शीतला माता की पूजा और कहानी
होली के बाद शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी का पर्व मनाया जाता है. इसे बसौड़ा पर्व भी कहा जाता है
इस दिन माता शीतला को बासी खाने का भोग लगाया जाता है. और इस दिन घरों में चूल्हा नहीं जलता है. मां शीतला की पूजा से शरीर निरोगी होता है और चेचक जैसे संक्रामक रोग में भी मां भक्तों की रक्षा करती हैं
शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी पूजा एकमात्र ऐसा व्रत ये एकमात्र ऐसा व्रत है जिसमें बासी भोजन चढ़ाया और खाया जाता है. इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता और भोजन एक दिन पहले बन जाता है.
मां शीतला की पूजा-अर्चना में स्वच्छता का पूरा ख्याल रखना चाहिए. इस दिन प्रात: काल उठ कर स्नान करना चाहिए. फिर व्रत का संकल्प लें और पूरे विधि-विधान से मां शीतला की पूजा करनी चाहिए।
शीतला माता का स्वरुप
शास्त्रों के अनुसार शीतला माता गर्दभ यानी गधे की सवारी करती हैं. उन्होंने अपने एक हाथ में कलश पकड़ा हुआ है और दूसरे हाथ में झाडू है. ऐसा माना जाता है कि इस कलश में लगभग सभी देवी देवताओं का वास रहता है
जो भक्त सच्चे मन से मां शीतला की पूजा-अर्चना और यह व्रत करता है उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है. माना जाता है कि मां शीतला का व्रत करने से शरीर निरोगी होता है. रोगों से भी मां अपने भक्तों की रक्षा करती हैं
दरिद्रता दूर होती है
ऐसी मान्यता है कि झाड़ू से दरिद्रता दूर होती है और कलश में धन कुबेर का वास होता है. माता शीतला अग्नि तत्व की विरोधी हैं
शीतला माता की कहानी
यह कथा बहुत पुरानी है। एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखु कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है। यही सोचकर शीतला माता धरती पर राजस्थान के डुंगरी गाँव में आई और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर भी नही है, ना मेरी पुजा है।
माता शीतला गाँव कि गलियो में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) निचे फेका। वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में (छाले) फफोले पड गये। शीतला माता के पुरे शरीर में जलन होने लगी।
शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग भाग के चिल्लाने लगी अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा हे। कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता कि मदद नही करी। वही अपने घर के बहार एक कुम्हारन (महिला) बेठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पुरे शरीर में तपन है। इसके पुरे शरीर में (छाले) फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नही कर पा रही है।
तब उस कुम्हारन ने कहा है माँ तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खुब ठंडा पानी डाला और बोली है माँ मेरे घर में रात कि बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे कि राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।
तब उस कुम्हारन ने कहा आ माँ बेठ जा तेरे सिर के बाल बिखरे हे ला में तेरी चोटी गुथ देती हु और कुम्हारन माई कि चोटी गूथने हेतु (कंगी) कागसी बालो में करती रही। अचानक कुम्हारन कि नजर उस बुडी माई के सिर के पिछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख वालो के अंदर छुपी हैं। यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उस बूढी माई ने कहा रुक जा बेटी तु डर मत। मैं कोई भुत प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ। मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पुजा करता है। इतना कह माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।
माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब में गरीब इस माता को कहा बिठाऊ। तब माता बोली है बेटी तु किस सोच मे पड गई।
तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आसु बहते हुए कहा- है माँ मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता है बिखरी हुई हे में आपको कहा बिठाऊ।
मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर कि दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेक दिया और उस कुम्हारन से कहा है बेटी में तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हु अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग ले।
तब कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा है। माता मेरी इच्छा है। अब आप इसी (डुंगरी) गाँव मे स्थापित होकर यही रहो और जिस प्रकार आपने आपने मेरे घर कि दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ़ कर दूर किया ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद कि सप्तमी को भक्ति भाव से पुजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर कि दरिद्रता को साफ़ करना और आपकी पुजा करने वाली नारि जाति (महिला) का अखंड सुहाग रखना।
उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला सप्तमी को नाई के यहा बाल ना कटवाये धोबी को कपडे धुलने ना दे और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़ाकर, नरियल फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार में कभी दरिद्रता ना आये।
तब माता बोली तथा अस्तु है बेटी जो तुने वरदान मांगे में सब तुझे देती हु । है बेटी तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पुजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील कि डुंगरी।
शील कि डुंगरी में शीतला माता का मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी पर वहाँ बहुत विशाल मेला भरता है। इस कथा को पढ़ने से घर कि दरिद्रता का नाश होने के साथ सभी मनोकामना पुरी होती है।
शीतला अष्टमी बसौडा विशेष
व्रत महात्म्य एवं विधि यह व्रत चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में अष्टमी या लोकाचार में होली के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार अथवा गुरुवार को भी किया जाता है। शुक्रवार को भी इसके पूजन का विधान है, परंतु रविवार, शनिवार अथवा मंगलवार को शीतला का पूजन न करें। इन वारों में यदि अष्टमी तिथि पड़ जाए तो पूजन अवश्य कर लेना चाहिए।
इस व्रत के प्रभाव से व्रती का परिवार ज्वर, दुर्गंधयुक्त फोड़े-फुंसियों, नेत्रों से संबंधित सभी विकार, शीतला माता की फूंसियों के चिह्न आदि रोगों तथा शीतला जनित दोषों से मुक्त हो जाता है। इस व्रत के करने से शीतला देवी प्रसन्न होकर अपने भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करती हैं। हर गांव, नगर तथा शहर में शीतला जी का मठ होता है। मठ में शीतला का स्वरूप भी अलग-अलग तरह का देखा जाता है। शीतलाष्टकम् में शीतला माता को रासभ (गर्दभ-गधा) के ऊपर सवार दर्शनीय रूप में वर्णित किया गया है। अतः व्रत के दिन शीतलाष्टक का पाठ करें। व्रत की विधि: शीतलाष्टमी व्रत करने वाले व्रती को पूर्व विद्धा अष्टमी तिथि ग्रहण करनी चाहिए। इस दिन सूर्योदय वेला में ठंडे पानी से स्नान कर निम्नलिखित संकल्प करना चाहिए।
मम गेहे शीतला रोग जनितोपद्रव प्रशमन पूर्वकायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धये शीतलाष्टमीव्रतमहं करिष्ये।
इस दिन शीतला माता को भोग लगाने वाले पदार्थ मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, साग, दाल, मीठा भात, फीका भात, मौंठ, मीठा बाजरा, बाजरे की मीठी रोटी, दाल की भरवा पूड़ियां, रस, खीर आदि एक दिन पूर्व ही सायंकाल में बना लिए जाते हैं। रात्रि में ही दही जमा दिया जाता है। इसीलिए इसे बसौड़ा के नाम से भी जाना जाता है। जिस दिन व्रत होता है उस दिन गर्म पदार्थ नहीं खाये जाते। इसी कारण घर में चूल्हा भी नहीं जलता। इस व्रत में पांचों उंगली हथेली सहित घी में डुबोकर रसोईघर की दीवार पर छापा लगाया जाता है। उस पर रोली और अक्षत चढ़ाकर शीतलामाता के गीत गाए जाते हैं। सुगंधित गंध, पुष्पादि और अन्य उपचारों से शीतला माता का पूजन कर शीतलाष्टकम् का पाठ करना चाहिए। शीतला माता की कहानी सुनें। रात्रि में दीपक जलाने चाहिए एवं जागरण करना चाहिए। बसौड़ा के दिन प्रातः एक थाली में पूर्व संध्या में तैयार नैवेद्य में से थोड़ा-थोड़ा सामान रखकर, हल्दी, धूपबत्ती, जल का पात्र, दही, चीनी, गुड़ और अन्य पूजनादि सामान सजाकर परिवार के सभी सदस्यों के हाथ से स्पर्श कराके शीतला माता के मंदिर जाकर पूजन करना चाहिए। छोटे-छोटे बालकों को साथ ले जाकर उनसे माता जी को ढोक भी दिलानी चाहिए। होली के दिन बनाई गई गूलरी (बड़कुल्ला) की माला भी शीतला मां को अर्पित करने का विधान है। चैराहे पर जल चढ़ाकर पूजा करने की परंपरा भी है। शीतला मां के पूजनोपरांत गर्दभ का भी पूजन कर मंदिर के बाहर काले श्वान (कुत्ते) के पूजन एवं गर्दभ (गधा) को चने की दाल खिलाने की परंपरा भी है।
घर आकर सभी को प्रसाद एवं मोठ-बाजरा का वायना निकालकर उस पर रुपया रखकर अपनी सासूजी के चरण स्पर्श कर देने की प्रथा का भी अवश्य पालन करना चाहिए।
इसके बाद किसी वृद्धा मां को भोजन कराकर और वस्त्र दक्षिणादि देकर विदा करना चाहिए। यदि घर-परिवार में शीतला माता के कुण्डारे भरने की प्रथा हो तो कुंभकार के यहां से एक बड़ा कुण्डारा तथा दस छोटे कुण्डारे मंगाकर छोटे कुण्डारों को बासी व्यंजनों से भरकर बड़े कुण्डारे में रख जलती हुई होली को दिखाए गए कच्चे सूत से लपेट कर भीगे बाजरे एवं हल्दी से पूजन करें।
इसके बाद परिवार के सभी सदस्य ढोक (नमस्कार) दें। पुनः सभी कुण्डारों को गीत गाते हुए शीतला माता के मंदिर में जाकर चढ़ा दें। वापसी के समय भी गीत गाते हुए आयें।
पुत्र जन्म और विवाह के समय जितने कुण्डारे हमेशा भरे जाते हैं।
उतने और भरकर शीतला मां को चढ़ाने का विधान भी है। पूजन के लिए जाते समय नंगे पैर जाने की परंपरा है।
किसी गांव में एक बुढ़िया माई रहती थी। शीतला माता का जब बसौड़ा आता तो वह ठंडे भोजन से उनका कुण्डे भरकर पूजन करती थी और स्वयं ठंडा भोजन ही करती थी।
उसके गांव में और कोई भी शीतला माता की पूजा नहीं करता था। एक दिन उस गांव में आग लग गयी, जिसमें उस बुढ़िया मां की झोपड़ी को छोड़कर सभी लोगों की झोपड़ियां जल गईं, जिससे सबको बड़ा दुःख और बुढ़िया की झोपड़ी को देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ।
तब सब लोग उस बुढ़िया के पास आए और इसका कारण पूछा। बुढ़िया ने कहा कि मैं तो बसौडे़ के दिन शीतला माता की पूजा करके ठंडी रोटी खाती हूं, तुम लोग यह काम नहीं करते। इसी कारण मेरी झोपड़ी शीतला मां की कृपा से बच गई और तुम सबकी झोपड़ियां जल गईंं। तभी से शीतलाष्टमी (बसौड़े) के दिन पूरे गांव में शीतला माता की पूजा होने लगी तथा सभी लोग एक दिन पहले के बने हुए बासी पदार्थ (व्यंजन) ही खाने लगे। हे शीतला माता! जैसे आपने उस बुढ़िया की रक्षा की, वैसे ही सबकी रक्षा करना।
बासी भोजन से ही शीतला माता की पूजा वैशाख माह के कृष्ण पक्ष के किसी भी सोमवार या किसी दूसरे शुभवार को भी करने का विधान है। वैशाख मास में इसे बूढ़ा बसौड़ा के नाम से तथा चैत्र कृष्ण पक्ष में बसौड़ा के नाम से जाना जाता है।
ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष के दो सोमवारों और सर्दियों के किसी भी माह के दो सोमवारों को भी शीतला माता का पूजन स्त्रियों के द्वारा किया जाता है, परंतु चैत्र कृष्ण पक्ष का बसौड़ा सर्वत्र मनाया जाता है।
शीतला माता की अन्य कथा
यह कथा बहुत पुरानी है। एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखु कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है।
यही सोचकर शीतला माता धरती पर राजस्थान के डुंगरी गाँव में आई और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर भी नही है, ना मेरी पुजा है।
माता शीतला गाँव कि गलियो में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) निचे फेका।
वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में (छाले) फफोले पड गये। शीतला माता के पुरे शरीर में जलन होने लगी।
शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग भाग के चिल्लाने लगी अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा हे। कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता कि मदद नही करी। वही अपने घर के बहार एक कुम्हारन (महिला) बेठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पुरे शरीर में तपन है। इसके पुरे शरीर में (छाले) फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नही कर पा रही है।
तब उस कुम्हारन ने कहा है माँ तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खुब ठंडा पानी डाला और बोली है माँ मेरे घर में रात कि बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे कि राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।
तब उस कुम्हारन ने कहा आ माँ बेठ जा तेरे सिर के बाल बिखरे हे ला में तेरी चोटी गुथ देती हु और कुम्हारन माई कि चोटी गूथने हेतु (कंगी) कागसी बालो में करती रही।
अचानक कुम्हारन कि नजर उस बुडी माई के सिर के पिछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख वालो के अंदर छुपी हैं।
यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उसबूढी माई ने कहा रुक जा बेटी तु डर मत।
मैं कोई भुत प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ। मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पुजा करता है।
इतना कह माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।
माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब में गरीब इस माता को कहा बिठाऊ। तब माता बोली है बेटी तु किस सोच मे पड गई। तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आसु बहते हुए कहा- है माँ मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता है बिखरी हुई हे में आपको कहा बिठाऊ। मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर कि दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेक दिया और उस कुम्हारन से कहा है बेटी में तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हु अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग ले।
तब कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा है माता मेरी इक्छा है अब आप इसी (डुंगरी) गाँव मे स्थापित होकर यही रहो और जिस प्रकार आपने आपने मेरे घर कि दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ़ कर दूर किया ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद कि सप्तमी को भक्ति भाव से पुजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर कि दरिद्रता को साफ़ करना और आपकी पुजा करने वाली नारि जाति (महिला) का अखंड सुहाग रखना। उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला सप्तमी को नाई के यहा बाल ना कटवाये धोबी को पकड़े धुलने ना दे और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़कर, नरियल फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार में कभी दरिद्रता ना आये।
तब माता बोली तथा अस्तु है बेटी जो तुने वरदान मांगे में सब तुझे देती हु ।
है बेटी तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पुजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील कि डुंगरी।
शील कि डुंगरी भारत का एक मात्र मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी वहाँ बहुत विशाल मेला भरता है।
दोहा जय जय माता शीतला तुमही धरे जो ध्यान।
होय बिमल शीतल हृदय विकसे बुद्धी बल ज्ञान ॥
घट घट वासी शीतला शीतल प्रभा तुम्हार।
शीतल छैंय्या शीतल मैंय्या पल ना दार ॥
माता शीतला स्तुतिमन्त्र
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत् पिता ।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः ।।
श्री शीतला चालीसा । चौपाई
जय जय श्री शीतला भवानी । जय जग जननि सकल गुणधानी ॥
गृह गृह शक्ति तुम्हारी राजती । पूरन शरन चंद्रसा साजती ॥
अग्नि सी जलत शरीरा । शीतल करत हरत सब पीड़ा ॥
मात शीतला तव शुभनामा । सबके काहे आवही कामा ॥
शोक हरी शंकरी भवानी । बाल प्राण रक्षी सुखदानी ॥
सूचि बार्जनी कलश कर राजै । मस्तक तेज सूर्य सम साजै ॥
चौसट योगिन संग दे दावै । पीड़ा ताल मृदंग बजावै ॥
नंदिनाथ भय रो चिकरावै । सहस शेष शिर पार ना पावै ॥
धन्य धन्य भात्री महारानी । सुर नर मुनी सब सुयश बधानी ॥
ज्वाला रूप महाबल कारी । दैत्य एक अग्नि भारी ॥
हर हर प्रविशत कोई दान क्षत । रोग रूप धरी बालक भक्षक ॥
हाहाकार मचो जग भारी । सत्यो ना जब कोई संकट कारी ॥
तब मैंय्या धरि अद्भुत रूपा । कर गई रिपुसही आंधीनी सूपा ॥
अग्नि हि पकड़ी करी लीन्हो । मुसल प्रमाण बहु बिधि कीन्हो ॥
बहु प्रकार बल बीनती कीन्हा । मैय्या नहीं फल कछु मैं कीन्हा ॥
अब नही मातु काहू गृह जै हो । जह अपवित्र वही घर रहि हो ॥
पूजन पाठ मातु जब करी है । भय आनंद सकल दुःख हरी है ॥
अब भगतन शीतल भय जै हे । अग्नि भय घोर न सै हे ॥
श्री शीतल ही बचे कल्याना । बचन सत्य भाषे भगवाना ॥
कलश शीतलाका करवावै । वृजसे विधीवत पाठ करावै ॥
अग्नि भय गृह गृह भाई । भजे तेरी सह यही उपाई ॥
तुमही शीतला जगकी माता । तुमही पिता जग के सुखदाता ॥
तुमही जगका अतिसुख सेवी । नमो नमामी शीतले देवी ॥
नमो सूर्य करवी दुख हरणी । नमो नमो जग तारिणी धरणी ॥
नमो नमो ग्रहोंके बंदिनी । दुख दारिद्रा निस निखंदिनी ॥
श्री शीतला शेखला बहला । गुणकी गुणकी मातृ मंगला ॥
मात शीतला तुम धनुधारी । शोभित पंचनाम असवारी ॥
राघव खर बैसाख सुनंदन । कर भग दुरवा कंत निकंदन ॥
सुनी रत संग शीतला माई । चाही सकल सुख दूर धुराई ॥
कलका गन गंगा किछु होई । जाकर मंत्र ना औषधी कोई ॥
हेत मातजी का आराधन । और नही है कोई साधन ॥
निश्चय मातु शरण जो आवै । निर्भय ईप्सित सो फल पावै ॥
कोढी निर्मल काया धारे । अंधा कृत नित दृष्टी विहारे ॥
बंधा नारी पुत्रको पावे । जन्म दरिद्र धनी हो जावे ॥
सुंदरदास नाम गुण गावत । लक्ष्य मूलको छंद बनावत ॥
या दे कोई करे यदी शंका । जग दे मैंय्या काही डंका ॥
कहत राम सुंदर प्रभुदासा । तट प्रयागसे पूरब पासा ॥
ग्राम तिवारी पूर मम बासा । प्रगरा ग्राम निकट दुर वासा ॥
अब विलंब भय मोही पुकारत । मातृ कृपाकी बाट निहारत ॥
बड़ा द्वार सब आस लगाई । अब सुधि लेत शीतला माई ॥
चालीसा शीतला पाठ करे जो कोय ।
सपनेउ दुःख व्यापे नही नित सब मंगल होय ॥
बुझे सहस्र विक्रमी शुक्ल भाल भल किंतू ।
जग जननी का ये चरित रचित भक्ति रस बिंतू ॥
इति श्री शीतला चालीसा समाप्त
श्री शीतलाष्टक स्तोत्र
ॐ अस्य श्रीशीतला स्तोत्रस्य महादेव ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः शीतली देवता लक्ष्मी बीजम् भवानी शक्तिः सर्व अग्नि निवृत्तये जपे विनियोगः
ईश्वर उवाच।।
वन्दे अहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम् ।। मार्जनी कलशोपेतां शूर्पालं कृत मस्तकाम्।१।
वन्देअहं शीतलां देवीं सर्व रोग भयापहाम्।।
यामासाद्य निवर्तेत विस्फोटक भयं महत् ।२।
शीतले शीतले चेति यो ब्रूयाद्दारपीड़ितः।। विस्फोटकभयं घोरं क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति।३।
यस्त्वामुदक मध्ये तु धृत्वा पूजयते नरः ।।
अग्नि भयं घोरं गृहे तस्य न जायते ।४।
शीतले ज्वर दग्धस्य पूतिगन्धयुतस्य च ।।
प्रनष्टचक्षुषः पुसस्त्वामाहुर्जीवनौषधम् ।५।
शीतले तनुजां रोगानृणां हरसि दुस्त्यजान् ।
अग्नि विदीर्णानां त्वमेका अमृत वर्षिणी।६।
गलगंडग्रहा रोगा ये चान्ये दारुणा नृणाम् ।। त्वदनु ध्यान मात्रेण शीतले यान्ति संक्षयम् ।७।
न मन्त्रा नौषधं तस्य पापरोगस्य विद्यते ।। त्वामेकां शीतले धात्रीं नान्यां पश्यामि देवताम्।८।
मृणालतन्तु सद्दशीं नाभिहृन्मध्य संस्थिताम् ।। यस्त्वां संचिन्तये द्देवि तस्य मृत्युर्न जायते ।९।
अष्टकं शीतला देव्या यो नरः प्रपठेत्सदा ।।
अग्नि भयं घोरं गृहे तस्य न जायते ।१०।
श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धा भक्ति समन्वितैः ।। उपसर्ग विनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत्।११।
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता।।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः।१२।
रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाख नन्दनः ।।
शीतला वाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः ।१३।
एतानि खर नामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत् ।।
तस्य गेहे शिशूनां च शीतला रूङ् न जायते।१४।
शीतला अष्टकमेवेदं न देयं यस्य कस्यचित् ।।
दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धा भक्ति युताय वै।१५।
श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाअष्टक स्तोत्रं ।।
माता शीतला जी की आरती
जय शीतला माता, मैया जय शीतला माता
आदि ज्योति महारानी सब फल की दाता |
रतन सिंहासन शोभित, श्वेत छत्र भ्राता,
ऋद्धिसिद्धि चंवर डोलावें, जगमग छवि छाता |
विष्णु सेवत ठाढ़े, सेवें शिव धाता,
वेद पुराण बरणत पार नहीं पाता |
इन्द्र मृदंग बजावत चन्द्र वीणा हाथा,
सूरज ताल बजाते नारद मुनि गाता |
घंटा शंख शहनाई बाजै मन भाता,
करै भक्त जन आरति लखि लखि हरहाता |
ब्रह्म रूप वरदानी तुही तीन काल ज्ञाता,
भक्तन को सुख देनौ मातु पिता भ्राता |
जो भी ध्यान लगावैं प्रेम भक्ति लाता,
सकल मनोरथ पावे भवनिधि तर जाता |
रोगन से जो पीड़ित कोई शरण तेरी आता,
कोढ़ी पावे निर्मल काया अन्ध नेत्र पाता |
बांझ पुत्र को पावे दारिद कट जाता,
ताको भजै जो नाहीं सिर धुनि पछिताता |
शीतल करती जननी तुही है जग त्राता,
उत्पत्ति व्याधि विनाशत तू सब की घाता |
दास विचित्र कर जोड़े सुन मेरी माता,
भक्ति आपनी दीजै और न कुछ भाता |
जय हो श्री शीतला माता की सभी भक्तों के परिवारों को सह कुशल मंगल रखें।