Saturday, 25 October 2014

भैया दूज या यम द्वीतिया

भैया दूज या यम द्वीतिया
भैया दूज के साथ ही होती है चित्रगुप्त पूजा
दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज मनाया जाता है। इस दिन यमराज की बहन यमुनाजी ने अपने उन्हें तिलक करके भोजन कराया था इसलिए इस दिन को यम द्वीतिया भी कहा जाता है। इस दिन बहनें भाई के मस्तक पर टीका लगाकर उसकी लंबी उम्र की मनोकामना करती है। माना जाता है इस दिन भाई के मस्तक पर टीका लगाने झसे भाई यमराज के कष्ट से बच जाता है। कहा जाता है इस दिन भाई अपनी बहन को यमुना स्नान कराएं। इसके बाद भाई को बहन तिलक करें और भोजन कराये। जो भाई और बहन यम द्वीतिया के दिन इस प्रकार दूज पूजन के बाद तिलक की रस्म पूरी करने के बाद भोजन करते हैं वे यम भय से मुक्त जो जाते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है।
भैया दूज की एक पौराणिक कथा है।

भगवान सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा की दो संतानें थीं। उनमें पुत्र का नाम यमराज और पुत्री का नाम यमुना था। संज्ञा अपने पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को सहन नहीं कर सकने के कारण अपनी ही प्रतिकृति छाया बनाकर तपस्या करने चली गयीं|तथा छाया सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा बनकर रहने लगी। इसी से ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ। इसी छाया से सदा युवा रहने वाले अश्विनी कुमारों का भी जन्म हुआ है, जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं ।छाया का यम तथा यमुना के साथ व्यवहार में अंतर आ गया। इससे व्यथित होकर यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसाई। यमुना अपने भाई यम को यमपुरी में पापियों को दंड देते देख दु:खी होती, इसलिए वह गोलोक चली गई।
समय व्यतीत होता रहा। तब काफी सालों के बाद अचानक एक दिन यम को अपनी बहन यमुना की याद आई। यम ने अपने दूतों को यमुना का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। फिर यम स्वयं गोलोक गए जहां यमुनाजी की उनसे भेंट हुई। इतने दिनों बाद यमुना अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई।

यमुना अपने भाई यमराज से बड़ा स्नेह करती हैं। वह उनसे बराबर निवेदन करतीं कि वह उनके घर आकर भोजन करें, लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात टाल जाते थे। कार्तिक शुक्ल द्वीतिया को यमुना ने अपने भाई यमराज को भोजन करने के लिए बुलाया। बहन के घर जाते समय यमराज ने नरक में निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।भाई को देखते ही यमुना ने हर्षविभोर होकर भाई का स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। इससे भाई यम ने प्रसन्न होकर बहन से वरदान मांगने के लिए कहा। तब यमुना ने वर मांगा कि- 'हे भैया, मैं चाहती हूं कि जो भी मेरे जल में स्नान करे, वह यमपुरी नहीं जाए।'

यह सुनकर यम चिंतित हो उठे और मन-ही-मन विचार करने लगे कि ऐसे वरदान से तो यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। भाई को चिंतित देख, बहन बोली- भैया आप चिंता न करें, मुझे यह वरदान दें कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाये, उसे आपका भय न रहे। जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करें तथा मथुरा नगरी स्थित विश्रामघाट पर स्नान करें, वे यमपुरी नहीं जाएं। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को वरदान दे दिया तथा यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी चले गये। ।

बहन-भाई मिलन के इस पर्व को अब भाई-दूज के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इस दिन बहन दूज बनाकर भाई को हल्दी, अक्षत रोली का तिलक करे। तिलक करने के बाद भाई को फल, मिठाई खाने के लिए दे। भाई भी अक्षत रोली का तिलक करे। भाई भी बहन को स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण तथा द्रव्य देकर प्रसन्न करे। बहन के चरण स्पर्श कर आशीष ले। बहन चाहे छोटी या आयु में बड़ी हो उसके चरण स्पर्श अवश्य करें। भैया दूज के ही दिन चित्रगुप्त पूजा भी होती है। भगवान चित्रगुप्त स्वर्ग और नरक लोक का लेखा-जोखा रखते हैं। इस पूजा को कलम दवात पूजा भी कहा जाता है। चित्रवंशियों के लिये यह पूजा अति महत्वपूर्ण होती है। इस दिन लगभग सभी चित्रवंशी अपनी कलम की पूजा करते हैं
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

Photo: भैया दूज या यम द्वीतिया
भैया दूज के साथ ही होती है चित्रगुप्त पूजा
दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज मनाया जाता है। इस दिन यमराज की बहन यमुनाजी ने अपने उन्हें तिलक करके भोजन कराया था इसलिए इस दिन को यम द्वीतिया भी कहा जाता है। इस दिन बहनें भाई के मस्तक पर टीका लगाकर उसकी लंबी उम्र की मनोकामना करती है। माना जाता है इस दिन भाई के मस्तक पर टीका लगाने झसे भाई यमराज के कष्ट से बच जाता है। कहा जाता है इस दिन भाई अपनी बहन को यमुना स्नान कराएं। इसके बाद भाई को बहन तिलक करें और भोजन कराये। जो भाई और बहन यम द्वीतिया के दिन इस प्रकार दूज पूजन के बाद तिलक की रस्म पूरी करने के बाद भोजन करते हैं वे यम भय से मुक्त जो जाते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है। 
भैया दूज की एक पौराणिक कथा है।

भगवान सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा की दो संतानें थीं। उनमें पुत्र का नाम यमराज और पुत्री का नाम यमुना था। संज्ञा अपने पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को सहन नहीं कर सकने के कारण अपनी ही प्रतिकृति छाया बनाकर तपस्या करने चली गयीं|तथा छाया सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा बनकर रहने लगी। इसी से ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ। इसी छाया से सदा युवा रहने वाले अश्विनी कुमारों का भी जन्म हुआ है, जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं ।छाया का यम तथा यमुना के साथ व्यवहार में अंतर आ गया। इससे व्यथित होकर यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसाई। यमुना अपने भाई यम को यमपुरी में पापियों को दंड देते देख दु:खी होती, इसलिए वह गोलोक चली गई। 
समय व्यतीत होता रहा। तब काफी सालों के बाद अचानक एक दिन यम को अपनी बहन यमुना की याद आई। यम ने अपने दूतों को यमुना का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। फिर यम स्वयं गोलोक गए जहां यमुनाजी की उनसे भेंट हुई। इतने दिनों बाद यमुना अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई।

यमुना अपने भाई यमराज से बड़ा स्नेह करती हैं। वह उनसे बराबर निवेदन करतीं कि वह उनके घर आकर भोजन करें, लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात टाल जाते थे। कार्तिक शुक्ल द्वीतिया को यमुना ने अपने भाई यमराज को भोजन करने के लिए बुलाया। बहन के घर जाते समय यमराज ने नरक में निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।भाई को देखते ही यमुना ने हर्षविभोर होकर भाई का स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। इससे भाई यम ने प्रसन्न होकर बहन से वरदान मांगने के लिए कहा। तब यमुना ने वर मांगा कि- 'हे भैया, मैं चाहती हूं कि जो भी मेरे जल में स्नान करे, वह यमपुरी नहीं जाए।' 

यह सुनकर यम चिंतित हो उठे और मन-ही-मन विचार करने लगे कि ऐसे वरदान से तो यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। भाई को चिंतित देख, बहन बोली- भैया आप चिंता न करें, मुझे यह वरदान दें कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाये, उसे आपका भय न रहे। जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करें तथा मथुरा नगरी स्थित विश्रामघाट पर स्नान करें, वे यमपुरी नहीं जाएं। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को वरदान दे दिया तथा यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी चले गये। । 

बहन-भाई मिलन के इस पर्व को अब भाई-दूज के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इस दिन बहन दूज बनाकर भाई को हल्दी, अक्षत रोली का तिलक करे। तिलक करने के बाद भाई को फल, मिठाई खाने के लिए दे। भाई भी अक्षत रोली का तिलक करे। भाई भी बहन को स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण तथा द्रव्य देकर प्रसन्न करे। बहन के चरण स्पर्श कर आशीष ले। बहन चाहे छोटी या आयु में बड़ी हो उसके चरण स्पर्श अवश्य करें। भैया दूज के ही दिन चित्रगुप्त पूजा भी होती है। भगवान चित्रगुप्त स्वर्ग और नरक लोक का लेखा-जोखा रखते हैं। इस पूजा को कलम दवात पूजा भी कहा जाता है। चित्रवंशियों के लिये यह पूजा अति महत्वपूर्ण होती है। इस दिन लगभग सभी चित्रवंशी अपनी कलम की पूजा करते हैं

Wednesday, 22 October 2014

रूप चौदस,,दीपावली को एक दिन का पर्व


रूप चौदस,,दीपावली को एक दिन का पर्व  दीपावली पर्व के ठीक एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी को छोटी दीवाली, रूप चौदस और काली चतुर्दशी भी कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।

इसी दिन शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। इस पर्व का जो महत्व है उस दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण त्योहार है। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्योहार है।

दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात को।
इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दांत असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजाई जाती है।

इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक दूसरी कथा यह है कि रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए।
यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है।

यह सुनकर यमदूत ने कहा कि हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक बार एक ब्राह्मण भूखा लौट गया था,यह उसी पापकर्म का फल है। इसके बाद राजा ने यमदूत से एक वर्ष समय मांगा। तब यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचे और उन्हें अपनी सारी कहानी सुनाकर उनसे इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय पूछा।

तब ऋषि ने उन्हें बताया कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है।

इस दिन के महत्व के बारे में कहा जाता है कि इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने करके विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना करना चाहिए। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।

कई घरों में इस दिन रात को घर का सबसे बुजुर्ग सदस्य एक दिया जला कर पूरे घर में घुमाता है और फिर उसे ले कर घर से बाहर कहीं दूर रख कर आता है। घर के अन्य सदस्य अंदर रहते हैं और इस दिए को नहीं देखते। यह दीया यम का दीया कहलाता है। माना जाता है कि पूरे घर में इसे घुमा कर बाहर ले जाने से सभी बुराइयां और कथित बुरी शक्तियां घर से बाहर चली जाती हैं।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

Photo: रूप चौदस,,दीपावली को एक दिन का पर्व कहना न्योचित नहीं होगा। दीपावली पर्व के ठीक एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी को छोटी दीवाली, रूप चौदस और काली चतुर्दशी भी कहा जाता है। मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। 

इसी दिन शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। इस पर्व का जो महत्व है उस दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण त्योहार है। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्योहार है। 

दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात को।
इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दांत असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजाई जाती है। 

इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक दूसरी कथा यह है कि रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए। 
यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है।

यह सुनकर यमदूत ने कहा कि हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक बार एक ब्राह्मण भूखा लौट गया था,यह उसी पापकर्म का फल है। इसके बाद राजा ने यमदूत से एक वर्ष समय मांगा। तब यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचे और उन्हें अपनी सारी कहानी सुनाकर उनसे इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय पूछा। 

तब ऋषि ने उन्हें बताया कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है।

इस दिन के महत्व के बारे में कहा जाता है कि इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने करके विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना करना चाहिए। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।

कई घरों में इस दिन रात को घर का सबसे बुजुर्ग सदस्य एक दिया जला कर पूरे घर में घुमाता है और फिर उसे ले कर घर से बाहर कहीं दूर रख कर आता है। घर के अन्य सदस्य अंदर रहते हैं और इस दिए को नहीं देखते। यह दीया यम का दीया कहलाता है। माना जाता है कि पूरे घर में इसे घुमा कर बाहर ले जाने से सभी बुराइयां और कथित बुरी शक्तियां घर से बाहर चली जाती हैं।

पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय

पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय
. दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं
मखाना का भोग

लक्ष्मी मैया को मखाना प्रिय है। इसका कारण यह है कि लक्ष्मी माता जल से प्रकट हुई हैं। मखाना भी जल में पलता बढ़ता है, यानि जल से जन्म लेता है। सागर को मथने के बाद जैसे लक्ष्मी उत्पन्न हुई थीं उसी प्रकार मखाना भी जल में एक कठोर आवरण में ढ़का रहता है।

पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है
मखाने की तरह जल सिंघारा भी पानी के अंदर फलता है। अक्टूबर नवंबर में दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। इस दौरान यह बाजार में खूब मिलता है। जल से उत्पन्न होने के कारण यह भी लक्ष्मी मैया को बहुत पसंद है। शास्त्रों में कहा गया है कि देवी-देवताओं को मौसमी फल प्रिय होता है। इसलिए जिस मौसम में जिस देवी देवता की पूजा हो।

उस मौसम का फल देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए। दीपावली के मौसम में जल सिंघरा मौसमी फल होता है इसलिए भी यह देवी लक्ष्मी का प्रिय है।
पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है

श्रीफल दे उत्तम फल
शास्त्रों में नारियल को श्रीफल कहा गया है। देवी लक्ष्मी का एक नाम 'श्री' भी है। लक्ष्मी माता का प्रिय फल होने के कारण ही नारियल को श्रीफल कहा गया है। मखाने की तरह यह भी कठोर आवरण से ढंका रहता है। जिससे यह शुद्ध और पवित्र रहता है। लक्ष्मी मैया को नारियल का लड्डू, कच्चा नारियल एवं जल से भरा नारियल अर्पित करने वाले पर माता प्रसन्न होती हैं।
पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है
बताशे से करें लक्ष्मी मां का मुंह मीठा
जिस प्रकार गणेश जी को मोदक प्रिय है उसी प्रकार लक्ष्मी माता को बताशे पसंद है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार मखाना, जल सिंघार और बताशे ये तीनों ही चन्द्रमा से संबंधित वस्तुएं हैं। चन्द्रमा जल का कारक है।

चन्द्रमा को देवी लक्ष्मी का भाई भी माना जाता है। चन्द्र से संबंध होने के कारण बताशे माता को प्रिय हैं। यही कारण है कि दीपावली में बताशे लक्ष्मी माता को अर्पित किए जाते हैं।
पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है
पान की लाली मां को भाये

दुर्गा सप्तशती में के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध की कथा है। महिषासुर से युद्ध करते हुए देवी थक जाती हैं। थकान दूर करने के लिए माता मधु से भरा पान खाती हैं। इसके बाद माता कहती हैं कि महिषासुर क्षण भर गरज ले, अभी युद्ध में मैं तुम्हारा वध करुंगी। इतना कहते ही माता महिषासुर पर आक्रमण कर देती है और महिषासुर शीघ्र ही माता के हाथों मारा जाता है।

महिषासुर का वध करने वाली देवी महालक्ष्मी को माना जाता है। माता को पान बहुत पसंद है। मधु यानी शहद से भरा पान खाने के बाद जब होंठों पर पान की लाली आ जाती है तो इसे देखकर देवी आनंदित होती है। इसलिए पूजा के बाद सबसे अंत में देवी को पान अवश्य भेंट करना चाहिए।
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
Photo: पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय 
. दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं
मखाना का भोग

लक्ष्मी मैया को मखाना प्रिय है। इसका कारण यह है कि लक्ष्मी माता जल से प्रकट हुई हैं। मखाना भी जल में पलता बढ़ता है, यानि जल से जन्म लेता है। सागर को मथने के बाद जैसे लक्ष्मी उत्पन्न हुई थीं उसी प्रकार मखाना भी जल में एक कठोर आवरण में ढ़का रहता है।

पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है
मखाने की तरह जल सिंघारा भी पानी के अंदर फलता है। अक्टूबर नवंबर में दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। इस दौरान यह बाजार में खूब मिलता है। जल से उत्पन्न होने के कारण यह भी लक्ष्मी मैया को बहुत पसंद है। शास्त्रों में कहा गया है कि देवी-देवताओं को मौसमी फल प्रिय होता है। इसलिए जिस मौसम में जिस देवी देवता की पूजा हो।

उस मौसम का फल देवी-देवताओं को अर्पित करना चाहिए। दीपावली के मौसम में जल सिंघरा मौसमी फल होता है इसलिए भी यह देवी लक्ष्मी का प्रिय है।
पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है

श्रीफल दे उत्तम फल
शास्त्रों में नारियल को श्रीफल कहा गया है। देवी लक्ष्मी का एक नाम 'श्री' भी है। लक्ष्मी माता का प्रिय फल होने के कारण ही नारियल को श्रीफल कहा गया है। मखाने की तरह यह भी कठोर आवरण से ढंका रहता है। जिससे यह शुद्ध और पवित्र रहता है। लक्ष्मी मैया को नारियल का लड्डू, कच्चा नारियल एवं जल से भरा नारियल अर्पित करने वाले पर माता प्रसन्न होती हैं।
पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है
बताशे से करें लक्ष्मी मां का मुंह मीठा
जिस प्रकार गणेश जी को मोदक प्रिय है उसी प्रकार लक्ष्मी माता को बताशे पसंद है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार मखाना, जल सिंघार और बताशे ये तीनों ही चन्द्रमा से संबंधित वस्तुएं हैं। चन्द्रमा जल का कारक है।

चन्द्रमा को देवी लक्ष्मी का भाई भी माना जाता है। चन्द्र से संबंध होने के कारण बताशे माता को प्रिय हैं। यही कारण है कि दीपावली में बताशे लक्ष्मी माता को अर्पित किए जाते हैं।
पांच प्रसाद जो लक्ष्मी माता को सबसे अधिक प्रिय है
पान की लाली मां को भाये

दुर्गा सप्तशती में के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध की कथा है। महिषासुर से युद्ध करते हुए देवी थक जाती हैं। थकान दूर करने के लिए माता मधु से भरा पान खाती हैं। इसके बाद माता कहती हैं कि महिषासुर क्षण भर गरज ले, अभी युद्ध में मैं तुम्हारा वध करुंगी। इतना कहते ही माता महिषासुर पर आक्रमण कर देती है और महिषासुर शीघ्र ही माता के हाथों मारा जाता है।

महिषासुर का वध करने वाली देवी महालक्ष्मी को माना जाता है। माता को पान बहुत पसंद है। मधु यानी शहद से भरा पान खाने के बाद जब होंठों पर पान की लाली आ जाती है तो इसे देखकर देवी आनंदित होती है। इसलिए पूजा के बाद सबसे अंत में देवी को पान अवश्य भेंट करना चाहिए।

दीपावली और लक्ष्मी पूजन मुहूर्त 23 अक्तूबर, 2014 गुरुवार Diwali Lakshmi Puja Shubh Muhurat October 23, 2014 Thursday

दीपावली और लक्ष्मी पूजन मुहूर्त 23 अक्तूबर, 2014 गुरुवार
 दिवाली का त्यौहार कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या को बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है. रावण से दस दिन के युद्ध के बाद श्रीराम जी जब अयोध्या वापिस आते हैं तब उस दिन कार्तिक माह की अमावस्या थी, उस दिन घर-घर में दिए जलाए गए थे तब से इस त्योहार को दीवाली के रुप में मनाया जाने लगा और समय के साथ और भी बहुत सी बातें इस त्यौहार के साथ जुड़ती चली गई.
दीपावली का प्रमुख पर्व लक्ष्मी पूजन होता है। इस दिन रात्रि को जागरण करके धन की देवी लक्ष्मी माता का पूजन विधिपूर्वक करना चाहिए एवं घर के प्रत्येक स्थान को स्वच्छ करके वहां दीपक लगाना चाहिए जिससे घर में लक्ष्मी का वास एवं दरिद्रता का नाश होता है।
लक्ष्मी अर्थात धन की देवी महालक्ष्मी विष्णु पत्नी का पूजन कार्तिक अमावस्या को सारे भारत के सभी वर्गों में समान रूप से पूजा जाता है। इस बार दीपावली को अमावस्या क्षय तिथि में मनाई जाएगी।
जानिए की कैसे करें लक्ष्मी-पूजन
सर्व प्रथम लक्ष्मीजी के पूजन में स्फटिक का श्रीयंत्र ईशान कोण में बनी वेदी पर लाल रंग के कपडे़ पर विराजित करें साथ ही लक्ष्मीजी की सुंदर प्रतिमा रखें।

इसके बाद चावल-गेहूं की नौ-नौ ढेरी बनाकर नवग्रहों का सामान बिछाकर शुद्ध घी का दीप प्रज्ज्वलित कर धूप बत्ती जलाकर सुगंधित इत्रादि से चर्चित कर गंध पुष्पादि नैवद्य चढा़कर इस मंत्र को बोले – गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः गुरुर साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

इस मंत्र पश्चात इस मंत्र का जाप करें- ब्रह्‌मा मुरारि-त्रिपुरांतकारी भानु शशि भूमि सुता बुधश्च। गुरुश्च, शुक्र, शनि राहु, केतवे सर्वे ग्रह शांति करा भवंतु।

इसके बाद आसन के नीचे कुछ मुद्रा रखकर ऊपर सुखासन में बैठकर सिर पर रूमाल या टोपी रखकर, शुद्ध चित्त मन से निम्न में से एक मंत्र चुनकर जितना हो सके उतना जाप करना चाहिए।

ॐ श्री ह्रीं कमले कमलालये। प्रसीद् प्रसीद् श्री ह्रीं श्री महालक्ष्म्यै नम:।”
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हं सोः जगत प्रसूत्ये नमः”

शास्त्रों में कहा गया है कि इन मंत्रों के श्रद्धापूर्वक जाप से व्यक्ति आर्थिक व भौतिक क्षेत्र में उच्चतम शिखर पर पहुंचने में समर्थ हो सकता है। दरिद्रता-निवारण, व्यापार उन्नति तथा आर्थिक उन्नति के लिए इस मंत्र का प्रयोग श्रेष्ठ माना गया है।

गायत्री लक्ष्मी मंत्र,,,,ॐ श्री विष्णवे च विदमहे वासुदेवाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात्‌।,,,,सिद्ध मंत्र- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्धलक्ष्म्यै नमः।

लक्ष्मी मंत्रों का जाप स्फटिक की माला से करना उत्तम फलदायी रहता है।
कमलगट्टे की माला भी श्रेष्ठ मानी गई है।

आपकी जानकारी के लिए प्रस्तु‍त है दीपावली पूजन के लिएशुभ मंगलकारी मुहूर्त।
इन मुहूर्त में पूजन करने से महालक्ष्मी की असीम कृपा प्राप्त होती है और जीवन ऐश्वर्यशाली होता है।

इस वर्ष 23 अक्तूबर, 2014 (गुरुवार )के दिन यह त्योहार मनाया जाएगा. इस दिन बृहस्पतिवार का दिन होगा, चित्रा नक्षत्र और विष्कुंभ योग होगा.

पूजन सामग्री
मा लक्ष्मी व गणेश की प्रतिमा, माला, वस्त्र, प्रसाद, अक्षत, चंदन, सुपारी, पान, मौली, घी, कपूर, लौंग, इलायची, दीप, धूप आदि।
ऐसे करें महालक्ष्मी पूजन

महालक्ष्मी पूजन कैसे हो इसके लिए ऋग्वेद के श्रीसूक्त में विधान किया गया है। बीज मंत्र है ॐ स्त्रीं ह्रीं श्री कमले कमलालयी प्रसीदा-प्रसीदा महालक्ष्मी नमो नम:। मुख्यत: कमलगट्टा, धूप, दीप, नैवेद्य, ऋतुफल, खील-बताशे, पकवान, सुपारी, पान के पत्ते को महालक्ष्मी को अर्पित किया जाता है। साथ ही पानी वाला नारियल चढ़ाया जाता है।

दीवाली पूजा का मुहूर्त

  • दीवाली के दिन लक्ष्मी का पूजा का विशेष महत्व माना गया है, इसलिए यदि इस दिन शुभ मुहूर्त में पूजा की जाए तब लक्ष्मी व्यक्ति के पास ही निवास करती है. “ब्रह्मपुराण” के अनुसार आधी रात तक रहने वाली अमावस्या तिथि ही महालक्ष्मी पूजन के लिए श्रेष्ठ होती है. यदि अमावस्या आधी रात तक नहीं होती है तब प्रदोष व्यापिनी तिथि लेनी चाहिए. लक्ष्मी पूजा व दीप दानादि के लिए प्रदोषकाल ही विशेष शुभ माने गए हैं.

2014 के दीवाली पूजन के स्थिर लग्न मुहूर्त
कुंभ लग्न की अवधि मध्याह्न 02.40 से अपराह्न 15.56 तक
वृषभ लग्न की अवधि  शाम को अपराह्न 19.15 से लेकर रात्रि 21.10 तक
सिंह लग्न की अवधि  रात्रि 01.18 से लेकर 03.38 तक
वृश्चिक लग्न–प्रातः 08 :40 से लेकर 10 :50 तक
चोघडिया मुहूर्त
अमृत  शाम को 06 :00 PM से 19:30 तक
शुभ – दोपहर 04:30 PM से 06:00 PM तक
लाभ— रात्रि 11 बजकर 40 मिनट से से मध्यरात्रि 01:20 AM तक

दीवाली पूजा गोधुलि बेला मुहूर्त 2014
गोधुलि बेला के लिए शुभ मुहूर्त23 अक्टूबर 2014, गुरूवार के दिन. इस दिन 18:05 से 20:37 के बीच प्रदोष काल भगवान गणेश, देवी लक्ष्मी, कुबेर पूजा, व्यवसाय की पूजा और कार्यकर्ताओं को दान देने के लिए शुभ है.यह इस मुहूर्त भी मिठाई, कपड़े और उपहार की सेवा के लिए शुभ है. यह भी बड़ों और उपहार देने और रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए सम्मान का आशीर्वाद लेने के लिए अच्छा है.आप इस शुभ मुहूर्त के दौरान आध्यात्मिक स्थानों या मंदिरों में दान करते हैं, तो यह आप के लिए अनुकूल हो जाएगा.

दीवाली पूजा मुहूर्त प्रदोष काल
23 अक्टूबर 2014, गुरूवार के दिन   इस अवधि से लेकर 18:20 to 19:35 तक प्रदोष काल रहेगा. इसे प्रदोष काल का समय कहा जाता है. प्रदोष काल समय को दिपावली पूजन के लिये शुभ मुहूर्त के रुप में प्रयोग किया जाता है. प्रदोष काल में भी स्थिर लग्न समय सबसे उतम रहता है. इस दिन प्रदोष काल व स्थिर लग्न दोनों तथा इसके साथ शुभ चौघडिया भी रहने से मुहुर्त की शुभता में वृद्धि हो रही है.

दीवाली पूजा मुहूर्त – निशीथ काल
निशिथ काल में स्थानीय प्रदेश समय के अनुसार इस समय में कुछ मिनट का अन्तर हो सकता है. निशिथ काल में लाभ की चौघडिया भी रहेगी, ऎसे में व्यापारियों वर्ग के लिये लक्ष्मी पूजन के लिये इस समय की विशेष शुभता रहेगी. इस अवधि में श्रीसूक्त, कनकधारा स्तोत्र एवं लक्ष्मी स्तोत्र आदि मंत्रों का जाप व अनुष्ठान करना चाहिए..

यह पूजा और ब्राह्मणों के लिए देवी लक्ष्मी, सभी नौ ग्रहों, मंत्र सुनाना और स्तोत्र, अनुष्ठान, दान कपड़े, फल, अनाज और पैसे पूजा के लिए शुभ है. निशीथ काल के मुहूर्त 12:34 बजे शुरू होगा और पूरे भारत के लिए 1:26 बजे तक है.

दीवाली पूजन मुहूर्त लिए महानिशीथ काल
धन लक्ष्मी का आहवाहन एवं पूजन, गल्ले की पूजा तथा हवन इत्यादि कार्य सम्पूर्ण कर लेना चाहिए. इसके अतिरिक्त समय का प्रयोग श्री महालक्ष्मी पूजन, महाकाली पूजन, लेखनी, कुबेर पूजन, अन्य मंन्त्रों का जपानुष्ठान करना चाहिए.महानिशीथ काल काल कर्क लग्न के लिए बहुत ही शुभ है. दीपावली महानिशीथ काल काल की रात के दौरान (कर्क लग्न) 22:49 से 1:21 के बीच पूरे भारत के लिए शुभ है.
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
23 अक्टूबर,(गुरूवार) 2014 के रात्रि में 12:30 से 01:21 मिनट तक महानिशीथ काल रहेगा. महानिशीथ काल में पूजा समय स्थिर लग्न या चर लग्न में कर्क लग्न भी हों, तो विशेष शुभ माना जाता है. महानिशीथ काल व कर्क लग्न एक साथ होने के कारण यह समय अधिक शुभ हो गया है. जो जन शास्त्रों के अनुसार दिपावली पूजन करना चाहते हो, उन्हें इस समयावधि को पूजा के लिये प्रयोग करना चाहिए.

Photo: धनतेरस का कर्मकांड यह है कि इस दिन घर के पिछले दरवाजे पर कूड़े के ढेर पर दिया जलाया जाता है। स्वाभाविक है कि यह कूड़े का ढेर घर में की गई सफाई के कारण बनता है। इस दीप को बोलचाल की भाषा में जम दीया भी कहा जाता है। अभिप्राय यह हुआ कि गंदगी गई तो रोग गए , रोग गए तो यम अर्थात मृत्यु भी गई। और सुखी काया का धन मिला।
घर में स्वर्ण आभूषण सुख समृद्धि को दर्शाते है ! इसलिए इस दिन नया स्वर्ण व चांदी खरीदना या जो घर में है रखा है उसको बहार निकाल कर उसकी पूजा करना शुभ माना जाता है इस दिन घर की साफ़ सफाई का अर्थ है कि घर में बीमारी पैदा न हो और व्यक्ति स्वस्थ रहे ! जहाँ वो रहता है उस घर की सफाई के अलावा अपने शरीर, मन,विचारों व कर्मों की सफाई करे

Friday, 17 October 2014

कुबेर साधना रहस्य


कुबेर साधना रहस्य ,,,एक वार महा ऋषि पुलस्य के सिर पे बहुत बड़ी विपता आ पढ़ी और उन को उस समय में दरिद्रता का सहमना करना पड़ा जिस के चलते उस राज्य की प्रजा काल और सूखे की चपेट में या गई और धन न होने की वजह से चारो तरफ लोग भूख और गरीबी से बेहाल हो उठे तब महा ऋषि पुलस्य ने इस से उबरने के लिए कुबेर की सहायता लेनी चाही क्यू के वोह जानते थे के कुबेर के बिना धन नहीं आ सकता मगर दैवी नियमो के चलते कुबेर सीधे धन नहीं दे सकते थे !इस लिए महा ऋषि पुलस्य ने गणपती भगवान की साधना की तो गणपती ब्पा ने कुबेर को हुकम दिया के महा ऋषि की सहायता करे तो कुबेर ने कहा के अगर आप कुबेर यंत्र का स्थापन कर मेरे नो रूप में से किसी की भी साधना करेगे तो धन की बरसात होने लगेगी इस लिए महा ऋषि ने गणपती भगवान से प्रार्थना की और गणपती भगवान ने उन्हे कुबेर के 9 दिव्य रूप के मंत्र दिये महा ऋषि ने कुबेर यंत्र स्थापन कर कुबेर के 9 दिव्य रूप की साधना संपन की और परजा को दरिद्रता से उबारा साधना संपन होने से धन की बरसात होने लगी और चारो तरफ खुशहाली फ़ेल गई !इन 9 दिव्य रूपो की साधना आज भी हमारे शास्त्रो में है और जो एक वार इन साधनयों को कर लेता है उस के जीवन में कोई अभाव नहीं रहता
क्या है यह कुबेर के 9 रूप -
1 – उग्र कुबेर — यह कुबेर धन तो देते ही है साथ में आपके सभी प्रकार के शत्रुओ का भी हनन कर देते है !
2-पुष्प कुबेर –यह धन प्रेम विवाह ,प्रेम में सफलता ,मनो वर प्राप्ति ,स्न्मोहन प्राप्ति ,और सभी प्रकार के दुख से निवृति के लिए की जाती है !
3-चंद्र कुबेर — इन की साधना धन एवं पुत्र प्राप्ति के लिए की जाती है ,योग्य संतान के लिए चंदर कुबेर की साधना करे !
4-पीत कुबेर — धन और वाहन सुख संपति आदि की प्राप्ति के लिए पीत कुबेर की साधना की जाती है !इस साधना से मनो वाशित वाहन और संपति की प्राप्ति होती है !
5- हंस कुबेर — अज्ञात आने वाले दुख और मुकदमो में विजय प्राप्ति के लिए हंस कुबेर की साधना की जाती है !
6- राग कुबेर — भोतिक और अधियात्मक हर प्रकार की विधा संगीत ललित कलाँ और राग नृत्य आदि में न्पुनता और सभी प्रकार की परीक्षा में सफलता के लिए राग कुबेर की साधना फलदायी सिद्ध होती है !
7-अमृत कुबेर — हर प्रकार के स्वस्थ लाभ रोग मुक्ति ,धन और जीवन में सभी प्रकार के रोग और दुखो के छुटकारे के लिए अमृत कुबेर की साधना दिव्य और फलदायी है !
8-प्राण कुबेर — धन है पर कर्ज से मुक्ति नहीं मिल रही वेयर्थ में धन खर्च हो रहा हो तो प्राण कुबेर हर प्रकार के ऋण से मुक्ति दिलाने में सक्षम है !इन की साधना साधक को सभी प्रकार के ऋण से मुक्ति देती है !
9- धन कुबेर — सभी प्रकार की कुबेर साधनयों में सर्व श्रेष्ठ है जीवन में हम जो भी कर्म करे उनके फल की प्राप्ति और धन आदि की प्राप्ति के लिए और मनोकामना की पूर्ति हेतु और भाग्य अगर साथ न दे रहा हो तो धन कुबेर की साधना सर्व श्रेष्ठ कही गई है !

नमस्तुभ्यम् महा मन्त्रम् दायिने शिव रुपिणे, ब्रह्म ज्ञान प्रकाशाय संसार दु:ख तारिणे ।
अती सौम्याय विध्याय वीराया ज्ञान हारिने, नमस्ते कुल नाथाय कुल कौलिन्य दायिने ।।
शिव तत्व प्रकाशाय ब्रह्म तत्व प्रकाशइने, नमस्ते गुरुवे तुभ्यम् साधकाभय दायिने ।
अनाचाराचार भाव बोधाय भाव हेतवे, भावाभाव विनिर्मुक्त मुक्ती दात्रे नमो नम: ।।
नमस्ते सम्भवे तुभ्यम् दिव्य भाव प्रकाशइने, ज्ञानआनन्द स्वरूपाय विभ्वाय नमो नम: ।
शिवाय शक्ति नाथाय सच्चीदानन्द रुपिणे, कामरूप कामाय कामकेलीकलात्मने ।।
कुल पूजोपदेशाय कुलाचारस्वरुपिने, आरक्थ नीजतत्शक्ति वाम भाग विभूतये ।
नमस्तेतु महेशाय नमस्तेतु नमो नम:, यह एदम पठत् स्तोत्रम सधाको गुरु दिङ मुख
प्रातरुथाय देवेशी ततोविध्या प्रशिदति, कुल सम्भव पूजा मादौ योन: पठेएदम ।
विफला तश्य पूजाश्यात विचारआय कल्प्यते, एती श्री कुब्जिका तन्त्रे गुरु स्तोत्रम साम्पूर्णम ।।
महाराज वैश्रवण कुबेर की उपासना से संबंधित मंत्र, यंत्र, ध्यान एवं उपासना आदि की सारी प्रक्रियाएं श्रीविद्यार्णव, मन्त्रमहार्णव, मन्त्रमहोदधि, श्रीतत्वनिधि तथा विष्णुधर्मोत्तरादि पुराणों में निर्दिष्ट हैं। तदनुसार इनके अष्टाक्षर, षोडशाक्षर तथा पंचत्रिंशदक्षरात्मक छोटे−बड़े अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं। मंत्रों के अलग−अलग ध्यान भी निर्दिष्ट हैं। इनके एक मुख्य ध्यान−श्लोक में इन्हें मनुष्यों के द्वारा पालकी पर अथवा श्रेष्ठ पुष्पक विमान पर विराजित दिखाया गया है। इनका वर्ण गारुडमणि या गरुणरत्न के समान दीप्तिमान पीतवर्णयुक्त बताया गया है और समस्त निधियां इनके साथ मूर्तिमान होकर इनके पार्श्वभाग में निर्दिष्ट हैं। ये किरीट−मुकुटादि आभूषणों से विभूषित हैं।
इनके एक हाथ में श्रेष्ठ गदा तथा दूसरे हाथ में धन प्रदान करने की वरमुद्रा सुशोभित है। ये उन्नत उदरयुक्त स्थूल शरीर वाले हैं। ऐसे भगवान शिव के परम सुहृद भगवान कुबेर का ध्यान करना चाहिए−
कुबेर का ध्यान यह मंत्र पढ़कर लगाएं−
मनुजवाहम्विमानवरस्थितं गरुडरत्ननिभं निधिनायकम्।
शिवसखं मुकुटादिविभूषितं वरगदे दधतं भज तुन्दिलम्।।
मंत्र महार्णव तथा मंत्र महोदधि आदि में निर्दिष्ट महाराज कुबेर के कुछ मंत्र इस प्रकार हैं−
1. अष्टाक्षरमंत्र− ओम वैश्रवणाय स्वाहा।
2. षोडशाक्षरमंत्र− ओम श्री ओम ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः।
3. पंचत्रिंशदक्षरमंत्र− ओम यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।
इसी प्रकार वहां बालरक्षाकर मंत्र−यंत्र भी निर्दिष्ट हैं, जिसमें ‘अया ते अग्ने समिधा’ आदि का प्रयोग होता है। यह मंत्र बालकों के दीर्घायुष्य, आरोग्य, नैरुज्यादि के लिए बहुत उपयोगी है। इस प्रकार बालकों के आरोग्य लाभ के लिए भी भगवान कुबेर की उपासना विशेष फलवती होती है। प्रायरू सभी यज्ञ−यागादि, पूजा−उत्सवों तथा दस दिक्पालों के पूजन में उत्तर दिशा के अधिपति के रूप में कुबेर की विधिपूर्वक पूजा होती है। यज्ञ−यागादि तथा विशेष पूजा आदि के अंत में षोडशोपचार पूजन के अनन्तर आर्तिक्य और पुष्पांजलि का विधान होता है। पुष्पांजलि में तथा राजा के अभिषेक के अंत में ‘ओम राजाधिराजाय प्रसह्म साहिने’ इस मंत्र का विशेष पाठ होता है, जो महाराज कुबेर की ही प्रार्थना का मंत्र है। महाराज कुबेर राजाओं के भी अधिपति हैं, धनों के स्वामी हैं, अतः सभी कामना फल की वृष्टि करने में वैश्रवण कुबेर ही समर्थ हैं।
व्रतकल्पद्रुम आदि व्रत ग्रंथों में कुबेर के उपासक के लिए फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी से वर्ष भर प्रतिमास शुक्ल त्रयोदशी को कुबेर व्रत करने के अनेक विधान निर्दिष्ट हैं। इससे उपासक धनाढ्य तथा सुख−समृद्धि से संपन्न हो जाता है और परिवार में आरोग्य प्राप्त होता है। सारांश में कहा जा सकता है कि कुबेर की उपासना ध्यान से मनुष्य का दुःख दारिद्रय दूर होता है और अनन्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। शिव के अभिन्न मित्र होने से कुबेर के भक्त की सभी आपत्तियों से रक्षा होती है और उनकी कृपा से साधक में आध्यात्मिक ज्ञान−वैराग्य आदि के साथ उदारता, सौम्यता, शांति तथा तृप्ति आदि सात्विक गुण भी स्वाभाविक रूप से संनिविष्ट हो जाते हैं।
अब सब प्रकार की सिद्धि देन वाले कुबेर के मन्त्र को कहता हूँ -
‘यक्षाय’ पद बोलकर, ‘कुबेराय’, फिर ‘वैश्रवणाय धन’ इन पदों का उच्चारण कर ‘धान्याधिपतये धनधान्य समृद्धिम में देहि दांपय’, फिर ठद्वय (स्वाहा) लगासे से यह ३५ अक्षरों का कुबेर मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०५-१०६॥
इस मन्त्र के विश्रवा ऋषि हैं, बृहती छन्द है तथा शिव के मित्र कुबेर इसके देवता ॥१०७॥
विमर्श – कुबेरमन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिम मे देहि दापय स्वाहा (३५)।
विनियोग – अस्य श्रीकुबेरमन्त्रस्य विश्रवाऋषिर्बृहतीच्छन्दः शिवमित्रं धनेश्वरो देवताऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥१०५-१०७॥
मन्त्र के ३, ४, ५, ८, ८, एवं ७ वर्णों से षडङ्गन्यास करे । फिर अलकापुरी में विराजमान कुबेर का इस प्रकार ध्यान करे ॥१०८॥
विमर्श – न्यास विधि – यक्षाय हृदयाय नमः, कुबेराय शिरसे स्वाहा,
वैश्रवणाय शिखायै वषट्, धनधान्यधिपतये कवचाय हुम्,
धनधान्यसमृद्धिम मे नेत्रत्रयाय वौषट्, देहि दापय स्वाहा अस्त्राय फट् ॥१०८॥
अब अलकापुरी में विराजमान कुबेर का ध्यान कहते हैं – मनुष्य श्रेष्ठ, सुन्दर विमान पर बैठे हुये, गारुडमणि जैसी आभा वाले, मुकुट आदि आभूषणों से अलंकृत, अपने दोनो हाथो में क्रमशः वर और गदा धारण किए हुये, तुन्दिल शरीर वाले, शिव के मित्र निधीश्वर कुबेर का मैं ध्यान करता हूँ ॥१०९॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा धर्मादि वाले पूर्वोक्त पीठ पर षडङ्ग दिक्पाल एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥११०॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं – धन की वृद्धि के लिए शिव मन्दिर में इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए । बेल के वृक्ष के नीचे बैठ कर इस मन्त्र का एक लाख जप करने से धन-धान्य रुप समृद्धि प्राप्त होती है ॥१११॥!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

Photo: कुबेर साधना रहस्य  ,,,एक वार महा ऋषि पुलस्य के सिर पे बहुत बड़ी विपता आ पढ़ी और उन को उस समय में दरिद्रता का सहमना करना पड़ा जिस के चलते उस राज्य की प्रजा काल और सूखे की चपेट में या गई और धन न होने की वजह से चारो तरफ लोग भूख और गरीबी से बेहाल हो उठे तब महा ऋषि पुलस्य ने इस से उबरने के लिए कुबेर की सहायता लेनी चाही क्यू के वोह जानते थे के कुबेर के बिना धन नहीं आ सकता मगर दैवी नियमो के चलते कुबेर सीधे धन नहीं दे सकते थे !इस लिए महा ऋषि पुलस्य ने गणपती भगवान की साधना की तो गणपती ब्पा ने कुबेर को हुकम दिया के महा ऋषि की सहायता करे तो कुबेर ने कहा के अगर आप कुबेर यंत्र का स्थापन कर मेरे नो रूप में से किसी की भी साधना करेगे तो धन की बरसात होने लगेगी इस लिए महा ऋषि ने गणपती भगवान से प्रार्थना की और गणपती भगवान ने उन्हे कुबेर के 9 दिव्य रूप के मंत्र दिये महा ऋषि ने कुबेर यंत्र स्थापन कर कुबेर के 9 दिव्य रूप की साधना संपन की और परजा को दरिद्रता से उबारा साधना संपन होने से धन की बरसात होने लगी और चारो तरफ खुशहाली फ़ेल गई !इन 9 दिव्य रूपो की साधना आज भी हमारे शास्त्रो में है और जो एक वार इन साधनयों को कर लेता है उस के जीवन में कोई अभाव नहीं रहता 
क्या है यह कुबेर के 9 रूप -
1 – उग्र कुबेर — यह कुबेर धन तो देते ही है साथ में आपके सभी प्रकार के शत्रुओ का भी हनन कर देते है !

2-पुष्प कुबेर –यह धन प्रेम विवाह ,प्रेम में सफलता ,मनो वर प्राप्ति ,स्न्मोहन प्राप्ति ,और सभी प्रकार के दुख से निवृति के लिए की जाती है !

3-चंद्र कुबेर — इन की साधना धन एवं पुत्र प्राप्ति के लिए की जाती है ,योग्य संतान के लिए चंदर कुबेर की साधना करे !

4-पीत कुबेर — धन और वाहन सुख संपति आदि की प्राप्ति के लिए पीत कुबेर की साधना की जाती है !इस साधना से मनो वाशित वाहन और संपति की प्राप्ति होती है !

5- हंस कुबेर — अज्ञात आने वाले दुख और मुकदमो में विजय प्राप्ति के लिए हंस कुबेर की साधना की जाती है !

6- राग कुबेर — भोतिक और अधियात्मक हर प्रकार की विधा संगीत ललित कलाँ और राग नृत्य आदि में न्पुनता और सभी प्रकार की परीक्षा में सफलता के लिए राग कुबेर की साधना फलदायी सिद्ध होती है !

7-अमृत कुबेर — हर प्रकार के स्वस्थ लाभ रोग मुक्ति ,धन और जीवन में सभी प्रकार के रोग और दुखो के छुटकारे के लिए अमृत कुबेर की साधना दिव्य और फलदायी है !

8-प्राण कुबेर — धन है पर कर्ज से मुक्ति नहीं मिल रही वेयर्थ में धन खर्च हो रहा हो तो प्राण कुबेर हर प्रकार के ऋण से मुक्ति दिलाने में सक्षम है !इन की साधना साधक को सभी प्रकार के ऋण से मुक्ति देती है !

9- धन कुबेर — सभी प्रकार की कुबेर साधनयों में सर्व श्रेष्ठ है जीवन में हम जो भी कर्म करे उनके फल की प्राप्ति और धन आदि की प्राप्ति के लिए और मनोकामना की पूर्ति हेतु और भाग्य अगर साथ न दे रहा हो तो धन कुबेर की साधना सर्व श्रेष्ठ कही गई है !

 नमस्तुभ्यम् महा मन्त्रम् दायिने शिव रुपिणे, ब्रह्म ज्ञान प्रकाशाय संसार दु:ख तारिणे ।
अती सौम्याय विध्याय वीराया ज्ञान हारिने, नमस्ते कुल नाथाय कुल कौलिन्य दायिने ।।
शिव तत्व प्रकाशाय ब्रह्म तत्व प्रकाशइने, नमस्ते गुरुवे तुभ्यम् साधकाभय दायिने ।
अनाचाराचार भाव बोधाय भाव हेतवे, भावाभाव विनिर्मुक्त मुक्ती दात्रे नमो नम: ।।
नमस्ते सम्भवे तुभ्यम् दिव्य भाव प्रकाशइने, ज्ञानआनन्द स्वरूपाय विभ्वाय नमो नम: ।
शिवाय शक्ति नाथाय सच्चीदानन्द रुपिणे, कामरूप कामाय कामकेलीकलात्मने ।।
कुल पूजोपदेशाय कुलाचारस्वरुपिने, आरक्थ नीजतत्शक्ति वाम भाग विभूतये ।
नमस्तेतु महेशाय नमस्तेतु नमो नम:, यह एदम पठत् स्तोत्रम सधाको गुरु दिङ मुख 
प्रातरुथाय देवेशी ततोविध्या प्रशिदति, कुल सम्भव पूजा मादौ योन: पठेएदम ।
विफला तश्य पूजाश्यात विचारआय कल्प्यते, एती श्री कुब्जिका तन्त्रे गुरु स्तोत्रम साम्पूर्णम ।।
महाराज वैश्रवण कुबेर की उपासना से संबंधित मंत्र, यंत्र, ध्यान एवं उपासना आदि की सारी प्रक्रियाएं श्रीविद्यार्णव, मन्त्रमहार्णव, मन्त्रमहोदधि, श्रीतत्वनिधि तथा विष्णुधर्मोत्तरादि पुराणों में निर्दिष्ट हैं। तदनुसार इनके अष्टाक्षर, षोडशाक्षर तथा पंचत्रिंशदक्षरात्मक छोटे−बड़े अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं। मंत्रों के अलग−अलग ध्यान भी निर्दिष्ट हैं। इनके एक मुख्य ध्यान−श्लोक में इन्हें मनुष्यों के द्वारा पालकी पर अथवा श्रेष्ठ पुष्पक विमान पर विराजित दिखाया गया है। इनका वर्ण गारुडमणि या गरुणरत्न के समान दीप्तिमान पीतवर्णयुक्त बताया गया है और समस्त निधियां इनके साथ मूर्तिमान होकर इनके पार्श्वभाग में निर्दिष्ट हैं। ये किरीट−मुकुटादि आभूषणों से विभूषित हैं।
इनके एक हाथ में श्रेष्ठ गदा तथा दूसरे हाथ में धन प्रदान करने की वरमुद्रा सुशोभित है। ये उन्नत उदरयुक्त स्थूल शरीर वाले हैं। ऐसे भगवान शिव के परम सुहृद भगवान कुबेर का ध्यान करना चाहिए−
कुबेर का ध्यान यह मंत्र पढ़कर लगाएं−
मनुजवाहम्विमानवरस्थितं गरुडरत्ननिभं निधिनायकम्।
शिवसखं मुकुटादिविभूषितं वरगदे दधतं भज तुन्दिलम्।।
मंत्र महार्णव तथा मंत्र महोदधि आदि में निर्दिष्ट महाराज कुबेर के कुछ मंत्र इस प्रकार हैं−
1. अष्टाक्षरमंत्र− ओम वैश्रवणाय स्वाहा।
2. षोडशाक्षरमंत्र− ओम श्री ओम ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः।
3. पंचत्रिंशदक्षरमंत्र− ओम यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।
इसी प्रकार वहां बालरक्षाकर मंत्र−यंत्र भी निर्दिष्ट हैं, जिसमें ‘अया ते अग्ने समिधा’ आदि का प्रयोग होता है। यह मंत्र बालकों के दीर्घायुष्य, आरोग्य, नैरुज्यादि के लिए बहुत उपयोगी है। इस प्रकार बालकों के आरोग्य लाभ के लिए भी भगवान कुबेर की उपासना विशेष फलवती होती है। प्रायरू सभी यज्ञ−यागादि, पूजा−उत्सवों तथा दस दिक्पालों के पूजन में उत्तर दिशा के अधिपति के रूप में कुबेर की विधिपूर्वक पूजा होती है। यज्ञ−यागादि तथा विशेष पूजा आदि के अंत में षोडशोपचार पूजन के अनन्तर आर्तिक्य और पुष्पांजलि का विधान होता है। पुष्पांजलि में तथा राजा के अभिषेक के अंत में ‘ओम राजाधिराजाय प्रसह्म साहिने’ इस मंत्र का विशेष पाठ होता है, जो महाराज कुबेर की ही प्रार्थना का मंत्र है। महाराज कुबेर राजाओं के भी अधिपति हैं, धनों के स्वामी हैं, अतः सभी कामना फल की वृष्टि करने में वैश्रवण कुबेर ही समर्थ हैं।
व्रतकल्पद्रुम आदि व्रत ग्रंथों में कुबेर के उपासक के लिए फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी से वर्ष भर प्रतिमास शुक्ल त्रयोदशी को कुबेर व्रत करने के अनेक विधान निर्दिष्ट हैं। इससे उपासक धनाढ्य तथा सुख−समृद्धि से संपन्न हो जाता है और परिवार में आरोग्य प्राप्त होता है। सारांश में कहा जा सकता है कि कुबेर की उपासना ध्यान से मनुष्य का दुःख दारिद्रय दूर होता है और अनन्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। शिव के अभिन्न मित्र होने से कुबेर के भक्त की सभी आपत्तियों से रक्षा होती है और उनकी कृपा से साधक में आध्यात्मिक ज्ञान−वैराग्य आदि के साथ उदारता, सौम्यता, शांति तथा तृप्ति आदि सात्विक गुण भी स्वाभाविक रूप से संनिविष्ट हो जाते हैं।
अब सब प्रकार की सिद्धि देन वाले कुबेर के मन्त्र को कहता हूँ -
‘यक्षाय’ पद बोलकर, ‘कुबेराय’, फिर ‘वैश्रवणाय धन’ इन पदों का उच्चारण कर ‘धान्याधिपतये धनधान्य समृद्धिम में देहि दांपय’, फिर ठद्वय (स्वाहा) लगासे से यह ३५ अक्षरों का कुबेर मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०५-१०६॥
इस मन्त्र के विश्रवा ऋषि हैं, बृहती छन्द है तथा शिव के मित्र कुबेर इसके देवता ॥१०७॥
विमर्श – कुबेरमन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिम मे देहि दापय स्वाहा (३५)।
विनियोग – अस्य श्रीकुबेरमन्त्रस्य विश्रवाऋषिर्बृहतीच्छन्दः शिवमित्रं धनेश्वरो देवताऽत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥१०५-१०७॥
मन्त्र के ३, ४, ५, ८, ८, एवं ७ वर्णों से षडङ्गन्यास करे । फिर अलकापुरी में विराजमान कुबेर का इस प्रकार ध्यान करे ॥१०८॥
विमर्श – न्यास विधि – यक्षाय हृदयाय नमः, कुबेराय शिरसे स्वाहा,
वैश्रवणाय शिखायै वषट्, धनधान्यधिपतये कवचाय हुम्,
धनधान्यसमृद्धिम मे नेत्रत्रयाय वौषट्, देहि दापय स्वाहा अस्त्राय फट् ॥१०८॥
अब अलकापुरी में विराजमान कुबेर का ध्यान कहते हैं – मनुष्य श्रेष्ठ, सुन्दर विमान पर बैठे हुये, गारुडमणि जैसी आभा वाले, मुकुट आदि आभूषणों से अलंकृत, अपने दोनो हाथो में क्रमशः वर और गदा धारण किए हुये, तुन्दिल शरीर वाले, शिव के मित्र निधीश्वर कुबेर का मैं ध्यान करता हूँ ॥१०९॥
इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए तथा धर्मादि वाले पूर्वोक्त पीठ पर षडङ्ग दिक्पाल एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥११०॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं – धन की वृद्धि के लिए शिव मन्दिर में इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए । बेल के वृक्ष के नीचे बैठ कर इस मन्त्र का एक लाख जप करने से धन-धान्य रुप समृद्धि प्राप्त होती है ॥१११॥

Thursday, 16 October 2014

दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप


 दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इसे रोशनी का पर्व भी कहा जाता है। कहा जाता है कि कार्तिक अमावस्या को भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री रामचन्द्र के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनायी थीं, इसी याद में आज तक दीपावली पर दीपक जलाए जाते हैं और कहते हैं कि इसी दिन महाराजा विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था। आज के दिन व्यापारी अपने बही खाते बदलते है तथा लाभ हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं।  दीपावली पर जुआ खेलने की भी प्रथा हैं। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर में भाग्य की परीक्षा करना है। लोग जुआ खेलकर यह पता लगाते हैं कि उनका पूरा साल कैसा रहेगा।

पूजन विधानः
 दीपावली पर माँ लक्ष्मी व गणेश के साथ सरस्वती मैया की भी पूजा की जाती है। भारत मे दीपावली परम्प   रम्पराओं का त्यौंहार है। पूरी परम्परा व श्रद्धा के साथ दीपावली का पूजन किया जाता है। इस दिन लक्ष्मी पूजन में माँ लक्ष्मी की प्रतिमा या चित्र की पूजा की जाती है। गणेश पूजन के बिना कोई भी पूजन अधूरा होता है इसलिए लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन भी किया जाता है। सरस्वती की पूजा का कारण यह है कि धन व सिद्धि के साथ ज्ञान भी पूजनीय है इसलिए ज्ञान की पूजा के लिए माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।

इस दिन धन व लक्ष्मी की पूजा के रूप में लोग लक्ष्मी पूजा में नोटों की गड्डी व चाँदी के सिक्के भी रखते हैं। इस दिन रंगोली सजाकर माँ लक्ष्मी को खुश किया जाता है। इस दिन धन के देवता कुबेर, इन्द्र देव तथा समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले विष्णु भगवान की भी पूजा की जाती है। तथा रंगोली सफेद व लाल मिट्टी से बनाकर व रंग बिरंगे रंगों से सजाकर बनाई जाती है।

दीपदान:
 दीपावली के दिन दीपकों की पूजा का विशेष महत्व हैं। इसके लिए दो थालों में दीपक रखें। छः चौमुखे दीपक दोनो थालों में रखें। छब्बीस छोटे दीपक भी दोनो थालों में सजायें। इन सब दीपको को प्रज्जवलित करके जल, रोली, खील बताशे, चावल, गुड, अबीर, गुलाल, धूप, आदि से पूजन करें और टीका लगावें। व्यापारी लोग दुकान की गद्दी पर गणेश लक्ष्मी की प्रतिमा रखकर पूजा करें। इसके बाद घर आकर पूजन करें। पहले पुरूष फिर स्त्रियाँ पूजन करें। एक चौमुखा, छः छोटे दीपक  गणेश लक्ष्मीजी के पास रख दें। चौमुखा दीपक का काजल सब बडे बुढे बच्चे अपनी आँखो में डालें।

पूजन की सामग्री: 

महालक्ष्मी पूजन में केशर, रोली, चावल, पान, सुपारी, फल, फूल, दूध, खील, बताशे, सिंदूर, सूखे, मेवे, मिठाई, दही, गंगाजल, धूप, अगरबत्ती, दीपक, रूई तथा कलावा नारियल और तांबे का कलश चाहिए।

कैसे करें तैयारी:

एक थाल में या भूमि को शुद्ध करके नवग्रह बनाएं अथवा नवग्रह का यंत्र स्थापित करें। इसके साथ ही तांबे के कलश में गंगाजल, दूध, दही, शहद, सुपारी, सिक्के और लौंग आदि डालकर उसे लाल कपड़े से ढककर एक कच्चा नारियल कलावे से बांध कर रख दें। जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया है वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति अथवा मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश, सरस्वती जी आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां अथवा चित्र सजाएं। कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रूप मानकर दूध, दही और गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत चंदन का श्रृंगार करके फल-फूल आदि से सजाएं। इसके ही दाहिने ओर एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलाएं जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है। 

दीपावली लक्ष्मी पूजन विधि: 

लक्ष्मीपूजनकर्ता स्नान आदि नित्यकर्म से निवृत होकर पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम करके स्वस्ति वाचन करें। अनंतर गणेशजी का स्मरण कर अपने दाहिने हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, द्रव्य और जल आदि लेकर दीपावली महोत्सव के निमित्त गणेश, अम्बिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, कुबेर आदि देवी-देवताओं के पूजनार्थ संकल्प करें। इसके बाद सर्वप्रथम गणेश और अंबिका का पूजन करें। इसके बाद षोडशमातृका पूजन और नवग्रह पूजन करके महालक्ष्मी आदि देवी-देवताओं का पूजन करें। 

दीपक पूजन:

दीपक ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है। हृदय में भरे हुए अज्ञान और संसार में फैले हुए अंधकार का शमन करने वाला दीपक देवताओं की ज्योर्तिमय शक्ति का प्रतिनिधि है। इसे भगवान का तेजस्वी रूप मान कर पूजा जाना चाहिए। भावना करें कि सबके अंत:करण में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो रहा है। बीच में एक बड़ा घृत दीपक और उसके चारों ओर ग्यारह, इक्कीस, अथवा इससे भी अधिक दीपक, अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार तिल के तेल से प्रज्ज्वलित करके एक परात में रख कर आगे लिखे मंत्र से ध्यान करें । 

ध्यान: 

भो दीप ब्रह्मरूपस्त्वं अन्धकारविनाशक। इमां मया कृतां पूजां गृहणन्तेज: प्रवर्धय।। 
गंध, अक्षत, पत्र और पुष्प चढ़ाने के पश्चात हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करें। 

सरस्वती (बही-खाता) पूजन:

शुक्लां ब्रह्यविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनी वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्। 
हस्ते स्टिकमालिकां विदधतीरं पद्मासने संस्थितां वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।। 
ओम् सरस्वत्यै नम:, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि। 

कुबेर पूजन (तिजोरी, या संदूक में): 

तिजोरी एवं रोकड़ के बक्से में सिंदूर से स्वस्तिक बनाकर पूजन करें । 

नवग्रह पूजा: 

हाथ में चावल और फूल लेकर नवग्रह का ध्यान करें :- 
ओम् ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशि भूमिसुतो बुधश्च। 
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: सर्वे ग्रहा: शान्तिकरा भवन्तु।। 
नवग्रह देवताभ्यो नम: आहवयामी स्थापयामि नम:।

लक्ष्मीजी की आरती:

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता ।
तुमको निसदिन सेवत हर-विष्णु-धाता ॥ॐ जय...
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता ।
सूर्य-चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥ॐ जय...
तुम पाताल-निरंजनि, सुख-सम्पत्ति-दाता ।
जोकोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि-धन पाता ॥ॐ जय...
तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता ।
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता ॥ॐ जय...
जिस घर तुम रहती, तहँ सब सद्गुण आता ।
सब सम्भव हो जाता, मन नहिं घबराता ॥ॐ जय...
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न हो पाता ।
खान-पान का वैभव सब तुमसे आता ॥ॐ जय...
शुभ-गुण-मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता ।
रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहिं पाता ॥ॐ जय...
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कई नर गाता ।
उर आनन्द समाता, पाप शमन हो जाता ॥ॐ जय!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

लक्ष्मी पूजन कार्तिक कृष्ण अमावस्या को

लक्ष्मी पूजन कार्तिक कृष्ण अमावस्या को लक्ष्मी पूजन और राजा बलि के राज्योत्सव के रूप में मनाने की परंपराएं आदिकाल से ही चली आ रही हैं। आदिकाल में भगवान विष्णु ने सभी देवताओं को दैत्यों की कैद से मुक्त कराया था और उन्हें क्षीर-सागर पर लाकर आश्वस्त किया था। लक्ष्मीजी ने निर्भय होकर कमल-पुष्प की शैय्या पर विश्राम किया था इसीलिए इस दिन जो कमल पुष्पों के द्वारा सुंदर सेज या आसन बनाकर लक्ष्मीजी का पूजन करता है, उस पर लक्ष्मीजी अति प्रसन्न होती हैं। लक्ष्मीजी को कमल पुष्प प्रिय होने से इनका नाम “पद्मा” भी प़ड गया। एक अन्य प्रसिद्ध प्रसंग के अनुसार भगवान राम भी रावण का संहार करके इसी दिन वनवास की अवधि पूर्ण कर अयोध्या आए थे और उनके आगमन पर पूरी सजावट और दीपों से सुंदर वितान निर्मित किये गये थे। इसी उपलक्ष्य में देशभर में आज भी साज और सज्जा की परंपराएं प्रचलित हैं।
इस दिन लक्ष्मीजी का पूजन कर भाँति-भाँति के व्यंजनों से भोग लगाया जाता है। घर में उत्सव स्वरूप घी और तेल के दीपक जलाये जाते हैं। विष्णु पुराण में आया है -
“”तदह्नि पद्म शय्यां य: पद्मा सौख्य विवृद्धये। कुर्यातस्य गृहं मुक्त्वा तत्पद्मा क्वापि व व्रजेत्।।
न कुर्वन्ति नरा इत्थं लक्ष्म्या ये सुख सुप्तिकाम्। धन चिन्ता विहिनास्ते कथं रात्रौ स्वपन्ति हि।।”"
अर्थात् कमल पुष्पों व दीपकों से जो महालक्ष्मी जी को पूजता है उसके घर को छो़डकर लक्ष्मीजी कभी नहीं जाती परंतु जो इस प्रकार लक्ष्मीजी का पूजन नहीं करते वे नित्य ही धन की चिंता से युक्त होकर सोते हैं। नये कप़डे पहनकर और विविध श्रृंगारिक पदार्थो को उपयोग में लेकर लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए।
सायंकाल में एक तेल के दीपक को अपने सिर के ऊपर घुमाकर, उस दीपक को चौराहे, मंदिर, वृक्ष के नीचे, पर्वत पर, घर के बाहर मुख्य द्वार पर या चबूतरे पर रखने से अरिष्टों का निवारण होता है।
इस दिन आधी रात के समय सूप (छाज़डा) को बाँस की डण्डी से बजाते हुए घर के चौक की झाडू लगाकर कचरे को घर के बाहर फेंकते हुए प्रार्थना की जाती है कि – “”अलक्ष्मी हमारे घर से बाहर निकल जाये और लक्ष्मीजी स्थायी रूप से निवास करें।”"
दीपावली की रात्रि को कालरात्रि माना गया है। श्री विद्यार्णव तंत्र में कालरात्रि को महाशक्ति का एक रूप माना गया है तथा कालरात्रि शक्ति को श्रीविद्या का एक अंग कहा गया है। आदि शंकराचार्य श्रीविद्या के परम उपासक थे। कालरात्रि देवी को “गणेश्वरी देवी” भी कहा गया है जो कि ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करती हैं।
दीपावली की रात में रात्रि 12 बजे से 2 बजे तक के समय को अर्थात् तृतीय प्रहर मध्य को “महानिशा” काल कहते हैं। इस समय (सिंह लग्न में) लक्ष्मी आराधना व पूजा करने का अत्यधिक महत्व होता है। सामान्यतया दीपावली को प्रदोष काल में श्रीलक्ष्मी जी का, गणेश जी, सरस्वती, कुबेर और वरूण आदि देवताओं के साथ पूजन किया जाता है परंतु “महानिशा” काल में देवी लक्ष्मीजी का भगवान नारायण के साथ अर्थात् “लक्ष्मी-नारायण” भगवान का संयुक्त पूजन पुरूष सूक्त व श्रीसूक्त के मंत्रों के साथ करना अत्यंत शुभ होता है।
पौराणिक मान्यताएं रही हैं कि – “”कार्तिक अमावस्या को मध्य रात्रि में देवी लक्ष्मी अपने स्वामी भगवान नारायण के साथ गरू़ड पर सवार होकर विश्व-भ्रमण के लिए निकलती हैं तथा जिस घर में अपना पूजन होते हुए देखती हैं, उस घर पर कृपा कर देती हैं इसीलिए इस रात्रि में लक्ष्मी नारायण भगवान का पूजन करना अत्यंत शुभ माना जाता है।”"
दीपावली की रात्रि में निम्न मंत्र का जाप अत्यधिक शुभ होता है।
मंत्र : ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्मी ममगृहे आगच्छ-आगच्छ ह्रीं नम:।।
विधि : दीपावली को प्रदोष काल में जबकि परंपरागत रूप से लक्ष्मी पूजन कर लिया जाता है तो उसके बाद यह व्यवस्था करनी चाहिए, पूजा का दीपक अखण्ड रहे और प्रात:काल तक चलता रहे। तब एक चाँदी की थाली में या बहीखाते में सीधे हाथ की तरफ वाले पृष्ठ पर अष्टगंध या कुंकुम से इस मंत्र को लिखना चाहिए और चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप से पूजना चाहिए और मावे का भोग लगाना चाहिए परंतु पूजा करते समय सावधानी रखनी चाहिए कि लिखा हुआ मंत्र मिटे नहीं। पूजन के बाद संपूर्ण रात्रि में इस मंत्र का कुल 12,000 (बारह हजार) बार जाप करें। इस अनुष्ठान से माँ लक्ष्मी अतिप्रसन्न होती हैं और जाप करने वाले को धन-दौलत और सुख-समृद्धि प्रदान करती हैं। परिवार के सभी लोग सामूहिक रूप से मंत्र का जाप कर इस संख्या को पूरी कर सकते हैं।
व्यापारिक घाटा मिटाने के लिए मंत्र : ऊँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीमेव कुरू कुरू वांछितमेव ह्रीं ह्रीं नम:।
यदि व्यापार में लगातार घाटा चल रहा हो, दुकान ठीक से नहीं चलती हो तथा धन के आवागमन में लगातार रूकावटें आती हों तो इस मंत्र को प्रयोग में लेना चाहिए।
दीपावली की रात्रि में चाँदी के पत्र पर अथवा भोजपत्र पर अष्टगंध से इस मंत्र को शुद्ध वर्तनी में लिख लेना चाहिए। महालक्ष्मी का सुंदर चित्र, लाल कप़डे के आसन पर रखकर, अखंड दीपक जलाकर पूजन करें और पूजा के बाद इस मंत्र का 10,000 बार (100 माला) जाप करें। जाप परिवार के अन्य सदस्य भी कर सकते हैं। सभी की जाप संख्या गिनती में शामिल होती हैं। इस प्रकार यह मंत्र चैतन्य हो जाता है फिर प्रतिदिन लक्ष्मीजी का पूजन करते हुए, दीपक व धूपबत्ती जलाकर तथा मावे का यथाशक्ति मात्रा में भोग लगाकर, इस मंत्र का 108 बार जाप करते रहें तो घाटे में चल रहा व्यापार धीरे-धीरे लाभ में आने लगता है। लगभग 41 दिनों में इसके प्रभाव दिखाई देने लगते हैं।
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श्री घंटाकर्ण-द्रव्य प्राप्ति मंत्र  
मंत्र - ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं क्रौं ऊँ घंटाकर्ण महावीर लक्ष्मीं पूरय पूरय सुख सौभाग्यं कुरू कुरू स्वाहा।
विधि - स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर इस मंत्र को भोजपत्र पर सुंदर और स्पष्ट अक्षरों में केसर-चंदन से लिख लेवें और पूजन करके इस मंत्र का दीपावली के समय तीन दिन तक अलग-अलग संख्या में जाप करें। जैन धर्म में इस मंत्र की ब़डी उपयोगिता है।
धन तेरस के दिन 40 माला, रूप चौदस (नरक चतुर्दशी) को 42 माला एवं दीपावली को 43 माला जाप करें और फिर भोजपत्र पर लिखे मंत्र को अपनी तिजोरी में रख लेवें। जाप उत्तर दिशा की ओर मुख करके ही करना चाहिये तथा सफेद वस्त्र, सफेद ऊनी आसन व लाल माला को प्रयोग में लेना चाहिये।
ऎसा करने से अगला वर्ष धन प्राप्ति की दृष्टि से बहुत अच्छा जाता है। व्यापार की वृद्धि होती है। इस प्रकार दीपावली की परम पुनीत महारात्रि में अपनी कामना के अनुरूप मंत्र प्रयोग में लेने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं और कामनाओं की पूर्ति करती हैं।

शुक्रवार का विशेष उपाय: महालक्ष्मी पूजन:

 शुक्रवार का विशेष उपाय: महालक्ष्मी पूजन:
जीवन में कौन नहीं पाना चाहता सफलता   सफलता से मतलब हम इस बात से लगाते हैं कि हमें किसी भी कीमत पर जल्दी तरक्की मिले। वे सभी चीजें हासिल कर लें जिसे हम पाना चाहते हैं। सफलता के लिए भगवान श्री हरि विष्णु और धन की अधिष्ठात्री देवी का सुमिरन कर कार्य करें। भगवान का ध्यान कर किए जाने वाले कार्य में सफलता अवश्य मिलती है। केवल परिश्रम से कुछ नहीं होता। 
घर में मां लक्ष्मी का आगमन बना रहे इसके लिए शुक्रवार को लक्ष्मी जी की पूजा करनी चाहिए। सनातन धर्म में मां लक्ष्मी धन की अधिष्ठात्री एवं प्रमुख देवी हैं। समस्त देवी शक्तियों के मूल में लक्ष्मी जी ही हैं। जो सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं। माता महालक्ष्मी को प्रसन्न करने से धन की कमी नहीं रहती। माता महालक्ष्मी की कृपा और मन भावन धन की बरसात चाहते हैं तो शुक्रवार को करें इन मंत्रों का जाप
 ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः
 श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये
 श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा
 ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः
 ॐ श्रीं श्रियै नमः!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
 ॐ ह्री श्रीं क्रीं श्रीं क्रीं क्लीं श्रीं महालक्ष्मी मम गृहे धनं पूरय पूरय चिंतायै दूरय दूरय स्वाहा


दीवाली पूजन पर लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने

दीवाली पूजन पर लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने के लिए लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है। लक्ष्मी आ जाने के बाद बुद्धि विचलित न हो इसके लिए लक्ष्मी के साथ गणपति भगवान की भी पूजा की जाती है। देवताओं के खजांची हैं भगवान कुबेर इसलिए दीपावली की रात में इनकी पूजा भी होती है। ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी भगवान विष्णु की पूजा के बिना प्रसन्न नहीं होती है। इसलिए विष्णु की भी पूजा होती है। दीपावली की रात मां काली और सरस्वती की भी पूजा लक्ष्मी जी के साथ होती है क्योंकि लक्ष्मी, काली और सरस्वती मिलकर आदि लक्ष्मी बन जाती हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होने के बाद भक्त को कभी धन की कमी नहीं होती। भगवती महालक्ष्मी चल एवं अचल संपत्ति देने वाली हैं। दीपावली की रात लक्ष्मीजी के विधिवत पूजन से हमारे सभी दुख और कष्ट दूर होते हैं। लक्ष्मी पूजन की संक्षिप्त विधि निम्न प्रकार से है: लक्ष्मी पूजन की सामग्री: महालक्ष्मी पूजन में केशर, रोली, चावल, पान, सुपारी, फल, फूल, दूध, खील, बताशे, सिंदूर, सूखे, मेवे, मिठाई, दही, गंगाजल, धूप, अगरबत्ती, दीपक, रूई तथा कलावा नारियल और तांबे का कलश चाहिए। इसमें मां लक्ष्मी को कुछ वस्तुएं बेहद प्रिय हैं। उनका उपयोग करने से वह शीघ्र प्रसन्न होती हैं। इसलिए इनका उपयोग जरूर करें। वस्त्र : लाल-गुलाबी या पीले रंग का रेशमी वस्त्र है। पुष्प : कमल व गुलाब फ : श्रीफल, सीताफल, बेर, अनार व सिंघाड़े सुगंध : केवड़ा, गुलाब, चंदन के इत्र अनाज : चावल, घर में शुद्धता पूर्ण बनी केसर की मिठाई, हलवा, शिरा का नैवेद्य प्रकाश के लिए गाय का घी, मूंगफली या तिल्ली का तेल पूजा की तैयारी: एक चौकी पर माता लक्ष्मी और भगवान श्रीगणेश की मूर्तियां इस प्रकार रखें कि लक्ष्मी जी की दाईं दिशा में श्रीगणेश रहें और उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रहे। कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है। दो बड़े दीपकों में से एक में घी व दूसरे में तेल डालें। एक दीपक चौकी के दाईं ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। एक छोटा दीपक गणेशजी के पास रखें। मूर्तियों वाली चौकी के सामने छोटी चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएं। कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से इस पर नवग्रह की प्रतीक नौ ढेरियां बनाएं। गणेशजी की ओर चावल की सोलह ढेरियां बनाएं। ये सोलह मातृका की प्रतीक हैं। नवग्रह व षोडश मातृका के बीच स्वस्तिक का चिह्न बनाएं। इसके बीच सुपारी रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचोंबीच ॐ लिखें। छोटी चौकी के सामने तीन थाली व जल भरकर कलश रखें। थालियों की निम्नानुसार व्यवस्था करें 1. ग्यारह दीपक 2. खील, बताशे, मिठाई, वस्त्र, आभूषण, चन्दन का लेप, सिन्दूर, कुंकुम, सुपारी, पान 3. फूल, दुर्वा, चावल, लौंग, इलायची, केसर-कपूर, हल्दी-चूने का लेप, सुगंधित पदार्थ, धूप, अगरबत्ती, एक दीपक। इन थालियों के सामने यजमान बैठें। परिवार के सदस्य उनके बाईं ओर बैठें। कोई आगंतुक हो तो वह आपके या आपके परिवार के सदस्यों के पीछे बैठे। पूजा की विधि पवित्रिकरण: सबसे पहले पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके खुद का तथा पूजन सामग्री का जल छिड़ककर पवित्रिकरण करें और साथ में मंत्र पढ़ें। ॐ पवित्रः अपवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा। यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यन्तर शुचिः॥ पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग षिः सुतलं छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥ आचमन: ऊं केशवाय नम:, ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें- ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ ऊँ महालक्ष्म्यै नम: मंत्र जप के साथ महालक्ष्मी के समक्ष आचमनी से जल अर्पित करें। शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें चन्‍दनस्‍य महत्‍पुण्‍यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्‍यम् लक्ष्‍मी तिष्‍ठतु सर्वदा। संकल्प: संकल्प में पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प करें कि हे महालक्ष्मी मैं आपका पूजन कर रहा हूं। गणपति पूजन: किसी भी पूजा में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है। इसलिए आपको भी सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा करनी चाहिए। हाथ में पुष्प लेकर गणपति का ध्यान करें- गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्। आवाहन: ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।। तना कहकर पात्र में अक्षत छोड़ें। पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें। नवग्रहों का पूजन: हाथ में थोड़ा सा जल ले लीजिए और आह्वान व पूजन मंत्र बोलिए और पूजा सामग्री चढ़ाइए। फिर नवग्रहों का पूजन कीजिए। हाथ में चावल और फूल लेकर नवग्रह का ध्यान करें :- ओम् ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशि भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: सर्वे ग्रहा: शान्तिकरा भवन्तु।। नवग्रह देवताभ्यो नम: आहवयामी स्थापयामि नम:। षोडशमातृका पूजन: इसके बाद भगवती षोडश मातृकाओं का पूजन किया जाता है। हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प ले लीजिए। सोलह माताओं को नमस्कार कर लीजिए और पूजा सामग्री चढ़ा दीजिए। सोलह माताओं की पूजा के बाद मौली लेकर भगवान गणपति पर चढ़ाइए और फिर अपने हाथ में बंधवा लीजिए और तिलक लगा लीजिए। अब महालक्ष्मी की पूजा प्रारंभ कीजिए। गणेशजी, लक्ष्मीजी व अन्य देवी-देवताओं का विधिवत षोडशोपचार पूजन, श्री सूक्त, लक्ष्मी सूक्त व पुरुष सूक्त का पाठ करें और आरती उतारें। पूजा के उपरांत मिठाइयां, पकवान, खीर आदि का भोग लगाकर सबको प्रसाद बांटें। कलश पूजन: ऊं कलशस्य मुखे विष्णु: कंठे रुद्र: समाश्रित: मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।इसके बाद तिजोरी या रुपए रखने के स्थान पर स्वास्तिक बनाएं और श्लोक पढ़ें- मंगलम भगवान विष्णु, मंगलम गरुड़ध्वज: मंगलम् पुंडरीकाक्ष: मंगलायतनो हरि:। लक्ष्मी पूजन: ॐ या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी। गम्भीरावर्त-नाभिः, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।। लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। मणि-गज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः। नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।। इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिष्ठा करें। हाथ में अक्षत लेकर बोलें ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।” प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं: ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नमः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’ इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं। पूजन के बाद लक्ष्मी जी की आरती करना न भूलें। आरती के बाद प्रसाद का भोग लगाएं। इसी वक्त दीप का पूजन करें। दीपक पूजन: दीपक ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है। हृदय में भरे हुए अज्ञान और संसार में फैले हुए अंधकार का शमन करने वाला दीपक देवताओं की ज्योर्तिमय शक्ति का प्रतिनिधि है। इसे भगवान का तेजस्वी रूप मान कर पूजा जाना चाहिए। भावना करें कि सबके अंत:करण में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो रहा है। बीच में एक बड़ा घृत दीपक और उसके चारों ओर ग्यारह, इक्कीस, अथवा इससे भी अधिक दीपक, अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार तिल के तेल से प्रज्ज्वलित करके एक परात में रख कर आगे लिखे मंत्र से ध्यान करें। दीप पूजन करने के बाद पहले मंदिर में दीपदान करें और फिर घर में दीए सजाएं। दीवाली की रात लक्ष्मी जी के सामने घी का दीया पूरी रात जलना चाहिए। मां वैभव लक्ष्मी की आरती ऊँ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता. तुमको निशदिन सेवत, हर विष्णु विधाता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता. सूर्य चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता दुर्गा रुप निरंजनि, सुख-सम्पत्ति दाता. जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्घि-सिद्घि धन पाता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभदाता. कर्म प्रभाव प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता जिस घर में तुम रहती, सब सद्गुण आता. सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता तुम बिन यज्ञ न होवे, वस्त्र न कोई पाता. खान पान का वैभव, सब तुमसे आता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता शुभ-गुण मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि-जाता. रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता !!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!! श्री महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई नर गाता. उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता ॥ ऊँ जय लक्ष्मी माता

रमा एकादशी कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है


रमा एकादशी,, कृष्ण एकादशी का क्या नाम है इसकी विधि क्या है इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी रमा भी आने वाली थी।
जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।

चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।

तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।

ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।

चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं।
।!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
Photo: रमा एकादशी,,19=अक्तूबर =2014,,,कार्तिक कृष्ण एकादशी का क्या नाम है  इसकी विधि क्या है? इसके करने से क्या फल मिलता है। सो आप विस्तारपूर्वक बताइए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था। उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी    रमा भी आने वाली थी।
जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई औ अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूँगा। ऐसा उपाय बतलाओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएँगे।

चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। हाथी, घोड़ा, ऊँट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूँगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीडि़त होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी।

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदुर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चँवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराअओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो।

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।

तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूँगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।

ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।

चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहाँ ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूँगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पु्ण्य है। सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।

इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूँ। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभू‍षणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।

हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्महत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एका‍दशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं।

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