Monday 12 March 2018

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थ जपे विनियोग:।राजोवाच https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5।,,,,,,,,,,
भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिता:। एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तु मर्हसि॥1॥
आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2॥
ऋषिरुवाच
इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3॥
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4॥
मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥6॥
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥7॥
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥8॥
खड्गपात्रशिर:खेटैरलंकृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्त्रजम॥9॥
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:॥10॥
तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥11॥
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥12॥
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभि:।
एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्रुते सुखम्॥13॥
तामित्युक्त्वा महालक्ष्मी: स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्‍‌वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥14॥
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥15॥
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥16॥
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपत:॥17॥
इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मी: ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगभरै रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥18॥
ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥19॥
महाकाली भारती च मिथुने सृजत: सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥20॥
नीलकण्ठं रक्त बाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥21॥
स रुद्र: शंकर: स्थाणु: कपर्दी च त्रिलोचन:।
त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥22॥
सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
नयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥23॥
विष्णु: कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दन:।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥ 24॥
एवं युवतय: सद्य: पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जना:॥25॥
ब्रह्मणे प्रददौ पत्‍‌नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥26॥
स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥ 25॥
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम्॥28॥
पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव:।
संजहार जगत्सर्व सह गौर्या महेश्वर:॥29॥
महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥30॥
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नामन नान्येन केनचित्॥ॐ॥31॥ 
अर्थ :- ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है।
राजा बोले- भगवन्! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिये॥1॥ द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणों में पडा हूँ। मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है, वह सब यथार्थरूप से बतलाइये॥2॥
ऋषि कहते हैं-राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥3॥ त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्ष्यरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥4॥ राजन! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुङ्ग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिङ्ग तथा योनि-इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥5॥ तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है॥6॥ परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥7॥ वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी। उसका श्रेष्ठ मुख दाढों से सुशोभित था। नेत्र बडे-बडे और कमर पतली थी॥8॥उसकी चार भुजाएं ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं। वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी॥9॥ इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहाञ्ा माताजी! आपको नमस्कार है। मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये॥ 8॥ तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा-मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,॥11॥ महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया-॥12॥ ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मो के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे। इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मो को जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है॥13॥ राजन्! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्‍‌वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था॥ 14॥ वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अङ्कुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किये॥15॥ महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धि की स्वामिनी)- ये तुम्हारे नाम होंगे॥16॥ तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा-देवियों! तुम दोनों अपने-अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोडे उत्पन्न करो॥17॥ उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुष का एक जोडा उत्पन्न किया। वे दानों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञान से सम्पन्न) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे। उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष॥18॥ तत्पश्चात माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन्! विधे! विरिञ्च! तथा धात:! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यादि नामों से पुकारा॥19॥ इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक-एक जोडा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥20॥ महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त , लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया॥21॥ वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा- ये नाम हुए॥22॥ राजन्! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुष को प्रकट किया। उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥23॥उनमें पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा- इन नामों से प्रसिद्ध हुई॥24॥ इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुषरूप को प्राप्त हुई। इस बात को ज्ञाननेत्र वाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते॥25॥ राजन्! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्‍‌नीरूप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी॥26॥ इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया॥27॥ राजन्! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महत्तत्त्‍‌व) आदि कार्यसमूह- पञ्चमहाभूतात् मक समस्त स्थावर-जङ्गमरूप जगत् की उत्पत्ति हुई॥28॥ फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस जगत् का पालन-पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत् का संहार किया॥29॥ महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्‍‌वमयी तथा सब सत्त्‍‌वों की अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं॥30॥ सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता॥31॥
अथ वैकृतिकं रहस्यम् 
ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1॥
योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2॥
दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3॥
स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4॥
खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5॥
एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6॥
सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7॥
श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8॥
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9॥
अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10॥
अक्षमाला च कमलं बाणोऽसि: कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11॥
शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलु:।
अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12॥
सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमियां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13॥
गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्‍‌वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14॥
दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15॥
एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16॥
इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17॥
महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18॥
विरञ्चि: स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19॥
अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20॥
अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21॥
कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22॥
नवास्या: शक्त य: पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23॥
अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:।
अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24॥
महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25॥
महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभु:।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26॥
अघ्र्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:। धू
पैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥
रुधिराक्ते न बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥
तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥
सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥
पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥
वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥
तत: कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥
चरितार्ध तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥
क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रित:।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥
जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हवि:।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥
प्रयत: प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥
एवं य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्। 
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्। 
यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥38॥ अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! पहले जिन सत्त्‍‌वप्रधाना त्रिगुणामयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामों से कही जाती हैं॥1॥ तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णु की योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभ का नाश करने के लिये ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्हीं का नाम महाकाली है॥2॥ उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रंग की हैं अथा तीस नेत्रों की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं॥3॥ भूपाल! उनके दाँत और दाढें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥4॥ वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥5॥ ये महाकाली भगवान् विष्णु की दुस्तर माया हैं। आराधना करने पर ये चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं॥6॥
सम्पूर्ण देवताओं के अङ्गों से जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्ति से युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं॥7॥ उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जङ्घा और पिंडली नीले रंग की हैं। अजेय होने के कारण उनको अपने शौर्य का अभिमान है॥8॥ कटिके आगे का भाग बहुरंगे वस्त्र से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अङ्गराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं॥9॥ यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओं से युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओर के निचले हाथों से लेकर बायीं ओर के निचले हाथों तक में क्रमश: जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥10॥ अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शङ्ख, घण्टा, पाश, शक्ति दण्ड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमण्डलु- इन आयुधों से उनकी भुजाएँ विभूषित हैं। वे कमल के आसन पर विराजमान हैं, सर्वदेवमयी हैं तथा सबकी ईश्वरी हैं। राजन्! जो इन महालक्ष्मी देवी का पूजन करता है, वह सब लोकों तथा देवताओं का भी स्वामी होता है॥11-13॥
जो एकमात्र सत्त्‍‌वगुण के आश्रित हो पार्वतीजी के शरीर से प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्य का संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं॥14॥ पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथों में क्रमश: बाण, मुसल, शूल, चक्र, शङ्ख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं॥15॥ ये सरस्वती देवी, जो निशुम्भ का मर्दन तथा शुम्भासुर का संहार करने वाली हैं, भक्ति पूर्वक पूजित होने पर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं॥16॥ राजन! इस प्रकार तुमसे महाकाली आदि तीनों मूर्तियों के स्वरूप बतलाये, अब जगन्माता महालक्ष्मी की तथा इन महाकाली आदि तीनों मूर्तियों की पृथक्-पृथक् उपासना श्रवण करो॥17॥ जब महालक्ष्मी की पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्य में स्थापित करके उनके दक्षिण और वाम भाग में क्रमश: महाकाली और महासरस्वती का पूजन करना चाहिये और पृष्ठ भाग में तीनों युगल देवताओं की पूजा करनी चाहिये॥18॥ महालक्ष्मी के ठीक पीछे मध्य भाग में सरस्वती के साथ ब्रह्मा का पूजन करे। उनके दक्षिण भाग में गौरी के साथ रुद्र की पूजा करे तथा वामभाग में लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियों के सामने निमनङ्कित तीन देवियों की भी पूजा करनी चाहिये॥19॥ मध्यस्थ महालक्ष्मी के आगे मध्यभाग में अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का पूजन करे। उनके वामभाग में दस मुखों वाली महाकाली का तथा दक्षिणभाग में आठ भुजाओं वाली महासरस्वती का पूजन करे॥20॥ राजन्! जब केवल अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का अथवा दशमुखी काली का अष्टभुजा सरस्वती का पूजन करना हो, तब सब अरिष्टों की शान्ति के लिये इनके दक्षिणभाग में काल की और वामभाग में मृत्यु की भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुर का संहार करने वाली अष्टभुजा देवी की पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियों का और दक्षिण भाग में रुद्र एवं वामभाग में गणेशजी का भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा-ये नौ शक्ति याँ हैं)। नमो देव्यै.. इस स्तोत्र से महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिये॥21-23॥ तथा उनके तीन अवतारों की पूजा के समय उनके चरित्रों में जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हीं का उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओं वाली महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूप से पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य पापों की अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकों की महेश्वरी हैं॥24-25॥ जिसने महिषासुर का अन्त करने वाली महालक्ष्मी की भक्ति पूर्वक आराधना की है, वही संसार का स्वामी है। अत: जगत् को धारण करने वाली भक्त वत्सला भगवती चण्डिका की अवश्य पूजा करनी चाहिये॥26॥ अ‌र्ध्य आदि से, आभूषणों से, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थो से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिञ्चित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है। (राजन्! बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोडकर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमन के योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियों को भक्ति भाव से निवेदन करके देवी की पूजा करनी चाहिये। देवी के सामने बायें भाग में कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुर का पूजन करना चाहिये, जिसने भगवती के साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवी के सामने दक्षिण भाग में उनके वाहन सिंह का पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्म का प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्य से युक्त है। उसी ने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है।
तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित हो देवी की स्तुति करे। फिर हाथ जोडकर तीनों पूर्वोक्त चरित्रों द्वारा भगवती का स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्र से स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्र के पाठ से कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रों में से एक का पाठ न करे। आधे चरित्र का भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्र का पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्ति के बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोडकर जगदम्बा के उद्देश्य से मस्तक पर हाथ जोडे और उनके बारम्बार त्रुटियों या अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना करे। सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और घृत मिली हुई खीर की आहुति दे॥27-34॥ अथवा सप्तशती में जो स्तोत्र आये हैं, उन्हीं के मन्त्रों से चण्डिका के लिये पवित्र हविष्य का हवन करे। हाम के पश्चात एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मी देवी के नाम मन्त्रों को उच्चारण करते हुए पुन: उनकी पूजा करे॥35॥ तत्पश्चात् मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए हाथ जोड विनीत भाव से देवी को प्रणाम करे और अन्त:करण में स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिका देवी का देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हीं में तन्मय हो जाय॥36॥ इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति पूर्वक परमेश्वरी का पूजन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को भोगकर अन्त में देवी का सायुज्य प्राप्त करता है॥37॥ जो भक्त वत्सला चण्डी का प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्यों को जलाकर भस्म कर देती हैं॥38॥ इसलिये राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिका का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उससे तुम्हें सुख मिलेगा॥39॥
अथ मूर्तिरहस्यम् 
ऋषिरुवाच
ॐ नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा। 
स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥1॥
कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा।
देवी कनकवर्णाभा कनकोत्तमभूषणा॥2॥
कमलाङ्कुशपाशाब्जैरलंकृतचतुर्भुजा।
इन्दिरा कमला लक्ष्मी: सा श्री रुक्माम्बुजासना॥3॥
या रक्त दन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ।
तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥4॥
रक्ताम्बरा रक्त वर्णा रक्तसर्वाङ्गभूषणा।
रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥5॥
रक्त तीक्ष्णनखा रक्त दशना रक्त दन्तिका।
पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥6॥
वसुधेव विशाला सा सुमेरुयुगलस्तनी।
दीर्घौ लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥
कर्कशावतिकान्तौ तौ सर्वानन्दपयोनिधी।
भक्तान् सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥
खड्गं पात्रं च मुसलं लाङ्गलं च बिभर्ति सा।
आख्याता रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरीति च॥9॥
अनया व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
इमां य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥10॥
(भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्।)
अधीते य इमं नित्यं रक्त दन्त्या वपु:स्तवम्।
तं सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवाङ्गना॥11॥
शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पलविलोचना।
गम्भीरनाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी॥12॥
सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनी।
मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया॥13॥
पुष्पपल्लवमूलादिफलाढयं शाकसञ्चयम्।
काम्यानन्तरसैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम्॥14॥
कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति बिभ्रती परमेश्वरी।
शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता॥15॥
विशोका दुष्टदमनी शमनी दुरितापदाम्।
उमा गौरी सती चण्डी कालिका सा च पार्वती॥16॥
शाकम्भरीं स्तुवन् ध्यायञ्जपन् सम्पूजयन्नमन्।
अक्षय्यमश्रुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम्॥17॥
भीमापि नीलवर्णा सा दंष्ट्रादशनभासुरा।
विशाललोचना नारी वृत्तपीनपयोधरा॥18॥
चन्द्रहासं च डमरुं शिर: पात्रं च बिभ्रती।
एकावीरा कालरात्रि: सैवोक्ता कामदा स्तुता॥19॥
तजोमण्डलुदुर्धर्षा भ्रामरी चित्रकान्तिभृत्।
चित्रानुलेपना देवी चित्राभरणभूषिता॥20॥
चित्रभ्रमरपाणि: सा महामारीति गीयते।
इत्येता मूर्तयो देव्या या: ख्याता वसुधाधिप॥21॥
जगन्मातुश्चण्डिकाया: कीर्तिता: कामधेनव:।
इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्त्‍‌वया॥22॥
व्याख्यानं दिव्यमूर्तीनामभीष्टफलदायकम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन देवीं जप निरन्तरम्॥23॥
सप्तजन्मार्जितैर्घोरै‌र्ब्रह्महत्यासमैरपि।
पाठमात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥24॥
देव्या ध्यानं मया ख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं महत्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन सर्वकामफलप्रदम्॥25॥
(एतस्यास्त्वं प्रसादेन सर्वमान्यो भविष्यसि।
सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत्।
अतोऽहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।) 
अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली हैं, उनकी यदि भक्ति पूर्वक स्तुति और पूजा की जाय तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं॥1॥ उनके श्रीअङ्गों की कान्ति कनक के समान उत्तम है। वे सुनहरे रंग के सुन्दर वस्त्र धारण करती हैं। उनकी आभा सुवर्ण के तुल्य है तथा वे सुवर्ण के ही उत्तम आभूषण धारण करती हैं॥2॥ उनकी चार भुजाएँ कमल, अङ्कुश, पाश और शङ्ख से सुशोभित हैं। वे इन्दिरा, कमला, लक्ष्मी, श्री तथा रुक्माम्बुजासना (सुवर्णमय कमल के आसन पर विराजमान) आदि नामों से पुकारी जाती हैं॥3॥ निष्पाप नरेश! पहले मैंने रक्त दन्तिका नाम से जिन देवी का परिचय दिया है, अब उनके स्वरूप का वर्णन करूँगा; सुनो। वह सब प्रकार के भयों को दूर करने वाली है॥4॥ वे लाल रंग के वस्त्र धाण करती हैं। उनके शरीर का रंग भी लाल ही है और अङ्गों के समस्त आभूषण भी लाल रंग के हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, शिर के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण के हैं; इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखायी देती हैं। जैसे स्त्री पति के प्रति अनुराग रखती है, उसी प्रकार देवी अपने भक्त पर (माता की भाँति) स्नेह रखते हुए उसकी सेवा करती हैं॥5-6॥ देवी रक्त दन्तिका का आकार वसुधा की भाँति विशाल है। उनके दोनों स्तन सुमेरु पर्वत के समान हैं। वे लंबे, चौडे, अत्यन्त स्थूल एवं बहुत ही मनोहर हैं। कठोर होते हुए भी अत्यन्त कमनीय हैं तथा पूर्ण आनन्द के समुद्र हैं। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले ये दोनों स्तन देवी अपने भक्त कों को पिलाती हैं॥7-8॥ वे अपनी चार भुजाओं में खड्ग, पानपात्र, मुसल और हल धारण करती हैं। ये ही रक्त चामुण्डा और योगेश्वरी देवी कहलाती हैं॥9॥ इनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है। जो इन रक्त दन्तिका देवी का भक्ति पूर्वक पूजन करता है, वह भी चराचर जगत् में व्याप्त होता है॥10॥ (वह यथेष्ट भोगों को भोगकर अन्त में देवी के साथ सायुज्य प्राप्त कर लेता है।) जो प्रतिदिन रक्तदन्तिका देवी के शरीर का यह स्तवन करता है, उसकी वे देवी प्रेमपूर्वक संरक्षणरूप सेवा करती हैं ठीक उसी तरह, जैसे पतिव्रता नारी अपने प्रियतम पति की परिचर्या करती है॥11॥ शाकम्भरी देवी के शरीर की कान्ति नीले रंग की है! उनके नेत्र नील कमल के समान हैं, नाभि नीची है तथा त्रिवली से विभूषित उदर (मध्यभाग) सूक्ष्म है॥12॥ उनके दोनों स्तन अत्यन्त कठोर, सब ओर से बराबर, ऊँचे, गोल, स्थूल तथा परस्पर सटे हुए हैं। वे परमेश्वरी कमल में निवास करने वाली हैं और हाथों में बाणों से भरी मुष्टि, कमल, शाक-समूह तथा प्रकाशमान धनुष धारण करती हैं। वह शाकसमूह अनन्त मनोवाञ्िछत रसों से युक्त तथा क्षुधा, तृषा और मृत्यु के भय को नष्ट करने वाला तथा फूल, पल्लव, मूल आदि एवं फलों से सम्पन्न है। वे ही शाकम्भरी, शताक्षी तथा दुर्गा कही गयी हैं॥13-15॥ वे शोक से रहित, दुष्टों का दमन करने वाली तथा पाप और विपत्ति को शान्त करने वाली हैं। उमा, गौरी, सती, चण्डी, कालिका और पार्वती भी वे ही हैं॥16॥ जो मनुष्य शाकम्भरी देवी की स्तुति, ध्यान, जप, पूजा और वन्दन करता है, वह शीघ्र ही अन्न, पान एवं अमृतरूप अक्षय फल का भागी होता है॥17॥
भीमादेवी का वर्ण भी नील ही है। उनकी दाढें और दाँत चमकते रहते हैं। उनके नेत्र बडे-बडे हैं, स्वरूप स्त्री का है, स्तन गोल-गोल और स्थूल हैं। वे अपने हाथों में चन्द्रहास नामक खड्ग, डमरू, मस्तक और पानपात्र धारण करती हैं। वे ही एकवीरा, कालरात्रि तथा कामदा कहलाती और इन नामों से प्रशंसित होती हैं॥18-19॥
भ्रामरी देवी की कान्ति विचित्र (अनेक रंग की) है। वे अपने तेजोमण्डल के कारण दुर्धर्ष दिखायी देती हैं। उनका अङ्गराग भी अनेक रंग का है तथा वे चित्र-विचित्र आभूषणों से विभूषित हैं॥20॥ चित्रभ्रमरपाणि और महामारी आदि नामों से उनकी महिमा का गान किया जाता है। राजन्! इस प्रकार जगन्माता चण्डिका देवी की ये मूर्तियाँ बतलायी गयी हैं॥21॥ जो कीर्तन करने पर कामधेनु के समान सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करती हैं। यह परम गोपनीय रहस्य है। इसे तुम्हें दूसरे किसी को नहीं बतलाना चाहिए॥22॥ दिव्य मूर्तियों का यह आख्यान मनोवाञ्छित फल देने वाला है, इसलिये पूर्ण प्रयत्‍‌न करके तुम निरन्तर देवी के जप (आराधन) में लगे रहो॥23॥ सप्तशती के मन्त्रों के पाठमात्र से मनुष्य सात जन्मों में उपार्जित ब्रह्महत्यासदृश घोर पातकों एवं समस्त कल्मषों से मुक्त हो जाता है॥ 24॥ इसलिये मैंने पूर्ण प्रयत्‍‌न करके देवी के गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय ध्यान का वर्णन किया है, जो सब प्रकार के मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है॥25॥ (उनके प्रसाद से तुम सर्वमान्य हो जाओगे। देवी सर्वरूपमयी हैं तथा सम्पूर्ण जगत् देवीमय है। अत: मैं उन विश्वरूपा परमेश्वरी को नमस्कार करता हूँ।)
।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।
ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।।
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।।
अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।।
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।।
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रोन्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।।
कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।।
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।।। इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम्।।।। ॐ तत् सत् ॐ ।।!!Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

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