गुड़ी पड़वा आप को नव विक्रम सम्वत्सर २०७८ और चैत्र नवरात्रि एवं गुड़ी पाडवा के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई और
गुड़ी पाडवा चैत्र शुद्ध प्रतिपदा वर्ष के साढ़े तीन शुभ मुहूर्तों में से एक माना जाता है। सोने की लंका विजय के पश्चात भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने का दिन भी चैत्र शुद्ध प्रतिपदा ही था। तब अयोध्यावासियों ने घर-घर गुढ़ी तोरण लगाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी। तभी से इस परंपरा का पालन किया जाने लगा।
इस त्योहार में मोक्षद्वार का गुरुमंत्र छिपा है। तनकर खड़ी बांस की गुड़ी ' परमार्थ में पूर्ण शरणागति का संदेश देती है, वहीं पाड़वा अर्थात साष्टांग नमस्कार (सिर, हाथ, पैर, हृदय, आंख, जांघ, वचन और मन) आठ अंगों से भूमि पर लेटकर किए जाने वाले प्रणाम का संकेत है। इस त्योहार में आदर्श जीवन का प्रतिबिंब नजर आता है कि विनय से ही विद्या प्राप्त की जा सकती है।
'गुढ़ी' की लाठी को तेल हल्दी लगाकर सजाते हैं। उस पर चांदी या तांबे का लोटा उल्टा डाल रेशमी वस्त्र पहना फूलों और शक्कर के हार और नीम की टहनी बांध दरवाजे पर खड़ी करते हैं।
तनी हुई रीढ़ से इज्जत के साथ गर्दन हमेशा ऊंची रख जीना यही तो 'गुढ़ी' हमें सिखाती है। इस प्रकल्प में ईश्वरीय अनुष्ठान भी जरूरी है यह सीख भी कहीं न कहीं छिपी हुई है। बांस की लाठी में रीढ़ की समानता नजर आती है तो चांदी का कलश मस्तक का प्रतीक है।
यह कलश ब्रह्मांड की विद्युत तरंगों को खींच कलशरूपी पिरामिड से नीचे की दिशा में शक्ति को फैलाता है। उत्तम चैत्र मास और ऋतु वसंत का यह दिन जब सूर्य किरणों में नई चमक होती है तो तनी हुई रीढ़ पर अधिष्ठित कलश सूर्य किरणों को एकत्र कर उन्हें परावर्तित भी करता है।
गुढ़ी का संदेश यही है कि हम सूर्य से शक्ति पाएं और समाज के शुभकर्मों में लगाएं। स्नान, सुगंधित वस्तुओं, षडरस (मीठा, नमकीन, कडुवा, चरपरा, कसैला और खट्टा इन छह रसों), रेशमी वस्त्रालंकार, पकवान इन तमाम वस्तुओं का उपभोग इस अवसर पर जरूरी होता है।
ऋतु के संधिकाल में तृष्णा हरण हेतु शक्कर और अमृत गुणों से भरपूर रोगरोधक नीम और गुड़ धनिए की योजना हमारे बुजुर्गों के आयुर्वेद समन्वय के नजरिए को दर्शाती है। ब्रह्मपुराण, अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी।
महाभारत में युधिष्ठिर का राज्यारोहण इसी दिन माना जाता है। इस दिन प्रात: सूर्य को अर्घ दिया जाता है। गुड़ी ब्रह्मध्वज के प्रतीक के तौर पर लगाई जाती है। महाराष्ट्र में छत्रपत्रि शिवाजी की विजय ध्वजा के प्रतीक के तौर पर इसे लगाया जाता है।
चैत्र ही ऐसा महीना है जिसमें वृक्ष तथा लताएं पुष्पित होती हैं। प्रकृति में जीवन का नया संचार होता है। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस भी माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। इसे औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है इसलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है।
इस दिन को आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में 'उगादि' और महाराष्ट्र में 'गुड़ी पड़वा' के रूप में मनाया जाता है। आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में आम इसी दिन से खाया जाता है। आज भी हमारे यहां शिक्षा, राजकीय कोष या किसी भी शुभ कार्य के लिए इस अवसर को चुना जाता है और उसके पीछे मान्यता यही है कि इस अवसर पर मानव, पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन सभी आलस्य त्याग सचेतन हो जाते हैं।ज्ञानचंद बूंदीवाल
वंसतोत्सव का भी यही आधार है। जब चहुंओर नवीनता का भाव रहता है तो हम भी नयावर्ष क्यों न मनाएं। इसी कारण यहां से नववर्ष की शुरुआत मानी है।॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557