तदनंतर, 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर द्वारा देवी आदि शक्ति की स्तुति की गई, जिस से प्रसन्न हो कर, आदि शक्ति ने 'ब्रह्मा जी' को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार रूपी दाइत्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। तत्पश्चात्, 'ब्रह्मा जी' द्वारा आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि, अभी चारो ओर जल ही जल फैला हुआ हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन्मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं, वे तीनो देव शक्ति हीन हैं। देवी ने मुस्कुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनो देवताओ को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनो देवो के विमान पर आसीन होने पर, देवी विमान आकाश में उड़ने लगा।
मन के वेग के समान वो दिव्य तथा सुन्दर विमान, उड़ कर जिस स्थान पर पंहुचा, वहाँ जल नहीं था, इससे तीनो को महान आश्चर्य हुआ तथा उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देख कर उन तीनो महा देवो को लगा की वो स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात्, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया, तथा एक ऐसे स्थान पर गया, जहाँ, ऐरावत हाथी और मेनका आदि अप्सराओ के समूह नृत्य प्रदर्शित कर रही थी, सेकड़ो गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ दृष्टि-गोचर हो रहे थे। वहाँ पर कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनो को महान आश्चर्य हुआ। तदनंतर तीनो देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बड़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित 'ब्रह्मा जी' को विद्यमान देख, सभी विस्मय पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने 'ब्रह्मा' से पूछा, ये 'ब्रह्मा' कौन हैं ? 'ब्रह्मा जी' ने उत्तर दिया, मैं इन्हें नहीं जनता हूँ मैं स्वयं भ्रमित हूँ। तदनंतर वो विमान, कैलाश पर्वत पर पंहुचा, वहां तीनो ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओ वाले शंकर जी को देखा। जो व्यग्र चर्म पहने हुए थे तथा गणेश तथा कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, तथा वे तीनो पुनः अत्यंत विस्मय में पड़ गये। तदनंतर उनका विमान कैलाश से भगवान् विष्णु के वैकुण्ठ लोक में जा पंहुचा। पक्षि-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारो से अलंकृत भगवान् विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ तथा सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वो विमान वायु की गति से चलने लगा तथा एक सागर के तट पर पंहुचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था तथा नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओ से सुसज्जित था, तथा रत्नामलाओ, विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्तपुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण किया हुआ था। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को दृष्टि-गोचर हुई, जो करोडो उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। उन भगवती भुवनेश्वरी को देख, त्रि-देव आश्चर्य चकित और स्तब्ध रह गए तथा सोचने लगे ये देवी कौन हैं। 'ब्रह्मा', विष्णु तथा महेश सोचने लगे की, न तो ये अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना, ये सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उन सुन्दर हास्वली हृल्लेखा देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा 'ब्रह्मा जी' से कहा; ये साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं, तथा हम सब तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। ये महाविद्या शाश्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, सबकी आदि स्वरूप ईश्वरी हैं तथा इन योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। ये मूल प्रकृति स्वरूप भगवती महामाया, परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सन्मुख उसे उपस्थित करती हैं। तदनंतर तीनो देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त, देवी के चरणों के निकट गए। जैसे ही 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर, विमान से उतर कर देवी के सन्मुख जाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्रीरूप में परिणीत कर दिया तथा वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र धारण किये हुए थे। वे तीनो देवी के सन्मुख जा खड़े हो गए तथा देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में सेवारत थी। तदनंतर, तीनो देवो ने देवी के चरण-कमल के नख में, सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा, समस्त देवता, 'ब्रह्मा', विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सराये, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेवो ये समझ गए की ये देवी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
मन के वेग के समान वो दिव्य तथा सुन्दर विमान, उड़ कर जिस स्थान पर पंहुचा, वहाँ जल नहीं था, इससे तीनो को महान आश्चर्य हुआ तथा उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देख कर उन तीनो महा देवो को लगा की वो स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात्, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया, तथा एक ऐसे स्थान पर गया, जहाँ, ऐरावत हाथी और मेनका आदि अप्सराओ के समूह नृत्य प्रदर्शित कर रही थी, सेकड़ो गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ दृष्टि-गोचर हो रहे थे। वहाँ पर कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनो को महान आश्चर्य हुआ। तदनंतर तीनो देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बड़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित 'ब्रह्मा जी' को विद्यमान देख, सभी विस्मय पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने 'ब्रह्मा' से पूछा, ये 'ब्रह्मा' कौन हैं ? 'ब्रह्मा जी' ने उत्तर दिया, मैं इन्हें नहीं जनता हूँ मैं स्वयं भ्रमित हूँ। तदनंतर वो विमान, कैलाश पर्वत पर पंहुचा, वहां तीनो ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओ वाले शंकर जी को देखा। जो व्यग्र चर्म पहने हुए थे तथा गणेश तथा कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, तथा वे तीनो पुनः अत्यंत विस्मय में पड़ गये। तदनंतर उनका विमान कैलाश से भगवान् विष्णु के वैकुण्ठ लोक में जा पंहुचा। पक्षि-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारो से अलंकृत भगवान् विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ तथा सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वो विमान वायु की गति से चलने लगा तथा एक सागर के तट पर पंहुचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था तथा नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओ से सुसज्जित था, तथा रत्नामलाओ, विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्तपुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण किया हुआ था। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को दृष्टि-गोचर हुई, जो करोडो उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। उन भगवती भुवनेश्वरी को देख, त्रि-देव आश्चर्य चकित और स्तब्ध रह गए तथा सोचने लगे ये देवी कौन हैं। 'ब्रह्मा', विष्णु तथा महेश सोचने लगे की, न तो ये अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना, ये सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उन सुन्दर हास्वली हृल्लेखा देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा 'ब्रह्मा जी' से कहा; ये साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं, तथा हम सब तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। ये महाविद्या शाश्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, सबकी आदि स्वरूप ईश्वरी हैं तथा इन योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। ये मूल प्रकृति स्वरूप भगवती महामाया, परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सन्मुख उसे उपस्थित करती हैं। तदनंतर तीनो देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त, देवी के चरणों के निकट गए। जैसे ही 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर, विमान से उतर कर देवी के सन्मुख जाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्रीरूप में परिणीत कर दिया तथा वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र धारण किये हुए थे। वे तीनो देवी के सन्मुख जा खड़े हो गए तथा देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में सेवारत थी। तदनंतर, तीनो देवो ने देवी के चरण-कमल के नख में, सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा, समस्त देवता, 'ब्रह्मा', विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सराये, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेवो ये समझ गए की ये देवी, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.