Sunday, 25 September 2016

दुर्गा पूजा,शारदीय नवरात्रे, कलश स्थापना की शुभ मुहूर्त

दुर्गा पूजा,शारदीय नवरात्रे, कलश स्थापना की शुभ मुहूर्त 
शारदीय नवरात्री पूजन 21 सितंबर 2017 से प्रारम्भ है। इस दिन प्रथम नवरात्र (प्रतिपदा) है। नवरात्रि के प्रथम दिन माता शैलपुत्री के रूप में विराजमान होती है। उस दिन कलश स्थापना के साथ-साथ माँ शैलपुत्री की पूजा होती हैऔर इसी पूजा के बाद मिलता है माँ का आशीर्वाद।
भारतीय शास्त्रानुसार नवरात्रि पूजन तथा कलशस्थापना आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के पश्चात 10 घड़ी तक अथवा अभिजीत मुहूर्त Abhijit muhurt में ही करना चाहिए। कलश स्थापना Kalash Sthapna के साथ ही नवरात्री का त्यौहार प्रारम्भ हो जाता है।
अभिजितमुहुर्त्त यत्तत्र स्थापनमिष्यते। अर्थात अभिजीत मुहूर्त में कलश स्थापना करना चाहिए। भारतीय ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार नवरात्रि पूजन द्विस्वभाव लग्न (Dual Lagan) में करना श्रेष्ठ होता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार मिथुन, कन्या,धनु तथा कुम्भ राशि द्विस्वभाव राशि है। अतः हमंा इसी लग्न में पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए।
नवरात्र कलश स्थापना मुहूर्त 2017
घटस्थापना मुहूर्त = 06:22 to 07:30
अवधि = 1 घंटा 8 मिनट
घटस्थापना मुहूर्त तिथि – प्रतिपदा तिथि
घटस्थापना मुहूर्त लग्न – द्विस्वभाव राशि कन्या लग्न
प्रतिपदा तिथि आरम्भ = 05:41 बजे से 21/ सितंबर /2017
प्रतिपदा तिथि समाप्त = 07:45 तक 22/ सितंबर /2017प्रथम(प्रतिपदा)
नवरात्र हेतु पंचांग विचार
दिन(वार) – वृहस्पतिवार
तिथि – प्रतिपदा
नक्षत्र – हस्त
योग – भव
करण – किंस्तुघ्न
पक्ष – शुक्ल
मास – आश्विन
लग्न – धनु (द्विस्वभाव)
लग्न समय – 11:33 से 13:37
मुहूर्त – अभिजीत
मुहूर्त समय – 11:46 से 12:34 तक
राहु काल – 13:45 से 15:16 तक
विक्रम संवत – 2074

इस वर्ष अभिजीत मुहूर्त (11:46 से12:34 तक है ) जो ज्योतिष शास्त्र में स्वयं सिद्ध मुहूर्त माना गया है। धनु लग्न में पड़ रहा है अतः धनु लग्न में ही पूजा तथा कलश स्थापना करना श्रेष्ठकर होगा।

2017 : माता दुर्गा के प्रथम रूप “शैलपुत्री”

माँ दुर्गा के प्रथम रूप “शैलपुत्री”की उपासना के साथ नवरात्रि प्रारम्भ होती है। शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण, माँ दुर्गा के इस रूप का नाम “शैलपुत्री” है। पार्वती और हेमवती भी इन्हीं के नाम हैं। माता के दाहिने हाथ में त्रिशूल तथा बाएँ हाथ में कमल का फूल है। माता का वाहन वृषभ है। माता शैलपुत्री की पूजा-अर्चना इस मंत्र के उच्चारण के साथ करनी चाहिए-

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्। वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
नवरात्र पूजन सामग्री
माँ दुर्गा की सुन्दर प्रतिमा, माता की प्रतिमा स्थापना के लिए चौकी, लाल वस्त्र , कलश/ घाट , नारियल का फल, पांच पल्लव आम का, फूल, अक्षत, मौली, रोली, पूजा के लिए थाली , धुप और अगरबती, गंगा का जल, कुमकुम, गुलाल पान, सुपारी, चौकी,दीप, नैवेद्य,कच्चा धागा, दुर्गा सप्तसती का किताब ,चुनरी, पैसा, माता दुर्गा की विशेष कृपा हेतु संकल्प तथा षोडशोपचार पूजन करने के बाद, प्रथम प्रतिपदा तिथि को, नैवेद्य के रूप में गाय का घी माता को अर्पित करना चाहिए तथा पुनः वह घी किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए।
वर्ष 2017 की नवरात्री की तिथियाँ
प्रथम नवरात्रि (प्रतिपदा), शैलपुत्री स्वरूप की पूजा 21 सितंबर 2017, वृहस्पतिवार,
दूसरा नवरात्रि, चन्द्र दर्शन, देवी ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजा 22 सितंबर 2017, शुक्रवार
तृतीय नवरात्रि, सिन्दूर चंद्रघंटा स्वरूप की पूजा 23 सितंबर 2017, शनिवार
चतुर्थ नवरात्रि, कुष्मांडा स्वरूप की पूजा 24 सितंबर 2017, रविवार
पंचमी नवरात्रि, स्कंदमाता की पूजा, वरद विनायका चौथ 25 सितंबर 2017, सोमवार
षष्ठी नवरात्रि, कात्यायनी स्वरूप की पूजा 26 सितंबर 2017, मंगलवार
सप्तमी नवरात्रि, कालरात्रि स्वरूप की पूजा 27 सितंबर 2017, बुधवार
अष्टमी नवरात्रि, महागौरी स्वरूप की पूजा 28 सितंबर 2017, वृहस्पतिवार

नवमी नवरात्रि, सिद्धिदात्री स्वरूप की पूजा 29
(1) प्रथम कलशस्थापन शैलपुत्री (भोग -खीर)
(2) द्वितीया ब्राह्मचारिणी (भोग खीर,गाय का घी,एवं मिश्री)
(3) त्रतीया चन्द्रघंटा (भोग कैला,दूध,माखन,मिश्री )
(4) चतुर्थी कुष्मांडा (भोग पोहा,नारियल,मखाना)
(5) पंचमी स्कन्दमाता (भोग शहद एवं मालपुआ )खिलोना
(6) षष्टी कात्यायनी(भोग शहद एवं खजूर)) सुहाग सामान
(7) सप्तमी कालरात्री (भोग अंकुरीत चना एवं अंकुरित मूँग )
(8) अष्टमी महागौरी (भोग नारियल,खिचड़ी,खीर )
(9) नवमी सिध्दीदात्री (भोग चूड़ा दही,पेड़ा,हलवा,,)
(10 ) दशमी धान का लावा
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
,,,,,लिखने कुछ गलती 
हो तो अज्ञानी समझकर क्षमा करे,

Thursday, 15 September 2016

अनंत चतुर्दशी की पौराणिकथा

अनंत चतुर्दशी की पौराणिकथा,,,,
अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव।
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥
एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।
एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।
यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।'
इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई -
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई।
पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए।
कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।
कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।
पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।'
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.




गणेश विसर्जन, ,,गणेश उत्‍सव का एक अभिन्‍न अंग है

गणेश विसर्जन,.अनन्‍त चतुर्दशी,,गणेश उत्‍सव का एक अभिन्‍न अंग है ।वगणेश विसर्जन के लिए शुभ चौघड़िया मुहूर्त
प्रातः मुहूर्त ..शुभ,, 06:00 से 07:32
प्रातः मुहूर्त ..चर, लाभ, अमृत, 10:37  से 15 :15
अपराह्न मुहूर्त ,,शुभ,, 16,:47  से 18 :20
सायाह्न मुहूर्त ,,अमृत, चर,, 18 :20  से 21:15
रात्रि मुहूर्त ,,लाभ,, 00:10  से 01:38 , सितम्बर 13
चतुर्दशी तिथि प्रारम्भ - सितम्बर 12, 2019 को 05:06  बजे
चतुर्दशी तिथि समाप्त - सितम्बर 13, 2019 को 07:35  बजे
गणेश विसर्जन, ,,गणेश उत्‍सव का एक अभिन्‍न अंग है
जिसके बिना गणेश उत्‍सव पूर्ण नही होता। इसके अर्न्‍तगत गणेश जी की प्रतिमा को गणेश चतुर्थी के दिन स्‍थापित किया जाता है और 10 दिन बाद अनन्‍त चतुर्दशी को उसी गणेश प्रतिमा के विसर्जन के साथ इस गणेश उत्‍सव का समापन होता है।
जो भी व्‍यक्ति गणेश चतुर्थी के बारे में जानता है, लगभग हर वह व्‍यक्ति ये भी जानता है कि गणेश चतुर्थी को स्‍थापित की जाने वाली गणपति प्रतिमा को ग्‍यारहवें दिन यानी अनन्‍त चतुर्दशी के दिन किसी बहती नदी, तालाब या समुद्र में विसर्जित भी किया जाता है, लेकिन बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि आखिर गणपति विसर्जन किया क्‍यों जाता है। गणपति विसर्जन के संदर्भ में अलग-अलग लोगों व राज्‍यों में मान्‍यताऐं भी अलग-अलग हैं, जिनमें से कुछ को हमने यहां बताने की कोशिश्‍ा की है।
ईश्‍वर सगुण साकार भी है और निर्गुण निराकार भी और ये संसार भी दो हिस्‍सों में विभाजित है, जिसे देव लोक व भू लोक के नाम से जाना जाता है। देवलोक में सभी देवताओं का निवास है जबकि भूलोक में हम प्राणियों का।
देवलोक के सभी देवी-देवता निर्गुण निराकार हैं, जबकि हम भूलोकवासियों को समय-समय पर विभिन्‍न प्रकार की भौतिक वस्‍तुओं, सुख-सुविधाओं की जरूरत होती है, जिन्‍हें देवलोक के देवतागण ही हमें प्रदान करते हैं और क्‍योंकि देवलोक के देवतागण निर्गुण निराकार हैं, इसलिए वे हम भूलोकवासियों की भौतिक कामनाओं को तब तक पूरा नहीं कर सकते, जब तक कि हमारी कामनाऐं उन तक न पहुंचे और भगवान गण‍पति हमारी भौतिक कामनाओं को भूलोक से देवलोक तक पहुंचाने का काम करते हैं।
गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणपति की मूर्ति स्‍थापना की जाती है और निर्गुण निराकार भगवान गणेश काे देवलोक से भूलोक की इस मूर्ति में सगुण साकार रूप में स्‍थापित होने हेतु विभिन्‍न प्रकार की पूजा-अर्चना, आराधना, पाठ करते हुए आह्वान किया जाता है और ये माना जाता है भगवान गण‍पति गणेश चतुर्थी से अनन्‍त चतुर्दशी तक सगुण साकार रूप में इसी मूर्ति में स्‍थापित रहते हैं, जिसे गणपति उत्‍सव के रूप में मनाया जाता है।
ऐसी मान्‍यता है कि इस गणपति उत्‍सव के दौरान लोग अपनी जिस किसी भी इच्‍छा की पूर्ति करवाना चाहते हैं, वे अपनी इच्‍छाऐं, भगवान गणपति के कानों में कह देते हैं। फिर अन्‍त में भगवान गणपति की इसी मूर्ति को अनन्‍त चतुर्दशी के दिन बहते जल, नदी, तालाब या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है ताकि भगवान गणपति इस भूलोक की सगुण साकार मूर्ति से मुक्‍त होकर निर्गुण निराकार रूप में देवलोक जा सकें और देवलोक के विभिन्‍न देवताओं को भूलोक के लोगों द्वारा की गई प्रार्थनाऐं बता सकें, ताकि देवगण, भूलोकवासियों की उन इच्‍छाओं को पूरा कर सकें, जिन्‍हें भूलोकवासियों ने भगवान गणेश की मूर्ति के कानों में कहा था।
इसके अलावा धार्मिक ग्रन्‍थों के अनुसार एक और मान्‍यता है कि श्री वेद व्‍यास जी ने महाभारत की कथा भगवान गणेश जी को गणेश चतुर्थी से लेकर अनन्‍त चतुर्थी तक लगातार 10 दिन तक सुनाई थी। यह कथा जब वेद व्‍यास जी सुना रहे थे तब उन्‍होंने अपनी आखें बन्‍द कर रखी थी, इसलिए उन्‍हें पता ही नहीं चला कि कथा सुनने का ग‍णेशजी पर क्‍या प्रभाव पड रहा है।
जब वेद व्‍यास जी ने कथा पूरी कर अपनी आंखें खोली तो उन्‍होंने देखा कि लगातार 10 दिन से कथा यानी ज्ञान की बातें सुनते-सुनते गणेश जी का तापमान बहुत ही अधिक बढा गया है, अन्‍य शब्‍दों में कहें, तो उन्‍हें ज्‍वर हो गया है। सो तुरंत वेद व्‍यास जी ने गणेश जी को निकट के कुंड में ले जाकर डुबकी लगवाई, जिससे उनके शरीर का तापमान कम हुअा।
इसलिए मान्‍यता ये है कि गणेश स्‍थापना के बाद से अगले 10 दिनों तक भगवान गणपति लोगों की इच्‍छाऐं सुन-सुनकर इतना गर्म हो जाते हैं, कि चतुर्दशी को बहते जल, तालाब या समुद्र में विसर्जित करके उन्‍हें फिर से शीतल यानी ठण्‍डा किया जाता है।
इसके अलावा एक और मान्‍यता ये है कि कि वास्तव में सारी सृष्टि की उत्पत्ति जल से ही हुई है और जल, बुद्धि का प्रतीक है तथा भगवान गणपति, बुद्धि के अधिपति हैं। जबकि भगवान गणपति की प्रतिमाएं नदियों की मिट्टी से बनती है। अत: अनन्‍त च‍तुर्दशी के दिन भगवान गणपति की प्रतिमाओं को जल में इसीलिए विसर्जित कर देते हैं क्योंकि वे जल के किनारे की मिट्टी से बने हैं और जल ही भगवान गणपति का निवास स्‍थान है।
गणपति बप्‍पा मोरया”
गणपति बप्‍पा से जुड़े मोरया नाम के पीछे गण‍पति जी का मयूरेश्‍वर स्‍वरूप माना जाता है। गणेश-पुराण के अनुसार सिंधु नामक दानव के अत्‍याचार से बचने हेतु देवगणों ने गणपति जी का आह्वान किया। सिंधु का संहार करने के लिए गणेश जी ने मयूर (मोर) को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार धारण किया। इस अवतार की पूजा भक्‍त लोग “गणपति बप्‍पा मोरया” के जयकारे के साथ करते हैं, और यही कारण है की जब गणेश जी को विसर्जित किया जाता है तो गणपति बप्‍पा मोरया, अगले बरस तू जल्‍दी आ का नारा लागया जाता है।
कैसे करते हैं गणपति विसर्ज भगवान गणपति जल तत्‍व के अधिपति है और यही कारण है कि अनंत चतुर्दशी के दिन ही भगवान गणपति की पूजा-अर्चना करके गणपति-प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है। शास्‍त्रों के अनुसार मिट्टी की बनी गणेश जी की मूर्तियों को जल में विसर्जित करना अनिवार्य है। इसके लिए लोग गणेश जी की प्रतिमा को लेकर ढोल-नगारों के साथ एक कतार में निकलतें है, नाचते-गाते बहती नदी, तालाब या समुन्‍द्र के पास जाकर बड़े ही हर्षो उल्‍लास के साथ उनकी आरती करते हैं, और उसके बाद जब गणेश जी की प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है तो सभी भक्‍त मिलकर मंत्रोउच्‍चारण के जरिये प्रार्थना करते है। जो निम्‍न प्रकार से होती है
मूषिकवाहन मोदकहस्त, चामरकर्ण विलम्बितसूत्र ।
वामनरूप महेस्वरपुत्र, विघ्नविनायक पाद नमस्ते ॥
हे भगवान विनायक। आप सभी बाधाओं का हरण करने वाले हैं। आप भगवान शिव जी के पुत्र है, और आप अपने वाहन के रूप में मुस्‍कराज को लिये है। आप अपने हाथ में लड्डु लिये, और विशाल कान, और लम्‍बी सूण्‍ड लिये है। मैं पूरी श्रद्धा के सा‍थ आप को नमस्‍कार करता हूँ।।
पंचक आरम्भ
सितम्बर 12, 2019, बृहस्पतिवार को 03:29 ए एम बजे
पंचक अंत
सितम्बर 17, 2019, मंगलवार को 04:23 ए एम बजे
पंचक आरम्भ
अक्टूबर 9, 2019, बुधवार को 09:42 ए एम बजे
पंचक अंत
अक्टूबर 14, 2019, सोमवार को 10:21 ए एम बजे
पंचक आरम्भ
नवम्बर 5, 2019, मंगलवार को 04:48 पी एम बजे
पंचक अंत
नवम्बर 10, 2019, रविवार को 05:20 पी एम बजे
पंचक आरम्भ
दिसम्बर 3, 2019, मंगलवार को 12:58 ए एम बजे
पंचक अंत
दिसम्बर 8, 2019, रविवार को 01:29 ए एम बजे
पंचक आरम्भ
दिसम्बर 30, 2019, सोमवार को 09:36 ए एम बजे
पंचक अंत
जनवरी 4, 2020, शनिवार को 10:06 ए एम बजे
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Tuesday, 13 September 2016

श्री वीर तेजाजी,,,वीर तेजाजी महाराज

श्री वीर तेजाजी,, वीर तेजाजी महाराज 
तेजाजी की विरासत
(1) श्री वीर तेजाजी : शेषावतार लक्ष्मण जी
(2) जन्म तिथि : माघ शुक्ला चतुर्दशी, गुरुवार
वि.स. 1130 ,,,29 जनवरी 1074 ई.
(3) पिता : श्री ताहडदेव जी (थिरराज) धौलिया
(4) माता : श्रीमती रामकुंवरी
(5) वंश : नाग वंश की धौलिया जाट शाखा
(6) खांप : चौहान
(7) नख : खींची
(8) जन्म स्थल : खरनाल (नागौर)
(9) विवाह : पीले पोतडों में पुष्कर के नाग घाट पर
पुष्कर पूर्णिमा वि.स 1131
(10) पत्नी : पेमल
(11) ससुर : रायमल जी मुहता
(12) ससुर का गौत्र : झांझर जाट
(13) सासु : बोदल दे
(14) सासु का गौत्र : काला जाट
(15) ससुराल : शहर पनेर
(16) भाई : रुपजी, रणजी, गुणजी, महेश जी, नगजी
(17) भाभियाँ : रतनाई, शेरां, रीतां, राजा, माया
(18) बहिन : राजल
(19) बहनोई : नाथाजी सिहाग
(20) बहिन के ससुर : जोरा जी सिहाग
(21) बहिन का ससुराल : तबीजी (अजमेर)
(22) ननिहाल : त्योद व अठ्यासन
(23) नाना : दुल्हण जी सोढी
(24) गुरु : गुसांई जी व मंगलनाथ जी
(25) लाछां की संपत्ति : गौ माताएं
(26) वीरगति की निशानी : मेंमद मौलिया
(27) मेंमद मौलिया वाहक : आसू देवासी
(28) तेजाजी के दुश्मन : सासु बोदल दे व काला गौत्री बालू नाग
(29) तेजाजी का खेत : खाबड खेत (खरनाल)
(30) तेजाजी का तालाब : गैण तालाब (इनाणा व मूडावा के बीच)
(31) तेजाजी का रास्ता : तेजा पथ
(32) घाटा : मोकल घाटा (मालास परबतसर)
(33) नदी : पनेर की नदी
(34) तेजाजी का वचन : सत्यवाद
(35) तेजाजी की मर्यादा : नुगरां की धरती में वासा ना करां
(36) तेजाजी का व्रत : ब्रह्मचर्य
(37) सम्बोधन : सत्यवादी वीर तेजाजी
(38) माता का बोल : तेजा का बोयोडा मोती निपजे
(39) तेजाजी के साक्षी : चांद, सूरज व खेजडी वृक्ष
(40) बासग नाग द्वारा वरदान : काला बाला रोग चिकित्सा, घर घर पूजा
(41) तेजाजी देवता : सर्प विष चिकित्सा, कृषि उपकारक, पशुधन तारक
(42) पेमल का आशीर्वाद : पूजा से बस्ती नगर रोग निवारण
(43) तेजाजी की चिकित्सा पद्धति : गौमूत्र, नीमपत्र, काली मिर्च, देशी गाय का घी, देशी गाय के गोबर के कण्डो की भभूत
(44) तेजाजी का ध्वज : चांद, सूरज, नाग, खेजडी वृक्ष युक्त
(45) तेजाजी का भोग : देशी गाय का कच्चा दूध, नारियल, मिश्री
(46) तेजाजी के जागरण की रात व व्रत : भादवा सुदी नवमी हर वर्ष
(47) तेजाजी का शकुन : जागती जोत
(48) तेजाजी का गीत : गाज्यो गाज्यो जेठ आषाढ
(49) तेजाजी के गीत की प्रथम गायिका : लाछां गुर्जरी
(50) तेजाजी के गीत की पुन: रचना : बींजाराम जोशी
(51) तेजाजी का शिलोका : पूनमचन्द सिखवाल
(52) तेजाजी ख्याल : पं. अम्बालाल
(53) भक्ति : सालिगराम
(54) ईष्ट देव : शंकर भगवान
(55) सेवा : गोमाता
(56) कर्म : गोचारण, कृषि, युवराज पद दायित्व
(57) धर्म : गोरक्षा, न्याय, सत्यवाद
(58) तीर्थ : तीर्थराज पुष्कर
(59) वीरगति स्थल : सुरसुरा (अजमेर)
(60) दाह संस्कार स्थल : सुरसुरा (अजमेर)
(61) पेमल का सती स्थल : सुरसुरा (अजमेर)
(62) घोडी का नाम : लीलण
(63) प्रमुख शस्त्र : भाला
(64) सहअस्त्र शस्त्र : ढाल-तलवार, धनुष बाण
(65) रण संग्राम स्थल : मण्डावरिया पहाडी की तलहटी एवं चांग का लीला खुर न्हाल्सा करणाजी की डांग (पाली)
(66) प्रतिपक्षी : चांग के चीतावंशी मेर मीना
(67) मीना का सरदार : कालिया
(68) तेजाजी के साथी : पाँचू, खेता, जेता
(69) पेमल की सखी : लाछां गुर्जरी (चौहान खाँप)
(70) लाछां का गांव : रंगबाडी का वास पनेर (अजमेर)
(71) लाछां के पति : नन्दू गुर्जर
(72) लाछां की निशानी : लाछां बावडी
(73) वाईट मार्बल की तेजा जी की घोड़ी ( सूपर हिट ) जालसू नानक (काटेड़ी ) डेगाना
(74) तेजाजी महाराज ,,,,,जय तेजाजी।।।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.


परिवर्तिनी एकादशी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी पाशर्व, परिवर्तिनी अथवा वामन द्वादशी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन भगवान विष्णु श्रीरसागर में चार मास के श्रवण के पश्चात करवट बदलते है, क्याेंकि निद्रामग्न भगवान के करवट परिवर्तन के कारण ही अनेक शास्त्राें में इस एकादशी काे परिवर्तिनी एवं पार्शव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। 
युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! भाद्रपद शुक्ल एकादशी का क्या नाम है इसकी विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली तथा सब पापों का नाश करने वाली, उत्तम वामन एकादशी का माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
यह एकादशी जयंती एकादशी भी कहलाती है। इसका यज्ञ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं। अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें।
जो कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं।
भगवान के वचन सुनकर युधिष्ठिर बोले कि भगवान! मुझे अतिसंदेह हो रहा है कि आप किस प्रकार सोते और करवट लेते हैं तथा किस तरह राजा बलि बलि को बाँधा और वामन रूप रखकर क्या-क्या लीलाएँ कीं? चातुर्मास के व्रत की क्या ‍विधि है तथा आपके शयन करने पर मनुष्य का क्या कर्तव्य है। सो आप मुझसे विस्तार से बताइए।
श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! अब आप सब पापों को नष्ट करने वाली कथा का श्रवण करें। त्रेतायुग में बलि नामक एक दैत्य था। वह मेरा परम भक्त था। विविध प्रकार के वेद सूक्तों से मेरा पूजन किया करता था और नित्य ही ब्राह्मणों का पूजन तथा यज्ञ के आयोजन करता था, लेकिन इंद्र से द्वेष के कारण उसने इंद्रलोक तथा सभी देवताओं को जीत लिया।  

भी कहलाती है। इसका यज्ञ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी (वामन रूप की) पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं। अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें।
जो कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने भाद्रपद शुक्ल एकादशी को व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं।
भगवान के वचन सुनकर युधिष्ठिर बोले कि भगवान! मुझे अतिसंदेह हो रहा है कि आप किस प्रकार सोते और करवट लेते हैं तथा किस तरह राजा बलि को बांधा और वामन रूप रखकर क्या-क्या लीलाएं कीं? चातुर्मास के व्रत की क्या ‍विधि है तथा आपके शयन करने पर मनुष्य का क्या कर्तव्य है। सो आप मुझसे विस्तार से बताइए।
श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! अब आप सब पापों को नष्ट करने वाली कथा का श्रवण करें। त्रेतायुग में बलि नामक एक दैत्य था। वह मेरा परम भक्त था। विविध प्रकार के वेद सूक्तों से मेरा पूजन किया करता था और नित्य ही ब्राह्मणों का पूजन तथा यज्ञ के आयोजन करता था, लेकिन इंद्र से द्वेष के कारण उसने इंद्रलोक तथा सभी देवताओं को जीत लिया।
इस कारण सभी देवता एकत्र होकर सोच-विचारकर भगवान के पास गए। बृहस्पति सहित इंद्रादिक देवता प्रभु के निकट जाकर और नतमस्तक होकर वेद मंत्रों द्वारा भगवान का पूजन और स्तुति करने लगे। अत: मैंने वामन रूप धारण करके पांचवां अवतार लिया और फिर अत्यंत तेजस्वी रूप से राजा बलि को जीत लिया।
इतनी वार्ता सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले कि हे जनार्दन! आपने वामन रूप धारण करके उस महाबली दैत्य को किस प्रकार जीता? 
श्रीकृष्ण कहने लगे- मैंने (वामन रूपधारी ब्रह्मचारी) बलि से तीन पग भूमि की याचना करते हुए कहा- ये मुझको तीन लोक के समान है और हे राजन यह तुमको अवश्य ही देनी होगी।
राजा बलि ने इसे तुच्छ याचना समझकर तीन पग भूमि का संकल्प मुझको दे दिया और मैंने अपने त्रिविक्रम रूप को बढ़ाकर यहां तक कि भूलोक में पद, भुवर्लोक में जंघा, स्वर्गलोक में कमर, मह:लोक में पेट, जनलोक में हृदय, यमलोक में कंठ की स्थापना कर सत्यलोक में मुख, उसके ऊपर मस्तक स्थापित किया।
सूर्य, चंद्रमा आदि सब ग्रह गण, योग, नक्षत्र, इंद्रादिक देवता और शेष आदि सब नागगणों ने विविध प्रकार से वेद सूक्तों से प्रार्थना की। तब मैंने राजा बलि का हाथ पकड़कर कहा कि हे राजन! एक पद से पृथ्वी, दूसरे से स्वर्गलोक पूर्ण हो गए। अब तीसरा पग कहां रखूं 
तब बलि ने अपना सिर झुका लिया और मैंने अपना पैर उसके मस्तक पर रख दिया जिससे मेरा वह भक्त पाताल को चला गया। फिर उसकी विनती और नम्रता को देखकर मैंने कहा कि हे बलि! मैं सदैव तुम्हारे निकट ही रहूंगा। विरोचन पुत्र बलि से कहने पर भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन बलि के आश्रम पर मेरी मूर्ति स्थापित हुई।
इसी प्रकार दूसरी क्षीरसागर में शेषनाग के पष्ठ पर हुई! हे राजन! इस एकादशी को भगवान शयन करते हुए करवट लेते हैं, इसलिए तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु का उस दिन पूजन करना चाहिए। इस दिन तांबा, चांदी, चावल और दही का दान करना उचित है। रात्रि को जागरण अवश्य करना चाहिए।
जो विधिपूर्वक इस एकादशी का व्रत करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाकर चंद्रमा के समान प्रकाशित होते हैं और यश पाते हैं। जो पापनाशक इस कथा को पढ़ते या सुनते हैं, उनको हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। 
एकादशी की  आरती
ॐ जय एकादशी, जय एकादशी, जय एकादशी माता ।
विष्णु पूजा व्रत को धारण कर, शक्ति मुक्ति पाता ।। ॐ।।
तेरे नाम गिनाऊं देवी, भक्ति प्रदान करनी ।
गण गौरव की देनी माता, शास्त्रों में वरनी ।।ॐ।।
मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष की उत्पन्ना, विश्वतारनी जन्मी।
शुक्ल पक्ष में हुई मोक्षदा, मुक्तिदाता बन आई।। ॐ।।
पौष के कृष्णपक्ष की, सफला नामक है,
शुक्लपक्ष में होय पुत्रदा, आनन्द अधिक रहै ।। ॐ ।।
नाम षटतिला माघ मास में, कृष्णपक्ष आवै।
शुक्लपक्ष में जया, कहावै, विजय सदा पावै ।। ॐ ।।
विजया फागुन कृष्णपक्ष में शुक्ला आमलकी,
पापमोचनी कृष्ण पक्ष में, चैत्र महाबलि की ।। ॐ ।।
चैत्र शुक्ल में नाम कामदा, धन देने वाली,
नाम बरुथिनी कृष्णपक्ष में, वैसाख माह वाली ।। ॐ ।।
शुक्ल पक्ष में होय मोहिनी अपरा ज्येष्ठ कृष्णपक्षी,
नाम निर्जला सब सुख करनी, शुक्लपक्ष रखी।। ॐ ।।
योगिनी नाम आषाढ में जानों, कृष्णपक्ष करनी।
देवशयनी नाम कहायो, शुक्लपक्ष धरनी ।। ॐ ।।
कामिका श्रावण मास में आवै, कृष्णपक्ष कहिए।
श्रावण शुक्ला होय पवित्रा आनन्द से रहिए।। ॐ ।।
अजा भाद्रपद कृष्णपक्ष की, परिवर्तिनी शुक्ला।
इन्द्रा आश्चिन कृष्णपक्ष में, व्रत से भवसागर निकला।। ॐ ।।
पापांकुशा है शुक्ल पक्ष में, आप हरनहारी।
रमा मास कार्तिक में आवै, सुखदायक भारी ।। ॐ ।।
देवोत्थानी शुक्लपक्ष की, दुखनाशक मैया।
पावन मास में करूं विनती पार करो नैया ।। ॐ ।।
परमा कृष्णपक्ष में होती, जन मंगल करनी।।
शुक्ल मास में होय पद्मिनी दुख दारिद्र हरनी ।। ॐ ।।
जो कोई आरती एकादशी की, भक्ति सहित गावै।
जन गुरदिता स्वर्ग का वासा, निश्चय वह पावै।। ॐ ।।
- ज्ञानचंद बुंदिवाल
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Saturday, 10 September 2016

गणेश परिवार,,, गणेश जी शिव परिवार में ज्येष्ठ पुत्र हैं।

गणेश परिवार,,, गणेश जी शिव परिवार में ज्येष्ठ पुत्र हैं। शिव परिवार के प्रत्येक व्यक्ति या उनसे जुड़े वाहन एक- दूसरे से विपरीत होने के बावजूद प्रेम के धागे से बंधे हैं। जैसे शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, मगर शिवजी के गले में सर्प लटके रहते हैं। वैसे स्वभाव से मयूर और सर्प दुश्मन हैं।
इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती स्वयं शक्ति हैं, जगदम्बा हैं जिनका वाहन शेर है। मगर शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। परंतु नहीं, इन भिन्नताओं, शत्रुताओं और ऊंचे-नीचे स्तरों के बावजूद शिव का परिवार शांति के साथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्नतापूर्वक रहता है।
स्वभावों की विपरीतताओं, विसंगतियों और असहमतियों के बावजूद सब कुछ सुगम है, क्योंकि परिवार के मुखिया ने सारा विष तो अपने गले में थाम रखा है। विसंगतियों के बीच संतुलन का बढ़िया उदाहरण है शिव का परिवार। इसी तरह भगवान गणेश का परिवार भी सुख और समृद्ध से परिपूर्ण है। आओ जानते हैं गणेशजी का संपूर्ण परिचय...
गणेश जन्म कथा : अलग-अलग पुराणों में गणेशजी की जन्म कथा अलग-अलग है, लेकिन सर्वमान्यता के अनुसार गणेशजी को पार्वतीजी ने एक दुर्वा से बनाकर अपने पहरे के लिए रखा था। कथा के अनुसार गणेश को द्वार पर बिठाकर पार्वती स्नान करने लगीं। इतने में शिव आए और पार्वती के भवन में प्रवेश करने लगे। गणेश ने जब उन्हें रोका तो क्रुद्ध शिव ने उसका सिर काट दिया। इस घटना से पार्वतीजी क्रोधित हो गईं, तब शिवजी ने एक हाथी का सिर उन पर लगाकर उन्हें फिर से जीवित कर दिया।
गणेश जी के माता-पिता : पार्वती और शिव।
गणेशजी के भाई : श्रीकार्तिकेय (बड़े भाई)। हालांकि उनके और भी भाई हैं जैसे सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा।
गणेशजी की बहन : अशोक सुंदरी। हालांकि महादेव की और भी पुत्रियां थीं जिन्हें नागकन्या माना गया- जया, विषहर, शामिलबारी, देव और दोतलि। अशोक सुंदरी को भगवान शिव और पार्वती की पुत्री बताया गया इसीलिए वही गणेशजी की बहन है। इसका विवाह राजा नहुष से हुआ था।
गणेशजी की पत्नियां : गणेशजी की 5 पत्नियां हैं : ऋद्धि, सिद्धि, तुष्टि, पुष्टि और श्री।
गणेशजी के पुत्र : पुत्र लाभ और शुभ तथा पोते आमोद और प्रमोद।
अधिपति : जल तत्व के अधिपति।
प्रिय पुष्प : लाल रंग के फूल।
प्रिय वस्तु : दुर्वा (दूब), शमी-पत्र।
प्रमुख अस्त्र : पाश और अंकुश।
गणेश वाहन : सिंह, मयूर और मूषक। सतयुग में सिंह, त्रेतायुग में मयूर, द्वापर युग में मूषक और कलियुग में घोड़ा है।
गणेशजी का जप मंत्र : ॐ गं गणपतये नम: है।
गणेशजी की पसंद : गणेशजी को बेसन और मोदक के लड्डू पसंद हैं।
गणेशजी की प्रार्थना के लिए : गणेश स्तुति, गणेश चालीसा, गणेशजी की आरती, श्रीगणेश सहस्रनामावली आदि।।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
गणेशजी के 12 प्रमुख नाम : सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्न-नाश, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन।


Tuesday, 6 September 2016

श्री महागणपति नवार्ण वेदपादस्तवः श्रीमहागणपतये नमः

श्री महागणपति नवार्ण वेदपादस्तवः श्रीमहागणपतये नमः
श्रीकण्ठतनय श्रीश श्रीकर श्रीदलार्चित ।
श्रीविनायक सर्वेश श्रियं वासय मे कुले ॥ १॥
गजानन गणाधीश द्विजराज-विभूषित ।
भजे त्वां सच्चिदानन्द ब्रह्मणां ब्रह्मणास्पते ॥ २॥
णषाष्ठ-वाच्य-नाशाय रोगाट-विकुठारिणे ।
घृणा-पालित-लोकाय वनानां पतये नमः ॥ ३॥
धियं प्रयच्छते तुभ्यमीप्सितार्थ-प्रदायिने ।
दीप्त-भूषण-भूषाय दिशां च पतये नमः ॥ ४॥
पञ्च-ब्रह्म-स्वरूपाय पञ्च-पातक-हारिणे ।
पञ्च-तत्त्वात्मने तुभ्यं पशूनां पतये नमः ॥ ५॥
तटित्कोटि-प्रतीकाश-तनवे विश्व-साक्षिणे ।
तपस्वि-ध्यायिने तुभ्यं सेनानिभ्यश्च वो नमः ॥ ६॥
ये भजन्त्यक्षरं त्वां ते प्राप्नुवन्त्यक्षरात्मताम्।
नैकरूपाय महते मुष्णतां पतये नमः ॥ ७॥
नगजा-वर-पुत्राय सुर-राजार्चिताय च ।
सुगुणाय नमस्तुभ्यं सुमृडीकाय मीढुषे ॥ ८॥
महा-पातक-सङ्घात-तम-हारण-भयापह ।
त्वदीय-कृपया देव सर्वानव यजामहे ॥ ९॥
नवार्ण-रत्न-निगम-पाद-संपुटितां स्तुतिम् ।
भक्त्या पठन्ति ये तेषां तुष्टो भव गणाधिप ॥ १०॥
॥ इति श्रीमहागणपति-नवार्ण-वेदपाद-स्तवः समप्तः॥

श्रीगणाध्यक्ष स्तोत्रं ईक्ष्वाकुकृत

श्रीगणाध्यक्ष स्तोत्रं ईक्ष्वाकुकृत ॥भरद्वाज उवाच
कथं स्तुतो गणाध्यक्षस्तेन राज्ञा महात्मना ।
यथा तेन तपस्तप्तं तन्मे वद महामते ॥ १॥
सूत उवाच चतुर्थीदिवसे राजा स्नात्वा त्रिषवणं द्विज ।
रक्ताम्बरधरो भूत्वा रक्तगन्धानुलेपनः ॥ २
सुरक्तकुसुमैर्हृद्यैर्विनायकमथार्चयत् ।
रक्तचन्दनतोयेन स्नानपूर्वं यथाविधि ॥ ३॥
विलिप्य रक्तगन्धेन रक्तपुष्पैः प्रपूजयत् ।
ततोऽसौ दत्तवान् धूपमाज्ययुक्तं सचन्दनम् ।
नैवेद्यं चैव हारिद्रं गुडखण्डघृतप्लुतम् ॥ ४॥
एवं सुविधिना पूज्य विनायकमथास्तवीत् ।
इक्ष्वाकुरुवाच
नमस्कृत्य महादेवं स्तोष्येऽहं तं विनायकम् ॥ ५॥
महागणपतिं शूरमजितं ज्ञानवर्धनम् ।
एकदन्तं द्विदन्तं च चतुर्दन्तं चतुर्भुजम् ॥ ६॥
त्र्यक्षं त्रिशूलहस्तं च रक्तनेत्रं वरप्रदम् ।
आम्बिकेयं शूर्पकर्णं प्रचण्डं च विनायकम् ॥ ७॥
आरक्तं दण्डिनं चैव वह्निवक्त्रं हुतप्रियम् ।
अनर्चितो विघ्नकरः सर्वकार्येषु यो नृणाम् ॥ ८॥
तं नमामि गणाध्यक्षं भीममुग्रमुमासुतम् ।
मदमत्तं विरूपाक्षं भक्तिविघ्ननिवारकम् ॥ ९॥
सूर्यकोटिप्रतीकाशं भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ।
बुद्धं सुनिर्मलं शान्तं नमस्यामि विनायकम् ॥ १०॥
नमोऽस्तु गजवक्त्राय गणानां पतये नमः ।
मेरुमन्दररूपाय नमः कैलासवासिने ॥ ११॥
विरूपाय नमस्तेऽस्तु नमस्ते ब्रह्मचारिणे ।
भक्तस्तुताय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक ॥ १२॥
त्वया पुराण पूर्वेषां देवानां कार्यसिद्धये ।
गजरूपं समास्थाय त्रासिताः सर्वदानवाः ॥ १३॥
ऋषीणां देवतानां च नायकत्वं प्रकाशितम् ।
यतस्ततः सुरैरग्रे पूज्यसे त्वं भवात्मज ॥ १४॥
त्वामाराध्य गणाध्यक्षं सर्वज्ञं कामरूपिणम् ।
कार्यार्थं रक्तकुसुमै रक्तचन्दनवारिभिः ॥ १५॥
रक्ताम्बरधरो भूत्वा चतुर्थ्यामर्चयेज्जपेत् ।
त्रिकालमेककालं वा पूजयेन्नियताशनः ॥ १६॥
राजानं राजपुत्रं वा राजमन्त्रिणमेव वा ।
राज्यं च सर्वविघ्नेश वशं कुर्यात् सराष्ट्रकम् ॥ १७॥
अविघ्नं तपसो मह्यं कुरु नौमि विनायक ।
मयेत्थं संस्तुतो भक्त्या पूजितश्च विशेषतः ॥ १८॥
यत्फलं सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत्फलम् ।
तत्फलं पूर्णमाप्नोति स्तुत्वा देवं विनायकम् ॥ १९॥
विषमं न भवेत् तस्य न च गच्छेत् पराभवम् ।
न च विघ्नो भवेत् तस्य जातो जातिस्मरो भवेत् ॥ २०॥
य इदं पठते स्तोत्रं षड्भिर्मासैर्वरं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ २१॥
सूत उवाच
एवं स्तुत्वा पुरा राजा गणाध्यक्षं द्विजोत्तम ।
तापसं वेषमास्थाय तपश्चर्तुं गतो वनम् ॥ २२॥
उत्सृज्य वस्त्रं नागत्वक्सदृशं बहुमूल्यकम् ।
कठिनां तु त्वचं वाक्षीं कट्यां धत्ते नृपोत्तमः ॥ २३॥
तथा रत्नानि दिव्यानि वलयानि निरस्य तु ।
अक्षसूत्रमलङ्कारं फलैः पद्मस्य शोभनम् ॥ २४॥
तथोत्तमाङ्गे मुकुटं रत्नहाटकशोभितम् ।
त्यक्त्वा जटाकलापं तु तपोऽर्थे विभृयान्नृपः ॥ २५॥
इति ।नरसिंहपुराण अध्याय २५ श्लोकसंख्या ७२
श्रीनरसिंहपुराणे इक्ष्वाकुचरिते पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५॥

एकदंतगणेश स्तोत्रम् ॥ श्रीगणेशाय नमः ।

एकदंतगणेश स्तोत्रम् ॥ श्रीगणेशाय नमः ।
मदासुरं सुशान्तं वै दृष्ट्वा विष्णुमुखाः सुराः ।
भृग्वादयश्च मुनय एकदन्तं समाययुः ॥ १॥
प्रणम्य तं प्रपूज्यादौ पुनस्तं नेमुरादरात् ।
तुष्टुवुर्हर्षसंयुक्ता एकदन्तं गणेश्वरम् ॥ २॥
देवर्षय ऊचुः,,सदात्मरूपं सकलादि-भूतममायिनं सोऽहमचिन्त्यबोधम् ।
अनादि-मध्यान्त-विहीनमेकं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ३॥
अनन्त-चिद्रूप-मयं गणेशं ह्यभेद-भेदादि-विहीनमाद्यम् ।
हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ४॥
विश्वादिभूतं हृदि योगिनां वै प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम् ।
सदा निरालम्ब-समाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ५॥
स्वबिम्बभावेन विलासयुक्तं बिन्दुस्वरूपा रचिता स्वमाया ।
तस्यां स्ववीर्यं प्रददाति यो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ६॥
त्वदीय-वीर्येण समर्थभूता माया तया संरचितं च विश्वम् ।
नादात्मकं ह्यात्मतया प्रतीतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ७॥
त्वदीय-सत्ताधरमेकदन्तं गणेशमेकं त्रयबोधितारम् ।
सेवन्त आपुस्तमजं त्रिसंस्थास्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ८॥
ततस्त्वया प्रेरित एव नादस्तेनेदमेवं रचितं जगद्वै ।
आनन्दरूपं समभावसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ९॥
तदेव विश्वं कृपया तवैव सम्भूतमाद्यं तमसा विभातम् ।
अनेकरूपं ह्यजमेकभूतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १०॥
ततस्त्वया प्रेरितमेव तेन सृष्टं सुसूक्ष्मं जगदेकसंस्थम् ।
सत्त्वात्मकं श्वेतमनन्तमाद्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ ११॥
तदेव स्वप्नं तपसा गणेशं संसिद्धिरूपं विविधं वभूव ।
सदेकरूपं कृपया तवाऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १२॥
सम्प्रेरितं तच्च त्वया हृदिस्थं तथा सुसृष्टं जगदंशरूपम् ।
तेनैव जाग्रन्मयमप्रमेयं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १३॥
जाग्रत्स्वरूपं रजसा विभातं विलोकितं तत्कृपया यदैव ।
तदा विभिन्नं भवदेकरूपं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १४॥
एवं च सृष्ट्वा प्रकृतिस्वभावात्तदन्तरे त्वं च विभासि नित्यम् ।
बुद्धिप्रदाता गणनाथ एकस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १५॥
त्वदाज्ञया भान्ति ग्रहाश्च सर्वे नक्षत्ररूपाणि विभान्ति खे वै ।
आधारहीनानि त्वया धृतानि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १६॥
त्वदाज्ञया सृष्टिकरो विधाता त्वदाज्ञया पालक एव विष्णुः ।
त्वदाज्ञया संहरको हरोऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १७॥
यदाज्ञया भूर्जलमध्यसंस्था यदाज्ञयाऽपः प्रवहन्ति नद्यः ।
सीमां सदा रक्षति वै समुद्रस्तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १८॥
यदाज्ञया देवगणो दिविस्थो ददाति वै कर्मफलानि नित्यम् ।
यदाज्ञया शैलगणोऽचलो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १९॥
यदाज्ञया शेष इलाधरो वै यदाज्ञया मोहप्रदश्च कामः ।
यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २०॥
यदाज्ञया वाति विभाति वायुर्यदाज्ञयाऽग्निर्जठरादिसंस्थः ।
यदाज्ञया वै सचराऽचरं च तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २१॥
सर्वान्तरे संस्थितमेकगूढं यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति ।
अनन्तरूपं हृदि बोधकं वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २२॥
यं योगिनो योगबलेन साध्यं कुर्वन्ति तं कः स्तवनेन स्तौति ।
अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ २३॥
गृत्समद उवाच
एवं स्तुत्वा च प्रह्लाद देवाः समुनयश्च वै ।
तूष्णीं भावं प्रपद्यैव ननृतुर्हर्षसंयुताः ॥ २४॥
स तानुवाच प्रीतात्मा ह्येकदन्तः स्तवेन वै ।
जगाद तान् महाभागान् देवर्षीन् भक्तवत्सलः ॥ २५॥
एकदन्त उवाच
प्रसन्नोऽस्मि च स्तोत्रेण सुराः सर्षिगणाः किल ।
वृणुध्वं वरदोऽहं वो दास्यामि मनसीप्सितम् ॥ २६॥
भवत्कृतं मदीयं वै स्तोत्रं प्रीतिप्रदं मम ।
भविष्यति न सन्देहः सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ २७॥
यं यमिच्छति तं तं वै दास्यामि स्तोत्रपाठतः ।
पुत्र-पौत्रादिकं सर्वं लभते धन-धान्यकम् ॥ २८॥
गजाश्वादिकमत्यन्तं राज्यभोगं लभेद् ध्रुवम् ।
भुक्तिं मुक्तिं च योगं वै लभते शान्तिदायकम् ॥ २९॥
मारणोच्चाटनादीनि राज्यबन्धादिकं च यत् ।
पठतां शृण्वतां नृणां भवेच्च बन्धहीनता ॥ ३०॥
एकविंशतिवारं च श्लोकांश्चैवैकविंशतिम् ।
पठते नित्यमेवं च दिनानि त्वेकविंशतिम् ॥ ३१॥
न तस्य दुर्लभं किंचित् त्रिषु लोकेषु वै भवेत् ।
असाध्यं साधयेन् मर्त्यः सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ३२॥
नित्यं यः पठते स्तोत्रं ब्रह्मभूतः स वै नरः ।
तस्य दर्शनतः सर्वे देवाः पूता भवन्ति वै ॥ ३३॥
एवं तस्य वचः श्रुत्वा प्रहृष्टा देवतर्षयः ।
ऊचुः करपुटाः सर्वे भक्तियुक्ता गजाननम् ॥ ३४॥
॥ इती श्री'एकदन्तस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

ॐ महाकर्णाय विद्महे | वक्रतुन्डाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात || ॐ गं ॐ |ॐ गं गणपतये नमः

ॐ महाकर्णाय विद्महे | वक्रतुन्डाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात || ॐ गं ॐ |ॐ गं गणपतये नमः |ॐ नमो भगवते गजाननाय |श्री गणेशाय नमः |ॐ श्री गणेशाय नमः |ॐ वक्रतुन्डाय हुम |ॐ ह्रीं श्रीं क्लिं गौं ग: श्रींमहागणाधिपतये नमः |ॐ ह्रींश्रींक्लिंगौं वरदमूर्तयेनमः |ॐ ह्रीं श्रीं क्लिं नमो भगवते गजाननाय |
ॐ ह्रीं श्रीं क्लिं नमो गणेश्वराय ब्रह्मरूपाय चारवे सर्वसिध्दी प्रदेयाय ब्रह्मणस्पतये नमः |
ॐ बिजाय भालचंद्राय गणेश परमात्मने | प्रणतक्लेशनाशाय हेरम्बाय नमो नमः |
ॐ आपदामपहर्तार | दातारं सुखसंपदाम | क्षीप्रप्रासादन्न देवं | भूयो भूयो नमाम्यहम ||
ॐ नमो गणपते तुभ्यं | हेरम्बा येकदंतिने | स्वानंदवासिने तुभ्यं | ब्रह्मणस्पतये नमः |
ॐ श्री गजानन जय गजानन |ॐ श्री गजानन जय गजानन | जय जय गजानन |
ॐ शुक्लाम्बरधरं देव | शशिसूर्यनिभाननम | प्रसन्नवदन ध्यायेत | सर्वविघ्नोंपशान्तये ||
ॐ नमस्तमै गणेशाय ब्रह्मविद्याप्रदाइने | यस्याsगस्तायते नाम | विघ्न सागरशोषणे ||
ॐ ह्रीं गं ह्रीं गणपतये नमः ||ॐ वक्रतुन्डाय नमः |
ॐ महाकर्णाय विद्महे | वक्रतुन्डाय धीमहि | तन्नो दंती प्रचोदयात ||
ॐ यद्भ्रूप्रणीहितां लक्ष्मी | लभन्ते भक्त कोट्य: || स्वतंत्र मेकं नेतारं | विघ्नराजं नमाम्यहम ||

ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ


ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये

ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ



ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये

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ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:ॐ


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ॐ गं गणपतये नम:,प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायकं |भक्तावासं स्मरेन्नित्य-मायुः कामार्थ सिद्धये



ॐ गं गणपतये नम:,प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायकं |भक्तावासं स्मरेन्नित्य-मायुः कामार्थ सिद्धये || 1||प्रथमं वक्रतुंडम च एकदंतं व्दितीयकम |तृतीयं कृष्ण - पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम || 2 ||लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च |सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टकम || 3 ||नवमं भलाचंद्रम च दशमं तु विनायकं |एकादशं गणपति व्दादशम तु गजाननं || 4 ||व्दाद -शैतानी नामानी त्रिसंध्यं यः पठैन्नरः |न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम || 5 ||विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम |पुत्रार्थी लभते पुत्रान मोक्षार्थी लभते गतिम् || 6||जपेद गणपति-स्तोत्रं षड्भिर्मासै: फलं लभेत |संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः || 7 ||अष्ठभ्यो ब्राह्मनेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत |तस्य विद्या भवेत् सर्व गणेशस्य प्रसादतः ||
॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557






श्री गणेशाय नमः । वक्रतुण्डगणेशकवचम् ॥

श्री गणेशाय नमः । वक्रतुण्डगणेशकवचम् ॥
मौलिं महेशपुत्रोऽव्याद्भालं पातु विनायकः ।
त्रिनेत्रः पातु मे नेत्रे शूर्पकर्णोऽवतु श्रुती ॥ १॥
हेरम्बो रक्षतु घ्राणं मुखं पातु गजाननः ।
जिह्वां पातु गणेशो मे कण्ठं श्रीकण्ठवल्लभः ॥ २॥
स्कन्धौ महाबलः पातु विघ्नहा पातु मे भुजौ ।
करौ परशुभृत्पातु हृदयं स्कन्दपूर्वजः ॥ ३॥
मध्यं लम्बोदरः पातु नाभिं सिन्दूरभूषितः ।
जघनं पार्वतीपुत्रः सक्थिनी पातु पाशभृत् ॥ ४॥
जानुनी जगतां नाथो जङ्घे मूषकवाहनः ।
पादौ पद्मासनः पातु पादाधो दैत्यदर्पहा ॥ ५॥
एकदन्तोऽग्रतः पातु पृष्ठे पातु गणाधिपः ।
पार्श्वयोर्मोदकाहारो दिग्विदिक्षु च सिद्धिदः ॥ ६॥
व्रजतस्तिष्ठतो वापि जाग्रतः स्वपतोऽश्‍नतः ।
चतुर्थीवल्लभो देवः पातु मे भुक्तिमुक्तिदः ॥ ७॥
इदं पवित्रं स्तोत्रं च चतुर्थ्यां नियतः पठेत् ।
सिन्दूररक्तः कुसुमैर्दूर्वया पूज्य विघ्नपम् ॥ ८॥
राजा राजसुतो राजपत्नी मन्त्री कुलं चलम् ।
तस्यावश्यं भवेद्वश्यं विघ्नराजप्रसादतः ॥ ९॥
समन्त्रयन्त्रं यः स्तोत्रं करे संलिख्य धारयेत् ।
धनधान्यसमृद्धिः स्यात्तस्य नास्त्यत्र संशयः ॥ १०॥
अस्य मन्त्रः ।ऐं क्लीं ह्रीं वक्रतुण्डाय हुं ।
रसलक्षं सदैकाग्र्यः षडङ्गन्यासपूर्वकम् ।
हुत्वा तदन्ते विधिवदष्टद्रव्यं पयो घृतम् ॥ ११॥
यं यं काममभिध्यायन् कुरुते कर्म किञ्चन ।
तं तं सर्वमवाप्नोति वक्रतुण्डप्रसादतः ॥ १२॥
भृगुप्रणीतं यः स्तोत्रं पठते भुवि मानवः ।
भवेदव्याहतैश्वर्यः स गणेशप्रसादतः ॥ १३
॥ इति गणेशरक्षाकरं स्तोत्रं समाप्तम् ॥

ॐ गं गणपतये नमः गणपति बाप्पा मोरया शत्रु संहारक मेकदन्त स्तोत्रम् ॥

ॐ गं गणपतये नमः!! ॐ श्री गणेशाय नमः !!!! ॐ सिद्धि विनायकाय नम: !!
!! ॐ गं गणपतये नमः !!!! गणपति बाप्पा मोरया !!!! मंगलमुर्ती मोरया !!
शत्रु संहारक मेकदन्त स्तोत्रम् ॥
श्री गणेशाय नमः ।सनत्कुमार उवाच ।
शृणु शम्भ्वादयो देवा मदासुरविनाशने ।
उपायं कथयिष्यामि तत्कुरुध्वं मुनीश्वराः ॥ १॥
गणेशं पूजयध्वं वै यूयं सर्वे समावृताः ।
स बाह्यान्तरसंस्थो वै हनिष्यति मदासुरम् ॥ २॥
सनत्कुमारवाक्यं तच्छ्रुत्वा देवर्षिसत्तमाः ।
ऊचुस्तं प्रणिपत्यादौ भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥ ३॥
देवर्षय ऊचुः ।
केनोपायेन देवेशं गणेशं मुनिसत्तमम् ।
पूजयामो विशेषेण तं ब्रवीहि यथातथम् ॥ ४॥
एवं पृष्टो महायोगी देवैश्च मुनिभिः सह ।
उवाचाराधनं तेभ्यो गाणपत्यो महायशाः ॥ ५॥
एकाक्षरेण तं देवं हृदिस्थं गणनायकम् ।
विधिना पूजयध्वं च तुष्टस्तेन भविष्यति ॥ ६॥
ध्यानं तस्य प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं सुरसत्तमाः ।
यूयं तं तादृशं ध्यात्वा तोषयध्वं विधानतः ॥ ७॥
एकदन्तं चतुर्बाहुं गजवक्त्रं महोदरम् ।
सिद्धिबुद्धिसमायुक्तं मूषकारूढमेव च ॥ ८॥
नाभिशेषं सपाशं वै परशुं कमलं शुभम् ।
अभयं सन्दधन्तं च प्रसन्नवदनाम्बुजम् ॥ ९॥
भक्तेभ्यो वरदं नित्यमभक्तानां निषूदनम् ।
एतादृशं हृदि ध्यात्वा सेवध्वमेकदन्तकम् ॥ १०॥
सर्वेषां हृदि संस्थोऽयं बुद्धिप्रेरकभावतः ।
स्वयं बुद्धिपतिः साक्षादात्मा च सर्वदेहिनाम् ॥ ११॥
एकशब्दात्मिका माया देहरूपा विलासिनी ।
दन्तः सत्तात्मकः प्रोक्तः शब्दस्तत्र न संशयः ॥ १२॥
मायाया धारकोऽयं वै सत्तमात्रेण संस्थितः ।
एकदन्तो गणेशो वै कथ्यते वेदवादिभिः ॥ १३॥
सर्वसत्ताधरं पूर्णमेकदन्तं गजाननम् ।
सेवध्वं भक्तिभावेन भविष्यति सदा सुखम् ॥ १४॥
एवमुक्त्वा ययौ योगी स सनत्कुमार आदरात् ।
जय हेरम्बमन्त्रं वै समुच्चरन् मुखेन सः ॥ १५॥
ततो देवगणाः सर्वे मनुयस्तपसि स्थिताः ।
एकाक्षरविधानेन तोषयामासुरादरात् ॥ १६॥
पत्रभक्षा निराहारा वायुभक्षा जलाशिनः ।
कन्दमूलफलाहाराः केचित्केचिद्बभूविरे ॥ १७॥
संस्थिता ध्याननिष्ठा वै जपहोमपरायणाः ।
नानातपःप्रभावेण तोषयन् गणनायकम् ॥ १८॥
गतवर्षशतेषु वै सन्तुष्ट एकदन्तकः ।
आययौ तान्वरान्दातुं ध्यातस्तैर्यादृशस्तथा ॥ १९॥
जगाद स तपोयुक्तान् मुनीन्देवन्गजाननः ।
वरं वृणुत तुष्टोऽहं दास्यामि ब्राह्मणामराः ॥ २०॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा हृष्टा देवर्षयोऽभवन् ।
उन्मील्य लोचने देवमपश्यन्समीपस्थितम् ॥ २१॥
दृष्ट्वा मूषकसंस्थं तं प्रणेमुस्ते गजाननम् ।
मुनयो देवदेवेन्द्रा पुपूजुर्भक्तिसंयुताः ॥ २२॥
पूजयित्वा यथान्यायं प्रणम्य करसम्पुटाः ।
तुष्टुवुरेकदन्तं तं भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥ २३॥
देवर्षय ऊचुः ।
नमस्ते गजवक्त्राय गणेशाय नमो नमः ।
अनन्तानन्दभोक्त्रे वै ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे ॥ २४॥
आदिमध्यान्तहीनाय चराचरमयाय ते ।
अनन्तोदरसंस्थाय नाभिशेषाय ते नमः ॥ २५॥
कर्त्रे पात्रे च संहर्त्रे त्रिगुणानामधीश्वर ।
सर्वसत्ताधरायैव निर्गुणाय नमो नमः ॥ २६
सिद्धिबुद्धिपते तुभ्यं सिद्धिबुद्धिप्रदाय च ।
ब्रह्मभूताय देवेश सगुणाय नमो नमः ॥ २७॥
परशुधारिणे तुभ्यं कमलहस्तशोभिने ।
पाशाभयधरायैव महोदराय ते नमः ॥ २८॥
मूषकारूढदेवाय मूषकध्वजिने नमः ।
आदिपूज्याय सर्वाय सर्वपूज्याय ते नमः ॥ २९॥
सगुणात्मककायाय निर्गुणमस्तकाय ते ।
तयोदभेदरूपेण चैकदन्तय ते नमः ॥ ३०॥
देवान्ताऽगोचरायैव वेदान्तलभ्यकाय ते ।
योगाधीशाय वै तुभ्यं ब्रह्माधीशाय ते नमः ॥ ३१॥
अपारगुणधामायानन्तमायाप्रचरिणे ।
नानावतारभेदाय शान्तिदाय नमो नमः ॥ ३२॥
वयं धन्या वयं धन्या यैर्दृष्टो गणनायकः ।
ब्रह्मभूतमयः साक्षात्प्रत्यक्षं पुरतः स्थितः ॥ ३३॥
एवं स्तुत्वा प्रहर्षेण ननृतुर्भक्तिसंयुताः ।
साश्रुनेत्रान्सरोमाञ्चान्दृष्ट्वा तान् ढुण्ढिरब्रवीत् ॥ ३४॥
एकदन्त उवाच ।
वरं वृणुत देवेशा मनुयश्च यथेप्सितम् ।
दास्यामि तं न सन्देहो यद्यपि दुर्लभं भवेत् ॥ ३५॥
भवत्कृतं मदीयं तत् स्तोत्रं सर्वार्थदं भवेत् ।
पठते श्रुण्वते देवा नानासिद्धिप्रदं द्विजाः ॥ ३६॥
शत्रुनाशकरं चैव सुखानन्दप्रदायकम् ।
पुत्रपौत्रादिकं सर्वं लभते पाठतो नरः ॥ ३७॥
गृत्समद उवाच ।
एवं तस्य वचः श्रुत्वा हर्षयुक्ताः सुरर्षयः ।
ऊचुस्तमेकदन्तं ते प्रणम्य भक्तिभावतः ॥ ३८॥
सुरर्षय ऊचुः ।
यदि तुष्टोऽसि सर्वेश एकदन्त महाप्रभो ।
यदि देयो वरो नश्चेज्जहि दुष्टं मदासुरम् ॥ ३९॥
इति श्रीमुद्गलपुराणान्तर्गतं सनकादिकृतमेकदन्तस्तोत्रं समाप्तम् ।\
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