शुक्र ग्रह सम्पूर्ण परिचय एवं उपाय
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्र एक ऐसा ग्रह है कि जिसकी शुभता के बिना आज के संसार में व्यक्ति का जीवन ही निरर्थक है। आज के इस भौतिकवादी युग में तथा सुखी वैवाहिक जीवन में शुक्र का स्थान सर्वोच्च है। व्यक्ति को भोग, ऐश्वर्य तथा सुखी वैवाहिक जीवन के आधार के लिये पत्रिका में शुक्र का शुभ तथा शक्तिशाली होना आवश्यक है। जिनकी पत्रिका में शुक्र की स्थिति शुभ व शक्तिशाली होती है उनके लिये संसार का प्रत्येक सुख उपलब्ध है। जिनका शुक्र खराब है, वह सब कुछ होते हए भी किसी प्रकार का भोग नहीं कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय ज्योतिष में शुक्र को ही भोग का कारक ग्रह माना गया है। मैंने शुक्र के लिये जितना भी शोध किया है, उसमें यह पाया है कि यदि शुक्र पत्रिका में शुभ व बली है तो व्यक्ति के लिये इस संसार में सब कुछ उपलब्ध है अन्यथा जातक पैसा होते हुए भी कुछ भोग नहीं कर सकता। विवाहित होते हुए भी दुःखी रहता है तथा जिससे विवाह हुआ है वह भी दुःखी रहता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन को सफल बनाने में शुक्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती
है। शुक्र के लिये ज्ञानी दैवज्ञ महर्षि पाराशर ने अपने ज्योतिष ग्रंथ बृहद् पाराशर होरा
शास्त्रम् में कहा है कि-
सुखी कान्तवपुःश्रेष्ठ: सुलोचना भृगोःसुतः ।
काव्यकर्ता कफाधिक्यानिलात्मा वक्रमूर्धजः । अर्थात् शुक्र सुन्दर शरीर, सुखी, अच्छे सुन्दर नेत्रों वाला, कविता करने वाला
कफ-वायु मिश्रित प्रकृति व धुंघराले बालों वाला है।
शुक्र ग्रह पौराणिक परिचय
पौराणिक कथा के आधार पर शुक्र महर्षि भृगु के पुत्र हैं। जिस प्रकार से श्री बृहस्पति देवों के गुरु हैं, उसी प्रकार से शुक्र भी दैत्यों के गुरु हैं। इसलिये इनका बृहस्पति से सदा विरोध रहता है। मतान्तर से यह एक आंख विहीन हैं तथा चित्र-विचित्र वस्त्र धारण करते हैं। इनके पिता का नाम कवि था। दैत्यगुरु शक्र का गोत्र 'दनु' बताया जाता है। शास्त्रों में 'दनु' नाम के एक बहुत विद्वान ऋषि हुए हैं। उनकी संतानें ही दानव कहलाई। शुक्र का रंग काला है। यह ब्राह्मण वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं। शुक्र असुरराज बली के गुरु थे। इनकी पत्नी का नाम सुषमा तथा पुत्री का नाम देवयानी था। हरवंश पुराण की कथानुसार शुक्र ने शिव जी से पूछा कि असुरों की देवों से रक्षा तथा ईश्वर विजय का क्या मार्ग है ? तब उन्हें शिवजी ने तप मार्ग बताया। शुक्र तप के लिये चले गये। जब उन्हें तप किये हजारों वर्ष हो गये, तब इसा मध्य देवासुर संग्राम हो गया। श्री विष्णु ने शुक्र की माता का वध कर दिया। इस पर शुक्र ने उन्हें श्राप दिया कि वह सात बार पथ्वी पर मानव रूप में जन्म लेंगे। शुक्र ने अपनी मृत माता को पुनः जीवित कर लिया क्योंकि उन्हें शिवजी ने मृतसंजीवनी विद्या सिखाई थी। यही विद्या शुक्र ने अपनी पुत्री के माध्यम से कच को सिखाई थी। शिवजी के वरदान के लिये शुक्र ने पुनः तप आरम्भ किया। उनके तप को भंग करने के लिये इन्द्र ने अपनी पुत्री जयन्ती को भेजा परन्तु शुक्र का तप भंग नहीं हुआ। तप के बाद उन्होंने इन्द्र पुत्री से विवाह कर लिया। शुक्र के राजनीतिक ज्ञान की भी बहुत मान्यता है। इसलिये शुक्र के मत की चर्चा कई ग्रन्थों में होती है। शुक्र ने शुक्रनीति के नाम से एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी। पन्द्रहवीं सदी में इस ग्रन्थ का पुनः अनुवाद हुआ।
शुक्र की एक आंख न होने की यह कथा है कि जब श्रीहरि विष्णु 'वामण' रूप में दैत्यराज बली को छलने गये थे, तब शुक्र ने श्री विष्णु को पहचान लिया था। जब राजा बली ने संकल्प लेने के लिये गंगासागर में से जल लेना चाहा तो शुक्र छोटा रूप धारण कर गंगासागर की टौंटी में छिप गये थे ताकि अवरोध होने पर जल न निकले। श्री विष्णु ने शुक्र की यह चाल समझ ली। उन्होंने कुश से गंगासागर की टौंटी को कुरेदा जिससे वह कुश शुक्र की आंख में घुस गया और शुक्र की आंख फूट गई। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह चन्द्रमा से पांच लाख योजन ऊपर स्थित है।
वैज्ञानिक परिचय
शुक्र ग्रह सौरमण्डल का सूर्य के बाद सबसे चमकीला ग्रह है। इसकी पृथ्वी से दूरी
637,014 किलोमीटर है। सूर्य से 10,78,21,050 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। शुक्र वर्ष में एक बार पृथ्वी के बहुत ही निकट आता है, तब इसकी पृथ्वी से दूरी 218539 किलोमीटर रह जाती है। शुक्र का व्यास 12,391 किलोमीटर है। शुक्र अपनी परिधि पर लगभग 34 अंश का झुकाव लिये लगभग 35.4 किलोमीटर प्रति सेकिंड की चाल से 224 दिन में सूर्य की परिक्रमा कर लेता है। यह अन्य ग्रहों की
भांति वक्री भी होते हैं। 227 वर्षों के पश्चात् ठीक उसी तिथि, मास, दिन व अंश पर
ठीक उसी स्थान पर आ जाता है जहां 227 वर्ष पहले था। सामान्य टेलीस्कोप से यदि
इसे देखा जाये तो तारों के मध्य यह हल्के नीले रंग का दिखाई देता है। शुक्र का उदय
सर्योदय से पहले होता है अथवा सूर्यास्त के बाद होता है।
सामान्य परिचय
नवग्रहों में देवगुरु बृहस्पति की तरह शुक्र को भी मंत्री पद प्राप्त है। शुक्र को
कालपुरुष का 'काम' कहा जाता है। इसकी किरणें इस संसार के प्रत्येक जीव पर
अपना अकाट्य प्रभाव छोड़ती हैं। इसलिये शुक्र के अस्त होने की स्थिति में कोई भी
शुभ कार्य नहीं किया जाता है। यह पूर्व में अस्त होने के 75 दिन बाद पुनः उदित होता
है। सांसारिक जीवन में शुक्र को भोग-विलास का प्रतिनिधि माना जाता इनका वाहन घोड़ा है तथा आग्नेय दिशा व भूमि तत्व के साथ वायु तत्व का भी आधिपत्य प्राप्त है। शुक्र का स्वभाव विनोद पूर्ण, हास्यपूर्ण व कलात्मक है तथा यह शांत प्रवृति का है। ब्राह्मण वर्ग से सम्बन्ध होने के बावजूद क्षत्रिय गुण का भी समावेश है। इसमें स्त्रियोचित गुण के आधार पर ज्योतिष में इन्हें स्त्रीलिंग का माना गया है। इनकी प्रवत्ति क्रोध युक्त वैश्य व शुद्र जैसी है। यह एक राशि में एक माह रहते हैं। शुक्र के बुध शनि व केतु मित्र हैं, सूर्य व चन्द्र शत्रु तथा मंगल, गुरु एवं राहू सम हैं। पत्रिका में यदि उनके साथ बुध हो तो शुक्र को बहुत अधिक बल प्राप्त होता है। शुक्र के अन्य नामों में भृगुसुत, भार्गव, उषनस, अच्छ, कवि, दैत्यगुरु, आस्फूजित, दानवेज्य, उशना, काण, ऋत्विक
पुण्डरीक तथा ऋतु-अरुन्धति हैं।
शुक्र ग्रह का गोचर फल, एवं मुख्य कारक
शुक्र अपने संक्रमण काल अर्थात् राशि में प्रवेश से लगभग सप्ताह पहले ही फल देने लगते हैं । शुक्र राशि के मध्य में अर्थात 10 अंश से 20 के मध्य अधिक फल देते हैं। प्रत्येक जन्म राशि में शुक्र का गोचर निम्न प्रकार से है। यहां मतान्तर के मत को कोष्टक में व्यक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त शुक्र जब भी गोचर में अपनी राशियों अर्थात् वृषभ व तुला राशि में तथा आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती, कृतिका, स्वाति व आर्द्रा नक्षत्रों में भ्रमण करेगा तो उसके शुभ फल में वद्धि हो जाती है तथा भरणी, पूर्वाषाढा, मृगशिरा, चित्रा व पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रों में अशुभ फल में वृद्धि होती है।
शुक्र का गोचर फल
जन्म राशि शत्रु हानि
जन्म राशि से द्वितीय स्थान आर्थिक लाभ
तृतीय स्थान अर्थ प्राप्ति, शुभ
चतुर्थ स्थान आर्थिक लाभ
पंचम स्थान विद्या अथवा संतान से सुख अथवा लाभ
षष्ठ स्थान शोक, रोग, कष्ट व शत्रु बली (मतान्तर से भौतिक फल में वृद्धि)
सप्तम स्थान शोक भय (सम्मान)
अष्ठम स्थान सुख व आर्थिक लाभ
नवम स्थान आभूषण अथवा वस्त्र प्राप्ति, सुख व आर्थिक लाभ
दशम स्थान सुख में कमी.
एकादश स्थान आर्थिक लाभ
द्वादश स्थान सुख, आर्थिक लाभ, भोग प्राप्ति
मुख्य कारक शुक्र का रंग शुभ स्वेत, खण्ड आकृति के साथ घुघराले काले
रुचिर शरीर व सुन्दर नेत्र वाला मतान्तर से एक नेत्र विहीन है। स्त्री लिंग, कफ प्रकृति (मतान्तर से कफ-वात प्रकृति), युवावस्था, रजो गुणी, बसन्त ऋतु का आधिपत्य, आग्नेय कोण का स्वामी, ब्राह्मण वर्ण का, जल तत्व, स्थान जल भूमि, संगीत के विद्याध्ययन में रुचि, यजुर्वेदाभ्यास में रुचि, क्रीडा स्थल इसका शयनकक्ष है, अम्लीय
रस व धातू चांदी है। शुक्र को नैसर्गिक शुभ माना जाता है। मतान्तर से इनको कालपुरुष का काम माना जाता है। यह सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। इसके साथ इन्हें सप्तम भाव का कारकत्व प्राप्त है। गुरु को वृषभ व तुला राशि का आधिपत्य प्राप्त है। यह मीन राशि में 27 अंश तक उच्च का, कन्या राशि में 27 अंश तक नीच का व तुला राशि में 5 अंश तक मूलत्रिकोणी होता है।
ज्योतिष में शुक्र को भौतिक सुख व काम का मुख्य प्रतिनिधि माना जाता है। शुक्र के
वस्त्र श्वेत चित्र-विचित्र, रत्न हीरा, देव इन्द्राणी मतान्तर से श्री लक्ष्मी, लोक पितृ
लोक पुष्प जूही व मोगरा व सौराष्ट्र देश का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। शुक्र को स्त्री, ब्राह्मण, नाटा कद, हाथी-घोडे, सफेद क्षत्र, सौम्य स्वभाव, दोपाये प्राणी, सफेद रंग,
कपडा आय, स्त्री सुख, अहंकार, अभिनय, मैथुन प्रियता, जल क्रीड़ा, मृदुलता, काव्य
में चतुर, दिन में माता के कार्य करने वाला, कला में निपुण, सम्मान, रहस्य की बातें,
वीणा, राजसी वृत्ति, सुन्दरता की वस्तुओं का क्रय-विक्रय, पत्नी, काम-वासना व
कामुकता, रत्न, खट्टी रुचि, पुष्प, आज्ञा, चंवर, तारूण्य, वाहन, नमक, हंसी-मजाक, राजा, मोती, कीर्ति, पुष्पहार, सुगन्धित वस्तुयें, व्यापारी, सुन्दरता, राजमुद्रिका, गुप्त अंग, श्री लक्ष्मी व माँ पार्वती की उपासना, वीर्य, रत्न, श्वेत वस्तु से लाभ, आभूषण, नौकर-चाकर, कलाप्रेमी, विषय-वासना, श्वेत अश्व, अण्डाशय, गुर्दा, व्यवसाय, कामेच्छा, सांसारिक सुख, स्फटिक, रेशमी वस्त्र, रूई, प्रत्येक सुगंन्धित द्रव्य, श्वेत पुष्प, मिश्री, शक्कर, चावल, अंजीर, अंगार प्रसाधन, स्निग्धता, पृथ्वी में गढ़ा धन, सुखी जीवन तथा सुन्दरता बढ़ाने वाली प्रत्येक वस्तुओं का भी मुख्य कारक है। हमारे शरीर में शुक्र कफ व वीर्य के साथ काम-वासना का भी मुख्य कारक है।
शुक्र के लिये मेरा शोध यह कहता है कि यह एक नैसर्गिक शुभ ग्रह है। यह पत्रिका में किसी भी स्थिति में क्यों न हो, लेकिन यह अशुभ फल नहीं देता है। सामाजिक मान्यता के अनुसार पापी शुक्र के द्वारा मिलने वाले फलों को ही हम गलत मान सकते हैं। इसके साथ मैंने यह देखा है कि यदि शुक्र के साथ बुध भी पीड़ित हो तो व्यक्ति में नपुंसकता आ जाती है। पत्रिका के व्यय अर्थात् द्वादश भाव में जाने पर
काई भी ग्रह हो, वह अपने अशुभ फल देता है लेकिन शुक्र के लिये द्वादश भाव में जाना
हो जातक के लिये बहुत खुशी की बात होती है। कुंभ लग्न के अतिरिक्त, इसका भी
मेरे अनुभव के अनुसार द्वादश भाव व्यय अर्थात खर्च का घर है। कोई भी ग्रह यहां
जाने पर अपने फल को खर्च करता है। शुक्र भी इस भाव में जाने पर अपने फल (भोग) का व्यय करता है। जातक भोग तभी करेगा जब उसके पास धन होगा। व्यक्ति के पास धन होना बहुत ही आवश्यक है। हम सौरमण्डल में यदि शुक्र को देखें तो यह अलग ही एक सुन्दर चमकदार ग्रह के रूप में नजर आयेगा । इसलिये शुक्र को सुन्दरता का मुख्य कारक माना जाता है। ज्योतिष में भी किसी की सुन्दरता देखने के लिये उसकी पत्रिका में शुक्र का अध्ययन आवश्यक होता है। हमारे शरीर में शुक्र का वीर्य, नेत्र व पैरों पर अधिकार होता है।
शुक्र का प्रत्येक भाव पर दृष्टिफल
आज हम पत्रिका में शुक्र की प्रत्येक भाव पर पड़ने वाली दृष्टि के फल के बारे में चर्चा करते हैं। जैसा कि हमने पिछले लेखों में बताया कि प्रत्येक ग्रह अपने घर से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है, इसी आधार पर शुक्र भी अपने भाव से सातवे भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। इसके साथ ही शुक्र की अन्य दृष्टियां भी होती है। जैसे एकपाद, द्विपाद व त्रिपाद कहते हैं परन्तु फल पूर्ण दृष्टि का होता है। इसलिये हम यहां शुक्र की पूर्ण दृष्टि फल की चर्चा करेंगे।
प्रथम भाव पर लग्न भाव को शुक्र यद पूर्ण दृष्टि से देखता है तो जातक सुन्दर, शौकीन स्वभाव का, अवैध सम्बन्धो में विश्वास करने वाला, सजा- सजा साफ स्वच्छ रहने वाला, भाग्यशाली के साथ चतुर व बातूनी भी होता है।
द्वितीय भाव पर धन भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक अपनी वाणी से सबको
वश में करने वाला, आर्थिक रूप से सक्षम व पारिवारिक सुख भोगने वाला, नित्य नये मार्ग से धनार्जन करने में अग्रणी, अपनी वाणी से सबको मोहित करने में प्रवीण, परिश्रमी तथा भोग विलास में लीन रहने वाला होता है।
तृतीय भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि जातक को शासन करने में अर्थात आज के समयानुसार अपने अधीन लोगों को सन्तुष्ट करने में कुशल, शीघ्रपतन
न अल्पवीर्य रोगी, अधिक भाई -बहिन वाला होता है। ऐसे जातक का 26 वर्ष के
बाद ही भाग्योदय होता है। मेरे अनुभव के अनुसार ऐसा जातक सब कुछ होते हुए भी
कम ही सुख भोगता है। वह किसी न किसी कारण से भौतिक सुख-सुविधा को अधिक
पसन्द नहीं करता है।
चतुर्थ भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक को समस्त प्रकार का सुख प्राप्त होता है जिसमे यदि इस भाव का स्वामी भी बलवान हो तो जातक को उच्च
वाहन का सुख प्राप्त होता है। ऐसा जातक अपनी माता से अधिक प्रेम करता है तथा
राज्य व समाज में भी सम्मान प्राप्त करता है। उसको विपरीत लिंग वर्ग अधिक पसन्द
करता है। ऐसे जातक को अधिक शुभ फल तब प्राप्त होते हैं जब वह अपनी राशि में हो।
पंचम भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक के प्रथम संतान कन्या
सन्तति के रूप में होती है जो बहुत ही सुन्दर होती है। जातक विद्वान, रत्न व श्वेत
वस्तुओं से आर्थिक लाभ प्राप्त करने वाला व स्थिर लक्ष्मीवान होता है। मेरे अनुभव में
जातक किसी नशे का शौकीन अवश्य ही होता है तथा उसे नियमित रूप से आर्थिक
लाभ होता रहता है।
षष्ठम भाव पर इस घर पर शुक्र की दृष्टि से जातक अंत्यधिक धनवान,
भोग-विलास में लीन रहने वाला, समस्त प्रकार के भौतिक सुख भोगने वाला तथा अवैध सम्बन्धों में लिप्त होता है। ऐसा जातक अपने शत्रुओं के लिये काल होता है। अवैध सम्बन्धों के कारण वह शीघ्रपतन व गुप्तरोग से पीड़ित रहता है। बुध व गुरु के भी पीड़ित होने पर कुष्ठ रोग होता है। उसे अपने जीवनसाथी से केवल समाज को दिखाने के लिये ही प्रेम होता है।
सप्तम भाव पर इस भाव को जब शुक्र देखता है तो जातक अत्यधिक व्याभिचारी, काम-वासना से पीडित. 25 वर्ष की आयु से स्वतंत्र रहने वाला तथा सुन्दर जीवन साथी वाला होता है। मेरे अनुभव में ऐसा जातक बहुत ही चालाक होता है। वह
अपनी बातों के माध्यम से सामने वाले की हमदर्दी प्राप्त कर उससे अवैध सम्बन्ध
बनाता है।
अष्टम भाव पर इस भाव पर शुक्र की दष्टि से जातक सदैव किसी बात से दुःखी रहने वाला तथा अत्यधिक कामी होता है। इसी अवगुण के कारण वह किसी से भी शारीरिक सम्बन्ध बनाता है, फिर गुप्त रोग से पीड़ित होता है। वह वात व कफ रोग से भी कष्ट उठाता है। ऐसा जातक साधु-सन्तो की सेवा करता है। केतु के योग होने पर स्वयं भी साधु बन सकता है क्योंकि साधारणतः वह परिवार से तो अलग ही
रहता है।
नवम भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि के प्रभाव से जातक भाग्यशाली
तथा धर्म में रुचि रखने वाला, समाज अथवा गाँव का मुखिया, कुल का नाम करने वाला, शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाला होता है। मेरे अनुभव में शुक्र यदि किसी भी पाप प्रभाव में नहीं है तो जातक सीमा में रहकर समस्त प्रकार के भोग करता है। अपने परिवार के लिये भी भौतिक सुख-सुविधा जुटाता है। विलक्षण प्रतिभा का धनी होने के साथ यश व कीर्ति भी प्राप्त करता है।
दशम भाव पर कर्म भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक राज्य से लाभ के साथ
सम्मान भी प्राप्त करता है। धनवान, भाग्यशाली, अधिकतर प्रवास पर रहने वाला तथा अनेक भूमि-भवन का स्वामी होता है। मेरे अनुभव में ऐसा जातक अपने पिता से कहीं आगे निकलता है। वह समाज में इतना नाम करता है कि उसका नाम उदाहरण के लिये प्रयोग होने लगता है। वह उच्च स्तर का वाहन सुख भोगता है।
एकादश भाव पर आय भाव को शुक्र यदि पूर्ण दृष्टि से देखे तो जातक अपने
जीवन में बहुत धन कमाता है। उसकी आय के साधन भी अनेक होते हैं। वह कवि के
रूप में भी यश प्राप्त करता है साथ ही वह कन्या सन्तति से विशेष प्रेम करने वाला
होता है परन्तु अवैध सम्बन्धों में अधिक विश्वास करता है।
द्वादश भाव पर इस भाव पर शुक्र की दृष्टि से जातक अत्यधिक खर्चीले स्वभाव का होता है। उसके पास समस्त प्रकार के भौतिक सुख की सामग्री उपलब्ध रहती है। शत्रुओं से दुःखी होता है। ऐसा जातक अल्पवीर्य के साथ वीर्य रोगी भी होता
है। अवैध सम्बन्धों में विशेष रुचि होती है । वह स्वयं विपरीत लिंग का विरोध सहने
वाला होता है। ऐसा जातक अधिकतर अपने धन का व्यय विवाह तथा गुप्त सम्बन्धो में अधिक करता है।
शुक्र की महादशा का फल
जन्मपत्रिका में शुक्र यदि पीड़ित, अकारक, अस्त, पापी अथवा दुषित हो तो इसकी दशा में निम्न फल प्राप्त होते हैं।
शुभ ग्रह, लग्नश या कारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि होने पर शुक्र के अशुभ फल में निश्चय ही कमी आयेगी। यह आवश्यक नहीं की स्थिति में यह भोग से ही सम्बन्धित कष्ट दे तथा यह भी आवश्यक नहीं है कि शुक्र अपनी शुभ स्थिति में पूर्णतः भोग का ही फल दे। आप भी यह भलीभांति समझ लें कि भोग का अभिप्राय केवल शारीरिक सम्बन्ध बनाना ही नही है यहां पर भोग का अभिप्राय अच्छा जीवन तथा सुख से भी है। शुक्र ही एक ऐसा ग्रह है जो अपने अशुभ फल में कुछ कार्य ऐसे करवा देता है जिसका अन्त तो बुरा होता है परन्तु जातक
उसे ही बहुत अच्छा मानता है। उदाहरण के लिये अशुभ शुक्र की स्थिति में जातक
बलात्कार भी कर सकता है तथा इस काम को जातक बहुत अच्छा मानता है लेकिन
वह गोचर में अथवा दशा में शुक्र के अशुभ प्रभाव से यह कार्य कर डालता है तथा बाद
में उसे कितना भयावह परिणाम मिलता है, वह इस बारे में नहीं सोच पाता है। इसलिये
यह पूर्ण रूप से पापी अथवा पीड़ित हो तो इनकी महादशा में तथा इसके साथ इनकी
ही अन्तर्दशा में अग्रांकित फल प्राप्त होते हैं।
मुख्यतः शुक्र पत्रिका में सिंह अथवा कर्क राशि में हो अथवा किसी नीच ग्रह के प्रभाव में हो अथवा गुरु की किसी राशि में कोई
नीच या पापी ग्रह बैठा हो अथवा शुक्र स्वयं नीचत्व को प्राप्त हो तो जातक को
गुप्त रोग, चोरी के माध्यम से भौतिक वस्तुओं की हानि अथवा किसी पाप कर्म से
मानहानि का भय होता है। इसके अंतिरिक्त शुक्र किसी त्रिक भाव में हो अथवा त्रिक
भाव के स्वामी के साथ हो तो जातक को अत्यन्त कष्ट प्राप्त होते हैं। इसमें भी यदि
इन भावों का स्वामी कोई पाप ग्रह हो तो फिर अशुभ फल की कोई सीमा नहीं होती
है। वैसे शुक्र की पूर्ण महादशा में जातक भोग-विलास भरा जीवन व्यतीत करता है।
भोग सामग्री की प्राप्ति होती है। वाहन, आभूषण, नये वस्त्र, आर्थिक लाभ आदि की प्राप्ति भी होती है। विपरीत लिंग से सुख व सम्मान प्राप्त होता है। जातक की ज्ञान वृद्धि होती है। जातक जल मार्ग से विदेश यात्रा करता है तथा राज्य से सम्मान प्राप्त होता है। मेरे अनुभव में यह सारे कार्य शुक्र के शुभ व शक्तिशाली होने पर ही प्राप्त होते हैं। जातक के घर-परिवार में कोई मांगलिक कार्य अवश्य होता है।
आगे मैं कई स्थान पर दोनों ग्रह (शुक्र तथा जिसका प्रत्यान्तर हो) के अशुभ योग
होने पर अशुभ फल की चर्चा करूंगा, उसमें आप यह अवश्य देख लें कि क्या उस
स्थिति में कोई शुभ ग्रह प्रभाव दे रहा है यदि शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा युति हो तो
अवश्य ही अशुभ फल में कमी आयेगी। आने वाली कमी का रूप शुभ ग्रह की शक्ति पर निर्भर करेगा। इसके अतिरिक्त शुक्र की महादशा में शुक्र का अन्तर निम्न फल दे सकता है।
शुक्र यदि द्वितीय भाव में हो तो जातक हृदयाघात, नेत्र कष्ट, शत्रु क्लेश, राजभय तथा बड़ी चोरी का भय होता है।
शुक्र पत्रिका में तृतीय अथवा एकादश भाव में शुभ हो तो समाज में सम्मान,
अचानक लाभ तथा राज्य से लाभ जैसे फल प्राप्त होते हैं। अशुभ स्थिति में होने पर जातक को शारीरिक कष्ट, आर्थिक हानि, अग्नि से हानि व कारागार का भय होता है।
यह फल तो शुक्र की महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा में ही मिलते हैं लेकिन निम्न
फल शुक्र की पूर्ण महादशा में कभी भी मिल सकते हैं।
सिंह राशि में शुक्र की दशा में जातक को अत्यधिक शारीरिक कष्ट प्राप्त होते हैं।
शुक्र यदि कन्या राशि में है तो हृदयाघात अथवा फेफड़ों में संक्रमण होता है। शुक्र रोग भाव में हो तो जातक को शत्रु से कष्ट, मुकदमे में पराजय के बाद राजदण्ड व चोरी का भय होता है। शुक्र यदि मेष, धन अथवा मीन राशि में हो तो गुप्त रोग अथवा गुदाद्वार या किसी फोड़े की शल्य क्रिया होती है।
शुक्र की महादशा में अन्य ग्रहान्तर्दशा का फल
शुक्र ग्रह की महादशा के उपरोक्त फल शुक्र की अन्तर्दशा में प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु निम्न फल अन्य ग्रह की अन्तर्दशा में ही प्राप्त होते हैं। इन फलो का निर्धारण आप शुक्र के साथ जिस ग्रह की अंतर्दशा हो, उसके बल, उस पर अन्य ग्रह की युति या दृष्टि तथा उस ग्रह का शुभाशुभ देख कर करें।
शुक्र में शुक्र की अन्तर्दशा शुक्र की महादशा का आरम्भ अधिकतर शुभ ही
होता है। इसमें भी यदि शुक्र बली होकर 1-4-5-7-9 व 10वें भाव में बैठा हो तो
जातक को नये भवन व अच्छे वस्त्राभूषण की प्राप्ति तथा आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। जातक का मन अच्छे कार्य व भोग विलास में लगता है पुत्र संतान की प्राप्ति, राजसम्मान के साथ सम्पत्ति की भी प्राप्ति होती है। यदि शुक्र उच्च, स्वक्षेत्री अथवा
मुलत्रिकोण का होकर 1-5 अथवा 9वें भाव में बैठा हो तो जातक किसी एक अथवा
अनेक बड़े ग्रन्थ का लेखन कार्य करता है। यदि शुक्र नीच का, अस्त, पाप ग्रह के प्रभाव के साथ अथवा 6-8 अथवा 12वे भाव में राहू विराजमान हो तो जातक को
राज्यदण्ड, मृत्युतुल्य कष्ट, आर्थिक हानि जैसे फल प्राप्त होते हैं।
शुक्र में सूर्य की अन्तर्दशा इस दशाकाल में जातक को मिश्रित फल प्राप्त होते हैं। शुक्र अथवा सूर्य उच्च, मूलत्रिकोण, स्वक्षेत्री हो अथवा नवपंचम योग निर्मित हो रहा हो अथवा दशेश से सूर्य केन्द्रगत हो तो जातक को राज्य सम्मान, कार्यक्षेत्र में उन्नति भाई से लाभ के साथ उसकी उन्नति, माता -पिता को सुख जैसे फल प्राप्त होते हैं परन्तु कोई ग्रह नीच, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग अथवा 6-8 अथवा 12वें भाव में हो तो अस्थि भंग, नेत्र पीड़ा, राज्यदण्ड, पिता से अथवा किसी गुरु समान वृद्ध से कष्ट जैसे फल प्राप्त होते हैं।
शुक्र में चन्द्र की अन्तर्दशा यह दशा जातक की अच्छी व्यतीत होती है लेकिन
और अधिक अच्छी के लिये दोनों में से किसी एक ग्रह का उच्च, स्वक्षेत्री, मूल त्रिकोणी अथवा शुक्र से चन्द्र का त्रिकोण अथवा केन्द्रगत होना आवश्यक है। इस योग से जातक को विपरीत लिंग का सुख तथा स्त्री वर्ग में सम्मान, आर्थिक लाभ, कर्मक्षेत्र में उन्नति अथवा उच्च पद प्राप्ति, कन्या सन्तति की प्राप्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं, लेकिन किसी ग्रह का पाप प्रभाव में होने पर, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर जातक को अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट भोगने पड़ते हैं जिसमें मुख्यतः मानसिक भय, दांत, सिर, नाखून की पीड़ा, आर्थिक संकट, टी.बी. अथवा गुल्म (तिल्ली) रोग
होते हैं।
शुक्र में मगल की अन्तर्दशा यह दशा जातक को शुभ फल की अपेक्षा अशुम
फल अधिक प्रदान करती है। यदि शुक्र से मंगल त्रिकोण, केन्द्रगत अथवा एकादश भाव में हो अथवा कोई ग्रह उच्च, मूल त्रिकोणी या स्वक्षेत्री होने पर जातक को कार्य सिद्धि, आर्थिक लाभ अथवा भूमि लाभ होता है । किसी ग्रह का अस्त, नीच, पाप प्रभाव में, शत्रुक्षेत्री अथवा षडाष्टक योग होने पर जातक को किसी से अवैध सम्बन्ध, रक्तविकार, हाथ का कार्य छोड़ना, आर्थिक हानि, बुद्धि अथवा स्थान भ्रंश अथवा दुर्घटना जैसे फल प्राप्त होते हैं।
शुक्र में राहू की अन्तर्दशा इस दशा में भी जातक को मिश्रित फल की प्राप्ति
होती है। शुक्र से राहू यदि त्रिकोण, केन्द्रगत अथवा एकादश भाव में हो अथवा कोई
ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी या स्वक्षेत्री होने पर जातक को व्यावसायिक व आर्थिक लाभ,
सुख-ऐश्वर्य की प्राप्ति, पुत्र संतान की प्राप्ति, शत्रु विजय कुल का सम्मान जैसे फल प्राप्त होते हैं लेकिन इनमें से कोई दुःस्थान में, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर जातक को कष्ट भी बहुत उठाने पड़ते हैं। विष, अग्नि, दुर्घटना, करन्ट लगने का भय होता है अथवा जातक अचानक जेल भी जा सकता है।
शुक्र में गुरु की अन्तर्दशा मेरे अनुभव में जातक की यह दशा अच्छा फल प्रदान करती है। इसमें भी यदि शुक्र से गुरु केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो अथवा कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी या शुभ प्रभाव या स्वक्षेत्री हो तो जातक को संतान प्राप्ति, आर्थिक लाभ, परिवार में मांगलिक कार्य, राज्य लाभ, उच्च पद व यश प्राप्ति और पूजन
आदि में मन लगना जैसे फल प्राप्त होते हैं। कोई ग्रह नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, पाप प्रभाव
में अथवा षडाष्टक योग निर्मित हो तो जातक को आर्थिक कष्ट, चौर्य भय, शारीरिक पीड़ा तथा गुरु मारक हो तो मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य पीड़ा होती है।
शुक्र में शनि की अन्तर्दशा। मेरे अनुभव में जातक को इस दशा में इन दोनों में से यदि कोई एक ग्रह उच्च, मूलत्रिकोण, त्रिकोण अथवा केन्द्रगत अथवा शुभ ग्रह
के प्रभाव में हो तो व्यक्ति को कर्मक्षेत्र में उन्नति, भूमि भवन व वाहन लाभ, राज्य में सम्मान विशेषकर पुलिस या सेना से सम्मान, अनेक प्रकार से आर्थिक लाभ, भौतिक सुख-समृद्धि जैसे फल प्राप्त होते हैं। यदि इनमें से कोई एक ग्रह बली हो तथा एक निर्बल, तो जातक को उपरोक्त फल प्राप्त हो सकते हैं लेकिन यदि दोनों ग्रह बली हों अथवा लग्नेश अथवा शुक्र से शनि षडाष्टक योग निर्मित करे, नीच, अस्त अथवा पाप प्रभाव में हो तो जातक को आर्थिक हानि, क्लेश, आय से अधिक व्यय, व्यापार में हानि जैसे फल प्राप्त होते हैं। यदि शनि मारकेश हो तो जातक को अकाल मरण अथवा मृत्युतुल्य कष्ट तो होता ही है।
शुक्र में बुध की अन्तर्दशा। यह दशाकाल जातक को शुभ फल अधिक तथा अशुभ फल कम देता है। इसमें भी यदि कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी, स्वक्षेत्री, केन्द्र अथवा त्रिकोणगत हो तो जातक को संतान सुख, सम्पत्ति प्राप्ति, कार्यों में सफलता, शत्रु विजय, साहित्यिक क्षेत्र में यश व धन प्राप्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं लेकिन कोई
ग्रह नीच, अस्त, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित हो तो जातक त्रिदोष अर्थात् वात-पित्त-कफ में से किसी एक से पीड़ित, अपयश, कुटुम्ब में क्लेश जैसे फल प्राप्त होते हैं।
शुक्र में केतू की अन्तर्दशा। इस दशा में जातक को अशुभ फलों की अधिक प्राप्ति होती है। यदि शुक्र उच्च, मूलक्रिकोणी, स्वक्षेत्री, केन्द्र अथवा त्रिकोणगत हो अथवा केतू 3-6 अथवा ।। वें भाव में हो तो जातक को अल्प लाभ, सम्मान व थोड़ा सुख जैसे फल मिल सकते हैं। यदि कोई ग्रह नीच, अस्त, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित करे तो भाई से वियोग, शत्रुपीड़ा, सुख में कमी, सिर में पीड़ा अथवा चोट,
फोड़े-फुन्सी, अग्नि भय, सम्पत्ति हानि अथवा अवैध सम्बन्ध जैसे फल अधिक प्राप्त होते हैं।
शुक्र के द्वारा होने वाले रोग
शुक्र भोग का ग्रह है। इसका प्रभाव जातक के भोग करने पर अधिक पड़ता है। उसे जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों का अधिक सामना करना पड़ता है। पत्रिका में शुक्र
निर्बल अथवा पीड़ित होने पर अथवा शुक्र के गोचर काल में जातक को गुप्त रोग,
जननेन्द्रिय के पूर्ण रोग, स्त्रियों को प्रदर संतान बंध्यत्व, स्तन रोग, वक्ष ग्रन्थि, पुरुष
को शीघ्रपतन, लिंग सिकुड़ना, उपदंश, मूत्र संस्थान के रोग, दवा की विपरीत
प्रतिक्रिया, कैंसर, गंडमाला, अधिक सम्भोग के बाद कमजोरी अथवा चन्द्र व चतुर्थ भाव के पीड़ित होने पर हृदयाघात भी हो सकता है। शुक्र के रोग भाव के स्वामी के साथ होने पर जातक को नेत्र में चिन्ह बनता है। शुक्र की महादशा तथा शुक्र की अन्तर्दशा में जातक को विभिन्न रोग हो सकते हैं। शुक्र यदि द्वितीय भाव में है तो हृदयरोग, नेत्रकष्ट, मानसिक समस्या, चोरी के कारण धन हानि, राजप्रकोप अथवा शत्रु प्रबल होते हैं। शुक्र तृतीय अथवा एकादश भाव में होने पर राजा अर्थात् उच्चाधिकारी से दण्ड, अग्निकाण्ड, भाई से कष्ट तथा कई अन्य कष्ट हो सकते हैं। शुक्र त्रिकोण अर्थात् लग्न, पंचम अथवा नवम भाव में होने पर जातक अपनी बुद्धि का सही प्रयोग नहीं कर पाता है। वह सदैव शंका व संशय में रहता है शारीरिक व मानसिक कष्ट भी प्राप्त होते हैं। इस स्थिति की सम्भावना शुक्र के 4-6-8 अथवा 12वें भाव में होने पर अथवा शुक्र गोचरवश इन भावों में आने पर ही अधिक होती है। आप यह न समझें कि यदि आपकी पत्रिका में शुक्र पापी है तो आपको केवल यही रोग होंगे, रोग होने में शुक्र किस भाव में तथा किस राशि में स्थित है, इस बात का भी बहुत असर होता है। यहां पर हम पत्रिका में शुक्र किस राशि में होने पर किस रोग की सम्भावना अधिक होती है। इसकी चर्चा करेंगे।
शुक्र यदि मेष राशि में हो तो जातक को शिरोरोग, शूल, नेत्र रोग तथा सिर पर चोट का भय होता है।
शुक्र के वृषभ राशि में होने पर जातक को तभी रोग होते हैं, जब शुक्र अत्यधिक पीड़ित हो। इनमें आहार नली का संक्रमण, गलसुए, टान्सिल्स, मुख व जिव्हा पर छाले जैसे रोग अधिक होते हैं।
शुक्र के मिथुन राशि में होने पर जातक को गुप्त रोग, चेहरे पर मुंहासे आदि
होते हैं। यदि लग्नस्थ शुक्र है तो चर्मविकार के साथ रक्त विकार की भी सम्भावना
होती है।
शुक्र के कर्क राशि में होने पर जातक को जलोदर, वक्ष सूजन, अपच, वमन
अथवा जी मिचलाने जैसे रोग होते हैं। मंगल की दृष्टि होने पर अक्सर शरीर में जल की कमी से ग्लूकोज की बोतलें चढ़ती हैं।
शुक्र के सिंह राशि में होने पर जातक को हृदयविकार, रीढ़ की हड्डी की पीड़ा व रक्त धरमनियों के रोग अथवा धमनी रक्त का थक्का जमने से हृदयाघात का
योग बनता है।
शुक्र के कन्या राशि में होने पर जातक को खूनी अतिसार, थोड़ा भी खाते ही शौच जाना तथा भोजन का न पचना जैसे रोग उत्पन्न होते है।
शुक्र के तुला राशि में होने पर जातक को मूत्र संस्थान के रोग, शीघ्रपतन तथा गुरु के भी पीड़ित होने पर मधुमेह जैसे रोग होते हैं।
शुक्र के वृश्चिक राशि में होने पर पुरुष जातक को अण्डकोष के रोग, अल्पवीर्यता, हर्निया की शल्य क्रिया, उपदंश तथा स्त्री जातक को गर्भाशय संक्रमण योनिरोग, श्वेत प्रदर व गुदाद्वार के रोग होते हैं।
शुक्र के धनु राशि में होने पर जातक को गुदा रोग अथवा शल्य क्रिया, फिशर, गुप्तेन्द्रिय रोग, स्नायु रोग, कमर की पीड़ा, दुर्घटना में कमर उतरना जैसे रोग अधिक होते हैं।
शुक्र के मकर राशि में होने पर जातक को घुटनों की पीड़ा व सूजन, त्वचा रोग, कमर से निचले हिस्से में पीड़ा व स्नायु विकार के रोग होते हैं।
शुक्र के कुंभ राशि में होने पर जातक
को रक्तवाहिका के रोग, घुटने में पीडा अथवा सूजन, रक्तविकार स्फूर्ति में कमी, काम में मन न लगना आदि रोग होते हैं।
शुक्र मीन राशि में होने पर जातक को पैरों के पंजों के रोग अधिक होते हैं। तथा गुरु के भी पीड़ित होने पर मधुमेह रोग की संभावना बढ़ जाती है।
रोग भाव मे शुक्र द्वारा होने वाले विशेष रोगों का विवरण
अभी तक हमने शुक्र के प्रत्येक राशि में होने पर होने वाले रोगों की चर्चा की है। हम अब शुक्र के रोग भाव में किस राशि में होने पर क्या रोग होता है, इसकी चर्चा करेंगे। यहां हम पहले एक सामान्य बात बता दे कि शुक्र यदि किसी भी भाव में रोग भाव के स्वामी के साथ होता है तो जातक के जन्म से ही नेत्र अथवा नेत्र के आसपास
कोई व्रण अवश्य होता है।
मेष राशि। रोग भाव में शुक्र के मेष राशि में होने पर जातक को श्वास विकार, त्वचा रोग अथवा कम गर्मी में त्वचा पर फफोले होना, गुप्तेन्द्रिय से रक्त प्रवाह जैसे रोग
होते हैं।
वृषभ राशि रोग भाव में शुक्र यदि वृषभ राशि में हो तो जातक को वाणी विकार व गले के रोग होते हैं। बुध भी यदि पापी अथवा पीड़ित हो तो हकलाना अथवा
तुतलाना भी सम्भव है। किसी पापी ग्रह का प्रभाव होने पर जातक गन्दी भाषा का
प्रयोग करता है।
मिथुन राशि यहां पर शुक्र यदि मिथुन राशि में हो तो जातक को सांस के
रोग, दमा अथवा दम घुटने के रोग होते हैं।
कर्क राशि रोग भाव में शुक्र जातक को छाती के रोग व उदर रोग देते हैं। यदि
चन्द्र चतुर्थ भाव भी पीड़ित हो तो जातक को अवश्य ही हृदयाघात होता है।
सिंह राशि छठे भाव में शुक्र के सिंह राशि में होने पर छाती में संक्रमण, मूर्च्छा
तथा अस्थि भंग जैसे रोग होते हैं।
कन्या राशि रोग भाव में शुक्र यदि कन्या राशि में हो तो जातक को उदर रोग, अपच व बड़े होने तक पेट के कीड़ों से पीड़ित रखता है। यहां पर जातक खाने के बाद वमन के रोग से भी पीड़ित रहता है।
तुला राशि इस भाव में शुक्र के तुला राशि में होने पर जातक को के रोग, शीघ्रपतन तथा धात जाना जैसे रोग होते हैं।
वृश्चिक राशि रोग भाव शुक्र यदि वृश्चिक राशि में हो तो जातक को गुप्त रोग, सिफलिस, मूत्र संक्रमण व इन्द्रिय रोग होते
धनु राशि रोग भाव में शुक्र के धनु राशि मे होने पर जातक को क्षय रोग अथवा फेफड़ों में संक्रमण, गुदा रोग, व शौच में रक्त जाना व पीड़ा जैसे रोग सम्भव
होते हैं।
सकर राशि यहा पर शुक्र यदि मकर राशि में हो तो जातक को उदर रोग.
पेट में संक्रमण, कृमि रोग, खाने में मन न लगना जैसे रोग होते हैं । शनि भी पीड़ित
हो तो जातक के घुटनों में कष्ट होता है तथा घुटने कमजोर भी होते हैं।
कुंभ राशि। रोग भाव में शुक्र यदि कुंभ राशि में हो तो शरीर में रक्त की कमी,
स्नायु विकार तथा किसी भी कारण से बार-बार शल्य क्रिया होती है। स्त्री की पत्रिका में मासिक काल में वह रक्त की कमी होने से रक्त चढ़ाना पड़ सकता है। केतू पीड़ित हो तो स्त्री पिशाच बाधा से पीड़ित हो सकती है।
मीन राशि रोग भाव में शुक्र यदि मीन राशि में हो तो जातक को सर्दी अधिक
लगती है, भरी गर्मी में भी जुकाम से परेशान रहता है। यदि गुरु भी पीड़ित हो तो जातक को मधुमेह होता है।
लग्न अनुसार अशुभ शुक्र से मिलने वाले फल
आज हम लग्न अनुसार अशुभ शुक्र की चर्चा करेंगे जिससे आप स्वयं ही अपनी
पविका में शुक्र की स्थिति देख सकें। इसमें आप केवल इस योग के आधार पर ही शुक्र को एकदम अशुभ न समझ ले अपितु अन्य योग भी देखें जिनकी में पिछले लेखों में चर्चा कर चुका हूं व शुक्र के साथ बैठे ग्रह को देखे। शुक्र पर कौनसा ग्रह दृष्टि डाल रहा है, वह मित्र है अथवा शत्रु है, इसके बाद ही निष्कर्ष निकालें कि शुक्र कितना अशुभ अथवा शुभ है।
मेष लग्न इस लग्न का स्वामी मगल है जो शुक्र का सम ग्रह है फिर भी शुक्र इस लग्न में तृतीय, सप्तम, नवम व एकादश भाव में बहुत ही अशुभ फल देता है।
वृषभ लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं शुक्र है, इसलिये शुक्र इस लग्न में तृतीय,
चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, एकादश व द्वादश भाव में अशुभ होता है।
मिथुन लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं बुध होता है, इसलिये शुक्र यहां धन भाव, तृतीय, षष्ठम, अष्टम, नवम भाव व दशम भाव में अशुभ फल देता है।
कर्क लग्न इस लग्न का स्वामी चन्द्र है जो शुक्र का शत्रु है फिर भी शुक्र तृतीय, चतुर्थ, सप्तम, नवम व आय भाव में अशुभ होता है।
सिह लग्न इस लग्न का स्वामी सूर्य भी शुक्र का परम शत्रु है फिर भी शुक्र पराक्रम भाव, रोग भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव तथा व्यय भाव में अधिक अशुभ फल
देता है।
कन्या लग्न कन्या लग्न का स्वामी भी बुध होता है, इसलिये शुक्र तृतीय, षष्ठम
व व्यय भाव में अशुभ फल देता है।
तुला लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं शुक्र है, इसलिये शुक्र इस लग्न में तृतीय
षष्ठम, अष्टम तथा द्वादश भाव में विशेष अशुभ फल देता है।
वृश्चिक लग्न इस लग्न का स्वामी मंगल है जो शुक्र का सम ग्रह है, फिर भी इस लग्न में शुक्र लग्न, धन भावि, चतुर्थ, पचम, नवम तथा दशम भावों के अतिरिक्त अन्य
सभी भावों में विशेष अशुभ होता है।
धनु लग्न इस लग्न का स्वामी स्वयं गुरु है जो शुक्र का विशेष शत्रु परन्तू तृतीय, पंचम, षष्ठम, आय तथा व्यय भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है।
मकर लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है। शुक्र इनका विशेष मित्र है फिर भी शुक्र इस लग्न में केवल तृतीय भाव, रोग भाव, आयुष्य भाव तथा द्वादश भाव में अशुभ
फल देते देखा गया है।
कुभ लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है, इसलिये शुक्र इस लग्न में भी केवल तृतीय भाव, रोग भाव, अष्टम भाव, दशम भाव तथा व्यय भाव में अशुभ फल देता है।
मीन लग्न इस लग्न का स्वामी भी स्वयं गुरु है परन्तु शुक्र तृतीय, षष्ठम, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है।
शुक्रकृत पीड़ा शान्ति के विशेष वैदिक उपाय
इस लेख के माध्यम से जन्मपत्रिका अथवा गोचर के शुक्र के अशुभ प्रभाव को समाप्त कर उनको शुभ प्रभाव में बदलने के लिये मैं आपको कुछ ऐसे उपाय बता रहा हूं जिनके करने से आप निश्चित ही लाभान्वित होंगे। यह उपाय पूर्णतः सात्विक हैं। आप इन पर जितना अधिक विश्वास करेगे, यह उतना ही अधिक लाभ देंगे। उपाय शुक्ल पक्ष के प्रथम शुक्रवार से ही आरम्भ करें।
शुक्र सम्बन्धित किसी भी वस्तु को मुफ्त में नहीं लें।
भोजन से पूर्व गौ ग्रास अवश्य निकालें।
किसी पत्रिका में यदि शुक्र लग्नस्थ हो तथा सप्तम व दशम भाव खाली हो तो जातक का विवाह 25वें वर्ष में अथवा इसके बाद होता है। विवाह के बाद आर्थिक समस्या के कारण पत्नी के छोड़ने का योग होता है, इसलिये इस योग को कम करने के लिये जातक जवस नामक घास की चटनी का प्रयोग नित्य भोजन के साथ करें तथा गौमूत्र का भी सेवन करें।
शुक्रवार के दिन सफेद सीसा को जल में डालकर स्नान करें।
मेष अथवा वृश्चिक लग्न की कुण्डली में शुक्र यदि द्वादश भाव में हो अथवा शुक्र या सप्तम भाव के स्वामी पर कोई पाप प्रभाव के कारण विवाह बाधा हो अथवा दाम्पत्य जीवन में क्लेश का योग हो अथवा यौन शक्ति में कमी हो अथवा विवाह के पश्चात् वैवाहिक जीवन में समस्या का योग हो तो पिता प्रथम शुक्रवार को एक ही वजन के दो चांदी के टुकड़े अथवा दो शुक्र यंत्र अथवा दो शुक्र रत्न हीरा अथवा उपरत्न बच्चे को उपहार में दे। बच्चा इनमें से एक टुकड़ा अथवा एक रत्न अथवा एक यंत्र जल में प्रवाहित कर दे तथा दूसरा इस विश्वास के साथ अपने पास रखे कि शुक्र
की कृपा से मेरी समस्या के अवरोध दूर होगे। यह रत्न अथवा यंत्र कन्या अथवा पुरुष के पास रहेगा, तब तक समस्या नहीं आयेगी।
प्रथम शुक्रवार से लगातार तीन शुक्रवार को खीर व मिश्री किसी भी धर्म स्थल पर दान करें। ऐसा 6 शुक्रवार ही करें। यदि लाभ मिलने पर अधिक करने के इच्छुक हैं तो 3 शुक्रवार के बाद अगले शुक्ल पक्ष से फिर आरम्भ कर सकते हैं. इसमें एक शुक्रवार का अन्तर आ जायेगा ।
आर्थिक लाभ के लिये शुक्रवार को सुहाग सामग्री किसी सुहागन को दें। शुक्रवार को श्वेत पुष्प, घी, दूध, दही, कपूर, चावल, अदरक, चरी, ज्वार में से जो भी उपलब्ध हो, बहते जल में प्रवाहित करें। ऐसा 5-11-21 अथवा 43 शुक्रवार को करें। इनकी मात्रा अपनी इच्छानुसार ले सकते हैं।
सदैव स्वच्छ वस्त्र व इत्रादि का प्रयोग करें।
स्त्री वर्ग का सदैव सम्मान करें ।
गर्मी के मौसम में आप यदि कहीं प्याऊ लगवा सके तो बहुत उत्तम है। ऐसा
करने से पहले यह अवश्य देख लें कि चन्द्र कहीं आपकी पत्रिका में छठे घर में तो नहीं
बैठा है।
जीवनसाथी को सामाजिक स्थान पर अवश्य ले जाना चाहिये परन्तु कोर्ट-कचहरी आदि जैसे स्थानों में नहीं ले जाना चाहिये ।
कभी भी फटे अथवा जले हुए कपड़े धारण नहीं करने चाहिये। यदि किसी की कोई पोशाक आपसे जल अथवा फट जाये तो उसे नई पोशाक उपहार स्वरूप दें।
पत्रिका में यदि कोई पाप ग्रह बैठा हो तो जातक को अवश्य ही देव दर्शन करने चाहिये।
यदि किसी स्त्री की पत्रिका में शुक्र निर्बल हो तथा साथ में शनि राहू अथवा मंगल बैठा हो विशेषकर 3-6-7-8-9 अथवा 12वें भाव में लग्नेश के साथ हो तो ऐसी स्त्री को कभी भी किसी निर्जन स्थान पर नहीं जाना चाहिये। इसलिये ऐसी स्त्री को सिद्ध तांत्रिक लोह छल्ला धारण करना चाहिये।
कभी भी शुक्र की वस्तुओं का दान उच्च शुक्र होने पर देना नहीं चाहिये तथा नीच शुक्र होने पर लेना नहीं चाहिये।
बारहवें भाव में शुक्र पत्नी को बहुत बीमार रखता है, इसलिये ऐसे जातक को किसी प्रथम शुक्रवार को नीले फूल निर्जन स्थान में धरती के भीतर दबाने चाहिये।
किसी पुरुष की पत्रिका में यदि निर्बल शुक्र द्वितीय भाव में व गुरु 8-9 अथवा 10वें भाव में हो तो जातक का वैवाहिक जीवन क्लेश पूर्ण रहता है। पत्नी यदि नौकरी करती है तो चरित्रहीन हो सकती है, जातक स्वयं शीघ्रपतन व अन्य यौन रोग से पीड़ित होता है। ऐसे जातक को शुक्र शान्ति के साथ मूंगे की भस्म का भी प्रयोग करना चाहिये।
नवम भाव का शुक्र जातक को आर्थिक रूप से समृद्ध व उद्योग क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है लेकिन केवल बली होने की स्थिति में, इसलिये शुक्र यदि इस भाव में पीड़ित हो तो जातक को शुक्रवार को 6 चांदी के वर्गाकार पत्तर नीम के नीचे दबाने चाहिये। इस भाव में यदि शुक्र के साथ चन्द्र व मंगल हो तो गृह निर्माण के समय मधुघट अर्थात् किसी मिट्टी के बर्तन में शहद भरकर नींव में दबाना चाहिये। Gyanchand Bundiwal.
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