Sunday 7 July 2019

नीलतन्त्रे तारास्तोत्रं


नीलतन्त्रे तारास्तोत्रं
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे ।
प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ।।
फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कर्त्रीकपालोत्पले खङ्गं ।
चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥१॥
वाचामीश्वरि भक्तिकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धिश्वरि ।
गद्यप्राकृतपद्यजातरचनासर्वार्थसिद्धिप्रदे ।।
नीलेन्दीवरलोचनत्रययुते कारुण्यवारान्निधे ।
सौभाग्यामृतवर्धनेन कृपयासिञ्च त्वमस्मादृशम् ॥२॥
खर्वे गर्वसमूहपूरिततनो सर्पादिवेषोज्वले ।
व्याघ्रत्वक्परिवीतसुन्दरकटिव्याधूतघण्टाङ्किते ।।
सद्यःकृत्तगलद्रजःपरिमिलन्मुण्डद्वयीमूर्द्धज-।
ग्रन्थिश्रेणिनृमुण्डदामललिते भीमे भयं नाशय ॥३॥
मायानङ्गविकाररूपललनाबिन्द्वर्द्धचन्द्राम्बिके ।
हुम्फट्कारमयि त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः ।।
मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा ।
परा वेदानां नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये ॥४॥
त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां ।
तस्याः श्रीपरमेश्वरत्रिनयनब्रह्मादिसाम्यात्मनः ।।
संसाराम्बुधिमज्जने पटुतनुर्देवेन्द्रमुख्यासुरान् ।
मातस्ते पदसेवने हि विमुखान् किं मन्दधीः सेवते ॥५॥
मातस्त्वत्पदपङ्कजद्वयरजोमुद्राङ्ककोटीरिणस्ते ।
देवा जयसङ्गरे विजयिनो निःशङ्कमङ्के गताः ।।
देवोऽहं भुवने न मे सम इति स्पर्द्धां वहन्तः परे ।
तत्तुल्यां नियतं यथा शशिरवी नाशं व्रजन्ति स्वयम् ॥६॥
त्वन्नामस्मरणात्पलायनपरान्द्रष्टुं च शक्ता न ते ।
भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा यक्षश्च नागाधिपाः ।।
दैत्या दानवपुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवो ।
डाकिन्यः कुपितान्तकश्च मनुजान् मातः क्षणं भूतले ॥७॥
लक्ष्मीः सिद्धिगणश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां ।
स्तम्भश्चापि वराङ्गने गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम् ।।
मातस्त्वत्पदसेवया खलु नृणां सिद्ध्यन्ति ते ते गुणाः ।
क्लान्तः कान्तमनोभवोऽत्र भवति क्षुद्रोऽपि वाचस्पतिः ॥८॥
ताराष्टकमिदं पुण्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः ।
प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाह्ने नियतः शुचिः ॥९॥
लभते कवितां विद्यां सर्वशास्त्रार्थविद्भवेत्
लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान् ।
कीर्तिं कान्तिं च नैरुज्यं प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात् ॥१०॥
॥इति श्रीनीलतन्त्रे तारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

1. ॐ तारिण्यै नमः।
2. ॐ तरलायै नमः।
3. ॐ तन्व्यै नमः।
4. ॐ तारायै नमः।
5. ॐ तरुणवल्लर्यै नमः। 
6. ॐ तीररूपायै नमः।
7. ॐ तर्यै नमः।
8. ॐ श्यामायै नमः।
9. ॐ तनुक्षीणपयोधरायै नमः।
10. ॐ तुरीयायै नमः।
11. ॐ तरुणायै नमः।
12. ॐ तीव्रगमनायै नमः।
13. ॐ नीलवाहिन्यै नमः।
14. ॐ उग्रतारायै नमः।
15. ॐ जयायै नमः।
16. ॐ चण्ड्यै नमः।
17. ॐ श्रीमदेकजटाशिरायै नमः।
18. ॐ तरुण्यै नमः।
19. ॐ शाम्भव्यै नमः।
20. ॐ छिन्नभालायै नमः।
21. ॐ भद्रतारिण्यै नमः ।
22. ॐ उग्रायै नमः।
23. ॐ उग्रप्रभायै नमः।
24. ॐ नीलायै नमः।
25. ॐ कृष्णायै नमः।
26. ॐ नीलसरस्वत्यै नमः।
27. ॐ द्वितीयायै नमः।
28. ॐ शोभनायै नमः।
29. ॐ नित्यायै नमः।
30. ॐ नवीनायै नमः।
31. ॐ नित्यनूतनायै नमः।
32. ॐ चण्डिकायै नमः।
33. ॐ विजयाराध्यायै नमः।
34. ॐ देव्यै नमः।
35. ॐ गगनवाहिन्यै नमः।
36. ॐ अट्टहास्यायै नमः।
37. ॐ करालास्यायै नमः।
38. ॐ चरास्यायै नमः।
39. ॐ अदितिपूजितायै नमः।
40. ॐ सगुणायै नमः।
41. ॐ असगुणायै नमः।
42. ॐ आराध्यायै नमः।
43. ॐ हरीन्द्रदेवपूजितायै नमः।
44. ॐ रक्तप्रियायै नमः।
45. ॐ रक्ताक्ष्यै नमः।
46. ॐ रुधिरास्यविभूषितायै नमः।
47. ॐ बलिप्रियायै नमः।
48. ॐ बलिरतायै नमः।
49. ॐ दुर्धायै नमः।
50. ॐ बलवत्यै नमः।
51. ॐ बलायै नमः।
52. ॐ बलप्रियायै नमः।
53. ॐ बलरतायै नमः।
54. ॐ बलरामप्रपूजितायै नमः।
55. ॐ ऊर्ध्वकेशेश्वर्यै नमः।
56. ॐ केशायै नमः।
57. ॐ केशवायै नमः।
58. ॐ सविभूषितायै नमः।
59. ॐ पद्ममालायै नमः।
60. ॐ पद्माक्ष्यै नमः।
61. ॐ कामाख्यायै नमः।
62. ॐ गिरिनन्दिन्यै नमः।
63. ॐ दक्षिणायै नमः।
64. ॐ दक्षायै नमः।
65. ॐ दक्षजायै नमः।
66. ॐ दक्षिणेरतायै नमः।
67. ॐ वज्रपुष्पप्रियायै नमः।
68. ॐ रक्तप्रियायै नमः।
69. ॐ कुसुमभूषितायै नमः।
70. ॐ माहेश्वर्यै नमः।
71. ॐ महादेवप्रियायै नमः।
72. ॐ पञ्चविभूषितायै नमः।
73. ॐ इडायै नमः।
74. ॐ पिङ्गलायै नमः।
75. ॐ सुषुम्णाप्राणरूपिण्यै नमः।
76. ॐ गान्धार्यै नमः।
77. ॐ पञ्चम्यै नमः।
78. ॐ पञ्चाननादिपरिपूजितायै नमः।
79. ॐ तथ्यविद्यायै नमः।
80. ॐ तथ्यरूपायै नमः।
81. ॐ तथ्यमार्गानुसारिण्यै नमः।
82. ॐ तत्त्वरूपायै नमः।
83. ॐ तत्त्वप्रियायै नमः।
84. ॐ तत्त्वज्ञानात्मिकायै नमः।
85. ॐ अनघायै नमः।
86. ॐ ताण्डवाचारसन्तुष्टायै नमः।
87. ॐ ताण्डवप्रियकारिण्यै नमः।
88. ॐ तालदानरतायै नमः।
89. ॐ क्रूरतापिन्यै नमः।
90. ॐ तरणिप्रभायै नमः।
91. ॐ त्रपायुक्तायै नमः।
92. ॐ त्रपामुक्तायै नमः।
93. ॐ तर्पितायै नमः।
94. ॐ तृप्तिकारिण्यै नमः।
95. ॐ तारुण्यभावसन्तुष्टायै नमः।
96. ॐ शक्तिभक्तानुरागिन्यै नमः।
97. ॐ शिवासक्तायै नमः।
98. ॐ शिवरत्यै नमः।
99. ॐ शिवभक्तिपरायणायै नमः।
100. ॐ ताम्रद्युत्यै नमः।
101. ॐ ताम्ररागायै नमः।
102. ॐ ताम्रपात्रप्रभोजिन्यै नमः।
103. ॐ बलभद्रप्रेमरतायै नमः।
104. ॐ बलिभुजे नमः।
105. ॐ बलिकल्पिन्यै नमः।
106. ॐ रामरूपायै नमः।
107. ॐ रामशक्त्यै नमः।
108. ॐ रामरूपानुकारिण्यै नमः।



तारा तान्त्रोक्त मन्त्रम
तारा काली कुल की महविद्या है ।
तारा महाविद्या की साधना जीवन का सौभाग्य है ।
यह महाविद्या साधक की उंगली पकडकर उसके लक्ष्य तक पहुन्चा देती है।
गुरु कृपा से यह साधना मिलती है तथा जीवन को निखार देती है ।
साधना से पहले गुरु से तारा दीक्षा लेना लाभदायक होता है ।
ज्येष्ठ मास तारा साधना का सबसे उपयुक्त समय है ।
तारा मंत्रम
॥ ऐं ऊं ह्रीं स्त्रीं हुं फ़ट ॥
मंत्र का जाप रात्रि काल में ९ से ३ बजे के बीच करना चाहिये.
यह रात्रिकालीन साधना है.
गुरुवार से प्रारंभ करें.
गुलाबी वस्त्र/आसन/कमरा रहेगा.
उत्तर या पूर्व की ओर देखते हुए जाप करें.
यथासंभव एकांत वास करें.
सवा लाख जाप का पुरश्चरण है.
ब्रह्मचर्य/सात्विक आचार व्यव्हार रखें.
किसी स्त्री का अपमान ना करें.
क्रोध और बकवास ना करें.
साधना को गोपनीय रखें.
जयेष्ट मास तारा साधना के लिए सर्वश्रेष्ट होता है.
प्रतिदिन तारा त्रैलोक्य विजय कवच का एक पाठ अवश्य करें. यह आपको निम्नलिखित ग्रंथों से प्राप्त हो जायेगा.
तारा महाविद्या साधना
तारा काली कुल की महविद्या है ।
तारा महाविद्या की साधना जीवन का सौभाग्य है ।
यह महाविद्या साधक की उंगली पकडकर उसके लक्ष्य तक पहुन्चा देती है।
गुरु कृपा से यह साधना मिलती है तथा जीवन को निखार देती है ।
साधना से पहले गुरु से तारा दीक्षा लेना लाभदायक होता है ।
ज्येष्ठ मास तारा साधना का सबसे उपयुक्त समय है
मंत्रम
॥ ऐं ऊं ह्रीं स्त्रीं हुं फ़ट ॥
मंत्र का जाप रात्रि काल में ९ से ३ बजे के बीच करना चाहिये.
यह रात्रिकालीन साधना है.
गुरुवार से प्रारंभ करें.
गुलाबी वस्त्र/आसन/कमरा रहेगा.
उत्तर या पूर्व की ओर देखते हुए जाप करें.
यथासंभव एकांत वास करें.
सवा लाख जाप का पुरश्चरण है.
ब्रह्मचर्य/सात्विक आचार व्यव्हार रखें.
किसी स्त्री का अपमान ना करें.
क्रोध और बकवास ना करें.
साधना को गोपनीय रखें.
प्रतिदिन तारा त्रैलोक्य विजय कवच का एक पाठ अवश्य करें.
तारा महाविद्या साधना....हम फिर से कह रहे है कि बिना गूरू के मत करें
तारा काली कुल की महविद्या है ।
तारा महाविद्या की साधना जीवन का सौभाग्य है ।
यह महाविद्या साधक की उंगली पकडकर उसके लक्ष्य तक पहुन्चा देती है।
गुरु कृपा से यह साधना मिलती है



आज मॉ तारा की महिमा का बखान करते है , तारा कितना मीठा नाम है जितनी बार लें मन करता है और लें मन ही नही भरता, मॉ तारा की ममता भी निराली है आज आपको मॉ तारा के प्रिय बेटे वामाखेपा के बारे मे बताते हैवामा,माँ तारा से झगड़ा करते फिर माँ को मनाते।कभी जब खुद रूठ जाते तो माँ अपने प्यारे बेटे को मनाती।ऐसा संबध है तारा माँ का अपने भक्तों से।एक बार की घटना है तारापीठ के मंदिर में मां का पूजा आरम्भ होने जा ही रहा था कि वामाखेपा मंदिर में पहुँच कर माँ का प्रसाद जो भोग के लिए रखा था खुद खाने लगे।इनके इस कृत्य को देख पंडित,पुजारी इन्हें मारने लगे,बहुत मारा उन्हें और उठाकर बाहर फेंक दिया और कहा कि फिर दिखाई मत देना मंदिर के आसपास।वामा रो रहे थे और बोल रहे थे कि "तुने ही मंदिर मे बुलाया माँ और इतना मार खाया मै।अरे भई तुम लोग मुझे इस तरह मत मारो,माँ ने मुझसे खाने को कहाँ था तभी मैं खा रहा हूँ।" इधर मार पे मार पड़ती रही,वो दर्द से चिल्लाते रहे।पागल मुर्ख कही के,अब देखते है कौन तुमको अब प्रसाद खाने को देता है,एक पुजारी कहता है।एक भक्त से रहा नहीं गया कि बेचारा बोल उठा क्यों मार रहे हो बेचारे को ब्राह्मण का लड़का है,छोड़ दो इसे।मारे नहीं तो क्या करें,इस पागल को अभी पुजा भी नहीं हुई है प्रसाद जुठा कर दिया है।यह शमशान में कुते,सियार के साथ बैठकर जुठन खाने वाला,इसे कह रहे हो क्यों मार रहे हो?ठीक कर रहे है!ये फिर मंदिर के सामने दिखाई दिया तो मार के हाथ पैर तोड़ देंगे।इधर वामाचरण आँखो के आँसू पोंछते पोंछते उठ कर दर्द से कराहते हुए श्मशान आ गये और पेड़ के नीचे लेट कर रोते रहे।नाटो की रानी सो रही थी।उन्होनें स्वप्न देखा कि तारापीठ मे माँ तारा मंदिर छोड़कर रोते रोते जा रही है।जैसे उनको बहुत दुःख हो,माँ के बदन,पीठ से खुन निकल रहा था।जैसे माँ को किसी ने बड़ी बेदर्दी से
हाथ जोड़कर रानी खड़ी हो गई और कहने लगी,माँ किस अपराध की सजा दे रही हो मां,हमे क्यों छोड़कर जा रही हो मां।फिर मां ने कहा काफी युग युगान्तर से मैं यहां काफी अच्छी और सुख शान्ति में थी लेकिन अब नहीं हूँ,तुम्हारे मंदिर में मेरे प्रिय पुत्र वामाचरण को कई लोगों ने निर्दयी होकर मारा है।वो प्रहार सब मुझ पर पड़े हैं,वो चोट मुझे लगी है।काफी दर्द हो रहा है,इसी वजह से मै और यहाँ नहीं रहूँगी चली जाऊंगी।रानी बोली एक की सजा दूसरे को क्यों माँ?मुझे अपनी गलती सुधारने का मौका दो,ताकि जिसने ये पाप किया हैं उसे सजा मिले मां!पर तुम हमें क्षमा करो मां।ठीक है पुत्री!मेरे प्रसाद को मेरे पुत्र को खिला दो,कारण चार दिन से मेरा पुत्र भूखा है और मैं भी उपवास में हूँ।रानी पड़प उठी,अरे मां!ये क्या आप चार दिन से उपवास में हैं!हां!अगर पुत्र भुखा हो तो क्या मां खा सकती है।इसीलिए मै भी भुखी हूँ।फिर अचानक रानी की नींद टूट गई।इधर मां तारा अपने पुत्र बामा को मनाने लगी।बामा पीड़ा से कराह रहे थे।मां वामाचरण के पास खुद प्रसाद लेकर आई और वामा से कहने लगी,ले बेटा प्रसाद खा ले,कितने दिनों से तुमने कुछ खाया नहीं,देख कैसी हालत हो गई है,एकदम सुख गया हैं।मां की बात सुन वामा बोले नहीं नहीं मैं नहीं खाऊंगा और मै कभी तुम्हारे मंदिर में नहीं जाऊंगा।खुद मंदिर में बुलाकर मार खिलाती हो।नहीं बेटे!उनलोगों ने तुम्हें नहीं मारा है,मुझे मारा है,ये देखो मेरे बदन में भी दाग है।मुझे भी दर्द हो रहा है,मैं भी तुम्हारी तरह भूखी हूँ।इतना सुनते वामा बोले,माँ मेरी तु भी भुखी हैं क्यों नहीं खाया तो मां बोली बेटा तुने नहीं खाया तो मैं कैसे खा सकती हूँ?इधर रानी अपनी प्रजा के साथ मंदिर आई।मंदिर में रानी आते ही सबसे पहले उस पुजारी को निकाल कर नया पुजारी रखा,फिर वामा को खोजने लगी।ढूँढते हुए रानी श्मशान में आई ,वहाँ वामा को देख क्षमायाचन
तथा सपने की सारी बात बताई।उसी समय रानी के आदेश पर मंदिर की सारी जिम्मेवारी वामाचरण को सौंप दी और बोली पहले वामा बाबा को भोग लगेगा फिर मां को भोग लगेगा तथा मंदिर की पूजा वामा अपने हिसाब से करेगें।इसके बाद क्या मजाल,कौन क्या कहे,बामा जाकर मंदिर के आसन पर बैंठ गये।कोई आचार,विचार नहीं मां को देख वामा मुस्कुरा दिये,तुम तो अन्तर्यामी हो,तुम क्या खाओगी पहले मैं ही खाऊंगा,और खुद खाने लगे,ये देख वहाँ उपस्थित लोग आश्चर्य होकर देखने लगे।खाना खाने के बाद वामा ने शुरू किया मां का पूजन करना।दोनों हाथों में जवा फूल की माला लेकर जितनी भी इच्छा हुई उतनी गाली देना शुरू किया मां को और वामा के आँखों से आँसू भी गिरते रहे ।फूल से उस आँसू को पोछते हुए अन्जली देने के उद्देश्य से देवी की मूर्ति पर फूल फेंक दिया।मंत्र के नाम पर उन्होनें सिर्फ ये कहा ये लो फूल,ये लो बेलपत्र,सारे भक्तजन लोग देखे कि वामा के द्वारा फेंके फूल एक एक कर सब आपस में मिलकर माला का रूप ले लिया फिर माँ के गले मे पहुँच गई।ऐसी प्रेममयी है तारा माँ और उनके भक्त।बामा एक बार काशी से पैदल ही तारा पीठ चल पड़े,कारण पैसा भी नहीं था।उनके सामने जो रास्ता मिला उसी रास्ते से आगे बढते रहे,दिन भर चलते जहां रात होती वही किसी पेड़ के निचे सो जाते फिर प्रातःचलने लगते।लगातार कई दिन भूखे प्यासे चलते रहे,बाद में थक गये थे तथा कमजोरी के कारण चल भी नही पा रहे थे।थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गये फिर एक यात्री से पूछा ये कौन सी जगह हैं भाई,पर इन्हें पागल समझ लोग मुँह फेर चले जाते,थके तो थे ही फिर हार कर बोलने लगे हे माँ तारा ये कौन सी जगह ले आई हो माँ।अचानक एक आवाज आई तुम कहाँ जाओगे।नारी की आवाज सुन रास्ते के दुसरी तरफ देखा काले कपड़े पहनी हुई एक कुमारी कन्या खड़ी है,काफी सुन्दर घने बालों वाली कन्या थी तथा पाँवो मे आलता लगा हुआं था।वामा आवाक 



देवी काली तथा तारा में समानतायें।
देवी काली ही, नील वर्ण धारण करने के कारण तारा नाम से जानी जाती हैं तथा दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। जैसे दोनों शिव रूपी शव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये हुए आरूढ़ हैं, दोनों का निवास स्थान श्मशान भूमि हैं, दोनों देविओ की जिह्वा मुँह से बाहर हैं, दोनों रक्त प्रिया हैं, भयानक तथा डरावने स्वरूप वाली हैं, भूत-प्रेतों से सम्बंधित हैं, दोनों देविओ का वर्ण गहरे रंग काहैं एक गहरे काले वर्ण की हैं तथा दूसरी गहरे नील वर्ण की। दोनों देवियाँ नग्न विचरण करने वाली हैं, कही कही देवी काली कटे हुई हाथों की करधनी धारण करती हैं, नर मुंडो की माला धारण करती हैं तो देवी तारा व्यग्र चर्म धारण करती हैं तथा नर खप्परों की माला धारण करती हैं। दोनों की साधना तंत्रानुसार पंच-मकार विधि से की जाती हैं, सामान्यतः दोनों एक ही हैं इनमें बहुत काम भिन्नताएं दिखते हैं। दोनों देविओ का वर्णन शास्त्रानुसार शिव पत्नी के रूप में किया गया हैं तथा दोनों के नाम भी एक जैसे ही हैं जैसे, हर-वल्लभा, हर-प्रिया, हर-पत्नी इत्यादि, 'हर' भगवान शिव का एक नाम हैं। परन्तु देवी तार ने ही, भगवान शिव को बालक रूप में परिवर्तित कर, अपना स्तन दुग्ध पान कराया था। समुद्र मंथन के समय, कालकूट विष का पान करने के परिणाम स्वरूप, भगवान शिव के शरीर में जलन होने लगी तथा वो तड़पने लगे, देवी ने उन के शारीरिक कष्ट को शांत करने हेतु अपने अमृतमय स्तन दुग्ध पान कराया। देवी काली के सामान ही देवी तारा का सम्बन्ध निम्न तत्वों से हैं।
श्मशान वासिनी या वासी :तामसिक, विध्वंसक प्रवृत्ति से सम्बंधित रखने वाले देवी देवता, मुख्यतः श्मशान भूमि में वास करते हैं। व्यवहारिक दृष्टि से श्मशान वो स्थान हैं, जहाँ शव के दाह का कार्य होता हैं। परन्तु आध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टि से श्मशान का अभिप्राय कुछ और ही हैं, ये वो स्थान हैं, जहाँ पंच या पञ्च महाभूत, चिद-ब्रह्म में विलीन होते हैं। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि इन महा भूतो से, संसार के समस्त जीवो के देह का निर्माण होता हैं, तथा शरीर या देह इन्हीं पंच महाभूतों का मिश्रण हैं। श्मशान वो स्थान हैं जहाँ, पांचो भूतो के मिश्रण से निर्मित देह, अपने अपने तत्व में मिल जाते हैं। तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, श्मशान भूमि को इसी कारण वश अपना निवास स्थान बनाते हैं। देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं, इसका एक और महत्त्वपूर्ण कारण हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान विकार रहित ह्रदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। मानव देह कई प्रकार के विकारो का स्थान हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि, अतः देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं जहाँ इन विकारो या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं। तथा मन या ह्रदय वो स्थान हैं जहाँ इन समस्त विकारो का दाह होता हैं अतः देवी काली अपने उपासको के विकार शून्य ह्रदय पर ही वास करती हैं।
चिता : मृत देह के दाह संस्कार हेतु, लकड़ियों के ढेर के ऊपर शव को रख कर जला देना, चिता कहलाता हैं। साधक को अपने श्मशान रूपी ह्रदय में सर्वदा ज्ञान रूपी अग्नि जलाये रखना चाहिए, ताकि अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया जा सके।
देवी का आसन : देवी शव रूपी शिव पर विराजमान हैं या कहे तो शव को अपना आसन बनाती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप ही शव में चैतन्य का संचार होता हैं। बिना शक्ति के शिव, शव के ही सामान हैं, चैतन्य हीन हैं। देवी की कृपा लाभ से ही, देह पर प्राण रहते हैं।
करालवदना या घोररूपा : देवी काली का वर्ण घनघोर या अत्यंत काला हैं तथा स्वरूप से भयंकर तथा डरावना हैं। परन्तु देवी के साधक या देवी जिन के ह्रदय में स्थित हैं, उन्हें डरने के आवश्यकता नहीं हैं, स्वयं काल या यम भी देवी से भय-भीत रहते हैं।
पीनपयोधरा : देवी काली के स्तन बड़े तथा उन्नत हैं, यहाँ तात्पर्य हैं कि देवी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से तीनो लोको का पालन करती हैं। अपने अमृतमय दुग्ध को आहार रूप में दे कर देवी अपने साधक को कृतार्थ करती हैं।
प्रकटितरदना : देवी काली के विकराल दन्त पंक्ति बहार निकले हुए हैं तथा उन दाँतो से उन्होंने अपने जिह्वा को दबा रखा हैं। यहाँ देवी रजो तथा तमो गुण रूपी जिह्वा को, सत्व गुण के प्रतिक उज्वल दाँतो से दबाये हुऐ हैं। मुक्तकेशी : देवी के बाल, घनघोर काले बादलो की तरह बिखरे हुए हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई भयंकर आँधी आने वाली हो।



तारा
भगवती कालीको ही नीलरूपा होनेके कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तरसे
तारा नामका रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देनेवाली, तारनेवाली हैं,
इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है। महाविद्याओँ में ये द्वितीय स्थानपर
परिगणित हैं। अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये
इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं। भयंकर विपप्तियों से भक्तों की रक्षा
करती हैं। इसलिये उग्रतारा हैं। बृहन्नील-तन्त्र ादि ग्रन्थों में भगवती
ताराके स्वरूप की विशेष चर्चा है। हयग्रीवका वध करने के लिये इन्हें
नील-विग्रह प्राप्त हुआ था। ये शवरूप शिवरूप प्रत्यालीढ़ मुद्रा में
आरुढ़ हैं। भगवती तारा नीलवर्णवाली,नील कमलों के समान तीन नेत्रोंवाली
तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करनेवाली हैं। ये
व्याघ्रचर्मसे विभूषिता तथा कण्ठ में मुण्डमाला धारण करने वाली हैं।
शत्रुनाश, वाक्-शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिये
तारा अथवा उग्रतारा की साधना की जाती है। रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति
तारा महाविद्याओं में अद्भुत प्रभाववाली और सिद्ध की अधिष्ठाती देवी कहीं
गयी है। भगवती ताराके तीन रूप हैं।–तारा, एकजटा और नील सरस्वती। तीनों
रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं, किन्तु भिन्न
भिन्न होते हुए सबकी शक्ति समान और एक है। भगवती ताराकी उपासना मुख्यरूप
से तन्त्रोक्त पद्धतियों से होती हैं, जिसे आगमोक्त पद्धति भी कहते हैं।
इनकी उपासना से समान्य व्यक्ति भी बृहस्पति के समान विद्वान हो जाते है।
भारतमें सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने ताराकी अराधना की थी। इसलिये ताराको
वसिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले भगवती ताराकी आराधना
वैदिक रीतिसे करनी प्रारम्भ की, जो सफल न हो सकी। इन्हें अदृश्य शक्ति से
संकेत मिला कि वे तान्त्रिक-पद्धत िके द्वारा जिसे ‘चिनाचारा’ कहा जाता
है, उपासना करें। जब वसिष्ठ ने तान्त्रिक पद्धति का आश्रय लिया, तब
उन्हें सिद्ध प्राप्त हुई। यह कथा ‘आचार’ तन्त्र में वसिष्ट मुनि की
आराधना उपाख्या में वर्णित है। इससे यह सिद्ध होता है कि पहले चीन,
तिब्बत, लद्दाख आदि में ताराकी उपासना प्रचलित थी।
ताराका प्रादुर्भाव, मेरू-पर्वतके, पश्चिम भाग में चोलना’ नामकी नदीके या
चोलन सरोवरके तटपर हुआ था, जैसा कि स्वतन्त्रतन्त्र में वर्णित है-
मेरोः पश्र्चिमकूले नु चोत्रताख्यों हृदो महान्।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती।।
‘महाकाल-संहिता के काम कलाखण्ड में तारा-रहस्य वर्णित है, जिसमें
तारारात्रिमें ताराकी उपासनाका विशेष महत्त्व है। चैत्र-शुक्ल नवमी की
रात्रि ‘तारारात्रि’ कहलाती है-
चैत्रे मासि नवम्यां तु शुक्लपक्षे तु भूपते। क्रोधरात्रिर्मह ेशानि
तारारूपा भविष्यति।। (पुरश्चर्यार्णव भाग-3)
बिहार के सहरसा जिले में प्रसिद्ध ‘महिषी’ ग्राम में उग्रतारा का
सिद्धपीठ विद्यमान है। वहाँ तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वती की तीनों
मूर्तियाँ एक साथ हैं। मध्य में बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी
मूर्तियाँ हैं। कहा जाता है कि महर्षि वसिष्ठ ने यहीं ताराकी उपासना करके
सिद्ध प्राप्त की थी। तन्त्रशास्त्रके प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘महाकाल’-संहिता
के गुह्य-काली खण्ड में महाविद्याओं की उपासनाका विस्तृत वर्णन हैं, उनके
अनुसार ताराका रहस्य अत्यन्त चमत्कारजनक हैं।



द्वितिय महाशक्ति मां तारा ...
ब्रह्मबेला के पहले मां महाकाली की सत्ता बताइ गई है इसके अनन्तर और सुर्य के पुर्व तक तारा का साम्राज्य होता है हिरण्यगर्भ विद्या के अनुसार निगम शास्त्र ने सम्पुर्ण सृष्टी की संरचना का आधार सुर्य को माना है असंख्य ब्रह्माण्ड है और असंख्य सुर्य इन सब का आधार जो परम सुर्य तत्व है वह सावित्री शक्ति है इसि के तप से समस्त सुर्य मन्डल आग्नेय है आग्नेय होने से सुर्य हिरण्मय कहलाते है क्योंकी अग्नि ही हिरण्यरेता है हिरण्यमंडल के एक नाभिक पर सुर्य प्रतिष्ठित हुआ अपने ब्रह्माण्ड के समस्त पिण्डो को धारण किये रहता है ब्रह्माण्ड को धारण करने से यह ब्रह्म है और हिरण्मय मण्डल को धारण करने से यह हिरण्यगर्भ कहा जाता है भ
भु: भुव: स्व: रुपरोदसी त्रिलोकी के निर्माता और अधिष्ठाता स्वयंभु परमेष्ठी,सुक्ष्मरुपा अमृतासृष्टी पृथ्वी चन्द्रमा सहित गृह उपगृहादि मृत्यासृष्टी के विभाजक एवं संचालक विश्वकेन्द्र में प्रतिष्ठित इन भगवान हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव जब विकल्प से होने लगता है तब अनुपाख्य तम का ह्रास होने लगता है तथा महाकाली रुप का रुपान्तरण तारा शक्ति में हो जाता है इस प्रकार हिरण्यगर्भ परमपुरुष की अधिष्ठात्री शक्ति तारा है यह पुरुष क्षोभरहित है अत:अक्षोभ्य कहा जाता है वेदों के तात्विक समनव्य से जिस आपस्तत्व की उत्पत्ति पहले बताई जा चुकी है उससे समस्त विश्व व्याप्त हो जाता है और समस्त विश्व एक महासमुद्र बन जाता है इस आपोमय पारमेष्ठय महासमुद्र में घर्षण द्वारा आग्नेय परमाणु उत्पन्न हो जाते है तदनन्तर सफेदवाराह नामक प्रसिद्ध प्रजापतये वायु द्वारा परमाणु समुदाय के कैन्दो मे संघात होता है संघात होते होते आग्नेय परमाणु समुदाय घनिभूत हो पिण्ड रुप में परिणत हो जाते है इनका घनिकरण सहसा एक नही जाता है वरन तिव्रतर आकुंचन होता जाता है इस तिव्रतम आकुंचन से पिण्डमें अत्याधिक दबाव और तापक्रम उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरुप वे पिण्ड प्रज्वलित हो उठते है और विराट सुर्य का रुप धारण कर लेते है इस काल में ये अत्यन्त उग्र होते है और अन्न की ईच्छा से इनमें से बडी बडी रुद्राग्नि ज्वालाऐं निकलती है इस उग्र सुर्य की शक्ति ही उग्रतारा नाम से प्रसिद्ध है
सृष्टयोन्मुखी हुये सुर्य में वैष्णवी शक्ति अथवा पराशक्ति अपने यग्य रुप विष्णु स्वरुप से अनाहुति करती है सुर्य का कुछ प्रवर्गय भाग अलग हो हो कर अनेक शुद्र सुर्य और ग्रह उपग्रहादि का निर्माण कर अनेकानेक ब्रह्मान्ड की उत्पत्ति कर देते है उक्त अन्नाहुति से उग्रतारा शांत होती है और तारा रुप से जगत का उद्धार करती रहती है इसि तारक शक्ति के सामन्जस्य से भगवान राम तारक ब्रह्म है जब तक अन्नाहुति होती रहती है तब तक तारा शान्त बनी रहती है अन्नाभाव में वही उग्ररुप धारण कर संसार को भस्म कर डालती है और पुर्ण शुन्यभाव में महाकाली की पुन: प्रतिष्ठा होती है महाकाली महाप्रलय की अधिष्ठात्री है और उग्रतारा सुर्य प्रलय की ,प्रलय करना दोनो का ही समान गुणधर्म है इसलिये दोनो के ध्यान में थोडा सा ही अन्तर रहता है.!!!

Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.

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