Monday, 30 April 2018

संत एकनाथजी एवं संत ज्ञानेश्वरजी

संत एकनाथजी एवं संत ज्ञानेश्वरजी
एक बार एकनाथ महाराज विट्ठलनाथजी 
के मंदिर में दर्शन करने गए। एकनाथजी 
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को सुयोग्य पत्नी मिली थी इसलिए वे श्रीभगवान का उपकार मानते थे।
वे कहते थे कि मुझे स्त्री का संग नहीं
सत्संग मिला है।
थोड़ी देर बाद उस मंदिर में तुकारामजी
दर्शन करने के लिए आये। तुकाराम की
पत्नी कर्कशा थी। कर्कशा पत्नी के लिए
भी तुकाराम भगवान का उपकार मानते
थे। वे कहते थे की हे भगवान, यदि तुमने
अच्छी पत्नी दी होती तो मै सारा दिन उसी
के पीछे लगा रहता और तुमको भूल जाता। अतः मेरा तो कर्कशा पत्नी के मिलने से ही भला हुआ है।

*एकनाथजी को सुयोग्य पत्नी मिली उसमे
आनंद है और तुकाराम को कर्कशा मिली
तो भी आनंद है।
दोनों को अपनी परिस्थिति में संतोष है।
और दोनों भगवान का उपकार मानते है।

*अपनी पत्नी की मृत्यु हुई तो नरसिं मेहता
ने आनंद ही माना और कहा -
"भलु थयु भागी जंजाल। सूखे भजिशु
श्रीगोपाल। "
अर्थात अच्छा हुआ की परिवार का झंझट
छूट गया।अब तो मै सुख और निश्चिन्त मन
से श्रीगोपाल का भजन कर सकूंगा।

*एक संत की पत्नी अनुकूल थी,दूसरे की प्रतिकूल थी और तीसरे की संसार को
छोडकर चली गई, फिर भी ये तीनों
महात्मा अपनी-अपनी परिस्थिति से
संतुष्ट थे।

सच्चा वैष्णव वही है जो किसी भी
परिस्थिति में परमात्मा की कृपा का
अनुभव करता है और मन को शांत
और संतुष्ट रखता है। मन को शांत रखना
भी बड़ा पुण्य है।

माता और पिता को अपने पुत्र की बहुत
चिंता रहती है।
परन्तु पुत्रेष्णा के साथ -साथ अनेक
वासनाएँ भी आती है। उसके पीछे
वित्तेषणा और लोकेषणा जागती है।

आत्मदेव ने उस महात्मा को कहा की मुझे
पुत्र दो, क्योकि पुत्र ही पिता को सद्गति देता
है। "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति।"
महात्मा आत्मदेव को समझाते है की श्रुति
भगवती एक स्थान पर कहती है की पुत्र से मुक्ति नहीं मिलती।
वंश के रक्षण के लिए सत्कर्म करो।
यदि पुत्र ही सद्गति दे सकता हो तो संसार
में प्रायः सभी के पुत्र होते है,अतः उन सभी
को सद्गति मिलनी चाहिए। पिता को कभी
ऐसी आशा रखनी नहीं चाहिए की मेरा पुत्र
श्राध्द करेगा, तो मुझे सद्गति मिलेगी।
श्राध्द करने से वह जीव अच्छी योनि में
जाता है, परन्तु ऐसा मत समझो कि वह
जन्म-मृत्यु के फेर से छूट जायगा।
श्राध्द और पिंडदान मुक्ति नहीं दिल सकते।
श्राध्द-कर्म-धर्म है। श्राध्द करने से नरक
से छुटकारा मिलता है, परन्तु मुक्ति नहीं
मिलती है।

श्राध्द करने से पितृगण प्रसन्न होते है
और आशीर्वाद देते है।
पिंडदान का सही अर्थ कोई समझता
नहीं है।
इस शरीर को पिंड कहते है।
इसे परमात्मा को अर्पण करना ही
पिंडदान है। यह निष्चय करना है कि मुझे अपना जीवन ईश्वर को अर्पण करना है।
उसी का जीवन सार्थक है और उसी
का पिंडदान सच्चा है। अन्यथा यदि आटे
के पिंडदान से मिक्ति मिल जाती तो
ऋषि मुनि- ध्यान, योग, तप आदि
साधनों का निर्देश करते ही क्यों?

"श्रीमद् एकनाथी भागवत:"
एकनाथ का जन्म संत परिवार में हुआ था । उनके परदादा भानुदास महाराष्ट्र के महान्
संत थे । उनके पुत्र थे चक्रपाणि और
उनके पुत्र थे सूर्यनारायण । एकनाथ ने सूर्यनारायण के घर में शक १४५० में पैठण
में जन्म लिया । एकनाथ को ज्ञानेश्वर का अवतार कहा जाता है क्योंकि
उन्होंने ज्ञानेश्वर के कार्य को पूरा किया ।
तेरहवीं सदी के अन्तिम दशक में ज्ञानेश्वर
ने अपनी इहलीला समाप्त की ।
एकनाथ का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था । उनके जन्म के कुछ ही महीने बाद उनके
माता पिता की मृत्यु हो गयी । वे अकेले
रह गये तो उनके दादा दादी लाड़ न्यार से
उन्हें एका कहकर पुकारने लगे । छठवें वर्ष
ही उनका जनेऊ हो गयाऔर उन्हें घर में
ही ब्रह्मकर्म की शिक्षा दीजाने लगी । घर में
जो गुरु पढ़ाने आते थे वे उनकी बुद्धि की तीव्रता से परेशान थे । एक दिन उन्होंने चक्रपाणीजी से कह ही दिया, आपका पुत्र
ऐसे जटिल प्रश्न करता है कि मैं उसका समाधान नहीं कर पाता । बारह वर्ष
की आयु तक आते आते उसने रामायण, महाभारत आदि पौराणिक ग्रन्यों का अध्ययन पूरा कर लिया था । दैनिक कृत्य के उपरान्त
वे भगवद्भजन में लग जाते । एक रात वे
अकेले ही शिवालय में बैठकर राम कृष्ण हरि का मंत्र जप रहे थे कि तभी उन्हें आत्मिक प्रेरणा हुई कि देवगढ़ जाकर जनार्दन स्वामी
के चरणों में गिरना है । वे दादा दादी से
बिना कुछ कहे ही देवगढ़ के लिये चल
पड़े । तीसरे दिन प्रातःकाल वे देवगढ़ पहुँचे।
गुरु के दर्शन होते ही वे मानों गद्गद् हो गये । उन्होंने स्वयं को उनके चरणों में सौंप दिया ।
यह शक संवत् १४६७ की घटना है ।
देवगढ़ में एकनाथ को दत्तात्रेय के दर्शन
हुए । एकनाथजी ने विपुल ग्रन्ध रचना की जिसमें प्रमुख हैं स्वात्मबोध, चिरंजीव पद, आनन्द लहरी, आदि । नाथभागवत आपका सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । भावार्थ रामायण
भी आपका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
वेद में जो नहीं कहा गया गीता ने पूरा किया ।
गीता की कमी की आपूर्ति ज्ञानेश्वरी ने की। उसी प्रकार ज्ञानेश्वरी की कमी को
एकनाथी भागवत ने पूरा किया ।
दत्तात्रेय भगवान के आदेश से सन् १५७३
में एकनाथ महाराज ने भागवत के ग्यारहवें स्कंध पर विस्तृत और प्रौढ़ टीका लिखी ।
यदि ज्ञानेश्वरी श्रीमद्धागवत की भावार्थ
टीका है तो नाथ भागवत श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध पर सर्वांगपूर्ण टीका है ।
इसकी रचना पैठण में शूरू हुई और
समापन वाराणसी में हुआ । विद्वानों का
मत है कि यदि ज्ञानेश्वरी को ठीक तरह से
समझना है तो एकनाथी भागवत के अनेक
पारायण करने चाहिये । तुकाराम महाराज
ने भण्डारा पर्वत पर बैठकर एकनाथी
भागवत का एक सहस्र पारायण किये ।
पैठण में आरम्भ एकनाथी भागवत्
मुक्तिक्षेत्र वाराणसी में मणिकर्णिका महातट
पर पंचमुद्रा नामक पीठ में कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को पूर्ण हुई । इस ग्रन्थ में भागवत
धर्म की परम्परा, स्वरूप विशेषताएँ, ध्येय, साधन आदि भागवत के आधार पर
निरूपित हुआ है ।

संत ज्ञानेश्वर महाराज ने जीवंत समाधि
ली थी,इस बात से उनकी महान यौगिक
शक्ति का परिचय मीलता है । ऐसे
महापुरुष अपनी मरजी से समाधि के
उपरांत भी किसीको दर्शन दे सकतें है ।

संत ज्ञानेश्वर महाराज की समाधि के करीब
तीनसो साल पश्चात महाराष्ट्र की भूमि पर
एकनाथ महाराज हुए । ज्ञानेश्वर महाराज ने
उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा था की जिस वृक्ष
के नीचे मैंने समाधि ली है, उसकी एक शाखा
मुझे बाधा पहूँचाती है, अतः तुम उसे जाकर ठीक करो ।
ज्ञानेश्वरजी जैसे महान योगी क्या वृक्ष की
शाखा ठीक नहीं कर सकते भला ? अवश्य
कर सकतें हैं, मगर एकनाथजी को दर्शन
देने के लिये कोई निमित्त चाहिए न । एकनाथजी अपने स्वप्नादेश के मुताबिक आलंदी गये, मगर समाधि-स्थान नहीं ढूँढ
सके । ज्ञानेश्वर महाराज ने उन्हें सूचना दी
और एकनाथजी ने जमीन के नीचे गडी
ज्ञानेश्वर महाराज की समाधि को ढूँढ
निकाला । वहाँ उन्होंने पैड़ के नीचे बैठे
हुए ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन किये ।
एकनाथजी महान ईश्वरदर्शी संतपुरुष थे।
दोनों महापुरुषों का मंगल मिलन हुआ !
मानो रामऔर भरत का, बद्रीनाथ और केदारनाथ का,गंगा और जमना का अथवा ज्ञान, भक्ति और योग का समागम हुआ।
कहा जाता है की ज्ञानेश्वरजी के
समाधि-स्थल पर एकनाथजी तीन दिन
और तीन रात रहें थे । उनके बीच क्या
वार्तालाप हुआ ये तो किसी को नहीं पता
मगर एकनाथजी के भजनों से इतना
अवश्य पता चलता है की ज्ञानेश्वर महाराज
ने उन्हें दर्शन दिये थे।
!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

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