Tuesday, 28 March 2017

श्री दुर्गा सप्तशति बीज मंत्रात्मक साधना


श्री दुर्गा सप्तशति बीज मंत्रात्मक साधना..
ॐ श्री गणेशाय नमः ,,११ बार
ॐ ह्रों जुं सः सिद्ध गुरूवे नमः ,११ बार

ॐ दुर्गे दुर्गे रक्ष्णी ठः ठः स्वाहः ,१३ बार

सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम..
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामण्डायै विच्चे | ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल  ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै
ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ||

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दीनि | नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दीनि ||
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भसुरघातिनि | जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ||
ऐंकारी सृष्टीरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका | क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तुते ||
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी | विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ||
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी | क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुंभ कुरू ||
हुं हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी | भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रै भवान्यै ते नमो नमः ||
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं | धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ||
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा | सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे ||

|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

प्रथमचरित्र...
ॐ अस्य श्री प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा रूषिः महाकाली देवता गायत्री छन्दः नन्दा शक्तिः रक्तदन्तिका बीजम् अग्निस्तत्त्वम् रूग्वेद स्वरूपम् श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थे प्रथमचरित्र जपे विनियोगः|

(१) श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं प्रीं ह्रां ह्रीं सौं प्रें म्रें ल्ह्रीं म्लीं स्त्रीं क्रां स्ल्हीं क्रीं चां भें क्रीं वैं ह्रौं युं जुं हं शं रौं यं विं वैं चें ह्रीं क्रं सं कं श्रीं त्रों स्त्रां ज्यैं रौं द्रां द्रों ह्रां द्रूं शां म्रीं श्रौं जूं ल्ह्रूं श्रूं प्रीं रं वं व्रीं ब्लूं स्त्रौं ब्लां लूं सां रौं हसौं क्रूं शौं श्रौं वं त्रूं क्रौं क्लूं क्लीं श्रीं व्लूं ठां ठ्रीं स्त्रां स्लूं क्रैं च्रां फ्रां जीं लूं स्लूं नों स्त्रीं प्रूं स्त्रूं ज्रां वौं ओं श्रौं रीं रूं क्लीं दुं ह्रीं गूं लां ह्रां गं ऐं श्रौं जूं डें श्रौं छ्रां क्लीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

मध्यमचरित्र..
ॐ अस्य श्री मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्रूषिः महालक्ष्मीर्देवता उष्णिक छन्दः शाकम्भरी शक्तिः दुर्गा बीजम् वायुस्तत्त्वम् यजुर्वेदः स्वरूपम् श्रीमहालक्ष्मी प्रीत्यर्थे मध्यमचरित्र जपे विनियोगः

(२) श्रौं श्रीं ह्सूं हौं ह्रीं अं क्लीं चां मुं डां यैं विं च्चें ईं सौं व्रां त्रौं लूं वं ह्रां क्रीं सौं यं ऐं मूं सः हं सं सों शं हं ह्रौं म्लीं यूं त्रूं स्त्रीं आं प्रें शं ह्रां स्मूं ऊं गूं व्र्यूं ह्रूं भैं ह्रां क्रूं मूं ल्ह्रीं श्रां द्रूं द्व्रूं ह्सौं क्रां स्हौं म्लूं श्रीं गैं क्रूं त्रीं क्ष्फीं क्सीं फ्रों ह्रीं शां क्ष्म्रीं रों डुं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(३) श्रौं क्लीं सां त्रों प्रूं ग्लौं क्रौं व्रीं स्लीं ह्रीं हौं श्रां ग्रीं क्रूं क्रीं यां द्लूं द्रूं क्षं ह्रीं क्रौं क्ष्म्ल्रीं वां श्रूं ग्लूं ल्रीं प्रें हूं ह्रौं दें नूं आं फ्रां प्रीं दं फ्रीं ह्रीं गूं श्रौं सां श्रीं जुं हं सं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(४) श्रौं सौं दीं प्रें यां रूं भं सूं श्रां औं लूं डूं जूं धूं त्रें ल्हीं श्रीं ईं ह्रां ल्ह्रूं क्लूं क्रां लूं फ्रें क्रीं म्लूं घ्रें श्रौं ह्रौं व्रीं ह्रीं त्रौं हलौं गीं यूं ल्हीं ल्हूं श्रौं ओं अं म्हौं प्री
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

उत्तमचरित्र..
ॐ अस्य श्री उत्तरचरित्रस्य रुद्र रूषिः महासरस्वती देवता अनुष्टुप् छन्दः भीमा शक्तिः भ्रामरी बीजम सूर्यस्तत्त्वम सामवेदः स्वरूपम श्री महासरस्वती प्रीत्यर्थे उत्तरचरित्र जपे विनियोगः

(५) श्रौं प्रीं ओं ह्रीं ल्रीं त्रों क्रीं ह्लौं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं रौं स्त्रीं म्लीं प्लूं ह्सौं स्त्रीं ग्लूं व्रीं सौः लूं ल्लूं द्रां क्सां क्ष्म्रीं ग्लौं स्कं त्रूं स्क्लूं क्रौं च्छ्रीं म्लूं क्लूं शां ल्हीं स्त्रूं ल्लीं लीं सं लूं हस्त्रूं श्रूं जूं हस्ल्रीं स्कीं क्लां श्रूं हं ह्लीं क्स्त्रूं द्रौं क्लूं गां सं ल्स्त्रां फ्रीं स्लां ल्लूं फ्रें ओं स्म्लीं ह्रां ऊं ल्हूं हूं नं स्त्रां वं मं म्क्लीं शां लं भैं ल्लूं हौं ईं चें क्ल्रीं ल्ह्रीं क्ष्म्ल्रीं पूं श्रौं ह्रौं भ्रूं क्स्त्रीं आं क्रूं त्रूं डूं जां ल्ह्रूं फ्रौं क्रौं किं ग्लूं छ्रंक्लीं रं क्सैं स्हुं श्रौं श्रीं ओं लूं ल्हूं ल्लूं स्क्रीं स्स्त्रौं स्भ्रूं क्ष्मक्लीं व्रीं सीं भूं लां श्रौं स्हैं ह्रीं श्रीं फ्रें रूं च्छ्रूं ल्हूं कं द्रें श्रीं सां ह्रौं ऐं स्कीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(६) श्रौं ओं त्रूं ह्रौं क्रौं श्रौं त्रीं क्लीं प्रीं ह्रीं ह्रौं श्रौं अरैं अरौं श्रीं क्रां हूं छ्रां क्ष्मक्ल्रीं ल्लुं सौः ह्लौं क्रूं सौं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(७) श्रौं कुं ल्हीं ह्रं मूं त्रौं ह्रौं ओं ह्सूं क्लूं क्रें नें लूं ह्स्लीं प्लूं शां स्लूं प्लीं प्रें अं औं म्ल्रीं श्रां सौं श्रौं प्रीं हस्व्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(८) श्रौं म्हल्रीं प्रूं एं क्रों ईं एं ल्रीं फ्रौं म्लूं नों हूं फ्रौं ग्लौं स्मौं सौं स्हों श्रीं ख्सें क्ष्म्लीं ल्सीं ह्रौं वीं लूं व्लीं त्स्त्रों ब्रूं श्क्लीं श्रूं ह्रीं शीं क्लीं फ्रूं क्लौं ह्रूं क्लूं तीं म्लूं हं स्लूं औं ल्हौं श्ल्रीं यां थ्लीं ल्हीं ग्लौं ह्रौं प्रां क्रीं क्लीं न्स्लुं हीं ह्लौं ह्रैं भ्रं सौं श्रीं प्सूं द्रौं स्स्त्रां ह्स्लीं स्ल्ल्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(९) रौं क्लीं म्लौं श्रौं ग्लीं ह्रौं ह्सौं ईं ब्रूं श्रां लूं आं श्रीं क्रौं प्रूं क्लीं भ्रूं ह्रौं क्रीं म्लीं ग्लौं ह्सूं प्लीं ह्रौं ह्स्त्रां स्हौं ल्लूं क्स्लीं श्रीं स्तूं च्रें वीं क्ष्लूं श्लूं क्रूं क्रां स्क्ष्लीं भ्रूं ह्रौं क्रां फ्रूं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(१०) श्रौं ह्रीं ब्लूं ह्रीं म्लूं ह्रं ह्रीं ग्लीं श्रौं धूं हुं द्रौं श्रीं त्रों व्रूं फ्रें ह्रां जुं सौः स्लौं प्रें हस्वां प्रीं फ्रां क्रीं श्रीं क्रां सः क्लीं व्रें इं ज्स्हल्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(११) श्रौं क्रूं श्रीं ल्लीं प्रें सौः स्हौं श्रूं क्लीं स्क्लीं प्रीं ग्लौं ह्स्ह्रीं स्तौं लीं म्लीं स्तूं ज्स्ह्रीं फ्रूं क्रूं ह्रौं ल्लूं क्ष्म्रीं श्रूं ईं जुं त्रैं द्रूं ह्रौं क्लीं सूं हौं श्व्रं ब्रूं स्फ्रूं ह्रीं लं ह्सौं सें ह्रीं ल्हीं विं प्लीं क्ष्म्क्लीं त्स्त्रां प्रं म्लीं स्त्रूं क्ष्मां स्तूं स्ह्रीं थ्प्रीं क्रौं श्रां म्लीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(१२) ह्रीं ओं श्रीं ईं क्लीं क्रूं श्रूं प्रां स्क्रूं दिं फ्रें हं सः चें सूं प्रीं ब्लूं आं औं ह्रीं क्रीं द्रां श्रीं स्लीं क्लीं स्लूं ह्रीं व्लीं ओं त्त्रों श्रौं ऐं प्रें द्रूं क्लूं औं सूं चें ह्रूं प्लीं क्षीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

(१३) श्रौं व्रीं ओं औं ह्रां श्रीं श्रां ओं प्लीं सौं ह्रीं क्रीं ल्लूं ह्रीं क्लीं प्लीं श्रीं ल्लीं श्रूं ह्रूं ह्रीं त्रूं ऊं सूं प्रीं श्रीं ह्लौं आं ओं ह्रीं
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||

दुर्गा दुर्गर्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी |
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||
दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा |
दुर्गमग्यानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ||
दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी |
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ||
दुर्गमग्यानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी |
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ||
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी |
दुर्गमाँगी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी ||
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी ||
[३ बार]
|ॐ नमश्चण्डिकायैः|ॐ दुर्गार्पणमस्तु||

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Sunday, 26 March 2017

दूकान के लिए महत्त्वपूर्ण वास्तु सलाह

दूकान के लिए महत्त्वपूर्ण वास्तु सलाह
वास्तु शास्त्र के अनुसार यदि आपकी दूकान या शोरूम की आंतरिक और बाह्य व्यवस्था होती है तब अवश्य ही शुभ फल की प्राप्ति होगी। वास्तु का सिद्धांत जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होता है। वह स्थान जहाँ जाकर हम प्रत्येक दिन काम करते है उस स्थान का वास्तु तो बहुत जरूरी है।
मकान हो या दूकान सभी जगह पंचतत्त्वों की उपस्थिति होती है। पंचतत्त्वों का स्थान विशेष में सामंजस्य ही तो वास्तु विज्ञान है । अत: स्पष्ट है कि वास्तु के सिद्धांत सिर्फ घर को ही नहीं अपितु दुकान आदि को भी प्रभावित करते हैं। दुकान में भी वास्तु का विशेष महत्व है। यदि आपकी दुकान वास्तु सम्मत है तो हर दृष्टि से शुभ परिणाम देता है।
कई बार यह देखने में आया है कि मुख्य बाज़ार में दूकान होने के बावजूद बिक्री उतनी नहीं हो पाती है जितनी होनी चाहिए। इसका मुख्य कारण है आपके दूकान में वास्तु सम्मत दोष का होना
एक बार एक बंधु मेरे पास आए और बोले कुछ दिन पहले मेरा दूकान बहुत अच्छा चल रहा था परन्तु जब से मै अपने दूकान में कुछ परिवर्तन किया हूँ उस समय से मेरे दूकान की बिक्री बहुत ही घट गई है। जब मैं उस दूकान की वास्तु देखने गया तो देखता हूँ कि दूकान के वायव्य स्थान जहाँ पर तुरंत बिक्री वाला सामान या हल्का सामान रखना चाहिए वहाँ पर भाड़ी और तुरन्त न बिकने वाला सामान रखा गया था। जब दूकान की आन्तरिक व्यवस्था वास्तु सम्मत की गई तब कुछ दिनों के बाद उनका फोन आया कि अब सब कुछ ठीक चल रहा है बिक्री बढ़ गई है और आशा है कि आगे भी बढ़ोतरी होती रहेगी।
दुकान में आप स्वयं नीचे लिखे सामान्य वास्तु नियमों का पालन करके मनोवांछित लाभ ले सकते हैं।
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
दुकान आकार वर्गाकार अथवा आयताकार होने से आर्थिक वृद्धि होती है।
बाघमुखी अथवा सिंहमुखी दूकान अर्थात जिस दूकान के पीछे का भाग संकरा तथा आगे का भाग चौड़ा हो वह सिंहमुखी कहलाता है और दुकान का यह आकार अत्यंत ही शुभफल प्रदान करनेवाला होता है।
गोमुखी दुकान अर्थात जिस दूकान के आगे का भाग कम चौड़ा हो तथा पीछे का भाग अधिक चौड़ा हो गौमुखी कहलाता है दुकान के लिए यह लाभदायक नहीं है।
दूकान का ढलान प्रवेश द्वार की ओर नहीं होना चाहिए।
दुकान के ईशान कोण में कोई भाड़ी वस्तु न रखें। इस स्थान को या तो खाली रखें या जितना हो सके हल्का रखें। इस स्थान को हमेशा स्वच्छ रखना चाहिए।
दूकान में पीने के पानी की व्यवस्था उत्तर, ईशान कोण या पूर्व में रखें। ऐसा करने से दुकान में लक्ष्मी का लाभ होता है और धन लाभ होता है।
दुकान में ईशान कोण या आग्नेय कोण (उत्तरपूर्व या दक्षिणपूर्व) दिशा में दुकान की बिक्री का समान नहीं रखना चाहिए।
दूकान में प्रयुक्त बिजली उपकरण जैसे – मीटर, स्विच बोर्ड, इनवर्टर इत्यादि आग्नेय कोण (East – South) में ही रखना चाहिए। यदि अन्य दिशा में रखते है तो आगजनी जैसे परेशानी का शिकार हो सकते है।
दुकान के ठीक सामने कोई बिजली या फोन का खंबा,पेड़ अथवा सीढ़ी नहीं होना चाहिए यदि है तो आर्थिक नुकसान होगा।
दुकान के अंदर समान रखने के लिए आलमारी, शो-केस, फर्नीचर आदि दक्षिण-पश्चिम या नैऋत्य में लगाएं।
दुकान में माल का स्टोर, या कोई भी वैसा सामान जिसका वजन ज्यादा हो उसे नैऋत्य कोण (दक्षिण या पश्चिम) में रखना चाहिए।पूजा के लिए मंदिर ईशान, उत्तर या पूर्व में बनाएं।
दुकान या शोरूम के मालिक को पश्चिम दिशा में बैठना चाहिए। ऐसा करने से आय में वृद्धि होती है।
मालिक या मैनेजर तथा तिजोरी की जगह के ऊपर कोई बीम नहीं होना चाहिए। यह व्यवसाय के वृद्धि के लिए अच्छा नहीं होता।
दुकान में काम करने वाले दुकानदार और कर्मचारी इस बात का ध्यान रखें की वह दूकान में बैठे तब उनका मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा में हो इस दिशा में मुख करके बैठने से धन लाभ होता है। ऐसा करने से ग्राहक का दुकानदार और कर्मचारियों के मध्य बेहतर सम्बन्ध बना रहता है।
यदि आपकी दूकान में दूकानदार एवं कर्मचारी पश्चिम या दक्षिण की ओर मुख करके बैठते है तो सामान्यतः धन व्यय और कष्ट होता है।
दुकान की तिजोरी को पश्चिम या दक्षिण दीवार के सहारे रखना शुभ होता है जिससे उसका मुख उत्तर या पूर्व दिशा की ओर हो।
यदि दुकान में टीवी या कंप्यूटर रखना चाहते हैं, तो दक्षिणपूर्व दिशा सबसे शुभ है।
दुकान में क्या नहीं करना चाहिए
दूकान के प्रवेश द्वार पर चौखट न बनाए।
दूकान से धन लाभ के लिए तिजोरी / कैश बाॅक्स में कुबेर यंत्र या श्रीयंत्र अवश्य रखें तथा नगद पेटी कभी खाली न रखें।
गद्दी पर बैठकर न तो भोजन करें और न ही सोने का कष्ट करें।
नगद पेटिका या मेज पर पैर रखकर कभी भी नहीं बैठें।
दूकान के मालिक या कर्मचारी जब भी दान दें तो दक्षिण तथा पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके दान नहीं दे ऐसा करने से धन की हानि होती है।
दुकान खोलते समय तथा शाम को बिजली जलाने के बाद कभी भी दान नही देना चाहिए।कभी भी दान फेंककर न दें, साथ ही दान देते समय, धरती या आसमान की ओर नहीं देखना चाहिए।
दूकान सम्बन्धी समस्या और समाधान

दुकान की उत्तर या पूर्व दिशा में देवी लक्ष्मी और गणेश की मूर्ति रखने व्यापार में लाभ होता है।दुकान में अपने कुल देवता अथवा इष्ट देवी / देवता की तस्वीर लगानी चाहिए।
दूकान के मालिक या कर्मचारी जब भी दान दें तो मुंह पूर्व या उत्तर की तरफ करके ही दें ऐसा करने से धन लाभ होती है।
यदि आपकी दुकान में बरकत न हो रही है, तो गणेश जी की मूर्ति मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर लगाए। यह मूर्ति दीवार के आगे-पीछे दोनों तरफ लगाएं।
यदि आपकी दुकान दक्षिण मुखी है तो गणेश जी की मूर्ति केवल मुख्य दरवाजे के बाहर की ओर ही लगाना चाहिए।
यदि आपके व्यवसाय में कोई परेशानी आ रही हो तो प्रतिदिन श्री लक्ष्मी सहस्रनाम का पाठ करें शीघ्र ही लाभ मिलेगा।
यदि सरकार के अधिकारियों के द्वारा आपको बेवजह परेशान किया जा रहा हो तो प्राण-प्रतिष्ठित सूर्य यंत्र लगाने से समस्याएं दूर हो जाती है।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
यदि आप दुकान को लेकर शत्रु या गुण्डों से परेशान हो रहे है तो प्राण प्रतिष्ठित काली या बगुला मुखी यंत्र लगाने से लाभ मिलता है।
दुकान आपके लिए शुभ फल प्रदान करे इसके लिए दुकान के मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर प्राण-प्रतिष्ठित बीसा या चौतीसा यंत्र लगाना चाहिए।

वास्तु दोष निवारणार्थ प्रमुख सूत्र

वास्तु दोष निवारणार्थ प्रमुख सूत्र
1 गृह प्रवेश के समय वास्तु पूजा अवश्य कराये। यदि आप को लगता है कि आपके घर में वास्तुदोष है तो प्रत्येक वर्ष या प्रत्येक तीन साल पर वास्तु पूजा अवश्य कराते रहना चाहिए।
2 आप अपने घर में श्री रामचरितमानस का अखंड पाठ कराये।
अपने मुख्य द्धार के उपर सिंदूर से नौ अंगुल लंबा तथा नौ अंगुल चौड़ा स्वास्तिक का चिन्ह बनाये। यही नहीं जिस जिस स्थान पर वास्तु दोष है वहाँ इस स्वास्तिक चिन्ह का निर्माण करें। ऐसा करने से वास्तुदोष कम हो जाता है।
3 यदि मुख्य प्रवेश द्वार पर किसी प्रकार का दोष है तो उसे दूर करने के लिए कौड़ी, शंख, सीप लाल कपड़े में या मौली में बांधकर दरवाजे पर लटका देना चाहिए।
4 घर के मुख्य द्धार पर दोनों दिशा में अशोक के वृक्ष लगाने से संतान की प्राप्ति होती है अर्थात ऐसा करने से वंश की वृद्धि होती है।
5 घर के प्रवेश द्वार पर घोड़े की नाल (लोहे की) लगाने से भी वास्तु दोष दूर हो जाती है।
6 घर के वास्तु दोष दूर करने के लिए मुख्य द्वार पर गेंदे का पौधा या तुलसी का पौधा लगा देना चाहिए।
7 यदि आपके घर के उत्तर, पूर्व वायव्य अथवा ईशान कोण में कोई वास्तु दोष है 8 तो तुलसी का पौधा लगा लेने से वास्तुदोष दूर हो जाता है।
9 यदि आपके मकान में बीम का दोष है तो उसे समाप्त करने के लिए बीम को किसी चीज से ढंक दें तथा बीम के दोनों ओर बांस की बांसुरी लगा देना चाहिए।
10 यदि आपका रसोई घर गलत दिशा में है तो रसोईघर के अग्निकोण में एक 11 लाल रंग का बल्ब लगा देना चाहिए। इस बल्ब को सुबह-शाम जरूर जलाये।
12 यदि आप घर में अशांति अथवा धन की कमी महसूस कर रहे हैं तो घर में पान के पत्ते से हल्दी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
13 अपने घर के मन्दिर में घी का एक दीपक नियमित जलाने से धन धान्य की बृद्धि होती है।
14 घर में नियमित सुबह और शाम शंख बजाने से नकारात्मक ऊर्जा घर से बाहर निकल जाती है और धन-धान्य की बृद्धि होती है।
15 घर में झाडू को वैसे स्थान में न रखें जहाँ किसी के पैर का स्पर्थ हो, पैर के स्पर्श होने से धन-नाश होता है। झाडू के ऊपर कोई भी वस्तु भी नहीं रखना चाहिए।
16 अपने घर में दीवारों के ऊपर वैसा चित्र लगाए जो देखते ही मन को प्रसन्न हो जाए। इससे घर के प्रमुख अथवा सदस्यो को होने वाली मानसिक परेशानियों से मुक्ति मिलती है।
17 वास्तुदोष के कारण यदि आपके घर के लोगों को रात में नींद नहीं आती है या घर के सदस्यों के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया हो तो उसे दक्षिण दिशा की तरफ सिर करके सोने से चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है। नींद भी खूब आने लगती है।
18 अपने घर के ईशान कोण को खुला रखें। इस स्थान को पूरी तरह से साफ़ सुथरा रखें।इससे घर में शुभत्व की वृद्धि होती है
ईशान कोण में कोई भी भारी वस्तु अथवा भारी मशीनरी न रखें ऐसा करने से धन की हानि होती है।
19 घर के उत्तर-पूर्व ( ईशान कोण ) में कभी भी कचरा इकट्ठा न होने दें।
यदि आपके मकान में उत्तर दिशा में स्टोररूम है, तो उसे यहाँ से हटा दें.
अपने घर के पश्चिम दिशा या नैऋत्य कोण में स्टोररूम बनाये किसी भी स्थिति में उत्तर दिशा में नहीं होना चाहिए क्योकि उत्तर दिशा में कुबेर का स्थान है और यदि स्टोर रूम बनाते है तो धन की हानि होगी।
20 यदि आपके घर का मुख्य द्वार दक्षिणमुखी अर्थात दक्षिण दिशा में है तो मुख्य द्धार पर श्वेतार्क गणपति की प्रतिमा लगानी चाहिए।
21 अपने घर के मंदिर में देवताओं के चित्र आमने-सामने नहीं रखना चाहिए।
23 घर के मंदिर के दीवार का रंग हल्का रखें जैसे नारंगी, हल्का पीला, हल्का नीला अथवा सफेद होना चाहिए।
24 यदि आपके रसोई घर में सिंक नैऋत्य कोण या अग्नि कोण में है तो वहां से हटाकर उत्तर, उत्तर-पूर्व या पूर्व में रखे।
25 यदि आपके रसोई घर में फ्रिज नैऋत्य कोण में रखा है, तो इसे वहां से हटाकर अग्नि कोण में रखे।
26 अपने घर के ब्रह्मस्थल पर कोई भी वस्तु न रखे। यह स्थान अन्य स्थान से थोड़ा ऊँचा होना चाहिए इस बात का जरूर ख्याल रखें।
27 यदि वास्तुदोष जनित घर है तो घर में गूगल जलाये दोष का प्रभाव कम हो जाएगा।
28 घर में किसी भी कमरे में सूखे हुए फूल नहीं रखना चाहिए। सूखे फूल रखने से आपकी किस्मत भी सूखने लगेगा।
29 सन्ध्या काल में प्रतिदिन दीप जलाना चाहिए तथा कोई एक मनपसन्द आरती करे यदि आरती में घर के सभी सदस्य शामिल होने से वास्तुदोष कम हो जाता है।
30 यदि आपके घर के सामने या पास में कोई नाला अथवा कोई नदी हो जिसका बहाव दक्षिण पश्चिम दिशा में है तो यह वास्तु दोष है। अतः आपको चाहिए कि घर के उत्तर-पूर्व कोने में पश्चिम की ओर मुख किए हुए, नृत्य करते हुए गणेश जी की मूर्ति रखें।
31 यदि घर में जल बोरिंग गलत दिशा में है तो तो घर में दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर मुख किए हुए पंचमुखी हनुमानजी का फोटो लगानी चाहिए। !!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
32 यदि बोरिंग गलत दिशा में है तो बोरिंग के चारो तरफ तांबे का पत्तर लगा देना चाहिए। इससे निकलने वाली नकारात्मक ऊर्जा का संचार रूक जाता है और वास्तु दोष दूर हो जाता है।
33 घर के पूजा स्थान के ईशान कोण में जल रखने घर में सात्विक विचार का संचार होता है।
34 घर के पूजा स्थान में यदि आप अग्निकोण में दीप प्रज्वलित करते है तो धन-धान्य की वृद्धि होती है।
35 यदि आपकी नई शादी हुई है तो आपको अपना स्थान वायव्य दिशा में बनाना चाहिए।
36 घर में वास्तुदोष निवारण यंत्र की स्थापना करनी चाहिए।
37 घर में यदि धन नहीं रुक रहा है तो तिजोरी इस स्थान पर रखे की खोलते समय तिजोरी का द्वार पूर्व दिशा की ओर खुले।
38 यदि घर की रसोई तथा जल की व्यवस्था सही दिशा में हो तो सभी वास्तु दोष को दूर कर देता है।
39 यदि आपका सोफा पूरब की दीवार से सटा हुआ है तो कृपया करके उसे दीवार से पांच अंगुल दूर करे रखे।
40 घर में खाने का स्थान पश्चिम दिशा में बनाना चाहिए।
41 खाने का टेबल चौकोर होना चाहिए न की गोल या ओवल।
42 यदि घर में वास्तु दोष है तो उसके लिए आप पिरामिड यंत्र का प्रयोग कर सकते है।
42 घर मृतात्मा की प्रतिमा हमेशा दक्षिण दिशा में लगानी चाहिए भूलकर भी पूर्व दिशा या मंदिर में न लगाए।
43 घर में ऐनक पूर्व दिशा में रखना चाहिए।
44 घर में घर के मुखिया का शयन कक्ष दक्षिण-पश्चिम दिशा में होना चाहिए न कि अन्य स्थान में।
45 गाडी का पार्किंग आप उत्तर पूर्व में कर सकते है।
46 यदि आपके घर का दक्षिण दिशा निचा है तो यह बहुत भरी वास्तु दोष है इससे आपको धन की हानि होगी अतः दक्षिण दिशा में दीवार बनाकर ऊँचा कर देना चाहिए।
47 उत्तर पूर्व दिशा किसी भी स्थिति में ऊँचा नहीं होना चाहिए।
48 यदि आप कोई जमीन खरीदे हुये हैं और मकान बनाना चाहते परन्तु मकान बनने का योग नही बन रहा है तो इस स्थिति में यदि वहाँ पर पुष्य नक्षत्र में अनार का पौधा लगा दें तो जल्द ही मकान बनने का योग बन जाता है।
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49 अगर आपका घर चारों ओर बड़े मकानों से घिरा है तो उनके बीच बांस का लम्बा फ्लैग लगा देना चाहिए या यदि मकान के चारों ओर खाली जमीन है तो वैसा पेड़ लगाये जो बहुत ऊंचा बढ़ने वाला हो।

Thursday, 23 March 2017

चैत्र नवरात्रि ,2017,के शुभ कर्तव्य जैसे घटस्थापन, कलश-पूजन , श्रीदुर्गा पूजादि करना चा‍हिए।

चैत्र नवरात्रि के शुभ कर्तव्य जैसे घटस्थापन, कलश-पूजन संवत्सर पूजन, श्रीदुर्गा पूजादि करना चा‍हिए।
इस वर्ष विक्रम संवत् 2074 में 28 मार्च 2017 ई. को प्रातः 8.27 पर चैत्र अमावस्या समाप्त हो रही है तथा चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा तिथि 8.28 से ही प्रारंभ होकर अगले दिन 29 मार्च के सूर्योदय मानक 6.25 से पूर्व 29.45 पर समाप्त होगी जिस कारण चैत्र प्रतिप्रदा का क्षय हुआ माना जाएगा।
इस स्थिति में शास्त्रनियम अनुसार चैत्र वासंत अमावस्या विद्धा प्रतिप्रदा 28 मार्च 2017 ई. मंगलवार को ही मानी जाएगी।
भारत के सुदूर उत्तर-पूर्वी राज्यों यथा प. बगांल, बिहार के पूर्वी सीमावर्ती नगरों, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर त्रिपुरा आदि में जहां पर सूर्योदय प्रातः 5घ. 45 मिं. से पहले होगा, वहां पर उदयकालिक प्रतिप्रदा उदय-व्यापनी होगी। इस स्थिति में भी चैत्र नवरात्रारंभ तथा नवसंवत्सरांभ 28 मार्च, मंगलवार से ही माना जाएगा। क्योंकि शास्त्र अनुसार सूर्योदयान्तर 1 मुहूर्त से कम से कम प्राप्त प्रतिप्रदा को त्यागकर दर्शयुता अमावस्या युक्त ही ग्रहण करनी चाहिए।
धर्मसिन्धु में ही अन्यत्र अपरान्ह-व्यापिनी प्रतिप्रदा को ही ग्राह्य एवं श्रेयस्कर माना गया है।
परन्तु देवीपुराण में श्री दुर्गा पूजन में अमावसयुक्ता प्रतिप्रदा को विशेष प्रशस्त नहीं माना है, परन्तु वहां भी प्रतिप्रदा के संबंध में यह आवश्यक निर्देश है कि द्वितीया युक्त प्रतिप्रदा भी सूर्योदयान्तर कम-से-कम 1 मुहूर्त 2 घडी यानी 48 मिनट होनी चाहिए।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समस्त भारत में सूर्योदय 5.45 से पहले है अर्थात् उद्यकालीन प्रतिप्रदा है। चैत्र वासंत नवरात्रारंभ 28 मार्च 2017 ई. मंगलवार को माना जाएगा।
दुर्गा पूजा का प्रमुख पर्व चैत्र नवरात्र का शुभारंभ होने जा रहा है। कौन-सी तारीख को किस देवी का होगा पूजन, जानिए 2017 के चैत्र नवरात्र की मुख्य तिथियां...।
चैत्र नवरात्र 2017 : जानिए घटस्थापना के शुभ मुहूर्त
* 28 मार्च 2017 : इस दिन घटस्थापना का शुभ मुहूर्त सुबह 08 बजकर 26 मिनट से लेकर 10 बजकर 24 मिनट तक का है। नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है। * 29 मार्च 2017 : नवरात्र के दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है।
माता दुर्गा के 5 रहस्य जानकर आप रह जाएंगे हैरान
* 30 मार्च 2017 : नवरात्र के तीसरे दिन देवी दुर्गा के चन्द्रघंटा रूप की आराधना की जाती है। * 31 मार्च 2017 : इस साल 31 तारीख को माता के चौथे स्वरूप देवी कूष्मांडा जी की आराधना की जाएगी।

  1 अप्रैल 2017 : नवरात्र के पांचवें दिन भगवान कार्तिकेय की माता स्कंदमाता की पूजा की जाती है। * 2 अप्रैल 2017 : नारदपुराण के अनुसार शुक्ल पक्ष यानी चैत्र नवरात्र के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा का विधान है।
* 3 अप्रैल 2017 : नवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा का विधान है। * 04 अप्रैल 2017: नवरात्र के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती है। इस दिन कई लोग कन्या पूजन भी करते हैं। * 05 अप्रैल 2017 : नौवें दिन भगवती के देवी सिद्धदात्री स्वरूप का पूजन किया जाता है। सिद्धिदात्री की पूजा से नवरात्र में नवदुर्गा पूजा का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है। विशेष: इस बार नवरात्र आठ दिन का होगा तथा द्वितीया तिथि की क्षय होगी। नवरात्र व्रत का पारण दशमी तिथि या उदया तिथि के अनुसार छह अप्रैल को किया जाएगा।

चैत्र नवरात्र 2017: जानिए घट-स्थापना की पूजा और मुहूर्त का समय
चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्रों के साथ ही हिन्दू नवसंवत्सर शुरू होता है इसलिए इस नवरात्रि का काफी मान है।
 
28 मार्च से चैत्र नवरात्र का शुभारंभ होने जा रहा है, इस बार माता का वास पूरे नौ दिन रहेगा। नौ दिनों तक चलने वाली इस पूजा में देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों आराधना की जाती है।
चैत्र नवरात्र 2017: जानिए घट-स्थापना की पूजा और मुहूर्त का समय
घटस्थापना का शुभ मुहूर्त
जिन घरों में नवरात्रि पर घट-स्थापना होती है उनके लिए शुभ मुहूर्त 28 मार्च दिन मंगलवार को सुबह 08 बजकर 26 मिनट से लेकर 10 बजकर 24 मिनट तक का है। वैसे तो नवरात्रि का शुभ वक्त तो पूरे दिन रहेगा लेकिन अगर शुभ मुहूर्त पर घट-स्थापना होगी तो जातक को फल अच्छा मिलेगा।

नवरात्रों के साथ ही हिन्दू नवसंवत्सर शुरू
गौरतलब है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्रों के साथ ही हिन्दू नवसंवत्सर शुरू होता है इसलिए इस नवरात्रि का काफी मान है। इस साल 28 मार्च से शुरू होने वाला यह नवरात्र पांच अप्रैल तक चलेगा।। ,,,,लिखने में कुछ गलती हों तो माफ़ करना
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ।
28 मार्च 2017 : मां शैलपुत्री की पूजा
29 मार्च 2017 : मां ब्रह्मचारिणी की पूजा
30 मार्च 2017 : मां चन्द्रघंटा की पूजा
31 मार्च 2017 : मां कूष्मांडा की पूजा
01 अप्रैल 2017 : मां स्कंदमाता की पूजा
02 अप्रैल 2017 : मां कात्यायनी की पूजा
03 अप्रैल 2017 : मां कालरात्रि की पूजा
04 अप्रैल 2017 : मां महागौरी की पूजा
05 अप्रैल 2017 : मां सिद्धदात्री की पूजा
,,,,!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557
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दशा माता व्रत,,,प्राचीन ग्रंथों में ऋषी-मुनियों ने अपने अनुभव से सिद्ध किया है कि जब मनुष्य की दशा ठीक होती है तब उसके सब कार्य अनुकूल होते हैं किंतु जब यह प्रतिकूल होती है तब अत्यधिक परेशानी होती है। इसी दशा को दशा भगवती या दशा माता कहा जाता है। हिंदू धर्म में दशा माता की पूजा तथा व्रत करने का विधान है। दशा माता व्रत की पूजन विधि इस प्रकार है-
पूजन विधि
नौ सूत का कच्चा धागा एवं एक सूत व्रत करने वाली के आंचल से बनाकर उसमें गांठ लगाएं। दिन भर व्रत रखने के बाद शाम को गंडे की पूजन करें। नौ व्रत तक तो शाम को पूजन होता है। दसवें व्रत में दोपहर के पहले ही पूजन कर लिया जाता है। जिस दिन दशा माता का व्रत हो उस दिन पूजा ना होने तक किसी मेहमान का स्वागत नही करें। अन्न न पकाएं।
एक नोंक वाले पान पर चंदन से दशा माता की मूर्ती बनाकर पान के ऊपर गंडे को दूध में डूबों को रख दें। हल्दी, कुंकुम अक्षत से पूजन करें। घी गुड़ का भोग लगाएं। हवन के अंत में दशा माता की कथा अवश्य सुनें। कथा समाप्त होने पर पूजन सामग्री को गीली मिट्टी के पिंड में रखकर मौन होकर उसे कुंआ या तालाब जलाशय में विसर्जित कर दें।
इस प्रकार विधि-विधान पूर्वक पूजन करने से दशा माता प्रसन्न होती हैं तथा अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करती हैं।
।॥Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

Tuesday, 14 March 2017

श्री राम रक्षा स्तोत्रम्‌


श्री राम रक्षा स्तोत्रम्‌ ॥
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।
बुधकौशिक ऋषि: ।श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।
अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।
श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।
श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥
अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |
 अथ ध्यानम्‌ ॥ ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥
ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |

॥ इति ध्यानम्‌ ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥
श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥
नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥
जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥
मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥
कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥
मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥
मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥
मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥
मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥
शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥
जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥
जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥
जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥
भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥
जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को)  और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥
ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥
संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥
हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥
भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥
वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥
नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥
दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥
लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥
राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥
जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥
मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥
मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥
‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥
राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥
  (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

Friday, 10 March 2017

नवार्ण ,, नवदुर्गा ,,,मंत्र साधना दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है।

नवार्ण ,, नवदुर्गा ,,,मंत्र साधना
दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है। https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5  नवरात्र में मनाने का कारण यह है कि इस अवधि में ब्रह्मांड के सारे ग्रह एकत्रित होकर सक्रिय हो जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्राणियों पर पड़ता है। ग्रहों के इसी दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवरात्रि में दुर्गा की पूजा की जाती है।दुर्गा दुखों का नाश करने वाली देवी है। इसलिए नवरात्रि में जब उनकी पूजा आस्था, श्रद्धा से
की जाती है तो उनकी नवों शक्तियाँ जागृत होकर नवों ग्रहों को नियंत्रित कर देती हैं। फलस्वरूप प्राणियों का कोई अनिष्ट नहीं हो पाता। दुर्गा की इन नवों शक्तियों को जागृत करने के लिए दुर्गा के 'नवार्ण मंत्र' का जाप किया जाता है। नव का अर्थ नौ तथा अर्ण का अर्थ अक्षर होता है।

मां दुर्गा के नवरुपों की उपासना निम्न मंत्रों के द्वारा की जाती है. प्रथम दिन शैलपुत्री की एवं क्रमशः नवें दिन सिद्धिदात्री की उपासना की जाती है -

1. शैलपुत्री
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम् । वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥

2. ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू ।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ॥

3. चन्द्रघण्टा
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता ।
प्रसादं तनुते मह्यां चन्द्रघण्टेति विश्रुता ॥

4. कूष्माण्डा
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च ।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥

5. स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया ।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ॥

6. कात्यायनी
चन्द्रहासोज्वलकरा शार्दूलवरवाहना ।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी ॥

7. कालरात्रि एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना
खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी ॥

8. महागौरी
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः ।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ॥

9. सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी
नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन संकल्प लेकर प्रातःकाल स्नान करके पूर्व या उत्तर दिशा कि और मुख करके दुर्गा कि मूर्ति या चित्र
की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से पूजा करें।
शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष, स्फटिक, तुलसी या चंदन कि माला से मंत्र का जाप १,५,७,११ माला जाप पूर्ण कर अपने कार्य उद्देश्य कि पूर्ति हेतु मां से
प्राथना करें। संपूर्ण नवरात्रि में जाप करने से मनोवांच्छित कामना अवश्य पूरी होती हैं। उपरोक्त मंत्र के विधि-विधान के अनुसार जाप करने से मां कि कृपा से व्यक्ति को पाप और कष्टों से छुटकारा मिलता हैं और मोक्ष प्राप्ति का मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुगम प्रतित होता हैं।

नवार्ण मंत्र महत्व।   माता भगवती जगत् जननी दुर्गा जी की साधना-उपासना के क्रम में, नवार्ण मंत्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण महामंत्र है | नवार्ण अर्थात नौ अक्षरों का इस नौ अक्षर के महामंत्र में नौ ग्रहों को नियंत्रित करने की शक्ति है, जिसके माध्यम से सभी क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की जा सकती है और भगवती दुर्गा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है यह महामंत्र शक्ति साधना में सर्वोपरि तथा सभी मंत्रों-स्तोत्रों में से एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। यह माता भगवती
दुर्गा जी के तीनों स्वरूपों माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी व माता महाकाली की एक साथ साधना का पूर्ण प्रभावक बीज मंत्र है और साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का संयुक्त मंत्र है और इसी महामंत्र से नौ ग्रहों को भी शांत किया जा सकता है |

नवार्ण मंत्र।   || ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ||

नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की नौ शक्तियां समायी हुई है | जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है |

ऐं = सरस्वती का बीज मन्त्र है ।
ह्रीं = महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है ।
क्लीं = महाकाली का बीज मन्त्र है ।

इसके साथ नवार्ण मंत्र के प्रथम बीज ” ऐं “ से माता दुर्गा की प्रथम शक्ति माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है, जिस में सूर्य ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |

नवार्ण मंत्र के द्वितीय बीज ” ह्रीं “ से माता दुर्गा की द्वितीय शक्ति माता ब्रह्मचारिणी
की उपासना की जाती है, जिस में चन्द्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के तृतीय बीज ” क्लीं “ से माता दुर्गा की तृतीय शक्ति माता चंद्रघंटा की उपासना की जाती है, जिस में मंगल ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के चतुर्थ बीज ” चा “ से माता दुर्गा की चतुर्थ शक्ति माता कुष्मांडा की
उपासना की जाती है, जिस में बुध ग्रह
को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई
है |

नवार्ण मंत्र के पंचम बीज ” मुं “ से माता दुर्गा की पंचम शक्ति माँ स्कंदमाता की उपासना की जाती है, जिस में बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है|

नवार्ण मंत्र के षष्ठ बीज ” डा “ से माता दुर्गा की षष्ठ शक्ति माता कात्यायनी की उपासना की जाती है, जिस में शुक्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |

नवार्ण मंत्र के सप्तम बीज ” यै “ से माता दुर्गा की सप्तम शक्ति माता कालरात्रि की
उपासना की जाती है, जिस में शनि ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |

नवार्ण मंत्र के अष्टम बीज ” वि “ से माता दुर्गा की अष्टम शक्ति माता महागौरी की उपासना की जाती है, जिस में राहु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है |

नवार्ण मंत्र के नवम बीज ” चै “ से माता दुर्गा की नवम शक्ति माता सिद्धीदात्री की उपासना की जाती है, जिस में केतु ग्रह को
नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है l

नवार्ण मंत्र साधना विधी:-

विनियोग:

ll ॐ अस्य श्रीनवार्णमंत्रस्य
ब्रम्हाविष्णुरुद्राऋषय:गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसी,श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर
स्वत्यो देवता: , ऐं बीजम , ह्रीं शक्ति: ,क्लीं कीलकम श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर स्वत्यो प्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ll

विलोम बीज न्यास:-

ॐ च्चै नम: गूदे ।
ॐ विं नम: मुखे ।
ॐ यै नम: वाम नासा पूटे ।
ॐ डां नम: दक्ष नासा पुटे ।
ॐ मुं नम: वाम कर्णे ।
ॐ चां नम: दक्ष कर्णे ।
ॐ क्लीं नम: वाम नेत्रे ।
ॐ ह्रीं नम: दक्ष नेत्रे ।
ॐ ऐं ह्रीं नम: शिखायाम ॥

विलोम न्यास से सर्व दुखोकी नाश होता
है,संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दहीने
हाथ की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये

ब्रम्हारूप न्यास:  ॐ ब्रम्हा सनातन: पादादी नाभि पर्यन्तं मां
पातु ॥
ॐ जनार्दन: नाभेर्विशुद्धी पर्यन्तं नित्यं मां
पातु ॥
ॐ रुद्र स्त्रीलोचन: विशुद्धेर्वम्हरंध्रातं मां
पातु ॥
ॐ हं स: पादद्वयं मे पातु ॥
ॐ वैनतेय: कर इयं मे पातु ॥
ॐ वृषभश्चक्षुषी मे पातु ॥
ॐ गजानन: सर्वाड्गानी मे पातु ॥
ॐ सर्वानंन्द मयोहरी: परपरौ देहभागौ मे पातु ॥

( ब्रम्हारूपन्यास से सभी मनोकामनाये पूर्ण
होती है, संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ
दोनों हाथो की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये )

ध्यान मंत्र:    खड्गमं चक्रगदेशुषुचापपरिघात्र्छुलं भूशुण्डीम शिर: शड्ख संदधतीं करैस्त्रीनयना
सर्वाड्ग भूषावृताम ।
नीलाश्मद्दुतीमास्यपाददशकां सेवे
महाकालीकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम ॥

माला पूजन:  जाप आरंभ करनेसे पूर्व ही इस मंत्र से माला का पुजा कीजिये,इस विधि से आपकी माला भी चैतन्य हो जाती है.

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नंम:

ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिनी ।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहनामी दक्षिणे
करे । जपकाले च सिद्ध्यर्थ प्रसीद मम सिद्धये ॥
ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देही देही सर्वमन्त्रार्थसाधिनी साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।

अब आप येसे चैतन्य माला से नवार्ण मंत्र का जाप करे-

नवार्ण मंत्र : ll ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
नवार्ण मंत्र की सिद्धि, नो, दिनो मे 1,25,000 मंत्र जाप से होती है,परंतु आप येसे नहीं कर सकते है तो रोज 1,3,5,7,11,21,,,,,इत्यादि माला मंत्र जाप भी कर सकते है,इस विधि से सारी इच्छाये पूर्ण होती है,सारइ दुख समाप्त होते है और धन की वसूली भी सहज ही हो जाती है।
हमे शास्त्र के हिसाब से यह सोलह प्रकार
के न्यास देखने मिलती है जैसे ऋष्यादी,कर ,हृदयादी ,अक्षर ,दिड्ग,सारस्वत,प्रथम मातृका ,द्वितीय मातृका,तृतीय मातृका ,षडदेवी ,ब्रम्हरूप,बीज मंत्र ,विलोम बीज ,षड,सप्तशती ,शक्ति जाग्रण न्यास और
बाकी के 8 न्यास गुप्त न्यास नाम से
जाने जाते है,इन सारे न्यासो का अपना  एक अलग ही महत्व होता है,उदाहरण के लिये शक्ति जाग्रण न्यास से माँ सुष्म रूप से साधकोके सामने शीघ्र ही आ जाती है और मंत्र जाप की प्रभाव से प्रत्यक्ष होती
है और जब माँ चाहे किसिभी रूप मे क्यू न आये हमारी कल्याण तो निच्छित  ही कर देती है।
आप नवरात्री एवं अन्य दिनो मे इस मंत्र के जाप जो कर सकते है.मंत्र जाप काली हकीक माला से ही किया करे.!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

होली वसंत ऋतु में फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।


होली वसंत ऋतु में  फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है।
रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता हैं। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहां भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता हैं।  पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।  राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।
होली की कहानियाँ

भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।  कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।

होलिका दहन
होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए।   जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।  लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

होलिका दहन मुहूर्त ,18,17 से 20,44 ,,अवधि ,2 घण्टे 26 मिनट्स


होलिका दहन मुहूर्त ,18,17 से 20,44 ,,अवधि ,2 घण्टे 26 मिनट्स
।https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5 
भद्रा पूँछ ,,09,37 से ,,10,38,,,भद्रा मुख ,10,38 से,12,19
पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ ,9,मार्च,20 20 को 03,03 बजे
पूर्णिमा तिथि समाप्त ,9 मार्च/20 20 को .23,16 बजे
होलिका दहन, होली त्यौहार का पहला दिन, फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसके अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा है जिसे धुलेंडी, धुलंडी और धूलि आदि नामों से भी जाना जाता है। होली बुराई पर अच्छाई की विजय के उपलक्ष्य में मनाई जाती है।
होलिका दहन का शास्त्रोक्त नियम
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक माना जाता है, जिसमें शुभ कार्य वर्जित रहते हैं। पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन किया जाता है। इसके लिए मुख्यतः दो नियम ध्यान में रखने चाहिए
    1.   पहला, उस दिन “भद्रा” न हो। भद्रा का ही एक दूसरा नाम विष्टि करण भी है, जो कि 11 करणों में से एक है। एक करण तिथि के आधे भाग के बराबर होता है।
    2.   दूसरा, पूर्णिमा प्रदोषकाल-व्यापिनी होनी चाहिए। सरल शब्दों में कहें तो उस दिन सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्तों में पूर्णिमा तिथि होनी चाहिए।
होलिका दहन (जिसे छोटी होली भी कहते हैं) के अगले दिन पूर्ण हर्षोल्लास के साथ रंग खेलने का विधान है और अबीर-गुलाल आदि एक-दूसरे को लगाकर व गले मिलकर इस पर्व को मनाया जाता है।
होलिका दहन की पौराणिक कथा
पुराणों के अनुसार दानवराज हिरण्यकश्यप ने जब देखा की उसका पुत्र प्रह्लाद सिवाय विष्णु भगवान के किसी अन्य को नहीं भजता, तो वह क्रुद्ध हो उठा और अंततः उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया की वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए; क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नुक़सान नहीं पहुँचा सकती। किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत  होलिका जलकर भस्म हो गयी और भक्त प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। इसी घटना की याद में इस दिन होलिका दहन करने का विधान है। होली का पर्व संदेश देता है कि इसी प्रकार ईश्वर अपने अनन्य भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं।
होलिका दहन का इतिहास
होली का वर्णन बहुत पहले से हमें देखने को मिलता है। प्राचीन विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हम्पी में 16वीं शताब्दी का चित्र मिला है जिसमें होली के पर्व को उकेरा गया है। ऐसे ही विंध्य पर्वतों के निकट स्थित रामगढ़ में मिले एक ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख में भी इसका उल्लेख मिलता है। कुछ लोग मानते हैं कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी ख़ुशी में गोपियों ने उनके साथ होली खेली थी
होलिका दहन करने से पहले होली की पूजा की जाती है. इस पूजा को करते समय, पूजा करने वाले व्यक्ति को होलिका के पास जाकर पूर्व या उतर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए. पूजा करने के लिये निम्न सामग्री को प्रयोग करना चाहिए.
एक लोटा जल, माला, रोली, चावल, गंध, पुष्प, कच्चा सूत, गुड, साबुत हल्दी, मूंग, बताशे, गुलाल, नारियल आदि का प्रयोग करना चाहिए. इसके अतिरिक्त नई फसल के धान्यों जैसे- पके चने की बालियां व गेंहूं की बालियां भी सामग्री के रुप में रखी जाती है.
इसके बाद होलिका के पास गोबर से बनी ढाल तथा अन्य खिलौने रख दिये जाते है.
होलिका दहन मुहुर्त समय में जल, मोली, फूल, गुलाल तथा गुड आदि से होलिका का पूजन करना चाहिए. गोबर से बनाई गई ढाल व खिलौनों की चार मालाएं अलग से घर लाकर सुरक्षित रख ली जाती है. इसमें से एक माला पितरों के नाम की, दूसरी हनुमान जी के नाम की, तीसरी शीतला माता के नाम की तथा चौथी अपने घर- परिवार के नाम की होती है.
कच्चे सूत को होलिका के चारों और तीन या सात परिक्रमा करते हुए लपेटना होता है. फिर लोटे का शुद्ध जल व अन्य पूजन की सभी वस्तुओं को एक-एक करके होलिका को समर्पित किया जाता है. रोली, अक्षत व पुष्प को भी पूजन में प्रयोग किया जाता है. गंध- पुष्प का प्रयोग करते हुए पंचोपचार विधि से होलिका का पूजन किया जाता है. पूजन के बाद जल से अर्ध्य दिया जाता है.
सूर्यास्त के बाद प्रदोष काल में होलिका में अग्नि प्रज्जवलित कर दी जाती है. इसमें अग्नि प्रज्जवलित होते ही डंडे को बाहर निकाल लिया जाता है. सार्वजनिक होली से अग्नि लाकर घर में बनाई गई होली में अग्नि प्रज्जवलित की जाती है. अंत में सभी पुरुष रोली का टीका लगाते है, तथा महिलाएं गीत गाती है. तथा बडों का आशिर्वाद लिया जाता है.
सेंक कर लाये गये धान्यों को खाने से निरोगी रहने की मान्यता है.
ऎसा माना जाता है कि होली की बची हुई अग्नि और राख को अगले दिन प्रात: घर में लाने से घर को अशुभ शक्तियों से बचाने में सहयोग मिलता है. तथा इस राख का शरीर पर लेपन भी किया जाता है.
राख का लेपन करते समय निम्न मंत्र का जाप करना कल्याणकारी रहता है
वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥
होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए.
अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌
!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

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