स्वाहा और स्वधा में अन्तर = जब हम किसी देवी-देवता का यज्ञ या हवन करतें हैं तो आहुति के समय स्वाहा अथवा स्वधा शब्द का उच्चारण करतें हैं । आइये जानें कि स्वाहा अथवा स्वधा कौन है और आहुति के समय इसका उच्चारण क्यों किया जाता है।
स्वाहा शब्द संस्कृत के ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘आह्वे’ धातु से बना है । ‘सु’ उपसर्ग ‘अच्छा या सुन्दर या ठीक प्रकार से’ का बोध कराने के लिए शब्द या धातु के साथ जोड़ा जाता है और ‘आह्वे’ का अर्थ बुलाना होता है । अर्थात यज्ञ करते समय उद्देश्य तथा आदर पूर्वक किसी देवता को आमंत्रित कर उचित रीति से आहुति देने लिए स्वाहा शब्द का प्रयोग किया जाता है।
शिवपुराण की कथा के अनुसार ।दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। उनमें से एक पुत्री का विवाह उन्होंने अग्नि देवता के साथ किया था। उनका नाम था स्वाहा। अग्नि अपनी पत्नी स्वाहा द्वारा ही भोजन ग्रहण करते है। इसलिये देवताओं को आहूति देने के लिए स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है।
दक्ष ने अपनी एक अन्य पुत्री स्वाधा का विवाह पितरों के साथ किया था। अत: पितर अपनी पत्नी स्वधा द्वारा ही भोजन ग्रहण करतें हैं। इसलिये पितरों को आहूति देने के लिए स्वाहा के स्थान पर स्वधा शब्द का उच्चारण किया जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार – ब्राह्मणों और क्षत्रियों के यज्ञों की हवि देवताओं तक नहीं पहुंचती थी, अत: वे सब ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा उनके साथ श्री कृष्ण की शरण में पहुंचे। कृष्ण ने उन्हें प्रकृति की पूजा करने के लिए कहा। प्रकृति की कला ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा। उन्होंने वर स्वरूप सदैव हवि प्राप्त करते रहने की इच्छा प्रकट की।
उसने देवताओं को हवि मिलने के लिए आश्वस्त किया। वह स्वयं कृष्ण की आराधिका थी। प्रकृति की उस कला से कृष्ण ने कहा कि वह अग्नि की पत्नी स्वाहा होगी। उसी के माध्यम से देवता तृप्त हो जायेंगे। अग्नि ने वहां उपस्थित होकर उसका पाणिग्रहण किया। स्वाहा के गर्भ से पावक, पवमान तथा शुचि नाम के पुत्र उत्पन्न हुये। इन तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि प्रकट हुये। वे ही पिता तथा पितामह सहित उनचास अग्नि कहलाते हैं ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण पृ. 324
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 40-41
भगवान नारायण कहते हैं– ब्रह्मन! देवी स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है। शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी ब्राह्मण स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होता– यह सर्वथा सत्य है। ‘भगवती स्वधा ब्रह्मा जी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं। पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।’ इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम शिला अथवा मंगलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये। महामुने! ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें। ब्रह्मपुत्र विज्ञानी नारद! अब स्तोत्र सुनो। यह स्तोत्र मानवों के लिए सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करने वाला है। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इसका पाठ किया था।
ब्रह्मा जी बोले- ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारणमात्र से मानव तीर्थस्नायी समझा जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय-यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं। श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का फल पा लेता है। इसमें संशय नहीं है। जो मानव ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस पवित्र नाम का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता और प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है। देवि! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूपिणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं। तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ। सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है। तुम ऊँ, नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो।
चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है। इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये। यही भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समाहित-चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया। उसको वेद पाठ का फल मिलता है।
स्वाहा ओर स्वधा अन्तर
अग्नि में जो भी आहुति दी जायेगी , चाहे किसी के लिए हो स्वाहा ही बोला जाता है
पर अग्नि के बाहर पितरों को स्वधा बोला जाता है.
स्वधा का करके आह्वान, पितरों की होती है भूख शांतः ब्रहमा की मानसपुत्री “स्वधा” की कथा
स्वधा, स्वधा, स्वधा
स्वधास्तोत्रम्” पाठ के अनुसार स्वधा,स्वधा, स्वधा, इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल प्राप्त हो जाते है
सर्व पितृं शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!
हे मेरे पितृगण !
मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा है। मैँ इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ। आप तृप्त हो जाएं। मैँ दोनो भुजायेँ आकाश की ओर उठा कर आप को नमन करता हूँ। आप को नमस्कार है।
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं स्वधास्तोत्रम् पाठ (श्राद्ध, काल और पितरो के निमित्त तर्पण फल प्राप्ति हेतु पाठ)
ब्रह्मोवाच
1. स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः। मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्॥
अर्थ- ब्रह्माजी बोले स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापोँ से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकरी हो जाता है॥
2. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत्। श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च॥
अर्थ – स्वधा,स्वधा,स्वधा, - इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के पुरुष को प्राप्त हो जाते हैँ
3. श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः। लभेच्छाद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः॥
अर्थ-श्राद्धके अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है,वह सौ श्राद्धो का पुण्य पा लेता है, इसमेँ संशय नहीँ है।
4. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः। प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीँ पुत्रं गुणान्वितम्॥
अर्थ- जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।
5. पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी। श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा॥
अर्थ- देवि ! तुम पितरोँ के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणोँ के लिये जीवन स्वरूपिणी हो। तुम्हेँ श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैँ।
6. बहिर्गच्छ मन्मनसः पितृणां तुष्टिहेतवे। सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे॥
अर्थ- दवि ! तुम पितरोँ की तुष्टि, द्विजातियोँ की प्रीति तथा गृहस्थोँ की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकल कर बाहर आ जायो।
7. नित्या त्वं नित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते। आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव॥
अर्थ- सुव्रते! तुम नित्य हो तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल मेँ तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है।
8. स्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा। निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम्॥
अर्थ- तुम ॐ, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो॥ चारोँ वेदोँ द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपोँ का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगोँ मेँ इन छहोँ की बड़ी मान्यता है।
9. पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी। धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता॥
अर्थ- हे देवि ! तुम पहले गोलोक मेँ "स्वधा" नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान श्री कृष्ण ने अपने वक्षः स्थल पर तुम्हेँ धारण किया, इसी कारण तुम "स्वधा" नाम से जानी गयी॥
10. इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मलोके च संसदि। तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह॥
अर्थ- इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गा कर ब्रह्मा जी अपनी सभा मेँ विराजमान हो गये। इतने मेँ सहसा भगवती स्वधा उन के सामने प्रकट हो गयी॥
11. तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम्। तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः॥
अर्थ- तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरोँ के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हो कर अपने लोक को चले गये॥
12. स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः श्रृणोति समाहितः। स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत्॥
अर्थ- यह भगवती स्वधा का पुनीत सतोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोँ मेँ स्नान कर लिया और वह वेदपाठ का फल प्राप्त कर लेता है॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये
प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसण्वादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्ति तत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
स्वधा, स्वधा, स्वधा
इस प्रकार श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड मेँ ब्रह्माकृत "स्वधा स्तोत्र" सम्पूर्ण हुया॥ सर्व पितृं शान्ति शान्ति शान्ति,
(स्वधा, स्वधा, स्वधा)
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स्वाहा शब्द संस्कृत के ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘आह्वे’ धातु से बना है । ‘सु’ उपसर्ग ‘अच्छा या सुन्दर या ठीक प्रकार से’ का बोध कराने के लिए शब्द या धातु के साथ जोड़ा जाता है और ‘आह्वे’ का अर्थ बुलाना होता है । अर्थात यज्ञ करते समय उद्देश्य तथा आदर पूर्वक किसी देवता को आमंत्रित कर उचित रीति से आहुति देने लिए स्वाहा शब्द का प्रयोग किया जाता है।
शिवपुराण की कथा के अनुसार ।दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। उनमें से एक पुत्री का विवाह उन्होंने अग्नि देवता के साथ किया था। उनका नाम था स्वाहा। अग्नि अपनी पत्नी स्वाहा द्वारा ही भोजन ग्रहण करते है। इसलिये देवताओं को आहूति देने के लिए स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है।
दक्ष ने अपनी एक अन्य पुत्री स्वाधा का विवाह पितरों के साथ किया था। अत: पितर अपनी पत्नी स्वधा द्वारा ही भोजन ग्रहण करतें हैं। इसलिये पितरों को आहूति देने के लिए स्वाहा के स्थान पर स्वधा शब्द का उच्चारण किया जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार – ब्राह्मणों और क्षत्रियों के यज्ञों की हवि देवताओं तक नहीं पहुंचती थी, अत: वे सब ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा उनके साथ श्री कृष्ण की शरण में पहुंचे। कृष्ण ने उन्हें प्रकृति की पूजा करने के लिए कहा। प्रकृति की कला ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा। उन्होंने वर स्वरूप सदैव हवि प्राप्त करते रहने की इच्छा प्रकट की।
उसने देवताओं को हवि मिलने के लिए आश्वस्त किया। वह स्वयं कृष्ण की आराधिका थी। प्रकृति की उस कला से कृष्ण ने कहा कि वह अग्नि की पत्नी स्वाहा होगी। उसी के माध्यम से देवता तृप्त हो जायेंगे। अग्नि ने वहां उपस्थित होकर उसका पाणिग्रहण किया। स्वाहा के गर्भ से पावक, पवमान तथा शुचि नाम के पुत्र उत्पन्न हुये। इन तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि प्रकट हुये। वे ही पिता तथा पितामह सहित उनचास अग्नि कहलाते हैं ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण पृ. 324
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 40-41
भगवान नारायण कहते हैं– ब्रह्मन! देवी स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है। शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी ब्राह्मण स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होता– यह सर्वथा सत्य है। ‘भगवती स्वधा ब्रह्मा जी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं। पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।’ इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम शिला अथवा मंगलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये। महामुने! ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें। ब्रह्मपुत्र विज्ञानी नारद! अब स्तोत्र सुनो। यह स्तोत्र मानवों के लिए सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करने वाला है। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इसका पाठ किया था।
ब्रह्मा जी बोले- ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारणमात्र से मानव तीर्थस्नायी समझा जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय-यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं। श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का फल पा लेता है। इसमें संशय नहीं है। जो मानव ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस पवित्र नाम का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता और प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है। देवि! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूपिणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं। तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ। सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है। तुम ऊँ, नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो।
चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है। इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये। यही भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समाहित-चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया। उसको वेद पाठ का फल मिलता है।
स्वाहा ओर स्वधा अन्तर
अग्नि में जो भी आहुति दी जायेगी , चाहे किसी के लिए हो स्वाहा ही बोला जाता है
पर अग्नि के बाहर पितरों को स्वधा बोला जाता है.
स्वधा का करके आह्वान, पितरों की होती है भूख शांतः ब्रहमा की मानसपुत्री “स्वधा” की कथा
स्वधा, स्वधा, स्वधा
स्वधास्तोत्रम्” पाठ के अनुसार स्वधा,स्वधा, स्वधा, इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल प्राप्त हो जाते है
सर्व पितृं शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!
हे मेरे पितृगण !
मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा है। मैँ इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ। आप तृप्त हो जाएं। मैँ दोनो भुजायेँ आकाश की ओर उठा कर आप को नमन करता हूँ। आप को नमस्कार है।
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं स्वधास्तोत्रम् पाठ (श्राद्ध, काल और पितरो के निमित्त तर्पण फल प्राप्ति हेतु पाठ)
ब्रह्मोवाच
1. स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः। मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्॥
अर्थ- ब्रह्माजी बोले स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापोँ से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकरी हो जाता है॥
2. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत्। श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च॥
अर्थ – स्वधा,स्वधा,स्वधा, - इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के पुरुष को प्राप्त हो जाते हैँ
3. श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः। लभेच्छाद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः॥
अर्थ-श्राद्धके अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है,वह सौ श्राद्धो का पुण्य पा लेता है, इसमेँ संशय नहीँ है।
4. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः। प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीँ पुत्रं गुणान्वितम्॥
अर्थ- जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।
5. पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी। श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा॥
अर्थ- देवि ! तुम पितरोँ के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणोँ के लिये जीवन स्वरूपिणी हो। तुम्हेँ श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैँ।
6. बहिर्गच्छ मन्मनसः पितृणां तुष्टिहेतवे। सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे॥
अर्थ- दवि ! तुम पितरोँ की तुष्टि, द्विजातियोँ की प्रीति तथा गृहस्थोँ की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकल कर बाहर आ जायो।
7. नित्या त्वं नित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते। आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव॥
अर्थ- सुव्रते! तुम नित्य हो तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल मेँ तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है।
8. स्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा। निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम्॥
अर्थ- तुम ॐ, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो॥ चारोँ वेदोँ द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपोँ का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगोँ मेँ इन छहोँ की बड़ी मान्यता है।
9. पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी। धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता॥
अर्थ- हे देवि ! तुम पहले गोलोक मेँ "स्वधा" नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान श्री कृष्ण ने अपने वक्षः स्थल पर तुम्हेँ धारण किया, इसी कारण तुम "स्वधा" नाम से जानी गयी॥
10. इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मलोके च संसदि। तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह॥
अर्थ- इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गा कर ब्रह्मा जी अपनी सभा मेँ विराजमान हो गये। इतने मेँ सहसा भगवती स्वधा उन के सामने प्रकट हो गयी॥
11. तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम्। तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः॥
अर्थ- तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरोँ के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हो कर अपने लोक को चले गये॥
12. स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः श्रृणोति समाहितः। स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत्॥
अर्थ- यह भगवती स्वधा का पुनीत सतोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोँ मेँ स्नान कर लिया और वह वेदपाठ का फल प्राप्त कर लेता है॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये
प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसण्वादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्ति तत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
स्वधा, स्वधा, स्वधा
इस प्रकार श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड मेँ ब्रह्माकृत "स्वधा स्तोत्र" सम्पूर्ण हुया॥ सर्व पितृं शान्ति शान्ति शान्ति,
(स्वधा, स्वधा, स्वधा)
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