Friday, 27 June 2014

वैष्णो देवी माँ जय माँ वैष्णो देवी,जय वैष्णवी माता, मैया जय वैष्णवी माता

वैष्णो देवी माँ भोर भई दिन चढ गया मेरी अँबे - २ हो रही जयजयकार मन्दर विच, आरती जय माँ हे दरबाराँ वाली, आरती जय माँ हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ मैया तेरी आरती बनाऊँ काहे की पाँवाँ विच बाती मन्दर विच
आरती जय माँ
सूहे चोलेयाँवाली, आरती जय माँ हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ
सर्व सोने दी तेरी आरती बनावाँ - २ अगर कपूर पाँवाँ, बाती मन्दर विच
आरती जय माँ
हे माँ पिंडी वाली, आरती जय माँ हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ
कौन सुहागन दीवा बालेया मेरी मैया - २ कौन जागेगा सारी रात, मन्दर विच
आरती जय माँ,
सच्चियाँ जोताँ वाली, आरती जय माँ हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ
सर्व सुहागन दीवा बालेया मेरी मैया - २ जोत जागेगी सारी रात, मन्दर विचा
आरती जय माँ
हे माँ त्रिघ्टा रानी, आरती जय माँ हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ
जुग जुग जीवे तेरा जमुए द राजा - २ जिस तेरा भवन बनाया, मन्दर विच
हे मेरी अँबे रानी, आरती जय माँ हे पहाडाँ वाली, आरती जय माँ
सिमर चरण तेरा ध्यानू यश गावे जो ध्यावे, सोइओ फल पावे
रख बाणे दी लाज मन्दर विच आरती जय माँ सोणे मन्दराँ वाली, आरती जय माँ

Thursday, 26 June 2014

मां की आरती

 मां की आरती
जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी ।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…
श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥
ॐ जय अंबे गौरी

हनुमान जयंती व्रत विधि हनुमान जी की पूजा

हनुमान जयंती चैत्र पूर्णिमा और हनुमान जयंती के शुभ अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान और दान इत्यादि करने का विधान बताया गया है. चैत्र पूर्णिमा और जयंती के अवसर पर रामायण का पाठ, भजन-किर्तन संध्या जैसे धार्मिक कृत किए जाते हैं.
हनुमान जयंती पर प्रचलित दो मत हनुमान जयंती तिथि के विषय में दो मत बहुत प्रचलित हैं. प्रथम यह कि चैत्र शुक्ल पूर्णमा के दिन यह जयंती मनाई जाती है, इस मत का संबंध दक्षिण भारत से रहा है चैत्र पूर्णिमा के दिन दक्षिण भारत में विशेष रूप से हनुमान जयंती पर्व का आयोजन होता है.
दूसरे मतानुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन इस जयंती को मानाया जाता है. इस दिन उत्तर भारत में हनुमान जयंती पर विशेष रूप से पूजा अर्जना और दान पूण्य किया जाता है. अत: इन दोनों ही मतों के अनुसर हनुमान जयंती भक्ति भाव के साथ मनाई जाती है.
हनुमान जयंती व्रत विधि हनुमान जी की पूजा अर्चना में ब्रह्मचर्य और शुद्धता का बहुत ध्यान रखना होता है. व्रत का पालन करने वाले को चाहिए की वह व्रत की पूर्व रात्रि को ब्रह्मचर्य का पालन आरंभ करे और पृथ्वी पर ही शयन करे. प्रात: काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने नित्य कर्मों से निवृत होकर श्री राम-सीता जी और हनुमान जी का स्मरण करना चाहिए. हनुमान जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करते हुए षोडशोपचार पूजन करना चाहिए. हनुमाजी पर सिंदूर एवं चोला चढा़ना चाहिए. प्रसाद रूप में गुड़, चना, बेसन के लड्डू का भोग लगाना चाहिए.
ऊँ हनुमते नम: मंत्र का उच्चारण करते रहना चाहिए इस दिन रामायण एवं सुंदरकाण्ड का पाठ करना चाहिए व संभव हो सके तो श्री हनुमान चालिसा के सुंदर काण्ड के अखण्ड पाठ का आयोजन करना चाहिए. हनुमान जी का जन्म दिवस उनके भक्तों के लिए परम पुण्य दिवस है. इस दिन हनुमान जी की प्रसन्नता हेतु उन्हें तेल और सिन्दुर चढ़ाया जाता है. हनुमान जी को मोदक बहुत पसंद है अत: इन्हें मोदक का भी भोग लगाना चाहिए. हनुमान जयन्ती पर हनुमान चालीसा, हनुमानाष्टक, बजरंग वाण एवं रामायण का पाठ करने से हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है.

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Gems For Everyone  हनुमान जन्म कथा हनुमान जी के जन्म के विषय में कथा प्रचलित है कि देवी अंजना और केसरी की कोई संतान नहीं थी. इससे दु:खी होकर यह दोनों मतंग मुनि के पास पहुंचे. मुनि के बताये निर्देश के अनुसार दोनों 12 वर्षों तक वायु पीकर तपस्या करते रहे. इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वायु देव ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया. कथा है कि इसी समय अयोध्या में पुत्र प्राप्ति की कामना से दशरथ जी अपनी पत्नियों के साथ पुत्रेष्टि यज्ञ कर रहे थे.
उसे यज्ञ से जो फल प्राप्त हुआ दशरथ जी ने अपनी तीनों रानियों में बाँट दिया. इसी फल का एक अंश लेकर एक पक्षी उस स्थान पर पहुंचा जहां अंजना और केसरी तपस्या कर रहे थे. पक्षी ने फल का वह अंश अंजना की हथेली में गिरा दिया. इस फल को खाने से अंजना भी गर्भवती हो गई और चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को अंजना के घर वायु देव के वरदान के फलरूप में रूद्र के ग्यारहवें अवतार हनुमान जी का जन्म हुआ.

सिंदूर को मंगल सूचक क्यों माना जाता है हिन्दू धर्म में पूजा के समय कुछ बातें अनिवार्य मानी गई है

सिंदूर को मंगल सूचक क्यों माना जाता है हिन्दू धर्म में पूजा के समय कुछ बातें अनिवार्य मानी गई है। जैसे प्रसाद, मंत्र, स्वास्तिक, कलश, आचमन, तुलसी, मांग में सिंदूर, संकल्प, शंखनाद और चरण स्पर्श।
आइए जानते हैं इनका क्या पौराणिक महत्व है ,,प्रसाद क्यों चढ़ाया जाता है,,गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे मनुष्य! तू जो भी खाता है अथवा जो भी दान करता नहै, होम-यज्ञ करता है या तप करता है, वह सर्वप्रथम मुझे अर्पित कर। प्रसाद के जरिए हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इसके अलावा यह उसके प्रति आस्थावान होने का भी भाव है।

मंत्रों का महत्व,,देवता मंत्रों के अधीन होते हैं। मंत्रों के उच्चारण से उत्पन्न शब्द- शक्ति संकल्प और श्रद्धा बल से द्विगुणित होकर अंतर‍िक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना से संपर्क करती है और तब अंतरंग पिंड एवं बहिरंग ब्रह्मांड एक अद्भुत शक्ति प्रवाह उत्पन्न करते हैं, जो सिद्धियां प्रदान करती हैं।
जानिए, क्यों है पूजन में स्वस्तिक का महत्व,,,गणेश पुराण में कहा गया है कि स्वस्तिक चिह्न भगवान गणेश का स्वरूप है, जिसमें सभी विघ्न-बाधाएं और अमंगल दूर करने की शक्ति है। आचार्य यास्क के अनुसार स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। इसे धन की देवी लक्ष्मी यानी श्री का प्रतीक भी माना गया है।

ऋग्वेद की एक ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक भी माना गया है, जबकि अमरकोश में इसे आशीर्वाद, पुण्य, क्षेम और मंगल का प्रतीक माना गया है। इसकी मुख्यत: चारों भुजाएं चार दिशाओं, चार युगों, चार वेदों, चार वर्णों, चार आश्रमों, चार पुरुषार्थों, ब्रह्माजी के चार मुखों और हाथों समेत चार नक्षत्रों आदि की प्रतीक मानी जाती है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को कल्याणकारी माना गया है। सर्वत्र यानी चतुर्दिक शुभता प्रदान करने वाले स्वस्तिक में गणेशजी का निवास माना जाता है। यह मांगलिक कार्य होने का परिचय देता है।
मांगलिक कार्यों का कलश,,धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। देवी पुराण के अनुसार मां भगवती की पूजा-अर्चना करते समय सर्वप्रथम कलश की स्थापना की जाती है। नवरा‍त्र पर मंदिरों तथा घरों में कलश स्थापित किए जाते हैं तथा मां दुर्गा की विधि-विधानपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। मानव शरीर की कल्पना भी मिट्टी के कलश से की जाती है। इस शरीररूपी कलश में प्राणिरूपी जल विद्यमान है। जिस प्रकार प्राणविहीन शरीर अशुभ माना जाता है, ठीक उसी प्रकार रिक्त कलश भी अशुभ माना जाता है। इसी कारण कलश में दूध, पानी, अनाज आदि भरकर पूजा के लिए रखा जाता है। धार्मिक कार्यों में कलश का बड़ा महत्व है।

आचमन तीन बार ही क्यों,,,वेदों के मुताबिक धार्मिक कार्यों में तीन बार आचमन करने को प्रधानता दी गई है। कहते हैं कि तीन बार आचमन करने से शारीरिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है और अनुपम अदृश्य फल की प्राप्ति होती है। इसी कारण प्रत्येक धार्मिक कार्य में तीन बार आचमन करना चाहिए।
तुलसी जगाए सौभाग्य,,जो व्यक्ति प्रतिदिन तुलसी का सेवन करता है, उसका शरीर अनेक चंद्रायण व्रतों को फल के समान पवित्रता प्राप्त कर लेता है। जल में तुलसीदल (पत्ते) डालकर स्नान करना तीर्थों में स्नान कर पवित्र होने जैसा है और जो व्यक्ति ऐसा करता है वह सभी यज्ञों में बैठने का अधिकारी होता है।

मांग में सिंदूर क्यों सजाती हैं विवाहिता,,,,मांग में सिंदूर सजाना सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक माना जाता है। यह जहां मंगलदायम माना जाता है, वहीं इससे इनके रूप-सौंदर्य में भी निखार आ जाता है। मांग में सिंदूर सजाना एक वैवाहिक संस्कार भी है।
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शरीर-रचना विज्ञान के अनुसार सौभाग्यवती स्त्रियां मांग में‍ जिस स्थान पर सिंदूर सजाती हैं, वह स्थान ब्रह्मरंध्र और अहिम नामक मर्मस्थल के ठीक ऊपर है। स्त्रियों का यह मर्मस्थल अत्यंत कोमल होता है।

इसकी सुरक्षा के निमित्त स्त्रियां यहां पर सिंदूर लगाती हैं। सिंदूर में कुछ धातु अधिक मात्रा में होता है। इस कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं और स्त्री के शरीर में विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है।
संकल्प की जरूरत,,,धार्मिक कार्यों को श्रद्धा-भक्ति, विश्वास और तन्मयता के साथ पूर्ण करने वाली धारण शक्ति का नाम ही संकल्प है। दान एवं यज्ञ आदि सद्कर्मों का पुण्य फल तभी प्राप्त होता है, जबकि उन्हें संकल्प के साथ पूरा किया गया हो। कामना का मूल ही संकल्प है और यज्ञ संकल्प से ही पूर्ण होते हैं।
धार्मिक कार्यों में शंखनाद,,,अथर्ववेद के मुताबिक शंख अंतरिक्ष, वायु, ज्योतिर्मंडल और सुवर्ण से संयुक्त होता है। शंखनाद से शत्रुओं का मनोबल निर्बल होता है। पूजा-अर्चना के समय जो शंखनाद करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और वह भगवान श्रीहरि के साथ आनंदपूर्वक रहता है। इसी कारण सभी धार्मिक कार्यों में शंखनाद जरूरी है।
क्यों है चरण स्पर्श की परंपरा.....चरण स्पर्श की क्रिया में अंग संचालन की शारीरिक क्रियाएं व्यक्ति के मन में उत्साह, उमंग, चैतन्यता का संचार करती हैं। यह अपने आप में एक लघु व्यायाम और यौगिक क्रिया भी है, जिससे मन का तनाव, आलस्य और मनो-मालिन्यता से मुक्ति भी मिलती है।

हनुमान जी के चमत्कारी बारह नाम

 हनुमान जी के चमत्कारी बारह नाम
हनुमान जी के बारह नाम का स्मरण करने से ना सिर्फ उम्र में वृद्धि होती है बल्कि समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति भी होती है. बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं और आकाश-पाताल से रक्षा करते हैं. केसरीनंदन बजरंग बली के 12 चमत्कारी नाम:
1)- ॐ हनुमान 2)- ॐ अंजनी सुत 3)- ॐ वायु पुत्र 4)- ॐ महाबल 5)- ॐ रामेष्ठ 6)- ॐ फाल्गुण सखा 7)- ॐ पिंगाक्ष 8)- ॐ अमित विक्रम 9)- ॐ उदधिक्रमण 10)- ॐ सीता शोक विनाशन 11)- ॐ लक्ष्मण प्राण दाता 12)- ॐ दशग्रीव दर्पहा नाम की अलौकिक महिमा
- प्रात: काल सो कर उठते ही जिस अवस्था में भी हो बारह नामों को 11 बार लेनेवाला व्यक्ति दीर्घायु होता है.
- नित्य नियम के समय नाम लेने से इष्ट की प्राप्ति होती है.
- दोपहर में नाम लेने वाला व्यक्ति धनवान होता है. दोपहर संध्या के समय नाम लेने वाला व्यक्ति पारिवारिक सुखों से तृप्त होता है.
- रात्रि को सोते समय नाम लेने वाले व्यक्ति की शत्रु से जीत होती है.
- उपरोक्त समय के अतिरिक्त इन बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं और आकाश पाताल से रक्षा करते हैं.
- लाल स्याही से मंगलवार को भोजपत्र पर ये बारह नाम लिखकर मंगलवार के दिन ही ताबीज बांधने से कभी ‍सिरदर्द नहीं होता. गले या बाजू में तांबे का ताबीज ज्यादा उत्तम है. भोजपत्र पर लिखने के काम आने वाला पेन नया होना चाहिए.

महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते

महाकाल महाकाय महाकाल जगत्पते महाकाल महायोगिन महाकाल नमोस्तुते
शिव शंकर को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ।,, अंत काल को भवसागर में उसका बेडा पार हुआ॥ भोले शंकर की पूजा करो, ध्यान चरणों में इसके धरो। हर हर महादेव शिव शम्भू। हर हर महादेव शिव शम्भू॥ नाम ऊँचा है सबसे महादेव का, वंदना इसकी करते है सब देवता। इसकी पूजा से वरदान पातें हैं सब, शक्ति का दान पातें हैं सब। नाथ असुर प्राणी सब पर ही भोले का उपकार हुआ। अंत काल को भवसागर में उसका बेडा पार हुआ॥

सिर पर चोटी क्यो रखी जाती है,,भारतीय संस्कृति में शिखा हिन्दुत्व की प्रतीक है

सिर पर चोटी क्यो रखी जाती है,,भारतीय संस्कृति में शिखा हिन्दुत्व की प्रतीक है कारण इसे धारण करने में अनेक शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ हैं। शिखा- स्थान मस्तिष्क की नाभी है, इस केंद्र से उस सूक्ष्म तंतुओं का संचालन होता है ,, जिसका प्रसार समस्त मष्तिक में हो रहा है और जिनके बल पर अनेक मानसिक शक्तियों का पोषण और विकास होता है। इस केंद्र स्थान से विवेक दृढ़ता ,, दूरदर्शिता ,प्रेम शक्ति और संयम शक्तियों का विकास होता है। ऐसे मर्म स्थान पर केश रक्षने से सुरक्षा हो जाती है। बालों में बाहरी प्रभाव को रोकने की शक्ति है। शिखा स्थान पर बाल रहने से अनावश्यक सर्दी- गर्मी का प्रभाव नही पड़ता। उसकी सुरक्षा सदा बनी रहती है।
शिखा से मानसिक शक्तियों का पोषण होता है। जब बाल नहीं काटे जाते, तो नियत सीमा पर पहुँच कर उनका बढ़ता बन्द हो जाता है। जब बढ़ता बन्द हो आया तो केशों की जड़ों को बाल बढऩे के लिए रक्त लेकर खर्च करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बचा हुआ रक्त उन पाँच शक्तियों का पोषण करने में खर्च होता है, जिससे उनका पोषण और विकास अच्छी तरह होता है। इससे मनुष्य विवेकशील, दृढ़ स्वभाव, दूरदर्शी, प्रेमी और संयमी बनता है।
वासना को वश में रखने का एक उपाय शिखा रखना है। बाल कटाने से जड़ों में एक प्रकार की हलचल मचती है। यह खुजली मस्तिष्क से सम्बद्ध वासना तन्तुओं में उतर जाती है। फलस्वरूप वासना भड़कती है। इस अनिष्ट से परिचित होने के कारण ऋषि- मुनि केश रखते हैं और उत्तेजना से बचते हैं।
बालों में एक प्रकार का तेज होता है। स्त्रियाँ लम्बे बाल रखती हैं, तो उनकी तेजस्विता बढ़ जाती है। पूर्व काल के महापुरुष बाल रखाया करते थे, और वे तेजस्वी होते थे। शिखा स्थान पर बाल रखने से विशेष रूप से तेजस्विता बढ़ती है।
शिखा स्पर्श से शक्ति का संचार होता है। यह शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि चाणक्य ने शिखा को हाथ में लेकर अर्थात् दुर्गा को साक्षी बना कर नन्द वंश के नाश की प्रतिज्ञा की थी और वह अंत: पूरी हुई थी। शक्ति रूपी शिखा को श्रद्धापूर्वक धारण करने से मनुष्य शक्तिसम्पन्न बनता है। हिन्दू धर्म, हिन्दू राष्ट्र, हिन्दू संस्कृति, की ध्वजा इस शिखा को धारण करना एक प्रकार से हिन्दुत्व का गौरव है।
शिखा के निचले प्रदेश में आत्मा का निवास योगियों ने माना है। इस प्रकार इस स्थान पर शिखा रूपी मंदिर बनाना ईश्वर प्राप्ति में सहायक होता है।
मनुष्य के शरीर पर जो बाल हैं, ये भी छिद्र युक्त हैं। आकाश में से प्राण वायु खींचते हैं, जिससे मस्तिष्क चैतन्य, पुष्ट और निरोग रहता है। सिर के बालों का महत्त्व अधिक है, क्योंकि वे मस्तिष्क का पोषण करने के अतिरिक्त आकाश से प्राण वायु खींचते हैं।
अनुष्ठान काल में बाल कटाना वर्जित है। किसी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए बाल कटाना वर्जित है। इसका कारण यह है कि बाल रखने से मनोबल की वृद्धि होती है और दृढ़ता आती है। संकल्प पूर्ण करने का मार्ग सुगम हो जाता है।
है। मनोबल की वृद्धि के लिए शिखा आवश्यक है।
प्राचीन काल में जिसे तिरस्कृत, लज्जित या अपमानित करना होता था, उसका सिर मुँडा दिया जाता था। सिर मुँडा देने से मन गिर जाता है और जोश ठण्डा पड़ जाता है। नाड़ी तन्तु शिथिल पड़ जाता है। यदि अकारण मुंडन कराया जाय, तो उत्साह और स्फूर्ति में कमी आ जाती है।
सिक्ख धर्म में सिखा का विशेष महत्त्व है। गुरुनानक तथा अन्य सिक्ख गुरुओं ने अपने अध्यात्म बल से शिखा के असाधारण लाभों को समझकर अपने सम्प्रदाय वालों को पाँच शिखाएँ अर्थात् पाँच स्थानों पर बाल रखने का आदेश दिया।
शिखा को शिर पर स्थान देना धार्मिकता या आस्तिकता को स्वीकार करना हे। ईश्वरीय संदेशों को शिखा के स्तम्भ द्वार ग्रहण किया सकता है। शिखाधारी मनुष्य दैवीय शुभ संदेशों को प्राप्त करता है और ईश्वरीय सन्निकटता सुगमतापूर्वक सुनता है। शिखा हिन्दुत्व की पहचान है, जो सदा अन्त समय तक मनुष्य के साथ चलता है।
इस प्रकार विवेकशील हिन्दू को सिर पर शिखा धारण करनी चाहिए ।।
,,एक सुप्रीप साइंस जो इंसान के लिये सुविधाएं जुटाने का ही नहीं, बल्कि उसे शक्तिमान बनाने का कार्य करता है। ऐसा परम विज्ञान जो व्यक्ति को प्रकृति के ऊपर नियंत्रण करना सिखाता है। ऐसा विज्ञान जो प्रकृति को अपने अधीन बनाकर मनचाहा प्रयोग ले सकता है। इस अद्भुत विज्ञान की प्रयोगशाला भी बड़ी विलक्षण होती है। एक से बढ़कर एक आधुनिकतम मशीनों से सम्पंन प्रयोगशालाएं दुनिया में बहुतेरी हैं, किन्तु ऐसी सायद ही कोई हो जिसमें कोई यंत्र ही नहीं यहां तक कि खुद प्रयोगशाला भी आंखों से नजर नहीं आती। इसके अदृश्य होने का कारण है- इसका निराकार स्वरूप। असल में यह प्रयोगशाला इंसान के मन-मस्तिष्क में अंदर होती है।

सुप्रीम सांइस- विश्व की प्राचीनतम संस्कृति जो कि वैदिक संस्कृति के नाम से विश्य विख्यात है। अध्यात्म के परम विज्ञान पर टिकी यह विश्व की दुर्लभ संस्कृति है। इसी की एक महत्वपूर्ण मान्यता के तहत परम्परा है कि प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपने सिर पर चोंटी यानि कि बालों का समूह अनिवार्य रूप से रखना चाहिये।

सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को हिन्दुत्व की पहचान तक माना लिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए।

चमत्कारी रिसीवर- असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है। तथा शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है

क्यों रखी जाती है सिर पर शिखा?
सिर पर शिखा ब्राह्मणों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है। जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। शिखा एक धार्मिक प्रतीक तो है ही साथ ही मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है। आधुनिक युवा इसे रुढ़ीवाद मानते हैं लेकिन असल में यह पूर्णत: है। दरअसल, शिखा के कई रूप हैं।

आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचोंबीच सहस्राह चक्र होता है। शरीर में पांच चक्र होते हैं, मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्से में होता है और आखिरी है सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है।

ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते । तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तजोवृद्धिं कुरुष्व मे
शिखा का हल्का दबाव होने से रक्त प्रवाह भी तेज रहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।

Tuesday, 24 June 2014


 जय सोमनाथ जय सोमनाथ जय " https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5।,,,,,,,,,,,Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557 त्रीद्लं त्रिगुनाकारम त्रिनेत्रम च त्रिधायुतम. त्रीजन्म पापसंहारम एक बिल्व शिव अर्पिन.
शिव तांडव स्तोत्रम्
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले , गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमड्डमड्ड्मड्ड्मन्निनादवड्ड्मर्वयं , चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव:शिवम् ॥ 1 ॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूध्र्दनि ।
धगध्दगध्दगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके , किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षण

ं मम ॥ 2 ॥
धराधरेन्द्ननन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर-स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुध्ददुर्धरापदि , क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ 3 ॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदम्बकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
दान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे , मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ 4 ॥
सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधुलिधोरणीविधुसराङध्रिपीठभू: ।
भुजंगराजमा्लया निबध्दजाटजूटक: , श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: ॥ 5 ॥
ललाटचत्वरज्वलध्दनञ्ज्यस्फुलिंगभा-निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकम्
सुधामयुखलेखया विराजमान शेखरं , महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: ॥ 6 ॥
करालभाल्पट्टिकाधगध्दगध्दगज्ज्वलध्दनञ्ज्याहुतीकृतप्रचण्डपंचसायके ।
धराधरेन्द्ननन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥
नवीनमेघमण्डलीनिरुध्ददुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथिनीतम: प्रबन्धबध्दकन्धर: ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: , कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: ॥ 8 ॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभावलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबध्दकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं , गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ 9 ॥
अखर्वसर्वमंगलाकलाकदम्बमञ्जरी , रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं , गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ 10 ॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमभ्दुजंगमश्व्र्स , द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिध्दिमिध्दिमिद्ध्वनन्मृदंगतुन्गमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्ड्ताण्डव: शिव: ॥ 11 ॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठ्यो: सुहृद्विपक्षपक्षयो: ।
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: , समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ 12 ॥
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन् , विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोचनो ललामभाललग्नक: , शिवेति मन्त्रामुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ 13 ॥
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं , पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुध्दिमेति सन्त्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं , विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ॥ 14 ॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं , य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां , लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ॥ 15
॥ इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

Monday, 23 June 2014

योगिनी एकादशी,,Yogini Ekadashi,,

योगिनी एकादशी,,Yogini Ekadashi,, . इस शुभ दिन के उपलक्ष्य पर विष्णु भगवान जी की पूजा उपासना की जाती है. इस एकादशी के दिन पीपल के पेड की पूजा करने का भी विशेष महत्व होता है.हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं।उनमें आषाढ़ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को योगिनी एकादशी कहते हैं। आषाढ़ कृष्ण एकादशी का नाम योगिनी है। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यह इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाली है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है।
एक बार की बात है धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि भगवन, मैंने ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी के व्रत का माहात्म्य सुना। अब कृपया आषाढ़ कृष्ण एकादशी की कथा सुनाइए। इसका नाम क्या है? माहात्म्य क्या है? यह भी बताइए।

श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे राजन! आषाढ़ कृष्ण एकादशी का नाम योगिनी है। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यह इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाली है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। मैं तुमसे पुराणों में वर्णन की हुई कथा कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।

स्वर्गधाम की अलकापुरी नामक नगरी में कुबेर नाम का एक राजा रहता था। वह शिव भक्त था और प्रतिदिन शिव की पूजा किया करता था। हेम नाम का एक माली पूजन के लिए उसके यहाँ फूल लाया करता था। हेम की विशालाक्षी नाम की सुंदर स्त्री थी। एक दिन वह मानसरोवर से पुष्प तो ले आया लेकिन कामासक्त होने के कारण वह अपनी स्त्री से हास्य-विनोद तथा रमण करने लगा।

इधर राजा उसकी दोपहर तक राह देखता रहा। अंत में राजा कुबेर ने सेवकों को आज्ञा दी कि तुम लोग जाकर माली के न आने का कारण पता करो, क्योंकि वह अभी तक पुष्प लेकर नहीं आया। सेवकों ने कहा कि महाराज वह पापी अतिकामी है, अपनी स्त्री के साथ हास्य-विनोद और रमण कर रहा होगा। यह सुनकर कुबेर ने क्रोधित होकर उसे बुलाया।

हेम माली राजा के भय से काँपता हुआ ‍उपस्थित हुआ। राजा कुबेर ने क्रोध में आकर कहा- ‘अरे पापी! नीच! कामी! तूने मेरे परम पूजनीय ईश्वरों के ईश्वर श्री शिवजी महाराज का अनादर किया है, इस‍लिए मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू स्त्री का वियोग सहेगा और मृत्युलोक में जाकर कोढ़ी होगा।’

कुबेर के शाप से हेम माली का स्वर्ग से पतन हो गया और वह उसी क्षण पृथ्वी पर गिर गया। भूतल पर आते ही उसके शरीर में श्वेत कोढ़ हो गया। उसकी स्त्री भी उसी समय अंतर्ध्यान हो गई। मृत्युलोक में आकर माली ने महान दु:ख भोगे, भयानक जंगल में जाकर बिना अन्न और जल के भटकता रहा। रात्रि को निद्रा भी नहीं आती थी, परंतु शिवजी की पूजा के प्रभाव से उसको पिछले जन्म की स्मृति का ज्ञान अवश्य रहा। घूमते-घ़ूमते एक दिन वह मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में पहुँच गया, जो ब्रह्मा से भी अधिक वृद्ध थे और जिनका आश्रम ब्रह्मा की सभा के समान लगता था। हेम माली वहाँ जाकर उनके पैरों में पड़ गया।

उसे देखकर मारर्कंडेय ऋषि बोले तुमने ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिसके प्रभाव से यह हालत हो गई। हेम माली ने सारा वृत्तांत कह ‍सुनाया। यह सुनकर ऋषि बोले- निश्चित ही तूने मेरे सम्मुख सत्य वचन कहे हैं, इसलिए तेरे उद्धार के लिए मैं एक व्रत बताता हूँ। यदि तू आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की योगिनी नामक एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करेगा तो तेरे सब पाप नष्ट हो जाएँगे।

यह सुनकर हेम माली ने अत्यंत प्रसन्न होकर मुनि को साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उसे स्नेह के साथ उठाया। हेम माली ने मुनि के कथनानुसार विधिपूर्वक योगिनी एकादशी का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से अपने पुराने स्वरूप में आकर वह अपनी स्त्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

भगवान कृष्ण ने कहा- हे राजन! यह योगिनी एकादशी का व्रत 88 हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर फल देता है। इसके व्रत से समस्त पाप दूर हो जाते हैं और अंत में स्वर्ग प्राप्त होता है।

Sunday, 15 June 2014

१ मुखी से २१ मुखी रुद्राक्ष,,,1 Mukhi to 21 Mukhi Rudraksh

१ मुखी से २१ मुखी रुद्राक्ष,,,,1 Mukhi to 21 Mukhi Rudraksh रुद्राक्ष देवता मंत्र १ मुखी शिव 1-ॐ नमः शिवाय । 2 –ॐ ह्रीं नमः २ मुखी अर्धनारीश्वर ॐ नमः ३ मुखी अग्निदेव ॐ क्लीं नमः ४ मुखी ब्रह्मा,सरस्वती ॐ ह्रीं नमः ५ मुखी कालाग्नि रुद्र ॐ ह्रीं नमः ६ मुखी कार्तिकेय, इन्द्र,इंद्राणी ॐ ह्रीं हुं नमः ७ मुखी नागराज अनंत,सप्तर्षि,सप्तमातृकाएँ ॐ हुं नमः ८ मुखी भैरव,अष्ट विनायक ॐ हुं नमः ९ मुखी माँ दुर्गा १-ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः २-ॐ ह्रीं हुं नमः १० मुखी विष्णु १-ॐ नमो भवाते वासुदेवाय २-ॐ ह्रीं नमः ११ मुखी एकादश रुद्र १-ॐ तत्पुरुषाय विदमहे महादेवय धीमही तन्नो रुद्रः प्रचोदयात २-ॐ ह्रीं हुं नमः १२ मुखी सूर्य १-ॐ ह्रीम् घृणिः सूर्यआदित्यः श्रीं २-ॐ क्रौं क्ष्रौं रौं नमः १३ मुखी कार्तिकेय, इंद्र १-ऐं हुं क्षुं क्लीं कुमाराय नमः २-ॐ ह्रीं नमः १४ मुखी शिव,हनुमान,आज्ञा चक्र ॐ नमः १५ मुखी पशुपति ॐ पशुपत्यै नमः १६ मुखी महामृत्युंजय ,महाकाल ॐ ह्रौं जूं सः त्र्यंबकम् यजमहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम उर्वारुकमिव बंधनान् मृत्योर्मुक्षीय सः जूं ह्रौं ॐ १७ मुखी विश्वकर्मा ,माँ कात्यायनी ॐ विश्वकर्मणे नमः १८ मुखी माँ पार्वती ॐ नमो भगवाते नारायणाय १९ मुखी नारायण ॐ नमो भवाते वासुदेवाय २० मुखी ब्रह्मा ॐ सच्चिदेकं ब्रह्म २१ मुखी कुबेर ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्य समृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा आपकी ग्रह-राशि-नक्षत्र के अनुसार रुद्राक्ष धारण करें ग्रह राषि नक्षत्र लाभकारी रुद्राक्ष मंगल मेष मृगषिरा-चित्रा-धनिष्ठा ३ मुखी शुक्र वृषभ भरणी-पूर्वाफाल्गुनी-पूर्वाषाढ़ा ६ मुखी,१३ मुखी,१५ मुखी बुध मिथुन आष्लेषा-ज्येष्ठा-रेवती ४ मुखी चन्द्र कर्क रोहिणी-हस्त-श्रवण २ मुखी, गौरी-शंकर रुद्राक्ष सूर्य सिंह कृत्तिका-उत्तराफाल्गुनी-उत्तराषाढ़ा1 मुखी, १२ मुखी बुध कन्या आष्लेषा-ज्येष्ठा-रेवती ४ मुखी शुक्र तुला भरणी-पूर्वाफाल्गुनी-पूर्वाषाढ़ा ६ मुखी,१३ मुखी,१५ मुखी मंगल वृष्चिक मृगषिरा-चित्रा-धनिष्ठा ३ मुखी गुरु धनु-मीन पुनर्वसु-विषाखा-पूर्वाभाद्रपद ५ मुखी शनि मकर-कुंभ पुष्य-अनुराधा-उत्तराभाद्रपद ७ मुखी, १४ मुखी शनि मकर-कुंभ पुष्य-अनुराधा-उत्तराभाद्रपद ७ मुखी, १४ मुखी गुरु धनु-मीन पुनर्वसु-विषाखा-पूर्वाभाद्रपद ५ मुखी राहु - आर्द्रा-स्वाति-षतभिषा८ मुखी, १८ मुखी केतु - अष्विनी-मघा-मूल ९ मुखी,१७ मुखी नवग्रह दोष निवारणार्थ १० मुखी, २१ मुखी विषेष : १० मुखी और ११ मुखी किसी एक ग्रह का प्रतिनिधित्व नहीं करते।बल्कि नवग्रहों के दोष निवारणार्थ प्रयोग मे लाय जाते हैं । जन्म लग्न के अनुसार रुद्राक्ष धारण भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रत्न धरण करने के लिए जन्म लग्न का उपयोग सर्वाधिक प्रचलित है । रत्न प्रकृति का एक अनुपम उपहार है। आदि काल से ग्रह दोषों तथा अन्य समस्याओं से मुक्ति हेतु रत्न धारण करने की परंपरा है।आपकी कुंडली के अनुरूप सही और दोषमुक्त रत्न धारण करना फलदायी होता है। अन्यथा उपयोग करने पर यह नुकसानदेह भी हो सकता है। वर्तमान समय में शुद्ध एवं दोषमुक्त रत्न बहुत कीमती हो गए हैं, जिससे वे जनसाधारण की पहुंच के बाहर हो गए हैं। अतः विकल्प के रूप में रुद्राक्ष धारण एक सरल एवं सस्ता उपाय है। साथ ही रुद्राक्ष धारण से कोई नुकसान भी नहीं है, बल्कि यह किसी न किसी रूप में जातक को लाभ ही प्रदान करता है। क्योंकि रुद्राक्ष पर ग्रहों के साथ साथ देवताओं का वास माना जाता है। कुंडली में त्रिकोण अर्थात लग्न, पंचम एवं नवम भाव सर्वाधिक बलशाली माना गया है। लग्न अर्थात जीवन, आयुष्य एवं आरोग्य, पंचम अर्थात बल, बुद्धि, विद्या एवं प्रसिद्धि, नवम अर्थात भाग्य एवं धर्म। अतः लग्न के अनुसार कुंडली के त्रिकोण भाव के स्वामी ग्रह कभी अशुभ फल नहीं देते, अशुभ स्थान पर रहने पर भी मदद ही करते हैं । इसलिए इनके रुद्राक्ष धारण करना सर्वाधिक शुभ है। इस संदर्भ में एक संक्षिप्त विवरण यहां तालिका में प्रस्तुत है।हमने कई बार देखा है कि कुंडली में शुभ-योग मौजूद होने के बावजूद उन योगों से संबंधित ग्रहों के रत्न धारण करना लग्नानुसार अशुभ होता है। उदाहरण के रूप में मकर लग्न में सूर्य अष्टमेश हो, तो अशुभ और चंद्र सप्तमेश हो, तो मारक होता है। मंगल चतुर्थेष-एकादषेष होने पर भी लग्नेष शनि का शत्रु होने के कारण अशुभ नहीं होता। गुरु तृतीयेश-व्ययेश होने के कारण अत्यंत अशुभ होता है। ऐसे में मकर लग्न के जातकों के लिए माणिक्य, मोती, मूंगा और पुखराज धारण करना अशुभ है। परंतु यदि मकर लग्न की कुंडली में बुधादित्य ,गजकेसरी, लक्ष्मी जैसा शुभ योग हो और वह सूर्य, चंद्र, मंगल या गुरु से संबंधित हो, तो इन योगों के शुभाशुभ प्रभाव में वृद्धि हेतु इन ग्रहों से संबंधित रुद्राक्ष धारण करना चाहिए, अर्थात गजकेसरी योग के लिए दो और पांच मुखी, लक्ष्मी योग के लिए दो और तीन मुखी और बुधादित्य योग के लिए चार और एक मुखी रुद्राक्ष।रुद्राक्ष ग्रहों के शुभफल सदैव देते हैं परंतु अशुभफल नहीं देते। लग्न त्रिकोणाधिपति ग्रह लाभकारी रुद्राक्ष मेष मंगल-सूर्य-गुरु ३ मुखी + 1 या १२ मुखी + ५ मुखी वृषश् शुक्र-बुध-षनि ६ या १३ मुखी + ४ मुखी + ७ या १४ मुखी मिथुन बुध-षुक्र-षनि ४ मुखी + ६ या १३ मुखी + ७ या १४ मुखी कर्क चंद्र-मंगल-गुरु २ मुखी + ३ मुखी + ५ मुखी सिंह सूर्य-गुरु-मंगल 1 या १२ मुखी + ५ मुखी + ६ मुखी कन्या बुध-षनि-षुक्र ४ मुखी + ७ या १४ मुखी + ६ या १३ मुखी तुला शुक्र-षनि-बुध ६ या १३ मुखी + ७ या १४ मुखी + ४ मुखी वृष्चिक मंगल-गुरु-चंद्र ३ मुखी + ५ मुखी + २ मुखी धनु गुरु-मंगल-सिंह ५ मुखी + ३ मुखी + 1 या १२ मुखी मकर शनि-षुक्र-बुध ७ या १४ मुखी + ६ या १३ मुखी + ४ मुखी कुंभ शनि-बुध-षुक्र ७ या १४ मुखी + ४ मुखी + ६ या १३ मुखी मीन गुरु-चंद्र-मंगल ५ मुखी + २ मुखी + ३ मुखी अंकषास्त्र के अनुसार रुद्राक्ष-धारण जिन जातकों जन्म लग्न, राशि, नक्षत्र नहीं मालूम है वे अंक ज्योतिष के अनुसार जातक को अपने मूलांक, भाग्यांक और नामांक के अनुरूप रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। 1 से ९ तक के अंक मूलांक होते हैं। प्रत्येक अंक किसी ग्रह विशेष का प्रतिनिधित्व करता है, जैसे अंक 1 सूर्य, २ चंद्र, ३ गुरु, ४ राहु, ५ बुध, ६ शुक्र, ७ केतु, ८ शनि और ९ मंगल का। अतः जातक को मूलांक, भाग्यांक और नामांक से संबंधित ग्रह के रुद्राक्ष धारण करने चाहिए। आप अपने कार्य-क्षेत्र के अनुसार भी रुद्राक्ष धारण का सकते हैं कुछ लोगों के पास जन्म कुंडली इत्यादि की जानकारी नहीं होती वे लोग अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार भी रुद्राक्ष का लाभ उठा सकते हैं । कार्य की प्रकृति के अनुरूप रुद्राक्ष-धारण करना कैरियर के सर्वांगीण विकास हेतु शुभ एवं फलदायी होता है। किस कार्य क्षेत्र के लिए कौन सा रुद्राक्ष धारण करना चाहिए, इसका एक संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। नेता-मंत्री-विधायक सांसदों के लिए - 1 और १४ मुखी। प्रशासनिक अधिकारियों के लिए - 1 और १४ मुखी। जज एवं न्यायाधीशों के लिए - २ और १४ मुखी। वकील के लिए - ४, ६ और १३ मुखी। बैंक मैनेजर के लिए - ११ और १३ मुखी। बैंक में कार्यरत कर्मचारियों के लिए - ४ और ११ मुखी। चार्टर्ड एकाउन्टेंट एवं कंपनी सेक्रेटरी के लिए - ४, ६, ८ और १२ मुखी। एकाउन्टेंट एवं खाता-बही का कार्य करने वाले कर्मचारियों के लिए - ४ और १२ मुखी। पुलिस अधिकारी के लिए - ९ और १३ मुखी। पुलिस/मिलिट्री सेवा में काम करने वालों के लिए - ४ और ९ मुखी। डॉक्टर एवं वैद्य के लिए - १, ७, ८ और ११ मुखी। फिजीशियन (डॉक्टर) के लिए - १० और ११ मुखी। सर्जन (डॉक्टर) के लिए - १०, १२ और १४ मुखी। नर्स-केमिस्ट-कंपाउण्डर के लिए - ३ और ४ मुखी। दवा-विक्रेता या मेडिकल एजेंट के लिए - १, ७ और १० मुखी। मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के लिए - ३ और १० मुखी। मेकैनिकल इंजीनियर के लिए - १० और ११ मुखी। सिविल इंजीनियर के लिए - ८ और १४ मुखी। इलेक्ट्रिकल इंजीनियर के लिए - ७ और ११ मुखी। कंप्यूटर सॉफ्टवेयर इंजीनियर के लिए - १४ मुखी और गौरी-शंकर। कंप्यूटर हार्डवेयर इंजीनियर के लिए - ९ और १२ मुखी। पायलट और वायुसेना अधिकारी के लिए - १० और ११ मुखी। जलयान चालक के लिए - ८ और १२ मुखी। रेल-बस-कार चालक के लिए - ७ और १० मुखी। प्रोफेसर एवं अध्यापक के लिए - ४, ६ और १४ मुखी। गणितज्ञ या गणित के प्रोफेसर के लिए - ३, ४, ७ और ११ मुखी। इतिहास के प्रोफेसर के लिए - ४, ११ और ७ या १४ मुखी। भूगोल के प्रोफेसर के लिए - ३, ४ और ११ मुखी। क्लर्क, टाइपिस्ट, स्टेनोग्रॉफर के लिए - १, ४, ८ और ११ मुखी। ठेकेदार के लिए - ११, १३ और १४ मुखी। प्रॉपर्टी डीलर के लिए - ३, ४, १० और १४ मुखी। दुकानदार के लिए - १०, १३ और १४ मुखी। मार्केटिंग एवं फायनान्स व्यवसायिओं के लिए - ९, १२ और १४ मुखी। उद्योगपति के लिए - १२ और १४ मुखी। संगीतकारों-कवियों के लिए - ९ और १३ मुखी। लेखक या प्रकाशक के लिए - १, ४, ८ और ११ मुखी। पुस्तक व्यवसाय से संबंधित एजेंट के लिए - १, ४ और ९ मुखी। दार्शनिक और विचारक के लिए - ७, ११ और १४ मुखी। होटल मालिक के लिए - १, १३ और १४ मुखी। रेस्टोरेंट मालिक के लिए - २, ४, ६ और ११ मुखी। सिनेमाघर-थियेटर के मालिक या फिल्म-डिस्ट्रीब्यूटर के लिए - १, ४, ६ और ११ मुखी। सोडा वाटर व्यवसाय के लिए - २, ४ और १२ मुखी। फैंसी स्टोर, सौन्दर्य-प्रसाधन सामग्री के विक्रेताओं के लिए - ४, ६ और ११ मुखी रुद्राक्ष। कपड़ा व्यापारी के लिए - २ और ४ मुखी। बिजली की दुकान-विक्रेता के लिए - १, ३, ९ और ११ मुखी। रेडियो दुकान-विक्रेता के लिए - १, ९ और ११ मुखी। लकडी+ या फर्नीचर विक्रेता के लिए - १, ४, ६ और ११ मुखी। ज्योतिषी के लिए - १, ४, ११ और १४ मुखी रुद्राक्ष । पुरोहित के लिए - १, ९ और ११ मुखी। ज्योतिष तथा र्धामिक कृत्यों से संबंधित व्यवसाय के लिए - १, ४ और ११ मुखी। जासूस या डिटेक्टिव एंजेसी के लिए - ३, ४, ९, ११ और १४ मुखी। जीवन में सफलता के लिए - १, ११ और १४ मुखी। जीवन में उच्चतम सफलता के लिए - १, ११, १४ और २१ मुखी। Gyanchand Bundiwal. 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Saturday, 14 June 2014

अन्नपूर्णा स्तोत्र ,, Annapoorna Stotram

अन्नपूर्णा स्तोत्र ,, Annapoorna Stotram

नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौंदर्यरत्नाकरी l

निर्धूताखिल-घोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी l
प्रालेयाचल-वंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपुर्णेश्वरी ll
नानारत्न-विचित्र-भूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी l
मुक्ताहार-विलम्बमान विलसद्वक्षोज-कुम्भान्तरी l
काश्मीराऽगुरुवासिता रुचिकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्माऽर्थनिष्ठाकरी l
चन्द्रार्कानल-भासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी l
सर्वैश्वर्य-समस्त वांछितकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
कैलासाचल-कन्दरालयकरी गौरी उमा शंकरी l
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओंकारबीजाक्षरी l
मोक्षद्वार-कपाट-पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
दृश्याऽदृश्य-प्रभूतवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी l
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपांकुरी l
श्री विश्वेशमन प्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
उर्वी सर्वजनेश्वरी भगवती माताऽन्नपूर्णेश्वरी l
वेणीनील-समान-कुन्तलहरी नित्यान्नदानेश्वरी l
सर्वानन्दकरी दृशां शुभकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
आदिक्षान्त-समस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी l
काश्मीरा त्रिजलेश्वरी त्रिलहरी नित्यांकुरा शर्वरी l
कामाकांक्षकरी जनोदयकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुंदरी l
वामस्वादु पयोधर-प्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी l
भक्ताऽभीष्टकरी दशाशुभकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
चर्न्द्रार्कानल कोटिकोटिसदृशा चन्द्रांशुबिम्बाधरी l
चन्द्रार्काग्नि समान-कुन्तलहरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी l
माला पुस्तक-पाश-सांगकुशधरी काशीपुराधीश्वरी l
शिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
क्षत्रत्राणकरी महाऽभयकरी माता कृपासागरी l
साक्षान्मोक्षरी सदा शिवंकरी विश्वेश्वरी श्रीधरी l
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी l
भिक्षां देहि कृपावलंबनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ll
अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकरप्राणवल्लभे! l
ज्ञान वैराग्य-शिद्ध्‌यर्थं भिक्षां देहिं च पार्वति ll
माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः l
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्‌ ll
इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितमन्नपूर्णास्तोत्रं संपूर्णम्

Saturday, 7 June 2014

गायत्री स्तोत्र .,,,Gayatri Stotram

गायत्री स्तोत्र,,,Gayatri Stotram

सुकल्याणीं वाणीं सुरमुनिवरैः पूजितपदाम
शिवाम आद्यां वंद्याम त्रिभुवन मयीं वेदजननीं
परां शक्तिं स्रष्टुं विविध विध रूपां गुण मयीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
विशुद्धां सत्त्वस्थाम अखिल दुरवस्थादिहरणीम्
निराकारां सारां सुविमल तपो मुर्तिं अतुलां
जगत् ज्येष्ठां श्रेष्ठां सुर असुर पूज्यां श्रुतिनुतां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
तपो निष्ठां अभिष्टां स्वजनमन संताप शमनीम
दयामूर्तिं स्फूर्तिं यतितति प्रसादैक सुलभां
वरेण्यां पुण्यां तां निखिल भवबन्धाप हरणीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
सदा आराध्यां साध्यां सुमति मति विस्तारकरणीं
विशोकां आलोकां ह्रदयगत मोहान्धहरणीं
परां दिव्यां भव्यां अगम भव सिन्ध्वेक तरणीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
अजां द्वैतां त्रेतां विविध गुणरूपां सुविमलां
तमो हन्त्रीं तन्त्रीं श्रुति मधुरनादां रसमयीं
महामान्यां धन्यां सततकरूणाशील विभवां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
जगत् धात्रीं पात्रीं सकल भव संहारकरणीं
सुवीरां धीरां तां सुविमलतपो राशि सरणीं
अनैकां ऐकां वै त्रयजगत् अधिष्ठान् पदवीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
प्रबुद्धां बुद्धां तां स्वजनयति जाड्यापहरणीं
हिरण्यां गुण्यां तां सुकविजन गीतां सुनिपुणीं
सुविद्यां निरवद्याममल गुणगाथां भगवतीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
अनन्तां शान्तां यां भजति वुध वृन्दः श्रुतिमयीम
सुगेयां ध्येयां यां स्मरति ह्रदि नित्यं सुरपतिः
सदा भक्त्या शक्त्या प्रणतमतिभिः प्रितिवशगां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
शुद्ध चितः पठेद्यस्तु गायत्र्या अष्टकं शुभम्
अहो भाग्यो भवेल्लोके तस्मिन् माता प्रसीदति

गंगा दशहरा ,, Ganga Dashahara

गंगा दशहरा ,, Ganga Dashahara

प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है. इस वर्ष गंगा दशहरा 8 जून 2014, रविवार के दिन मनाया जाएगा. स्कंदपुराण के अनुसार गंगा दशहरे के दिन व्यक्ति को किसी भी पवित्र नदी पर जाकर स्नान, ध्यान तथा दान करना चाहिए. इससे वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है. यदि कोई मनुष्य पवित्र नदी तक नहीं जा पाता तब वह अपने घर पास की किसी नदी पर स्नान करें.
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को संवत्सर का मुख कहा गया है. इसलिए इस इस दिन दान और स्नान का ही अत्यधिक महत्व है. वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी. इस पवित्र नदी में स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट होते है.

गंगा दशहरे का महत्व

भगीरथी की तपस्या के बाद जब गंगा माता धरती पर आती हैं उस दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की  दशमी थी. गंगा माता के धरती पर अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से पूजा जाना जाने लगा. इस दिन गंगा नदी में खड़े होकर जो गंगा स्तोत्र पढ़ता है वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है. स्कंद पुराण में दशहरा नाम का गंगा स्तोत्र दिया हुआ है.
गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जन जिस भी वस्तु का दान करें उनकी संख्या दस होनी चाहिए और जिस वस्तु से भी पूजन करें उनकी संख्या भी दस ही होनी चाहिए. ऎसा करने से शुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है.

गंगा दशहरे का फल

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है. इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं. इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है.

पूजा विधि 

इस दिन पवित्र नदी गंगा जी में स्नान किया जाता है. यदि कोई मनुष्य वहाँ तक जाने में असमर्थ है तब अपने घर के पास किसी नदी या तालाब में गंगा मैया का ध्यान करते हुए स्नान कर सकता है. गंगा जी का ध्यान करते हुए षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए. गंगा जी का पूजन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ना चाहिए :-
 नम: शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै नम:
इस मंत्र के बाद “ऊँ नमो भगवते ऎं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा” मंत्र का पाँच पुष्प अर्पित करते हुए गंगा को धरती पर लाने भगीरथी का नाम मंत्र से पूजन करना चाहिए. इसके साथ ही गंगा के उत्पत्ति स्थल को भी स्मरण करना चाहिए. गंगा जी की पूजा में सभी वस्तुएँ दस प्रकार की होनी चाहिए. जैसे दस प्रकार के फूल, दस गंध, दस दीपक, दस प्रकार का नैवेद्य, दस पान के पत्ते, दस प्रकार के फल होने चाहिए.
यदि कोई व्यक्ति पूजन के बाद दान करना चाहता है तब वह भी दस प्रकार की वस्तुओं का करता है तो अच्छा होता है लेकिन जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए. दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए. जब गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए.

गंगा जी की कथा 

इस दिन सुबह स्नान, दान तथा पूजन के उपरांत कथा भी सुनी जाती है जो इस प्रकार से है :-
प्राचीनकाल में अयोध्या के राजा सगर थे. महाराजा सगर के साठ हजार पुत्र थे. एक बार सगर महाराज ने अश्वमेघ यज्ञ करने की सोची और अश्वमेघ यज्ञ के घोडे. को छोड़ दिया. राजा इन्द्र यह यज्ञ असफल करना चाहते थे और उन्होंने अश्वमेघ का घोड़ा महर्षि कपिल के आश्रम में छिपा दिया. राजा सगर के साठ हजार पुत्र इस घोड़े को ढूंढते हुए आश्रम में पहुंचे और घोड़े को देखते ही चोर-चोर चिल्लाने लगे. इससे महर्षि कपिल की तपस्या भंग हो गई और जैसे ही उन्होंने अपने नेत्र खोले राजा सगर के साठ हजार पुत्रों में से एक भी जीवित नहीं बचा. सभी जलकर भस्म हो गये.
राजा सगर, उनके बाद अंशुमान और फिर महाराज दिलीप तीनों ने मृतात्माओं की मुक्ति के लिए घोर तपस्या की ताकि वह गंगा को धरती पर ला सकें किन्तु सफल नहीं हो पाए और अपने प्राण त्याग दिए. गंगा को इसलिए लाना पड़ रहा था क्योंकि पृथ्वी का सारा जल अगस्त्य ऋषि पी गये थे और पुर्वजों की शांति तथा तर्पण के लिए कोई नदी नहीं बची थी.
महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए उन्होंने गंगा को धरती पर लाने के लिए घोर तपस्या की और एक दिन ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और भगीरथ को वर मांगने के लिए कहा तब भगीरथ ने गंगा जी को अपने साथ धरती पर ले जाने की बात कही जिससे वह अपने साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति कर सकें. ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं गंगा को तुम्हारे साथ भेज तो दूंगा लेकिन उसके अति तीव्र वेग को सहन करेगा? इसके लिए तुम्हें भगवान शिव की शरण लेनी चाहिए वही तुम्हारी मदद करेगें.
अब भगीरथ भगवान शिव की तपस्या एक टांग पर खड़े होकर करते हैं. भगवान शिव भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं में रोकने को तैयार हो जाते हैं. गंगा को अपनी जटाओं में रोककर एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड. देते हैं. इस प्रकार से गंगा के पानी से भगीरथ अपने पूर्वजों को मुक्ति दिलाने में सफल होता है.
विष्णुरूपिणी के लिए और तुझ ब्रह्म मूर्ति के लिए बारंबार नमस्कार है।।1 ।। तुझ रुद्ररूपिणी के लिए और शांकरी के लिए बारंबार नमस्कार है, भेषज मूर्ति सब देव स्वरूपिणी तेरे लिए नमस्कार है।।2।।

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