हयग्रीव अवतार हयग्रीव जयंती
ऋषि बोले .. हे सूत जी ! आप के यह आश्चर्यजनक वचन सुन कर हम सब के मन में अत्याधिक संदेह हो रहा हे. सब के स्वामी श्री जनार्धन माधव का सिर उनके शरीर से अलग हो गया !! और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाये गये - अश्व मुख वाले . आह ! इस से अधिक और आश्चर्यजनक क्या हो सकता हे. जिनकी वेद भी प्रशंसा करते हैं, देवता भी जिसपर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं, आदिदेव जगन्नाथ, आह ! यह कैसे हुआ कि उनका भी सिर कट गया ! हे परम बुद्धिमान ! इस वृत्तांत का विस्टा से वर्णन कीजिये.
सूत जी बोले.. हे मुनियों, देवों के देव, परम शक्तिशाली, विष्णु के महान कृत्य को ध्यान से सुनें. एक बार अनंत देव जनार्धन दस सहस्त्र वर्षों के सतत युद्ध के उपरान्त थक गए थे. तब भगवान एक मनोरम स्थान में पद्मासन में विराजमान हो, अपना सिर एक प्रत्यंचा चड़े हुए धनुष पर रखकर सो गए. उसी समय इन्द्र तथा अन्य देवों, ब्रहमा और महेश, ने एक यज्ञ प्रारम्भ किया.
तब वे सब देवों के हित में यज्ञ की सफलता के लिए, सभी यज्ञों के स्वामी, भगवान जनार्धन के पास वैकुंठ में गए. वहाँ विष्णु को न पा कर उन्होंने ध्यान द्वारा उस स्थान को जाना जहां भगवान विष्णु विश्राम कर रहे थे. वहाँ जाकर उन्होंने देवों के देव भगवान विष्णु को योगनिद्रा में बेसुध देखा. उन्हें सोते हुए देखकर ब्रहमा, रूद्र और अन्य देवता चिंतित हो गए.
इन्द्र बोले .. "हे श्रेष्ठ देवों ! अब क्या किया जाये. हम भगवान को निद्रा से कैसे जगाएं?" इन्द्र के यह वचन सुन शम्भु बोले .. "हे उत्तम देवों ! अब हमें अपना यज्ञ पूर्ण करना चाहिए. परन्तु यदि भगवान की निद्रा में बाधा डाली गयी तो वे क्रुद्ध होंगे". शंकर के यह शब्द सुनकर परमेष्ठी ब्रहमा ने वामरी कीट की रचना की तांकि वह धनुष के अग्र भाग को काट दे जिससे धनुष ऊपर उठ जाये और विष्णु की निद्रा टूट जाये. इस प्रकार देवों का प्रयोजन निश्चय ही पूर्ण हो जायेगा. इस प्रकार निश्चय कर ब्रहमा के वामरी कीट को धनुष काटने का आदेश दिया.
इस आदेश को सुनकर वामरी बोले .. "हे ब्रहमा ! मैं देवों के देव, लक्ष्मी के स्वामी, जगतगुरु की निद्रा में कैसे बाधा दाल सकता हूँ? किसी को गहरी नींद से उठाना, किसी के भाषण में बाधा डालना, किसी पति - पत्नी को पृथक करना, किसी माता से सन्तान को अलग करना, ये सब कर्म ब्रह्महत्या के अनुरूप हैं. इसलिए हे देव ! मैं देवदेव की निंद्रा कैसे भंग कर सकता हूँ. और मुझे धनुष काटने से क्या लाभ होगा. यदि किसी मनुष्य की कोई व्यक्तिगत रूचि हो तो वह पाप कर भी सकता है, यदि मेरा भी कोई लाभ हो तो मैं धनुष काटने को तैयार हूँ.
ब्रहमा बोले ... हम सब तुम्हें भी अपने यज्ञ में भाग देंगे, इसलिए अपना कार्य करो और विष्णु को उनकी निद्रा से जगा दो. होम के समय में जो भी घी होम - कुंड से बाहर गिरेगा, उस पर तुम्हारा अधिकार होगा, इसलिए शीघ्र अपना कार्य करो.
सूत जी बोले ... ब्रहमा के आदेश अनुसार वामरी ने धनुष के अग्रभाग, जिसपर वह भूमि पर टिका था, को काट दिया. तुरंत प्रत्यंचा टूट गयी और धनुष ऊपर उठ गया और एक भयानक आवाज हुई. देवता भयभीत हो गए और सम्पूर्ण जगत उत्तेजित हो गया. सागर में उफान आने लगे, जलचर चौंक उठे, तेज हवा चलने लगी, पर्वत हिलने लगे और अशुभ उल्का गिरने लगे. दिशाओं ने भयानक रूप धारण कर लिया और सूर्य अस्त हो गया. विपत्ति की इस घड़ी में चिंतित हो गए. हे सन्यासियों ! जिस समय देव इस चिंता में थे, देवदेव विष्णु का सिर मुकुट सहित गायब हो गया, और किसीको भी यह पता ना चल सका कि वह कहाँ गिरा है.
जब वह घोर अन्धकार मिटा, ब्रहमा और महादेव ने विष्णु के सिर - विहीन विकृत शरीर को देखा. विष्णु की उस बिना सिर के आकृति देखकर वे बहुत हैरान थे, वे चिंता के सागर में डूब गये और शोक से अभिभूत हो, जोर से रोना शुरू कर दिया. हे प्रभु! स्वामी हे!हे देवा देवा! हे अनन्त!क्या अप्रत्याशित असाधारण दुर्घटना आज हमारे लिए हुई है! हे देव ! आप को तो कोई छेद नहीं सकता, कोई इस प्रकार से काट सकता है, और ना ही जला सकता है, तब फिर आपका सिर गायब कैसे हो सकता है. क्या यह किसी की माया है. हे सर्व व्यापक ! आपकी ऐसी दशा होते देवता किसी प्रकार जीवित रह सकते हैं. हम सब अपने स्वार्थ के कारण रो रहे हैं, शायद यह सब इसी से हुआ है. यह किसी देत्य, यक्ष या राक्षस ने नहीं किया है. हे लक्ष्मी पति ! यह दोष हम किसे मड़ेगे? देवताओं ने स्वय ही अपनी हानि की है?
हे देवताओं के स्वामी ! देवता अब आश्रित हैं. ये आपके अधीन हैं. अब हम कहाँ जायें. अब हम क्या करें. अब मूड व मूर्ख देवताओं की रक्षा कौन करेगा. उसी समय शिव और अन्य देवों को रोता देखकर वेदों के ज्ञाता ब्रहस्पति इस प्रकार बोले .. "हे महाभागे ! अब इस प्रकार रोने और पछताने से क्या लाभ है. अब तुम्हें अपनी इस विपत्ति के निवारण के बारे विचार करना चाहिए. हे देवताओं के स्वामी ! भाग्य और कर्म दोनों समान हैं. यदि भाग्य से सफलता प्राप्त नहीं होती तो अपने प्रयास और गुणों से निश्चित ही सफलता प्राप्त होती है.
इन्द्र बोले ... तुम्हारे परिश्रम को धिक्कार है, जबकि हमारी आँखों के सामने भगवान विष्णु का सिर गायब हो गया. तुम्हारी बुद्धि और शक्ति को धिक्कार है, मेरे विचार से भाग्य ही सर्वोच है. ब्रहमा बोले .. शुभ या अशुभ, दैव की आज्ञा सब को माननी पडती है, कोई भी दैव को नकार नहीं सकता. इसमें कोई संदेह नहीं है की जो शरीर धारण कर्ता है उसे सुख और दुःख भुगतने ही पड़ते है. आह ! भाग्य की विडम्बना से ही भुत समय पहले शम्भु ने मेरा एक सिर काट दिया था. तथा एक श्राप के कारण उनका प्रजनांग कट गया था. उसी प्रकार आज भगवान विष्णु का सिर भी क्षीर सागर में गिर गया है. समय के प्रभाव से ही शचीपति इन्द्र को भी स्वर्ग त्याग कर मान सरोवर में रहना पड़ा था, और भी अनेक कष्ट सहने पड़े थे.
हे यशस्वी ! जब इन सब को दुःख भुगतना पड़ता है तो फिर संसार में ऐसा कौन है जिसे कष्ट नही होता. इसलिए अब शोक मत करो और अनंत महामाया, सब की माता, का ध्यान करें
, जो सब का आश्रय हैं, जो ब्रह्मविद्या का स्वरूप हैं, और जो गुणों से परे हैं, जो मूल प्रकृति हैं, और जो कि तीनों लोकों, सम्पूर्ण ब्रह्मांड और चर . अचर में व्याप्त है. अब वे ही हमारा कल्याण करेंगी. सूत जी बोले ... इस प्रकार देवताओं को कहकर, देव कार्य की सफलता के लिये वेदों को आदेश दिया.
ब्रहमा जी बोलें .. "हे वेद ! अब आप सब पूजनीय सर्वोच्च महा माया देवी की स्तुति करें, जो की ब्रह्मविद्या हैं, जो सभी कार्य सफल करती हैं, सभी रूपों में तिरोहित हैं". उनके वचन सुनकर समस्त वेद महामाया देवी की स्तुति करने लगे.
वेदों द्वारा स्तुति
सूत जी बोले .. इसप्रकार वेदों, उनके अंगों, सम-अंगों, द्वारा स्तुति किये जाने पर निर्गुण महेश्वरी महामाया देवी प्रसन्न हुई. उस समय सब को खुशी देने वाली आकाश वाणी सुने दी .. " हे देवो ! सब चिंता त्याग दो. तुम सब अमर हो. होश में आओ. मैं वेदों द्वारा की गयी स्तुति से अत्यंत प्रसन्न हूँ. जो भी मनुष्य मेरे इस स्तोत्र को श्रद्धा पूर्वक पड़ेगा उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होंगी. जो भी तीनों संध्याओं में इसे सुनेगा उसकी सभी विपत्तियां दूर होंगी और प्रसन्नता प्राप्त होगी. वेदों द्वारा गाया गया यह स्तोत्र वेद के ही समान है.
क्या इस संसार में कुछ भी बिना किसी कारण के होता है? अब सुनों हरि का सिर क्यों कट गया. बहुत पहले एक समय अपनी प्रिय पत्नी लक्ष्मी देवी का सुंदर मुख देख कर वे उन के समक्ष ही हंस पड़े.
इस पर लक्ष्मी देवी विचार करने लगी . "निश्चय ही श्री हरि ने मेरे मुख पर कुछ कुरूपता देखि हैं जिस कारण वे हंस रहे हैं. परन्तु ऐसा क्या कारण हैं कि उन्होंने यह कुरूपता पहले नीं देखी. और बिना किसी कुरूपता को देखे वे किस कारण से हंसेंगे. या हो सकता हैं कि उन्होंने किसी ओर सुंदर स्त्री को अपनी सह-पत्नी बना लिया है". इस प्रकार विचार करते-करते महालक्ष्मी क्रुद्ध हो गयी और धीरे धीरे तमोगुण के अधीन हो गयी. उसके बाद, भाग्य से, ईश्वरीय कार्य की पूर्ती हेतु, स्त्यादिक तमस-शक्ति ने उनके शरीर में प्रवेश किया तथा वे क्रुद्ध हो बोली . "तुम्हारा सिर गिर जाये". इस प्रकार बिना किसी शुभ..अशुभ का विचार किये लक्ष्मी ने श्राप दिया जिस कारण उन्हें यह कष्ट उठाना पड़ा है.
झूठ, व्यर्थ का साहस, शठता, मूर्खता, अधीरता, अधिक लोभ, अशुद्धता और अशिष्टता स्त्री का प्राकृतिक गुण है. इसी श्राप के कारण वसुदेव का सिर कट गया है. हे देवताओ ! इस घटना का एक कारण ओर भी है. प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध देत्य . ह्यग्रीव ने सरस्वती के तट पर कठोर तपस्या की.
सभी प्रकार के भोग त्याग कर, इन्द्रियों को वश में कर ओर भोजन का त्याग कर और मेरे सम्पुर्ण आभूषणों से सुसज्जित परम शक्ति रूप ध्यान करते हुए उस देत्य ने एक अक्षरी माया बीज मंत्र का जप करते हुए एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की. मैं भी उसी तामसी रूप में शेर पर सवार हो उसके समक्ष प्रकट हुई और बोली .. "हे यशस्वी ! हे सुव्रत का पालन करने वाले ! मैं तुम्हें वर देने के लिये आयी हूँ". देवी के यह कथन सुन कर वह देत्य शीघ्र उठ खड़ा हुआ और देवी के चरणों में दंड के समान गिर गया, उनकी परिक्रमा की, मेरे रूप को देख उसकी आँखें प्रेमभाव से प्रसन्न हो गयी और उनमें आँसू उमड़ आये, तथा वह मेरी स्तुति करने लगा.
हयग्रीव बोला .. "देवी महामाये को प्रणाम हे, मैं इस ब्रह्मांड की रचयिता, पालक और संहारक को झुक कर प्रणाम करता हूँ. अपने भक्तों पर कृपा करने में दक्ष, भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाली, आपको प्रणाम है. हे देवी, मुक्ति की दाता, हे मंगलमयी देवी, मैं आपको प्रणाम करता हूँ. आप ही पन्च-तत्वों . प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश . की कारण हो. आप ही रूप, रस, गंध, ध्वनि और स्पर्श का भी कारण हो. हे महेश्वरी ! आपने ही पांच जननेंद्रियाँ तथा पांच कर्मेन्द्रियों की रचना की है.
देवी बोली .. हे बालक ! मैं तुम्हारी अद्भुत तपस्या और श्रद्धा से संतुष्ट हूँ, तुम क्या वर चाहते हो. मैं तुम्हारी इच्छा अनुसार वर दूँगी". हयग्रीव बोला ...हे माता ! मुझे वर दें कि मृत्यु कभी मेरे निकट ना आये और मैं सुर तथा असुरों से अजेय रहूँ, मैं अमर हो जाऊं.
देवी बोली .. "मृत्यु के बाद जन्म तथा जन्म के उपरान्त मृत्यु होती है, यह अपरिहार्य है. यह संसार का नियम है, इसका उलंघ्न कभी नहीं हो सकता. हे श्रेष्ट राक्षस ! इसप्रकार मृत्यु को निश्चित जानकर और विचार कर कोई अन्य वर मांगों".
हयग्रीव बोला .. "हे ब्रह्मांड कि माता ! यदि आप मुझे अमरता का वरदान नहीं देना चाहती तो मुझे वर दीजिए कि मेरी मृत्यु केवल उसी से हो जिसका मुख अश्व का हो. मुझपर दया कीजिये और मेरा इच्छित वर प्रदान करें.
"हे महा भागे ! घर जाओ और अपने साम्राज्य का शासन करो, तुम्हारी मृत्यु ओर किसी से नहीं अपितु केवल अश्व के समान मुख वाले से ही होगी". इस प्रकार वर देकर देवी चली गयी. हयग्रीव भी अपने राज्य चला गया, तभी से वह देत्य देवों और मुनियों को पीड़ित कर रहा है. तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं जो उसको मार सके. इसलिए अब विश्वकर्मा से खो कि वे विष्णु के सिर-विहीन शरीर पर अश्व का मुंह स्थापित कर दें. तब हयग्रीव भगवान उस पापी असुर को मार कर देवताओं का हित करेंगे.
सूत जी बोले ... देवताओं से इसप्रकार बोलकर देवी मौन हो गयी. देवता प्रसन्न होगये और विश्वकर्मा से बोले .. कृपा कर यह देव-कार्य करो और विष्णु का सिर लगा दो. वे हयग्रीव बन उस अदम्य असुर का वध करेंगे". सूतजी बोले .. यह वचन सुनकर विश्वकर्मा ने तुरंत अपने फरसे से घोड़े का सिर काट कर विष्णु जी के शरीर पर लगा दिया. महामाया की कृपा से घोड़े के मुख वाले ( हयग्रीव ) बन गये. तब कुछ दिनों उपरान्त भगवान हयग्रीव ने उस देव्त्सों कर शत्रु, अहंकारी दानव का अपनी शक्ति द्वारा वध कर दिया. जो मनुष्य इस उत्कृष्ट उपाख्यान को सुनता है, वह निश्चित ही सब कष्टों से मुक्ति पा जाता है, देवी महामाया के इस उत्तम, शुद्ध तथा पाप-नाशक वृत्तांत को जो भी सुनने अथवा पड़ने से सब प्रकार की सम्पत्ति की प्राप्ति होती है
एक बार मधु और कैटभ नाम के दो शक्तिशाली राक्षस ब्रह्माजी से वेदों का हरण कर रसातल में पहुंच गए। वेदों का हरण हो जाने से ब्रह्माजी बहुत दु:खी हुए और भगवान विष्णु के पास पहुंचे। तब भगवान ने हयग्रीव अवतार लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु की गर्दन और मुख घोड़े के समान थी। तब भगवान हयग्रीव रसातल में पहुंचे और मधु-कैटभ का वध कर वेद पुन: भगवान ब्रह्मा को दे दिए।
हयग्रिव के रूप में विष्णु,
हयग्रिव विष्णु का एक बहुत ही दुर्लभ घोड़ा मस्तक अवतार है| यह अवतार एक समय में हुआ जब राक्षसों ने वेदों द्वारा प्रतिनिधित्व किये जानेवाले ज्ञान चुरा लिया। हयग्रिव राक्षसों से वेदों को बहाल करने के लिए अवतारित किया। हयग्रिव पुनर्स्थापक का प्रतिनिधित्व करता है जो अज्ञानता के झुंड से ज्ञान बहाल करता है|
हयग्रीव जन्मदिन पर हयग्रिव यज्ञ (अग्नि प्रार्थना) का महत्व
देवी सरस्वती के गुरु के रूप में, कला और विज्ञान के दिव्य संरक्षक, विष्णु के इस घोड़े के मस्तक अवतार बुद्धी और ज्ञान के सभी रूपों पर शासन करते हैं| पवित्र ग्रंथों के अनुसार, विष्णु ने अपने हयग्रीव रूप में पवित्र वैदिक मंत्रों को संकलित किया, जिसका पाठ अभी भी वैदिक अग्नि प्रार्थनाओं (यज्ञ) के अभिन्न अंग हैं। यही कारण है कि पवित्र और सांसारिक विषयों दोनों के अध्ययन शुरू करने से पहले हयग्रिव के आशीर्वाद मांगा जाता है
हयग्रीव जन्मदिन पर हयग्रीव अग्नि प्रार्थना (यज्ञ) करने से विश्लेषणात्मक और अंतर्ज्ञानी बुद्धिमानी में सुधार हो सकता है| उसे पवित्र अग्नि में आमंत्रित करने से सीखने की अक्षमता, स्मृति समस्याएं और तंत्रिका संबंधी विकारों से राहत मिल सकती है|यदि आप मानसिक भ्रम से पीड़ित हैं, तो हयग्रीव आपकी विचार प्रक्रिया के लिए बहुत आवश्यक स्पष्टता प्रदान कर सकती है।
हयग्रीव जयंती अग्नि प्रार्थना और पूजा की आशीषें
पवित्र ग्रंथों के अनुसार, भगवान विष्णु का यह अवतार उनके गुना (गुण) – बल (ताकत), वीरशक्ति (वीर), तेजस (प्रबलता) और ऐश्वर्य (धन) के लिए उनके अन्य 10 अवतारों से अद्वितीय है। हयग्रीव जन्मदिन पर सर्वोच्च ज्ञान भगवान हयग्रीव को आह्वान करने से आपको निम्नलिखित लाभ मिल सकते हैं
एक समय की बात है। हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ। उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा। उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं। सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया। भगवती महामाया ने उससे कहा, ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूं। वत्स! वर मांगो।’’
भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘कल्याणमयी देवि! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें।’’
देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज! संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता। किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो।’’
हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें।’’
‘ऐसा ही हो’। यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं। हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा। यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी। ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही। सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुई। उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो। मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें। इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे।’’
ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई।
भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया। फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ। अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!