Saturday, 30 March 2019

दशा माता,, का व्रत,,कथा


दशा माता,, का व्रत,,कथा,, मनुष्य या किसी भी वस्तु की स्थिति का परिवर्तन अलौकिक शक्ति के द्वारा होता है। 
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 उस अलौकिक शक्ति का नाम है दशारानी । मनुष्य की दशा अनुकूल होने पर उसका चारों ओर से कल्याण होता है। जबकि यदि दशा प्रतिकूल हो तो अच्छ काम भी बुरा प्रभाव देने लगते हैं ।
इसीलिये दशारानी माता की पूजा की जाती है और उनके नाम के गँडे लिये जाते हैं । दशा माता की अनुकूलता के लिये दशारानी का व्रत और पूजन किया जाता है।
कब लें दशा माता,, के गंडे
जब तुलसी का वृक्ष स्वयं निकल आये यानी तुलसी का ऐसा वृक्ष जो एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह न लगाया हुआ हो, वरन् जहाँ उगे वही हो, बाल निकले; गाय पहला बछड़ा जने; पहलौठी घोड़ी के बछेड़ा हो; स्त्री की प्रथम संतान बालक हो; तो इस तरह के सुखद समाचार पाकर दशारानी के व्रत का संकल्प लिया जाता है। किंतु इसमें ध्यान देने योग्य बातें यह है कि पैदा हुए बच्चे अच्छी घड़ी में हुए हों। ऐसी स्थिति में दशा रानी का गंडा लिया जाता है।
नौ सूत कच्चे धागे के और एक सूत व्रत रखने वाली के आंचल के, इन दस सूतों का एक गंडा बनाकर उसमें गाँठ लगाई जाती है । दिन भर व्रत रहने के बाद शाम को गंडे की पूजा होती है । नौ व्रत तक तो शाम को पूजा होती है, परंतु दसवें व्रत मे जब पूजा होती है, तो मध्याह्न के पूर्व ही होती है । जिस दिन दशा रानी का व्रत हो, उस दिन जब तक पूजा न हो जाय, किसी को कोई वस्तु, यहाँ तक कि आग भी, नहीं दी जाती । पूजा के पहले उस दिन किसी का स्वागत भी नहीं किया जाता ।
एक नोक वाले पान पर चन्दन से दशा रानी की प्रतिमा बनाई जाती है।
जमीन में चौक पूरकर उस पर पटा रखकर उस पर पान रक्खा जाता है। पान के ऊपर गंडे को दूध में डुबाकर रख दिया जाता है। उसी की हल्दी और अक्षर से पूजा होती है और घी, गुड़, बताशा आदि का भोग लगता है। हवन के अन्त में कथा कही जाती है। कथा हो चुकने पर पूजा की सामग्री को गीली मिट्टी के पिंड में रखकर मौन होकर व्रतवाली भेंटती है, फिर आप ही उसे कुँआ या तालाब आदि जलाशय में सिराकर तब पारणकरती है। पारण करते समय किसी से बोलना वर्जित है। जितना पारण सामने परोस लें, उसमें से कुछ छोड़ना भी नहीं चाहिये । थाली धोकर पी लेना चाहिये।
पूजन सामग्री:
नोक वाला पान ∗ चंदन ∗ हल्दी ∗ अक्षत ∗ लकड़ी का पटरा ∗ गुड़ ∗ घी ∗ वताशा ∗ हवन के लिये:- ∗ आम की लकड़ी ∗ हवन सामग्री
दशा माता ,, पूजन विधि
जब भी कोई अच्छी खबर मिले तब दशारानी के गंडे लिये जाते हैं। खबर सुनने के बाद घर आकर नौ सूत कच्चे धागे के और एक सूत जिसे व्रत रखना है उसके आंचल के लेकर, इन दस सूतों का एक गंडा बनाकर गाँठ लगायें। दिन भर व्रत रहने के बाद शाम को गंडे की पूजा करें।। नौ दिनों तक पूरे दिन व्रत करें और शाम को पूजा करके कथा सुने अथवा सुनायें। प्रत्येक दिन एक-एक कथा कहे या सुने। दसवें दिन सुबह उठक्र नित्य कर्म कर सर से स्नान करें। घर को स्वच्छ कर लें । पूजा के स्थान पर चौक (अल्पना) बनायें। चौक पर एक लकड़ी का पटरा रखें। एक नोक वाले पान पर चंदन से दशारानी का चित्र बनायें। इस पान को पटरे पर रखें । गंडे को दूध मेंडुबाकर पान के ऊपर रख दें। हल्दी, अक्षत से गंडे की पूजा करें। घी,गुड़, बताशा का भोग लगायें। उसके बाद हवन करें। हवन के बाद पहली कथा फिर से कहें। कथा कहने के बाद पूजन की सामग्री को गीली मिट्टी के पिंड में रखकर मौन होकर व्रत रखनेवाली मिलायें। उसके बाद किशी जलाशय या तालाब में जाकर सिराये (जल में प्रवाहित करें)। उसके बाद घर आकर पारण करे। पारण के लिये जितना अन्न लें सब खा लें, थाली में कुछ भी नहीं बचना चाहिये। पारण के वक्त मौन रहें ।थाली धोकर पी लें।
जिस दिन दशा रानी का व्रत हो, उस दिन जब तक पूजा न हो जाय, किसी को कोई वस्तु, यहाँ तक कि आग भी, नहीं दी जाती । पूजा के पहले उस दिन किसी का स्वागत भी नहीं किया जाता ।
दशा माता .. कथा प्रारम्भ
एक घर मे कोई सास-बहू थी । सास का लड़का – बहू का पति परदेश गया हुआ था । एक दिन सास ने बहू से कहा- “जा गाँव में से आग ला और भोजन बनाकर तैयार कर ले ।” बहू गाँव में आग लेने गई , तो किसी ने उसको आग न दी, और कहा- “जब तक दशारानी की पूजा न हो जायगी, आग न मिलेगी। ” बहू बेचारी खाली हाथ घर आई । सास ने पूछा- “क्यों ? आग नहीं लाई ? ” तब बहू ने कण्डा सास के सामने पटक दिया और कहा- “गाँव भर में पूजन-व्रत सब कुछ होता है; तुमको इसकी खबर नहीं होती । आज गाँव भर में दशारानी की पूजा है, कोई आग- बाग तो दे क्यों, किसी ने यह भी नहीं पूछा कि कौन है ? कहाँ से आई है ? ” सास बोली –“अच्छा, शाम को देखूँगी, कैसी पूजा है , क्या बात है ।”
शाम को सास आग लेने के लिये गाँव में गई, तब स्त्रियोंने उसे स्वागत-पूर्वक बिठाया और कहा- “सवेरे तेरी बहू आई थी; परंतु हमारे यहाँ पूजा नहीं हुई थी, इसी कारण आग नहीं दे सकी, क्षमा करना ।” सास ने आग के अतिरिक्त जिससे जो चीज चाही , सभी ने खुशी से दी।
सास आग लेकर अपने घर के दरवाजे तक पहुँची थी कि एक व्यक्ति बछवा लिये आया और उसके पीछे ब्याई कलोरी गाय आती दिखाई दी उस स्त्री ने उससे पूछा- “क्या यह गाय पहलौठी ब्याई है ? ” आदमी ने कहा- “हाँ ” उसने फिर पूछा – “ बछवा है या बछिया ? ” आदमी ने जवाब दिया –“बछवा है ।” सास ने घर में जाकर बहू से कहा- “आओ, हम-तुम भी दशा रानी के गंडे लेवे और व्रत रहें । ” दोनों ने गंडे लिये । सवेरे से व्रत आरम्भ किया । नौ व्रत पूरे हो चुकने के बाद दसवें दिन गंडे की पूजा होनी थी । सास-बहू दोनों ने मिलकर गोल-गोले बेले हुये दस – दस अर्थात् बीस फरे बनाये । इक्कीसवाँ एक बड़ा फरा गाय को दिया । पूजन के बाद सास- बहू दोनों पारण करने बैठी ।
दशा माता,, कथा
उसी समय बुढ़िया का लड़का परदेश से आ गया। उसने दरवाजे से आवाज लगाई । सुनकर माँ ने मन में कहा-“क्या हरज हैं , उसे जरा बाहर ठहरने दो, मैं पारण कर लूँगी, तब किवाड़ खोलूँगी ।’ परन्तु बहू को रुकने का सब्र नहीं हुआ । अपनी थाली का अन्न इधर-उधर करके झट से पानी पीकर उठ खड़ी हुई । उसने जाकर किवाड़ खोले । पति ने उससे पूछा- “माता कहाँ है ? स्त्री ने कहा- “वह तो अभी पारण कर रही है । ” तब पति बोला- “मैं तेरे हाथ का जल अभी नहीं पिऊँगा, मैं बारह बरस में आया हूँ, इतने दिनों तक न जाने तू कैसी रही होगी । माता आयेगी, वह जल लायेगी, तब जल पिऊँगा । यह सुनकर स्त्री चुपचाप बैठी रही ।
माता पारण करने के बाद जब अपनी थाली धोकर पी चुकी, तब वह लड़के के पास गई। लड़के ने माँ के पैर छुए । माता उसे आशीर्वाद देती हुई घर के भीतर लिवा ले गई । माता ने थाली परोसकर रक्खी । बेटा भोजन करने बैठ गया । उसने हाथ में प्रथम ग्रास लिया और फेरों के वे टुकड़े जो बहू ने अपनी थाली से फेंक दिये थे, आपसे आप उचककर उसके सामने आने लगे । उस ने माँ से पूछा- “ यह सब क्या तमाशा है ? ” माँ बोली- “मैं क्या जानूँ, बहू जाने ।” यह सुनते ही लड़का आग-बबूला हो गया । वह बोला-“ऐसी बहू किस काम की, जिसके चरित्र की तू साक्षी नहीं है । इसको अभी निकाल बाहर करो । यदि यह घर में रहेगी, तो मैं घर में न रहूँगा।”

माता ने पुत्र को व्रत-पारण का सब हाल बताकर हर तरह से समझाया; परन्तु उसने एक बात न मानी। वह यही कहता रहा कि इसे निकाल बाहर करो, तभी मै घर में रहूँगा । माँ ने सोचा , बहू को थोड़ी देर के लिये बाहर कर देती हूँ , इतने में लड़के का गुस्सा शांत पड़ जायेगा । इसकी बात रह जायेगी, तब फिर इसे घर में बुला लूँगी । उसने बहू से कहा- “देहरी के बाहर जाकर ओसारे के नीचे खड़ी होना ।” जब बहू ओसारे के नीचे खड़ी हुई, तो ओसारा बोला- “मुझे इतना भार छानी-छप्पर का नहीं है , जितना तेरा है ; दशारानी के विरोधी को मैं छाया नहीं दे सकता ।” तब वह वहाँ से चलकर घिरौंची (दरवाजे) के पास गई । घिरौंची बोली- “ मुझसे हटकर खड़ी हो, मुझे इतना भार घरों का नहीं है, जितना तेरा है ।” वह वहाँ से भी हटकर घूरे पर जाकर खड़ी हुई । तब घूरा बोल- “मुझे इतना भार सब कूड़े का नहीं है, जितना तेरा है ; चल हटकर खड़ी हो ।” इसी तरह वह जहाँ कहीं जाती, वहीं से हटाई जाती थी । इस कारण वह अपने जी में अत्यंतदुखी होकर जंगल को चली गई ।
दशा माता ,, कथा
जंगल में भूखी-प्यासी फिरती- फिरती एक अंधकूप में गिर पड़ी । गिरी परंतु उसे कोई चोट नहीं आई । वह नीचे जाकर बैठ गई । उसी समय किसी नगर का राजा नल उसी जंगल में शिकार खेलने के लिये गये थे । उनके साथ के सब लोग बिछुड़ गये थे । वह प्यास के मारे भटकते हुये उसी कुँए के पास पहुँचे, जिसमें वह स्त्री गिरी हुई थी। राजा के सारथि ने लोटा कुँए में डाला, तो स्त्री ने उस लोटे को पकड़ लिया । तब सारथि ने राजा से कहा- “इस कुँए में तो किसी ने लोटा पकड़ रक्खा है ।” तब राजा ने कुँए की जगत पर जाकर कहा- “भाई ! पुरुष है तो मेरा धर्म भाई है, और स्त्री है तो धर्म की बहन है । तुम जो भी हो, बोलो । मैं तुमको ऊपर निकाल लूँगा ।” स्त्री ने आवाज दी । इस पर राजा ने उसे कुएँ से बाहर निकलवा लिया और अपने साथ हाथी पर बैठाकर अपनी राजधानी में ले आये ।
महाराज शिकार से लौटकर महल की ओर आ रहे थे, तब तक धावनी ने महारानी के पास जाकर खबर दी कि महाराज आ रहे हैं और एक रानी भी साथ ला रहे हैं । रानी अपने मन में बड़ी दुखी हुई । वह सोच ही रही थी कि अब सौत से कैसे निभेगी। इसी सोच में महाराज सामने आ पहुँचे। तब रानी ने हाथ जोड़कर विनय की- “ महाराज ! मुझसे ऐसी क्या बात न बन पड़ी, जो आप मेरे रहते दूसरा विवाह कर लाये हैं ।” उसपर राजा ने हँस कर उत्तर दिया- “वह जो आई है, तुम्हारी सौत नहीं, ननद है । तुमको उसके साथ मेरी सगी बहन-जैसा बर्ताव करना चाहिये ।” यह सुनते हीं रानी का मुँह प्रसन्नता से कमल की तरह खिल उठा । उसने स्वत: कहा- “अब-तक मैं ननद का सुख नहीं जानती थी, अच्छा हुआ जो भाग्य से ननद आ गई । ” राजा ने उसका नाम मुँहबोली बहन रक्खा और उस के लिये एक अलग महल बनवा दिया । उसी में वह आनंद से रहने लगी । इसी प्रकार बहुत दिन बीत गये ।
1 यह व्रत  दशमी तिथि को किया जाता है।
2 सुहागिन महिलाएं यह व्रत अपने घर की दशा सुधारने के लिए करती हैं।
3 इस दिन कच्चे सूत का 10 तार का डोरा, जिसमें 10 गठानें लगाते हैं, लेकर पीपल की पूजा करती हैं।
4 इस डोरे की पूजन करने के बाद पूजनस्थल पर नल-दमयंती की कथा सुनती हैं।
5 इसके बाद डोरे को गले में बांधती हैं।
6 पूजन के पश्चात महिलाएं अपने घरों पर हल्दी एवं कुमकुम के छापे लगाती हैं।
7 एक ही प्रकार का अन्न एक समय खाती हैं।
8 भोजन में नमक नहीं होना चाहिए।
9. विशेष रूप से अन्न में गेहूं का ही उपयोग करते हैं।
10 घर की साफ-सफाई करके घरेलू जरूरत के सामान के साथ-साथ झाडू इत्यादि भी खरीदेंगी।
11 यह व्रत जीवनभर किया जाता है और इसका उद्यापन नहीं होता है
श्री दशा माता की ..आरती
जय सत-चित्त आनंद दाता की |भय भंजनि अरु दशा सुधारिणी |
पाप -ताप-कलि कलुष विदारणी|शुभ्र लोक में सदा विहारणी |
जय पालिनी दिन जनन की |आरती श्री दशा माता की ||
अखिल विश्व- आनंद विधायिनी |मंगलमयी सुमंगल दायिनी |
जय पावन प्रेम प्रदायिनी |अमिय-राग-रस रंगरली की |
आरती श्री दशा माता की ||नित्यानंद भयो आह्लादिनी |
आनंद घन आनंद प्रसाधिनी|रसमयि रसमय मन- उन्मादिनी |
सरस कमलिनी विष्णुआली की |आरती श्री दशा माता की |
|!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

दशा माता व्रत,,दशामाता की महिमा बहुत ही निराली है आरती श्री दशा माता की

दशा माता व्रत,,दशामाता की महिमा बहुत ही निराली है । 
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 दशामाता व्रत की पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में राजा नल और दमयंती रानी सुखपूर्वक राज्य करते थे। उनके दो पु‍त्र थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी और संपन्न थी। एक दिन की बात है कि उस दिन होली दसा थी। एक ब्राह्मणी राजमहल में आई और रानी से कहा- दशा का डोरा ले लो। बीच में दासी बोली- हां रानी साहिबा, आज के दिन सभी सुहागिन महिलाएं दशा माता की पूजन और व्रत करती हैं तथा इस डोरे की पूजा करके गले में बांधती हैं जिससे अपने घर में सुख-समृद्धि आती है। अत: रानी ने ब्राह्मणी से डोरा ले लिया और विधि अनुसार पूजन करके गले में बांध दिया। 
               कुछ दिनों के बाद राजा नल ने दमयंती के गले में डोरा बंधा हुआ देखा। राजा ने पूछा- इतने सोने के गहने पहनने के बाद भी आपने यह डोरा क्यों पहना? रानी कुछ कहती, इसके पहले ही राजा ने डोरे को तोड़कर जमीन पर फेंक दिया। रानी ने उस डोरे को जमीन से उठा लिया और राजा से कहा- यह तो दशामाता का डोरा था, आपने उनका अपमान करके अच्‍छा नहीं किया।
                                                 जब रात्रि में राजा सो रहे थे, तब दशामाता स्वप्न में बुढ़िया के रूप में आई और राजा से कहा- हे राजा, तेरी अच्छी दशा जा रही है और बुरी दशा आ रही है। तूने मेरा अपमान करने अच्‍छा नहीं किया। ऐसा कहकर  बुढ़िया (दशा माता) अंतर्ध्यान हो गई।
                                                                      अब जैसे-तैसे दिन बीतते गए, वैसे-वैसे कुछ ही दिनों में राजा के ठाठ-बाट, हाथी-घोड़े, लाव-लश्कर, धन-धान्य, सुख-शांति सब कुछ नष्ट होने लगे।   अब तो भूखे मरने का समय तक आ गया। एक दिन राजा ने दमयंती से कहा- तुम अपने दोनों बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाओ। रानी ने कहा- मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।   जिस प्रकार आप रहेंगे, उसी प्रकार मैं भी आपके साथ रहूंगी। तब राजा ने कहा- अपने देश को छोड़कर दूसरे देश में चलें। वहां जो भी काम मिल जाएगा, वही काम कर लेंगे। इस प्रकार नल-दमयंती अपने देश को छोड़कर चल दिए।
                                                                     चलते-चलते रास्ते में भील राजा का महल दिखाई दिया। वहां राजा ने अपने दोनों बच्चों को अमानत के तौर पर छोड़ दिया।  आगे चले तो रास्ते में राजा के मित्र का गांव आया। राजा ने रानी से कहा- चलो, हमारे मित्र के घर चलें।  मित्र के घर पहुंचने पर उनका खूब आदर-सत्कार हुआ और पकवान बनाकर भोजन कराया। मित्र ने अपने शयन कक्ष में सुलाया।  उसी कमरे में मोर की आकृति की खूंटी पर मित्र की पत्नी का हीरों जड़ा कीमती हार टंगा था। मध्यरात्रि में रानी की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि वह बेजान खूंटी हार को निगल रही है।  यह देखकर रानी ने तुरंत राजा को जगाकर दिखाया और दोनों ने विचार किया कि सुबह होने पर मित्र के पूछने पर क्या जवाब देंगे?   अत: यहां से इसी समय चले जाना चाहिए। राजा-रानी दोनों रात्रि को ही वहां से चल दिए।
         सुबह होने पर मित्र की पत्नी ने खूंटी पर अपना हार देखा।  हार वहां नहीं था। तब उसने अपने पति से कहा- तुम्हारे मित्र कैसे हैं, जो मेरा हार चुराकर रात्रि में ही भाग गए हैं।  मित्र ने अपनी पत्नी को समझाया कि मेरा मित्र कदापि ऐसा नहीं कर सकता, धीरज रखो, कृपया उसे चोर मत कहो। 
                                                                                                     आगे चलने पर राजा नल की बहन का गांव आया। राजा ने बहन के घर खबर पहुंचाई कि तुम्हारे भाई-भौजाई आए हुए हैं। खबर देने वाले से बहन ने पूछा- उनके हाल-चाल कैसे हैं? वह बोला- दोनों अकेले हैं, पैदल ही आए हैं तथा वे दुखी हाल में हैं। इतनी बात सुनकर बहन थाली में कांदा-रोटी रखकर भैया-भाभी से मिलने आई।  राजा ने तो अपने हिस्से का खा लिया, परंतु रानी ने जमीन में गाड़ दिया।

         चलते-चलते एक नदी मिली। राजा ने नदी में से मछलियां निकालकर रानी से कहा- तुम इन मछलियों को भुंजो, मैं गांव में से परोसा लेकर आता हूं। गांव का नगर सेठ सभी लोगों को भोजन करा रहा था।  राजा गांव में गया और परोसा लेकर वहां से चला तो रास्ते में चील ने झपट्टा मारा तो सारा भोजन नीचे गिर गया। राजा ने सोचा कि रानी विचार करेगी कि राजा तो भोजन करके आ गया और मेरे लिए कुछ भी नहीं लाया।   उधर रानी मछलियां भूंजने लगीं तो दुर्भाग्य से सभी मछलियां जीवित होकर नदी में चली गईं। रानी उदास होकर सोचने लगी कि राजा पूछेंगे और सोचेंगे कि सारी मछलियां खुद खा गईं।   जब राजा आए तो मन ही मन समझ गए और वहां से आगे चल दिए। 

चलते-चलते रानी के मायके का गांव आया। राजा ने कहा- तुम अपने मायके चली जाओ, वहां दासी का कोई भी काम कर लेना।  ा। मैं इसी गांव में कहीं नौकर हो जाऊंगा। इस प्रकार रानी महल में दासी का काम करने लगी और राजा तेली के घाने पर काम करने लगा। दोनों को काम करते बहुत दिन हो गए।   जब होली दसा का दिन आया, तब सभी रानियों ने सिर धोकर स्नान किया। दासी ने भी स्नान किया। दासी ने रानियों का सिर गूंथा तो राजमाता ने कहा- मैं भी तेरा सिर गूंथ दूं।  ऐसा कहकर राजमाता जब दासी का सिर गूंथ ही रही थी, तब उन्होंने दासी के सिर में पद्म देखा। यह देखकर राजमाता की आंखें भर आईं और उनकी आंखों से आंसू की बूंदें गिरीं।   आंसू जब दासी की पीठ पर गिरे तो दासी ने पूछा- आप क्यों रो रही हैं? राजमाता ने कहा- तेरे जैसी मेरी भी बेटी है जिसके सिर में भी पद्म था, तेरे सिर में भी पद्म है।    यह देखकर मुझे उसकी याद आ गई। तब दासी ने कहा- मैं ही आपकी बेटी हूं। दशा माता के कोप से मेरे बुरे दिन चल रहे है इसलिए यहां चली आई।  माता ने कहा- बेटी, तूने यह बात हमसे क्यों छिपाई? दासी ने कहा- मां, मैं सब कुछ बता देती तो मेरे बुरे दिन नहीं कटते। आज मैं दशा माता का व्रत करूंगी तथा उनसे गलती की क्षमा-याचना करूंगी।

                              अब तो राजमाता ने बेटी से पूछा- हमारे जमाई राजा कहां हैं? बेटी बोली- वे इसी गांव में किसी तेली के घर काम कर रहे हैं।  अब गांव में उनकी खोज कराई गई और उन्हें महल में लेकर आए। जमाई राजा को स्नान कराया, नए वस्त्र पहनाए और पकवान बनवाकर उन्हें भोजन कराया गया। 

अब दशामाता के आशीर्वाद से राजा नल और दमयंती के अच्छे दिन लौट आए।   कुछ दिन वहीं बिताने के बाद अपने राज्य जाने को कहा। दमयंती के पिता ने खूब सारा धन, लाव-लश्कर, हाथी-घोड़े आदि देकर बेटी-जमाई को बिदा किया। 

          रास्ते में वही जगह आई, जहां रानी में मछलियों को भूना था और राजा के हाथ से चील के झपट्टा मारने से भोजन जमीन पर आ गिरा था।  तब राजा ने कहा- तुमने सोचा होगा कि मैंने अकेले भोजन कर लिया होगा, परंतु चील ने झपट्टा मारकर गिरा दिया था। अब रानी ने कहा- आपने सोचा होगा कि मैंने मछलियां भूनकर अकेले खा ली होंगी, परंतु वे तो जीवितहोकर नदी में चली गई थीं।
 
चलते-चलते अब राजा की बहन का गांव आया। राजा ने बहन के यहां खबर भेजी। खबर देने वाले से पूछा कि उनके हालचाल कैसे हैं? उसने बताया कि वे बहुत अच्छी दशा में हैं।   उनके साथ हाथी-घोड़े लाव-लश्कर हैं। यह सुनकर राजा की बहन मोतियों की थाल सजाकर लाई। तभी दमयंती ने धरती माता से प्रार्थना की और कहा- मां आज मेरी अमानत मुझे वापस दे दो।  ो। यह कहकर उस जगह को खोदा, जहां कांदा-रोटी गाड़ दिया था। खोदने पर रोटी तो सोने की और कांदा चांदी का हो गया।   ा। ये दोनों चीजें बहन की थाली में डाल दी और आगे चलने की तैयारी करने लगे।
 
वहां से चलकर राजा अपने मित्र के घर पहुंचे। मित्र ने उनका पहले के समान ही खूब आदर-सत्कार और सम्मान किया।   रात्रि विश्राम के लिए उन्हें उसी शयन कक्ष में सुलाया। मोरनी वाली खूंटी के हार निगल जाने वाली बात से नींद नहीं आई।   आधी रात के समय वही मोरनी वाली खूंटी हार उगलने लगी तो राजा ने अपने मित्र को जगाया तथा रानी ने मित्र की पत्नी को जगाकर दिखाया।  आपका हार तो इसने निगल लिया था। आपने सोचा होगा कि हार हमने चुराया है।
दूसरे दिन प्रात:काल नित्य कर्म से निपटकर वहां से वे चल दिए। वे भील राजा के यहां पहुंचे और अपने पुत्रों को मांगा तो भील राजा ने देने से मना कर दिया।  गांव के लोगों ने उन बच्चों को वापस दिलाया। नल-दमयंती अपने बच्चों को लेकर अपनी राजधानी के निकट पहुंचे, तो नगरवासियों ने लाव-लश्कर के साथ उन्हें आते हुए देखा।

सभी ने बहुत प्रसन्न होकर उनका स्वागत किया तथा गाजे-बाजे के साथ उन्हें महल पहुंचाया। राजा का पहले जैसा ठाठ-बाट हो गया। राजा नल-दमयंती पर दशा माता ने पहले कोप किया, ऐसी किसी पर मत करना और बाद में जैसी कृपा करी, वैसी सब पर करना

,,प्राचीन ग्रंथों में ऋषी-मुनियों ने अपने अनुभव से सिद्ध किया है कि जब मनुष्य की दशा ठीक होती है तब उसके सब कार्य अनुकूल होते हैं किंतु जब यह प्रतिकूल होती है तब अत्यधिक परेशानी होती है। इसी दशा को दशा भगवती या दशा माता कहा जाता है। हिंदू धर्म में दशा माता की पूजा तथा व्रत करने का विधान है।  दशा माता व्रत की पूजन विधि इस प्रकार है
पूजन विधि
नौ सूत का कच्चा धागा एवं एक सूत व्रत करने वाली के आंचल से बनाकर उसमें गांठ लगाएं। दिन भर व्रत रखने के बाद शाम को गंडे की पूजन करें। नौ व्रत तक तो शाम को पूजन होता है। दसवें व्रत में दोपहर के पहले ही पूजन कर लिया जाता है। जिस दिन दशा माता का व्रत हो उस दिन पूजा ना होने तक किसी मेहमान का स्वागत नही करें। अन्न न पकाएं।
एक नोंक वाले पान पर चंदन से दशा माता की मूर्ती बनाकर पान के ऊपर गंडे को दूध में डूबों को रख दें। हल्दी, कुंकुम अक्षत से पूजन करें। घी गुड़ का भोग लगाएं। हवन के अंत में दशा माता की कथा अवश्य सुनें। कथा समाप्त होने पर पूजन सामग्री को गीली मिट्टी के पिंड में रखकर मौन होकर उसे कुंआ या तालाब जलाशय में विसर्जित कर दें।
इस प्रकार विधि-विधान पूर्वक पूजन करने से दशा माता प्रसन्न होती हैं तथा अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करती हैं।
आरती श्री दशा माता की |
जय सत-चित्त आनंद दाता की
भय भंजनि अरु दशा सुधारिणी
पाप -ताप-कलि कलुष विदारणी|
शुभ्र लोक में सदा विहारणी |
जय पालिनी दिन जनन की |
आरती श्री दशा माता की ||
अखिल विश्व- आनंद विधायिनी
मंगलमयी सुमंगल दायिनी |
जय पावन प्रेम प्रदायिनी |
अमिय-राग-रस रंगरली की |
आरती श्री दशा माता की ||
नित्यानंद भयो आह्लादिनी |
आनंद घन आनंद प्रसाधिनी|
रसमयि रसमय मन- उन्मादिनी
सरस कमलिनी विष्णुआली की
आरती श्री दशा माता की ||
।॥Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

Saturday, 2 March 2019

विजया एकादशी

विजया एकादशी व्रत कथा फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया एकादशी है। 
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इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्‍य को विजय प्राप्त‍ होती है। यह सब व्रतों से उत्तम व्रत है। इस विजया एकादशी के महात्म्य के श्रवण व पठन से समस्त पाप नाश को प्राप्त हो जाते हैं। एक समय देवर्षि नारदजी ने जगत् पिता ब्रह्माजी से कहा महाराज! आप मुझसे फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी विधान कहिए।
ब्रह्माजी कहने लगे कि हे नारद! विजया एकादशी का व्रत पुराने तथा नए पापों को नाश करने वाला है। इस विजया एकादशी की विधि मैंने आज तक किसी से भी नहीं कही। यह समस्त मनुष्यों को विजय प्रदान करती है। त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्रजी को जब चौदह वर्ष का वनवास हो गया, तब वे श्री लक्ष्मण तथा सीताजी ‍सहित पंचवटी में निवास करने लगे। वहाँ पर दुष्ट रावण ने जब सीताजी का हरण ‍किया तब इस समाचार से श्री रामचंद्रजी तथा लक्ष्मण अत्यंत व्याकुल हुए और सीताजी की खोज में चल दिए।
घूमते-घूमते जब वे मरणासन्न जटायु के पास पहुँचे तो जटायु उन्हें सीताजी का वृत्तांत सुनाकर स्वर्गलोक चला गया। कुछ आगे जाकर उनकी सुग्रीव से मित्रता हुई और बाली का वध किया। हनुमानजी ने लंका में जाकर सीताजी का पता लगाया और उनसे श्री रामचंद्रजी और सुग्रीव की‍ मित्रता का वर्णन किया। वहाँ से लौटकर हनुमानजी ने भगवान राम के पास आकर सब समाचार कहे।
श्री रामचंद्रजी ने वानर सेना सहित सुग्रीव की सम्पत्ति से लंका को प्रस्थान किया। जब श्री रामचंद्रजी समुद्र से किनारे पहुँचे तब उन्होंने मगरमच्छ आदि से युक्त उस अगाध समुद्र को देखकर लक्ष्मणजी से कहा कि इस समुद्र को हम किस प्रकार से पार करेंगे।
श्री लक्ष्मण ने कहा हे पुराण पुरुषोत्तम, आप आदिपुरुष हैं, सब कुछ जानते हैं। यहाँ से आधा योजन दूर पर कुमारी द्वीप में वकदालभ्य नाम के मुनि रहते हैं। उन्होंने अनेक ब्रह्मा देखे हैं, आप उनके पास जाकर इसका उपाय पूछिए। लक्ष्मणजी के इस प्रकार के वचन सुनकर श्री रामचंद्रजी वकदालभ्य ऋषि के पास गए और उनको प्रमाण करके बैठ गए।
मुनि ने भी उनको मनुष्य रूप धारण किए हुए पुराण पुरुषोत्तम समझकर उनसे पूछा कि हे राम! आपका आना कैसे हुआ? रामचंद्रजी कहने लगे कि हे ऋषे! मैं अपनी सेना ‍सहित यहाँ आया हूँ और राक्षसों को जीतने के लिए लंका जा रहा हूँ। आप कृपा करके समुद्र पार करने का कोई उपाय बतलाइए। मैं इसी कारण आपके पास आया हूँ।
वकदालभ्य ऋषि बोले कि हे राम! फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का उत्तम व्रत करने से निश्चय ही आपकी विजय होगी, साथ ही आप समुद्र भी अवश्य पार कर लेंगे।
इस व्रत की विधि यह है कि दशमी के दिन स्वर्ण, चाँदी, ताँबा या मिट्‍टी का एक घड़ा बनाएँ। उस घड़े को जल से भरकर तथा पाँच पल्लव रख वेदिका पर स्थापित करें। उस घड़े के नीचे सतनजा और ऊपर जौ रखें। उस पर श्रीनारायण भगवान की स्वर्ण की मूर्ति स्थापित करें। एका‍दशी के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर धूप, दीप, नैवेद्य, नारियल आदि से भगवान की पूजा करें।
तत्पश्चात घड़े के सामने बैठकर दिन व्यतीत करें ‍और रात्रि को भी उसी प्रकार बैठे रहकर जागरण करें। द्वादशी के दिन नित्य नियम से निवृत्त होकर उस घड़े को ब्राह्मण को दे दें। हे राम! यदि तुम भी इस व्रत को सेनापतियों सहित करोगे तो तुम्हारी विजय अवश्य होगी। श्री रामचंद्रजी ने ऋषि के कथनानुसार इस व्रत को किया और इसके प्रभाव से दैत्यों पर विजय पाई।

अत: हे राजन्! जो कोई मनुष्य विधिपूर्वक इस व्रत को करेगा, दोनों लोकों में उसकी अवश्य विजय होगी। श्री ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था कि हे पुत्र! जो कोई इस व्रत के महात्म्य को पढ़ता या सुनता है, उसको वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557
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