Monday, 31 August 2020

गणेश विसर्जन अनन्‍त चतुर्दशी के लिए शुभ चौघड़िया मुहूर्त

प्रात  चर लाभ  अमृत  सुबह 9 बजकर 10 मिनट से दोपहर 1 बजकर 56 मिनट तक 1 सितंबर  2020
भद्र आरम्भ सितम्बर 1  2020  मंगलवार को 09:38  बजे
भद्र अंत सितम्बर 1  2020  मंगलवार को 22 :12 रात बजे
मुहूर्त शुभ - दोपहर 3 बजकर 32 मिनट से शाम 05 बजकर 07 मिनट तक 1 सितंबर 2020
सायं मुहूर्त(लाभ 8 बजकर 07 मिनट से रात 09 बजकर 32 मिनट तक 1 सितंबर 2020
रात्रि मुहूर्त शुभ अमृत चर  रात 10 बजकर 56 मिनट से सुबह 3 बजकर 10 मिनट तक 2 सितंबर 2020
चतुर्दशी तिथि आरंभ  सुबह 08 बजकर 48 मिनट से 31 अगस्त 2020
चतुर्दशी तिथि समाप्त  सुबह 09 बजकर 38 मिनट तक 1 सितंबर 2020
गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेश की स्थापना को जितना महत्व दिया जाता है उतना ही महत्व भगवा्न गणेश के विसर्जन को दिया जाता है। माना जाता है कि गणेश चतुर्थी के दिन से भगवान गणेश को भक्त अपने घर पांच, सात या दस दिनों तक विराजित करते हैं और उनकी पूरी विधिवत आराधना करते हैं।
इसके बाद भगवान गणेश का विसर्जन चतुर्दशी तिथि को कर दिया जाता है और उनसे प्रार्थना की जाती है कि वह इसी तरह अगले साल भी आएं। शास्त्रों के अनुसार भगवान गणेश की स्थापना करके उनका विधिवत पूजन करके विसर्जन करने से मनुष्य के जीवन की सभी परेशानियां समाप्त होती है और उसे जीवन के सभी सुखों की प्राप्ति होती है।
गणेश विसर्जन पूजा विधि
भगवान गणेश का विसर्जन चतुर्दशी तिथि के दिन किया जाता है। विसर्जन से पहले उनका तिलक करके किया जाता है।
उसके बाद उन्हें फूलों का हार, फल, फूल,मोदक लड्डू आदि चढ़ाए जाते हैं।
इसके बाद भगवान गणेश के मंत्रों का उच्चारण किया जाता है और उनकी आरती उतारी जाती है।
भगवान गणेश को पूजा में जो भी सामग्री चढ़ाई जाती है। उसे एक पोटली में बांध लिया जाता है।
इस पोटली में सभी सामग्री के साथ एक सिक्का भी रखा जाता है और उसके बाद गणेश जी का विसर्जन कर दिया जाता है। भगवान गणेश के विसर्जन के साथ ही इस पोटली को भी बहा दिया जाता है।

गणेश विसर्जन की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार गणेश चतुर्थी से लेकर महाभारत तक की कथा वेद व्यास जी ने गणेश जी को लगातार 10 दिनों तक सुनाई थी। जिसे भगवान श्री गणेश जी ने लगातार लिखा था। दसवें दिन जब भगवान वेद व्यास जी ने अपनी आंखें खोली तो उन्होंने पाया की गणेश जी का शरीर बहुत अधिक गर्म हो गया है। जिसके बाद वेद व्यास जी ने अपने पास के सरोवर के जल से गणेश जी के शरीर को ठंडा किया था।इसी वजह से गणेश जी को चतुदर्शी के दिन शीतल जल में प्रवाह किया जाता है।
इसी कथा अनुसार गणेश जी के शरीर का तापमान इससे अधिक न बढ़े। इसके लिए वेद व्यास जी ने सुगंधित मिट्टी से गणेश जी का लेप भी किया था। जब यह लेप सूखा तो गणेश जी का शरीर अकड़ गया था। जिसके बाद मिट्टी भी झड़ने लगी थी। जिसके बाद उन्हें सरोवर के पानी में ले जाकर शीतल किया गया था। उस समय वेदव्यास जी ने 10 दिनों तक गणेश जी को उनकी पसंद का भोजन भी कराया था। इसी कारण से भगवान श्री गणेश को स्थापित और विसर्जन भी किया जाता है। इन 10 दिनों में गणेश जी को उनकी पसंद का भोजन भी कराया जाता है।
इसीलिए गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेश को घर लाकर उनकी स्थापना की जाती है और पूरे विधान से उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस समय में भगवान गणेश के कान में सभी भक्त अपनी मनोकामनाएं बोलते हैं। जिसे सुनकर भगवान गणेश का तापमान बढ़ जाता है। उसी तापमान को कम करने के लिए भगवान गणेश की प्रतिमा का जल में विसर्जन किया जाता है। इसके साथ एक मान्यता यह भी है कि ईश्वर को कोई भी बांधकर नहीं रख सकता।
 भगवान गणेश को गणेश चतुर्थी पर घर लाकर एक ओर उन्हें भूलोक ले तो आते हैं। लेकिन उनका सही मायने में स्थान स्वर्गलोक ही है। इसी कारण से कहा जाता है कि भगवान गणेश की प्रतिमा को विसर्जित करके उन्हें स्वर्ग लोक भेज दिया जाता है। जिससे वह सभी देवी देवताओं को यह बता सकें कि भूलोक का क्या हाल है। उनके भक्तों की मनोकामनाएं वह पूरी कर सकें।
ॐ गणाधिपतयै नम:ॐ उमापुत्राय नम:ॐ विघ्ननाशनाय नम:ॐ विनायकाय नम:ॐ ईशपुत्राय नम:
ॐ सर्वसिद्धप्रदाय नम:ॐ एकदन्ताय नम:ॐ इभवक्त्राय नम:ॐ मूषकवाहनाय नम:ॐ कुमारगुरवे नम:
श्री गणेश विसर्जन मंत्र
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकीम्। इष्टकामसमृद्धयर्थं पुनर्अपि पुनरागमनाय च॥
श्री गणेश विसर्जन मंत्र
ॐ गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर |
यत्र ब्रम्हादयो देवा: तत्र गच्छ हुताशन ||

भद्र आरम्भ
सितम्बर 1 2020 मंगलवार को 09:38 ए एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 1 2020 मंगलवार को 10:12 पी एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 5, 2020, शनिवार को 03:29 ए एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 5 2020 शनिवार को 04:38 पी एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 9  2020  बुधवार को 12:02 ए एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 9  2020  बुधवार को 01:07 पी एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 12  2020  शनिवार को 04:23 पी एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 13  2020  रविवार को 04:13 ए एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 15  2020  मंगलवार को 11:00 पी एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 16  2020  बुधवार को 09:31 ए एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 20  2020  रविवार को 03:59 पी एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 21  2020   सोमवार को 02:26 ए एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 23  2020  बुधवार को 07:56 पी एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 24  2020  बृहस्पतिवार को 07:24 ए एम बजे
भद्र आरम्भ
सितम्बर 27  2020  रविवार को 07:19 ए एम बजे
भद्र अंत
सितम्बर 27  2020  रविवार को 07:46 पी एम बजे
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Wednesday, 26 August 2020

गणेशजी की पूजा सर्वप्रथम क्यों होती है

किसी भी सुबह कार्य को करने से पहले गणेश जी की पूजा करना आवश्यक मन गया है क्योंकि उन्हें विघ्नहर्ता व् ऋद्धि -सीधी का स्वामी कहा जाता है। इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओ की पूर्ति होती है व् विघ्नों का विनाश होता है।
गणेश जी अतिशीघ्र प्रसन्न होने वाले बुद्दि के अधिष्ठाता और साक्षात् प्रणवरूप है। गणेश का अर्थ है - गणों का ईश अर्थात गणों का स्वामी। किसी पूजा आराधना, अनुष्ठान व् कार्य में गणेश जी के गण कोई विघ्न - बाधा न पहुंचाए, इसलिए सर्वप्रथम गणेश पूजन कर उनकी कृपा प्राप्त होती है।

प्रत्येक शुभकार्य के पूर्व "श्री गणेशाय नमः " का उच्चारण कर यह मंत्र बोल जाता है :
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ
 निर्विघ्नं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा ||

अर्थात= विशाल आकार और टेढ़ी सूंढ़ वाले करोडो सूर्यो के सामान ते वाले हे देव (गणेश जी) , समस्त कार्यो को सदा विघ्नरहित पूर्ण (सम्पन्न) करे।

वेदो में भी गणेश जी की महत्ता व् उनके विघ्नहर्ता सवरूप की ब्रह्मरूप में स्तुति व् आवाहन करते हुए कहा गया है की -

गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कबिनामु पश्रवस्तमम |
 ज्येष्ठराजं ब्र्ह्मण्णा ब्रह्मणसप्त आ न: शृण्वन्नतिभि: सीद सादनम||

अर्थात तुम देवगणो के प्रभु होने से गणपति हो, ज्ञानियों में श्रेष्ठ हो, उत्कृष्ठ ऋतिवलो में श्रेष्ठ हो, तुम शिव के ज्येष्ठ पुत्र हो, अतः हम आदर से तुम्हारा आव्हान करते है। हे ब्रह्मणसप्त गणेश, तुम अपने समस्त शक्तियों के साथ इस आसान पर आओ।

दूसरे मंत्र में कहा गया है की -
नि शु सीद गणपते गणेशु त्वामाहु विर्प्रत्म: कबिनाम |
 न रीते त्वत्त क्रियते की चनारे महामक मघवाक मघवचित्रमर्च ||

अर्थात = हे गणपते' आप देव आदि समूह में विराजिये क्योंकि समस्त बुद्धिमानो में आप ही श्रेष्ठ है, आपके बिना समीप या दूर का कोई कार्य नहीं किया जा सकता. हे पूज्य आदरणीय गणपति, हमारे सत्कार्यों को निर्विघ्न पूरा करने की कृपा कीजिये।

गणेशजी विधा के देवता है, साध्ना में उच्स्तरीय दूरदर्शिता आ जाये, उचित - अनुचित, कर्तव्य -अकर्तव्य की पहचान हो जाये, इसलिए सभी शुभकार्यो में गणेश पूजन का विधान बताया गया है।

गणेश जी की पूजा सबसे पहले क्यों होती है इसके पीछे एक पद्मपुराण की कथा भी है जो इस प्रकार है ...
सृष्टि के आरम्भ में जब यह प्रसन्न उठा कि प्रथमपूज्य किसे माना जाए तो समस्त देवतागण ब्रह्मा जी के पास पहुंचे. ब्रह्मा जी ने कहा कि जो कोई पृथ्वी कि परिकर्मा सबसे पहले कर लगा, उसे ही प्रथम पूजा जायेगा. इस पर सभी देवतागण अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पडे।

चूंकि गणेशजी का वाहन चूहा है और उनका शरीर स्थूल, तो ऐसे में वे परिक्रमा कैसे कर पाते! इस समस्या को सुलझाया देवर्षि नारद ने। नारद ने उन्हें जो उपाय सुझाया, उनके अनुसार गणेशजी ने भूमि पर "राम" नाम लिखकर उसकी सात परिक्रमा की और ब्रह्माजी के पास सबसे पहले पहुंच गए। तब ब्रह्माजी ने उन्हें प्रथमपूज्य बताया, क्योंकि "राम" नाम साक्षात् श्रीराम का स्वरूप है और श्रीराम में ही संपूर्ण ब्रह्मांड निहित है.

शिवपुराण में भी एक ऐसी ही कथा बताई गई है इसके अनुसार एक बार समस्त देवता भगवान शंकर के पास यह समस्या लेकर पहुंचे कि किस देव को उनका मुखिया चुना जाए। भगवान शिव ने यह प्रस्ताव रखा कि जो भी पहले पृथ्वी की तीन बार परिक्रमा करके कैलाश लौटेगा, वहीं सर्वप्रथम पूजा के योग्य होगा और उसे ही देवताओं का स्वामी बनाया जाएगा। चूंकि गणेशजी का वाहन चूहा था जिसकी गति अत्यंत धीमी गति थी, इसलिए अपनी बुद्धि-चातुर्य के कारण उन्होंने अपने पिता शिव और माता पार्वती की ही तीन परिक्रमा पूर्ण की और हाथ जोडकर खडे हो गए।

शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि तुमसे बढकर संसार में अन्य कोई इतना चतुर नहीं है। माता-पिता की तीन परिक्रमा से तीनों लोकों की परिक्रमा का पुण्य तुम्हें मिल गया, जो पृथ्वी की परिक्रमा से भी बडा है. इसलिए जो मनुष्य किसी कार्य के शुभारंभ से पहले तुम्हारा पूजन करेगा, उसे कोई बाधा नहीं आएगी। बस, तभी से गणेशजी अग्रपूज्य हो गए।

वाराहपुराण के अनुसार जब देवगणों की प्रार्थना सुनकर महादेव ने उमा की ओर निर्निमेष नेत्रों से देखा, उसकी समय के मुखरूपी से एक परम सुंदर, तेजस्वी कुमार वहां प्रकट हो गया. उसमें ब्रह्मा के सब गुण विद्यमान थे और वह दूसरा रूद्र जैसा ही लगता था. उसके रूप को देखकर पार्वती को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप दिया कि हे कुमार! तू हाथी के सिर वाला, लंबे पेट वाला और सांपों के जनेऊ वाला हो जाएगा।

इस पर शंकरजी ने क्रोधित होकर अपने शरीर को धुना, तो उनके रोमों से हाथी के सिर वाले, नीले अंजन जैसे रंग वाले, अनेक शस्त्रों को धारण किए हुए इतने विनायक उत्पन्न हुए कि पृथ्वी क्षुब्ध हो उठी, देवगण भी घबरा गए। तब ब्रह्मा ने महादेव से प्रार्थना की, "हे त्रिशूलधारी! आपके मुख से पैदा हुए ये विनायकगण आपके इस पुत्र के वश मे रहें. आप प्रसन्न होकर इन सबकों ऐसा ही वर दें. तब महादेव ने अपने पुत्र से कहा कि तुम्हारे भव, गजास्व, गणेश और विनायक नाम के होंगे।

यह सब कू्रर दृष्टि वाले प्रचण्ड विनायक तुम्हारे भृत्य होंगे यज्ञादि कार्यो में तुम्हारी सबसे पहले पूजा होगी, अन्यथा तुम कार्य के सिद्ध होने मे विघ्न उपस्थित कर दोगे" इसके अनन्तर देवगणों ने गणेशजी की स्तुति की और शंकर ने उनका अभिषेक किया।

एक बार देवताओं ने गोमती के तट पर यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमें अनेक विघ्न पडने लगे, यज्ञ संपन्न नहीं हो सका। उदास होकर देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु से इसका कारण पूछा। दयामय चतुरानन ने पता लगाकर बताया कि इस यज्ञ मे श्रीगणेशजी विघ्न उपस्थित कर रहे है और यदि आप लोग विनायक को प्रसन्न कर ले, तब यज्ञ पूर्ण हो जाएगा। विधाता की सलाह से देवताओं ने स्नान कर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक गणेशजी का पूजन किया. विघ्नराज गणेशजी की कृपा से यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ।

तो इस प्रकार हम गणेश जी की सर्वप्रथम पूजा करते है ताकि काम में कोई बाधा ना आये !

बुधवार को गणेश जी की पूजा के लाभ
देवता भी अपने कार्यों की बिना किसी विघ्न से पूरा करने के लिए गणेश जी की अर्चना सबसे पहले करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि देवगणों ने स्वयं उनकी अग्रपूजा का विधान बनाया है।

शास्त्रों में एक बार जिक्र आता है कि भगवान शंकर त्रिपुरासुर का वध करने में जब असफल हुए, तब उन्होंने गंभीरतापूर्वक विचार किया कि आखिर उनके कार्य में विघ्न क्यों पड़ा

तब महादेव को ज्ञात हुआ कि वे गणेशजी की अर्चना किए बगैर त्रिपुरासुर से युद्ध करने चले गए थे। इसके बाद शिवजी ने गणेशजी का पूजन करके उन्हें लड्डुओं का भोग लगाया और दोबारा त्रिपुरासुर पर प्रहार किया, तब उनका मनोरथ पूर्ण हुआ।

सनातन एवं हिन्दू शास्त्रों में भगवान गणेश जी को, विघ्नहर्ता अर्थात सभी तरह की परेशानियों को खत्म करने वाला बताया गया है। पुराणों में गणेशजी की भक्ति शनि सहित सारे ग्रहदोष दूर करने वाली भी बताई गई हैं। हर बुधवार के शुभ दिन गणेशजी की उपासना से व्यक्ति का सुख-सौभाग्य बढ़ता है और सभी तरह की रुकावटे दूर होती हैं।

गणेश भगवान की सामान्य पूजा विधि
प्रातः काल स्नान ध्यान आदि से सुद्ध होकर सर्व प्रथम ताम्र पत्र के श्री गणेश यन्त्र को साफ़ मिट्टी, नमक, निम्बू  से अच्छे से साफ़ किया जाए।  पूजा स्थल पर पूर्व या उत्तर दिशा की और मुख कर के आसान पर विराजमान हो कर सामने श्री गणेश यन्त्र की स्थापना करें।

शुद्ध आसन में बैठकर सभी पूजन सामग्री को एकत्रित कर पुष्प, धूप, दीप, कपूर, रोली, मौली लाल, चंदन, मोदक आदि गणेश भगवान को समर्पित कर, इनकी आरती की जाती है।

अंत में भगवान गणेश जी का स्मरण कर ॐ गं गणपतये नमः का 108 नाम मंत्र का जाप करना चाहिए।

बुधवार को यहां बताए जा रहे ये छोटे-छोटे उपाय करने से व्यक्ति को लाभ प्राप्त होता है।

बिगड़े काम बनाने के लिए बुधवार को गणेश मंत्र का स्मरण करें-

त्रयीमयायाखिलबुद्धिदात्रे बुद्धिप्रदीपाय सुराधिपाय। नित्याय सत्याय च नित्यबुद्धि नित्यं निरीहाय नमोस्तु नित्यम्।

अर्थात भगवान गणेश आप सभी बुद्धियों को देने वाले, बुद्धि को जगाने वाले और देवताओं के भी ईश्वर हैं। आप ही सत्य और नित्य बोधस्वरूप हैं। आपको मैं सदा नमन करता हूं। कम से कम 21 बार इस मंत्र का जप जरुर होना चाहिए।

ग्रह दोष और शत्रुओं से बचाव के लिए-

गणपूज्यो वक्रतुण्ड एकदंष्ट्री त्रियम्बक:।
नीलग्रीवो लम्बोदरो विकटो विघ्रराजक:।।
धूम्रवर्णों भालचन्द्रो दशमस्तु विनायक:।
गणपर्तिहस्तिमुखो द्वादशारे यजेद्गणम्।।

इसमें भगवान गणेश जी के बारह नामों का स्मरण किया गया है। इन नामों का जप अगर मंदिर में बैठकर किया जाए तो यह उत्तम बताया जाता है। जब पूरी पूजा विधि हो जाए तो कम से कम 11 बार इन नामों का जप करना शुभ होता है।

परिवार और व्यक्ति के दुःख दूर करने के सरल उपाय
बुधवार के दिन घर में सफेद रंग के गणपति की स्थापना करने से समस्त प्रकार की तंत्र शक्ति का नाश होता है।

धन प्राप्ति के लिए बुधवार के दिन श्री गणेश को घी और गुड़ का भोग लगाएं। थोड़ी देर बाद घी व गुड़ गाय को खिला दें। ये उपाय करने से धन संबंधी समस्या का निदान हो जाता है।
परिवार में कलह कलेश हो तो बुधवार के दिन दूर्वा के गणेश जी की प्रतिकात्मक मूर्ति बनवाएं। इसे अपने घर के देवालय में स्थापित करें और प्रतिदिन इसकी विधि-विधान से पूजा करें।
घर के मुख्य दरवाजे पर गणेशजी की प्रतिमा लगाने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है। कोई भी नकारात्मक शक्ति घर में प्रवेश नहीं कर पाती हैं।

- ज्ञानचंद बुंदिवाल
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Monday, 24 August 2020

महालक्ष्मी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष से शुरू होता है

महालक्ष्मी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष से शुरू होता है और इसकी समाप्ति अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को होती है। सोलह दिनों के इन व्रतों में जो भी व्यक्ति मां लक्ष्मी की सुबह और शाम पूरी श्रद्धा से पूजा अर्चना करता है। उसके जीवन में धन, संपदा, सुख और समृद्धि की कोई कमीं नही रहती तो चलिए जानते हैं  महालक्ष्मी व्रत का शुभ
महालक्ष्मी व्रत प्रारंभ -25 अगस्त 2020
महालक्ष्मी व्रत समाप्ति - 10 सितंबर 2020
महलक्ष्मी व्रत 2020 शुभ मुहूर्त
अष्टमी तिथि प्रारम्भ - रात 12 बजकर 21 मिनट से (25 अगस्त 2020)
अष्टमी तिथि समाप्त - अगले दिन सुबह 10 बजकर 39 मिनट तक (26 अगस्त 2020)
चन्द्रोदय समय - रात 12 बजकर 23 मिनट
महालक्ष्मी व्रत का महत्व
महालक्ष्मी व्रत के दिन मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष से शुरू होता है और इसकी समाप्ति अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि होती है। सोलह दिनों तक किए जाने वाले इस व्रत में शाम के समय चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। सोलह दिन के इस व्रत में अन्न को ग्रहण नहीं किया जाता है और जब यह व्रत पूर्ण हो जाए तो इसका उद्यापन करना भी आवश्यक है।
लेकिन यदि कोई व्यक्ति सोलह दिनों के नियमों को पूर्ण नहीं कर सकता तो वह अपने सामर्थ्य के अनुसार कम दिनों के व्रत कर सकता है और मां लक्ष्मी का आर्शीवाद प्राप्त कर सकता है। शास्त्रों में इस व्रत की बहुत अधिक महत्वता बताई गई है। यदि कोई स्त्री इस व्रत को करती है तो उसे धन, धान्य, सुख, समृद्धि, संतान आदि सभी चीजों की प्राप्ति होती है और यदि कोई पुरुष इस व्रत को करता है तो उसे धन, सपंदा,नौकरी, व्यापार आदि सभी चीजों में तरक्की मिलती है।
महालक्ष्मी व्रत पूजा विधि
1.महालक्ष्मी व्रत करने वाले साधक को सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करने के बाद लाल वस्त्र धारण करने चाहिए।
2. इसके बाद चावल का घोल बनाकर पूजा स्थान पर मां लक्ष्मी के चरण बनाने चाहिए।
3.माता लक्ष्मी के चरण बनाने के बाद चौकी को आम के पत्तों से सजाएं
4. मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करने के बाद अपनी कलाई पर 16 गांठ लगाकर एक धागा बांधे।
5. इसके बाद माता लक्ष्मी की गज लक्ष्मी प्रतिमा चौकी पर स्थापित करें और कलश की स्थापना भी करें।
6. कलश की स्थापना करने के बाद पहले गणेश जी की पूजा करें उन्हें दूर्वा अर्पित करें और उनकी विधिवत पूजा करें।
7. इसके बाद माता लक्ष्मी को पुष्प माला, नैवेध, अक्षत,सोना या चाँदी आदि सभी चीजें अर्पित करें।
8.यह सभी चीजें अर्पित करने के बाद महालक्ष्मी व्रत की कथा पढ़ें या सुने।
9. इसके बाद माता लक्ष्मी की आरती उतारें और उन्हें खीर का भोग लगाएं। इसी प्रकार शाम के समय भी पूजा करें।
10.पूजा के बाद एक दीपक माता लक्ष्मी के आगमन के लिए घर के बाहर भी जलाएं और शाम की पूजा के बाद चंद्रमा को अर्घ्य अवश्य दें।
महलक्ष्मी व्रत की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार एक नगर मे एक गरीब ब्राह्मण रहा करता था। वह ब्राह्मण भगवान विष्णु का बहुत ही बड़ा भक्त था और पूरे विधि- विधान से उनकी पूजा किया करता था। भगवान विष्णु भी अपने भक्त से बहुत से प्रसन्न रहते थे। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे दर्शन दिए और उससे वरदान मांगने के लिए कहा। उस ब्राह्मण ने भगवान विष्णु से अपने घर में लक्ष्मी जी के निवास की इच्छा जाहिर की। ब्राह्मण की बात सुनकर भगवान विष्णु ने उसे लक्ष्मी प्राप्ति का मार्ग बताया। विष्णु जी ने कहां कि मंदिर के सामने रोज एक वृद्ध स्त्री आती है जो वहां पर उपले थापती हैं, तुम जाकर उस स्त्री को अपने घर आने के लिए आमंत्रित करो। वह स्त्री कोई और नही बल्कि देवी लक्ष्मी ही है।
अगर वह स्त्री तुम्हारे घर में आ गई तो तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जाएगा। यह कहकर विष्णु जी अंर्तध्यान हो गए। इसके बाद वह ब्राह्मण दूसरे दिन सुबह 4 बजे ही मंदिर के द्वार पर जाकर बैठ गया। जैसे ही वह वृद्ध स्त्री उपले थापने के लिए मंदिर आई तो उस ब्राह्मण ने विष्णु जी के कहे अनुसार उस वृद्ध स्त्री को अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया। जब ब्राह्मण ने माता लक्ष्मी को घर आने को कहा तो वह समझ गई की ऐसा करने के लिए उसे भगवान विष्णु ने ही कहा है। इसके बाद लक्ष्मी जी ने कहा कि तुम महालक्ष्मी व्रत करो,यह व्रत 16 दिनों तक किया जाता है और इसमें 16 रातों तक चंद्रमा को अर्ध्य दिया जाता है।
ऐसा करने से तुम्हारी इच्छा जल्द ही पूर्ण हो जाएगी। उस ब्राह्मण ने माता लक्ष्मी के कहे अनुसार महालक्ष्मी व्रत किया और उत्तर दिशा में मुख करके लक्ष्मी जी को पुकारा,इसके बाद लक्ष्मी जी ने भी अपना वचन पूर्ण किया
सोलह तार का एक डोरा अथवा धागा लेकर उसमें सोलह ही गाँठे लगा लें. इसके बाद हल्दी की गाँठ को पीसकर उसका पीला रँग डोरे पर लगा लें जिससे यह पीला हो जाएगा. पीला होने के बाद इसे हाथ की कलाई पर बाँध लेते हैं. यह व्रत आश्विन माह की कृष्ण अष्टमी तक चलता है. जब व्रत पूरा हो जाए तब एक वस्त्र से मंडप बनाया जाता है जिसमें महालक्ष्मी जी की मूर्त्ति रखी जाती है और पंचामृत से स्नान कराया जाता है. उसके बाद सोलह श्रृंगार से पूजा की जाती है. रात में तारों को अर्ध्य देकर लक्ष्मी जी की प्रार्थना की जाती है.
व्रत करने वाले को ब्राह्मण को भोजन कराना चहिए. उनसे हवन कराकर खीर की आहुति देनी चाहिए. चंदन, अक्षत, दूब, तालपत्र, फूलमाला, लाल सूत, नारियल, सुपारी अत्था भिन्न-भिन्न पदार्थ किसी नए सूप में 16-16 की संख्या में रखते हैं. फिर दूसरे नए सूप से इन सभी को ढककर नीचे दिया मंत्र बोलते हैं
क्षीरोदार्णवसम्भूता लक्ष्मीश्चन्द्रसहोदरा ।
व्रतेनानेन सन्तुष्टा भव भर्तोवपुबल्लभा ।।
इसका अर्थ है “क्षीरसागर में प्रकट हुई लक्ष्मी, चन्द्रमा की बहन, श्रीविष्णुवल्लभ, महालक्ष्मी इस व्रत से सन्तुष्ट हों.”
इसके बाद 4 ब्राह्मण तथा 16 ब्राह्मणियों को भोजन कराना चाहिए और सामर्थ्यानुसार दक्षिणा भी देनी चाहिए. उसके बाद स्वयं भी भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए. जो लोग इस व्रत को करते हैं वह इस लोक का सुख भोगकर अन्त समय में लक्ष्मी लोक जाते हैं.
श्रीमहालक्ष्मी जी की आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता , मैया जय लक्ष्मी माता,
तुमको निस दिन सेवत, हरी, विष्णु दाता
ॐ जय लक्ष्मी माता
उमा राम ब्रह्माणी, तुम ही जग माता, मैया, तुम ही जग माता ,
सूर्यचंद्र माँ ध्यावत, नारद ऋषि गाता .
ॐ जय लक्ष्मी माता .
दुर्गा रूप निरंजनी, सुख सम्पति दाता, मैया सुख सम्पति दाता
जो कोई तुमको ध्यावत, रिद्धि सिद्दी धन पाता

ॐ जय लक्ष्मी माता.
जिस घर में तुम रहती, तह सब सुख आता,
मैया सब सुख आता, ताप पाप मिट जाता, मन नहीं घबराता.
ॐ जय लक्ष्मी माता.
धूप दीप फल मेवा, माँ स्वीकार करो,
मैया माँ स्वीकार करो, ज्ञान प्रकाश करो माँ, मोहा अज्ञान हरो.
ॐ जय लक्ष्मी माता.
महा लक्ष्मी जी की आरती, जो कोई जन गावे
मैया निस दिन जो गावे,
और आनंद समाता, पाप उतर जाता
ॐ जय लक्ष्मी माता.


संतान सप्तमी व्रत भाद्रपद मास

संतान सप्तमी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है.  24 अगस्त 2020 को सोमवार के दिन मुक्ताभरण संतान सप्तमी व्रत किया जाएगा. यह व्रत विशेष रुप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिये किया जाता है. इस व्रत में भगवान शिव एवं माता गौरी की पूजा का विधान होता है. भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी का व्रत अपना विशेष महत्व रखता है.
सप्तमी व्रत विधि |
सप्तमी का व्रत माताओं के द्वारा किया अपनी संतान के लिये किया जाता है इस व्रत को करने वाली माता को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए. इसके बाद प्रात काल में श्री विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए. और सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए.

निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से शिव- पार्वती की पूजा करनी चाहिए.सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है. संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को कलावा अर्पित किया जाता है तथा बाद में इसे स्वयं धारण कर इस व्रत की कथा सुननी चाहिए
श्री सन्तान सप्तमी व्रत कथा
एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा- हे प्रभो! कोई ऐसा उत्तम व्रत बतलाइये जिसके प्रभाव से मनुष्यों के अनेकों सांसारिक क्लेश दुःख दूर होकर वे पुत्र एवं पौत्रवान हो जाएं।
यह सुनकर भगवान बोले - हे राजन्‌! तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। मैं तुमको एक पौराणिक इतिहास सुनाता हूं ध्यानपूर्वक सुनो। एक समय लोमष ऋषि ब्रजराज की मथुरापुरी में वसुदेव के घर गए।

ऋषिराज को आया हुआ देख करके दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बैठा कर उनका अनेक प्रकार से वन्दन और सत्कार किया। फिर मुनि के चरणोदक से अपने घर तथा शरीर को पवित्र किया।

वह प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे। कथा के कहते लोमष ने कहा कि - हे देवकी! दुष्ट दुराचारी पापी कंस ने तुम्हारे कई पुत्र मार डाले हैं जिसके कारण तुम्हारा मन अत्यन्त दुःखी है।

इसी प्रकार राजा नहुष की पत्नी चन्द्रमुखी भी दुःखी रहा करती थी किन्तु उसने संतान सप्तमी का व्रत विधि विधान सहित किया। जिसके प्रताप से उनको सन्तान का सुख प्राप्त हुआ।

यह सुनकर देवकी ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- हे ऋषिराज! कृपा करके रानी चन्द्रमुखी का सम्पूर्ण वृतान्त तथा इस व्रत को विस्तार सहित मुझे बतलाइये जिससे मैं भी इस दुःख से छुटकारा पाउं।

लोमष ऋषि ने कहा कि - हे देवकी! अयोध्या के राजा नहुष थे। उनकी पत्नी चन्द्रमुखी अत्यन्त सुन्दर थीं। उनके नगर में विष्णुगुप्त नाम का एक ब्राह्‌मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम भद्रमुखी था। वह भी अत्यन्त रूपवती सुन्दरी थी।

रानी और ब्राह्‌मणी में अत्यन्त प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने के लिए गई। वहां उन्होंने देखा कि अन्य बहुत सी स्त्रियां सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहन कर एक मण्डप में शंकर एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित करके पूजा कर रही थीं।

रानी और ब्राह्‌मणी ने यह देख कर उन स्त्रियों से पूछा कि - बहनों! तुम यह किस देवता का और किस कारण से पूजन व्रत आदि कर रही हो। यह सुन कर स्त्रियों ने कहा कि हम सनतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं और हमने शिव पार्वती का पूजन चन्दन अक्षत आदि से षोडषोपचार विधि से किया है। यह सब इसी पुनी व्रत का विधान है।

यह सुनकर रानी और ब्राह्‌मणी ने भी इस व्रत के करने का मन ही मन संकल्प किया और घर वापस लौट आईं। ब्राह्‌मणी भद्रमुखी तो इस व्रत को नियम पूर्वक करती रही किन्तु रानी चन्द्रमुखी राजमद के कारण कभी इस व्रत को करती, कभी न करती। कभी भूल हो जाती। कुछ समय बाद दोनों मर गई। दूसरे जन्म में रानी बन्दरिया और ब्राह्‌मणी ने मुर्गी की योनि पाई।

परन्तु ब्राह्‌मणी मुर्गी की योनि में भी कुछ नहीं भूली और भगवान शंकर तथा पार्वती जी का ध्यान करती रही, उधर रानी बन्दरिया की योनि में, भी सब कुछ भूल गई। थोड़े समय के बाद दोनों ने यह देह त्याग दी।

अब इनका तीसरा जन्म मनुष्य योनि में हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने एक ब्राह्‌मणी के यहां कन्या के रूप में जन्म लिया। उस ब्राह्‌मण कन्या का नाम भूषण देवी रखा गया तथा विवाह गोकुल निवासी अग्निशील ब्राह्‌मण से कर दिया, भूषण देवी इतनी सुन्दर थी कि वह आभूषण रहित होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर लगती थी। कामदेव की पत्नी रति भी उसके सम्मुख लजाती थी। भूषण देवी के अत्यन्त सुन्दर सर्वगुणसम्पन्न चन्द्रमा के समान धर्मवीर, कर्मनिष्ठ, सुशील स्वभाव वाले आठ पुत्र उत्पन्न हुए।

यह सब शिवजी के व्रत का पुनीत फल था। दूसरी ओर शिव विमुख रानी के गर्भ से कोई भी पुत्र नहीं हुआ, वह निःसंतान दुःखी रहने लगी। रानी और ब्राह्‌मणी में जो प्रीति पहले जन्म में थी वह अब भी बनी रही।

रानी जब वृद्ध अवस्था को प्राप्त होने लगी तब उसके गूंगा बहरा तथा बुद्धिहीन अल्प आयु वाला एक पुत्र हुआ वह नौ वर्ष की आयु में इस क्षणभंगुर संसार को छोड़ कर चला गया।

अब तो रानी पुत्र शोक से अत्यन्त दुःखी हो व्याकुल रहने लगी। दैवयोग से भूषण देवी ब्राह्‌मणी, रानी के यहां अपने पुत्रों को लेकर पहुंची। रानी का हाल सुनकर उसे भी बहुत दुःख हुआ किन्तु इसमें किसी का क्या वश! कर्म और प्रारब्ध के लिखे को स्वयं ब्रह्‌मा भी नहीं मिटा सकते।

रानी कर्मच्युत भी थी इसी कारण उसे दुःख भोगना पड ा। इधर रानी पण्डितानी के इस वैभव और आठ पुत्रों को देख कर उससे मन में ईर्ष्या करने लगी तथा उसके मन में पाप उत्पन्न हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने रानी का संताप दूर करने के निमित्त अपने आठों पुत्र रानी के पास छोड दिए।

रानी ने पाप के वशीभूत होकर उन ब्राह्‌मणी पुत्रों की हत्या करने के विचार से लड्‌डू में विष मिलाकर उनको खिला दिया परन्तु भगवान शंकर की कृपा से एक भी बालक की मृत्यु न हुई।

यह देखकर तो रानी अत्यन्त ही आश्चर्य चकित हो गई और इस रहस्य का पता लगाने की मन में ठान ली। भगवान की पूजा से निवृत्त होकर जब भूषण देवी आई तो रानी ने उस से कहा कि मैंने तेरे पुत्रों को मारने के लिए इनको जहर मिलाकर लड्‌डू लिखा दिया किन्तु इनमें से एक भी नहीं मरा। तूने कौन सा दान, पुण्य, व्रत किया है। जिसके कारण तेरे पुत्र नहीं मरे और तू नित नए सुख भोग रही है। तेरा बड़ा सौभाग्य है। इनका भेद तू मुझसे निष्कपट होकर समझा मैं तेरी बड ी ऋणी रहूंगी।

रानी के ऐसे दीन वचन सुनकर भूषण ब्राह्‌मणी कहने लगी - सुनो तुमको तीन जन्म का हाल कहती हूं, सो ध्यान पूर्वक सुनना, पहले जन्म में तुम राजा नहुष की पत्नी थी और तुम्हारा नाम चन्द्रमुखी था मेरा भद्रमुखी था और मैं ब्राह्‌मणी थी। हम तुम अयोध्या में रहते थे और मेरी तुम्हारी बड ी प्रीति थी। एक दिन हम तुम दोनों सरयू नदी में स्नान करने गई और दूसरी स्त्रियों को सन्तान सप्तमी का उपवास शिवजी का पूजन अर्चन करते देख कर हमने इस उत्तम व्रत को करने की प्रतिज्ञा की थी। किन्तु तुम सब भूल गई और झूठ बोलने का दोष तुमको लगा जिसे तू आज भी भोग रही है।

मैंने इस व्रत को आचार-विचार सहित नियम पूर्वक सदैव किया और आज भी करती हूं। दूसरे जन्म में तुमने बन्दरिया का जन्म लिया तथा मुझे मुर्गी की योनि मिली। भगवान शंकर की कृपा से इस व्रत के प्रभाव तथा भगवान को इस जन्म में भी न भूली और निरन्तर उस व्रत को नियमानुसार करती रही। तुम अपने बंदरिया के जन्म में भी भूल गई।

मैं तो समझती हूं कि तुम्हारे उपर यह जो भारी संगट है उसका एक मात्र यही कारण है और दूसरा कोई इसका कारण नहीं हो सकता। इसलिए मैं तो कहती हूं कि आप सब भी सन्तान सप्तमी के व्रत को विधि सहित करिये जिससे आपका यह संकट दूर हो जाए।

लोमष ऋषि ने कहा- हे देवकी! भूषण ब्राह्‌मणी के मुख से अपने पूर्व जन्म की कथा तथा व्रत संकल्प इत्यादि सुनकर रानी को पुरानी बातें याद आ गई और पश्चाताप करने लगी तथा भूषण ब्राह्‌मणी के चरणों में पड़कर क्षमा याचना करने लगी और भगवान शंकर पार्वती जी की अपार महिमा के गीत गाने लगी। उस दिन से रानी ने नियमानुसार सन्तान सप्तमी का व्रत किया। जिसके प्रभाव से रानी को सन्तान सुख भी मिला तथा सम्पूर्ण सुख भोग कर रानी शिवलोक को गई।

भगवान शंकर के व्रत का ऐसा प्रभाव है कि पथ भ्रष्ट मनुष्य भी अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है और अनन्त ऐश्वर्य भोगकर मोक्ष पाता है। लोमष ऋषि ने फिर कहा कि - देवकी! इसलिए मैं तुमसे भी कहता हूं कि तुम भी इस व्रत को करने का संकल्प अपने मन में करो तो तुमको भी सन्तान सुख मिलेगा।

इतनी कथा सुनकर देवकी हाथ जोड कर लोमष ऋषि से पूछने लगी- हे ऋषिराज! मैं इस पुनीत उपवास को अवश्य करूंगी, किन्तु आप इस कल्याणकारी एवं सन्तान सुख देने वाले उपवास का विधान, नियम आदि विस्तार से समझाइये।

यह सुनकर ऋषि बोले- हे देवकी! यह पुनीत उपवास भादों भाद्रपद के महीने में शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन किया जाता है। उस दिन ब्रह्‌ममुहूर्त में उठकर किसी नदी अथवा कुएं के पवित्र जल में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहिनने चाहिए। श्री शंकर भगवान तथा जगदम्बा पार्वती जी की मूर्ति की स्थापना करें। इन प्रतिमाओं के सम्मुख सोने, चांदी के तारों का अथवा रेशम का एक गंडा बनावें उस गंडे में सात गांठें लगानी चाहिए। इस गंडे को धूप, दीप, अष्ट गंध से पूजा करके अपने हाथ में बांधे और भगवान शंकर से अपनी कामना सफल होने की प्रार्थना करें।

तदन्तर सात पुआ बनाकर भगवान को भोग लगावें और सात ही पुवे एवं यथाशक्ति सोने अथवा चांदी की अंगूठी बनवाकर इन सबको एक तांबे के पात्र में रखकर और उनका शोडषोपचार विधि से पूजन करके किसी सदाचारी, धर्मनिष्ठ, सुपात्र ब्राह्‌मण को दान देवें। उसके पश्चात सात पुआ स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।

इस प्रकार इस व्रत का पारायण करना चाहिए। प्रतिसाल की शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन, हे देवकी! इस व्रत को इस प्रकार नियम पूर्व करने से समस्त पाप नष्ट होते हैं और भाग्यशाली संतान उत्पन्न होती है तथा अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है।

हे देवकी! मैंने तुमको सन्तान सप्तमी का व्रत सम्पूर्ण विधान विस्तार सहित वर्णन किया है। उसको अब तुम नियम पूर्वक करो, जिससे तुमको उत्तम सन्तान पैदा होगी। इतनी कथा कहकर भगवान आनन्दकन्द श्रीकृष्ण ने धर्मावतार युधिष्ठिर से कहा कि - लोमष ऋषि इस प्रकार हमारी माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार हमारी माता देवकी ने इस व्रत को नियमानुसार किया जिसके प्रभाव से हम उत्पन्न हुए।
यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों के लिए कल्याणकारी है परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याण दायक है। सन्तान सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है जिसे स्वयं भी करें तथा दूसरों से भी करावें। नियम पूर्वक जो कोई इस व्रत को करता है और भगवान शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है निश्चय ही अमरपद पद प्राप्त करके अन्त में शिवलोक को जाता है।

बल्देव छठ

बल्देव छठ का सम्बन्ध श्री बलराम जी से है। भाद्रपदशुक्ल पक्ष की षष्ठी को ब्रज के राजा और भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज बल्देव जी का जन्मदिन ब्रज में बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है। देवछठ' के दिन दाऊजी में विशाल मेला आयोजित होता है और दाऊजी के मन्दिर में विशेष पूजा एवं दर्शन होते हैं।
पौराणिक संदर्भ = ब्रज के राजा दाऊजी महाराज के जन्म के विषय में 'गर्ग पुराण' के अनुसार देवकी के सप्तम गर्भ को योगमाया ने संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाया। भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के स्वाति नक्षत्र में वसुदेव की पत्नी रोहिणी जो कि नन्दबाबा के यहाँ रहती थी, के गर्भ से अनन्तदेव 'शेषावतार' प्रकट हुए। इस कारण श्री दाऊजी महाराज का दूसरा नाम 'संकर्षण' हुआ। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि बुधवार के दिन मध्याह्न 12 बजे तुला लग्न तथा स्वाति नक्षत्र में बल्देव जी का जन्म हुआ। उस समय पाँच ग्रह उच्च के थे। इस समय आकाश से छोटी-छोटी वर्षा की बूँदें और देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।

दाऊजी महाराज का नामकरण = नन्दबाबा ने विधिविधान से कुलगुरु गर्गाचार्य जी से दाऊजी महाराज का नामकरण कराया। पालने में विराजमान शेषजी के दर्शन करने के लिए अनेक ऋषि, मुनि आये। 'कृष्ण द्वैपायन व्यास' महाराज ने नन्दबाबा को बताया कि यह बालक सबका मनोरथ पूर्ण करने वाला होगा। प्रथम रोहिणी सुत होने के कारण रोहिणेय द्वितीय सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेंगे।
बल्देव जी कृष्ण के बड़े भाई थे, दोनों भाइयों ने छठे वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही समाज सेवा एवं दैत्य संहार का कार्य प्रारम्भ किया दिया था। उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर मथुरा के राजा कंस का वध किया। एक दिन किसी बात को लेकर दाऊजी महाराज जी कृष्ण से रुष्ट हो गये। इस बात को लेकर दाऊजी महाराज ने कालिन्दी की धारा को अपने हल की नोंक से विपरीत दिशा में मोड़ दिया। जिसका प्रमाण आज भी ब्रज में मौजूद है। ठाकुर श्री दाऊजी महाराज मल्ल विद्या के गुरु थे। साथ ही हल-मूसल होने के साथ वे 'कृषक देव' भी थे। आज भी किसान अपने कृषि कार्य प्रारम्भ करने से पहले दाऊजी महाराज को नमन करते हैं।पौराणिक आख्यान ब्रज के राजा पालक और संरक्षक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम पुराणों के अनुसार बलराम जी के रूप में शेषनाग के शेषयायी विष्णु भगवान के निर्देश पर अवतार लिया था। शेषनाग के जन्म की भी कथा है। कद्रू क गर्भ से कश्यप के पुत्र के रूप में शेषनाग का जन्म हुआ। भगवान विष्णु की आज्ञा से शेषनाग ने भूमण्डल को अपने सिर पर धारण कर लिया और सबसे नीचे के लोक में स्थित हो गये। तब अतिबल चाक्षप मनु पृथ्वी के सम्राट हुए। मनु ने यज्ञ किया और यज्ञ कुण्ड से ज्योतिस्मती नामक कन्या उत्पन्न हुई। नागराज शेषनाग ने अपनी पत्नी 'नागलक्ष्मी' को आदेश दिया कि तुम मनु की कन्या के रूप में यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न होना। एक दिन मनु ने स्नेह वश पुत्री से पूछा तुम कैसा वर चाहती हो  कन्या ने कहा कि जो सबसे अधिक बलवान हो, वही मेरा स्वामी हो। राजा ने सभी देवों को बुलाकर उनकी शक्ति को जाना तो उन्होंने भगवान संकर्षण को श्रेष्ठ बलवान बताते हुए उनके गुणों का बखान किया। संकर्षण को प्राप्त करने के लिए ज्योतिस्मती ने लाखों वर्षों तक विन्ध्याचल पर्वत पर तप किया। सबने अपने-अपने बल की प्रशंसा की लेकिन ज्योतिस्मती ने भगवान संकर्षण का स्मरण कर क्रोधित कर शनि को पंगु, शुक्र को काना, बृहस्पति को स्त्रीभाव, बुध को निष्फल, मंगल को वानरमुखी, चन्द्रमा को राज्य यक्ष्मा रोगी, सूर्य को दन्तविहीन, वरुण को जलन्धर रोग, यमराज को मानभंग का श्राप दे दिया। इन्द्र का श्राप ज्योतिषाल हो गया। तब ब्रह्मा जी की दृष्टि उस तेजस्विनी पर पड़ी, उन्होंने भगवान संकर्षण को प्राप्त करने का वरदान दिया, लेकिन तब तक 27 चतुर्युगी बीत गये। दाऊजी मन्दिर, बलदेव अवतार तब ज्योतिस्मती आनर्त देश के राजा रैवत कन्या रेवती की देह में विलीन हो गई। जब दैत्य सेनाओं ने राजाओं के रूप में उत्पन्न होकर पृथ्वी को भयानक भार से दबा दिया, तब पृथ्वी ने गौ का रूप धारण कर ब्रह्मा जी की शरण ली। देव श्रेष्ठ ब्रह्माजी ने शंकरजी को विरजा नदी के तट पर 'भगवान संकर्षण' के दर्शन किये। देवताओं ने उन्हें पृथ्वी के भार वृत्तांत सुनाया तब शेषशोभी भगवान शेषनाग से कहने लगे, तुम पहले रोहिणी के उदर से प्रकट हो, मैं देवकी के पुत्र के रूप में अभिभूर्त होऊँगा। इस प्रकार मल्ल विद्या के गुरु कृष्णाग्रज बलरामजी ने भाद्रपद मास षष्ठी तिथि बुधवार के दिन मध्याह्न के समय तुला लग्न में पाँच ग्रह उच्च के थे, रोहिणी आनन्द और सुख से तृत्प किया।


दूर्वाष्टमी व्रत = भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि

दूर्वाष्टमी व्रत = भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को दूर्वाष्टमी का व्रत किया जाता हैं।
इस दिन प्रात: स्नानादि से निर्वत हो लाल रंग के वस्त्र पहनकर एक पाटे पर दूर्वा, बालको की मुर्तिया , सर्पों की मूर्ति ,  एक मटका और एक स्त्री का चित्र मिट्टी से बनाकर चावल , जल , दूध , रोली , आटा , घी , चीनी मिलाकर मोई बनाकर पूजा करे। गंध , पुष्प , धुप , दीप , खजूर , नारियल , अक्षत , माला आदि से मन्त्रो से पूजा करे।
त्वं दूर्वे अमृत जन्मासि वन्दिता व सुरसुरे:।
सौभाग्यं संतति कृत्वा सर्वकार्यकरी भव।।
यथा शाखाप्रशाखाभिविरस्त्रितासी महीतले।
तथा ममामी संतानं देहि त्वमजरामरे।।
मीठे बाजरे का बायना निकाल कर दक्षिणा ब्लाउज पिस सासुजी को पाँव लग कर दे। फिर दूर्वाष्टमी की कथा सुनकर इस दिन ठंडा भोजन करना चाहिये।

पूजन का शुभ मुहूर्त = 25 अगस्त मंगलवार दोपहर 12.22 से दोपहर 01.49 तक रहेगा। मंगलवार 25 अगस्त को दोपहर 12.21 से भद्रा शुरू होगी और रात्रि 11 बजकर 30 मिनट पर समाप्त होगी, धर्मग्रंथों के अनुसार जब चंद्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशि में रहे तो भद्रा स्वर्ग लोक की होती है। भद्रा जब स्वर्ग लोक की होती है तो आप शुभ कार्य कर सकते हैं, मंगलवार 25 अगस्त को भद्रा वृश्चिक राशि में होगी, इसलिए दूर्वाष्टमी (द्रूवड़ी) पूजन पर भद्रा का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

द्रूवड़ी के दिन महिलाएं और नवविवाहिता, इस व्रत को करती है और सरोवर अथवा बहते पानी वाले स्थानों पर जाकर पूजन करती हैं। संतान एवं परिवार की सुख समृद्धि मांगती है। इसमें पारंपरिक गीत गाती हैं। इसके अलावा पूजन में मीठे रोट, दूर्वा, अंकुरित मोठ, मूंग,चने फल एवं वस्त्र आदि चढ़ाया जाता है। पूजन में छोटे बच्चों को पूजन स्थल पर उठाकर परिक्रमा करवाते है। इस व्रत में श्रीगणेश जी एवं श्री लक्ष्मीनारायण का पूजन किया जाता है। दूर्वाष्टमी का व्रत करने से सुख, सौभाग्य व दूर्वा के अंकुरों के समान उसके कुल की वृद्धि होती हैं।

द्रूवड़ी पूजन के लिए मूंग,चने आदि भिगोने शुभ मुहूर्त 24 अगस्त सुबह 09:15 के बाद पूरा दिन शुभ है। यह व्रत विशेष रुप से स्त्रियों का पर्व होता है। इस दिन अंकुरित मोठ, मूंग, तथा चने आदि को भोजन में उपयोग किया जाता है। प्रसाद रूप में इन्हें ही चढाया जाता है। सारा दिन व्रत रखकर रात्रि में पूजन कर फिर दूर्वाष्टमी की कथा सुनकर भोजन करें।

दूर्वाष्टमी की कहानी
एक साहूकार था उसके आठ बेटे थे। बेटे विवाह योग्य हुये तो सबसे बड़े बेटे का विवाह तय कर दिया। विवाह का मुहूर्त दूर्वाष्टमी का निकला। जब विवाह होने लगा तो फेरो के समय एक सर्प वहाँ आया और दुल्हे को डस लिया और साहूकार के बेटे की मृत्यु हो गई। सभी लडको के विवाह का मुहूर्त दूर्वाष्टमी का निकला और इसी तरह साहूकार के सात बेटों को सर्प ने डस लिया। आठवे बेटे का विवाह तय हुआ। लडके की बहन का ससुराल किसी गाँव में था। वह उसको लेने गया , लेकर जब वापस आने लगा तो बहन को प्यास लगी बहन एक कुँए पर गई।

वहाँ बेमाता कुछ बना रही थी और बार = बार बिगाड़ रही थी। बहन ने पूछा = आप यह क्या कर रही हैं  तब बेमाता ने बताया की एक साहूकार हैं जिसके सात बेटे मर चुके हैं और आठंवा भी मरने वाला हैं सो उसके लिए ढकनी दे रही हूँ ” क्यू बहन ने पूछा उसको बचाने का कोई उपाय हैं क्या मैं उस भाई की अभागन बहन हूँ। अगर उसकी बहन , भुआ यदि दूर्वाष्टमी का व्रत एवं पूजन करती हो  तो वह हर  काम उल्टा करे और भाई को ताने मारे और बारात में साथ जावे , कुम्हार से हांड़ी ढक्कन सहित लावे कच्चा करवा में दूध लावे जब सर्प ढसने आवे और दूध पीने लगे तब हांड़ी का ढक्कन बंद कर उस पर कच्चा सूत लपेट कर बांध देवे तो काल की घड़ी टल जावेगी तो उसके जीवन की रक्षा की जा सकती हैं। बस फिर क्या था बहन उसी समय से ही ताने मारना शुरू हो गई। भाई ने सोचा बहन पानी पिने गई तब ठीक थी शायद बहन को चोट – फेट हो गई। बहन भाई को गालिया बकती रही बड़ी मुश्किल के बाद दोनों घर पहुंचे। भाई का बिन्द्याक बैठाने लगे इस करम फूटे को चौकी पर मत बैठाओ सिला पर बैठाओ जिद्द करने लगी तो सिला पर बैठा कर बिन्द्याक बैठाया। भाई की निकासी होने लगी तो बहन बोली “ इसकी निकासी हवेली के पीछे के दरवाजे से करो सामने से नही करने दूँगी। सबने बहुत समझाया पर वह नहीं मानी चिल्लाने लगी सबने कहा यह बीमार हो जायेगी इसकी बात मान लो पीछे के दरवाजे से निकासी करवाई तभी सामने का दरवाजा गिर गया सबने कहा बहन ने भाई को बचा लिया , नहीं तो आज मर गया होता।

अब गाजे बाजे से बारात जाने लगी तो बहन बोली मैं भी बारात में जाउंगी सब ने समझाया तेरी तबियत ठीक नहीं हैं , ओरते बारात में नहीं जाती पर वह नही मानी साथ गई। रास्ते में विश्राम करने के लिए बारात बरगद  के पेड़ के नीचे रुकने लगी तो बहन बोली इसकी बारात धुप में रुकवाओ सबने समझाया पर वह नहीं मानी तंग आकर धुप में बारात रुकवाई तभी बरगद का पेड़ गिर गया सबने कहा बहन की जिद्द ने सब बारातियों व भाई के जीवन कि रक्षा की भगवान जों करता हैं अच्छे के लिए करता हैं।

बारात पहुची भाई तोरण मारने लगा तो बहन गालिया बकने लगी इस करमफूटे का तोरण सामने के दरवाजे से नहीं करने दूँगी और आरती चौमुखे दीपक से नही करने दूँगी पीछे के दरवाजे से तोरण मारो और जगमग खीरे की थाली भरकर आरती करो। सब ने लडकी वालो को कहा जों ये कहे वही करो ये लाडली बहन हैं। तोरण मारते वक्त सामने का दरवाजा गिर गया। आरती करते समय ऊपर से सर्प आकर गिरा तो जगमगाते खीरे में जल गया। सब ने कहा खीरे नहीं होते तो सर्प काट खाता फिर बहन जिद्द करके फेरो में बैठी। दो फेरे होते ही सर्प आया बहन ने पहले से ही करवे में कच्चा दूध रखा था। सर्प जैसे ही दूध पीने लगा तो बहन ने सर्प को हांड़ी में डालकर ऊपर से कच्चे सूत की तांती बांध दी और गौडे के नीचे दबा लिया। उसी समय नागिन आई और कहने लगी = पापन हत्यारन छोड़ मेरे सर्प राज को” तब बहन बोली तेरे नागराज ने तो मेरे सातों भाइयो को डस लिया पहले उन सब को जीवित कर तू तो एक घड़ी में ही व्याकुल हो गई मेरी सात भाभिया कब से दुखी हैं। नागिन ने सातों भाइयो को जीवन दान दिया पीछे बहन ने सर्पराज को छोड़ दिया।
गाजे बाजे से दुल्हन लेकर सातों भाइयो के साथ बारात रवाना हुई। रास्ते में दूर्वाष्टमी का व्रत आया बहन ने बारात रुकवाई सातों भाई – भाभियों के साथ पूजा कर विधि विधान से कथा सुनाई फिर भीगे मीठे बाजरे का बायना निकाला बहन ने भाभियों से कहा , “ हर वर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को दूर्वाष्टमी का व्रत किया जाता हैं। इस दिन प्रात: स्नानादि से निर्वत हो लाल रंग के वस्त्र पहनकर एक पाटे पर दूर्वा अर्थात बालको की मुर्तिया , सर्पों की मूर्ति ,  एक मटका और एक स्त्री का चित्र मिट्टी से बनाकर चावल , जल , दूध , रोली , आटा , घी , चीनी मिलाकर मोई बनाकर पूजा करे। बायना चरण स्पर्श कर सासुजी को देवे। उधर साहूकार साहुकारनी बारात की राह देख रहे थे। पनिहारिनों ने आकर बताया बहन भाई भाभियों को लेकर आ रही हैं स्वागत की तैयारी करो।

स्वागत के बाद बहन अपने घर जाने लगी माँ ने कहा तेरे दूर्वाष्टमी के व्रत के फल के कारण सातों भाइयो को लाई हैं अब कुछ दिन अपनी भाभियों के साथ मौज मना। बहन ने कहा माँ में अपने घर बच्चो को देखूंगी कब से छोड़ा हैं। उसके भाइयो ने गाँव में हेला फिरा दिया की सब कोई दुबडी आठे (दूर्वाष्टमी) का व्रत करना सब मेहमानों ने बहन की बढाई की , बहन को ढेर सारे उपहार कपड़े देकर मंगल गीत गाकर विदा किया। हे दूर्वाष्टमी माता ! जैसे उसके भाई को जीवन दान दिया वैसे सबको देना।


गणेश जी को हाथी का सिर क्यों क्यों काटा गया गणेश जी का सिर

गणेश जी को हाथी का सिर क्यों क्यों काटा गया गणेश जी का सिर
एकदन्ताय् विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥
भगवान श्रीगणेश को विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, लंबोदर, व्रकतुंड आदि कई विचित्र नामों से पुकारा जाता है। जितने विचित्र इनके नाम हैं उतनी विचित्र इनसे जुड़ी कथाएं भी हैं। अनेक धर्म ग्रंथों में भगवान श्रीगणेश की कथाओं का वर्णन मिलता है। भगवान श्रीगणेश से जुड़ी कुछ जग प्रसिद्ध कथा यहाँ प्रस्तुत है।
1- शिवमहापुराण के अनुसार माता पार्वती को श्रीगणेश का निर्माण करने का विचार उनकी सखियां जया और विजया ने दिया था। जया-विजया ने पार्वती से कहा था कि नंदी आदि सभी गण सिर्फ महादेव की आज्ञा का ही पालन करते हैं। अत: आपको भी एक गण की रचना करनी चाहिए जो सिर्फ आपकी आज्ञा का पालन करे। इस प्रकार विचार आने पर माता पार्वती ने श्रीगणेश की रचना अपने शरीर के मैल से की।
2- शिवमहापुराण के अनुसार श्रीगणेश के शरीर का रंग लाल और हरा है। श्रीगणेश को जो दूर्वा चढ़ाई जाती है वह जडऱहित, बारह अंगुल लंबी और तीन गांठों वाली होना चाहिए। ऐसी 101 या 121 दूर्वा से श्रीगणेश की पूजा करना चाहिए।
3- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार माता पार्वती ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुण्यक नाम व्रत किया था, इसी व्रत के फलस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण पुत्र रूप में माता पार्वती को प्राप्त हुए।
4- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जब सभी देवता श्रीगणेश को आशीर्वाद दे रहे थे तब शनिदेव सिर नीचे किए हुए खड़े थे। पार्वती द्वारा पुछने पर शनिदेव ने कहा कि मेरे द्वारा देखने पर आपके पुत्र का अहित हो सकता है लेकिन जब माता पार्वती के कहने पर शनिदेव ने बालक को देखा तो उसका सिर धड़ से अलग हो गया।
5- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जब शनि द्वारा देखने पर माता पार्वती के पुत्र का मस्तक कट गया तो भगवान श्रीहरि गरूड़ पर सवार होकर उत्तर दिशा की ओर गए और पुष्पभद्रा नदी के तट पर हथिनी के साथ सो रहे एक गजबालक का सिर काटकर ले आए। उस गजबालक का सिर श्रीहरि ने माता पार्वती के मस्तक विहिन पुत्र के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया।
6- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार किसी कारणवश भगवान शिव ने क्रोध में आकर सूर्य पर त्रिशूल से प्रहार किया। इस प्रहार से सूर्यदेव चेतनाहीन हो गए। सूर्यदेव के पिता कश्यप ने जब यह देखा तो उन्होंने क्रोध में आकर शिवजी को श्राप दिया कि जिस प्रकार आज तुम्हारे त्रिशूल से मेरे पुत्र का शरीर नष्ट हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे पुत्र का मस्तक भी कट जाएगा। इसी श्राप के फलस्वरूप भगवान श्रीगणेश के मस्तक कटने की घटना हुई।
7- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार तुलसीदेवी गंगा तट से गुजर रही थी, उस समय वहां श्रीगणेश भी तप कर रहे थे। श्रीगणेश को देखकर तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी ने श्रीगणेश से कहा कि आप मेरे स्वामी हो जाइए लेकिन श्रीगणेश ने विवाह करने से इंकार कर दिया। क्रोधवश तुलसी ने श्रीगणेश को विवाह करने का श्राप दे दिया और श्रीगणेश ने तुलसी को वृक्ष बनने का।
8- शिवमहापुराण के अनुसार श्रीगणेश का विवाह प्रजापति विश्वरूप की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि से हुआ है। श्रीगणेश के दो पुत्र हैं इनके नाम शुभ तथा लाभ हैं।
9- शिवमहापुराण के अनुसार जब भगवान शिव त्रिपुर का नाश करने जा रहे थे तब आकाशवाणी हुई कि जब तक आप श्रीगणेश का पूजन नहीं करेंगे तब तक तीनों पुरों का संहार नहीं कर सकेंगे। तब भगवान शिव ने भद्रकाली को बुलाकर गजानन का पूजन किया और युद्ध में विजय प्राप्त की।
10- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, एक बार परशुराम जब भगवान शिव के दर्शन करने कैलाश पहुंचे तो भगवान ध्यान में थे। तब श्रीगणेश ने परशुरामजी को भगवान शिव से मिलने नहीं दिया। इस बात से क्रोधित होकर परशुरामजी ने फरसे से श्रीगणेश पर वार कर दिया। वह फरसा स्वयं भगवान शिव ने परशुराम को दिया था। श्रीगणेश उस फरसे का वार खाली नहीं होने देना चाहते थे इसलिए उन्होंने उस फरसे का वार अपने दांत पर झेल लिया, जिसके कारण उनका एक दांत टूट गया। तभी से उन्हें एकदंत भी कहा जाता है।
11- स्कंद पुराण के अनुसार, एक समय जब माता पार्वती मानसरोवर में स्नान कर रही थी तब उन्होंने स्नान स्थल पर कोई आ न सके इस हेतु अपनी माया से गणेश को जन्म देकर 'बाल गणेश' को पहरा देने के लिए नियुक्त कर दिया। इसी दौरान भगवान शिव उधर आ जाते हैं। गणेशजी उन्हें रोक कर कहते हैं कि आप उधर नहीं जा सकते हैं। यह सुनकर भगवान शिव क्रोधित हो जाते हैं और गणेश जी को रास्ते से हटने का कहते हैं किंतु गणेश जी अड़े रहते हैं तब दोनों में युद्ध हो जाता है।
युद्ध के दौरान क्रोधित होकर शिवजी बाल गणेश का सिर धड़ से अलग कर देते हैं। शिव के इस कृत्य का जब पार्वती को पता चलता है तो वे विलाप और क्रोध से प्रलय का सृजन करते हुए कहती है कि तुमने मेरे पुत्र को मार डाला। माता का रौद्र रूप देख शिव एक हाथी का सिर गणेश के धड़ से जोड़कर गणेश जी को पुन:जीवित कर देते हैं। तभी से भगवान गणेश को गजानन गणेश कहा जाने लगा।
12- महाभारत का लेखन श्रीगणेश ने किया है, ये बात तो सभी जानते हैं लेकिन महाभारत लिखने से पहले उन्होंने महर्षि वेदव्यास के सामने एक शर्त रखी थी इसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। शर्त इस प्रकार थी कि श्रीगणेश ने महर्षि वेदव्यास से कहा था कि यदि लिखते समय मेरी लेखनी क्षणभर के लिए भी न रूके तो मैं इस ग्रंथ का लेखक बन सकता हूं।
तब महर्षि वेदव्यास जी ये शर्त मान ली और श्रीगणेश से कहा कि मैं जो भी बोलूं आप उसे बिना समझे मत लिखना। तब वेदव्यास जी बीच-बीच में कुछ ऐसे श्लोक बोलते कि उन्हें समझने में श्रीगणेश को थोड़ा समय लगता। इस बीच महर्षि वेदव्यास अन्य काम कर लेते थे।
13- पद्मपुराण के अनुसार, पूर्वकाल में पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया। मोदक देखकर दोनों बालक (कार्तिकेय तथा गणेश) माता से माँगने लगे। तब माता ने मोदक के महत्व का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके सर्वप्रथम सभी तीर्थों का भ्रमण कर आएगा, उसी को मैं यह मोदक दूँगी।
माता की ऐसी बात सुनकर कार्तिकेय ने मयूर पर आरूढ़ होकर मुहूर्तभर में ही सब तीर्थों का स्नान कर लिया। इधर गणेश जी का वाहन मूषक होने के कारण वे तीर्थ भ्रमण में असमर्थ थे। तब गणेशजी श्रद्धापूर्वक माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गए।
यह देख माता पार्वतीजी ने कहा कि समस्त तीर्थों में किया हुआ स्नान, सम्पूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब प्रकार के व्रत, मन्त्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते। इसलिए यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। अतः यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूँ। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी।
14- गणेश पुराण के अनुसार छन्दशास्त्र में 8 गण होते हैं- मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, तगण। इनके अधिष्ठाता देवता होने के कारण भी इन्हें गणेश की संज्ञा दी गई है। अक्षरों को गण भी कहा जाता है। इनके ईश होने के कारण इन्हें गणेश कहा जाता है, इसलिए वे विद्या-बुद्धि के 

स्वाहा और स्वधा में अन्तर = जब हम किसी देवी-देवता का यज्ञ या हवन करतें हैं

स्वाहा और स्वधा में अन्तर = जब हम किसी देवी-देवता का यज्ञ या हवन करतें हैं तो आहुति के समय स्वाहा अथवा स्वधा शब्द का उच्चारण करतें हैं । आइये जानें कि स्वाहा अथवा स्वधा कौन है और आहुति के समय इसका उच्चारण क्यों किया जाता है।
स्‍वाहा शब्‍द संस्‍कृत के ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘आह्वे’ धातु से बना है । ‘सु’ उपसर्ग ‘अच्‍छा या सुन्‍दर या ठीक प्रकार से’ का बोध कराने के लि‍ए शब्‍द या धातु के साथ जोड़ा जाता है और ‘आह्वे’ का अर्थ बुलाना होता है । अर्थात यज्ञ करते समय उद्देश्य तथा आदर पूर्वक कि‍सी देवता को आमंत्रित कर उचि‍त रीति‍ से आहुति देने लि‍ए स्‍वाहा शब्‍द का प्रयोग कि‍या जाता है।
शिवपुराण की कथा के अनुसार ।दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। उनमें से एक पुत्री का विवाह उन्होंने अग्नि देवता के साथ किया था। उनका नाम था स्वाहा। अग्नि अपनी पत्नी स्वाहा द्वारा ही भोजन ग्रहण करते है। इसलिये देवताओं को आहूति देने के लिए स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है।
दक्ष ने अपनी एक अन्य पुत्री स्वाधा का विवाह पितरों के साथ किया था। अत: पितर अपनी पत्नी स्वधा द्वारा ही भोजन ग्रहण करतें हैं। इसलिये पितरों को आहूति देने के लिए स्वाहा के स्थान पर स्वधा शब्द का उच्चारण किया जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार – ब्राह्मणों और क्षत्रियों के यज्ञों की हवि देवताओं तक नहीं पहुंचती थी, अत: वे सब ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा उनके साथ श्री कृष्ण की शरण में पहुंचे। कृष्ण ने उन्हें प्रकृति की पूजा करने के लिए कहा। प्रकृति की कला ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा। उन्होंने वर स्वरूप सदैव हवि प्राप्त करते रहने की इच्छा प्रकट की।
उसने देवताओं को हवि मिलने के लिए आश्वस्त किया। वह स्वयं कृष्ण की आराधिका थी। प्रकृति की उस कला से कृष्ण ने कहा कि वह अग्नि की पत्नी स्वाहा होगी। उसी के माध्यम से देवता तृप्त हो जायेंगे। अग्नि ने वहां उपस्थित होकर उसका पाणिग्रहण किया। स्वाहा के गर्भ से पावक, पवमान तथा शुचि नाम के पुत्र उत्पन्न हुये। इन तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि प्रकट हुये। वे ही पिता तथा पितामह सहित उनचास अग्नि कहलाते हैं ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण पृ. 324
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 40-41
भगवान नारायण कहते हैं– ब्रह्मन! देवी स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है। शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी ब्राह्मण स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होता– यह सर्वथा सत्य है। ‘भगवती स्वधा ब्रह्मा जी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं। पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।’ इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम शिला अथवा मंगलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये। महामुने! ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें। ब्रह्मपुत्र विज्ञानी नारद! अब स्तोत्र सुनो। यह स्तोत्र मानवों के लिए सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करने वाला है। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इसका पाठ किया था।
ब्रह्मा जी बोले- ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारणमात्र से मानव तीर्थस्नायी समझा जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय-यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं। श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का फल पा लेता है। इसमें संशय नहीं है। जो मानव ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस पवित्र नाम का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता और प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है। देवि! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूपिणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं। तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ। सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है। तुम ऊँ, नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो।
चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है। इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये। यही भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समाहित-चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया। उसको वेद पाठ का फल मिलता है।
स्वाहा ओर स्वधा अन्तर
अग्नि में जो भी आहुति दी जायेगी , चाहे किसी के लिए हो स्वाहा ही बोला जाता है 
पर अग्नि के बाहर पितरों को स्वधा बोला जाता है.
स्वधा का करके आह्वान, पितरों की होती है भूख शांतः ब्रहमा की मानसपुत्री “स्वधा” की कथा
स्वधा, स्वधा, स्वधा
स्वधास्तोत्रम्” पाठ के अनुसार स्वधा,स्वधा, स्वधा, इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल प्राप्त हो जाते है
सर्व पितृं शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!
हे मेरे पितृगण !
मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा है। मैँ इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ। आप तृप्त हो जाएं। मैँ दोनो भुजायेँ आकाश की ओर उठा कर आप को नमन करता हूँ। आप को नमस्कार है।
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं स्वधास्तोत्रम् पाठ (श्राद्ध, काल और पितरो के निमित्त तर्पण फल प्राप्ति हेतु पाठ)
ब्रह्मोवाच
1. स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः। मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्॥
अर्थ- ब्रह्माजी बोले स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापोँ से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकरी हो जाता है॥
2. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत्। श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च॥
अर्थ – स्वधा,स्वधा,स्वधा, - इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के पुरुष को प्राप्त हो जाते हैँ
3. श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः। लभेच्छाद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः॥
अर्थ-श्राद्धके अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है,वह सौ श्राद्धो का पुण्य पा लेता है, इसमेँ संशय नहीँ है।
4. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः। प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीँ पुत्रं गुणान्वितम्॥
अर्थ- जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।
5. पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी। श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा॥
अर्थ- देवि ! तुम पितरोँ के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणोँ के लिये जीवन स्वरूपिणी हो। तुम्हेँ श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैँ।
6. बहिर्गच्छ मन्मनसः पितृणां तुष्टिहेतवे। सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे॥
अर्थ- दवि ! तुम पितरोँ की तुष्टि, द्विजातियोँ की प्रीति तथा गृहस्थोँ की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकल कर बाहर आ जायो।
7. नित्या त्वं नित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते। आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव॥
अर्थ- सुव्रते! तुम नित्य हो तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल मेँ तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है।
8. स्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा। निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम्॥
अर्थ- तुम ॐ, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो॥ चारोँ वेदोँ द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपोँ का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगोँ मेँ इन छहोँ की बड़ी मान्यता है।
9. पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी। धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता॥
अर्थ- हे देवि ! तुम पहले गोलोक मेँ "स्वधा" नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान श्री कृष्ण ने अपने वक्षः स्थल पर तुम्हेँ धारण किया, इसी कारण तुम "स्वधा" नाम से जानी गयी॥
10. इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मलोके च संसदि। तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह॥
अर्थ- इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गा कर ब्रह्मा जी अपनी सभा मेँ विराजमान हो गये। इतने मेँ सहसा भगवती स्वधा उन के सामने प्रकट हो गयी॥
11. तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम्। तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः॥
अर्थ- तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरोँ के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हो कर अपने लोक को चले गये॥
12. स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः श्रृणोति समाहितः। स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत्॥
अर्थ- यह भगवती स्वधा का पुनीत सतोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोँ मेँ स्नान कर लिया और वह वेदपाठ का फल प्राप्त कर लेता है॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये
प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसण्वादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्ति तत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
स्वधा, स्वधा, स्वधा
इस प्रकार श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड मेँ ब्रह्माकृत "स्वधा स्तोत्र" सम्पूर्ण हुया॥ सर्व पितृं शान्ति शान्ति शान्ति,
(स्वधा, स्वधा, स्वधा)
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Sunday, 16 August 2020

बछ बारस - Bachh Baras -गौवत्स द्वादशी-बछ बारस

बछ बारस Bachh Baras-गौवत्स द्वादशी-बछ बारस 16 अगस्त 2020 को मनाई जाएगी। बछ बारस भाद्रपद महीने की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। बछ यानि बछड़ा गाय के छोटे बच्चे को कहते है । इस दिन को मनाने का उद्देश्य गाय व बछड़े का महत्त्व समझाना है। यह दिन गोवत्स द्वादशी के नाम से भी जाना जाता है। गोवत्स का मतलब भी गाय का बच्चा ही होता है। बछ बारस का यह दिन कृष्ण जन्माष्टमी के चार दिन बाद आता है । कृष्ण भगवान को गाय व बछड़ा बहुत प्रिय थे तथा गाय में सैकड़ो देवताओं का वास माना जाता है। गाय व बछड़े की पूजा करने से कृष्ण भगवान का , गाय में निवास करने वाले देवताओं का और गाय का आशीर्वाद मिलता है जिससे परिवार में खुशहाली बनी रहती है ऐसा माना जाता है। बछ बारस इस दिन महिलायें बछ बारस का व्रत रखती है। यह व्रत सुहागन महिलाएं सुपुत्र प्राप्ति और पुत्र की मंगल कामना के लिए व परिवार की खुशहाली के लिए करती है। गाय और बछड़े का पूजन किया जाता है। इस दिन गाय का दूध और दूध से बने पदार्थ जैसे दही , मक्खन , घी आदि का उपयोग नहीं किया जाता। इसके अलावा गेहूँ और चावल तथा इनसे बने सामान नहीं खाये जाते । भोजन में चाकू से कटी हुई किसी भी चीज का सेवन नहीं करते है। इस दिन अंकुरित अनाज जैसे चना , मोठ , मूंग , मटर आदि का उपयोग किया जाता है। भोजन में बेसन से बने आहार जैसे कढ़ी , पकोड़ी , भजिये आदि तथा मक्के , बाजरे ,ज्वार आदि की रोटी तथा बेसन से बनी मिठाई का उपयोग किया जाता है। बछ बारस के व्रत का उद्यापन करते समय इसी प्रकार का भोजन बनाना चाहिए। उजरने में यानि उद्यापन में बारह स्त्रियां , दो चाँद सूरज की और एक साठिया इन सबको यही भोजन कराया जाता है। शास्त्रो के अनुसार इस दिन गाय की सेवा करने से , उसे हरा चारा खिलाने से परिवार में महालक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा परिवार में अकालमृत्यु की सम्भावना समाप्त होती है। बछ बारस की पूजा विधि सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर शुद्ध कपड़े पहने। दूध देने वाली गाय और उसके बछड़े को साफ पानी से नहलाकर शुद्ध करें। गाय और बछड़े को नए वस्त्र ओढ़ाएँ। फूल माला पहनाएँ। उनके सींगों को सजाएँ। उन्हें तिलक करें गाय और बछड़े को भीगे हुए अंकुरित चने , अंकुरित मूंग , मटर , चने के बिरवे , जौ की रोटी आदि खिलाएँ। गौ माता के पैरों धूल से खुद के तिलक लगाएँ। इसके बाद बछ बारस की कहानी सुने। बछ बारस की कहानी के लिए क्लीक करें और पढ़ें बछ बारस इस प्रकार गाय और बछड़े की पूजा करने के बाद महिलायें अपने पुत्र के तिलक लगाकर उसे नारियल देकर उसकी लंबी उम्र और सकुशलता की कामना करें। उसे आशीर्वाद दें। बड़े बुजुर्ग के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लें। अपनी श्रद्धा और रिवाज के अनुसार व्रत या उपवास रखें। मोठ या बाजरा दान करें। सासुजी को बयाना देकर आशीर्वाद लें। यदि आपके घर में खुद की गाय नहीं हो तो दूसरे के यहाँ भी गाय बछड़े की पूजा की जा सकती है। ये भी संभव नहीं हो तो गीली मिट्टी से गाय और बछड़े की आकृति बना कर उनकी पूजा कर सकते है। कुछ लोग सुबह आटे से गाय और बछड़े की आकृति बनाकर पूजा करते है। शाम को गाय चारा खाकर वापस आती है तब उसका पूजन धुप, दीप , चन्दन , नैवेद्य आदि से करते है। ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि।मातर्ममाभिषितं सफलं कुरु नन्दिनि।। ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि: प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा। 

Wednesday, 12 August 2020

गीता के 18 अध्यायो का संक्षेप में हिंदी सारांश

गीता के 18 अध्यायो का संक्षेप में हिंदी सारांश भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई। गीता का उपदेश मात्र अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि ये समस्त जगत के लिए था, अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से परास्त नहीं हो सकता है। गीता माहात्म्य में उपनिषदों को गाय और गीता को उसका दूध कहा गया है। इसका अर्थ है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या है , उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। गीता के 18 अध्याय में क्या संदेश छिपा हुआ है आइए संक्षिप्त में जाने... 1 वा अध्याय अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। मैं न तो विजय चाहता हूं, न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूं, हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं। हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। इस प्रकार शोक से संतप्त होकर अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य को भूल बैठे अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारे में बताया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सच के परिचित कराया। कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अत: भगवान कृष्ण ने एक गुरु का कर्तव्य निभाते हुए तर्क, बुद्धि, ज्ञान, कर्म की चर्चा, विश्व के स्वभाव, उसमें जीवन की स्थिति और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार किया। 2 वा अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष से मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियां वश में नहीं रहती हैं ।इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियां आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मीस्थिति कहा है। 3 वा अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूं, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी मैं तंद्रारहित होकर कर्म करता हूं और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता हैं। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जाएँगे। प्रकृति व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है। 4 वा अध्याय में बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यह गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है। यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा। 'कर्म से सिद्धि'-इससे बड़ा प्रभावशाली सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फलाशक्ति से बचकर करना चाहिए। 5 वा अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता। 6 वा अध्याय भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहा जाता है। जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके बिना फल की इच्छा के कोई कार्य करता है तो उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है और जिस मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है उसके लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान सब एक समान हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य स्थिर चित्त और इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके हमेशा सन्तुष्ट रहता है। 7 वा अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा कि सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रु चि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है। 8 वा अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। 9 वा अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, मृत्यु, संत-असंत और जितने भी देवी-देवता हैं सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी शक्ति थी। 10 अध्याय 10 अध्याय का सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन देवताओं की व्याख्या चाहे न हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं, इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है। 11वां अध्याय 11वा अध्याय में अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। 'दिशो न जाने न लभे च शर्म' ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले और उसने प्रार्थना की कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है। 12 वा अध्याय 12 वा अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जो भगवान के ध्यान में लग जाते हैं वे भगवन्निष्ठ होते हैं अर्थात भक्ति से भक्ति पैदा होती है। नौ प्रकार की साधना भक्ति हैं तथा इनके आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है जो कर्मयोग और ज्ञानयोग सबकी साध्य है। भगवान कृष्ण ने कहा जो मनुष्य अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण रूप की पूजा में लगा रहता है, वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। वहीं जो मनुष्य परमात्मा के सर्वव्यापी, अकल्पनीय, निराकार, अविनाशी, अचल स्थित स्वरूप की उपासना करता है और अपनी सभी इन्द्रियों को वश में करके, सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहते हुए सभी प्राणीयों के हित में लगा रहता है वह भी मुझे प्राप्त करता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा की तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा। यदि तू ऐसा नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। अगर तू ये भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करेगा। 13 अध्याय 13 अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जानने वाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है। अकेला सत्व शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह स्थिर रहता है और अकेला तम भी जड़वत निश्चेष्ट रहता है। किंतु दोनों के बीच में छाया हुआ रजोगुण उन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्व का नाम ही रजस है। भगवान् कृष्ण ने कहा कि मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव, निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है। 14 अध्याय 14 अध्याय में समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएं हैं। जो मूल या केंद्र है, जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है। जैसा गीता में स्पष्ट कहा है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है। 15 अध्याय 15 अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने विश्व के अश्वत्थ रूप का वर्णन किया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तार वाला है। वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है। 16 अध्याय 16 अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना देवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। भगवान कृष्ण ने कहा की अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर विषय-भोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य नरक में जाते हैं। आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वे बहुत ही घमंडी होते हैं। ऐसे मनुष्य धन और झूठी मान-प्रतिष्ठा के मद में लीन होकर केवल नाम-मात्र के लिये बिना किसी शास्त्र-विधि के घमण्ड के साथ यज्ञ करते हैं। आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूं । 17 अध्याय 17 अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि सत, रज और तम जिसमें इन तीन गुणों का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं। जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। 18 अध्याय 18 अध्याय में गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। जो बुद्धि धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष, वृत्ति-निवृत्ति को ठीक से पहचानती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को बहुत देख भालकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक इस गीताशास्त्र का पाठ और श्रवण करते हैं वे सभी पापों से मुक्त होकर श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होते हैं। 

Friday, 7 August 2020

शुक्र ग्रह सम्पूर्ण परिचय

शुक्र ग्रह सम्पूर्ण परिचय एवं उपाय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्र एक ऐसा ग्रह है कि जिसकी शुभता के बिना आज के संसार में व्यक्ति का जीवन ही निरर्थक है। आज के इस भौतिकवादी युग में तथा सुखी वैवाहिक जीवन में शुक्र का स्थान सर्वोच्च है। व्यक्ति को भोग, ऐश्वर्य तथा सुखी वैवाहिक जीवन के आधार के लिये पत्रिका में शुक्र का शुभ तथा शक्तिशाली होना आवश्यक है। जिनकी पत्रिका में शुक्र की स्थिति शुभ व शक्तिशाली होती है उनके लिये संसार का प्रत्येक सुख उपलब्ध है। जिनका शुक्र खराब है, वह सब कुछ होते हए भी किसी प्रकार का भोग नहीं कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय ज्योतिष में शुक्र को ही भोग का कारक ग्रह माना गया है। मैंने शुक्र के लिये जितना भी शोध किया है, उसमें यह पाया है कि यदि शुक्र पत्रिका में शुभ व बली है तो व्यक्ति के लिये इस संसार में सब कुछ उपलब्ध है अन्यथा जातक पैसा होते हुए भी कुछ भोग नहीं कर सकता। विवाहित होते हुए भी दुःखी रहता है तथा जिससे विवाह हुआ है वह भी दुःखी रहता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन को सफल बनाने में शुक्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शुक्र के लिये ज्ञानी दैवज्ञ महर्षि पाराशर ने अपने ज्योतिष ग्रंथ बृहद् पाराशर होरा शास्त्रम् में कहा है कि- सुखी कान्तवपुःश्रेष्ठ: सुलोचना भृगोःसुतः । काव्यकर्ता कफाधिक्यानिलात्मा वक्रमूर्धजः । अर्थात् शुक्र सुन्दर शरीर, सुखी, अच्छे सुन्दर नेत्रों वाला, कविता करने वाला कफ-वायु मिश्रित प्रकृति व धुंघराले बालों वाला है। शुक्र ग्रह पौराणिक परिचय पौराणिक कथा के आधार पर शुक्र महर्षि भृगु के पुत्र हैं। जिस प्रकार से श्री बृहस्पति देवों के गुरु हैं, उसी प्रकार से शुक्र भी दैत्यों के गुरु हैं। इसलिये इनका बृहस्पति से सदा विरोध रहता है। मतान्तर से यह एक आंख विहीन हैं तथा चित्र-विचित्र वस्त्र धारण करते हैं। इनके पिता का नाम कवि था। दैत्यगुरु शक्र का गोत्र 'दनु' बताया जाता है। शास्त्रों में 'दनु' नाम के एक बहुत विद्वान ऋषि हुए हैं। उनकी संतानें ही दानव कहलाई। शुक्र का रंग काला है। यह ब्राह्मण वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं। शुक्र असुरराज बली के गुरु थे। इनकी पत्नी का नाम सुषमा तथा पुत्री का नाम देवयानी था। हरवंश पुराण की कथानुसार शुक्र ने शिव जी से पूछा कि असुरों की देवों से रक्षा तथा ईश्वर विजय का क्या मार्ग है ? तब उन्हें शिवजी ने तप मार्ग बताया। शुक्र तप के लिये चले गये। जब उन्हें तप किये हजारों वर्ष हो गये, तब इसा मध्य देवासुर संग्राम हो गया। श्री विष्णु ने शुक्र की माता का वध कर दिया। इस पर शुक्र ने उन्हें श्राप दिया कि वह सात बार पथ्वी पर मानव रूप में जन्म लेंगे। शुक्र ने अपनी मृत माता को पुनः जीवित कर लिया क्योंकि उन्हें शिवजी ने मृतसंजीवनी विद्या सिखाई थी। यही विद्या शुक्र ने अपनी पुत्री के माध्यम से कच को सिखाई थी। शिवजी के वरदान के लिये शुक्र ने पुनः तप आरम्भ किया। उनके तप को भंग करने के लिये इन्द्र ने अपनी पुत्री जयन्ती को भेजा परन्तु शुक्र का तप भंग नहीं हुआ। तप के बाद उन्होंने इन्द्र पुत्री से विवाह कर लिया। शुक्र के राजनीतिक ज्ञान की भी बहुत मान्यता है। इसलिये शुक्र के मत की चर्चा कई ग्रन्थों में होती है। शुक्र ने शुक्रनीति के नाम से एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी। पन्द्रहवीं सदी में इस ग्रन्थ का पुनः अनुवाद हुआ। शुक्र की एक आंख न होने की यह कथा है कि जब श्रीहरि विष्णु 'वामण' रूप में दैत्यराज बली को छलने गये थे, तब शुक्र ने श्री विष्णु को पहचान लिया था। जब राजा बली ने संकल्प लेने के लिये गंगासागर में से जल लेना चाहा तो शुक्र छोटा रूप धारण कर गंगासागर की टौंटी में छिप गये थे ताकि अवरोध होने पर जल न निकले। श्री विष्णु ने शुक्र की यह चाल समझ ली। उन्होंने कुश से गंगासागर की टौंटी को कुरेदा जिससे वह कुश शुक्र की आंख में घुस गया और शुक्र की आंख फूट गई। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह चन्द्रमा से पांच लाख योजन ऊपर स्थित है। वैज्ञानिक परिचय शुक्र ग्रह सौरमण्डल का सूर्य के बाद सबसे चमकीला ग्रह है। इसकी पृथ्वी से दूरी 637,014 किलोमीटर है। सूर्य से 10,78,21,050 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। शुक्र वर्ष में एक बार पृथ्वी के बहुत ही निकट आता है, तब इसकी पृथ्वी से दूरी 218539 किलोमीटर रह जाती है। शुक्र का व्यास 12,391 किलोमीटर है। शुक्र अपनी परिधि पर लगभग 34 अंश का झुकाव लिये लगभग 35.4 किलोमीटर प्रति सेकिंड की चाल से 224 दिन में सूर्य की परिक्रमा कर लेता है। यह अन्य ग्रहों की भांति वक्री भी होते हैं। 227 वर्षों के पश्चात् ठीक उसी तिथि, मास, दिन व अंश पर ठीक उसी स्थान पर आ जाता है जहां 227 वर्ष पहले था। सामान्य टेलीस्कोप से यदि इसे देखा जाये तो तारों के मध्य यह हल्के नीले रंग का दिखाई देता है। शुक्र का उदय सर्योदय से पहले होता है अथवा सूर्यास्त के बाद होता है। सामान्य परिचय नवग्रहों में देवगुरु बृहस्पति की तरह शुक्र को भी मंत्री पद प्राप्त है। शुक्र को कालपुरुष का 'काम' कहा जाता है। इसकी किरणें इस संसार के प्रत्येक जीव पर अपना अकाट्य प्रभाव छोड़ती हैं। इसलिये शुक्र के अस्त होने की स्थिति में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। यह पूर्व में अस्त होने के 75 दिन बाद पुनः उदित होता है। सांसारिक जीवन में शुक्र को भोग-विलास का प्रतिनिधि माना जाता इनका वाहन घोड़ा है तथा आग्नेय दिशा व भूमि तत्व के साथ वायु तत्व का भी आधिपत्य प्राप्त है। शुक्र का स्वभाव विनोद पूर्ण, हास्यपूर्ण व कलात्मक है तथा यह शांत प्रवृति का है। ब्राह्मण वर्ग से सम्बन्ध होने के बावजूद क्षत्रिय गुण का भी समावेश है। इसमें स्त्रियोचित गुण के आधार पर ज्योतिष में इन्हें स्त्रीलिंग का माना गया है। इनकी प्रवत्ति क्रोध युक्त वैश्य व शुद्र जैसी है। यह एक राशि में एक माह रहते हैं। शुक्र के बुध शनि व केतु मित्र हैं, सूर्य व चन्द्र शत्रु तथा मंगल, गुरु एवं राहू सम हैं। पत्रिका में यदि उनके साथ बुध हो तो शुक्र को बहुत अधिक बल प्राप्त होता है। शुक्र के अन्य नामों में भृगुसुत, भार्गव, उषनस, अच्छ, कवि, दैत्यगुरु, आस्फूजित, दानवेज्य, उशना, काण, ऋत्विक पुण्डरीक तथा ऋतु-अरुन्धति हैं। शुक्र ग्रह का गोचर फल, एवं मुख्य कारक शुक्र अपने संक्रमण काल अर्थात् राशि में प्रवेश से लगभग सप्ताह पहले ही फल देने लगते हैं । शुक्र राशि के मध्य में अर्थात 10 अंश से 20 के मध्य अधिक फल देते हैं। प्रत्येक जन्म राशि में शुक्र का गोचर निम्न प्रकार से है। यहां मतान्तर के मत को कोष्टक में व्यक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त शुक्र जब भी गोचर में अपनी राशियों अर्थात् वृषभ व तुला राशि में तथा आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती, कृतिका, स्वाति व आर्द्रा नक्षत्रों में भ्रमण करेगा तो उसके शुभ फल में वद्धि हो जाती है तथा भरणी, पूर्वाषाढा, मृगशिरा, चित्रा व पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रों में अशुभ फल में वृद्धि होती है। शुक्र का गोचर फल जन्म राशि शत्रु हानि जन्म राशि से द्वितीय स्थान आर्थिक लाभ तृतीय स्थान अर्थ प्राप्ति, शुभ चतुर्थ स्थान आर्थिक लाभ पंचम स्थान विद्या अथवा संतान से सुख अथवा लाभ षष्ठ स्थान शोक, रोग, कष्ट व शत्रु बली (मतान्तर से भौतिक फल में वृद्धि) सप्तम स्थान शोक भय (सम्मान) अष्ठम स्थान सुख व आर्थिक लाभ नवम स्थान आभूषण अथवा वस्त्र प्राप्ति, सुख व आर्थिक लाभ दशम स्थान सुख में कमी. एकादश स्थान आर्थिक लाभ द्वादश स्थान सुख, आर्थिक लाभ, भोग प्राप्ति मुख्य कारक शुक्र का रंग शुभ स्वेत, खण्ड आकृति के साथ घुघराले काले रुचिर शरीर व सुन्दर नेत्र वाला मतान्तर से एक नेत्र विहीन है। स्त्री लिंग, कफ प्रकृति (मतान्तर से कफ-वात प्रकृति), युवावस्था, रजो गुणी, बसन्त ऋतु का आधिपत्य, आग्नेय कोण का स्वामी, ब्राह्मण वर्ण का, जल तत्व, स्थान जल भूमि, संगीत के विद्याध्ययन में रुचि, यजुर्वेदाभ्यास में रुचि, क्रीडा स्थल इसका शयनकक्ष है, अम्लीय रस व धातू चांदी है। शुक्र को नैसर्गिक शुभ माना जाता है। मतान्तर से इनको कालपुरुष का काम माना जाता है। यह सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। इसके साथ इन्हें सप्तम भाव का कारकत्व प्राप्त है। गुरु को वृषभ व तुला राशि का आधिपत्य प्राप्त है। यह मीन राशि में 27 अंश तक उच्च का, कन्या राशि में 27 अंश तक नीच का व तुला राशि में 5 अंश तक मूलत्रिकोणी होता है। ज्योतिष में शुक्र को भौतिक सुख व काम का मुख्य प्रतिनिधि माना जाता है। शुक्र के वस्त्र श्वेत चित्र-विचित्र, रत्न हीरा, देव इन्द्राणी मतान्तर से श्री लक्ष्मी, लोक पितृ लोक पुष्प जूही व मोगरा व सौराष्ट्र देश का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। शुक्र को स्त्री, ब्राह्मण, नाटा कद, हाथी-घोडे, सफेद क्षत्र, सौम्य स्वभाव, दोपाये प्राणी, सफेद रंग, कपडा आय, स्त्री सुख, अहंकार, अभिनय, मैथुन प्रियता, जल क्रीड़ा, मृदुलता, काव्य में चतुर, दिन में माता के कार्य करने वाला, कला में निपुण, सम्मान, रहस्य की बातें, वीणा, राजसी वृत्ति, सुन्दरता की वस्तुओं का क्रय-विक्रय, पत्नी, काम-वासना व कामुकता, रत्न, खट्टी रुचि, पुष्प, आज्ञा, चंवर, तारूण्य, वाहन, नमक, हंसी-मजाक, राजा, मोती, कीर्ति, पुष्पहार, सुगन्धित वस्तुयें, व्यापारी, सुन्दरता, राजमुद्रिका, गुप्त अंग, श्री लक्ष्मी व माँ पार्वती की उपासना, वीर्य, रत्न, श्वेत वस्तु से लाभ, आभूषण, नौकर-चाकर, कलाप्रेमी, विषय-वासना, श्वेत अश्व, अण्डाशय, गुर्दा, व्यवसाय, कामेच्छा, सांसारिक सुख, स्फटिक, रेशमी वस्त्र, रूई, प्रत्येक सुगंन्धित द्रव्य, श्वेत पुष्प, मिश्री, शक्कर, चावल, अंजीर, अंगार प्रसाधन, स्निग्धता, पृथ्वी में गढ़ा धन, सुखी जीवन तथा सुन्दरता बढ़ाने वाली प्रत्येक वस्तुओं का भी मुख्य कारक है। हमारे शरीर में शुक्र कफ व वीर्य के साथ काम-वासना का भी मुख्य कारक है। शुक्र के लिये मेरा शोध यह कहता है कि यह एक नैसर्गिक शुभ ग्रह है। यह पत्रिका में किसी भी स्थिति में क्यों न हो, लेकिन यह अशुभ फल नहीं देता है। सामाजिक मान्यता के अनुसार पापी शुक्र के द्वारा मिलने वाले फलों को ही हम गलत मान सकते हैं। इसके साथ मैंने यह देखा है कि यदि शुक्र के साथ बुध भी पीड़ित हो तो व्यक्ति में नपुंसकता आ जाती है। पत्रिका के व्यय अर्थात् द्वादश भाव में जाने पर काई भी ग्रह हो, वह अपने अशुभ फल देता है लेकिन शुक्र के लिये द्वादश भाव में जाना हो जातक के लिये बहुत खुशी की बात होती है। कुंभ लग्न के अतिरिक्त, इसका भी मेरे अनुभव के अनुसार द्वादश भाव व्यय अर्थात खर्च का घर है। कोई भी ग्रह यहां जाने पर अपने फल को खर्च करता है। शुक्र भी इस भाव में जाने पर अपने फल (भोग) का व्यय करता है। जातक भोग तभी करेगा जब उसके पास धन होगा। व्यक्ति के पास धन होना बहुत ही आवश्यक है। हम सौरमण्डल में यदि शुक्र को देखें तो यह अलग ही एक सुन्दर चमकदार ग्रह के रूप में नजर आयेगा । इसलिये शुक्र को सुन्दरता का मुख्य कारक माना जाता है। ज्योतिष में भी किसी की सुन्दरता देखने के लिये उसकी पत्रिका में शुक्र का अध्ययन आवश्यक होता है। हमारे शरीर में शुक्र का वीर्य, नेत्र व पैरों पर अधिकार होता है। शुक्र का प्रत्येक भाव पर दृष्टिफल आज हम पत्रिका में शुक्र की प्रत्येक भाव पर पड़ने वाली दृष्टि के फल के बारे में चर्चा करते हैं। जैसा कि हमने पिछले लेखों में बताया कि प्रत्येक ग्रह अपने घर से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है, इसी आधार पर शुक्र भी अपने भाव से सातवे भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। इसके साथ ही शुक्र की अन्य दृष्टियां भी होती है। जैसे एकपाद, द्विपाद व त्रिपाद कहते हैं परन्तु फल पूर्ण दृष्टि का होता है। इसलिये हम यहां शुक्र की पूर्ण दृष्टि फल की चर्चा करेंगे। प्रथम भाव पर लग्न भाव को शुक्र यद पूर्ण दृष्टि से देखता है तो जातक सुन्दर, शौकीन स्वभाव का, अवैध सम्बन्धो में विश्वास करने वाला, सजा- सजा साफ स्वच्छ रहने वाला, भाग्यशाली के साथ चतुर व बातूनी भी होता है। द्वितीय भाव पर धन भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक अपनी वाणी से सबको वश में करने वाला, आर्थिक रूप से सक्षम व पारिवारिक सुख भोगने वाला, नित्य नये मार्ग से धनार्जन करने में अग्रणी, अपनी वाणी से सबको मोहित करने में प्रवीण, परिश्रमी तथा भोग विलास में लीन रहने वाला होता है। तृतीय भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि जातक को शासन करने में अर्थात आज के समयानुसार अपने अधीन लोगों को सन्तुष्ट करने में कुशल, शीघ्रपतन न अल्पवीर्य रोगी, अधिक भाई -बहिन वाला होता है। ऐसे जातक का 26 वर्ष के बाद ही भाग्योदय होता है। मेरे अनुभव के अनुसार ऐसा जातक सब कुछ होते हुए भी कम ही सुख भोगता है। वह किसी न किसी कारण से भौतिक सुख-सुविधा को अधिक पसन्द नहीं करता है। चतुर्थ भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक को समस्त प्रकार का सुख प्राप्त होता है जिसमे यदि इस भाव का स्वामी भी बलवान हो तो जातक को उच्च वाहन का सुख प्राप्त होता है। ऐसा जातक अपनी माता से अधिक प्रेम करता है तथा राज्य व समाज में भी सम्मान प्राप्त करता है। उसको विपरीत लिंग वर्ग अधिक पसन्द करता है। ऐसे जातक को अधिक शुभ फल तब प्राप्त होते हैं जब वह अपनी राशि में हो। पंचम भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक के प्रथम संतान कन्या सन्तति के रूप में होती है जो बहुत ही सुन्दर होती है। जातक विद्वान, रत्न व श्वेत वस्तुओं से आर्थिक लाभ प्राप्त करने वाला व स्थिर लक्ष्मीवान होता है। मेरे अनुभव में जातक किसी नशे का शौकीन अवश्य ही होता है तथा उसे नियमित रूप से आर्थिक लाभ होता रहता है। षष्ठम भाव पर इस घर पर शुक्र की दृष्टि से जातक अंत्यधिक धनवान, भोग-विलास में लीन रहने वाला, समस्त प्रकार के भौतिक सुख भोगने वाला तथा अवैध सम्बन्धों में लिप्त होता है। ऐसा जातक अपने शत्रुओं के लिये काल होता है। अवैध सम्बन्धों के कारण वह शीघ्रपतन व गुप्तरोग से पीड़ित रहता है। बुध व गुरु के भी पीड़ित होने पर कुष्ठ रोग होता है। उसे अपने जीवनसाथी से केवल समाज को दिखाने के लिये ही प्रेम होता है। सप्तम भाव पर इस भाव को जब शुक्र देखता है तो जातक अत्यधिक व्याभिचारी, काम-वासना से पीडित. 25 वर्ष की आयु से स्वतंत्र रहने वाला तथा सुन्दर जीवन साथी वाला होता है। मेरे अनुभव में ऐसा जातक बहुत ही चालाक होता है। वह अपनी बातों के माध्यम से सामने वाले की हमदर्दी प्राप्त कर उससे अवैध सम्बन्ध बनाता है। अष्टम भाव पर इस भाव पर शुक्र की दष्टि से जातक सदैव किसी बात से दुःखी रहने वाला तथा अत्यधिक कामी होता है। इसी अवगुण के कारण वह किसी से भी शारीरिक सम्बन्ध बनाता है, फिर गुप्त रोग से पीड़ित होता है। वह वात व कफ रोग से भी कष्ट उठाता है। ऐसा जातक साधु-सन्तो की सेवा करता है। केतु के योग होने पर स्वयं भी साधु बन सकता है क्योंकि साधारणतः वह परिवार से तो अलग ही रहता है। नवम भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि के प्रभाव से जातक भाग्यशाली तथा धर्म में रुचि रखने वाला, समाज अथवा गाँव का मुखिया, कुल का नाम करने वाला, शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाला होता है। मेरे अनुभव में शुक्र यदि किसी भी पाप प्रभाव में नहीं है तो जातक सीमा में रहकर समस्त प्रकार के भोग करता है। अपने परिवार के लिये भी भौतिक सुख-सुविधा जुटाता है। विलक्षण प्रतिभा का धनी होने के साथ यश व कीर्ति भी प्राप्त करता है। दशम भाव पर कर्म भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक राज्य से लाभ के साथ सम्मान भी प्राप्त करता है। धनवान, भाग्यशाली, अधिकतर प्रवास पर रहने वाला तथा अनेक भूमि-भवन का स्वामी होता है। मेरे अनुभव में ऐसा जातक अपने पिता से कहीं आगे निकलता है। वह समाज में इतना नाम करता है कि उसका नाम उदाहरण के लिये प्रयोग होने लगता है। वह उच्च स्तर का वाहन सुख भोगता है। एकादश भाव पर आय भाव को शुक्र यदि पूर्ण दृष्टि से देखे तो जातक अपने जीवन में बहुत धन कमाता है। उसकी आय के साधन भी अनेक होते हैं। वह कवि के रूप में भी यश प्राप्त करता है साथ ही वह कन्या सन्तति से विशेष प्रेम करने वाला होता है परन्तु अवैध सम्बन्धों में अधिक विश्वास करता है। द्वादश भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक अत्यधिक खर्चीले स्वभाव का होता है। उसके पास समस्त प्रकार के भौतिक सुख की सामग्री उपलब्ध रहती है। शत्रुओं से दुःखी होता है। ऐसा जातक अल्पवीर्य के साथ वीर्य रोगी भी होता है। अवैध सम्बन्धों में विशेष रुचि होती है । वह स्वयं विपरीत लिंग का विरोध सहने वाला होता है। ऐसा जातक अधिकतर अपने धन का व्यय विवाह तथा गुप्त सम्बन्धो में अधिक करता है। शुक्र की महादशा का फल जन्मपत्रिका में शुक्र यदि पीड़ित, अकारक, अस्त, पापी अथवा दुषित हो तो इसकी दशा में निम्न फल प्राप्त होते हैं। शुभ ग्रह, लग्नश या कारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि होने पर शुक्र के अशुभ फल में निश्चय ही कमी आयेगी। यह आवश्यक नहीं की स्थिति में यह भोग से ही सम्बन्धित कष्ट दे तथा यह भी आवश्यक नहीं है कि शुक्र अपनी शुभ स्थिति में पूर्णतः भोग का ही फल दे। आप भी यह भलीभांति समझ लें कि भोग का अभिप्राय केवल शारीरिक सम्बन्ध बनाना ही नही है यहां पर भोग का अभिप्राय अच्छा जीवन तथा सुख से भी है। शुक्र ही एक ऐसा ग्रह है जो अपने अशुभ फल में कुछ कार्य ऐसे करवा देता है जिसका अन्त तो बुरा होता है परन्तु जातक उसे ही बहुत अच्छा मानता है। उदाहरण के लिये अशुभ शुक्र की स्थिति में जातक बलात्कार भी कर सकता है तथा इस काम को जातक बहुत अच्छा मानता है लेकिन वह गोचर में अथवा दशा में शुक्र के अशुभ प्रभाव से यह कार्य कर डालता है तथा बाद में उसे कितना भयावह परिणाम मिलता है, वह इस बारे में नहीं सोच पाता है। इसलिये यह पूर्ण रूप से पापी अथवा पीड़ित हो तो इनकी महादशा में तथा इसके साथ इनकी ही अन्तर्दशा में अग्रांकित फल प्राप्त होते हैं। मुख्यतः शुक्र पत्रिका में सिंह अथवा कर्क राशि में हो अथवा किसी नीच ग्रह के प्रभाव में हो अथवा गुरु की किसी राशि में कोई नीच या पापी ग्रह बैठा हो अथवा शुक्र स्वयं नीचत्व को प्राप्त हो तो जातक को गुप्त रोग, चोरी के माध्यम से भौतिक वस्तुओं की हानि अथवा किसी पाप कर्म से मानहानि का भय होता है। इसके अंतिरिक्त शुक्र किसी त्रिक भाव में हो अथवा त्रिक भाव के स्वामी के साथ हो तो जातक को अत्यन्त कष्ट प्राप्त होते हैं। इसमें भी यदि इन भावों का स्वामी कोई पाप ग्रह हो तो फिर अशुभ फल की कोई सीमा नहीं होती है। वैसे शुक्र की पूर्ण महादशा में जातक भोग-विलास भरा जीवन व्यतीत करता है। भोग सामग्री की प्राप्ति होती है। वाहन, आभूषण, नये वस्त्र, आर्थिक लाभ आदि की प्राप्ति भी होती है। विपरीत लिंग से सुख व सम्मान प्राप्त होता है। जातक की ज्ञान वृद्धि होती है। जातक जल मार्ग से विदेश यात्रा करता है तथा राज्य से सम्मान प्राप्त होता है। मेरे अनुभव में यह सारे कार्य शुक्र के शुभ व शक्तिशाली होने पर ही प्राप्त होते हैं। जातक के घर-परिवार में कोई मांगलिक कार्य अवश्य होता है। आगे मैं कई स्थान पर दोनों ग्रह (शुक्र तथा जिसका प्रत्यान्तर हो) के अशुभ योग होने पर अशुभ फल की चर्चा करूंगा, उसमें आप यह अवश्य देख लें कि क्या उस स्थिति में कोई शुभ ग्रह प्रभाव दे रहा है  यदि शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा युति हो तो अवश्य ही अशुभ फल में कमी आयेगी। आने वाली कमी का रूप शुभ ग्रह की शक्ति पर निर्भर करेगा। इसके अतिरिक्त शुक्र की महादशा में शुक्र का अन्तर निम्न फल दे सकता है। शुक्र यदि द्वितीय भाव में हो तो जातक हृदयाघात, नेत्र कष्ट, शत्रु क्लेश, राजभय तथा बड़ी चोरी का भय होता है। शुक्र पत्रिका में तृतीय अथवा एकादश भाव में शुभ हो तो समाज में सम्मान, अचानक लाभ तथा राज्य से लाभ जैसे फल प्राप्त होते हैं। अशुभ स्थिति में होने पर जातक को शारीरिक कष्ट, आर्थिक हानि, अग्नि से हानि व कारागार का भय होता है। यह फल तो शुक्र की महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा में ही मिलते हैं लेकिन निम्न फल शुक्र की पूर्ण महादशा में कभी भी मिल सकते हैं। सिंह राशि में शुक्र की दशा में जातक को अत्यधिक शारीरिक कष्ट प्राप्त होते हैं। शुक्र यदि कन्या राशि में है तो हृदयाघात अथवा फेफड़ों में संक्रमण होता है। शुक्र रोग भाव में हो तो जातक को शत्रु से कष्ट, मुकदमे में पराजय के बाद राजदण्ड व चोरी का भय होता है। शुक्र यदि मेष, धन अथवा मीन राशि में हो तो गुप्त रोग अथवा गुदाद्वार या किसी फोड़े की शल्य क्रिया होती है। शुक्र की महादशा में अन्य ग्रहान्तर्दशा का फल शुक्र ग्रह की महादशा के उपरोक्त फल शुक्र की अन्तर्दशा में प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु निम्न फल अन्य ग्रह की अन्तर्दशा में ही प्राप्त होते हैं। इन फलो का निर्धारण आप शुक्र के साथ जिस ग्रह की अंतर्दशा हो, उसके बल, उस पर अन्य ग्रह की युति या दृष्टि तथा उस ग्रह का शुभाशुभ देख कर करें। शुक्र में शुक्र की अन्तर्दशा शुक्र की महादशा का आरम्भ अधिकतर शुभ ही होता है। इसमें भी यदि शुक्र बली होकर 1-4-5-7-9 व 10वें भाव में बैठा हो तो जातक को नये भवन व अच्छे वस्त्राभूषण की प्राप्ति तथा आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। जातक का मन अच्छे कार्य व भोग विलास में लगता है पुत्र संतान की प्राप्ति, राजसम्मान के साथ सम्पत्ति की भी प्राप्ति होती है। यदि शुक्र उच्च, स्वक्षेत्री अथवा मुलत्रिकोण का होकर 1-5 अथवा 9वें भाव में बैठा हो तो जातक किसी एक अथवा अनेक बड़े ग्रन्थ का लेखन कार्य करता है। यदि शुक्र नीच का, अस्त, पाप ग्रह के प्रभाव के साथ अथवा 6-8 अथवा 12वे भाव में राहू विराजमान हो तो जातक को राज्यदण्ड, मृत्युतुल्य कष्ट, आर्थिक हानि जैसे फल प्राप्त होते हैं। शुक्र में सूर्य की अन्तर्दशा इस दशाकाल में जातक को मिश्रित फल प्राप्त होते हैं। शुक्र अथवा सूर्य उच्च, मूलत्रिकोण, स्वक्षेत्री हो अथवा नवपंचम योग निर्मित हो रहा हो अथवा दशेश से सूर्य केन्द्रगत हो तो जातक को राज्य सम्मान, कार्यक्षेत्र में उन्नति भाई से लाभ के साथ उसकी उन्नति, माता -पिता को सुख जैसे फल प्राप्त होते हैं परन्तु कोई ग्रह नीच, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग अथवा 6-8 अथवा 12वें भाव में हो तो अस्थि भंग, नेत्र पीड़ा, राज्यदण्ड, पिता से अथवा किसी गुरु समान वृद्ध से कष्ट जैसे फल प्राप्त होते हैं। शुक्र में चन्द्र की अन्तर्दशा यह दशा जातक की अच्छी व्यतीत होती है लेकिन और अधिक अच्छी के लिये दोनों में से किसी एक ग्रह का उच्च, स्वक्षेत्री, मूल त्रिकोणी अथवा शुक्र से चन्द्र का त्रिकोण अथवा केन्द्रगत होना आवश्यक है। इस योग से जातक को विपरीत लिंग का सुख तथा स्त्री वर्ग में सम्मान, आर्थिक लाभ, कर्मक्षेत्र में उन्नति अथवा उच्च पद प्राप्ति, कन्या सन्तति की प्राप्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं, लेकिन किसी ग्रह का पाप प्रभाव में होने पर, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर जातक को अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट भोगने पड़ते हैं जिसमें मुख्यतः मानसिक भय, दांत, सिर, नाखून की पीड़ा, आर्थिक संकट, टी.बी. अथवा गुल्म (तिल्ली) रोग होते हैं। शुक्र में मगल की अन्तर्दशा यह दशा जातक को शुभ फल की अपेक्षा अशुम फल अधिक प्रदान करती है। यदि शुक्र से मंगल त्रिकोण, केन्द्रगत अथवा एकादश भाव में हो अथवा कोई ग्रह उच्च, मूल त्रिकोणी या स्वक्षेत्री होने पर जातक को कार्य सिद्धि, आर्थिक लाभ अथवा भूमि लाभ होता है । किसी ग्रह का अस्त, नीच, पाप प्रभाव में, शत्रुक्षेत्री अथवा षडाष्टक योग होने पर जातक को किसी से अवैध सम्बन्ध, रक्तविकार, हाथ का कार्य छोड़ना, आर्थिक हानि, बुद्धि अथवा स्थान भ्रंश अथवा दुर्घटना जैसे फल प्राप्त होते हैं। शुक्र में राहू की अन्तर्दशा इस दशा में भी जातक को मिश्रित फल की प्राप्ति होती है। शुक्र से राहू यदि त्रिकोण, केन्द्रगत अथवा एकादश भाव में हो अथवा कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी या स्वक्षेत्री होने पर जातक को व्यावसायिक व आर्थिक लाभ, सुख-ऐश्वर्य की प्राप्ति, पुत्र संतान की प्राप्ति, शत्रु विजय कुल का सम्मान जैसे फल प्राप्त होते हैं लेकिन इनमें से कोई दुःस्थान में, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर जातक को कष्ट भी बहुत उठाने पड़ते हैं। विष, अग्नि, दुर्घटना, करन्ट लगने का भय होता है अथवा जातक अचानक जेल भी जा सकता है। शुक्र में गुरु की अन्तर्दशा मेरे अनुभव में जातक की यह दशा अच्छा फल प्रदान करती है। इसमें भी यदि शुक्र से गुरु केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो अथवा कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी या शुभ प्रभाव या स्वक्षेत्री हो तो जातक को संतान प्राप्ति, आर्थिक लाभ, परिवार में मांगलिक कार्य, राज्य लाभ, उच्च पद व यश प्राप्ति और पूजन आदि में मन लगना जैसे फल प्राप्त होते हैं। कोई ग्रह नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित हो तो जातक को आर्थिक कष्ट, चौर्य भय, शारीरिक पीड़ा तथा गुरु मारक हो तो मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य पीड़ा होती है। शुक्र में शनि की अन्तर्दशा। मेरे अनुभव में जातक को इस दशा में इन दोनों में से यदि कोई एक ग्रह उच्च, मूलत्रिकोण, त्रिकोण अथवा केन्द्रगत अथवा शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो व्यक्ति को कर्मक्षेत्र में उन्नति, भूमि  भवन व वाहन लाभ, राज्य में सम्मान विशेषकर पुलिस या सेना से सम्मान, अनेक प्रकार से आर्थिक लाभ, भौतिक सुख-समृद्धि जैसे फल प्राप्त होते हैं। यदि इनमें से कोई एक ग्रह बली हो तथा एक निर्बल, तो जातक को उपरोक्त फल प्राप्त हो सकते हैं लेकिन यदि दोनों ग्रह बली हों अथवा लग्नेश अथवा शुक्र से शनि षडाष्टक योग निर्मित करे, नीच, अस्त अथवा पाप प्रभाव में हो तो जातक को आर्थिक हानि, क्लेश, आय से अधिक व्यय, व्यापार में हानि जैसे फल प्राप्त होते हैं। यदि शनि मारकेश हो तो जातक को अकाल मरण अथवा मृत्युतुल्य कष्ट तो होता ही है। शुक्र में बुध की अन्तर्दशा। यह दशाकाल जातक को शुभ फल अधिक तथा अशुभ फल कम देता है। इसमें भी यदि कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी, स्वक्षेत्री, केन्द्र अथवा त्रिकोणगत हो तो जातक को संतान सुख, सम्पत्ति प्राप्ति, कार्यों में सफलता, शत्रु विजय, साहित्यिक क्षेत्र में यश व धन प्राप्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं लेकिन कोई ग्रह नीच, अस्त, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित हो तो जातक त्रिदोष अर्थात् वात-पित्त-कफ में से किसी एक से पीड़ित, अपयश, कुटुम्ब में क्लेश जैसे फल प्राप्त होते हैं। शुक्र में केतू की अन्तर्दशा। इस दशा में जातक को अशुभ फलों की अधिक प्राप्ति होती है। यदि शुक्र उच्च, मूलक्रिकोणी, स्वक्षेत्री, केन्द्र अथवा त्रिकोणगत हो अथवा केतू 3-6 अथवा ।। वें भाव में हो तो जातक को अल्प लाभ, सम्मान व थोड़ा सुख जैसे फल मिल सकते हैं। यदि कोई ग्रह नीच, अस्त, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित करे तो भाई से वियोग, शत्रुपीड़ा, सुख में कमी, सिर में पीड़ा अथवा चोट, फोड़े-फुन्सी, अग्नि भय, सम्पत्ति हानि अथवा अवैध सम्बन्ध जैसे फल अधिक प्राप्त होते हैं। शुक्र के द्वारा होने वाले रोग शुक्र भोग का ग्रह है। इसका प्रभाव जातक के भोग करने पर अधिक पड़ता है। उसे जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों का अधिक सामना करना पड़ता है। पत्रिका में शुक्र निर्बल अथवा पीड़ित होने पर अथवा शुक्र के गोचर काल में जातक को गुप्त रोग, जननेन्द्रिय के पूर्ण रोग, स्त्रियों को प्रदर संतान बंध्यत्व, स्तन रोग, वक्ष ग्रन्थि, पुरुष को शीघ्रपतन, लिंग सिकुड़ना, उपदंश, मूत्र संस्थान के रोग, दवा की विपरीत प्रतिक्रिया, कैंसर, गंडमाला, अधिक सम्भोग के बाद कमजोरी अथवा चन्द्र व चतुर्थ भाव के पीड़ित होने पर हृदयाघात भी हो सकता है। शुक्र के रोग भाव के स्वामी के साथ होने पर जातक को नेत्र में चिन्ह बनता है। शुक्र की महादशा तथा शुक्र की अन्तर्दशा में जातक को विभिन्न रोग हो सकते हैं। शुक्र यदि द्वितीय भाव में है तो हृदयरोग, नेत्रकष्ट, मानसिक समस्या, चोरी के कारण धन हानि, राजप्रकोप अथवा शत्रु प्रबल होते हैं। शुक्र तृतीय अथवा एकादश भाव में होने पर राजा अर्थात् उच्चाधिकारी से दण्ड, अग्निकाण्ड, भाई से कष्ट तथा कई अन्य कष्ट हो सकते हैं। शुक्र त्रिकोण अर्थात् लग्न, पंचम अथवा नवम भाव में होने पर जातक अपनी बुद्धि का सही प्रयोग नहीं कर पाता है। वह सदैव शंका व संशय में रहता है शारीरिक व मानसिक कष्ट भी प्राप्त होते हैं। इस स्थिति की सम्भावना शुक्र के 4-6-8 अथवा 12वें भाव में होने पर अथवा शुक्र गोचरवश इन भावों में आने पर ही अधिक होती है। आप यह न समझें कि यदि आपकी पत्रिका में शुक्र पापी है तो आपको केवल यही रोग होंगे, रोग होने में शुक्र किस भाव में तथा किस राशि में स्थित है, इस बात का भी बहुत असर होता है। यहां पर हम पत्रिका में शुक्र किस राशि में होने पर किस रोग की सम्भावना अधिक होती है। इसकी चर्चा करेंगे। शुक्र यदि मेष राशि में हो तो जातक को शिरोरोग, शूल, नेत्र रोग तथा सिर पर चोट का भय होता है। शुक्र के वृषभ राशि में होने पर जातक को तभी रोग होते हैं, जब शुक्र अत्यधिक पीड़ित हो। इनमें आहार नली का संक्रमण, गलसुए, टान्सिल्स, मुख व जिव्हा पर छाले जैसे रोग अधिक होते हैं। शुक्र के मिथुन राशि में होने पर जातक को गुप्त रोग, चेहरे पर मुंहासे आदि होते हैं। यदि लग्नस्थ शुक्र है तो चर्मविकार के साथ रक्त विकार की भी सम्भावना होती है। शुक्र के कर्क राशि में होने पर जातक को जलोदर, वक्ष सूजन, अपच, वमन अथवा जी मिचलाने जैसे रोग होते हैं। मंगल की दृष्टि होने पर अक्सर शरीर में जल की कमी से ग्लूकोज की बोतलें चढ़ती हैं। शुक्र के सिंह राशि में होने पर जातक को हृदयविकार, रीढ़ की हड्डी की पीड़ा व रक्त धरमनियों के रोग अथवा धमनी रक्त का थक्का जमने से हृदयाघात का योग बनता है। शुक्र के कन्या राशि में होने पर जातक को खूनी अतिसार, थोड़ा भी खाते ही शौच जाना तथा भोजन का न पचना जैसे रोग उत्पन्न होते है। शुक्र के तुला राशि में होने पर जातक को मूत्र संस्थान के रोग, शीघ्रपतन तथा गुरु के भी पीड़ित होने पर मधुमेह जैसे रोग होते हैं। शुक्र के वृश्चिक राशि में होने पर पुरुष जातक को अण्डकोष के रोग, अल्पवीर्यता, हर्निया की शल्य क्रिया, उपदंश तथा स्त्री जातक को गर्भाशय संक्रमण योनिरोग, श्वेत प्रदर व गुदाद्वार के रोग होते हैं। शुक्र के धनु राशि में होने पर जातक को गुदा रोग अथवा शल्य क्रिया, फिशर, गुप्तेन्द्रिय रोग, स्नायु रोग, कमर की पीड़ा, दुर्घटना में कमर उतरना जैसे रोग अधिक होते हैं। शुक्र के मकर राशि में होने पर जातक को घुटनों की पीड़ा व सूजन, त्वचा रोग, कमर से निचले हिस्से में पीड़ा व स्नायु विकार के रोग होते हैं। शुक्र के कुंभ राशि में होने पर जातक को रक्तवाहिका के रोग, घुटने में पीडा अथवा सूजन, रक्तविकार स्फूर्ति में कमी, काम में मन न लगना आदि रोग होते हैं। शुक्र मीन राशि में होने पर जातक को पैरों के पंजों के रोग अधिक होते हैं। तथा गुरु के भी पीड़ित होने पर मधुमेह रोग की संभावना बढ़ जाती है। रोग भाव मे शुक्र द्वारा होने वाले विशेष रोगों का विवरण अभी तक हमने शुक्र के प्रत्येक राशि में होने पर होने वाले रोगों की चर्चा की है। हम अब शुक्र के रोग भाव में किस राशि में होने पर क्या रोग होता है, इसकी चर्चा करेंगे। यहां हम पहले एक सामान्य बात बता दे कि शुक्र यदि किसी भी भाव में रोग भाव के स्वामी के साथ होता है तो जातक के जन्म से ही नेत्र अथवा नेत्र के आसपास कोई व्रण अवश्य होता है। मेष राशि। रोग भाव में शुक्र के मेष राशि में होने पर जातक को श्वास विकार, त्वचा रोग अथवा कम गर्मी में त्वचा पर फफोले होना, गुप्तेन्द्रिय से रक्त प्रवाह जैसे रोग होते हैं। वृषभ राशि रोग भाव में शुक्र यदि वृषभ राशि में हो तो जातक को वाणी विकार व गले के रोग होते हैं। बुध भी यदि पापी अथवा पीड़ित हो तो हकलाना अथवा तुतलाना भी सम्भव है। किसी पापी ग्रह का प्रभाव होने पर जातक गन्दी भाषा का प्रयोग करता है। मिथुन राशि यहां पर शुक्र यदि मिथुन राशि में हो तो जातक को सांस के रोग, दमा अथवा दम घुटने के रोग होते हैं। कर्क राशि रोग भाव में शुक्र जातक को छाती के रोग व उदर रोग देते हैं। यदि चन्द्र चतुर्थ भाव भी पीड़ित हो तो जातक को अवश्य ही हृदयाघात होता है। सिंह राशि छठे भाव में शुक्र के सिंह राशि में होने पर छाती में संक्रमण, मूर्च्छा तथा अस्थि भंग जैसे रोग होते हैं। कन्या राशि रोग भाव में शुक्र यदि कन्या राशि में हो तो जातक को उदर रोग, अपच व बड़े होने तक पेट के कीड़ों से पीड़ित रखता है। यहां पर जातक खाने के बाद वमन के रोग से भी पीड़ित रहता है। तुला राशि इस भाव में शुक्र के तुला राशि में होने पर जातक को के रोग, शीघ्रपतन तथा धात जाना जैसे रोग होते हैं। वृश्चिक राशि रोग भाव शुक्र यदि वृश्चिक राशि में हो तो जातक को गुप्त रोग, सिफलिस, मूत्र संक्रमण व इन्द्रिय रोग होते धनु राशि रोग भाव में शुक्र के धनु राशि मे होने पर जातक को क्षय रोग अथवा फेफड़ों में संक्रमण, गुदा रोग, व शौच में रक्त जाना व पीड़ा जैसे रोग सम्भव होते हैं। सकर राशि यहा पर शुक्र यदि मकर राशि में हो तो जातक को उदर रोग. पेट में संक्रमण, कृमि रोग, खाने में मन न लगना जैसे रोग होते हैं । शनि भी पीड़ित हो तो जातक के घुटनों में कष्ट होता है तथा घुटने कमजोर भी होते हैं। कुंभ राशि। रोग भाव में शुक्र यदि कुंभ राशि में हो तो शरीर में रक्त की कमी, स्नायु विकार तथा किसी भी कारण से बार-बार शल्य क्रिया होती है। स्त्री की पत्रिका में मासिक काल में वह रक्त की कमी होने से रक्त चढ़ाना पड़ सकता है। केतू पीड़ित हो तो स्त्री पिशाच बाधा से पीड़ित हो सकती है। मीन राशि रोग भाव में शुक्र यदि मीन राशि में हो तो जातक को सर्दी अधिक लगती है, भरी गर्मी में भी जुकाम से परेशान रहता है। यदि गुरु भी पीड़ित हो तो जातक को मधुमेह होता है। लग्न अनुसार अशुभ शुक्र से मिलने वाले फल आज हम लग्न अनुसार अशुभ शुक्र की चर्चा करेंगे जिससे आप स्वयं ही अपनी पविका में शुक्र की स्थिति देख सकें। इसमें आप केवल इस योग के आधार पर ही शुक्र को एकदम अशुभ न समझ ले अपितु अन्य योग भी देखें जिनकी में पिछले लेखों में चर्चा कर चुका हूं व शुक्र के साथ बैठे ग्रह को देखे। शुक्र पर कौनसा ग्रह दृष्टि डाल रहा है, वह मित्र है अथवा शत्रु है, इसके बाद ही निष्कर्ष निकालें कि शुक्र कितना अशुभ अथवा शुभ है। मेष लग्न इस लग्न का स्वामी मगल है जो शुक्र का सम ग्रह है फिर भी शुक्र इस लग्न में तृतीय, सप्तम, नवम व एकादश भाव में बहुत ही अशुभ फल देता है। वृषभ लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं शुक्र है, इसलिये शुक्र इस लग्न में तृतीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, एकादश व द्वादश भाव में अशुभ होता है। मिथुन लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं बुध होता है, इसलिये शुक्र यहां धन भाव, तृतीय, षष्ठम, अष्टम, नवम भाव व दशम भाव में अशुभ फल देता है। कर्क लग्न इस लग्न का स्वामी चन्द्र है जो शुक्र का शत्रु है फिर भी शुक्र तृतीय, चतुर्थ, सप्तम, नवम व आय भाव में अशुभ होता है। सिह लग्न इस लग्न का स्वामी सूर्य भी शुक्र का परम शत्रु है फिर भी शुक्र पराक्रम भाव, रोग भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव तथा व्यय भाव में अधिक अशुभ फल देता है। कन्या लग्न कन्या लग्न का स्वामी भी बुध होता है, इसलिये शुक्र तृतीय, षष्ठम व व्यय भाव में अशुभ फल देता है। तुला लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं शुक्र है, इसलिये शुक्र इस लग्न में तृतीय षष्ठम, अष्टम तथा द्वादश भाव में विशेष अशुभ फल देता है। वृश्चिक लग्न इस लग्न का स्वामी मंगल है जो शुक्र का सम ग्रह है, फिर भी इस लग्न में शुक्र लग्न, धन भावि, चतुर्थ, पचम, नवम तथा दशम भावों के अतिरिक्त अन्य सभी भावों में विशेष अशुभ होता है। धनु लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं गुरु है जो शुक्र का विशेष शत्रु परन्तू तृतीय, पंचम, षष्ठम, आय तथा व्यय भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है। मकर लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है। शुक्र इनका विशेष मित्र है फिर भी शुक्र इस लग्न में केवल तृतीय भाव, रोग भाव, आयुष्य भाव तथा द्वादश भाव में अशुभ फल देते देखा गया है। कुभ लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है, इसलिये शुक्र इस लग्न में भी केवल तृतीय भाव, रोग भाव, अष्टम भाव, दशम भाव तथा व्यय भाव में अशुभ फल देता है। मीन लग्न इस लग्न का स्वामी भी स्वयं गुरु है परन्तु शुक्र तृतीय, षष्ठम, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है। शुक्रकृत पीड़ा शान्ति के विशेष वैदिक उपाय इस लेख के माध्यम से जन्मपत्रिका अथवा गोचर के शुक्र के अशुभ प्रभाव को समाप्त कर उनको शुभ प्रभाव में बदलने के लिये मैं आपको कुछ ऐसे उपाय बता रहा हूं जिनके करने से आप निश्चित ही लाभान्वित होंगे। यह उपाय पूर्णतः सात्विक हैं। आप इन पर जितना अधिक विश्वास करेगे, यह उतना ही अधिक लाभ देंगे। उपाय शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार से ही आरम्भ करें। शुक्र सम्बन्धित किसी भी वस्तु को मुफ्त में नहीं लें। भोजन से पूर्व गौ ग्रास अवश्य निकालें। किसी पत्रिका में यदि शुक्र लग्नस्थ हो तथा सप्तम व दशम भाव खाली हो तो जातक का विवाह 25वें वर्ष में अथवा इसके बाद होता है। विवाह के बाद आर्थिक समस्या के कारण पत्नी के छोड़ने का योग होता है, इसलिये इस योग को कम करने के लिये जातक जवस नामक घास की चटनी का प्रयोग नित्य भोजन के साथ करें तथा गौमूत्र का भी सेवन करें। शुक्रवार के दिन सफेद सीसा को जल में डालकर स्नान करें। मेष अथवा वृश्चिक लग्न की कुण्डली में शुक्र यदि द्वादश भाव में हो अथवा शुक्र या सप्तम भाव के स्वामी पर कोई पाप प्रभाव के कारण विवाह बाधा हो अथवा दाम्पत्य जीवन में क्लेश का योग हो अथवा यौन शक्ति में कमी हो अथवा विवाह के पश्चात् वैवाहिक जीवन में समस्या का योग हो तो पिता प्रथम शुक्रवार को एक ही वजन के दो चांदी के टुकड़े अथवा दो शुक्र यंत्र अथवा दो शुक्र रत्न हीरा अथवा उपरत्न बच्चे को उपहार में दे। बच्चा इनमें से एक टुकड़ा अथवा एक रत्न अथवा एक यंत्र जल में प्रवाहित कर दे तथा दूसरा इस विश्वास के साथ अपने पास रखे कि शुक्र की कृपा से मेरी समस्या के अवरोध दूर होगे। यह रत्न अथवा यंत्र कन्या अथवा पुरुष के पास रहेगा, तब तक समस्या नहीं आयेगी। प्रथम शुक्रवार से लगातार तीन शुक्रवार को खीर व मिश्री किसी भी धर्म स्थल पर दान करें। ऐसा 6 शुक्रवार ही करें। यदि लाभ मिलने पर अधिक करने के इच्छुक हैं तो 3 शुक्रवार के बाद अगले शुक्ल पक्ष से फिर आरम्भ कर सकते हैं. इसमें एक शुक्रवार का अन्तर आ जायेगा । आर्थिक लाभ के लिये शुक्रवार को सुहाग सामग्री किसी सुहागन को दें।  शुक्रवार को श्वेत पुष्प, घी, दूध, दही, कपूर, चावल, अदरक, चरी, ज्वार में से जो भी उपलब्ध हो, बहते जल में प्रवाहित करें। ऐसा 5-11-21 अथवा 43 शुक्रवार को करें। इनकी मात्रा अपनी इच्छानुसार ले सकते हैं। सदैव स्वच्छ वस्त्र व इत्रादि का प्रयोग करें। स्त्री वर्ग का सदैव सम्मान करें । गर्मी के मौसम में आप यदि कहीं प्याऊ लगवा सके तो बहुत उत्तम है। ऐसा करने से पहले यह अवश्य देख लें कि चन्द्र कहीं आपकी पत्रिका में छठे घर में तो नहीं बैठा है। जीवनसाथी को सामाजिक स्थान पर अवश्य ले जाना चाहिये परन्तु कोर्ट-कचहरी आदि जैसे स्थानों में नहीं ले जाना चाहिये । कभी भी फटे अथवा जले हुए कपड़े धारण नहीं करने चाहिये। यदि किसी की कोई पोशाक आपसे जल अथवा फट जाये तो उसे नई पोशाक उपहार स्वरूप दें। पत्रिका में यदि कोई पाप ग्रह बैठा हो तो जातक को अवश्य ही देव दर्शन करने चाहिये। यदि किसी स्त्री की पत्रिका में शुक्र निर्बल हो तथा साथ में शनि राहू अथवा मंगल बैठा हो विशेषकर 3-6-7-8-9 अथवा 12वें भाव में लग्नेश के साथ हो तो ऐसी स्त्री को कभी भी किसी निर्जन स्थान पर नहीं जाना चाहिये। इसलिये ऐसी स्त्री को सिद्ध तांत्रिक लोह छल्ला धारण करना चाहिये। कभी भी शुक्र की वस्तुओं का दान उच्च शुक्र होने पर देना नहीं चाहिये तथा नीच शुक्र होने पर लेना नहीं चाहिये। बारहवें भाव में शुक्र पत्नी को बहुत बीमार रखता है, इसलिये ऐसे जातक को किसी प्रथम शुक्रवार को नीले फूल निर्जन स्थान में धरती के भीतर दबाने चाहिये। किसी पुरुष की पत्रिका में यदि निर्बल शुक्र द्वितीय भाव में व गुरु 8-9 अथवा 10वें भाव में हो तो जातक का वैवाहिक जीवन क्लेश पूर्ण रहता है। पत्नी यदि नौकरी करती है तो चरित्रहीन हो सकती है, जातक स्वयं शीघ्रपतन व अन्य यौन रोग से पीड़ित होता है। ऐसे जातक को शुक्र शान्ति के साथ मूंगे की भस्म का भी प्रयोग करना चाहिये। नवम भाव का शुक्र जातक को आर्थिक रूप से समृद्ध व उद्योग क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है लेकिन केवल बली होने की स्थिति में, इसलिये शुक्र यदि इस भाव में पीड़ित हो तो जातक को शुक्रवार को 6 चांदी के वर्गाकार पत्तर नीम के नीचे दबाने चाहिये। इस भाव में यदि शुक्र के साथ चन्द्र व मंगल हो तो गृह निर्माण के समय मधुघट अर्थात् किसी मिट्टी के बर्तन में शहद भरकर नींव में दबाना चाहिये। Gyanchand Bundiwal. 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