ऋषि पंचमी कथा
सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत पतिव्रता थी।
एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था।
इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए।
जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्म हत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी।
बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया।
रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला। सांप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्म हत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया।
तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया।
अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो।
भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है।
ऋषि पंचमी व्रत जानें 5 रोचक बातें और लाभ
1 ऋषि पंचमी का व्रत महिलाओं के साथ-साथ विशेष रूप से कुंवारी कन्याओं द्वारा किया जाता है, लेकिन यह अन्य व्रत-उपवास की तरह सिर्फ सुहाग या मनवांछित वर पाने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि इसकाा विशेष प्रयोजन होता है।
2 ऋषि पंचमी का व्रत खास तौर से अप्रत्यक्ष या अनजाने में महिलाओं द्वारा हुए पापकर्मों को नष्ट करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। यही कारण है कि इसे हर उम्र और वर्ग की महिलाएं विशेष तौर पर करती हैं।
3 खास तौर से महिलाओं की माहवारी के दौरान अनजाने में हुई धार्मिेक गलतियों और उससे मिलने वाले दोषों से रक्षा करने के लिए यह व्रत बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।
4 ऋषि पंचमी के व्रत की एक और सबसे खास बात यह है कि इस व्रत में किसी देवी-देवता की पूजा नहीं की जाती, बल्कि इस दिन विशेष रूप से सप्तर्षियों का पूजन किया जाता है।
5 इस व्रत में अपामार्ग नामक पौधे का विशेष महत्व होता है, जिसके तने से दातुन और स्नान किए बिना ऋषि पंचमी का यह पवित्र व्रत पूर्ण नहीं होता। समस्त पापों का नाश करने वाला यह व्रत अत्यंत पुण्य फलदायी है।
ऋषि पंचमी पौराणिक एवं प्रामाणिक कथा
एक समय राजा सिताश्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी के पास गए और उनके चरणों में शीश नवाकर बोले- हे आदिदेव! आप समस्त धर्मों के प्रवर्तक और गुढ़ धर्मों को जानने वाले हैं।
आपके श्री मुख से धर्म चर्चा श्रवण कर मन को आत्मिक शांति मिलती है। भगवान के चरण कमलों में प्रीति बढ़ती है। वैसे तो आपने मुझे नाना प्रकार के व्रतों के बारे में उपदेश दिए हैं। अब मैं आपके मुखारविन्द से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने की अभिलाषा रखता हूं, जिसके करने से प्राणियों के समस्त पापों का नाश हो जाता है।
राजा के वचन को सुन कर ब्रह्माजी ने कहा- हे श्रेष्ठ, तुम्हारा प्रश्न अति उत्तम और धर्म में प्रीति बढ़ाने वाला है। मैं तुमको समस्त पापों को नष्ट करने वाला सर्वोत्तम व्रत के बारे में बताता हूं। यह व्रत ऋषि पंचमी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को करने वाला प्राणी अपने समस्त पापों से सहज छुटकारा पा लेता है।
ऋषि पंचमी की व्रतकथा
विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थी, जिसका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण के एक पुत्र तथा एक पुत्री दो संतान थी। विवाह योग्य होने पर उसने समान कुलशील वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। दैवयोग से कुछ दिनों बाद वह विधवा हो गई। दुखी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।
एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात मां से कही। मां ने पति से सब कहते हुए पूछा- प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है
उत्तंक ने समाधि द्वारा इस घटना का पता लगाकर बताया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।
धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी।
पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।
ऋषि पंचमी पर होगा सप्त ऋषि पूजन
ब्रह्म पुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सप्त ऋषि पूजन व्रत का विधान है। इस दिन चारों वर्ण की स्त्रियों को चाहिए कि वे यह व्रत करें। यह व्रत जाने-अनजाने हुए पापों के पक्षालन के लिए स्त्री तथा पुरुषों को अवश्य करना चाहिए। इस दिन गंगा स्नान करने का विशेष माहात्म्य है।
कैसे करें व्रत
प्रातः नदी आदि पर स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें।
तत्पश्चात घर में ही किसी पवित्र स्थान पर पृथ्वी को शुद्ध करके हल्दी से चौकोर मंडल (चौक पूरें) बनाएं। फिर उस पर सप्त ऋषियों की स्थापना करें।
इसके बाद गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से सप्तर्षियों का पूजन करें।
तत्पश्चात निम्न मंत्र से अर्घ्य दें
'कश्यपो त्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोऽथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
दहन्तु पापं मे सर्वं गृह्नणन्त्वर्घ्यं नमो नमः॥
ऋषि पंचमी व्रत से पाप का नाश
1,जाने अंजाने में सभी से कोई न कोई पाप हो ही जाता है। जैसे पांव पड़ने पर जीवों की हत्या, किसी को अपशब्द कहने से वाणी का पाप लगता है। किसी के हृदय को ठेस पहुंचाने से मानस पाप लगता है। आप सोच रहे होंगे कि ऐसे पाप से कैसे मुक्ति पाई जाये। तो इसके लिए भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आती है ऋषि पंचमी। अंजाने में हुए पाप से मुक्ति तभी मिलती है जब ऋषि पंचमी का व्रत रखा जाये। इस व्रत में सप्तऋषियों समेत अरुन्धती का पूजन होता है।
ऋषि पंचमी व्रत
1,प्रात:काल से दोपहर तक उपवास करके दोपहर को तालाब में जाकर अपामार्ग की दातून से दांत साफ कर, शरीर में मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिये।
3,घर लौटकर गोबर से पूजा का स्थान लीपना चाहिये।
4,सर्वतोभद्रमंडल बनाकर, मिट्टी या तांबे के कलश के कलश में जौ भर कर स्थापना करें।
5, पंचरत्न,फूल,गंध,अक्षत से पूजन कर व्रत का संकल्प करें।
6, कलश के पास अष्टदल कमल बनाकर, उसके दलों में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जगदग्नि और वशिष्ठ ऋषियों की पत्नी की प्रतिष्ठा करें।
7,इन सभी सप्तऋषियों का 16 वस्तुओं से पूजन करें।
8,ऋषि पंचमी में साठी का चावल और दही खाई जाती है।
9, नमक और हल से जुते अन्न इस व्रत में नहीं खाये जाते हैं।
10,पूजन के बाद कलश सामग्री को किसी ब्राह्मण को दान करें।
11, पूजा के बाद ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें।
12,सतयुग में सुमित नाम के ब्राह्मण ने अपने माता-पिता को ऋषि पंचमी व्रत से ही, पशु योनि से मुक्ति दिलाई थी। इसीलिए जिनसे भी कोई अंजाने में पाप हो जाये, उन्हें भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पंचमी को पड़ने वाला ये व्रत ज़रुर करना चाहिये।
अब व्रत कथा सुनकर आरती कर प्रसाद वितरित करें।
तदुपरांत अकृष्ट (बिना बोई हुई) पृथ्वी में पैदा हुए शाकादि का आहार लें।
इस प्रकार सात वर्ष तक व्रत करके आठवें वर्ष में सप्त ऋषियों की सोने की सात मूर्तियां बनवाएं।
तत्पश्चात कलश स्थापन करके यथाविधि पूजन करें।
अंत में सात गोदान तथा सात युग्मक-ब्राह्मण को भोजन करा कर उनका विसर्जन करें।
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सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत पतिव्रता थी।
एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था।
इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए।
जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्म हत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी।
बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया।
रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला। सांप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्म हत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया।
तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया।
अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो।
भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है।
ऋषि पंचमी व्रत जानें 5 रोचक बातें और लाभ
1 ऋषि पंचमी का व्रत महिलाओं के साथ-साथ विशेष रूप से कुंवारी कन्याओं द्वारा किया जाता है, लेकिन यह अन्य व्रत-उपवास की तरह सिर्फ सुहाग या मनवांछित वर पाने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि इसकाा विशेष प्रयोजन होता है।
2 ऋषि पंचमी का व्रत खास तौर से अप्रत्यक्ष या अनजाने में महिलाओं द्वारा हुए पापकर्मों को नष्ट करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। यही कारण है कि इसे हर उम्र और वर्ग की महिलाएं विशेष तौर पर करती हैं।
3 खास तौर से महिलाओं की माहवारी के दौरान अनजाने में हुई धार्मिेक गलतियों और उससे मिलने वाले दोषों से रक्षा करने के लिए यह व्रत बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।
4 ऋषि पंचमी के व्रत की एक और सबसे खास बात यह है कि इस व्रत में किसी देवी-देवता की पूजा नहीं की जाती, बल्कि इस दिन विशेष रूप से सप्तर्षियों का पूजन किया जाता है।
5 इस व्रत में अपामार्ग नामक पौधे का विशेष महत्व होता है, जिसके तने से दातुन और स्नान किए बिना ऋषि पंचमी का यह पवित्र व्रत पूर्ण नहीं होता। समस्त पापों का नाश करने वाला यह व्रत अत्यंत पुण्य फलदायी है।
ऋषि पंचमी पौराणिक एवं प्रामाणिक कथा
एक समय राजा सिताश्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी के पास गए और उनके चरणों में शीश नवाकर बोले- हे आदिदेव! आप समस्त धर्मों के प्रवर्तक और गुढ़ धर्मों को जानने वाले हैं।
आपके श्री मुख से धर्म चर्चा श्रवण कर मन को आत्मिक शांति मिलती है। भगवान के चरण कमलों में प्रीति बढ़ती है। वैसे तो आपने मुझे नाना प्रकार के व्रतों के बारे में उपदेश दिए हैं। अब मैं आपके मुखारविन्द से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने की अभिलाषा रखता हूं, जिसके करने से प्राणियों के समस्त पापों का नाश हो जाता है।
राजा के वचन को सुन कर ब्रह्माजी ने कहा- हे श्रेष्ठ, तुम्हारा प्रश्न अति उत्तम और धर्म में प्रीति बढ़ाने वाला है। मैं तुमको समस्त पापों को नष्ट करने वाला सर्वोत्तम व्रत के बारे में बताता हूं। यह व्रत ऋषि पंचमी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को करने वाला प्राणी अपने समस्त पापों से सहज छुटकारा पा लेता है।
ऋषि पंचमी की व्रतकथा
विदर्भ देश में उत्तंक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थी, जिसका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण के एक पुत्र तथा एक पुत्री दो संतान थी। विवाह योग्य होने पर उसने समान कुलशील वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। दैवयोग से कुछ दिनों बाद वह विधवा हो गई। दुखी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे।
एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसका शरीर कीड़ों से भर गया। कन्या ने सारी बात मां से कही। मां ने पति से सब कहते हुए पूछा- प्राणनाथ! मेरी साध्वी कन्या की यह गति होने का क्या कारण है
उत्तंक ने समाधि द्वारा इस घटना का पता लगाकर बताया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। इसने रजस्वला होते ही बर्तन छू दिए थे। इस जन्म में भी इसने लोगों की देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत नहीं किया। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।
धर्म-शास्त्रों की मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी।
पिता की आज्ञा से पुत्री ने विधिपूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन किया। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गई। अगले जन्म में उसे अटल सौभाग्य सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।
ऋषि पंचमी पर होगा सप्त ऋषि पूजन
ब्रह्म पुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सप्त ऋषि पूजन व्रत का विधान है। इस दिन चारों वर्ण की स्त्रियों को चाहिए कि वे यह व्रत करें। यह व्रत जाने-अनजाने हुए पापों के पक्षालन के लिए स्त्री तथा पुरुषों को अवश्य करना चाहिए। इस दिन गंगा स्नान करने का विशेष माहात्म्य है।
कैसे करें व्रत
प्रातः नदी आदि पर स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें।
तत्पश्चात घर में ही किसी पवित्र स्थान पर पृथ्वी को शुद्ध करके हल्दी से चौकोर मंडल (चौक पूरें) बनाएं। फिर उस पर सप्त ऋषियों की स्थापना करें।
इसके बाद गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से सप्तर्षियों का पूजन करें।
तत्पश्चात निम्न मंत्र से अर्घ्य दें
'कश्यपो त्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोऽथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
दहन्तु पापं मे सर्वं गृह्नणन्त्वर्घ्यं नमो नमः॥
ऋषि पंचमी व्रत से पाप का नाश
1,जाने अंजाने में सभी से कोई न कोई पाप हो ही जाता है। जैसे पांव पड़ने पर जीवों की हत्या, किसी को अपशब्द कहने से वाणी का पाप लगता है। किसी के हृदय को ठेस पहुंचाने से मानस पाप लगता है। आप सोच रहे होंगे कि ऐसे पाप से कैसे मुक्ति पाई जाये। तो इसके लिए भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आती है ऋषि पंचमी। अंजाने में हुए पाप से मुक्ति तभी मिलती है जब ऋषि पंचमी का व्रत रखा जाये। इस व्रत में सप्तऋषियों समेत अरुन्धती का पूजन होता है।
ऋषि पंचमी व्रत
1,प्रात:काल से दोपहर तक उपवास करके दोपहर को तालाब में जाकर अपामार्ग की दातून से दांत साफ कर, शरीर में मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिये।
3,घर लौटकर गोबर से पूजा का स्थान लीपना चाहिये।
4,सर्वतोभद्रमंडल बनाकर, मिट्टी या तांबे के कलश के कलश में जौ भर कर स्थापना करें।
5, पंचरत्न,फूल,गंध,अक्षत से पूजन कर व्रत का संकल्प करें।
6, कलश के पास अष्टदल कमल बनाकर, उसके दलों में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जगदग्नि और वशिष्ठ ऋषियों की पत्नी की प्रतिष्ठा करें।
7,इन सभी सप्तऋषियों का 16 वस्तुओं से पूजन करें।
8,ऋषि पंचमी में साठी का चावल और दही खाई जाती है।
9, नमक और हल से जुते अन्न इस व्रत में नहीं खाये जाते हैं।
10,पूजन के बाद कलश सामग्री को किसी ब्राह्मण को दान करें।
11, पूजा के बाद ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें।
12,सतयुग में सुमित नाम के ब्राह्मण ने अपने माता-पिता को ऋषि पंचमी व्रत से ही, पशु योनि से मुक्ति दिलाई थी। इसीलिए जिनसे भी कोई अंजाने में पाप हो जाये, उन्हें भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पंचमी को पड़ने वाला ये व्रत ज़रुर करना चाहिये।
अब व्रत कथा सुनकर आरती कर प्रसाद वितरित करें।
तदुपरांत अकृष्ट (बिना बोई हुई) पृथ्वी में पैदा हुए शाकादि का आहार लें।
इस प्रकार सात वर्ष तक व्रत करके आठवें वर्ष में सप्त ऋषियों की सोने की सात मूर्तियां बनवाएं।
तत्पश्चात कलश स्थापन करके यथाविधि पूजन करें।
अंत में सात गोदान तथा सात युग्मक-ब्राह्मण को भोजन करा कर उनका विसर्जन करें।
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