Thursday, 25 August 2016

गणेश चतुर्थी इस वर्ष 5 सितंबर 2016

गणेश चतुर्थी इस वर्ष 5 सितंबर 2016 , गणेश जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हुआ था।
गणेश चतुर्थी 2016 की तारीख और गणेश पूजन का शुभ समय
गणेश चतुर्थी की तारीख ,,, 5 सितंबर 2016
चतुर्थी शुरू होने का समय ,,,4 सितंबर 2016 शाम 6 :54
चतुर्थी समाप्त होने का समय ,, 5 सितंबर 2016 रात 9 :10
गणेश पूजन का शुभ समय ,,, 5 सितंबर मध्याह्न ,,,, दिन में ,, 11 :10 से 1 :39
इसीलिए हर वर्ष इस दिन गणेश चतुर्थी धूमधाम से मनाई जाती है। गणेश जी बुद्धि , सौभाग्य , समृद्धि , ऋद्धि सिद्धि देने वाले तथा विघ्नहर्ता
यानि संकट दूर करने वाले माने जाते है । विनायक , गजानन , लम्बोदर , गणपति , आदि भी गणेश जी के ही नाम है।
गणेश चतुर्थी
सफलता या लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सम्पूर्ण ज्ञान हासिल करना , अपनी त्वरित बुद्धि से विवेकपूर्ण निर्णय करना , लगातार मेहनत और
प्रयास करते रहना , जरुरी होते है । गणेश जी की पूजा का यही सन्देश है। इसी वजह से गणेश जी को सबसे पहले पूजा जाता है।
महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी और गणेश विसर्जन बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ मनाते है। घर और मंदिरों में गणेश जी की बड़ी सुन्दर प्रतिमाएँ
साज श्रृंगार के साथ स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा की जाती है । दस दिन यानि अनन्त चतुर्दशी तक भक्ति भाव और विधि विधान से गणेश जी
की पूजा की जाती है । ग्यारवें दिन किसी जलाशय , नदी या समुद्र में मूर्ती को विसर्जित किया जाता है। गाजे बाजे के साथ नाचते गाते लोग
गणेश विसर्जन में हिस्सा लेते है। हर तरफ “गणपति बाप्पा मोर्या ” जैसे शब्द गूंजते नजर आते है।
गणेश चतुर्थी ,,,,गणेश चतुर्थी के एक दिन पहले कई जगह मंदिरों में सिंजारा मनाया जाता है जिसमे गणेश जी को मेहंदी अर्पित की जाती है। महिलाएं भजन
गाती है। प्रसाद आदि वितरित किये जाते है।
चन्द्रमा को किस समय नहीं देखें
इस दिन चाँद को देखना अशुभ माना जाता है। कहते है चाँद को गणेश जी का श्राप लगा हुआ है। इस दिन चाँद को देखने से झूठा कलंक लग
सकता है। भगवान श्री कृष्ण को भी चाँद देखने पर मणि चोरी के झूठे कलंक का सामना करना पड़ा था। ये धार्मिक मान्यताएं है परन्तु
इसके कुछ वैज्ञानिक कारण जरूर होंगे ।
तृतीया तिथि को चाँद नहीं देखने का समय 4 सितंबर 2016 को शाम 6 :54 से 8 :36
चतुर्थी तिथि के दिन चाँद नहीं देखने का समय ,, 5 सितंबर 2016 सुबह 9 :21 से रात 9 :12
गणेश जी का पूजन करने की सामग्री और विधि
गणेश पूजन की सामग्री ,,,,,चौकी या पाटा,,,,जल कलश,,,,लाल कपड़ा,,,पंचामृत,,,,रोली , मोली , लाल चन्दन....जनेऊ,,,,गंगाजल,,,सिन्दूर,,,चांदी का वर्क,,,,लाल फूल या माला,,,इत्र,,,मोदक या लडडू,,,धानी,,,सुपारी,,,लौंग , इलायची,,,नारियल ,,,फल,,,दूर्वा – दूब,,,पंचमेवा,,,घी का दीपक,,,धूप , अगरबत्ती कपूर
गणेश पूजन की विधि,,,सुबह नहा धोकर शुद्ध लाल रंग के कपड़े पहने। गणेश जी को लाल रंग प्रिय है। पूजा करते समय आपका मुँह पूर्व दिशा में या उत्तर दिशा में
होना चाहिए
सबसे पहले गणेश जी को पंचामृत से स्नान कराएं । उसके बाद गंगा जल से स्नान कराएं ।
गणेश जी को चौकी पर लाल कपड़े पर बिठाएं। ऋद्धि सिद्धि के रूप में दो सुपारी रखें।
गणेश जी को सिन्दूर लगाकर चांदी का वर्क लगाएं।
लाल चन्दन का टीका लगाएं। अक्षत , चावल , लगाएं।
मौली और जनेऊ अर्पित करें।
लाल रंग के पुष्प या माला आदि अर्पित करें। इत्र अर्पित करें।
दूर्वा अर्पित करें।
नारियल चढ़ाएं। पंचमेवा चढ़ाएं।
फल अर्पित करेँ।
मोदक और लडडू आदि का भोग लगाएं।
लौंग इलायची अर्पित करें।
दीपक , अगरबत्ती , धूप आदि जलाएं।
गणेश मन्त्र उच्चारित करें ,ऊँ वक्रतुण्ड़ महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरू मे देव , सर्व कार्येषु सर्वदा ।।॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557

बछ बारस , गौवत्स द्वादशी, ,,बछ बारस 2017 शनिवार 19 अगस्त को मनाई जाएगी।

बछ बारस , गौवत्स द्वादशी, ,,बछ बारस 2017 शनिवार 19 अगस्त को मनाई जाएगी।
बछ बारस भाद्रपद महीने की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। बछ यानि बछड़ा गाय के छोटे बच्चे को कहते है । इस दिन को मनाने
का उद्देश्य गाय व बछड़े का महत्त्व समझाना है। यह दिन गोवत्स द्वादशी के नाम से भी जाना जाता है। गोवत्स का मतलब भी गाय का बच्चा
ही होता है। बछ बारस का यह दिन कृष्ण जन्माष्टमी के चार दिन बाद आता है । कृष्ण भगवान को गाय व बछड़ा बहुत प्रिय थे तथा गाय
में सैकड़ो देवताओं का वास माना जाता है। गाय व बछड़े की पूजा करने से कृष्ण भगवान का , गाय में निवास करने वाले देवताओं का और
गाय का आशीर्वाद मिलता है जिससे परिवार में खुशहाली बनी रहती है ऐसा माना जाता है।
बछ बारस
इस दिन महिलायें बछ बारस का व्रत रखती है। यह व्रत सुहागन महिलाएं सुपुत्र प्राप्ति और पुत्र की मंगल कामना के लिए व परिवार की
खुशहाली के लिए करती है। गाय और बछड़े का पूजन किया जाता है। इस दिन गाय का दूध और दूध से बने पदार्थ जैसे दही , मक्खन , घी
आदि का उपयोग नहीं किया जाता। इसके अलावा गेहूँ और चावल तथा इनसे बने सामान नहीं खाये जाते ।
भोजन में चाकू से कटी हुई किसी भी चीज का सेवन नहीं करते है। इस दिन अंकुरित अनाज जैसे चना , मोठ , मूंग , मटर आदि का उपयोग
किया जाता है। भोजन में बेसन से बने आहार जैसे कढ़ी , पकोड़ी , भजिये आदि तथा मक्के , बाजरे ,ज्वार आदि की रोटी तथा बेसन से बनी
मिठाई का उपयोग किया जाता है।
बछ बारस के व्रत का उद्यापन करते समय इसी प्रकार का भोजन बनाना चाहिए। उजरने में यानि उद्यापन में बारह स्त्रियां , दो चाँद सूरज की
और एक साठिया इन सबको यही भोजन कराया जाता है।
शास्त्रो के अनुसार इस दिन गाय की सेवा करने से , उसे हरा चारा खिलाने से परिवार में महालक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा परिवार
में अकालमृत्यु की सम्भावना समाप्त होती है।
बछ बारस की पूजा विधि
सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर शुद्ध कपड़े पहने।
दूध देने वाली गाय और उसके बछड़े को साफ पानी से नहलाकर शुद्ध करें।
गाय और बछड़े को नए वस्त्र ओढ़ाएँ।
फूल माला पहनाएँ।
उनके सींगों को सजाएँ।
उन्हें तिलक करें।
गाय और बछड़े को भीगे हुए अंकुरित चने , अंकुरित मूंग , मटर , चने के बिरवे , जौ की रोटी आदि खिलाएँ।
गौ माता के पैरों धूल से खुद के तिलक लगाएँ।
इसके बाद बछ बारस की कहानी सुने। बछ बारस की कहानी के लिए क्लीक करें और पढ़ें
बछ बारस
इस प्रकार गाय और बछड़े की पूजा करने के बाद महिलायें अपने पुत्र के तिलक लगाकर उसे नारियल देकर उसकी लंबी उम्र और सकुशलता
की कामना करें। उसे आशीर्वाद दें। बड़े बुजुर्ग के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लें। अपनी श्रद्धा और रिवाज के अनुसार व्रत या उपवास रखें।
मोठ या बाजरा दान करें। सासुजी को बयाना देकर आशीर्वाद लें।
यदि आपके घर में खुद की गाय नहीं हो तो दूसरे के यहाँ भी गाय बछड़े की पूजा की जा सकती है। ये भी संभव नहीं हो तो गीली मिट्टी से गाय
और बछड़े की आकृति बना कर उनकी पूजा कर सकते है।
कुछ लोग सुबह आटे से गाय और बछड़े की आकृति बनाकर पूजा करते है। शाम को गाय चारा खाकर वापस आती है तब उसका पूजन धुप,
दीप , चन्दन , नैवेद्य आदि से करते है।
बछ बारस

Monday, 22 August 2016

आञ्जनेय स्तोत्रम् ॥नीलकृत

आञ्जनेय स्तोत्रम् ॥नीलकृत
ॐ जय जय । श्रीआञ्जनेय । केसरीप्रियनन्दन । वायुकुमार ।
ईश्वरपुत्र । पार्वतीगर्भसम्भूत । वानरनायक ।
सकलवेदशास्त्रपारग । सञ्जीवनीपर्वतोत्पाटन ।
लक्ष्मणप्राणरक्षक । गुहप्राणदायक । सीतादुःखनिवारक ।
धान्यमाली शापविमोचन । दुर्दण्डीबन्धविमोचन ।
नीलमेघराज्यदायक । सुग्रीवराज्यदायक । भीमसेनाग्रज ।
धनञ्जयध्वजवाहन । कालनेमिसंहार । मैरावणमर्दन ।
वृत्रासुरभञ्जन । सप्तमन्त्रिसुतध्वंसन । इन्द्रजिद्वधकारण ।
अक्षकुमारसंहार । लङ्किणीभञ्जन । रावणमर्दन ।
कुम्भकर्णवधपरायण । जम्बुमालिनिषूदन । वालिनिबर्हण ।
राक्षसकुलदाहन । अशोकवनविदारण । लङ्कादाहक ।
शतमुखवधकारण । सप्तसागरवालसेतुबन्धन ।
निराकार-निर्गुण-सगुणस्वरूप । हेमवर्णपीताम्बरधर ।
सुवर्चलाप्राणनायक । त्रिंशत्कोट्यर्बुदरुद्रगणपोषक ।
भक्तपालनचतुर । कनककुण्डलाभरण ।
रत्नकिरीटहारनूपुरशोभित । रामभक्तितत्पर ।
हेमरम्भावनविहार वक्षताङ्कितमेघवाहक ।
नीलमेघश्याम । सूक्ष्मकाय । महाकाय । बालसूर्यग्रसन ।
ऋष्यमूकगिरिनिवासक । मेरुपीठकार्चन । द्वात्रिशदायुधधर ।
चित्रवर्ण । विचित्रसृष्टिनिर्माणकर्त्रे । अनन्तनाम ।
दशावतार । अघटनघटनासमर्थ । अनन्तब्रह्मन् ।
नायक । दुर्जनसंहार । सुजनरक्षक । देवेन्द्रवन्दित ।
सकललोकाराध्य । सत्यसङ्कल्प । भक्तसङ्कल्पपूरक ।
अतिसुकुमारदेह । अकर्दमविनोदलेपन । कोटिमन्मथाकार ।
रणकेलिमर्दन । विजृम्भमाणसकललोककुक्षिम्भर ।
सप्तकोटिमहामन्त्रतन्त्रस्वरूप ।
भूतप्रेतपिशाचशाकिनीडाकिनीविध्वंसन ।
शिवलिङ्गप्रतिष्ठापनकारण । दुष्कर्मविमोचन ।
दौर्भाग्यनाशन । ज्वरादिसकलरोगहर । भुक्तिमुक्तिदायक ।
कपटनाटकसूत्रधारिन् । तलाविनोदाङ्कित । कल्याणपरिपूर्ण ।
मङ्गलप्रद । गानलोल । गानप्रिय । अष्टाङ्गयोगनिपुण ।
सकलविद्यापारीण । आदिमध्यान्तरहित । यज्ञकर्त्रे ।
यज्ञभोक्त्रे । षण्मतवैभवसानुभूतिचतुर । सकललोकातीत ।
विश्वम्भर । विश्वमूर्ते । विश्वाकार । दयास्वरूप ।
दासजनहृदयकमलविहार । मनोवेगगमन । भावज्ञनिपुण ।
ऋषिगणगेय । भक्तमनोरथदायक । भक्तवत्सल ।
दीनपोषक । दीनमन्दार । सर्वस्वतन्त्र । शरणागतरक्षक ।
आर्तत्राणपरायण । एक असहायवीर । हनुमन् विजयीभव ।
दिग्विजयीभव । दिग्विजयीभव ।
इति नीलकृतं श्रीआञ्जनेयस्तोत्रम् ।

श्री एकमुखी हनुमत्कवचम्

श्री एकमुखी हनुमत्कवचं प्रारभ्यते ।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥
श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥
श्री हनुमते नमः
एकदा सुखमासीनं शङ्करं लोकशङ्करम् ।
पप्रच्छ गिरिजाकान्तं कर्पूरधवलं शिवम् ॥
पार्वत्युवाच
भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगद्गुरो ।
शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद्ध्रुवम् ॥
सङ्ग्रामे सङ्कटे घोरे भूतप्रेतादिके भये ।
दुःखदावाग्निसन्तप्तचेतसां दुःखभागिनाम् ॥
ईश्वर उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।
विभीषणाय रामेण प्रेम्णा दत्तं च यत्पुरा ॥
कवचं कपिनाथस्य वायुपुत्रस्य धीमतः ।
गुह्यं ते सम्प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छृणु सुन्दरि ॥
ॐ अस्य श्रीहनुमत् कवचस्त्रोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । श्रीमहावीरो हनुमान् देवता। मारुतात्मज इति बीजम् ॥
ॐ अञ्जनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रैं ह्रां ह्रौं इति कवचम् ।
स्वाहा इति कीलकम् । लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् ।
मम सकलकार्यसिद्ध्यर्थे जपे वीनियोगः ॥
अथ न्यासः
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ अञ्जनीसूनवे हृदयाय नमः । ॐ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा ।
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् ।
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ब्रह्मास्त्रनिवारणाय अस्त्राय फट् ।
ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमही ।
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॐ हुं फट् स्वाहा ॥ इति दिग्बन्धः ॥
अथ ध्यानम् ॥
ॐ ध्यायेद्बालदिवाकरधृतिनिभं देवारिदर्पापहं
देवेन्द्रप्रमुखप्रशस्तयशसं देदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालङ्कृतम् ॥ १॥
उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं
मौञ्जीयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिखाशोभितं कुण्डलाङ्गम् ।
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं
ध्यायेद्देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्पदीभूतवार्धिम् ॥ २॥
वज्राङ्गं पिङ्गकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डलमण्डितम् ।
नियुद्धकर्मकुशलं पारावारपराक्रमम् ॥ ३॥
वामहस्ते महावृक्षं दशास्यकरखण्डनम् ।
उद्यद्दक्षिणदोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥ ४॥
स्फटिकाभं स्वर्णकान्ति द्विभुजं च कृताञ्जलिम् ।
कुण्डलद्वयसंशोभिमुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥ ५॥
उद्यदादित्यसङ्काशमुदारभुजविक्रमम् ।
कन्दर्पकोटिलावण्यं सर्वविद्याविशारदम् ॥ ६॥
श्रीरामहृदयानन्दं भक्तकल्पमहीरूहम् ।
अभयं वरदं दोर्भ्यां कलये मारूतात्मजम् ॥ ७॥
अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित ।
प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥ ८॥
यो वारांनिधिमल्पपल्वलमिवोल्लङ्घ्य प्रतापान्वितो
वैदेहीघनशोकतापहरणो वैकुण्ठतत्त्वप्रियः ।
अक्षाद्यर्चितराक्षसेश्वरमहादर्पापहारी रणे ।
सोऽयं वानरपुङ्गवोऽवतु सदा युष्मान्समीरात्मजः ॥ ९॥
वज्राङ्गं पिङ्गकेशं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं
नाना विद्याधिनाथं करतलविधृतं पूर्णकुम्भं दृढं च
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं
त्रैलोक्यत्राणकारं सकलभुवनगं रामदूतं नमामि ॥ १०॥
उद्यल्लाङ्गूलकेशप्रलयजलधरं भीममूर्तिं कपीन्द्रं
वन्दे रामाङ्घ्रिपद्मभ्रमरपरिवृतं तत्त्वसारं प्रसन्नम् ।
वज्राङ्गं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं
दम्भोलिस्तम्भसारप्रहरणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ ११॥
वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकण्ठलग्नम् ।
दधानमासाद्य सुवर्णवर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डलरामदूतम् ॥ १२॥
पद्मरागमणिकुण्डलत्विषा पाटलीकृतकपोलमण्डलम् ।
दिव्यगेहकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥ १३॥
ईश्वर उवाच
इति वदति विशेषाद्राघवो राक्षसेन्द्रम्
प्रमुदितवरचित्तो रावणस्यानुजो ह्
रघुवरवरदूतं पूजयामास भूयः
स्तुतिभिरकृतार्थः स्वं परं मन्यमानः ॥ १४॥
वन्दे विद्युद्वलयसुभगस्वर्णयज्ञोपवीतं
कर्णद्वन्द्वे कनकरुचिरे कुण्डले धारयन्तम् ।
उच्चैर्हृष्यद्द्युमणिकिरणश्रेणिसम्भाविताङ्गं
सत्कौपीनं कपिवरवृतं कामरूपं कपीन्द्रम् ॥ १५॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं सततं स्मरामि ॥ १६॥
ॐ नमो भगवते हृदयाय नमः ।
ॐ आञ्जनेयाय शिरसे स्वाहा ।
ॐ रुद्रमूर्तये शिखायै वषट् ।
ॐ रामदूताय कवचाय हुम् ।
ॐ हनुमते नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ अग्निगर्भाय अस्त्राय फट् ।
ॐ नमो भगवते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ आञ्जनेयाय तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ रुद्रमूर्तये मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ वायुसूनवे अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ अग्निगर्भाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
अथ मन्त्र उच्यते
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः ।
ॐ ह्रीं ह्रौं ॐ नमो भगवते महाबलपराक्रमाय भूतप्रेतपिशाच
शाकिनी डाकिनी यक्षिणी पूतनामारी महामारी
भैरव-यक्ष-वेताल-राक्षस-ग्रहराक्षसादिकं
क्षणेन हन हन भञ्जय भञ्जय
मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामाहेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते हनुमदाख्याय रुद्राय सर्वदुष्टजनमुखस्तम्भनं
कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रूं ठंठंठं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते अञ्जनीगर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणानन्दकराय
कपिसैन्यप्रकाशनाय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाधकाय
रणोच्चाटनाय कुमारब्रह्मचारिणे गम्भीरशब्दोदयाय
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं सर्वदुष्टनिवारणाय स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते सर्वग्रहानुभूतभविष्यद्वर्तमानान् दूरस्थान्
समीपस्थान् सर्वकालदुष्टदुर्बुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलानि
क्षोभय क्षोभय
मम सर्वकार्यं साधय साधय हनुमते
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् देहि ।
ॐ शिवं सिद्धं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते परकृतान् तन्त्रमन्त्र-पराहङ्कारभूतप्रेतपिशाच
परदृष्टिसर्वविघ्नदुर्जनचेटकविधान् सर्वग्रहान् निवारय निवारय
वध वध पच पच दल दल किल किल
सर्वकुयन्त्राणि दुष्टवाचं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि एहि
सर्वग्रहभूतानां शाकिनीडाकिनीनां विषं दुष्टानां सर्वविषयान्
आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय भेदय भेदय
मृत्युमुत्पाटयोत्पाटय शोषय शोषय ज्वल ज्वल प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल
भूतमण्डलं प्रेतमण्डलं पिशाचमण्डलं निरासय निरासय
भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर विषमज्वर माहेश्वरज्वरान्
छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि
अक्षिशूल-वक्षःशूल-शरोभ्यन्तरशूल-गुल्मशूल-पित्तशूल-
ब्रह्मराक्षसकुल-परकुल-नागकुल-विषं नाशय नाशय
निर्विषं कुरु कुरु फट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं सर्वदुष्टग्रहान् निवारय फट् स्वाहा ॥
ॐ नमो हनुमते पवनपुत्राय वैश्वानरमुखाय
हन हन पापदृष्टिं षण्ढदृष्टिं हन हन
हनुमदाज्ञया स्फुर स्फुर फट् स्वाहा ॥
श्रीराम उवाच
हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।
प्रतीच्यां पातु रक्षोघ्न उत्तरस्यामब्धिपारगः ॥ १॥
उदीच्यामूर्ध्वगः पातु केसरीप्रियनन्दनः ।
अधश्च विष्णुभक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ॥ २॥
अवान्तरदिशः पातु सीताशोकविनाशनः ।
लङ्काविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरन्तरम् ॥ ३॥
सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः ।
भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये निरन्तरम् ॥ ४॥
नेत्रे छायाऽपहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।
कपोलकर्णमूले तु पातु श्रीरामकिङ्करः ॥ ५॥
नासाग्रे अञ्जनीसूनुर्वक्त्रं पातु हरीश्वरः ।
वाचं रूद्रप्रियः पातु जिह्वां पिङ्गललोचनः ॥ ६॥
पातु दन्तान् फाल्गुनेष्टश्चिबुकं दैत्यप्राणहृत् ।
var ओष्ठं रामप्रियः पातु चिबुकं दैत्यकोटिहृत्
पातु कण्ठं च दैत्यारिः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः ॥ ७॥
भुजौ पातु महातेजाः करौ तु चरणायुधः ।
नखान्नखायुधः पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ॥ ८॥
वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः ।
लङ्काविभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् ॥ ९॥
नाभिञ्च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।
गुह्मं पातु महाप्राज्ञः सृक्किणी च शिवप्रियः ॥ १०॥
ऊरू च जानुनी पातु लङ्काप्रासादभञ्जनः ।
जङ्घे पातु महाबाहुर्गुल्फौ पातु महाबलः ॥ ११॥
अचलोद्धारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ।
पादान्ते सर्वसत्वाढ्यः पातु पादाङ्गुलीस्तथा ॥ १२॥
सर्वाङ्गानि महावीरः पातु रोमाणि चात्मवान् ।
हनुमत्कवचं यस्तु पठेद्विद्वान् विचाक्षणः ॥ १३॥
स एव पुरूषश्रेष्ठो भक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।
त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयं सदा ॥ १४॥
सर्वान् रिपून् क्षणे जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्यदि ॥ १५॥
क्षयाऽपस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवारणम् ।
आर्किवारेऽश्वत्थमूले स्थित्वा पठतिः यः पुमान् ॥ १६॥
अचलां श्रियमाप्नोति सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ १७॥
यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
विवाहे दिव्यकाले च द्यूते राजकुले रणे ॥ १८॥
भूतप्रेतमहादुर्गे रणे सागरसम्प्लवे ।
दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारी जितेन्द्रियः ॥ १९॥
विजयं लभते लोके मानवेषु नराधिपः ।
सिंहव्याघ्रभये चाग्नौ शरशस्त्रास्त्रयातने ॥ २०॥
शृङ्खलाबन्धने चैव काराग्रहनियन्त्रणे ।
कायस्तम्भे वह्निदाहे गात्ररोगे च दारूणे ॥ २१॥
शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रहविनाशने ।
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोत्यसंशयम् ॥ २२॥
भूर्जे वा वसने रक्ते क्षौमे वा तालपत्रके ।
त्रिगन्धेनाथवा मस्या लिखित्वा धारयेन्नरः ॥ २३॥
पञ्चसप्तत्रिलौहैर्वा गोपितं कवचं शुभम् ।
गले कट्यां बाहुमूले वा कण्ठे शिरसि धारितम् ॥ २४॥
सर्वान् कामानवाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितम् ॥ २५॥
उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ॥ २६॥
ॐ हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः ।
श्रीरामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥ २७॥
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः ।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २८॥
द्वादशैतानि नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः ।
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत् ॥ २९॥
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् ।
धनधान्यं भवेत्तस्य दुःखं नैव कदाचन ॥ ३०॥
!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557
ॐ ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गते नारद अगस्त्य संवादे ।
श्रीरामचन्द्रकथितपञ्चमुखे एकमुखी हनुमत् कवचम् ॥


Saturday, 20 August 2016

श्री वेङ्कटेश प्रातःस्तुती देवीकृत ॥

श्री वेङ्कटेश प्रातःस्तुती देवीकृत ॥
सा द्वारदेशे श्रीनिवासस्य देवी स्वामिपुष्करिणीं ददृशे कैश्च सार्धम् ।
स्वामिन्हरे श्रीनिवासेति सा तं ब्रह्मादीनां तारकं सम्प्रदध्यौ ॥ १॥
देवैः सार्धं पालनार्थं च विष्णुरस्त्येव नित्यं पुष्करिण्यां जलेषु ।
अतः स्वामिपुष्करिणीति चाहुस्तत्र स्नानं कन्यकान्याश्च चक्रुः ॥ २॥
शुचिर्भूत्वा श्रीनिवासं च देवास्तप्तुं विविशुः शुद्धभक्त्या खगेन्द्र ।
यथोपदिष्टं गुरुणा तथैव चक्रे कन्याश्च सर्वं खगेन्द्र ॥ ३॥
तदा हरिर्दर्शयामास तस्यै स्वकं रूपं सुप्रतीके सुपूर्णम् ।
सा कन्यका श्रीनिवासस्य रूपं ददर्श भक्त्या स्वमनोऽभिरामम् ॥ ४॥
सुवर्णचित्रं वसनं वसानं सोष्णीषकं कञ्चुकं संदधानम् ॥ ५॥
मृगोत्थमदगन्धेन सुरभीकृतदिङ्मुखम् ।
पुण्डरीकविशालाक्षं कंबुग्रीवं महाभुजम् ॥ ६॥
हेमयज्ञोपवीताङ्गं साक्षात्कन्दर्पसन्निभम् ।
जगन्मोहनसौन्दर्ये कोमलाङ्गं मनोहरम् ॥ ७॥
दृष्ट्वा च कन्या मुमुदे रोमाञ्चितसुगात्रका ॥ ८॥
तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशया प्रेम्णाथ रोमाश्रुकुलाकुलेक्षणा ।
ननर्त देवी पुरतस्तस्य विष्णोः सा ध्वस्तदोषा परमादरेण ।
आनन्द मां पाहि सुखं च दत्त्वा मुकुन्द मां पाहि विमुक्तिदानात् ॥ ९॥
मां पाहि नित्यं ह्यरविन्दनेत्र प्रसन्नदृष्ट्या करुणासुधार्द्र ।
गोविन्द गोविन्द सुदुःखितां मां ज्ञानादिदानेन हि पाहि नित्यम् ॥ १०॥
जनार्दन त्वं हि सुदुष्टसंगान्कामादिरूपान्सततं वर्जयित्वा ।
हरे हरे मां सततं पाहि दैत्यान्समाहृत्य प्रबलान्विघ्नरूपान् ॥ ११॥
रमेश मां पाहि चतुर्मुखेश विश्वेश मां पाहि सरस्वतीश ।
रमेश मां पाहि निदानमूर्ते वृन्दारवृन्दैर्वन्दितपादपद्म ॥ १२॥
एवं तु नत्वा परमादरेण तुष्टाव विष्णुं परमं पुराणम् ।
लक्ष्म्या सदा येऽविदिता गुणाश्च असंख्याताः संति विष्णौ च वीश ॥ १३॥
तेषां सकाशादतिबाहुल्यसंख्या गुणा हरौ तेऽविदिता वै रमायाः ।
अतो हरे स्तवने क्वास्ति शक्तिस्तथापि यत्नं स्तवने ते करिष्ये ॥ १४॥
तव प्रसादाच्च रमाप्रसादाद्विधिप्रसादात्भारतीशप्रसादात् ।
रुद्रप्रसादात्स्तवनं ते करिष्ये तथापि विष्णो मयि शान्तिं कुरुष्व ॥ १५॥
यदि प्रसन्नोऽसि मयि त्वमीश त्वत्पादमूले देहि भक्तिं सदैव ।
त्वद्दर्शनाद्देव शुभाशुभं च नष्टं मदीयं ह्यशुभं च नित्यम् ॥ १६॥
त्वन्मायया नष्टमिमं च लोकं मदेन मत्तं बधिरं चान्धभूतम् ।
ऐश्वर्ययोगेन च यो हि मूको जातः सदा दीनगुर्वादिकेषु ॥ १७॥
मां देहि ऐश्वर्यमनुत्तमं त्वत्पादारविन्दस्य विरुद्धभूतम् ।
त्वं देव मे देहि सतां च संगं तव स्वरूपप्रतिपादकानाम् ॥ १८॥
पुत्रादीनामैहिकं वासुदेव दग्ध्वा च मे देहि पादारविन्दे ।
सद्वैष्णवे क्रियमाणं च कोपं दग्ध्वा च मे देहि पादारविन्दे ॥ १९॥
द्रव्यादिके क्रियमाणं च लोभं दग्ध्वा वै मे देहि पादाब्जमूले ।
पुत्रादिके क्रियमाणं च मोहं दग्ध्वा च मे देहि पादाब्जमूले ॥ २०॥
विद्यापुत्रद्रव्यजातं मदं च दग्ध्वा च मे देहि पादाब्जमूले ।
सद्वैष्णवासहमानस्वरूपं दग्ध्वा मात्सर्यं पाहि मां वेङ्कटेश ॥ २१॥
मन्त्रं च मे देहि निदानमूर्ते येनैव मे स्यात्तव संगश्च भूयः ।
नान्यं वृणे तव पादाब्जसंगात्तदेव मे देहि मम प्रसन्नः ॥ २२॥
इतीरितः श्रीनिवासः प्रसन्न उवाच देवो ह्यमृतस्त्रवं च ।
अत्रैव कन्ये प्रजपस्व मन्त्रं सुगोप्यरूपं परमादरेण ॥ २३॥
वक्ष्यामि मन्त्रं परमादरेण शृण्वद्य भक्त्या परमादरेण ।
अन्तःस्थमन्त्यं ह्याद्यसंयुक्तमेव सबिन्दु तद्वत्स्पर्शकाद्येन युक्तम् ॥ २४॥
एकारयुक्तं प्रथमान्तःस्थयुक्तं समत्रिकोणे चोष्मणा संयुतं च ।
तकारसक्तं स्पर्शमन्तः स्थयुक्तमाद्यन्त ओंकारसमन्वितं च ॥ २५॥
अनेन मन्त्रेण तवेप्सितं च भवेद्धि कन्ये नात्र विचार्यमस्ति ।
एवं स उक्त्वा श्रीनिवासो हरिस्तु प्रतीकवद्दर्शयामास रूपम् ॥ २६॥
नत्वा तु सा श्रीनिवासं च देवी उवास ह स्वामिसरःसमीपे ।
तस्मिन्दिने ब्राह्मणादींश्च सर्वान्संतर्पयामास च षड्रसान्नैः ॥ २७॥
सायङ्काले श्रीनिवासस्य दृष्ट्वा उत्साहरूपैः श्रीनिवासप्रतीकैः ।
साकं भक्त्या सम्प्रणम्याथ देवी प्रदक्षिणं श्रीनिवासस्य सुष्ठु ॥ २८॥
ननर्त देवी सुप्रतीकस्य चाग्रे लज्जां त्यक्त्वा जय देवेति चोक्त्वा ।
आनृत्तकाले च हरेश्च वक्त्रं दृष्ट्वा च दृष्ट्या तु परं ननर्त ॥ २९॥
ममाद्य गात्रं पावितं श्रीनिवास ममाद्य नेत्रं सफलं संबभूव ।
ममाद्य पादौ सार्थकौ चैव जातौ प्रदक्षिणं श्रीनिवासेश कृत्वा ॥ ३०॥
हस्तौ च मे सार्थकावद्य जातौ अग्रे कृत्वा हस्तशब्दं मुरारेः ।
एवं वदन्ती प्रीणयन्ती च देवं जगाम सा स्तोत्रवचः कदम्बैः ॥ ३१॥
देवास्तदा दुन्दुंभयो विनेदिरे तन्मस्तके पुष्पवृष्टिं च चक्रुः ।
तस्मिन्काले उभयोः पार्श्वयोश्च नृत्यं चक्रुर्देवतावारनार्यः ॥ ३२॥
तथैव तास्तलशब्दं च कृत्वा तदा सर्वा नमनं चापि चक्रुः ।
आनन्दशैले सर्वदा त्वित्थमेव सा सर्वदा नर्तयन्ती च वीन्द्र ॥ ३३॥
आनन्दमग्ना सापि देवी जगाम स्वमाश्रमं जैगिषव्येण सार्धम् ।
यात्रामेवं ये न कुर्वन्ति वीन्द्र तेषां च सर्वं निष्फलं चाहुरार्याः ॥ ३४॥
गत्वाश्रमं जैगिषव्येण सार्धं गुरुं त्वपृच्छद्वेङ्कटेशस्य मन्त्रम् ।
मन्त्रस्यार्थं ब्रूहि मे जैगिषव्य मन्त्रावृत्तिं कुर्वतां वै फलाय ॥ ३५॥
जैगीषव्य उवाच ।
शृणुष्व भद्रे वेङ्कटेशस्य नाम्नस्त्वर्थं श्रुत्वा हृदये संनिधत्स्व ॥ ३६॥
विति ह्युत्तमवाची स्याद्येति ज्ञानमुदाहृतम् ।
ककारः सुखवाची स्याट्टेति चित्तमुदाहृतम् ॥ ३७॥
ईशत्वमात्मवाचि स्यादेवं ज्ञेयं तु कन्यके ।
पूर्णज्ञानं सुखं वित्तं व्याप्तत्वाद्व्यङ्कटाभिधः ॥ ३८॥
व्य (वे) मिन्द्रियादिकं प्रोक्तं व्यङ्गभूतं हरौ यतः ।
कटश्च समुदायार्थो व्यं (वें) कटश्चेन्द्रियौघकः ॥ ३९॥
स्वस्मिन्प्रेरयते यस्मात्तस्माद्व्यङ्कटनामकः ।
विषये प्रेषयेन्नित्यमतो व्यङ्कटनामकः ॥ ४०॥
विशिष्टज्ञानरूपत्वाद्व्येति मुक्ताः सदा स्मृताः ।
मुक्तानां च समूहस्तु व्यङ्कटेति प्रकीर्तितः ॥ ४१॥
सदा मुक्तसमूहानामीशत्वाद्व्यङ्कटाभिधः ।
लिङ्गदेहमतो जीवो व्यङ्कटेति समाहृतः ॥ ४२॥
लिङ्गानां चैव स्वामित्वाद्व्यङ्कटेशेति संज्ञितः ।
दैत्यानां च समूहास्तु ज्ञानादिविधुरा यतः ।
अतो दैत्यसमूहस्तु व्यङ्कटेति प्रकीर्तितः ॥ ४३॥
तेषां संहरणे ईशस्त्वतो व्यङ्कटनामकः ।
आनन्दस्य विरुद्धत्वात्कामक्रोधादयो गुणाः ॥ ४४॥
व्यङ्कटा इति सम्प्रोक्तास्तेषां नाशयिता प्रभुः ।
अतस्तु व्यङ्कटेशाख्य एवं ज्ञात्वा जपं कुरु ॥ ४५॥
एवं व्यङ्कटमाहात्म्यं श्रुत्वा देवी खगेश्वर ।
निद्रां चकार तत्रैव रात्रौ पित्रा सहैव च ।
ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय हृदि सस्मार कन्यका ॥ ४६॥
(व्यङ्कटेशस्य प्रातः स्तुति) ।
श्रीव्यङ्कटेशश्च नृसिंहमूर्तिः श्रीवरदराजश्च वराहमूर्तिः ।
श्रीरङ्गशायी च अनन्तशायी कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ४७॥
श्रीकृष्णमूर्तिश्च गदाधरश्च श्रीविष्णुपादस्तु प्रयागवासः ।
नारायणः श्रीबदरीनिवासः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ४८॥
दामोदरो वै त्रिजगन्निवासः श्रीपाण्डुरङ्गश्च नृसिंहदेवः ।
श्रीरामदेवश्च अमोघवासः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ४९॥
श्रीधर्मपुत्रश्च नृसिंहमूर्तिः श्रीपिप्पलस्थश्च मुहल्लवासः ।
कोलानृसिंहः शूर्पकारस्थ सिंहः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५०॥
चतुर्मुखश्चारुसरस्वती च स्वभारती शर्वसुपर्णशेषाः ।
उमामहेन्द्रश्च शचीमुखास्ताः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५१॥
द्वारावती काशिकावन्तिका च प्रयागकाञ्च्यौ मथुरापुरी च ।
मायावती हस्तिमती पुरी च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५२॥
भागीरथी चैव सरस्वती च गोदावरी सिन्धुकृष्णे च वेणी ।
कलिन्दकन्या यमुना च नर्मदा कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५३॥
वितस्तिकावेरिसतुङ्गभद्राः सुवञ्जरा भीमरथी विपाशा ।
सुताम्रपर्णी च पिनाकिनी च कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५४॥
स्वामिपुष्करिणी चैव सुवर्णमुखरी तथा ।
श्रीपाण्डवी तौंबरुश्च कपिला पापनाशनी ॥ ५५॥
गुरुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः ।
रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५६॥
सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च द्वीपाश्च सप्तोपवनानि सप्त ।
भूरादिकानि भुवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५७॥
मान्धाता नहुषोऽम्बरीषसगरौ राजा नलो धर्मराट्-
प्रह्लादः क्रतुराड्विभीषणगयौ व्यासो हनूमानपि ।
अश्वत्थाम कृपावुमा द्रुपदजा श्रीजानकी तारका
मन्दोदर्यखिलाः प्रभातसुमहं कुर्वन्तु नित्यं हरे ॥ ५८॥
अश्वत्थस्य वनानि किं च तुलसीधात्रीवनानि प्रभो
पुन्नागस्य वनानि चंपकवनान्यन्यानि पुष्पाणि च ।
मन्दारस्य वनानि यानि च हरेः सौगन्धिकान्यप्यहो
नित्यं तानि दिशन्तु मत्प्रमुदितं श्रीवेङ्कटेश प्रभो ॥ ५९॥
एवं स्मृत्वा श्रीनिवासस्य देवी कृत्वा शौचं जैगिषव्येण साकम् ।
स्नातुं ययौ पुष्करिणीं हरेश्च स्नानं सम्यक्तत्र चकार देशे ।
सम्यग्जप्त्वा व्यङ्कटेशस्य मन्त्रमुवाच सा जैगिषव्यं गुरुं च ॥ ६०॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे तृतीयांशे ब्रह्मकाण्डे
देवी कृतवेङ्कटेशदर्शनतत्स्तुत्यादिवर्णनं नाम पञ्चविंशोध्यायः ॥

Thursday, 11 August 2016

तुलसी स्तुतिः Tulsi Stutihi

तुलसी स्तुतिः नारायण उवाच
अन्तर्हितायां तस्यां च गत्वा च तुलसीवनम् I
हरिः सम्पूज्य तुष्टाव तुलसीं विरहातुरः II १ II
श्रीभगवानुवाच
वृन्दारूपाश्च वृक्षाश्च यदैकत्र भवन्ति च I
विदुर्बुधास्तेन वृन्दां मत्प्रियां तां भजाम्यहम् II २ II
पुरा बभूव या देवी त्वादौ वृन्दावने वने I
तेन वृन्दावनी ख्याता सौभाग्यां तां भजाम्यहम् II 3 II
असंख्येषु च विश्वेषु पूजिता या निरन्तरम् I
तेन विश्वपूजिताख्यां जगत्पूज्यां भजाम्यहम् II ४ II
असंख्यानि च विश्वानि पवित्राणि यया सदा I
तां विश्वपावनीं देवीं विरहेण स्मराम्यहम् II ५ II
देवा न तुष्टाः पुष्पाणां समूहेन यया विना I
तां पुष्पसारां शुद्धां च द्रष्टुमिच्छामि शोकतः II ६ II
विश्वे यत्प्राप्तिमात्रेण भक्तानन्दो भवेद् ध्रुवम् I
नन्दिनी तेन विख्याता सा प्रीता भवताद्धि मे II ७ II
यस्या देव्यास्तुला नास्ति विश्वेषु निखिलेषु च I
तुलसी तेन विख्याता तां यामि शरणं प्रियाम् II ८ II
कृष्णजीवनरुपा या शश्वत्प्रियतमा सती I
तेन कृष्णजीवनीति मम रक्षतु जीवनम् II ९ II
II इति श्रीब्रह्मवैवर्ते प्रकृतिखण्डे तुलसी स्तुतिः श्रीतुलसिमातां समर्पणमस्तु II
Tulsi Stutihi Narayana Uvacha
antarhitaayaam tasyaam cha gatvaa cha tulsivanam I
harihi sampoojya tushtava tulasim virahaaturaha II 1 II
Shri Bhagwanuvacha (shri Bhagwan said)
Vrundaaroopaashcha vrukshaashcha yadaikatra bhavanti cha I
vidurbudhasten matpriyaam taam bhjaamyaham II 2 II
pura babhuva yaa devi tvaadou vrundaavane vane I
ten vrundaavani khyaataa soubhaagyaam taam bhjaamyaham II 3 II
asamkhyeshu cha vishveshu poojitaa yaa nirantaram I
ten vishvapoojitaakhyaam jagatpoojyaam bhjaamyaham II 4 II
asamkhyani cha vishvaani pavitraani yayaa sadaa I
taam vishvapaavanim devim virahena smaraamyaham II 5 II
deva na tushtaahaa pushanaam samoohena yayaa vinaa I
taam pushpasaaraam shuddhaam cha drashtumichchhami shokataha II 6 II
vishve yatpraaptimaatrena bhaktaanando bhaved dhruvam I
nandini tena vikhyaataa saa pritaa bhavataaddhi me II 7 II
yasyaa devyaastulaa naasti vishveshu nikhileshu cha I
tulsi ten vikhyaataa taam yaami sharanam priyaam II 8 II
krishnajivanarupaa yaa shashvatpriyatamaa sati I
ten krushnajivaniti mama rakshatu jivanam II 9 II

II iti shri brahma vaivarte prakruti khande tulsi stutihi tulasimaataam samarpanmstu I

Latest Blog

शीतला माता की पूजा और कहानी

 शीतला माता की पूजा और कहानी   होली के बाद शीतला सप्तमी और शीतला अष्टमी का पर्व मनाया जाता है. इसे बसौड़ा पर्व भी कहा जाता है  इस दिन माता श...