Monday, 29 June 2020

भगवान शिव की सोमवार को पूजा करना अधिक लाभदायक है

भगवान शिव की सोमवार को पूजा करना अधिक लाभदायक है सप्ताह के सातों दिन किसी न किसी ईश्वर की पूजा, भक्ति और व्रत के लिए होता हैं पर सोमवार का दिन हिन्दू धर्म परमपराओं के अनुसार भगवान शिव को समर्पित होता है. माना जाता है कि शिवजी की भक्ति हर पल ही शुभ होती है. सच्चे मन से पूजा की जाए तो शिव अपने भक्तों पर जल्द ही प्रसन्न हो जाते है. क्यों सोमवार को ही शिवजी की पूजा करना अधिक लाभदायक होता है? आइए जानते हैं इससे जुड़ी खास बातें- सोमवार के दिन रखा जाने वाला व्रत सोमेश्वर व्रत के नाम से जाना जाता है. इसके अपने धार्मिक महत्व होते हैं. इसी दिन चन्द्रमा की पूजा भी की जाती है. हमारे धर्मग्रंथों में सोमेश्वर शब्द के दो अर्थ होते हैं. पहला अर्थ है – सोम यानी चन्द्रमा. चन्द्रमा को ईश्वर मानकर उनकी पूजा और व्रत करना. सोमेश्वर शब्द का दूसरा अर्थ है- वह देव, जिसे सोमदेव ने भी अपना भगवान माना है. उस भगवान की सेवा-उपासना करना, और वह देवता हैं "भगवान शिव" पौराणिक मान्यता के अनुसार इस व्रत और पूजा से ही सोमदेव ने भगवान शिव की आराधना की. जिससे सोमदेव निरोगी होकर फिर से अपने सौंदर्य को पाया. भगवान शंकर ने भी प्रसन्न होकर दूज यानी द्वितीया तिथि के चन्द्रमा को अपनी जटाओं में मुकुट की तरह धारण किया। यही कारण है कि बहुत से साधू-संत और धर्मावलंबी इस व्रत परंपरा में शिवजी की पूजा-अर्चना भी करते आ रहे हैं क्योंकि इससे भगवान शिव की उपासना करने से चन्द्रदेव की पूजा भी हो जाती है. धार्मिक आस्था व परंपरा के चलते प्राचीन काल से ही सोमवार व्रत पर आज भी कई लोग भगवान शिव और पार्वती की पूजा करते आ रहे हैं परन्तु यह चंद्र उपासना से ज्यादा भगवान शिव की उपासना के लिए प्रसिद्ध हो गया. भगवान शिव की सच्चे मन से पूजा कर सुख और कामनापूर्ति होती है। भगवान शिव से जुड़ी रोचक बातें *‘शिव का द्रोही मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं।’- भगवान राम* हम जैसी कल्पना और विचार करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। शिव ने इस आधार पर ध्यान की कई विधियों का विकास किया। भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों का मूल हैं। शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है। आज से १५ से २० हजार वर्ष पूर्व वराह काल की शुरुआत में जब देवी-देवताओं ने धरती पर कदम रखे थे, तब उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी। इस दौरान भगवान शंकर ने धरती के केंद्र कैलाश को अपना निवास स्थान बनाया। भगवान विष्णु ने समुद्र को और ब्रह्मा ने नदी के किनारे को अपना स्थान बनाया था। पुराण कहते हैं कि जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है, जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था। इन तीनों से सब कुछ हो गया। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया। सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें आदि देव भी कहा जाता है। आदि का अर्थ प्रारंभ। शिव को *‘आदिनाथ’* भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। इस *‘आदिश’* शब्द से ही *‘आदेश’* शब्द बना है। नाथ साधु जब एक–दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश। भगवान शिव के अलावा ब्रह्मा और विष्णु ने संपूर्ण धरती पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया। सभी ने मिलकर धरती को रहने लायक बनाया और यहां देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष और मनुष्य की आबादी को बढ़ाया। महाभारत काल ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह रूप में ही रह गए अत: उनके विग्रहों की पूजा की जाती है। पहले भगवान शिव थे रुद्र वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला। वेद जिन्हें रुद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। वराह काल के पूर्व के कालों में भी शिव थे। उन कालों की शिव की गाथा अलग है। देवों के देव महादेव देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। भगवान शिव ने क्यों मार दिए थे विशालकाय मानव… ब्रह्मा ने बनाए विशालकाय मानव विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी। भारत में मिले इस कंकाल के साथ एक शिलालेख भी मिला है। यह उस काल की ब्राह्मी लिपि का शिलालेख है। इसमें लिखा है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई। भगवान शिव का धनुष पिनाक शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था। उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया। देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया। भगवान शिव का चक्र चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला। त्रिशूल इस तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र देवताओं को सौंप दिए। उनके पास सिर्फ एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था। त्रिशूल ३ प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है। इसमें ३ तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन। इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी भगवान् शिव का अस्त्र है। भगवान शिव का सेवक वासुकी शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में ५ कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है तो निश्‍चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे। नाग वंशावलियों में ‘शेषनाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं। उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था। अमरनाथ के अमृत वचन किस नाम से सुरक्षित… अमरनाथ के अमृत वचन शिव द्वारा मां पार्वती को जो ज्ञान दिया गया, वह बहुत ही गूढ़-गंभीर तथा रहस्य से भरा ज्ञान था। उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए ११२ ध्यान सूत्रों का संकलन है। योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के *‘‍विज्ञान भैरव तंत्र’* और *‘शिव संहिता’₹ में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- ‘वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:’ अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है। -मेरुतंत्र भगवान शिव ने अपना ज्ञान सबसे पहले किसे दिया…... भगवान शिव के शिष्य शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया। सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए ७ ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के ७ बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन ७ रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने ३०० ईसा पूर्व मात्र २०० सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। ७ अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है। भगवान शिव के गणों के नाम… भगवान शिव गण भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से *‘वीरभद्र’* नामक गण उत्पन्न किया। इस तरह उनके ये प्रमुख गण थे- भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं। भगवान शिव के द्वारपाल… भगवान शिव के द्वारपाल कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे। इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल। उल्लेखनीय है कि शिव के गण और द्वारपाल नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था। भगवान शिव पंचायत को जानिए… भगवान शिव पंचायत पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है। देवताओं और दैत्यों के झगड़े आदि के बीच जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिव की पंचायत का फैसला अंतिम होता था। शिव की पंचायत में ५ देवता शामिल थे। ये ५ देवता थे १. सूर्य, २. गणपति, ३. देवी, ४. रुद्र और ५. विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं। भगवान शिव के पार्षद… भगवान शिव पार्षद जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ‍उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं। यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी। भगवान शिव के प्रतीक चिह्न... भगवान शिव चिह्न वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्ध चंद्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं। हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं। भगवान शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक चंद्र चिह्न होता है। उनके मस्तष्क पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू तो दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं। माना जाता है कि केदारनाथ और अमरनाथ में वे विश्राम करते हैं। भस्मासुर से बचकर यहां छिप गए थे शिव भगवान शिव की गुफा शिव ने एक असुर को वरदान दिया था कि तू जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। इस वरदान के कारण ही उस असुर का नाम भस्मासुर हो गया। उसने सबसे पहले शिव को ही भस्म करने की सोची। भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शंकर वहां से भाग गए। उनके पीछे भस्मासुर भी भागने लगा। भागते-भागते शिवजी एक पहाड़ी के पास रुके और फिर उन्होंने इस पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। बाद में विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई। माना जाता है कि वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन शांत हो जाता है। इस गुफा में हर दिन सैकड़ों की तादाद में शिवभक्त शिव की अराधना करते हैं। भगवान राम ने किया था भगवान शिव से युद्ध : सभी जानते हैं कि राम के आराध्यदेव शिव हैं, तब फिर राम कैसे शिव से युद्ध कर सकते हैं? पुराणों में विदित दृष्टांत के अनुसार यह युद्ध श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के दौरान लड़ा गया। यज्ञ का अश्व कई राज्यों को श्रीराम की सत्ता के अधीन किए जा रहा था। इसी बीच यज्ञ का अश्व देवपुर पहुंचा, जहां राजा वीरमणि का राज्य था। वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उनसे उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान मांगा था। महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था। जब यज्ञ का घोड़ा उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया। ऐसे में अयोध्या और देवपुर में युद्ध होना तय था। महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जानकर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अपने सारे गणों को भेज दिया। एक और राम की सेना तो दूसरी ओर शिव की सेना थी। वीरभद्र ने एक त्रिशूल से राम की सेना के पुष्कल का मस्तक काट दिया। उधर भृंगी आदि गणों ने भी राम के भाई शत्रुघ्न को बंदी बना लिया। बाद में हनुमान भी जब नंदी के शिवास्त्र से पराभूत होने लगे तब सभी ने राम को याद किया। अपने भक्तों की पुकार सुनकर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए। श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया। फिर श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिव गणों पर धावा बोल दिया। जब नंदी और अन्य शिव के गण परास्त होने लगे तब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए, तब श्रीराम और शिव में युद्ध छिड़ गया। भयंकर युद्ध के बाद अंत में श्रीराम ने पाशुपतास्त्र निकालकर कर शिव से कहा, ‘हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता इसलिए हे महादेव, आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं’, ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया। वो अस्त्र सीधा महादेव के ह्वदयस्थल में समा गया और भगवान रुद्र इससे संतुष्ट हो गए। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें। इस पर श्रीराम ने कहा कि ‘हे भगवन्, यहां मेरे भाई भरत के पुत्र पुष्कल सहित असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, कृपया कर उन्हें जीवनदान दीजिए।’ महादेव ने कहा कि ‘तथास्तु।’ इसके बाद शिव की आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्रीराम को लौटा दिया और श्रीराम भी वीरमणि को उनका राज्य सौंपकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल दिए। ब्रह्मा, विष्णु और शिव का जन्म एक रहस्य है। तीनों के जन्म की कथाएं वेद और पुराणों में अलग-अलग हैं, लेकिन उनके जन्म की पुराण कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनके जन्म की वेदों में लिखी कथाएं कितनी सच हैं, इस पर शोधपूर्ण दृष्टि की जरूरत है। यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ईश्वर अजन्मा है। अलग-अलग पुराणों में भगवान शिव और विष्णु के जन्म के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को स्वयंभू माना गया है जबकि विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयंभू हैं। शिव पुराण के अनुसार एक बार जब भगवान शिव अपने टखने पर अमृत मल रहे थे तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा भगवान विष्णु की नाभि कमल से पैदा हुए जबकि शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न हुए बताए गए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण ही शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं। भगवान शिव के जन्म की कहानी हर कोई जानना चाहता है। श्रीमद् भागवत के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे से जिसका कोई भी ओर-छोर ब्रह्मा या विष्णु नहीं समझ पाए, भगवान शिव प्रकट हुए। यदि किसी का बचपन है तो निश्चत ही जन्म भी होगा और अंत भी। *विष्णु पुराण* में शिव के बाल रूप का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या की। तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिव प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम *‘ब्रह्मा’* नहीं है इसलिए वह रो रहा है। तब ब्रह्मा ने शिव का नाम *‘रुद्र’* रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’। शिव तब भी चुप नहीं हुए इसलिए ब्रह्मा ने उन्हें दूसरा नाम दिया, पर शिव को नाम पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुए। इस तरह शिव को चुप कराने के लिए ब्रह्मा ने ८ नाम दिए और शिव ८ नामों (रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव) से जाने गए। शिव पुराण के अनुसार ये नाम पृथ्वी पर लिखे गए थे। Gyanchand Bundiwal. 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सूर्य ग्रह से संबंधित जानकारी समस्या और उपाय

सूर्य ग्रह से संबंधित जानकारी समस्या और उपाय ज्योतिष में सूर्य को राजा की पदवी प्रदान की गयी है। ज्योतिष के अनुसार सूर्य आत्मा एवं पिता का प्रतिनिधित्व करता है। सूर्य द्वारा ही सभी ग्रहों को प्रकाश प्राप्त होता है और ग्रहों की इनसे दूरी या नजदीकी उन्हें अस्त भी कर देती है। सूर्य सृष्टि को चलाने वाले प्रत्यक्ष देवता का रूप हैं। कुंडली में सूर्य को पूर्वजों का प्रतिनिधि भी माना जाता है। सूर्य पर किसी भी कुंडली में एक या एक से अधिक बुरे ग्रहों का प्रभाव होने पर उस कुंडली में पितृ दोष का निर्माण हो जाता है। व्यक्ति की आजीविका में सूर्य सरकारी पद का प्रतिनिधित्व करता है। सूर्य प्रधान जातक कार्यक्षेत्र में कठोर अनुशासन अधिकारी, उच्च पद पर आसीन अधिकारी, प्रशासक, समय के साथ उन्नति करने वाला, निर्माता, कार्यो का निरीक्षण करने वाला बनता है. बारह राशियों में से सूर्य मेष, सिंह तथा धनु में स्थित होकर विशेष रूप से बलवान होता है तथा मेष राशि में सूर्य को उच्च का माना जाता है। मेष राशि के अतिरिक्त सूर्य सिंह राशि में स्थित होकर भी बली होते हैं। यदि जातक की कुंडली में सूर्य बलवान तथा किसी भी बुरे ग्रह के प्रभाव से रहित है तो जातक को जीवन में बहुत कुछ प्राप्त होता है और स्वास्थ्य उत्तम होता है। सूर्य बलवान होने से जातक शारीरिक तौर पर बहुत चुस्त-दुरुस्त होता है। कुंडली के प्रथम भाव में सूर्य कुंडली के प्रथम भाव में सूर्य शुभ फल देने वाला होता है. सूर्य को ग्रहों का राजा कहा गया है। पहला घर सूर्य का ही होता है, इसलिए सूर्य का इस घर में होना अत्यंत शुभ फलदायक होता है। ऐसा जातक धार्मिक इमारतों या भवनों का निर्माण और सार्वजनिक उपयोग के लिए कुओं की खुदाई करवाता है। उसकी आजीविका का स्थाई स्रोत अधिकांशत: सरकारी होगा। ईमानदारी से कमाये गये धन में बृद्धि होगी। जातक अपनी आंखों देखी बातों पर ही विश्वास करेगा, कान से सुनी गयी बातों पर नहीं। यदि सूर्य अशुभ है तो जातक के पिता की मृत्यु बचपन में ही हो जाती है। पहले भाव का अशुभ सूर्य और पांचवें भाव का मंगल एक-एक कर संतान की मृत्यु का कारण होता है। उपाय , 1. जातक को 24 वर्ष से पहले ही शादी कर लेंनी चाहिए। 2. दिन के समय संबंध न बनाएं, इससे पत्नी बीमार रहेगी और मृत्यु भी हो सकती है। 3. अपने पैतृक घर में पानी के लिए एक हैंडपंप लगवाएं। 4. अपने घर के अंत में बाईं ओर एक छोटे और अंधेरे कमरे का निर्माण कराएं। 5. पति या पत्नी दोनों में से किसी एक को गुड़ खाना बंद कर देना चाहिए। कुंडली के दूसरे भाव में सूर्य कुंडली के दूसरे भाव का सूर्य यदि शुभ है तो जातक आत्मनिर्भर होगा, शिल्पकला में कुशल और माता-पिता, मामा, बहनों, बेटियो तथा ससुराल वालों का सहयोग करने वाला होगा। यदि चंद्रमा छठवें भाव में होगा तो दूसरे भाव का सूर्य और भी शुभ प्रभाव देगा। आठवें भाव का केतू जातक को अधिक ईमानदार बनाता है। नौवें भाव का राहू जातक को प्रसिद्ध कलाकार या चित्रकार बनता है। नवम भाव का केतू जातक को महान तकनीकी जानकार बनाता है। नवम भाव का मंगल जातक को फैशनेबल बनाता है। यदि सूर्य दूसरे, मंगल पहले और चंद्रमा बारहवें भाव में हो तो जातक की हालत गंभीर हो सकती है और वह हर तरीके से दयनीय होगा। यदि दूसरे भाव में सूर्य अशुभ हो तो आठवें भाव में स्थित मंगल जातक को लालची बनाता है। उपाय , 1. किसी धार्मिक स्थान में नारियल का तेल, सरसों का तेल और बादाम दान करें। 2. धन, संपत्ति, और महिलाओं से जुड़े विवादों से बचें। 3. दान लेने से बचें, विशेषकर चावल, चांदी, और दूध का दान नहीं लेना चाहिए। कुंडली के तीसरे भाव में सूर्य कुंडली के तीसरे भाव का सूर्य अगर शुभ है तो जातक अमीर, आत्मनिर्भर होगा और उसके कई छोटे भाई होंगे। जातक पर ईश्वरीय कृपा होगी और वह बौद्धिक व्यवसाय द्वारा लाभ कमाएगा। वह ज्योतिष और गणित में रुचि रखने वाला होगा। यदि तीसरे भाव में सूर्य अशुभ है और कुण्डली में चन्द्रमा भी अशुभ है तो जातक के घर में दिनदहाडे चोरी या डकैती हो सकती है। यदि पहला भाव पीडित है तो जातक के पडोसियों का विनाश हो सकता है। उपाय , 1. मां को खुश रखते हुए उसका आशिर्वाद लें। 2. दूसरों को चावल या दूध परोसें एवं गरीबों को दान दें। 3. सदाचारी रहें और बुरे कामों से बचने का प्रयास करें। कुंडली के चौथे भाव में सूर्य चौथे भाव में यदि सूर्य शुभ है तो जातक बुद्धिमान, दयालु और अच्छा प्रशासक होगा। उसके पास आमदनी का स्थिर श्रोत होगा। ऐसा जातक मरने के बाद अपने वंशजों के लिए बहुत धन और बडी विरासत छोड जाता है। यदि चंद्रमा भी सूर्य के साथ चौथे भाव में स्थित है तो जातक किसी नये शोध के माध्यम से बहुत धन अर्जित करेगा। ऐसे में चौथे भाव या दसवें भाव का बुध जातक को प्रसिद्ध व्यापारी बनाता है। यदि सूर्य के साथ बृहस्पति भी चौथे भाव में स्थित है तो जातक सोने और चांदी के व्यापार से अच्छा मुनाफा कमाता है। यदि शनि सातवें भाव में हो तो जातक को रतौंधी या आंख से संबंधित अन्य रोग हो सकता है। यदि सूर्य चौथे भाव में पीडित हो और मंगल दसवें भाव में हो तो जातक की आंखों में दोष हो सकता है लेकिन उसकी किस्मत कमजोर नहीं होगी। उपाय , 1. जातक को चाहिए कि जरूरतमंद और अंधे लोगों को दान दें और खाना बांटें। 2. लोहे और लकड़ी के साथ जुड़ा व्यापार कदापी न करें। 3. सोने, चांदी और कपड़े से सम्बंधित व्यापार लाभकारी रहेंगे। कुंडली के पांचवें भाव में सूर्य यदि सूर्य पांचवें भाव में शुभ है तो निश्चित ही जातक के परिवार तथा बच्चों की प्रगति और समृद्धि होगी। यदि पांचवें भाव में कोई सूर्य का शत्रु ग्रह स्थित है तो जातक को सरकार जनित परेशानियों का सामना करना पडेगा। यदि मंगल पहले अथवा आठवें भाव में हो एवं राहू या केतू और शनि नौवें और बारहवें भाव में हो तो जातक राजसी जीवन जीता है। यदि गुरु नौवें या बारहवें भाव में स्थित है तो जातक के शत्रुओं का विनाश होगा लेकिन यह स्थिति जातक के बच्चों के लिए ठीक नहीं है। यदि पांचवें भाव का सूर्य अशुभ है और बृहस्पति दसवें भाव में है तो जातक की पत्नी जीवित नहीं रहती और चाहे जितने विवाह करें पत्नियां मरती जाएंगी। उपाय , 1. ऐसे जातक को संतान पैदा करने में देरी नहीं करनी चाहिए। 2. घर (मकान) के पूर्वी भाग में ही रसोई घर का निर्माण करें। 3. लगातार 43 दिनों तक सरसों के तेल की कुछ बूंदे जमीन पर गिराएं। कुंडली के छठे भाव में सूर्य यदि सूर्य छठे भाव में शुभ हो तो जातक भाग्यशाली, क्रोधी तथा सुंदर जीवनसाथी वाला होता है। यदि सूर्य छठे भाव में हो, चंद्रमा, मंगल और बृहस्पति दूसरे भाव में हो तो परंपरा का निर्वाह करना फायदेमंद रहता है। यदि सूर्य छ्ठे भाव में हो और सातवें भाव में केतू या राहू हो तो जातक का एक पुत्र होगा और 48 सालों के भाग्योन्नति होगी। यदि दूसरे भाव में कोई भी ग्रह न हो तो जातक को जीवन के 22वें साल में सरकारी नौकरी मिलने के योग बनते हैं। यदि सूर्य अशुभ हो तो जातक के पुत्र और ननिहाल के लोगों को मुसीबतों का सामना करना पड सकता है। जातक का स्वास्थ भी ठीक नहीं रहेगा। उपाय , 1. कुल परम्परा और धार्मिक परम्पराओं कड़ाई से पालन करें अन्यथा परिवार की प्रगति और प्रसन्नता नष्ट हो जायेगी। 2. घर के आहाते (परिसर) में भूमिगत भट्टियों का निर्माण कदापि न करें। 3. रात में भोजन करने के बाद रसोई की आग और स्टोव आदि को दूध का छिड़काव करके बुझाएं। 4. अपने घर के परिसर में हमेशा गंगाजल रखें और बंदरों को गुड़ और चना खिलाएं। कुंडली के सातवें भाव में सूर्य सातवें भाव में स्थित सूर्य यदि शुभ है और यदि बृहस्पति, मंगल अथवा चंद्रमा दूसरे भाव में है तो जातक सरकार में मंत्री जैसा पद प्राप्त करता है। बुध उच्च का हो या पांचवें भाव में हो अथवा सातवां भाव मंगल का हो तो जातक के पास आमदनी का अंतहीन श्रोत होगा। यदि सातवें भाव में स्थित सूर्य हानिकारक हो और बृहस्पति, शुक्र या कोई और अशुभ ग्रह ग्यारहवें भाव में स्थित हो तो तथा बुध किसी भी भाव में नीच हो तो जातक की मौत किसी मुठभेड में परिवार के कई सदस्यों के साथ होती है। सातवें भाव में हानिकारक सूर्य हो और मंगल या शनि दूसरे या बारहवें भाव में स्थित हो तथा चंद्रमा पहले भाव में हो तो जातक को कुष्ट या ल्यूकोडर्मा जैसे चर्म रोग हो सकते हैं। उपाय , 1. ऐसे जातक नमक का उपयोग कम मात्रा में करें। 2. किसी भी काम को शुरू करने से पहले मीठा खाएं और उसके बाद पानी जरूर पियें। 3. भोजन करने से पहले रोटी का एक टुकड़ा रसोई घर की आग में डालें। 4. काली अथवा बिना सींग वाली गाय को पालें और उसकी सेवा करें, सफेद गाय ना पालें। कुंडली के आठवें भाव में सूर्य आठवें भाव स्थित सूर्य यदि अनुकूल हो तो उम्र के 22वें वर्ष से सरकार का सहयोग मिलता है। ऐसा सूर्य जातक को सच्चा, पुण्य और राजा की तरह बनाता है। कोई उसे नुकसान पहुंचाने में सक्षम नहीं होता। यदि आठवें भाव स्थित सूर्य अनुकूल न हो तो दूसरे भाव में स्थित बुध आर्थिक संकट पैदा करेगा। जातक अस्थिर स्वभाव, अधीर और अस्वस्थ्य रहेगा। ऐसा जातक ईमानदार होता है किसी की भी बातों में आ जाता है, जिससे कभी-कभी उसे नुकसान भी होता है। उपाय , 1. ऐसे जातक को चाहिए कि वह घर में कभी भी सफेद कपड़े न रखे। 2. जातक का घर दक्षिण मुखी न हो. उत्तरमुखी घर अत्यधिक फायदे पहुंचाने वाला हो सकता है। 3. हमेशा किसी भी नये काम को शुरू करने से पहले मीठा खाकर पानी पिना फायदेमंद होगा। 4. यदि संभव हो तो किसी जलती हुई चिता में तांबे के सिक्के डालें और बहती नदी में गुड़ बहाएं । कुंडली के नौवें भाव में सूर्य नवमें भाव स्थित सूर्य यदि अनुकूल हो तो जातक भाग्यशाली, अच्छे स्वभाव वाला, अच्छे पारिवारिक जीवन वाला और हमेशा दूसरों की मदद करने वाला होगा। यदि बुध पांचवें घर में होगा तो जातक का भाग्योदय 34 साल के बाद होगा। यदि नवें भाव स्थित सूर्य अनुकूल न हो तो जातक बुरा और अपने भाइयों के द्वारा परेशान किया जाएगा। सरकार से अरुचि और प्रतिष्ठा की हानि हो सकती है। ऐसा जातक भाई के साथ सुखी नहीं रहेगा। उपाय , 1. उपहार या दान के रूप में चांदी की वस्तुएं कभी स्वीकार न करें. अपितु चांदी की वस्तुएं दान करें। 2. ऐसे जातक को पैतृक बर्तन और पीतल के बर्तन नहीं बेचना चाहिए। 3. अत्यधिक क्रोध और अत्यधिक कोमलता से बचें रहना चाहिए। कुंडली के दसवें भाव में सूर्य दसवें भाव में स्थित सूर्य यदि शुभ हो तो सरकार से लाभ और सहयोग मिल सकता है। जातक का स्वास्थ्य अच्छा और वह आर्थिक रूप से मजबूत होगा। जातक को सरकारी नौकरी, वाहनों और कर्मचारियों का सुख मिलता रहेगा। ऐसा जातक हमेशा दूसरों पर शक करता है। यदि दसवें भाव में स्थित सूर्य हानिकारक हो और शनि चौथे भाव में हो तो जातक के पिता की मृत्यु बचपन में हो जाती है। सूर्य दसवें भाव में हो और चंद्रमा पांचवें घर में हो तो जातक की आयु कम होगी। यदि चौथे भाव में कोई ग्रह न हों तो जातक सरकारी सहयोग और लाभ से वंचित रह जाएगा। उपाय , 1. ऐसे जातक को चाहिए कि कभी भी काले और नीले कपड़े न पहनें। 2. किसी नदी या नहर में लगातार 43 दिनों तक तांबें का एक सिक्का डालना अत्यंत शुभ फल देगा। 3. जातक का मांस मदिरा के सेवन से बचें रहना फायदेमंद होगा। कुंडली के ग्यारहवें भाव में सूर्य यदि ग्यारहवें भाव में स्थित सूर्य शुभ है तो जातक शाकाहारी और परिवार का मुखिया होगा। जातक के तीन बेटे होंगे औए उसे सरकार से लाभ मिलेगा। ग्यारहवें भाव में स्थित सूर्य यदि शुभ नहीं है और चंद्रमा पांचवें भाव में है। और सूर्य पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो यह जातक की आयु को कम करने वाली होती है। उपाय , 1. ऐसे जातक को चाहिए कि वह मांसहार और शराब के सेवन से बचे। 2. जातक को रात में सोते समय बिस्तर के सिरहने बादाम या मूली रखकर सोना चाहिए। 3. दूसरे दिन उस बादाम या मूली को मंदिर में दान करने से आयु और संतान सुख मिलता है। कुंडली के बारहवें भाव में सूर्य यदि बारहवें भाव में स्थित सूर्य शुभ हो तो जातक 24 साल के बाद अच्छा धन कमाएगा और जातक का पारिवारिक जीवन अच्छा बितेगा। यदि शुक्र और बुध एक साथ हो तो जातक को व्यापार से लाभ मिलता है और जातक के पास आमदनी के नियमित स्रोत होते हैं। यदि बारहवें भाव का सूर्य अशुभ हो तो जातक अवसाद ग्रस्त, मशीनरी से आर्थिक हानि उठाने वाला और सरकार द्वारा दंडित किया जाने वाला होगा। यदि पहले भाव में कोई और पाप ग्रह हो तो जातक को रात में चैन की नींद नहीं आएगी। उपाय , 1. जातक को हमेशा अपने घर में एक आंगन रखना चाहिए। 2. ऐसे जातक को चाहिए कि वह हमेशा धार्मिक और सच्चा बने। 3. ऐसे जातक को अपने घर में एक चक्की रखना चाहिए। 4. अपने दुश्मनों को हमेशा क्षमा करें। Gyanchand Bundiwal. 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Thursday, 18 June 2020

ज्येष्ठ माह में आने वाली पूर्णिमा

ज्येष्ठ माह में आने वाली पूर्णिमा का हिन्दू धर्म में बड़ा महत्व है। धार्मिक दृष्टिकोण से पूर्णिमा के दिन स्नान और दान-धर्म करने का विधान है। इस दिन गंगा में स्नान करने से व्यक्ति की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। माना गया है कि ऐसा करने से व्यक्ति के सभी पापों का नाश हो जाता है। इसके साथ ही इस दिन दान करने से पितरों का भी भला होता है और उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए इस दिन ख़ास तौर पर महिलाओं को व्रत करने की सलाह दी जाती है। इस दिन विशेष रूप से भगवान शंकर व भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत का महत्व और पूजा विधि तथा उपाय ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन स्नान, ध्यान और पुण्य कर्म करने का विशेष महत्व है। इसके साथ ही यह दिन उन लोगों के लिये भी बेहद महत्वपूर्ण होता है, जिन युवक और युवतियों का विवाह होते होते रुक जाता है या फिर उसमें किसी प्रकार की कोई बाधा आ रही होती है। ऐसे लोग यदि आज के दिन श्वेत वस्त्र धारण करके शिवाभिषेक करें और भगवान शिव की पूजा करें तो उनके विवाह में आने वाली हर समस्या दूर हो जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन कोई भी कुछ खास उपाय करके इस शुभ तिथि से शुभ लाभ उठा सकता है, आइये जानें ज्येष्ठ पूर्णिमा के उपाय इस विशेष दिन पीपल के पेड़ पर भगवान विष्णु संग माँ लक्ष्मी वास करती हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति एक लोटे में पानी भर कर उसमें कच्चा दूध और बताशा डालकर पीपल के पेड़ को अर्पित करता है तो इससे उस व्यक्ति को रुका हुआ धन प्राप्‍त होगा और उसे बिज़नेस में भी लाभ मिलेगा। इस दिन दंपत्ति को चंद्र देव को दूध से अर्ध्य देना चाहिए। इससे उनके जीवन में आ रही हर छोटी-बड़ी समस्या दूर हो जाती है। यह काम पति या पत्‍नी किसी के भी द्वारा किया जा सकता है। आज की रात यदि कोई किसी कुएं में एक चम्‍मच से दूध डालता है तो उसका भाग्‍य चमक जाता है। साथ ही यदि उसे किसी भी जरूरी कार्य में कोई बाधा आ रही होती है तो वो भी तुरंत दूर हो जाती है। यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में कोई ग्रह दोष है तो उसे दूर करने के लिए आज, पीपल और नीम की त्रिवेणी के नीचे विष्णु सहस्त्रनाम या शिवाष्टक का पाठ करना सबसे बेहतर होगा। ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन माँ लक्ष्‍मी की तस्वीर पर 11 कौड़ियां चढ़ा कर उस पर हल्‍दी से तिलक लगाना चाहिए। इसके पश्चात अगली सुबह इन्‍हें किसी लाल कपड़े में बांध कर अपनी तिजोरी में रख दें। ऐसा करने से आपकी आर्थिक स्थिति बेहतर होती है। ज्येष्ठ पूर्णिमा का विशेष महत्व है। आमतौर पर इस दिन से श्रद्धालु गंगा जल लेकर अमरनाथ यात्रा के लिये निकलते हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह हिन्दू वर्ष का तीसरा महीना होता है। इस समय में धरती पर प्रचंड गर्मी रहती है और कई नदी व तालाब सूख जाते हैं या उनका जल स्तर कम हो जाता है। इसलिए इस महीने में जल का महत्व अन्य महीनों की तुलना में बढ़ जाता है। ज्येष्ठ माह में आने वाले कुछ पर्व जैसे- गंगा दशहरा, निर्जला एकादशी के माध्यम से हमें ऋषि-मुनियों ने संदेश दिया है कि जल के महत्व को पहचानें और इसका सदुपयोग करें. 

बुधवार व्रत महात्म्य व्रत एवं उद्यापन विधि

बुधवार व्रत महात्म्य व्रत एवं उद्यापन विधि व्रत नियम एवं महात्म्य,,अग्नि पुराण के अनुसार बुध संबंधी व्रत विशाखा नक्षत्रयुक्त बुधवार को आरंभ करना चाहिए और लगातार सात बुधवार अथवा यथा सामर्थ्य व्रत करना चाहिए। बुधवार का व्रत शुरू करने से पहले गणेश जी के साथ नवग्रहों की पूजा करनी चाहिए। व्रत के दौरान भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिए। बुधवार व्रत शुक्ल पक्ष के पहले बुधवार से शुरू करना अच्छा माना जाता है। इस दिन प्रातः उठकर संपूर्ण घर की सफाई करें। तत्पश्चात स्नानादि से निवृत्त हो जाएँ। इसके बाद पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के ही किसी पवित्र स्थान पर भगवान गणेश जी या शिव परिवार की प्रतिमा या चित्र किसी कांस्य पात्र में स्थापित करें। तत्पश्चात धूप, बेल-पत्र, अक्षत और घी का दीपक जलाकर पूजा करें। व्रत करने वाले को हरे रंग की माला या वस्त्रों का अधिक प्रयोग करना चाहिए। इस दिन गणेश जी को 21 गांठो सहित दूर्वा चढ़ाने का विधान है मान्यता है कि ऐसा करने से भगवान गणेश जी की कृपा शीघ्र ही प्राप्त होने लगती है। भगवान गणेश जी भाग्य के बंधन खोलकर सौभाग्य प्राप्ति का वरदान देते है इसके विषय मे एक प्रचलित कथा भी है पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीनकाल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था, उसके कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। अनलासुर एक ऐसा दैत्य था, जो मुनि-ऋषियों और साधारण मनुष्यों को जिंदा निगल जाता था। इस दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त होकर इंद्र सहित सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि भगवान महादेव से प्रार्थना करने जा पहुंचे और सभी ने महादेव से यह प्रार्थना की कि वे अनलासुर के आतंक का खात्मा करें। तब महादेव ने समस्त देवी-देवताओं तथा ऋषि-मुनियों की प्रार्थना सुनकर, उनसे कहा कि दैत्य अनलासुर का नाश केवल श्री गणेश ही कर सकते हैं। फिर सबकी प्रार्थना पर श्री गणेश ने अनलासुर को निगल लिया, तब उनके पेट में बहुत जलन होने लगी। इस परेशानी से निपटने के लिए कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी जब गणेशजी के पेट की जलन शांत नहीं हुई, तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठें बनाकर श्री गणेश को खाने को दीं। यह दूर्वा श्री गणेशजी ने ग्रहण की, तब कहीं जाकर उनके पेट की जलन शांत हुई। ऐसा माना जाता है कि श्री गणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा तभी से आरंभ हुई। व्रत के दिन बुध मंत्र ‘ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाये नम:’ का 9,000 बार या 5 माला जप करें। या फिर इस मंत्र से बुध की प्रार्थना करें। बुध त्वं बुद्धिजनको बोधदः सर्वदा नृणाम्‌। तत्वावबोधं कुरुषे सोमपुत्र नमो नमः॥ पूजन मंत्र जप, एवं प्रार्थना के बाद बुधवार कथा का पाठ सुने इसके बाद सामार्थ्य अनुसार श्रीगणेश चालीसा, श्रीगणेश अथर्वशीर्ष का पाठ भी करना चाहिये। पूरे दिन व्रत कर शाम के समय फिर से पूजा कर एक समय भोजन करना चाहिए। बुधवार व्रत में हरे रंग के वस्त्रों, फूलों और सब्जियों का दान देना चाहिए। इस दिन एक समय दही, मूंग दाल का हलवा या हरी वस्तु से बनी चीजों का सेवन करना चाहिए। व्रत कथा,,समतापुर नगर में मधुसूदन नामक एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत धनवान था। मधुसूदन का विवाह बलरामपुर नगर की सुंदर और गुणवंती लड़की संगीता से हुआ था। एक बार मधुसूदन अपनी पत्नी को लेने बुधवार के दिन बलरामपुर गया। मधुसूदन ने पत्नी के माता-पिता से संगीता को विदा कराने के लिए कहा। माता-पिता बोले- 'बेटा, आज बुधवार है। बुधवार को किसी भी शुभ कार्य के लिए यात्रा नहीं करते।' लेकिन मधुसूदन नहीं माना। उसने ऐसी शुभ-अशुभ की बातों को न मानने की बात कही। दोनों ने बैलगाड़ी से यात्रा प्रारंभ की। दो कोस की यात्रा के बाद उसकी गाड़ी का एक पहिया टूट गया। वहाँ से दोनों ने पैदल ही यात्रा शुरू की। रास्ते में संगीता को प्यास लगी। मधुसूदन उसे एक पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने चला गया। थोड़ी देर बाद जब मधुसूदन कहीं से जल लेकर वापस आया तो वह बुरी तरह हैरान हो उठा क्योंकि उसकी पत्नी के पास उसकी ही शक्ल-सूरत का एक दूसरा व्यक्ति बैठा था। संगीता भी मधुसूदन को देखकर हैरान रह गई। वह दोनों में कोई अंतर नहीं कर पाई। मधुसूदन ने उस व्यक्ति से पूछा- 'तुम कौन हो और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठे हो?' मधुसूदन की बात सुनकर उस व्यक्ति ने कहा- 'अरे भाई, यह मेरी पत्नी संगीता है। मैं अपनी पत्नी को ससुराल से विदा करा कर लाया हूँ। लेकिन तुम कौन हो जो मुझसे ऐसा प्रश्न कर रहे हो?' मधुसूदन ने लगभग चीखते हुए कहा- 'तुम जरूर कोई चोर या ठग हो। यह मेरी पत्नी संगीता है। मैं इसे पेड़ के नीचे बैठाकर जल लेने गया था।' इस पर उस व्यक्ति ने कहा- 'अरे भाई! झूठ तो तुम बोल रहे हो। संगीता को प्यास लगने पर जल लेने तो मैं गया था। मैंने तो जल लाकर अपनी पत्नी को पिला भी दिया है। अब तुम चुपचाप यहाँ से चलते बनो। नहीं तो किसी सिपाही को बुलाकर तुम्हें पकड़वा दूँगा।' दोनों एक-दूसरे से लड़ने लगे। उन्हें लड़ते देख बहुत से लोग वहाँ एकत्र हो गए। नगर के कुछ सिपाही भी वहाँ आ गए। सिपाही उन दोनों को पकड़कर राजा के पास ले गए। सारी कहानी सुनकर राजा भी कोई निर्णय नहीं कर पाया। संगीता भी उन दोनों में से अपने वास्तविक पति को नहीं पहचान पा रही थी। राजा ने दोनों को कारागार में डाल देने के लिए कहा। राजा के फैसले पर असली मधुसूदन भयभीत हो उठा। तभी आकाशवाणी हुई- 'मधुसूदन! तूने संगीता के माता-पिता की बात नहीं मानी और बुधवार के दिन अपनी ससुराल से प्रस्थान किया। यह सब भगवान बुधदेव के प्रकोप से हो रहा है।' मधुसूदन ने भगवान बुधदेव से प्रार्थना की कि 'हे भगवान बुधदेव मुझे क्षमा कर दीजिए। मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई। भविष्य में अब कभी बुधवार के दिन यात्रा नहीं करूँगा और सदैव बुधवार को आपका व्रत किया करूँगा।' मधुसूदन के प्रार्थना करने से भगवान बुधदेव ने उसे क्षमा कर दिया। तभी दूसरा व्यक्ति राजा के सामने से गायब हो गया। राजा और दूसरे लोग इस चमत्कार को देख हैरान हो गए। भगवान बुधदेव की इस अनुकम्पा से राजा ने मधुसूदन और उसकी पत्नी को सम्मानपूर्वक विदा किया। कुछ दूर चलने पर रास्ते में उन्हें बैलगाड़ी मिल गई। बैलगाड़ी का टूटा हुआ पहिया भी जुड़ा हुआ था। दोनों उसमें बैठकर समतापुर की ओर चल दिए। मधुसूदन और उसकी पत्नी संगीता दोनों बुधवार को व्रत करते हुए आनंदपूर्वक जीवन-यापन करने लगे। भगवान बुधदेव की अनुकम्पा से उनके घर में धन-संपत्ति की वर्षा होने लगी। जल्दी ही उनके जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ भर गईं। बुधवार का व्रत करने से स्त्री-पुरुषों के जीवन में सभी मंगलकामनाएँ पूरी होती हैं। बुधवार व्रत उद्यापन विधि जितना आपने व्रत शुरु करने के समय संकल्प किया उतना व्रत करने के बाद बुधवार व्रत का उद्यापन करें। उद्यापन पूजन सामग्ररी बुध या गणेश भगवान की मूर्ति – 1 कांस्य का पात्र -1 चावल/अक्षत – 250 ग्राम धूप – 1 पैकेट दीप - 2 गंगाजल फूल लाल चंदन- – 1 पैकेट गुड़ हरा वस्त्र -1.25 मीटर (2) यज्ञोपवीत- 1 जोड़ा रोली गुलाल नैवेद्य(मूंग दाल से बनी हुई) जल पात्र पंचामृत (कच्चा दूध, दही, घी,मधु तथा शक्कर मिलाकर बनायें) पान - 2 सुपारी- 2 लौंग– 1 पैकेट इलायची- 1 पैकेट ऋतुफल कपूर आरती के लिये पात्र हवन की सामग्री हवन कुंड आम की समिधा (लकड़ी) हवन सामग्री- 1 पैकेट उद्यापन क्रम वैदिक रीति से बुधवार के व्रत करने वाले साधको के लिये यहाँ हम वैदिक मंत्रों द्वारा उद्यापन एवं बुधवार पूजन विधि सांझा कर रहे है। वैदिक मंत्र की जानकारी न होने की अवस्था मे आप किसी ब्राह्मण द्वारा यह विधि करा सकते है अगर यह कराने में भी असमर्थ है तो नीचे दी हुई विधि द्वारा सामग्री चढ़ाते हुए सामान्य पूजन कर सकते है ध्यान रखें देव पूजन में भाव का महत्त्व सर्वप्रथम है लौकिक पूजन की अपेक्षा मानसिक पूजन का फल अधिक बताया गया है इसलिये प्रत्येक वस्तु चाहिए वह उपलब्ध हो या ना हो उसे उपलब्ध होने पर चढ़ा कर उपलब्ध ना होने पर मानसिक रूप से चढ़ाकर वही भाव दर्शाने से पूजा सामग्री भगवान अवश्य स्वीकार करते है एवं पूजा सफल मानी जाती है। व्रती को बुधवार के दिन प्रात:काल उठकर नित क्रम कर स्नान कर । हरा वस्त्र धारण करें। पूजा गृह को स्वच्छ कर शुद्ध कर लें। सभी सामग्री एकत्रित कर लें। लकड़ी के चौकी पर हरा वस्त्र बिछायें । कांस्य का पात्र रखें । पात्र के ऊपर बुध देव की प्रतिमा अथवा श्रीगणेश को स्थापित करें । सामने आसन पर बैठ जायें। सभी पूजन सामग्री एकत्रित कर बैठ जायें। पवित्रीकरण सर्वप्रथम हाथ में जल लेकर मंत्र के द्वारा अपने ऊपर जल छिड़कें ॐ पवित्रः अपवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा। यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यन्तर शुचिः॥ इसके पश्चात् पूजा कि सामग्री और आसन को भी मंत्र उच्चारण के साथ जल छिड़क कर शुद्ध कर लें:- पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग षिः सुतलं छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥ अब आचमन करें,,,पुष्प से एक –एक करके तीन बूंद पानी अपने मुंह में छोड़िए और बोलिए- ॐ केशवाय नमः ॐ नारायणाय नमः ॐ वासुदेवाय नमः फिर ॐ हृषिकेशाय नमः कहते हुए हाथों को खोलें और अंगूठे के मूल से होंठों को पोंछकर हाथों को धो लें। गणेश पूजन,,इसके बाद सबसे पहले गणेश जी का पूजन पंचोपचार विधि (धूप, दीप, पूष्प, गंध, एवं नैवेद्य) से करें। चौकी के पास हीं किसी पात्र में गणेश जी के विग्रह को रखकर पूजन करें। यदि गणेश जी की मूर्ति उपलब्ध न हो तो सुपारी पर मौली लपेट कर गणेश जी बनायें। संकल्प ,,हाथ में जल, अक्षत, पान का पत्ता, सुपारी और कुछ सिक्के लेकर निम्न मंत्र के साथ उद्यापन का संकल्प करें:‌ - ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। श्री मद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकामने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे (जिस माह में उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) अमुकपक्षे (जिस पक्ष में उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) अमुकतिथौ (जिस तिथि में उद्यापन कर रहे हों, उसका नाम) बुधवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे (उद्यापन के दिन, जिस नक्षत्र में सुर्य हो उसका नाम) अमुकराशिस्थिते सूर्ये (उद्यापन के दिन, जिस राशिमें सुर्य हो उसका नाम) अमुकामुकराशिस्थितेषु (उद्यापन के दिन, जिस –जिस राशि में चंद्र, मंगल,बुध, गुरु शुक, शनि हो उसका नाम) चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः (अपने गोत्र का नाम) अमुक नाम (अपना नाम) अहं बुधवार व्रत उद्यापन करिष्ये । सभी वस्तुएँ बुध देव के पास छोड़ दें। ध्यान,,दोनों हाथ जोड़ बुध देव का ध्यान करें:- बुधं त्वं बोधजनो बोधव: सर्वदानृणाम्। तत्त्वावबोधंकुरु ते सोम पुत्र नमो नम:॥ आवाहन ,,अब हाथ में अक्षत तथा फूल लेकर बुध देव का आवाहन निम्न मंत्र के द्वारा करें:- ऊँ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ।। सभी वस्तुएँ बुध देव के पास छोड़ दें। आसन ,,हाथ में पुष्प लेकर मंत्र के द्वारा बुध देव को आसन समर्पित करें पाद्य,,पाद्य धोने के लिये मंत्र के उच्चारण क साथ पुष्प से बुध देव को जल अर्पित करें:- ऊँ दुर्बुद्धिनाशाय नम: पाद्यो पाद्यम समर्पयामि अर्घ्य,,पुष्प से अर्घ्य के लिये बुध देव को जल अर्पित करते हुये मंत्र का उच्चारण करें ऊँ सुबुद्धिप्रदाय नम: अर्घ्यम समर्पयामि आचमन ,,पुष्प से आचमन के लिये बुध देव को जल अर्पित करते हुये मंत्र का उच्चारण करें:- ऊँ सौम्यग्रहाय नम: आचमनीयम् जलम् समर्पयामि। स्नान,,पुष्प से स्नान के लिये बुध देव को जल अर्पित करते हुये मंत्र का उच्चारण करें:- ऊँ सर्वसौख्यप्रदाय नम: स्नानम् जलम् समर्पयामि। पंचामृत- स्नान ,पुष्प से पंचामृत स्नान के लिये बुध देव को पंचामृत अर्पित करते हुये मंत्र का उच्चारण करें:- ऊँ सोमात्मजाय नम: पंचामृत स्नानम् समर्पयामि। शुद्धोदक- स्नान,,पंचामृत स्नान के बाद दूसरे पात्र में गंगाजल लेकर चम्मच से बुध देव को शुद्धोदक स्नान के लिये जल अर्पित करते हुये मंत्र का उच्चारण करें:- ऊँ बुधाय नम: शुद्धोदक स्नानम् समर्पयामि। यज्ञोपवीत,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को यज्ञोपवीत अर्पित करें :- ऊँ सुबुद्धिप्रदाय नम: यज्ञोपवीतम् समर्पयामि वस्त्र,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को वस्त्र अर्पित करें :- ऊँ दुर्बुद्धिनाशाय नम: वस्त्रम् समर्पयामि गंध,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को गंध अर्पित करें :- ऊँ सौम्यग्रहाय नम: गंधम् समर्पयामि। अक्षत,,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को अक्षत अर्पित करें :- ऊँ सर्वसौख्यप्रदाय नम: अक्षतम् समर्पयामि। पुष्प,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को पुष्प अर्पित करें :- ऊँ सोमात्मजाय नम: पुष्पम् समर्पयामि। पुष्पमाला,,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को पुष्पमाला अर्पित करें :- ऊँ बुधाय नम: पुष्पमाला समर्पयामि। धूप,,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को धूप अर्पित करें :- ऊँ दुर्बुद्धिनाशाय नम: धूपम् समर्पयामि दीप ,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को दीप दिखायें:- ऊँ सुबुद्धिप्रदाय नम: दीपम् दर्शयामि नैवेद्य ,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को नैवेद्य अर्पित करें:- ऊँ सौम्यग्रहाय नम: नैवेद्यम् समर्पयामि आचमन ,,पुष्प से आचमन के लिये बुध देव को जल अर्पित करते हुये मंत्र का उच्चारण करें:- ऊँ सर्वसौख्यप्रदाय नम: आचमनीयम् जलम् समर्पयामि। करोद्धर्तन ,,मंत्र उच्चारण के द्वारा बुध देव को करोद्धर्तन के लिये चंदन अर्पित करें:- ऊँ सोमात्मजाय नम: करोद्धर्तन समर्पयामि। ताम्बुलम् ,,,पान के पत्ते को पलट कर उस लौंग,इलायची,सुपारी, कुछ मीठा रखकर दो ताम्बूल बनायें। मंत्र के द्वारा बुध देव को ताम्बुल अर्पित करें:- ऊँ बुधाय नम: ताम्बूलम् समर्पयामि। दक्षिणा ,, मंत्र के द्वारा बुध देव को दक्षिणा अर्पित करें:- ऊँ दुर्बुद्धिनाशाय नम: दक्षिणा समर्पयामि | हवन –कुण्ड में आम की समिधा सजायें। हवन कुण्ड की पंचोपचार विधि से पूजा करें। हवन सामग्री में घी, तिल, जौ तथा चावल मिलाकर निम्न मंत्र के द्वारा 108 आहुति दें :- ऊँ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ।।स्वाहा॥ आरती। ,एक थाली या आरती के पात्र में दीपक तथा कपूर प्रज्वलित कर गणेश जी की आरती उसके बाद बुध देव की आरती करें:- श्री गणेश जी की आरती,, जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा, माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा, जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा !! !! एक दंत दयावंत, चार भुजाधारी, माथे पे सिंदूर सोहे, मूसे की सवारी, जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा !! !! अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया, बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया, जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा !! !! हार चढ़ै, फूल चढ़ै और चढ़ै मेवा, लड्डुअन को भोग लगे, संत करे सेवा, जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा !! !! दीनन की लाज राखो, शंभु सुतवारी, कामना को पूर्ण करो, जग बलिहारी, जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा !! बुध देव की आरती,,आरती युगलकिशोर की कीजै । तन मन न्यौछावर कीजै।। गौरश्याम मुख निरखन लीजे। हरी को स्वरुप नयन भरी पीजै ॥ रवि शशि कोटि बदन की शोभा। ताहि निरिख मेरो मन लोभा ॥ ओढे नील पीत पट सारी । कुंज बिहारी गिरिवर धारी॥ फूलन की सेज फूलन की माला । रतन सिंहासन बैठे नंदलाला॥ कंचन थार कपूर की बाती । हरी आए निर्मल भई छाती॥ श्री पुरषोत्तम गिरिवर धारी। आरती करत सकल ब्रज नारी॥ नन्द -नंदन वृषभानु किशोरी । परमानन्द स्वामी अविचल जोरी॥ आरती का तीन बार प्रोक्षण करके सबसे पहले सभे देवी-देवताओं को आरती दें। उसके बाद उपस्थित व्यक्तियों को आरती दिखायें एवं स्वयं भी आरती ले। प्रदक्षिणा अपने स्थान पर खड़े हो जायें और बायें से दायें की ओर घूमकर प्रदक्षिणा करें:- ऊँ सुबुद्धिप्रदाय नम: प्रदक्षिणा समर्पयामि दोनों हाथ जोड़कर मंत्र के द्वारा बुध देव से प्रार्थना करें:- प्रियंग कालिकाभासं रूपेणाप्रतिमं बुधम्। सौम्य सौम्य गुणापेतं तं बुधप्रणमाम्यहम्॥ क्षमा-प्रार्थना ,,दोनों हाथ जोड़कर क्षमा प्रार्थना करें:- आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम् । पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर: ॥ विसर्जन विसर्जन के लिये हाथ में अक्षत , पुष्प लेकर मंत्र –उच्चारण के द्वारा विसर्जन करें :- स्वस्थानं गच्छ देवेश परिवारयुत: प्रभो । पूजाकाले पुनर्नाथ त्वग्राऽऽगन्तव्यमादरात्॥ अब 21 अथवा सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन करायें और दक्षिणा और भगवान गणेश के किसी भी स्तोत्र अथवा पाठ की एक एक पुस्तक हरे वस्त्र सहित दें। तत्पश्चात् बंधु-बांधवों सहित स्वयं भोजन करें। श्री गणेश चालीसा ॥दोहा॥ जय गणपति सदगुण सदन, कविवर बदन कृपाल। विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥ ॥चौपाई॥ जय जय जय गणपति गणराजू। मंगल भरण करण शुभः काजू॥ जै गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायका बुद्धि विधाता॥ वक्र तुण्ड शुची शुण्ड सुहावना। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥ राजत मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥ पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥ सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनि मन राजित॥ धनि शिव सुवन षडानन भ्राता। गौरी लालन विश्व-विख्याता॥ ऋद्धि-सिद्धि तव चंवर सुधारे। मुषक वाहन सोहत द्वारे॥ कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी। अति शुची पावन मंगलकारी॥ एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥ भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरी द्विज रूपा॥ अतिथि जानी के गौरी सुखारी। बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥ अति प्रसन्न हवै तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥ मिलहि पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला। बिना गर्भ धारण यहि काला॥ गणनायक गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम रूप भगवाना॥ अस कही अन्तर्धान रूप हवै। पालना पर बालक स्वरूप हवै॥ बनि शिशु रुदन जबहिं तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरी समाना॥ सकल मगन, सुखमंगल गावहिं। नाभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं॥ शम्भु, उमा, बहुदान लुटावहिं। सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं॥ लखि अति आनन्द मंगल साजा। देखन भी आये शनि राजा॥ निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं। बालक, देखन चाहत नाहीं॥ गिरिजा कछु मन भेद बढायो। उत्सव मोर, न शनि तुही भायो॥ कहत लगे शनि, मन सकुचाई। का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई॥ नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ। शनि सों बालक देखन कहयऊ॥ पदतहिं शनि दृग कोण प्रकाशा। बालक सिर उड़ि गयो अकाशा॥ गिरिजा गिरी विकल हवै धरणी। सो दुःख दशा गयो नहीं वरणी॥ हाहाकार मच्यौ कैलाशा। शनि कीन्हों लखि सुत को नाशा॥ तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो। काटी चक्र सो गज सिर लाये॥ बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो॥ नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्धि निधि, वर दीन्हे॥ बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा॥ चले षडानन, भरमि भुलाई। रचे बैठ तुम बुद्धि उपाई॥ चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥ धनि गणेश कही शिव हिये हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥ तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई। शेष सहसमुख सके न गाई॥ मैं मतिहीन मलीन दुखारी। करहूं कौन विधि विनय तुम्हारी॥ भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। जग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा॥ अब प्रभु दया दीना पर कीजै। अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै॥ ॥दोहा॥ श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान। नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥ सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश। पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ती गणेश॥ गणपति अथर्वशीर्ष का हिन्दी अनुवाद सहित गणेश जी की अनेक श्लोक, स्तोत्र, जाप द्वारा गणेशजी को मनाया जाता है। इनमें से गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ भी बहुत मंगलकारी है। गणपति अथर्वशीर्ष ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि त्वमेव केवलं कर्ताऽ सि त्वमेव केवलं धर्ताऽसि त्वमेव केवलं हर्ताऽसि त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1। । अर्थ,, ॐकारापति भगवान गणपति को नमस्कार है। हे गणेश! तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो। तुम्हीं केवल कर्ता हो। तुम्हीं केवल धर्ता हो। तुम्हीं केवल हर्ता हो। निश्चयपूर्वक तुम्हीं इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो। तुम साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो। ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।। अर्थ ,, मैं ऋत न्याययुक्त बात कहता हूँ। सत्य कहता हूँ। अव त्व मां। अव वक्तारं। अव श्रोतारं। अव दातारं। अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं। अव पश्चातात। अव पुरस्तात। अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्। अवचोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।। सर्वतो माँ पाहि-पाहि समंतात्।।3।। अर्थ , हे पार्वतीनंदन! तुम मेरी (मुझ शिष्य की) रक्षा करो। वक्ता (आचार्य) की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। व्याख्या करने वाले आचार्य की रक्षा करो। शिष्य की रक्षा करो। पश्चिम से रक्षा। पूर्व से रक्षा करो। उत्तर से रक्षा करो। दक्षिण से रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे से रक्षा करो। सब ओर से मेरी रक्षा करो। चारों ओर से मेरी रक्षा करो। त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:। त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽषि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माषि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽषि।।4।। अर्थ ,, तुम वाङ्‍मय हो, चिन्मय हो। तुम आनंदमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानंद अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम दानमय विज्ञानमय हो। सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:। त्वं चत्वारिकाकूपदानि।।5।। अर्थ ,,यह जगत तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत तुममें लय को प्राप्त होगा। इस सारे जगत की तुममें प्रतीति हो रही है। तुम भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। परा, पश्चंती, बैखरी और मध्यमा वाणी के ये विभाग तुम्हीं हो। त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:। त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं। त्वं शक्तित्रयात्मक:। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।। अर्थ तुम सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म औ वर्तमान तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो। तुम्हारा योगीजन नित्य ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चंद्रमा हो, तुम ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य पर ब्रह्म भी तुम हो। गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं। तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं। गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं। अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं। नाद: संधानं। सँ हितासंधि: सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि: निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नम:।।7।। अर्थ ,, गण के आदि अर्थात 'ग्' कर पहले उच्चारण करें। उसके बाद वर्णों के आदि अर्थात 'अ' उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार उच्चारित होता है। इस प्रकार अर्धचंद्र से सुशोभित 'गं' ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप (ॐ गं) है। गकार इसका पूर्वरूप है।बिन्दु उत्तर रूप है। नाद संधान है। संहिता संविध है। ऐसी यह गणेश विद्या है। इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं। निचृंग्दाय छंद है श्री मद्महागणपति देवता हैं। वह महामंत्र है- ॐ गं गणपतये नम:। एकदंताय विद्‍महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात।।8। अर्थ ,, एक दंत को हम जानते हैं। वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें। यह गणेश गायत्री है। एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्। रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्। रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।। भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।। अर्थ ,,एकदंत चतुर्भज चारों हाथों में पाक्ष, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए तथा मूषक चिह्न की ध्वजा लिए हुए, रक्तवर्ण लंबोदर वाले सूप जैसे बड़े-बड़े कानों वाले रक्त वस्त्रधारी शरीर प रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से भलिभाँति पूजित। भक्त पर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्रीगणेशजी का जो नित्य ध्यान करता है, वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है। नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नम: प्रमथपतये। नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय। विघ्ननाशिने शिवसुताय। श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।। अर्थ ,, व्रात (देव समूह) के नायक को नमस्कार। गणपति को नमस्कार। प्रथमपति (शिवजी के गणों के अधिनायक) के लिए नमस्कार। लंबोदर को, एकदंत को, शिवजी के पुत्र को तथा श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार-नमस्कार ।।10।। एतदथर्वशीर्ष योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते। स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते। स सर्वत: सुखमेधते। स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।। अर्थ ,, यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद का उप‍‍‍निषद) है। इसका पाठ जो करता है, ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। सब प्रकार के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते। वह सब जगह सुख पाता है। वह पाँचों प्रकार के महान पातकों तथा उपपातकों से मुक्त हो जाता है। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति। सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।। अर्थ ,, सायंकाल पाठ करने वाला दिन के पापों का नाश करता है। प्रात:काल पाठ करने वाला रात्रि के पापों का नाश करता है। जो प्रात:- सायं दोनों समय इस पाठ का प्रयोग करता है वह निष्पाप हो जाता है। वह सर्वत्र विघ्नों का नाश करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है। इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्। यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति। सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।। अर्थ ,, इस अथर्वशीर्ष को जो शिष्य न हो उसे नहीं देना चाहिए। जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है। सहस्र (हजार) बार पाठ करने से जिन-जिन कामों-कामनाओं का उच्चारण करता है, उनकी सिद्धि इसके द्वारा ही मनुष्य कर सकता है। अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति स विद्यावान भवति। इत्यथर्वणवाक्यं। ब्रह्माद्यावरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति।।14।। अर्थ ,, इसके द्वारा जो गणपति को स्नान कराता है, वह वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्व वाक्य है जो इस मं‍त्र के द्वारा तपश्चरण करना जानता है वह कदापि भय को प्राप्त नहीं होता। यो दूर्वांकुरैंर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति स मेधावान भवति। यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छित फलमवाप्रोति। य: साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।। अर्थ ,,जो दूर्वांकुर के द्वारा भगवान गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धानी-लाई) के द्वारा यजन करता है वह यशस्वी होता है, मेधावी होता है। जो सहस्र (हजार) लड्डुओं (मोदकों) द्वारा यजन करता है, वह वांछित फल को प्राप्त करता है। जो घृत के सहित समिधा से यजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति। सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति। महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महादोषात्प्रमुच्यते। महापापात् प्रमुच्यते। स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति। य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।। अर्थ , आठ ब्राह्मणों को सम्यक रीति से ग्राह कराने पर सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्य ग्रहण में महानदी में या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्र सिद्धि होती है। वह महाविघ्न से मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है। साधक इस दिन सामर्थ्य अनुसार श्रीगणेश सहस्त्र नामावली का पाठ करना चाहे तो अति उत्तम है क्योंकि पूजा पाठ से ज्यादा तप का महत्त्व है किसी भी रूप में अधिक से अधिक समय भगवान का नाम स्मरण भी तप की ही श्रेणी में आता है। Gyanchand Bundiwal. 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श्री पंचमुखी गणेश जी

श्री पंचमुखी गणेश जी आपने पंच मुखी हनुमानजी की तरह आपने पंचमुखी गणेशजी की भी प्रतिमाएं देखी होगी। क्या आप जानते है क्या है इनका अर्थ https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5।,,,,,,,,,,,Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557 शुभ और मंगलमयी होते हैं पंचमुखी गणेश पांच मुख वाले गजानन को पंचमुखी गणेश कहा जाता है। पंच का अर्थ है पांच। मुखी का मतलब है मुंह। ये पांच पांच कोश के भी प्रतीक हैं। वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के माध्यम से समझाया गया है। इन पंचकोश को पांच तरह का शरीर कहा गया है। पहला कोश है अन्नमय कोश-संपूर्ण जड़ जगत जैसे धरती, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि; ये सब अन्नमय कोश कहलाता है। दूसरा कोश है प्राणमय कोश-जड़ में प्राण आने से वायु तत्व धीरे-धीरे जागता है और उससे कई तरह के जीव प्रकट होते हैं। यही प्राणमय कोश कहलाता है। तीसरा कोश है मनोमय कोश-प्राणियों में मन जाग्रत होता है और जिनमें मन अधिक जागता है वही मनुष्य बनता है। चौथा कोश है विज्ञानमय कोश-सांसारिक माया भ्रम का ज्ञान जिसे प्राप्त हो। सत्य के मार्ग चलने वाली बोधि विज्ञानमय कोश में होता है। यह विवेकी मनुष्य को तभी अनुभूत होता है जब वह बुद्धि के पार जाता है। पांचवां कोश है आनंदमय कोश-ऐसा कहा जाता है कि इस कोश का ज्ञान प्राप्त करने के बाद मानव समाधि युक्त अतिमानव हो जाता है। मनुष्यों में शक्ति होती है भगवान बनने की और इस कोश का ज्ञान प्राप्त कर वह सिद्ध पुरुष होता है। जो मानव इन पांचों कोशों से मुक्त होता है, उनको मुक्त माना जाता है और वह ब्रह्मलीन हो जाता है। गणेश जी के पांच मुख सृष्टि के इन्हीं पांच रूपों के प्रतीक हैं। पंच मुखी गणेश चार दिशा और एक ब्रह्मांड के प्रतीक भी माने गए हैं अत: वे चारों दिशा से रक्षा करते हैं। वे पांच तत्वों की रक्षा करते हैं। घर में इनको उत्तर या पूर्व दिशा में रखना मंगलकारी होता है। ईश्वर आदि हैं, अनंत हैं। उनका स्वरूप निराकार है। फिर भी प्रत्येक तीर्थस्थल, मंदिर और मठ में उनके विभिन्न स्वरूपों की पूजा होती है। आज हम आपको भगवान गणेश के ऐसे ही एक स्वरूप के दर्शन करा रहे हैं। मंदिर में भगवान गणेश के पंचमुखी स्वरूप के दर्शन करने के लिये सालभर भक्तों की भीड़ लगी रहती है। मंदिर के पुजारी का मानना है कि मदार के पेड़ में गणेश की यह मूर्ति स्वयंभू है। न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में शायद ही गणेश जी का ऐसा स्वरूप देखने को मिलता है। Gyanchand Bundiwal. Kundan Jewellers We deal in all types of gemstones and rudraksha. Certificate Gemstones at affordable prices. हमारे यहां सभी प्रकार के नवग्रह के रत्न और रुद्राक्ष होल सेल भाव में मिलते हैं और टेस्टिंग कीये जाते है ज्योतिष रत्न परामर्श के लिए सम्पर्क करें मोबाइल 8275555557 website www.kundanjewellersnagpur.com

आरती कैसे करना चाहिए, arti kaise karna

आरती कैसे करना arti kaise karna चाहिए, आरती का महत्व आरती कितने प्रकार की होती है पूजा के बाद क्यों आरती जरूरी है हिन्दू धर्म मे पूजा उपरांत आरती करने का विशेष महत्त्व है इसके बिना कोई भी पूजा पूर्ण नही मानी जाती मान्यता के अनुसार जो त्रुटि पूजन में रह जाती है वह आरती में पूरी हो जाती है। आरती का धार्मिक महत्व होने के साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। याद कीजिए आरती की थाल में कौन कौन सी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। आपके दिमाग में रुई, घी, कपूर, फूल, चंदन जरूर आ गया होगा। रुई शुद्घ कपास होता है इसमें किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती है। इसी प्रकार घी भी दूध का मूल तत्व होता है। कपूर और चंदन भी शुद्घ और सात्विक पदार्थ है। जब रुई के साथ घी और कपूर की बाती जलाई जाती है तो एक अद्भुत सुगंध वातावरण में फैल जाती है। इससे आस-पास के वातावरण में मौजूद नकारत्मक उर्जा भाग जाती है और सकारात्मक उर्जा का संचार होने लगता है। आरती में बजने वाले शंख और घड़ी-घंटी के स्वर के साथ जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है उसके प्रति मन केन्द्रित होता है जिससे मन में चल रहे द्वंद का अंत होता है। हमारे शरीर में सोई आत्मा जागृत होती है जिससे मन और शरीर उर्जावान हो उठता है। और महसूस होता है कि ईश्वर की कृपा मिल रही है। स्कन्द पुराण में कहा गया है मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:। सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।। अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है। आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है- नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:। सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।। अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है, वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है। श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत। कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।। अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है। आरती में पहले मूल मंत्र (जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए। ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्। महानिराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।। प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा। आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्दिकम्।। अर्थात - साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे 'पञ्चप्रदीप' भी कहते है। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कर्पूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में कहा है कुङ्कुमागुरुकर्पुरघृतचंदननिर्मिता:। वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्वा वा दीपवर्तिकाम्।। कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शङ्खघण्टादिवाद्यकै:। अर्थात - कुङ्कुम, अगर, कर्पूर, घृत और चंदन की पाँच या सात बत्तियां बनाकर शङ्ख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुवे आरती करनी चाहिए। आरती के पाँच अंग होते है। पञ्च नीराजनं कुर्यात प्रथमं दीपमालया। द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।। चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्। पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधि।। अर्थात - प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शङ्ख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, आम व् पीपल अदि के पत्तों से और पाँचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करें। आदौ चतुः पादतले च विष्णो द्वौं नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्। सर्वेषु चाङ्गेषु च सप्तवारा नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।। अर्थात - आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाए, दो बार नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंङ्गो पर घुमाए। यथार्थ में आरती पूजन के अंत में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। आरती के दो भाव है जो क्रमशः 'नीराजन' और 'आरती' शब्द से व्यक्त हुए है। नीराजन (निःशेषण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेषरूप से, निःशेषरूप से प्रकाशित करना। अनेक दिप-बत्तियां जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का यही अभिप्राय है कि पूरा-का-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंङ्ग-प्रत्यङ्ग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाये, जिसमें दर्शक या उपासक भलिभांति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके। दूसरा 'आरती' शब्द (जो संस्कृत के आर्ति का प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है अरिष्ट) विशेषतः माधुर्य-उपासना से सम्बंधित है। आरती-वारना का अर्थ है आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना। इस रूप में यह एक तांत्रिक क्रिया है, जिसमे प्रज्वलित दीपक अपने इष्टदेव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्न बधाये टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है कि उनकी आर्ति (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बली जाना, वारी जाना न्यौछावर होना आदि प्रयोग इसी भाव के द्योतक है। इसी रूप में छोटे बच्चों की माताए तथा बहिने लोक में भी आरती उतारती है। यह आरती मूल रूप में कुछ मंत्रोच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के लिए उसी भाव से उतारी जाती रही है। आज कल वैदिक उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण भी होता है तथा पौराणिक एवं तांत्रिक उपासना में उसके साथ सुंदर-सुंदर भावपूर्ण पद्य रचनाएँ भी गायी जाती है। ऋतू, पर्व पूजा के समय आदि भेदों से भी आरती गायी जाती है। बिना मंत्र के किए गए पूजन में भी आरती कर लेने से पूर्णता आ जाती है। 1,आरती दीपक से क्यों रुई के साथ घी की बाती जलाई जाती है। घी समृद्धि प्रदाता है। घी रुखापन दूर कर स्निग्धता प्रदान करता है। भगवान को अर्पित किए गए घी के दीपक का मतलब है कि जितनी स्निग्धता इस घी में है। उतनी ही स्निग्धता से हमारे जीवन के सभी अच्छे कार्य बनते चले जाएं। कभी किसी प्रकार की रुकावटों का सामना न करना पड़े। 2,आरती में शंख ध्वनि और घंटा ध्वनि क्यों आरती में बजने वाले शंख और घंटी के स्वर के साथ,जिस किसी देवता को ध्यान करके गायन किया जाता है। उससे मन एक जगह केन्द्रित होता है,जिससे मन में चल रहे विचारों की उथल-पुथल कम होती जाती है। शरीर का रोम-रोम पुलकित हो उठता है,जिससे शरीर और ऊर्जावान बनता है। 3,आरती कर्पूर से क्यों, कर्पूर की महक तेजी से वायुमंडल में फैलती है। ब्रह्मांड में मौजूद सकारात्मक शक्तियों(दैवीय शक्तियां)को यह आकर्षित करती है। आरती वह माध्यम है जिसके द्वारा देवीय शक्ति को पूजन स्थल तक पहुंचने का मार्ग मिल जाता है। 4, आरती करते हुए भक्त के मन में ऐसी भावना होनी चाहिए कि मानो वह पंच-प्राणों (पूरे मन के साथ) की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति को आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानना चाहिए। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं तो यह पंचारती कहलाती है। 5, आरती दिन में एक से पांच बार की जा सकती है। घरों में आरती दो बार की जाती है। प्रातःकालीन आरती और संध्याकालीन आरती। 6, दीपभक्ति विज्ञान के अनुसार आरती से पहले भगवान को नमस्कार करते हुए तीन बार फूल अर्पित करना चाहिए। 7, उसके बाद एक दीपक में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या में यानी कि 3, 5 या 7 बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है,जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। इसके बाद कर्पूर से आरती की जाती है। कर्पूर का धुंआ वायुमंडल में जाकर मिलता है। यहां धुआं हमारे पूजन कार्य को ब्रंह्माडकीय शक्ति तक पहुंचाने का कार्य करता है। 8, किसी विशेष पूजन में आरती पांच चीजों से की जा सकती है। पहली धूप से, दूसरी दीप से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, कर्पूर से,पांचवी जल से। कैसे सजाना चाहिए आरती का थाल आरती के थाल में एक जल से भरा लोटा, अर्पित किए जाने वाले फूल, कुमकुम, चावल, दीपक, धूप, कर्पूर, धुला हुआ वस्त्र, घंटी, आरती संग्रह की किताब रखी जाना चाहिए। थाल में कुमकुम से स्वस्तिक की आकृति बना लें। थाल पीतल या तांबे का लिया जाना चाहिए। आरती करने की विधि 9, भगवान के सामने आरती इस प्रकार से घुमाते हुए करना चाहिए कि ऊँ जैसी आकृति बने। 10, अलग-अलग देवी-देवताओं के सामने दीपक को घुमाने की संख्या भी अलग है, जो इस प्रकार है। भगवान शिव के सामने तीन या पांच बार घुमाएं। भगवान गणेश के सामने चार बार घुमाएं। भगवान विष्णु के सामने बारह बार घुमाएं। भगवान रूद्र के सामने चौदह बार घुमाएं। भगवान सूर्य के सामने सात बार घुमाएं। भगवती दुर्गा जी के सामने नौ बार घुमाएं। अन्य देवताओं के सामने सात बार घुमाएं। यदि दीपक को घुमाने की विधि को लेकर कोई उलझन हो रही हो तो आगे दी गई विधि से किसी भी देवी या देवता की आरती की जा सकती है। 11, आरती अपनी बांई ओर से शुरू करके दाईं ओर ले जाना चाहिए। इस क्रम को सात बार किया जाना चाहिए। सबसे पहले भगवान की मूर्ति के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार और मुखमंडल में एक बार घुमाना चाहिए। इसके बाद देवमूर्ति के सामने आरती को गोलाकार सात बार घुमाना चाहिए। 12, पद्म पुराण में आरती के लिए कहा गया है कि कुंकुम, अगर, कपूर, घी और चन्दन की सात या पांच बत्तियां बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियां बनाकर शंख, घंटा आदि बजाते हुए आरती करनी चाहिए। 13, भगवान की आरती हो जाने के बाद थाल के चारों ओर जल घुमाया जाना चाहिए, जिससे आरती शांत की जाती है। 6, भगवान की आरती सम्पन्न हो जाने के बाद भक्तों को आरती दी जाती है। आरती अपने दाईं ओर से दी जानी चाहिए। 14, सभी भक्त आरती लेते हैं। आरती लेते समय भक्त अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ते हैं। आरती पर से घुमा कर अपने माथे पर लगाते हैं। जिसके पीछे मान्यता है कि ईश्वरीय शक्ति उस ज्योत में समाई रहती हैं। जिस शक्ति का भाग भक्त माथे पर लेते हैं। एक और मान्यता के अनुसार इससे ईश्वर की नजर उतारी जाती है। जिसका असली कारण भगवान के प्रति अपने प्रेम व भक्ति को जताना होता है। Gyanchand Bundiwal. 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शिव भगवान को कैसे मिले नाग, डमरु, त्रिशूल, त्रिपुंड और नंदी ।

शिव भगवान को कैसे मिले नाग, डमरु, त्रिशूल, त्रिपुंड और नंदी शिव जी का त्रिशूल भगवान शिव का ध्यान करने मात्र से मन में जो एक छवि उभरती है वो एक वैरागी पुरुष की। इनके एक हाथ में त्रिशूल, दू सरे हाथ में डमरु, गले में सर्प माला, सिर पर त्रिपुंड चंदन लगा हुआ है। माथे पर अर्धचन्द्र और सिर पर जटाजूट जिससे गंगा की धारा बह रही है। थोड़ा ध्यान गहरा होने पर इनके साथ इनका वाहन नंदी भी नजर आता है। कहने का मतलब है कि शिव के साथ ये 7 चीजें जुड़ी हुई हैं। आप दुनिया में कहीं भी चले जाइये आपको शिवालय में शिव के साथ ये 7 चीजें जरुर दिखेगी। आइये जानें कि शिव के साथ इनका संबंध कैसे बना यानी यह शिव जी से कैसे जुड़े। क्या यह शिव के साथ ही प्रकट हुए थे या अलग-अलग घटनाओं के साथ यह शिव से जुड़ते गए। भगवान शिव सर्वश्रेष्ठ सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता हैं लेकिन पौराणिक कथाओं में इनके दो प्रमुख अस्त्रों का जिक्र आता है एक धनुष और दूसरा त्रिशूल। त्रिपुरासुर का वध और अर्जुन का मान भंग, यह दो ऐसी घटनाएं हैं जहां शिव जी ने अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन किया था। जबकि त्रिशूल का प्रयोग शिव जी ने कई बार किया है। त्रिशूल से शिव जी ने शंखचूर का वध किया था। इसी से गणेश जी का सिर काटा था और वाराह अवतार में मोह के जाल में फंसे विष्णु जी का मोह भंग कर बैकुण्ठ जाने के लिए विवश किया था। भगवान शिव के धनुष के बारे में तो यह कथा है कि इसका आविष्कार स्वयं शिव जी ने किया था। लेकिन त्रिशूल कैसे इनके पास आया इस विषय में कोई कथा नहीं है। माना जाता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो साथ ही रज, तम, सत यह तीनों गुण भी प्रकट हुए। यही तीनों गुण शिव जी के तीन शूल यानी त्रिशूल बने। इनके बीच सांमजस्य बनाए बगैर सृष्टि का संचालन कठिन था। इसलिए शिव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण किया। शिव जी का डमरू. भगवान शिव जी को संहारकर्ता के रूप में वेदों और पुराणों में बताया गया है। जबकि शिव का नटराज रूप ठीक इसके विपरीत है। यह प्रसन्न होते हैं और नृत्य करते हैं। इस समय शिव के हाथों में एक वाद्ययंत्र होता है जिसे डमरू करते हैं। इसका आकार रेत घड़ी जैसा है जो दिन रात और समय के संतुलन का प्रतीक है। शिव भी इसी तरह के हैं। इनका एक स्वरूप वैरागी का है तो दूसरा भोगी का है जो नृत्य करता है परिवार के साथ जीता है। इसलिए शिव के लिए डमरू ही सबसे उचित वाद्य यंत्र है। यह भी माना जाता है कि ‌जिस तरह शिव आदि देव हैं उसी प्रकार डमरू भी आदि वाद्ययंत्र है। भगवन शिव के हाथों में डमरू आने की कहानी बड़ी ही रोचक है। सृष्टि के आरंभ में जब देवी सरस्वती प्रकट हुई तब देवी ने अपनी वीणा के स्वर से सष्टि में ध्वनि जो जन्म दिया। लेकिन यह ध्वनि सुर और संगीत विहीन थी। उस समय भगवान शिव ने नृत्य करते हुए चौदह बार डमरू बजाए और इस ध्वनि से व्याकरण और संगीत के धन्द, ताल का जन्म हुआ। कहते हैं कि डमरू ब्रह्म का स्वरूप है जो दूर से विस्तृत नजर आता है लेकिन जैसे-जैसे ब्रह्म के करीब पहुंचते हैं वह संकुचित हो दूसरे सिरे से मिल जाता है और फिर विशालता की ओर बढ़ता है। सृष्टि में संतुलन के लिए इसे भी भगवान शिव अपने साथ लेकर प्रकट हुए थे। शिव के गले में विषधर ना भगवान शिव के साथ हमेशा नाग होता है। इस नाग का नाम है वासुकी। इस नाग के बारे में पुराणों में बताया गया है कि यह नागों के राजा हैं और नागलोक पर इनका शासन है। सागर मंथन के समय इन्होंने रस्सी का काम किया था जिससे सागर को मथा गया था। कहते हैं कि वासुकी नाग शिव के परम भक्त थे। इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव जी ने इन्हें नागलोक का राजा बना दिया और साथ ही अपने गले में आभूषण की भांति लिपटे रहने का वरदान दिया। नंदी ऐसे बने शिव के वाहन नंदी के बारे में पुराणों में जो कथा मिलती है उसके अनुसार नंदी और शिव वास्तव में एक ही हैं। शिव ने ही नंदी रूप में जन्म लिया था। कथा है कि शिलाद नाम के ऋषि मोह माया से मुक्त होकर तपस्या में लीन हो गए। इससे इनके पूर्वज और पितरों को चिंता हुई कि इनका वंश समाप्त हो जाएगा। पितरों की सलाह पर शिलाद ने शिव जी की तपस्या करके एक अमर पुत्र को प्राप्त किया जो नंदी नाम से जाना गया। शिव का अंश होने के कारण नंदी शिव के करीब रहना चाहता था। शिव जी की तपस्या से नंदी शिव के गणों में प्रमुख हुए और वृषभ रूप में शिव का वहन बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। शिव के सिर पर चन्द्र कैसे पहुंचे शिव पुराण के अनुसार चन्द्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 कन्याओं से हुआ था। यह कन्याएं 27 नक्षत्र हैं। इनमें चन्द्रमा रोहिणी से विशेष स्नेह करते थे। इसकी शिकायत जब अन्य कन्याओं ने दक्ष से की तो दक्ष ने चन्द्रमा को क्षय होने का शाप दे दिया। इस शाप बचने के लिए चन्द्रमा ने भगवान शिव की तपस्या की। चन्द्रमा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने चन्द्रमा के प्राण बचाए और उन्हें अपने शीश पर स्थान दिया। जहां चन्द्रमा ने तपस्या की थी वह स्थान सोमनाथ कहलाता है। मान्यता है कि दक्ष के शाप से ही चन्द्रमा घटता बढ़ता रहता है। शिव के माथे पर त्रिपुंड इस तरह आया भगवान शिव के माथे पर भभूत (राख) से बनी तीन रेखाएं हैं। माना जाता है कि यह तीनों लोको का प्रतीक है। इसे रज, तम और सत गुणों का भी प्रतीक माना जाता है। लेकिन शिव के माथे पर भभूत की यह तीन रेखाएं कैसे आयी इसकी बड़ी रोचक कथा है। पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजपति के यज्ञ कुंड में सती के आत्मदाह करने के बाद भगवान शिव उग्र रूप धारण कर लेते हैं और सती के देह को कंधे पर लेकर त्रिलोक में हहाकार मचाने लगते हैं। अंत में विष्णु चक्र से सती के देह को खंडित कर देते हैं। इसके बाद भगवान शिव अपने माथे पर हवन कुंड की राख मलते और इस तरह सती की याद को त्रिपुंड रूप में माथे पर स्थान देते हैं। इस तरह शिव की जटा में समाई गंगा भगवान शिव के माथे पर गंगा के विराजमान होने की घटना का संबंध राजा भगीरथ से माना जाता है। कथा है कि भगीरथ ने अपने पूर्वज सगर के पुत्रों को मुक्ति दिलाने के लिए गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा था। लेकिन इस कथा के पीछे कई कथाएं हैं जिनसे भगीरथ का प्रयास सफल हुआ। कथा है कि ब्रह्मा की पुत्री गंगा बड़ी मनमौजी थी एक दिन दुर्वासा ऋषि जब नदी में स्नान करने आए तो हवा से उनका वस्त्र उड़ गया और तभी गंगा हंस पड़ी। क्रोधी दुर्वासा ने गंगा को शाप दे दिया कि तुम धरती पर जाओगी और पापी तुम में अपना पाप धोएंगे। इस घटना के बाद भगीरथ का तप शुरू हुआ और भगवान शिव ने भगीरथ को वरदान देते हुए गंगा को स्वर्ग से धरती पर आने के लिए कहा। लेकिन गंगा के वेग से पृथ्वी की रक्षा के लिए शिव जी ने उन्हें अपनी जटाओं में बांधना पड़ा। कथा यह भी है कि गंगा शिव के करीब रहना चाहती थी इसलिए धरती पर उतरने से पहले प्रचंड रूप धारण कर लिया। इस स्थिति को संभालने के लिए शिव जी ने गंगा को अपनी जटाओं में स्थान दिया। Gyanchand Bundiwal. 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शिव शंकर के 19 अवतार

शिव शंकर के 19 अवतार 1, वीरभद्र अवतार भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष के यज्ञ में माता सती ने अपना शरीर त्याग दिया था. जब भगवान शिव को यह पता चला, तो गुस्से में उन्होंने अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे क्रोधपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया उस जटा के भाग से भंयकर वीरभद्र प्रकट हुआ शिव के इस अवतार ने दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया था 2, पिप्पलाद अवतार भगवान शिव के इस अवतार का बड़ा महत्व है शनि पीड़ा का समाधान पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सकता है 3,नंदी अवतार भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है. नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है 4,भैरव अवतार शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है 5,अश्वत्थामा महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार थे. ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं और वह आज भी धरती पर रहते हैं 6,शरभावतार शरभावतार भगवान शंकर का छटा अवतार है. शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था 7,गृहपति अवतार भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति. विश्वानर नाम के मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती की इच्छा थी कि उन्हें शिव के समान पुत्र प्राप्ति हो. मुनि विश्वनार ने काशी में भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की और घोर तप किया. उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए 8,ऋषि दुर्वासा भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है. धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के कहने पर पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया 9,हनुमान जी भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है. 10,वृषभ अवतार इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था 11,यतिनाथ अवतार भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व को बताया था 12,कृष्णदर्शन अवतार भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है 13,अवधूत अवतार भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था 14,भिक्षुवर्य अवतार भगवान शंकर देवों के देव हैं. संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं. भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है 15,सुरेश्वर अवतार इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया 16,किरात अवतार इस अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी 17,सुनटनर्तक अवतार पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था. हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे. नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए. जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया था 18,ब्रह्मचारी अवतार दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया. पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे थे 19,यक्ष अवतार यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के गलत और झूठे अहंकार को दूर करने के लिए धारण किया था Gyanchand Bundiwal. Kundan Jewellers We deal in all types of gemstones and rudraksha. Certificate Gemstones at affordable prices. हमारे यहां सभी प्रकार के नवग्रह के रत्न और रुद्राक्ष होल सेल भाव में मिलते हैं और ज्योतिष रत्न परामर्श के लिए सम्पर्क करें मोबाइल 8275555557 website www.kundanjewellersnagpur.com

सूर्य गग्रहण रविवार 21 जून 2020

सूर्य गग्रहण  रविवार 21 जून 2020 प्रारम्भ काल 10,18,
परमग्रास  ,12,01,ग्रहण समाप्ति काल ,13,51 खण्डग्रास की अवधि  ,03,33  मिनट्स https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5
अधिकतम परिमाण ,0.71
सूतक प्रारम्भ  21,38, 20, जून को
सूतक समाप्त ,13,50 ,21 जून,को
बच्चों, बृद्धों और अस्वस्थ लोगों के लिये सूतक प्रारम्भ ,05,29
बच्चों, बृद्धों और अस्वस्थ लोगों के लिये सूतक समाप्त ,13,50
मंत्र जाप भी मन ही मन में करना चाहिए। मान्यता है कि ग्रहण काल में किए गए मंत्र जाप का फल जल्दी मिल सकता है। ग्रहण पूर्ण होने के बाद स्नान करें और स्नान के बाद जरूरतमंद लोगों धन-अनाज का दान करें। इस समय में किए गए शुभ कर्म अक्षय पुण्य प्रदान करते हैं।
इन मंत्रों का कर सकते हैं जाप
ग्रहण के समय में महामृत्युंजय मंत्र ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्, शिव मंत्र ऊँ नम: शिवाय, श्रीकृष्ण के मंत्र कृं कृष्णाय नम:, श्रीराम के मंत्र रां रामाय नम:, गणेशजी के मंत्र श्री गणेशाय नम:, दुर्गा मंत्र दुं दुर्गाय नम:, सूर्य मंत्र ऊँ सूर्याय नम:, चंद्र मंत्र सों सोमाय नम:, हनुमान मंत्र ऊँ रामदूताय नम:, विष्णु मंत्र ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय का जाप कर सकते हैं।
सभी 12 राशियों पर सूर्य ग्रहण का असर
मेष, सिंह, कन्या, कुंभ राशि के लिए सूर्य ग्रहण शुभ फल देने की स्थिति में रहेगा। इन लोगों को भाग्य का साथ मिल सकता है। वृष, मिथुन, कर्क, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर और मीन राशि के लोगों को सतर्क रहकर काम करना होगा। इन लोगों के लिए बाधाएं बढ़ सकती हैं।
सूर्य ग्रहण यहां से देखा जा सकेगा
21 जून को पड़ने वाले इस वार्षिक सूर्य ग्रहण को अफ्रीका के कई हिस्सों में देखा जा सकेगा. अफ्रीका में ये सेंट्रल रिपब्लिक, कांगो और इथोपिया में देखा जा सकेगा. इसके अतिरिक्त यह सूर्य ग्रहण पाकिस्तान के दक्षिण भाग में, उत्तरी भारत और चीन में देखा जा सकेगा.

सूर्य ग्रहण के दौरान इन बातों का ध्‍यान रखें
जब भी सूर्य ग्रहण लगे तो इसे सीधे यानी कि नंगी आंखों से नहीं देखना चाहिए. ऐसा करने से सूर्य से निकलने वाले हानिकारक किरणें आपकी आंखों को काफी नुकसान पहुंचा सकती हैं. यदि कोई भी व्यक्ति सूर्य ग्रहण  देखना चाहता हैं तो सोलर फिल्टर वाले चश्मों का इस्तेमाल करना चाहिए. इनसे सूर्य की हानिकारक किरणें आंखों को नुकसान नहीं पहुंचा पाती हैं.

सूर्य ग्रहण कब होता है?
सूर्य ग्रहण तब लगता है जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच से गुजरता है. इस समयावधि में, चंद्रमा सूर्य की रोशनी को पृथ्वी पर आने से रोकता है और चंद्रमा की पृथ्वी पर जो छाया पड़ती है उसे ही ‘सूर्य ग्रहण’ कहा जाता है.

सूर्य ग्रहण के प्रकार
सूर्य ग्रहण तीन प्रकार के होते हैं. ये पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण, वलयाकार सूर्य ग्रहण है. इस बार पूर्ण सूर्य ग्रहण लग रहा है.
पूर्ण सूर्य ग्रहण उस समय होता है, जब चंद्रमा पृथ्वी के काफ़ी पास रहते हुए पृथ्वी और सूर्य के बीच में आ जाता है और चंद्रमा पूरी तरह से पृथ्वी को अपनी छाया क्षेत्र में ले लेता है. इससे सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाती है.
आंशिक सूर्यग्रहण में चंद्रमा, सूर्य और पृथ्वी के बीच में इस तरह आता है कि सूर्य का कुछ ही भाग पृथ्वी से दिखाई नहीं देता है. इसका मतलब है कि चंद्रमा सूर्य के कुछ भाग को ही अपनी छाया में ले पाता है और इसे आंशिक चंद्र ग्रहण कहते हैं.
वलयाकार सूर्य ग्रहण तब लगता है जब चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में तो आता है लेकिन उसकी पृथ्वी से काफी दूरी होती है. चंद्रमा पूरी तरह से सूर्य को नहीं ढक पाता है एवं सूर्य की बाहरी परत ही प्रकाशित होती है जोकि वलय (रिंग) के रूप में दिखाई पड़ती है. इसे ही वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं.
जन्मांक 1 (1, 10, 19 एवं 28 तारीख को जन्में व्यक्ति)
जन्मांक 1 वालों के लिए यह सूर्य ग्रहण उनके धन के आय को बढ़ाएगा. सूर्य ग्रहण के प्रभाव से आय के नए अवसर बनेंगे. किसी जॉब के लिए किए जा रहे प्रयास में सफलता मिलेगी. आपकी स्थिति समाज में मजबूत होगी. लोगों में लोकप्रियता बढ़ेगी.

जन्मांक 2 ( 2, 11, 20 एवं 29 तारीख को जन्में व्यक्ति)

जन्मांक 2 वालों के लिए यह सलाह है की निवेश सोच समझ कर करें. पैसे की अचानक जरूरत पड़ सकती है. स्वास्थ्य पर ध्यान दें. किसी प्रकार की यात्रा यदि करनी हो तो पूरी सावधानी बरतें. बैंक से लोन आदि सोच समझ कर ही लें. खर्चे बढ़ेंगे. अतः कोई भी काम सोच समझकर करें.

जन्मांक 3 (3, 12, 21 एवं 30 तारीख को जन्में व्यक्ति)

आपको कार्यस्थल पर नयी जिम्मेदारी मिल सकती है. आपकी प्रसंशा होगी. कुछ पुराने मित्रों से फिर से जुड़ाव होगा. आप अपने आपको स्थापित करने में सफल होंगे. यह सूर्य ग्रहण आपको नया आयाम देगा लेकिन स्वास्थ्य के प्रति विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी. इस दौरान आपकी समस्या बढ़ सकती है.

जन्मांक 4 (4, 13, 22 एवं 31 तारीख को जन्में व्यक्ति)

यह सूर्य ग्रहण शुभ होगा. धन लाभ होगा. कार्यस्थल पर प्रभाव में वृद्धि होगी. जमीन जायदाद के मामले में फैसला आपके पक्ष में होगा. आपकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी. अचानक आय के नए श्रोत सामने आएंगे. राजनीति से जुड़े लोगों का पराक्रम बढ़ेगा.

जन्मांक 5 (5, 14 एवं 23 तारीख को जन्में व्यक्ति)

आपको खर्चो में कमी करनी चाहिए. पैसे की जरूरत पर सकती है. स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दें. खास कर स्वास से सम्बंधित कोई समस्या हो तो ध्यान रखें. आय में कमी हो सकती है. प्रेम सम्बन्ध में कटुता आएगी. कार्यस्थल पर वाद विवाद हो सकता है. आपको इस दौरान सतर्क रहने की जरूरत है.

जन्मांक 6 (6, 15 एवं 24 तारीख को जन्में व्यक्ति)

आपके लिए सूर्य ग्रहण का प्रभाव शुभ होगा. आने वाले समय में नए अवसर प्राप्त होंगे. कमर से ऊपर स्वास्थ्य से सम्बंधित समस्या हो सकती है. स्वास्थ्य को लेकर सचेत रहने की जरूरत है. पिता का स्नेह प्राप्त होगा. कुल मिलाकर आपके लिए शुभ प्रभाव होगा.

जन्मांक 7 (7, 1 6 एवं 25 तारीख को जन्में व्यक्ति)

जन्मांक सात के लोगों को संघर्ष करना पड़ सकता है. स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें. धन की हानि हो सकती हैं अतः सोच विचार के ही पैसा लगाएं. किसी खास से मन मुटाव हो सकता है और रिश्ते टूट सकते हैं. परिवार के लोगों पर ध्यान दें और कड़वा ना बोले.

जन्मांक 8 (8, 17 एवं 26 तारीख को जन्में व्यक्ति)

सूर्य ग्रहण का प्रभाव आपके वित्तीय स्थिति पर ठीक रहेगा. इस समय स्वास्थ्य ठीक रहेगा किन्तु किसी प्रकार के दिक्कत होने पर इलाज में विलम्ब ना करें. प्रेम सम्बन्ध में कटुता आएगी और टूट भी सकती है. अतः आप धैर्य और सावधानी से काम करें. अपनी वाणी पर नियंत्रण रखें.
जन्मांक 9 (9, 18 एवं 27 तारीख को जन्में व्यक्ति)
यह सूर्य ग्रहण आपको सहयोग करेगा. इसका प्रभाव आपके संतान, संवाद और पराक्रम पर पड़ेगा. संतान पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. वरीय अधिकारीयों या जिन लोगों से प्रोफेशनल सम्बन्ध है उनसे संवाद बनाए रखें. आपके लिए इस ग्रहण का प्रभाव शुभ रहेगा.
15 खास बातें,,
1. ग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल प्राप्त होता है।
2. ग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक नरक में वास करता है।
3. ग्रहण में 3 प्रहर (9) घंटे पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालक और रोगी डेढ़ प्रहर (4.30 घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं।
4. ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियां डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते। पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।
5. ग्रहण वेध के प्रारंभ में तिल या कुशमिश्रित जल का उपयोग भी अत्यावश्यक परिस्थिति में ही करना चाहिए और ग्रहण शुरू होने से अंत तक अन्न या जल नहीं लेना चाहिए।
6. ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देवपूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल (वस्त्र सहित) स्नान करना चाहिए। स्त्रियां सिर धोए बिना भी स्नान कर सकती हैं।
7. ग्रहण पूर्ण होने पर जिसका ग्रहण हो, उसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
8. ग्रहणकाल में स्पर्श किए हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्र सहित स्नान करना चाहिए।
9. ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरूरतमंदों को वस्त्रदान से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
10. ग्रहण के दिन पत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ने चाहिए, बाल तथा वस्त्र नहीं निचोड़ने चाहिए व दंतधावन नहीं करना चाहिए।
11. ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मलमूत्र का त्याग, मैथुन और भोजन- ये सब कार्य वर्जित हैं।
12. ग्रहण के समय कोई भी शुभ व नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
13. ग्रहण के समय गुरुमंत्र, ईष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें। न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है। ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से 12 वर्षों का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है।
14 . भगवान वेदव्यासजी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चंद्रग्रहण में किया गया पुण्य कर्म (जप, ध्यान, दान आदि) 1 लाख गुना और सूर्यग्रहण में 10 लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगाजल पास में हो तो चंद्रग्रहण में 1 करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में 10 करोड़ गुना फलदायी होता है।
15. गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए। 3 दिन या 1 दिन उपवास करके स्नान-दानादि का ग्रहण में महाफल है किंतु संतानयुक्त गृहस्थ को ग्रहण और संक्रांति के दिन उपवास नहीं करना चाहिए ।,,,,,,,,,,,Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

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