इसलिए दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है। यदि रात्रि का कोई विशेष रहस्य न होता तो ऐसे उत्सवों को रात्रि न कह कर दिन ही कहा जाता। नवरात्र के दिन, नवदिन नहीं कहे जाते हैं ।
भारतीय मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है। विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (प्रथम तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक। और इसी प्रकार ठीक छह मास बाद आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी अर्थात विजयादशमी के एक दिन पूर्व तक। परंतु सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्रों को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। इन नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग साधना आदि कर विशेष सिद्धियां प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
आजकल अधिकांश उपासक शक्ति पूजा रात्रि में नहीं बल्कि पुरोहित को दिन में ही बुलाकर संपन्न करा देते हैं । सामान्य भक्त ही नहीं बड़े-बड़े धर्मधुरंधर पंडित और साधु- महात्मा भी अब नवरात्रों में पूरी रात जागकर साधना करना नहीं चाहते हैं । न तो कोई आलस्य को त्यागना चाहता है ओर ना ही विधिवत कर्म ही करना चाहता है । अपने आप को आस्तिक दिखाने का दिखावा (एक प्रकार का मनोरंजन के जैसे) करते हैं बस । बहुत कम उपासक आलस्य को त्याग कर आत्मशक्ति, मानसिक शक्ति और यौगिक शक्ति की प्राप्ति के लिए रात्रि के समय का उपयोग करते देखे जाते हैं उनको भी कुछ लोग तान्त्रिक या अन्य निम्नतर की संज्ञा देकर अपमानित करने की नीयत के धनी बैठे हैं । भारतीय मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया है । रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं । आधुनिक विज्ञान भी इस बात से सहमत है ।
हमारे ऋषि – मुनि आज से कितने ही हजारों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे। दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाएगी , किंतु रात्रि को आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है । इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। रेडियो इस बात का जीता – जागता उदाहरण है । कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है , जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है। वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं , उसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है । इसीलिए हमारे ऋषि – मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है । रात्री के समय मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर – दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है । यह रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है । जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रियों में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ साधना करते हुए अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं , उनकी कार्यसिद्धि अर्थात मनोकामना सिद्धि , उनके शुभ संकल्प के अनुसार उचित समय और ठीक विधि के अनुसार करने पर अवश्य ही होती है ।
नवरात्र या नवरात्रि ? संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं । नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुध्द है। नवरात्र क्या है ? पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुध्द रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है।
नौ दिन या रात ? अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है। यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है । इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है । इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुध्दि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं ।
शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुध्दि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुध्दि, साफ सुथरे शरीर में शुध्द बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुध्द होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है ।
नवरात्रि मै करे नवराण मंत्र की साधना
शास्त्रों मै 4 नवरात्रि का वर्णन है 2 गुप्त नवरात्रि है ओर 2 दृष्टया नवरात्रि है इस बार चेत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रि पारम्ब हो रही है ।नवरात्रि एक ऐसी पल है जहाँ हम भगवती से जुड़कर उनका साणेध्य प्राप्त कर सकते है उनकी कृपा प्राप्त कर सकते है ।जिस तरह से एक बालक गर्भ मै 9 महीने रहता है उसके बाद ही वो गर्भ से निकलकर जीवन मै पूर्ण उत्साह ,पूर्ण निरोगता ,ओर पूर्ण उमंग से जीवन जीता है ये ऊर्जा उसे माँ की गर्भ मै ही मिलती है उसी तरह से ये 9 रात्रि मै माँ की ऊर्जा माँ की सणेध्ये प्राप्त करने की है जीसेय हम भी अपना जीवन पूर्णता के साथ पूर्ण ऊर्जा से जी सके
नवराण मंत्र सभी मँत्रों मै ऊतम मंत्र है की ये स्वयमभूथ मंत्र है जिस तरह से प्रणव ॐ मंत्र स्वयमभूथ है उसी तरह ये भी स्वयमभूथ मंत्र है। बहौत से लौग पूछते है किस तरह से इस नवराण मंत्र का उचारण करना चाहये तो सबसे पहेले मै सभी कॊ बता दूँ की इस मंत्र मै आगेय मै ॐ नही लगेँगा  की जैसा बोला की ये स्वय्म्भुत है वही 3 बीज मंत्र मै आखिरी मै  लगेँगा ना की ।
नवराण मंत्र की साधना सभी ने की है वो कोई सिद्ध हो या कोई भगवान का अवतार नवराण मंत्र की साधना सभी ने की है  की ये साधना सभी द्रुश्टी से पूर्णता देती है इसके कई लाभ बताये गये है शस्त्रों मै जो निम्लिक्थ है 1 - अगर आपके शादी सुधा जीवन मै उमंग नही है ,आप संतान हीन है तो एक बार साधना ज़रूर करे
2 - जीवन मै सभी शत्रुऔ के नाश हेतु ये शेर्स्त साधना है चाइय वो शत्रु गुप्त हो ये प्रतेक्स शत्रु ,आप प्रत्यक्ष शत्रुऔ कॊ देख सकते लीकीन उनका क्या जो आपसे मित्रता का दिखावा करके मन मै शत्रु भाव रखे हुवे है
3 -वही ये साधना पूर्ण चेतना जागरण की करती है
4 -ये साधना के प्रताप से आपके जीवन मै आने वाली सभी धन के अभाव का नाश करके आपके धन के नये नये रास्ते खोल देती है

विनियोग : ॐ अस्ये श्री नवराण मंत्रअसस्य ब्रम्हा विष्णु रुद्र ऋषिय गायत्रीविष्णुअनुषपछनदाशी ,श्री महाकाली महालक्ष्मी महसरस्वती देवता ,ऐम बीजम ह्रीम शक्ति ,क्लीम कील्कम ,श्री महाकाली महालक्ष्मी महसरस्वती प्रीतिअर्थे जापे विनियोग :
वही विनियोग के बाद ऋषिन्यास , करनयश ,हृदय न्यास ,ओर मंत्र ध्यान रहता है
नवराण मंत्र की साधना इसकी पूर्ण अनुष्ठान 9 दिन मै करना है जो बहौत आसानी से हो जाता है ,वही इस साधना मै "शक्ति यंत्र " वो भी अभिमंत्रित होना बहौत ज़रूरी है  की यंत्र मै ही देवता का वास होता है ओर बिना यंत्र के ये साधना मतलब अधूरी मानी जाती है

साधक को नवरात्र में क्या करना चाहिए ?
यदि किसी कारण विशेष के लिए पूजा कर रहे हो तो स्वयं को श्रृंगार, मौजमजा, काम से दूर करें रखें। निश्चित समय में पूजा पाठ करें तथा निश्चित संख्या में जप करें।
जप अवश्य करें। जप के समय मुंह पूर्व या दक्षिण दिशा में हो।
पूजा के लिए लाल फूल, रोली, चंदन, फल दूर्वा, तुलसीदल व कोई प्रसाद अवश्य लें।
नवरात्र के प्रथम दिन देवी का आवाह्न करें और नियमित पूजा करें।
दुर्गा सप्तशती का पाठ प्रतिदिन करें और इसका नियम समझ कर करें।

क्या कुछ ऐसी बाते भी हैं, जो हम इन दिनों में न करें ?
आवश्यकता से अधिक भोजन न करें।
मां को भोग लगाये बना भोजन नहीं करें। प्रतिदिन गाय, मंदिर, अर्चकों तथा आठ वर्ष से छोटी बच्चियों के लिए भोजन अवश्य निकालें।
तामसिक भोजन का प्रयोग बिल्कुल नहीं करें।
खट्टे भोजन का प्रयोग बिल्कुल नहीं करें।
चमड़े की चीजों का प्रयोग न करें।
संध्या पूजन अवश्य करें और पूजा के उपरांत भूखा नहीं रहना चाहिए।
विशिष्ठ गृहस्थ कर्म नहीं करना चाहिए।
झूठ नहीं बोलना चाहिए।
दुर्गा सप्तशती का गलत पाठ नहीं करें।
माता की ज्योति को पीठ नहीं दिखाएं।
कलश स्थापना के उपरांत पूरे नौ दिन घर को अकेला न छोड़े।
बाहर के जूते-चप्पल उस स्थान से दूर रखें जहां माता तथा कलश स्थापना की हुई है।
तामसिक भोजन न करने वाले लोगों को घर में न आने दें।
माता की पूजा में आडम्बर न करें।
नवरात्र में व्रत व साधना हमें शक्ति, भक्ति, संपन्नता और ज्ञान से परिपूर्ण करती है। लेकिन आम लोग इतनी बड़ी बातें नहीं समझते कि उनकी रोजमर्रा जिंदगी में नवरात्र क्या बदलाव लाते हैं।
मानसिक बल प्राप्त करने के लिए ये 9 दिन बहुत उत्तम होते हैं। जिन लगों को शनि व राहु के कारण समस्याएं हो रही हैं, व भी अपनी पीड़ा ले मुक्ति पा सकते हैं बशर्ते आप सही उपासना रते हैं और कलश स्थापना करते हैं। झूठे मुकदमे में फंस गये हैं तो मुक्ति मिलेगी। यदि आपको महसूस होता है कि आप या आपका परिवार तंत्र से प्रभावित है तो भी सही तरीके से की गई पूजा आपको निजात दिला सकती है।
संतान वह भी उच्च कोटि की संतान प्राप्ति के लिए भी इन दिनों में की गई साधना रंग लाती है।

नवरात्रि में अखंड ज्योति जलाएं मगर पहले ध्यान रखें ये 4 बातें
नवरात्रि में माता दुर्गा के समक्ष नौ दिन तक अखंड ज्योत जलाई जाती है। यह अखंड ज्योत माता के प्रति आपकी अखंड आस्था का प्रतीक स्वरूप होती है। मान्यता के अनुसार माता के सामने एक-एक तेल व एक शुद्ध घी का दीपक जलाना चाहिए।
मान्यता के अनुसार मंत्र महोदधि (मंत्रों की शास्त्र पुस्तिका) के अनुसार दीपक या अग्नि के समक्ष किए गए जप का साधक को हजार गुना फल प्राप्त हो है। कहा जाता है
दीपम घृत युतम दक्षे, तेल युत: च वामत:।
अर्थात - घी युक्त दीपक देवी के दाहिनी ओर तथा तेल वाला दीपक देवी के बाई ओर रखनी चाहिए।
- अखंड ज्योत पूरे नौ दिनों तक अखंड रहनी चाहिए। इसके लिए एक छोटे दीपक का प्रयोग करें। जब अखंड ज्योत में घी डालना हो, बत्ती ठीक करनी हो तो या गुल झाडऩा हो तो छोटा दीपक अखंड दीपक की लौ से जलाकर अलग रख लें।
-यदि अखंड दीपक को ठीक करते हुए ज्योत बुझ जाती है तो छोटे दीपक की लौ से अखंड ज्योत पुुन: जलाई जा सकती है छोटे दीपक की लौ को घी में डूबोकर ही बुझाएं।
नवरात्रों में माँ दुर्गा के जो भक्त वर्ष में दो बार माँ की विधि सहित पूजा अर्चना करते हैं वो जाने अनजाने नवदुर्गा की भक्ति से नवग्रहों को स्वत: ही शांत कर लेते हैं आइये जाने – बुध – कन्या , शुक्र -स्त्री , चंदर – माता ये तीनो रूप स्त्रीलिंग होने से ‘माँ जगम्बा’ के ही माने जाते हैं और पूजन विधि तो साक्षात् नवग्रह शांति है जहाँ कुम्भ स्थापित करके खेत्री बीजी जाती है वहां ये नज़ारा साक्षात् है
ध्यान से देखे तो (घडा -बुध) (जौं – राहु) (जल – चन्द्रमा) (अखंड ज्वाला – मंगल) (लाल दुप्पटा – केतु) (माँ का वस्त्र और देसी घी-शुक्र) (काले चने – शनि) (मीठा हलवा – मंगल) (पूजन विधि और माँ का शेर – गुरु) (दिन/रात की अखंड ज्योति सेवा – सूर्य और शनि) (नारियल – राहु का सर) और अंत में कंजक पूजन और दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाले पंडित जी दोनों को भेंट और दक्षिणा देना ‘बुध’ और ‘गुरु’ को प्रसन्न करना आदि आदि….ये सारी विधि ऋषि मार्कण्डेय द्वारा माँ की भक्ति करते हुए समस्त संसार को प्रदान की गयी है और जो भक्त इस विधि से पूजन-अर्चन करता है उसकी जन्म पत्रिका के नवग्रह स्वयं ही माँ दुर्गा के शक्ति आशीर्वाद से शांत हो कर शुभ प्रभाव देने लग जाते हैं

 नवरात्रि पर्व ,काल (समय) चक्र के विभाग अनुसार पूरे एक दिन-रात में चार संधिकाल होते हैं. जिनको हम प्रात:काल, मध्यान्ह काल, सांयकाल और मध्यरात्रि काल कहते हैं. जब हमारा एक वर्ष हो जाता है, तब देव-असुरों का एक दिन-रात होता है. जिसे कि ज्योतिष शास्त्र में दिव्यकालीन अहोरात्र कहा गया है. ये दिन-रात छ:-छ: माह के होते हैं. इन्ही को हम उतरायण और दक्षिणायन के नाम से जानते हैं. यहाँ 'अयन' का अर्थ है---मार्ग. (उतरायण=उत्तरी ध्रुव से संबंधित मार्ग, जो कि देवों का दिन और दक्षिणायन=दक्षिणी ध्रुव से संबंधित मार्ग, जिसे देवों की रात्रि कहा जाता है)
जिस प्रकार मकर और कर्क वृ्त से अयन(मार्ग) परिवर्तन होता है, उसी प्रकार मेष और तुला राशियों से उत्तर गोल तथा दक्षिण गोल का परिवर्तन होता है. एक वर्ष में दो अयन परिवर्तन की संधि और दो गोल परिवर्तन की संधियाँ होती है. कुल मिलाकर एक वर्ष में चार संधियाँ होती हैं. इनको ही नवरात्री के पर्व के रूप में मनाया जाता है.
1. प्रात:काल (गोल संधि) चैत्री नवरात्र
2. मध्यान्ह काल (अयन संधि) आषाढी नवरात्र
3. सांयकाल (गोल संधि) आश्विन नवरात्र
4. मध्यरात्रि (अयन संधि) पौषी नवरात्र
उपरोक्त इन चार नवरात्रियों में गोल संधि की नवरात्रियाँ चैत्र और आश्विन मास की हैं, जो कि दिव्य अहोरात्र के प्रात:काल और सांयकाल की संधि में आती हैं----इन्हे ही विशेष रूप से मनाया जाता है. हालाँकि बहुत से लोग हैं, जिनके द्वारा अयन संधिगत (आषाढ और पौष) मास की नवारत्रियाँ भी मनाई जाती हैं, लेकिन विशेषतय: यह समय तान्त्रिक कार्यों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है---गृ्हस्थों के लिए गोल संधिगत नवरात्रियों का कोई विशेष महत्व नहीं है.
जिन चान्द्रमासों में नवरात्रि पर्व का विधान है, उनके क्रमश: चित्रा, पूर्वाषाढा, अश्विनी और पुष्य नक्षत्रों पर आधारित हैं. वैदिक ज्योतिष में नाक्षत्रीय गुणधर्म के प्रतीक प्रत्येक नक्षत्र का एक देवता कल्पित किया हुआ है. इस कल्पना के गर्भ में विशेष महत्व समाया हुआ है, जो कि विचार करने योग्य है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र कालचक्र की संधियों की अभिव्यक्ति करने में समर्थ है. प्राचीन युगदृ्ष्टा ऋषि-मुनियों नें विभिन्न तौर-तरीकों से अभिनव रूपकों में प्रकृ्ति के सूक्ष्म तत्वों को समझाने के तथा उनसे समाज को लाभान्वित करने के अपनी ओर से विशेष प्रयास किए हैं. संधिकाल में सौरमंडल के समस्त ग्रह पिण्डों की रश्मियों का प्रत्यावर्तन तथा संक्रमण पृ्थ्वी के समस्त प्राणियों को प्रभावित करता है. अत: संधिकाल में दिव्यशक्ति की आराधना, संध्या उपासना आदि करने का ये विधान बनाया गया है.
अयन, गोल तथा ऋतुओं के परिवर्तन मानव मस्तिष्क को आंदोलित करते हैं. मानव मस्तिष्क, जो कि अनन्त शक्ति स्त्रोतों का अक्षय भंडार है. उसमें जहाँ संसार के निर्माण करने की स्थिति है, वहीं संहार करने की शक्ति भी केन्द्रित है. यही कारण है कि त्रिगुणात्मक महाकाली, महासरस्वती और महादुर्गा हमारी आराध्य रही हैं.
यह पर्व रात्रि प्रधान इसलिए है कि शास्त्रों में "रात्रि रूपा यतोदेवी दिवा रूपो महेश्वर:" अर्थात दिन को शिव(पुरूष)रूप में तथा रात्रि को शक्ति(प्रकृ्ति)रूपा माना गया है. एक ही तत्व के दो स्वरूप हैं, फिर भी शिव(पुरूष)का अस्तित्व उसकी शक्ति(प्रकृ्ति) पर ही आधारित है.
सो, इस बात को समझने की जरूरत है कि अखिल पिण्ड ब्राह्मंड के समस्त संकेत के पारखी ऋषि-मुनियों नें नैसर्गिक सुअवसरों को परख कर हमें विशेष रूप से संस्कारित बनाने का प्रयास किया है. त्रिविध ताप नाश की इस पुनीत पर्व की गरिमा को समझते हुए हमें दिव्यशक्ति की आराधना, उपासना करते हुए पूर्ण मर्यादासहित(मन को विषय भोगों से दूर रख) नवरात्रि पूजन करना आवश्यक है. यह समय किसी धर्म, जाति या सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित न होकर मानव मात्र के लिए कल्याणप्रद है

अपनी राशि अनुसार पूजा चुने 
मान्यतानुसार गुप्त नवरात्र के दौरान अन्य नवरात्रों की तरह ही पूजा करनी चाहिए। नौ दिनों के उपवास का संकल्प लेते हुए प्रतिप्रदा यानि पहले दिन घटस्थापना करनी चाहिए। घटस्थापना के बाद प्रतिदिन सुबह और शाम के समय मां दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। अष्टमी या नवमी के दिन कन्या पूजन के साथ नवरात्र व्रत का उद्यापन करना चाहिए।
मेष  मेष राशि के जातक शक्ति उपासना के लिए द्वितीय महाविद्या तारा की साधना करें। ज्योतिष के अनुसार इस महाविद्या का स्वभाव मंगल की तरह उग्र है। मेष राशि वाले महाविद्या की साधना के लिए इस मंत्र का जप करें।
मंत्र
   ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।
वृषभ  वृषभ राशि वाले धन और सिद्धि प्राप्त करने के लिए श्री विद्या यानि षोडषी देवी की साधना करें और इस मंत्र का जप करें।
मंत्र  ऐं क्लीं सौ: ।
मिथुन  अपना गृहस्थ जीवन सुखी बनाने के लिए मिथुन राशि वाले भुवनेश्वरी देवी की साधना करें। साधना मंत्र इस प्रकार है।
मंत्र  ऐं ह्रीं ।
कर्क  इस नवरात्रि पर कर्क राशि वाले कमला देवी का पूजन करें। इनकी पूजा से धन व सुख मिलता है। नीचे लिखे मंत्र का जप करें।
मंत्र  ऊं श्रीं ।
सिंह  ज्योतिष के अनुसार सिंह राशि वालों को मां बगलामुखी की आराधना करना चाहिए। जिससे शत्रुओं पर विजय मिलती है।
मंत्र  ॐ ह्लीं बगलामुखी देव्यै सर्व दुष्टानाम वाचं मुखं पदम् स्तम्भय जिह्वाम कीलय-कीलय बुद्धिम विनाशाय ह्लीं ॐ नम: ।
कन्या  आप चतुर्थ महाविद्या भुवनेश्वरी देवी की साधना करें आपको निश्चित ही सफलता मिलेगी।
मंत्र    ऐं ह्रीं ऐं
तुला   तुला राशि वालों को सुख व ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए षोडषी देवी की साधना करनी चाहिए।
मंत्र  ऐं क्लीं सौ: ।
वृश्चिक  वृश्चिक राशि वाले तारा देवी की साधना करें। इससे आपको शासकीय कार्यों में सफलता मिलेगी।
मंत्र  श्रीं ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।
धनु  धन और यश पाने के लिए धनु राशि वाले कमला देवी के इस मंत्र का जप करें।
मंत्र   श्रीं ।
मकर   मकर राशि के जातक अपनी राशि के अनुसार मां काली की उपासना करें।
मंत्र  क्रीं कालीकाये नम: ।
कुंभ  कुंभ राशि वाले भी काली की उपासना करें इससे उनके शत्रुओं का नाश होगा।
मंत्र  क्रीं कालीकाये नम: ।
मीन  इस राशि के जातक सुख समृद्धि के लिए कमला देवी की उपासना करें।
  मंत्र- श्री कमलाये नम:। 
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.





काली स्तोत्रं

काली स्तोत्रं 

नमामि कृष्णरूपिणीं कृष्णाङ्गयष्टि धारिणीम् । 
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समग्र तत्वसागर भपारगह्वराम ॥१॥
शिवा प्रभां समुज्जवलां स्फुरच्छशांक शेखरां । 
ललाटरत्न भास्करां जगत्प्रदीप्ति भास्कराम् ॥२॥
महेन्द्र कश्यपर्चितां सनत्कुमात संस्तुतां ।
सुरासुरेन्द्र वंदितो यथार्थ निर्मलादभुतां ॥३॥
अतर्क्यरोचिरूर्जितां विकारदोष वर्जितां ।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तितां विशेषतत्व सूचितां ॥४॥
मृतास्थिनिर्मित स्त्रजां मृगेन्द्र वाहनाग्रजाम् ।
सुशुद्ध तत्वतोष्णां त्रिवेद परभूषणां ॥५॥
भुजंग हार हारिणी कपालखंड घारिणीम् ।
सुधार्मि कोप कारणीं सुरेन्द्र वैरधातिनीम् ॥६॥
कुठारपाशचापिनीं कृतान्त काममोदिनीं ।
शुभां कपाल मालिनीं सुवर्णकन्याशाखिनीं ॥७॥
श्मशान भूमि वासिनीं द्निजेन्द्रमौलिभाविनीम् ।
तमोsन्धकार यामिनीं शिवस्वभाव कामिनीम् ॥८॥
सहस्त्र सूर्य्यराजिकां धनञ्जयोर्ग्रकारिकाम् ।
सुशुद्ध काल कंदलां सुभृंगवृन्दमन्जुलाम् ॥९॥
प्रजायिनीम प्रजावतीं नमामि मातरम् सतीम् ।
स्वकर्म कारिणे गतिं हरि प्रियाञ्च पार्वतीम् ॥१०॥
अनंतशक्तिकान्तिदां यशोsर्थभुक्तिमुक्तिदाम् ।
पुन: पुन्जगद्धितां नमाम्यहङ सुरार्चिताम् ॥११॥
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवी पाहिमाम् ।
जयन्ति ते स्तुवन्ति ये शुभं लभन्त्यमोक्षत ॥१२॥
सदैव त हतद्बिष: परं भवन्ति सज्जुष: ।
जरा: परे शिवधुना प्रसाधि मां करोमि किम् ॥१३॥
अतीव मोहितात्मनो वृथा विचेष्टि तस्य मे ।
कुरू प्रसादितं मनो यथास्मि जन्म भंजन ॥१४॥
तथा भवन्तु ताका यथैव घोषितालका ।
इमां स्तुतिं ममेरितां पठन्ति कालिसाधक ॥१५॥
न ते पुन l
सदुस्तरे पतन्ति मोहगह्वरे ॥१६॥


कामकला काली त्रिलोक्यमोहनकवचः
अस्य श्री त्रैलोकयमोहन रहस्य कवचस्य ।
त्रिपुरारि ऋषिः - विराट् छन्दः - भगवति कामकलाकाली देवता ।
फ्रें बीजं - योगिनी शक्तिः- क्लीं कीलकं - डाकिनि तत्त्वं
भ्गावती श्री कामकलाकाली अनुग्रह प्रसाद सिध्यर्ते जपे विनियोगः॥
---
ॐ ऐं श्रीं क्लीं शिरः पातु फ्रें ह्रीं छ्रीं मदनातुरा।
स्त्रीं ह्रूं क्षौं ह्रीं लं ललाटं पातु ख्फ्रें क्रौं करालिनी॥ १
आं हौं फ्रों क्षूँ मुखं पातु क्लूं ड्रं थ्रौं चन्ण्डनायिका।
हूं त्रैं च्लूं मौः पातु दृशौ प्रीं ध्रीं क्ष्रीं जगदाम्बिका॥ २
क्रूं ख्रूं घ्रीं च्लीं पातु कर्णौ ज्रं प्लैं रुः सौं सुरेश्वरी।
गं प्रां ध्रीं थ्रीं हनू पातु अं आं इं ईं श्मशानिनी॥ ३
जूं डुं ऐं औं भ्रुवौ पातु कं खं गं घं प्रमाथिनी।
चं छं जं झं पातु नासां टं ठं डं ढं भगाकुला॥ ४
तं थं दं धं पात्वधरमोष्ठं पं फं रतिप्रिया।
बं भं यं रं पातु दन्तान् लं वं शं सं चं कालिका॥ ५
हं क्षं क्षं हं पातु जिह्वां सं शं वं लं रताकुला।
वं यं भं वं चं चिबुकं पातु फं पं महेश्वरी॥ ६
धं दं थं तं पातु कण्ठं ढं डं ठं टं भगप्रिया।
झं जं छं चं पातु कुक्षौ घं गं खं कं महाजटा॥ ७
ह्सौः ह्स्ख्फ्रैं पातु भुजौ क्ष्मूं म्रैं मदनमालिनी।
ङां ञीं णूं रक्षताज्जत्रू नैं मौं रक्तासवोन्मदा ॥ ८
ह्रां ह्रीं ह्रूं पातु कक्षौ में ह्रैं ह्रौं निधुवनप्रिया।
क्लां क्लीं क्लूं पातु हृदयं क्लैं क्लौं मुण्डावतंसिका॥ ९
श्रां श्रीं श्रूं रक्षतु करौ श्रैं श्रौं फेत्कारराविणी।
क्लां क्लीं क्लूं अङ्गुलीः पातु क्लैं क्लौं च नारवाहिनी॥ १०
च्रां च्रीं च्रूं पातु जठरं च्रैं च्रौं संहाररूपिणी।
छ्रां छ्रीं छ्रूं रक्षतान्नाभिं छ्रैं छ्रौं सिद्धकरालिनी॥ ११
स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं रक्षतात् पार्श्वौ स्त्रैं स्त्रौं निर्वाणदायिनी।
फ्रां फ्रीं फ्रूं रक्षतात् पृष्ठं फ्रैं फ्रौं ज्ञानप्रकाशिनी॥ १२
क्षां क्षीं क्षूं रक्षतु कटिं क्षैं क्षौं नृमुण्डमालिनी।
ग्लां ग्लीं ग्लूं रक्षतादूरू ग्लैं ग्लौं विजयदायिनी॥ १३
ब्लां ब्लीं ब्लूं जानुनी पातु ब्लैं ब्लौं महिषमर्दिनी।
प्रां प्रीं प्रूं रक्षताज्जङ्घे प्रैं प्रौं मृत्युविनाशिनी॥ १४
थ्रां थ्रीं थ्रूं चरणौ पातु थ्रैं थ्रौं संसारतारिणी।
ॐ फ्रें सिद्ध्विकरालि ह्रीं छ्रीं ह्रं स्त्रीं फ्रें नमः॥ १५
सर्वसन्धिषु सर्वाङ्गं गुह्यकाली सदावतु।
ॐ फ्रें सिद्ध्विं हस्खफ्रें ह्सफ्रें ख्फ्रें करालि ख्फ्रें हस्खफ्रें ह्स्फ्रें फ्रें ॐ स्वाहा॥ १६
रक्षताद् घोरचामुण्डा तु कलेवरं वहक्षमलवरयूं।
अव्यात् सदा भद्रकाली प्राणानेकादशेन्द्रियान् ॥ १७
ह्रीं श्रीं ॐ ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें हक्षम्लब्रयूं
न्क्ष्रीं नज्च्रीं स्त्रीं छ्रीं ख्फ्रें ठ्रीं ध्रीं नमः।
यत्रानुक्त्तस्थलं देहे यावत्तत्र च तिष्ठति॥ १८
उक्तं वाऽप्यथवानुक्तं करालदशनावतु
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हूं स्त्रीं ध्रीं फ्रें क्षूं क्शौं
क्रौं ग्लूं ख्फ्रें प्रीं ठ्रीं थ्रीं ट्रैं ब्लौं फट् नमः स्वाहा॥ १९
सर्वमापादकेशाग्रं काली कामकलावतु॥ २०


आद्या काली स्तोत्र :-
त्रिलोक्य विजयस्थ कवचस्य शिव ऋषि ,
अनुष्टुप छन्दः, आद्य काली देवता, माया बीजं,
रमा कीलकम , काम्य सिद्धि विनियोगः || १ ||
ह्रीं आद्य मे शिरः पातु श्रीं काली वदन ममं, 
हृदयं क्रीं परा शक्तिः पायात कंठं परात्परा ||२||
नेत्रौ पातु जगद्धात्री करनौ रक्षतु शंकरी,
घ्रान्नम पातु महा माया रसानां सर्व मंगला ||३||
दन्तान रक्षतु कौमारी कपोलो कमलालया,
औष्ठांधारौं शामा रक्षेत चिबुकं चारु हासिनि ||४|
ग्रीवां पायात क्लेशानी ककुत पातु कृपा मयी,
द्वौ बाहूबाहुदा रक्षेत करौ कैवल्य दायिनी ||५||
स्कन्धौ कपर्दिनी पातु पृष्ठं त्रिलोक्य तारिनी,
पार्श्वे पायादपर्न्ना मे कोटिम मे कम्त्थासना ||६||
नभौ पातु विशालाक्षी प्रजा स्थानं प्रभावती,
उरू रक्षतु कल्यांनी पादौ मे पातु पार्वती ||७||
जयदुर्गे-वतु प्राणान सर्वागम सर्व सिद्धिना,
रक्षा हीनां तू यत स्थानं वर्जितं कवचेन च ||८||
इति ते कथितं दिव्य त्रिलोक्य विजयाभिधम,
कवचम कालिका देव्या आद्यायाह परमादभुतम ||९||
पूजा काले पठेद यस्तु आद्याधिकृत मानसः,
सर्वान कामानवाप्नोती तस्याद्या सुप्रसीदती ||१०||
मंत्र सिद्धिर्वा-वेदाषु किकराह शुद्रसिद्धयः,
अपुत्रो लभते पुत्र धनार्थी प्राप्नुयाद धनं ||११|
विद्यार्थी लभते विद्याम कामो कामान्वाप्नुयात
सह्स्त्रावृति पाठेन वर्मन्नोस्य पुरस्क्रिया ||१२||
पुरुश्चरन्न सम्पन्नम यथोक्त फलदं भवेत्,
चंदनागरू कस्तूरी कुम्कुमै रक्त चंदनै ||१३||
भूर्जे विलिख्य गुटिका स्वर्नस्याम धार्येद यदि,
शिखायां दक्षिणे बाह़ो कंठे वा साधकः कटी ||१४||
तस्याद्या कालिका वश्या वांछितार्थ प्रयछती,
न कुत्रापि भायं तस्य सर्वत्र विजयी कविः ||१५||
अरोगी चिर जीवी स्यात बलवान धारण शाम,
सर्वविद्यासु निपुण सर्व शास्त्रार्थ तत्त्व वित् ||१६||
वशे तस्य माहि पाला भोग मोक्षै कर स्थितो,
कलि कल्मष युक्तानां निःश्रेयस कर परम ||१७||



 ककारादिकालीशतनामस्तोत्रम् ॥
श्रीदेव्युवाच-
नमस्ते पार्वतीनाथ विश्वनाथ दयामय ।
ज्ञानात् परतरं नास्ति श्रुतं विश्वेश्वर प्रभो ॥ १॥
दीनवन्धो दयासिन्धो विश्वेश्वर जगत्पते ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि गोप्यं परमकारणम् ।
रहस्यं कालिकायश्च तारायाश्च सुरोत्तम ॥ २॥
श्रीशिव उवाच-
रहस्यं किं वदिष्यामि पञ्चवक्त्रैर्महेश्वरी ।
जिह्वाकोटिसहस्रैस्तु वक्त्रकोटिशतैरपि ॥ ३॥
वक्तुं न शक्यते तस्य माहात्म्यं वै कथञ्चन ।
तस्या रहस्यं गोप्यञ्च किं न जानासि शंकरी ॥ ४॥
स्वस्यैव चरितं वक्तुं समर्था स्वयमेव हि ।
अन्यथा नैव देवेशि ज्ञायते तत् कथञ्चन ॥ ५॥
कालिकायाः शतं नाम नाना तन्त्रे त्वया श्रुतम् ।
रहस्यं गोपनीयञ्च तत्रेऽस्मिन् जगदम्बिके ॥ ६॥
करालवदना काली कामिनी कमला कला ।
क्रियावती कोटराक्षी कामाक्ष्या कामसुन्दरी ॥ ७॥
कपाला च कराला च काली कात्यायनी कुहुः ।
कङ्काला कालदमना करुणा कमलार्च्चिता ॥ ८॥
कादम्बरी कालहरा कौतुकी कारणप्रिया ।
कृष्णा कृष्णप्रिया कृष्णपूजिता कृष्णवल्लभा ॥ ९॥
कृष्णापराजिता कृष्णप्रिया च कृष्णरूपिनी ।
कालिका कालरात्रीश्च कुलजा कुलपण्डिता ॥ १०॥
कुलधर्मप्रिया कामा काम्यकर्मविभूषिता ।
कुलप्रिया कुलरता कुलीनपरिपूजिता ॥ ११॥
कुलज्ञा कमलापूज्या कैलासनगभूषिता ।
कूटजा केशिनी काम्या कामदा कामपण्डिता ॥ १२॥
करालास्या च कन्दर्पकामिनी रूपशोभिता ।
कोलम्बका कोलरता केशिनी केशभूषिता ॥ १३॥
केशवस्यप्रिया काशा काश्मीरा केशवार्च्चिता ।
कामेश्वरी कामरुपा कामदानविभूषिता ॥ १४॥
कालहन्त्री कूर्ममांसप्रिया कूर्मादिपूजिता ।
कोलिनी करकाकारा करकर्मनिषेविणी ॥ १५॥
कटकेश्वरमध्यस्था कटकी कटकार्च्चिता ।
कटप्रिया कटरता कटकर्मनिषेविणी ॥ १६॥
कुमारीपूजनरता कुमारीगणसेविता ।
कुलाचारप्रिया कौलप्रिया कौलनिषेविणी ॥ १७॥
कुलीना कुलधर्मज्ञा कुलभीतिविमर्द्दिनी ।
कालधर्मप्रिया काम्य-नित्या कामस्वरूपिणी ॥ १८॥
कामरूपा कामहरा काममन्दिरपूजिता ।
कामागारस्वरूपा च कालाख्या कालभूषिता ॥ १९॥
क्रियाभक्तिरता काम्यानाञ्चैव कामदायिनी ।
कोलपुष्पम्बरा कोला निकोला कालहान्तरा ॥ २०॥
कौषिकी केतकी कुन्ती कुन्तलादिविभूषिता ।
इत्येवं शृणु चार्वङ्गि रहस्यं सर्वमङ्गलम् ॥ २१॥
फलश्रुति-
यः पठेत् परया भक्त्या स शिवो नात्र संशयः ।
शतनामप्रसादेन किं न सिद्धति भूतले ॥ २२॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च वासवाद्या दिवौकसः ।
रहस्यपठनाद्देवि सर्वे च विगतज्वराः ॥ २३॥
त्रिषु लोकेशु विश्वेशि सत्यं गोप्यमतः परम् ।
नास्ति नास्ति महामाये तन्त्रमध्ये कथञ्चन ॥ २४॥
सत्यं वचि महेशानि नातःपरतरं प्रिये ।
न गोलोके न वैकुण्ठे न च कैलासमन्दिरे ॥ २५॥
रात्रिवापि दिवाभागे यदि देवि सुरेश्वरी ।
प्रजपेद् भक्तिभावेन रहस्यस्तवमुत्तमम् ॥ २६॥
शतनाम प्रसादेन मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ।
कुजवारे चतुर्द्दश्यां निशाभागे जपेत्तु यः ॥ २७॥
स कृती सर्वशास्त्रज्ञः स कुलीनः सदा शुचिः ।
स कुलज्ञः स कालज्ञः स धर्मज्ञो महीतले ॥ २८॥
रहस्य पठनात् कोटि-पुरश्चरणजं फलम् ।
प्राप्नोति देवदेवेशि सत्यं परमसुन्दरी ॥ २९॥
स्तवपाठाद् वरारोहे किं न सिद्धति भूतले ।
अणिमाद्यष्टसिद्धिश्च भवेत्येव न संशयः ॥ ३०॥
रात्रौ बिल्वतलेऽश्वथ्थमूलेऽपराजितातले ।
प्रपठेत् कालिका-स्तोत्रं यथाशक्त्या महेश्वरी ॥ ३१॥
शतवारप्रपठनान्मन्त्रसिद्धिर्भवेद्ध्रूवम् ।
नानातन्त्रं श्रुतं देवि मम वक्त्रात् सुरेश्वरी ॥ ३२॥
मुण्डमालामहामन्त्रं महामन्त्रस्य साधनम् ।
भक्त्या भगवतीं दुर्गां दुःखदारिद्र्यनाशिनीम् ॥ ३३॥
संस्मरेद् यो जपेद्ध्यायेत् स मुक्तो नात्र संशय ।
जीवन्मुक्तः स विज्ञेयस्तन्त्रभक्तिपरायणः ॥ ३४॥
स साधको महाज्ञानी यश्च दुर्गापदानुगः ।
न च भक्तिर्न वाहभक्तिर्न मुक्तिनगनन्दिनि ॥ ३५॥
विना दुर्गां जगद्धात्री निष्फलं जीवनं भभेत् ।
शक्तिमार्गरतो भूत्वा योहन्यमार्गे प्रधावति ॥ ३६॥
न च शाक्तास्तस्य वक्त्रं परिपश्यन्ति शंकरी ।
विना तन्त्राद् विना मन्त्राद् विना यन्त्रान्महेश्वरी ॥ ३७॥
न च भुक्तिश्च मुक्तिश्च जायते वरवर्णिनी ।
यथा गुरुर्महेशानि यथा च परमो गुरुः ॥ ३८॥
तन्त्रावक्ता गुरुः साक्षाद् यथा च ज्ञानदः शिवः ।
तन्त्रञ्च तन्त्रवक्तारं निन्दन्ति तान्त्रीकीं क्रियाम् ॥ ३९॥
ये जना भैरवास्तेषां मांसास्थिचर्वणोद्यताः ।
अतएव च तन्त्रज्ञं स निन्दन्ति कदाचन ।
न हस्तन्ति न हिंसन्ति न वदन्त्यन्यथा बुधा ॥ ४०॥
॥ इति मुण्डमालातन्त्रेऽष्टमपटले देवीश्वर संवादे
कालीशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
काली पञ्चबाण
आमतौर पर मां महाकाली को तभी याद किया जाता है जब कोई बहुत बड़ी समस्या आ जाए जो अन्य उपायों से हल नहीं हो रही है ।आज हम आपको मां महाकाली के एक ऐसे ही उपाय के बारे में बता रहे हैं जो रोजगार संबंधी हर समस्या का रामबाण उपाय है और तुरंत असर करता है।
मां महाकाली के इस महामंत्र को काली पंच बाण भी कहा जाता है। जब भी रोजगार संबंधित समस्या हो तो इस मंत्र का प्रतिदिन 11 बार सुबह और 11 बार शाम को जब करें यह अपने आप में सिद्ध मंत्र है अतः इसे सिद्ध नहीं करना होता ना ही किसी बड़े भारी भरकम विधान की आवश्यकता होती है।
।।प्रथम वाण।।
ॐ नमः काली कंकाली महाकाली
मुख सुन्दर जिए ब्याली
चार वीर भैरों चौरासी
बीततो पुजू पान ऐ मिठाई
अब बोलो काली की दुहाई !
।।द्वितीय वाण।।
ॐ काली कंकाली महाकाली
मुख सुन्दर जिए ज्वाला वीर वीर
भैरू चौरासी बता तो पुजू
पान मिठाई !
।।तृतीय वाण।।
ॐ काली कंकाली महाकाली
सकल सुंदरी जीहा बहालो
चार वीर भैरव चौरासी
तदा तो पुजू पान मिठाई
अब बोलो काली की दुहाई !
।।चतुर्थ वाण।।
ॐ काली कंकाली महाकाली
सर्व सुंदरी जिए बहाली
चार वीर भैरू चौरासी
तण तो पुजू पान मिठाई
अब राज बोलो
काली की दुहाई !
।।पंचम वाण।।
ॐ नमः काली कंकाली महाकाली
मख सुन्दर जिए काली
चार वीर भैरू चौरासी
तब राज तो पुजू पान मिठाई
अब बोलो काली की दोहाई !


काली माता के चमत्कारी मंत्र, कुन्जिका स्तोत्र
दुर्गाजी का एक रुप कालीजी है। यह देवी विशेष रुप से शत्रुसंहार, विघ्ननिवारण, संकटनाश और सुरक्षा की अधीश्वरी है।महाकाली भगवती कालिका अर्थात काली के अनेक स्वरुप, अनेक मन्त्र तथा अनेक उपासना विधियां है। यथा-श्यामा, दक्षिणा कालिका (दक्षिण काली) गुह्म काली, भद्रकाली, महाकाली आदि ।
दशमहाविद्यान्तर्गत भगवती दक्षिणा काली
(दक्षिणकालीका) की उपासना की जाती है।इनकी उपासना सुरक्षा, शौर्य, पराक्रम, युद्ध, विवाद और प्रभाव विस्तर के संदर्भ में की जाती है। कालीजी की रुपरेखा भयानक है। देखकर सहसा रोमांच होआता है। पर वह उनका दुष्टदलन रुप है।
काली के अनेक भेद हैं -
पुरश्चर्यार्णवेः-
१॰ दक्षिणाकाली २॰ भद्रकाली ३॰श्मशानकाली ४॰ कामकलाकाली ५॰ गुह्यकाली ६॰ कामकलाकाली ७॰ धनकाली ८॰सिद्धिकाली ९॰ चण्डीकाली ।
जयद्रथयामलेः-
१॰ डम्बरकाली २॰ गह्नेश्वरी काली ३॰एकतारा ४॰ चण्डशाबरी ५॰ वज्रवती ६॰ रक्षाकाली ७॰ इन्दीवरीकाली ८॰धनदा ९॰ रमण्या १०॰ ईशानकाली ११॰ मन्त्रमाता ।
सम्मोहने तंत्रेः-
'१॰ स्पर्शकाली २॰ चिन्तामणि ३॰ सिद्धकाली ४॰ विज्ञाराज्ञी ५॰ कामकला ६॰ हंसकाली ७॰ गुह्यकाली ।
तंत्रान्तरेऽपिः-
१॰ चिंतामणि काली २॰ स्पर्शकाली ३॰ सन्तति-प्रदा-काली ४॰ दक्षिणा काली ६॰ कामकला काली ७॰ हंसकाली
८॰ गुह्यकाली ।
दक्षिण कालिका के मन्त्र :-
भगवती दक्षिण कालिका के अनेक मन्त्र है, जिसमें से कुछ इस प्रकार है।
श्मशान साधना मे काली उपासना
(1) क्रीं,
(2) ॐ ह्रीं ह्रीं हुं हुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं।
(3) ह्रीं ह्रीं हुं हुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
(4) नमः ऐं क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा।
(5) नमः आं क्रां आं क्रों फट स्वाहा कालि कालिके हूं।
(6) क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हुं हुं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रींह्रीं ह्रीं हुं हुं स्वाहा।
इनमें से किसी भी मन्त्र का जप किया जा सकता है।
पूजा -विधि :-
दैनिक कृत्य स्नान-प्राणायम आदि से निवृत होकरस्वच्छ वस्त्र धारण कर, सामान्य पूजा-विधि से काली- यन्त्र का पूजन करें।तत्पश्चात ॠष्यादि- न्यास एंव करागन्यास करके भगवती का इस प्रकार ध्यान करें-
शवारुढां महाभीमां घोरदृंष्ट्रां वरप्रदाम्।हास्य युक्तां त्रिनेत्रां च कपाल कर्तृकाकराम्।
मुक्त केशी ललजिह्वां पिबंती रुधिरं मुहु:। चतुर्बाहूयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत्॥”
इसके उपरान्त मूल-मन्त्र द्वारा व्यापक-न्यास करके यथा विधि मुद्रा-प्रदर्शन पूर्वक पुनः ध्यान करना चाहिए।
पुरश्चरण : –
कालिका मन्त्र के पुरश्चरण में दो लाख की संख्या में मन्त्र-जप कियाहै। कुछ मन्त्र केवल एक लाख की संख्या में भी जपे जाते है। जप का दशांश होमघृत द्वारा करना चाहिए । होम का दशांश तर्पण, तर्प्ण का दशांश अभिषेक तथाअभिषेक का दशांश ब्राह्मण – भोजन कराने का नियम है।
विधि -
लाल आसन पर कालीजी की प्रतिमा अथवा चित्र या यन्त्र स्थापित करके, लालचन्दन, पुष्प तथा धूपदीप से पूजा करके मन्त्र जप करना चाहिए। नियमत रुप से श्रद्धापूर्वक आराधना करने वालि जनों को कालीजी(प्रायः सभी शक्ति स्वरुप) स्वप्न मे दर्शन देती है।
ऐसे दर्शन से घबङाना नहीं चाहिए और उस स्वप्न की कहीं चर्चा भी नही चाहिए। कालीजी की पुजा में बली का विधान भी है। किन्त सात्विक उपासना की दृष्टि से बलि के नाम पर नारियल अथवा किसी फल का प्रयोग किया जा सकता है।
ध्यान स्तुति-
खडगं गदेषु चाप परिघां शूलम भुशुंडी शिरः
शंखं संदधतीं करैस्तिनयनां सर्वाग भूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्य पाद द्शकां सेवै महाकालिकाम्।
यामस्तौत्स्वपितो हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम्॥
जप मन्त्र-
ॐ क्रां क्रीं क्रूं कालिकाय नमः।
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै ससतं नमः।नमः प्रकृत्यै भद्रायै निततां प्रणतां स्मताम्॥
श्री महाकाली यन्त्र(फ़ोटो में दिखाया है।)
श्मशान साधना मे काली उपासना का बङा महत्व है। इसी सन्दर्भ मे महाकालीयन्त्र का प्रयोग शत्रु नाश, मोहन, मारण, उच्चाट्न आदि कार्यों मेंप्रयुक्त होता है। मध्य मे बिन्दू, पांच उल्ट कोण, तीन वृत कोण, अष्टदल वृतएवं भूरपुर से आवृत महाकाली का यन्त्र तैयार करे।
इस यन्त्र का पूजन करते समय शव पर आरुढ, मुण्ड्माला धारण की हुई, खड्ग, त्रिशूल, खप्पर व एक हाथ मे नर-मुण्ड धारण की हुई, रक्त जिह्वा लपलपाती हुईभयंकर स्वरुप वाली महाकाली का ध्यान किया जाता है। जब अन्य विद्यायें विफलहो जाती है तब इस यन्त्र का सहारा लिया जाता है।चैत्र, आषाढ, आश्विन एवं माघ की अष्टमी इसकी साधना हेतु सर्वश्रेष्ठ काल माना गया है।
सिद्ध कुन्जिका स्तोत्

श्री दुर्गा सप्तसती में वर्णित अत्यंत प्रभावशली इस सिद्ध कुन्जिका स्त्रोत्र का नित्य पाठ करने से संपूर्ण श्री दुर्गा सप्तशती पाठका फल मिलता है .यह महामंत्र देवताओं को भी दुर्लभ है , इस मंत्र का नित्यपाठ करने से माँ भगवती जगदम्बा की कृपा बनी रहती है ..
अथ सिद्ध कुन्जिका स्तोत्र
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥2॥
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥4॥
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिन ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्|
महाकाली
त्रिलोक्य विजयस्थ कवचस्य शिव ऋषि ,
अनुष्टुप छन्दः, आद्य काली देवता,
माया बीजं,रमा कीलकम , काम्य सिद्धि विनियोगः || १ ||
ह्रीं आद्य मे शिरः पातु श्रीं काली वदन ममं,
हृदयं क्रीं परा शक्तिः पायात कंठं परात्परा ||२||
नेत्रौ पातु जगद्धात्री करनौ रक्षतु शंकरी,
घ्रान्नम पातु महा माया रसानां सर्व मंगला ||३||
दन्तान रक्षतु कौमारी कपोलो कमलालया,
औष्ठांधारौं शामा रक्षेत चिबुकं चारु हासिनि ||४|
ग्रीवां पायात क्लेशानी ककुत पातु कृपा मयी,
द्वौ बाहूबाहुदा रक्षेत करौ कैवल्य दायिनी ||५||
स्कन्धौ कपर्दिनी पातु पृष्ठं त्रिलोक्य तारिनी,
पार्श्वे पायादपर्न्ना मे कोटिम मे कम्त्थासना ||६||
नभौ पातु विशालाक्षी प्रजा स्थानं प्रभावती,
उरू रक्षतु कल्यांनी पादौ मे पातु पार्वती ||७||
जयदुर्गे-वतु प्राणान सर्वागम सर्व सिद्धिना,
रक्षा हीनां तू यत स्थानं वर्जितं कवचेन च ||८||
इति ते कथितं दिव्य त्रिलोक्य विजयाभिधम,
कवचम कालिका देव्या आद्यायाह परमादभुतम ||९||
पूजा काले पठेद यस्तु आद्याधिकृत मानसः,
सर्वान कामानवाप्नोती तस्याद्या सुप्रसीदती ||१०||
मंत्र सिद्धिर्वा-वेदाषु किकराह शुद्रसिद्धयः,
अपुत्रो लभते पुत्र धनार्थी प्राप्नुयाद धनं ||११|
विद्यार्थी लभते विद्याम कामो कामान्वाप्नुयात
सह्स्त्रावृति पाठेन वर्मन्नोस्य पुरस्क्रिया ||१२||
पुरुश्चरन्न सम्पन्नम यथोक्त फलदं भवेत्,
चंदनागरू कस्तूरी कुम्कुमै रक्त चंदनै ||१३||
भूर्जे विलिख्य गुटिका स्वर्नस्याम धार्येद यदि,
शिखायां दक्षिणे बाह़ो कंठे वा साधकः कटी ||१४||
तस्याद्या कालिका वश्या वांछितार्थ प्रयछती,
न कुत्रापि भायं तस्य सर्वत्र विजयी कविः ||१५||
अरोगी चिर जीवी स्यात बलवान धारण शाम,
सर्वविद्यासु निपुण सर्व शास्त्रार्थ तत्त्व वित् ||१६||
वशे तस्य माहि पाला भोग मोक्षै कर स्थितो,
कलि कल्मष युक्तानां निःश्रेयस कर परम ||१७||
।। श्री श्री काली सहस्त्राक्षरी ।।
ॐ क्रीं क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं दक्षिणे कालिके क्रीँ क्रीँ क्रीँ ह्रीँ ह्रीँ हूं हूं स्वाहा शुचिजाया महापिशाचिनी दुष्टचित्तनिवारिणी क्रीँ कामेश्वरी वीँ हं वाराहिके ह्रीँ महामाये खं खः क्रोघाघिपे श्रीमहालक्ष्यै सर्वहृदय रञ्जनी वाग्वादिनीविधे त्रिपुरे हंस्त्रिँ हसकहलह्रीँ हस्त्रैँ ॐ ह्रीँ क्लीँ मे स्वाहा ॐ ॐ ह्रीँ ईं स्वाहा दक्षिण कालिके क्रीँ हूं ह्रीँ स्वाहा खड्गमुण्डधरे कुरुकुल्ले तारे
ॐ. ह्रीँ नमः भयोन्मादिनी भयं मम हन हन पच पच मथ मथ फ्रेँ विमोहिनी सर्वदुष्टान् मोहय मोहय हयग्रीवे सिँहवाहिनी सिँहस्थे अश्वारुढे अश्वमुरिप विद्राविणी विद्रावय मम शत्रून मां हिँसितुमुघतास्तान् ग्रस ग्रस महानीले वलाकिनी नीलपताके क्रेँ क्रीँ क्रेँ कामे संक्षोभिणी उच्छिष्टचाण्डालिके सर्वजगव्दशमानय वशमानय मातग्ङिनी उच्छिष्टचाण्डालिनी मातग्ङिनी सर्वशंकरी नमः स्वाहा विस्फारिणी कपालधरे घोरे घोरनादिनी भूर शत्रून् विनाशिनी उन्मादिनी रोँ रोँ रोँ रीँ ह्रीँ श्रीँ हसौः सौँ वद वद क्लीँ क्लीँ क्लीँ क्रीँ क्रीँ क्रीँ कति कति स्वाहा काहि काहि कालिके शम्वरघातिनी कामेश्वरी कामिके ह्रं ह्रं क्रीँ स्वाहा हृदयाहये ॐ ह्रीँ क्रीँ मे स्वाहा ठः ठः ठः क्रीँ ह्रं ह्रीँ चामुण्डे हृदयजनाभि असूनवग्रस ग्रस दुष्टजनान् अमून शंखिनी क्षतजचर्चितस्तने
उन्नस्तने विष्टंभकारिणि विघाधिके श्मशानवासिनी कलय कलय विकलय विकलय कालग्राहिके सिँहे दक्षिणकालिके अनिरुद्दये ब्रूहि ब्रूहि जगच्चित्रिरे चमत्कारिणी हं कालिके करालिके घोरे कह कह तडागे तोये गहने कानने शत्रुपक्षे शरीरे मर्दिनि पाहि पाहि अम्बिके तुभ्यं कल विकलायै बलप्रमथनायै योगमार्ग गच्छ गच्छ निदर्शिके देहिनि दर्शनं देहि देहि मर्दिनि महिषमर्दिन्यै स्वाहा रिपुन्दर्शने दर्शय दर्शय सिँहपूरप्रवेशिनि वीरकारिणि क्रीँ क्रीँ क्रीँ हूं हूं ह्रीँ ह्रीँ फट् स्वाहा शक्तिरुपायै रोँ वा गणपायै रोँ रोँ रोँ व्यामोहिनि यन्त्रनिकेमहाकायायै
प्रकटवदनायै लोलजिह्वायै मुण्डमालिनि महाकालरसिकायै नमो नमः ब्रम्हरन्ध्रमेदिन्यै नमो नमः शत्रुविग्रहकलहान् त्रिपुरभोगिन्यै विषज्वालामालिनी तन्त्रनिके मेधप्रभे शवावतंसे हंसिके कालि कपालिनि कुल्ले कुरुकुल्ले चैतन्यप्रभेप्रज्ञे
तु साम्राज्ञि ज्ञान ह्रीँ ह्रीँ रक्ष रक्ष ज्वाला प्रचण्ड चण्डिकेयं शक्तिमार्तण्डभैरवि विप्रचित्तिके विरोधिनि आकर्णय आकर्णय पिशिते पिशितप्रिये नमो नमः खः खः खः मर्दय मर्दय शत्रून् ठः ठः ठः कालिकायै नमो नमः ब्राम्हयै नमो नमः माहेश्वर्यै नमो नमः कौमार्यै नमो नमः वैष्णव्यै नमो नमः वाराह्यै नमो नमः इन्द्राण्यै नमो नमः चामुण्डायै नमो नमः अपराजितायै नमो नमः नारसिँहिकायै नमो नमः कालि महाकालिके अनिरुध्दके सरस्वति फट् स्वाहा पाहि पाहि ललाटं भल्लाटनी अस्त्रीकले जीववहे वाचं रक्ष रक्ष परविधा क्षोभय क्षोभय आकृष्य आकृष्य कट कट महामोहिनिके चीरसिध्दके कृष्णरुपिणी अंजनसिद्धके स्तम्भिनि मोहिनि मोक्षमार्गानि दर्शय दर्शय स्वाहा ।।
इस काली सहस्त्राक्षरी का नित्य पाठ करने से ऐश्वर्य,मोक्ष,सुख,समृद्धि,एवं शत्रुविजय प्राप्त होता है ।।


1-काली
दस महाविद्याओंमें काली प्रथम हैं। महाभागवतके अनुसार महाकाली ही मुख्य
हैं और उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपोंमें अनेक रूप धारण करनेवाली दस
महाविद्याएं हैं। विद्यापति भगवान् शिवकी शक्तियाँ ये महाविद्याएँ हैं।
विद्यापति भगवान, शिव की शक्तियाँ ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान
करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टिसे भी कालतत्तवकी प्रधानता सर्वोपरि
है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं। अर्थात् उनकी
विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएं हैं। ऐसा लगता है कि महाकालकी
प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महा विद्याओं के नामसे
विख्यात हुईं। बृहन्नीलतन्त्रम ें कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेदसे काली
ही दो रूपों में अधिष्ठित हैं। कृष्णाका नाम ‘दक्षिणा’ और रक्तवर्णाका
नाम ‘सुन्दरी’ है।

कालिकापुराण में कथा आती है कि एक बार हिमालयपर अवस्थित मतंग मुनिके
आश्रम में जाकर देवताओं ने महामायाकी स्तुति की। स्तुति से प्रसन्न होकर
मतंग-वनिताके रूप में भगवतीने देवताओं को दर्शन दिया और पूछा कि तुमलोग
किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी समय देवीके शरीर से काले पहाड़ के समान
वर्णवाली एक और दिव्य नारीका प्राकट्य हुआ। उस महातेजस्विनी ने स्वयं ही
देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि ‘ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।’ वे
काजलके समान कृष्णा थीं, इसलिये उनका नाम ‘काली’ पड़ा।

दुर्गा सप्तशीतीके अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भ के अत्याचार से व्यथित
होकर देवताओं ने हिमालय जाकर देवीसूक्त से देवीकी स्तुति की, तब गौरीकी
देहसे कौशिकीका प्राकट्य हुआ। कौशिकी के अलग होते ही अम्बा पार्वतीका
स्वरूप कृष्णा हो गया, जो ‘काली’ नाम से विख्यात हुईं। कालीको नीलरूपा
होने के कारण तारा भी कहते हैं। नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार एक बार कालीके
मन में आया कि वे पुनः गौरी हो जायँ। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं।
शिवजीने नारदजी से उनका पता पूछा। नारदजी ने उनसे सुमेरुके उत्तर में
देवी के प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात कही। शिवजीकी प्रेरणासे नारद वहां
गये। उन्होंने देवीसे शिवजी के साथ विवाहका प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर
देवी कुद्ध हो गयीं और उनकी देहसे एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और
उससे छाया विग्रह त्रिपुरभैरवीका प्राकट्य हुआ।

काली की उपासना में सम्प्रदायगत भेद हैं। प्रायः दो रूपों में इनकी
उपासना का प्रचलन हैं। भव-बन्धन, मोचनमें उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जाती
है। शक्ति –साधना के दो पीठों में कालीकी उपासना श्याम-पीठा पर करनेयोग्य
हैं। भक्तिमार्ग में तो किसी भी रूप में उन महामाया की उपासना फलप्रदा
है, पर सिद्धके लिये उनकी उपासना वीरभाव से की जाती है। साधना के द्वारा
जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धिका नाश होकर साधन में पूर्ण शिशुत्व का उदय
हो जाता है, तब कालीका श्रीविग्रह साधकके समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय
भगवती कालीकी छवि अवर्णनीय होती है। कज्जलके पहाड़ के, समान, दिग्वसना,
मुक्तकुन्तला, शवपर आरुढ़, मुण्डमालाधारिणी भगवती कालीका प्रत्यक्ष दर्शन
साधकको कृतार्थ कर देता है। तान्त्रिक-मार्ग में यद्यपि कालीकी उपासना
दीक्षागस्य हैं, तथापि अनन्य शरणागति के द्वारा उनकी कृपा किसी को भी
प्राप्त हो सकती है। मूर्ति, मन्त्र अथवा गुरुद्वारा उपदिष्ट किसी भी
आधारपर भक्तिभावसे, मन्त्र-जप, पूजा, होम और पुरश्र्चरण करने से भगवती
काली प्रसन्न हो जाती हैं। उनकी प्रसन्नतासे साधकको सहज ही सम्पूर्ण
अभीष्टों की प्राप्ति हो जाती है।


भगवती कालिका अर्थात काली के अनेक स्वरुप, अनेक मन्त्र तथा अनेक उपासना विधियां है। यथा-श्यामा, दक्षिणा कालिका (दक्षिण काली) गुह्म काली, भद्रकाली, महाकाली आदि । दशमहाविद्यान्तर्गत भगवती दक्षिणा काली (दक्षिण कालीका) की उपासना की जाती है।
दक्षिण कालिका के मन्त्र :- भगवती दक्षिण कालिका के अनेक मन्त्र है, जिसमें से कुछ इस प्रकार है।
(1) क्रीं,
(2) ॐ ह्रीं ह्रीं हुं हुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं।
(3) ह्रीं ह्रीं हुं हुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
(4) नमः ऐं क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा।
(5) नमः आं क्रां आं क्रों फट स्वाहा कालि कालिके हूं।
(6) क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हुं हुं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हुं हुं स्वाहा। इनमें से कीसी भी मन्त्र का जप किया जा सकता है।
पूजा -विधि :- दैनिक कृत्य स्नान-प्राणायम आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर, सामान्य पूजा-विधि से काली- यन्त्र का पूजन करें। तत्पश्चात ॠष्यादि- न्यास एंव करागन्यास करके भगवती का इस प्रकार ध्यान करें-
शवारुढां महाभीमां घोरदृंष्ट्रां वरप्रदाम्।
हास्य युक्तां त्रिनेत्रां च कपाल कर्तृकाकराम्।
मुक्त केशी ललजिह्वां पिबंती रुधिरं मुहु:।
चतुर्बाहूयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत्॥”
इसके उपरान्त मूल-मन्त्र द्वारा व्यापक-न्यास करके यथा विधि मुद्रा-प्रदर्शन पूर्वक पुनः ध्यान करना चाहिए।
पुरश्चरण : – कालिका मन्त्र के पुरश्चरण में दो लाख की संख्या में मन्त्र-जप किया है। कुछ मन्त्र केवल एक लाख की संख्या में भी जपे जाते है। जप का दशांश होम घृत द्वारा करना चाहिए । होम का दशांश तर्पण, तर्प्ण का दशांश अभिषेक तथा अभिषेक का दशांश ब्राह्मण – भोजन कराने का नियम है।
विशेष : -” दक्षिणा कालिका ” देवी के मन्त्र रात्रि के समय जप करने से शीघ्र सिद्धि प्रदान करते है। जप के पश्चात स्त्रोत, कवच, ह्रदय आदि उपलब्ध है, उनमें से चाहें जिनका पाठ करना चाहिए । वे सभी साधकों के लिए सिद्धिदायक है।

प्रथम महाविद्या काली
दस महाविद्या में काली का स्थान पहला है। उनके बारे में सबसे ज्यादा ग्रंथ लिखे गए हैं। उनमें से अधिकतर लुप्त हो चुके हैं। उनकी महिमा निराली है। क्रोध में भरी एवं दुष्टों के संहार में करने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली माता भक्तों पर हमेशा कृपा बरसाती रहती हैं। वह अपने साधक भक्तों को समय-समय पर अपनी उपस्थिति का आभास भी कराती रहती हैं। विभिन्न ग्रंथों में इनके कई नाम और भेद हैं जो विशिष्ट ज्ञान के लिए ही जरूरी है। सामान्य तौर पर इनके दो रूप ही अधिक प्रचलित हैं। वे श्यामा काली (दक्षिण काली) और सिद्धिकाली (गुह्य काली) जिन्हें काली नाम से भी पुकारा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, वरुण, कुबेर, यम,, महाकाल, चंद्र, राम, रावण, यम, राजा बलि, बालि, वासव, विवस्वान सरीखों ने इनकी उपासना कर शक्तियां अर्जित की हैं। इनके रूपों की तरह मंत्र भी अनेक हैं लेकिन सामान्य साधकों को उलझन से बचाने के लिए उनका जिक्र न कर सीधे मूल मंत्रों पर आता हूं।
एकाक्षरी मंत्र-- क्रीं
इसके ऋषि भैरव ऋषि, गायत्री छंद, दक्षिण काली देवी, कं बीज, ईं शक्तिः एवं रं कीलकं है। यह अत्यंत प्रभावी व कल्याणकारी मंत्र है। इसकी साधना से ही राजा विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई थी। शवरूढ़ां महाभीमां घोरद्रंष्ट्रां वरप्रदम् से ध्यान कर एक लाख जप कर दशांश हवन करें।
करन्यास व हृदयादि न्यास-- ऊं क्रां, ऊं क्रीं, ऊं क्रूं, ऊं क्रैं, ऊं क्रौं, ऊं क्रं, ऊं क्र: से करन्यास व हृदयादि न्यास करें।
द्वयक्षर मंत्र-- क्रीं क्रीं
ऋषि भैरव, छंद गायत्री, बीज क्रीं, शक्ति स्वाहा, कीलकं हूं है। बाकी पूर्वोक्त तरीके से करें।
काली पूजा प्रयोग
काली पूजा के सभी मंत्रों में 22 अक्षर वाले मंत्र को सबसे प्रभावी माना गया है। अन्य मंत्रों के प्रयोग में इसी मंत्र के अनुरूप पूजाविधान और यंत्रार्चन किया जाता है। इसका प्रयोग बेहद उग्र और आज की स्थिति में थोड़ी कठिन है। अतः मैं सामान्य जानकारी तो दूंगा पर साथ ही सलाह भी है कि सामान्य साधक इसके कठिन प्रयोग से बचें। यदि तीव्र इच्छा हो और उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हों तो योग्य गुरु के निर्देशन में इसे करें।
बाइस अक्षर मंत्र--
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
विनियोग--
अस्य मंत्रस्य भैरव ऋषिः, उष्णिक् छंदः, दक्षिण कालिका देवता, ह्रीं बीजं, हूं शक्तिः, क्रीं कीलकं सर्वाभिष्ट सिद्धेयर्थे जपे विनियोगः।
अंगन्यास--
ऊं कुरुकुल्लायै नमः मुखे, ऊं विरोधिन्यै नमः दक्षिण नासिकायां, ऊं विप्रचित्तायै नमः वाम नासिकायां, ऊं उग्रायै नमः दक्षिण नेत्रे, ऊं उग्रप्रभायै नमः वाम नेत्रे, ऊं दीप्तायै नमः दक्षिण कर्णे, ऊं नीलायै नमः वाम कर्णे, ऊं घनायै नमः नाभौ, ऊं बालाकायै नमः हृदये, ऊं मात्रायै नमः ललाटे, ऊं मुद्रायै नमः दक्षिण स्कंधे, ऊं मीतायै नमः वाम स्कंधे। इसके बाद बूतशुदिध आदि कर्म करें। ह्रीं बीज से प्राणायाम करें।
ऋष्यादि न्यास--
भैरव ऋषिये नमः शिरसि, उष्णिक छंदसे नमः हृदि, दक्षिणकालिकायै नमः हृदये, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, हूं शक्तये नमः पादयोः, क्रीं कीलकाय नमः नाभौ। विनियोगाय नमः सर्वांगे।
षडंगन्यास--
ऊं क्रां हृदयाय नमः, ऊं क्रीं शिरसे स्वाहा, ऊं क्रूं शिखायै वषट्, ऊं क्रैं कवचाय हुं, ऊं क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ऊं क्रः अस्त्राय फट्।
ध्यान
चतुर्भुजां कृष्णवर्णां मुंडमाला विभूषिताम्,
खडग च दक्षिणो पाणौ विभ्रतीन्दीवर-द्वयम्।
द्यां लिखंती जटायैकां विभतीशिरसाद्वयीम्,
मुंडमाला धरां शीर्षे ग्रीवायामय चापराम्।।
वक्षसा नागहारं च विभ्रतीं रक्तलोचनां,
कृष्ण वस्त्रधरां कट्यां व्याघ्राजिन समन्विताम्।
वामपदं शव हृदि संस्थाप्य दक्षिण पदम्,
विलसद् सिंह पृष्ठे तु लेलिहानासव पिबम्।।
सट्टहासा महाघोरा रावै मुक्ता सुभीषणा।।
विधि एवं फल--
सूने घर, निर्जन स्थान, वन, मंदिर (काली को हो तो श्रेष्ठ), नदी के किनारे एवं श्मशान में इस मंत्र के जप से विशेष और शीघ्र फल की प्राप्ति होती है। 22 अक्षर मंत्र का दो लाख जप कर कनेर के फूलों से दशांश हवन करना चाहिए। काली की नियमित उपासना करने का मतलब यही होत है कि साधक उच्चकोटि का है और उसने पहले ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गौरी, गणेश, सूर्य और कुछ महाविद्या की उपासना कर ली है और अब वह साधना के चरम की ओर अग्रसर हो रहा है।
कुछ कठिन प्रयोग--
जो साधक स्त्री की योनि को देखते हुए दस हजार जप करता है, वह ब़हस्पति के समान होकर लंबी आयु और काफी धन पाता है। बिखरे बालों के साथ नग्न होकर श्मशान में दस हजार जप करने से सभी कामनाएं सिद्ध होती हैं। हविष्यान्न का सेवन करता हुआ जप करे तो विद्या, लक्ष्मी एवं यंश को प्राप्त करेगा।
गुह्यकाली के कुछ मंत्र
1-नवाक्षर-- क्रीं गुह्ये कालिका क्रीं स्वाहा।
2-चतुर्दशाक्षर मंत्र-- क्रौं हूं ह्रीं गुह्ये कालिके हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
3-पंचदशाक्षर मंत्र-- हूं ह्रीं गुह्ये कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
ध्यान
द्यायेन्नीलोत्पल श्यामामिन्द्र नील समुद्युतिम्। धनाधनतनु द्योतां स्निग्ध दूर्वादलद्युतिम्।।
ज्ञानरश्मिच्छटा- टोप ज्योति मंडल मध्यगाम्। दशवक्त्रां गुह्य कालीं सप्त विंशति लोचनाम्।।
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.

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