Sunday, 27 September 2015

अनन्त चतुर्दशी का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी

अनन्त चतुर्दशी का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। इस व्रत में अनन्त के रूप में भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा होती है। अनन्त चतुर्दशी के दिन पुरुष दाहिने हाथ में तथा नारियाँ बाँये हाथ में अनन्त धारण करती हैं। अनन्त कपास या रेशम के धागे से बने होते हैं, जो कुंकमी रंग में रंगे जाते हैं तथा इनमें चौदह गाँठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनन्त का निर्माण होता है। यह व्यक्तिगत पूजा है, इसका कोई सामाजिक या धार्मिक उत्सव नहीं होता। 'अग्नि पुराण' में इसका विवरण है। चतुर्दशी को दर्भ से बनी श्रीहरि की प्रतिमा, जो कलश के जल में रखी होती है, की पूजा होती है। व्रती को धान के एक प्रस्थ (प्रसर) आटे से रोटियाँ (पूड़ी) बनानी होती हैं, जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष अर्धांश स्वयं प्रयोग में लाता है।
पौराणिक उल्लेख
अनन्त चतुर्दशी' ...का व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और वहाँ हरि की कथाएँ सुननी चाहिए। हरि से इस प्रकार की प्रार्थना की जाती है-
हे वासुदेव, इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करो तथा उन्हें अनन्त के रूप का ध्यान करने में संलग्न करो, अनन्त रूप वाले तुम्हें नमस्कार।"
इस मन्त्र से हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बाँधकर या लटका कर व्रती अनन्त व्रत करता है तथा प्रसन्न होता है। यदि हरि अनन्त हैं तो 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक हैं। हेमाद्रि में अनन्त व्रत का विवरण विशद रूप से आया है, उसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गयी कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री शीला की गाथा भी आयी है। कृष्ण का कथन है कि 'अनन्त' उनके रूपों का एक रूप है और वे काल हैं, जिसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त व्रत चन्दन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। इस व्रत के विषय में अन्य बातों के लिए। ऐसा आया है कि यदि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है। इस व्रत के उपयुक्त एवं तिथि के विषय में कई मत प्रकाशित हो गये हैं। माधव के अनुसार इस व्रत में मध्याह्न कर्मकाल नहीं है, किन्तु वह तिथि, जो सूर्योदय के समय तीन मुहर्तों तक अवस्थित रहती है, अनन्त व्रत के लिए सर्वोत्तम है। किन्तु निर्णयसिन्धु ने इस मत का खण्डन किया है। आजकल अनन्त चतुर्दशी व्रत किया तो जाता है, किन्तु व्रतियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
व्रत विधि....इस दिन भगवान विष्णु की कथा होती है। इसमें उदय तिथि ली जाती है। पूर्णिमा का सहयोग होने से इसका बल बढ़ जाता है। यदि मध्याह्न तक चतुर्दशी हो तो ज़्यादा अच्छा है। जैसा इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अंत न होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण ब्रह्मा की भक्ति का दिन है। इस दिन भक्तगण लौकिक कार्यकलापों से मन को हटाकर ईश्वर भक्ति में अनुरक्त हो जाते हैं। इस दिन वेद ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बांधा जाता है। इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है। इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर कलश की स्थापना करें। कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनन्त की स्थापना की जाती है। इसके आगे कुंकुम, केसर या हल्दी से रंगकर बनाया हुआ कच्चे डोरे का चौदह गांठों वाला 'अनन्त' भी रखा जाता है।
कुश के अनन्त की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आह्वान तथा ध्यान करके गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात अनन्त देव का ध्यान करके शुद्ध अनन्त को अपनी दाहिनी भुजा पर बांध लें। यह डोरा भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला तथा अनन्त फल देने वाला माना गया है। यह व्रत धन पुत्रादि की कामना से किया जाता है। इस दिन नए डोरे के अनन्त को धारण करके पुराने का त्याग कर देना चाहिए। इस व्रत का पारण ब्राह्मण को दान करके करना चाहिए। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीत मानी गई हैं। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं। भगवान सत्यनारायण के समान ही अनन्त देव भी भगवान विष्णु का ही एक नाम है। यही कारण है कि इस दिन सत्यनारायण का व्रत और कथा का आयोजन प्राय: किया जाता है, जिसमें सत्यनारायण की कथा के साथ-साथ अनन्त देव की कथा भी सुनी जाती है।
कथा,,,एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मण्डप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था। वह यज्ञ मण्डप इतना मनोरम था कि जल व स्थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मण्डप में धोखा खा चुके थे। एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मण्डप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कहकर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण के समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पाण्डवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया। पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे।
श्रीकृष्ण द्वारा कथा वाचन,,,एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दु:ख कहा और दु:ख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- "हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।" इस संदर्भ में श्रीकृष्ण एक कथा सुनाते हुए बोले-
प्राचीन काल में सुमन्त नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसके एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी, जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह उस ब्राह्मण ने कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दु:खी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौडिन्य के पास आ गई।
कौडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दु:खी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले- "हे कौडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दु:खी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे।" कौडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।
अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव।
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥


श्राद्ध का महत्व पितृपक्ष श्राद्ध संस्कार भाद्रपद माह की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक का समय श्राद्ध

श्राद्ध का महत्व पितृपक्ष  श्राद्ध संस्कार  भाद्रपद माह की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक का समय श्राद्ध
भाद्रपद माह की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक का समय श्राद्ध कर्म के रुप में जाना जाता है  इस पितृपक्ष अवधि में पूर्वजों के लिए श्रद्धा पूर्वक किया गया दान तर्पण रुप में किया जाता है. पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है.
हिंदु धर्म मान्यता के अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं. श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है उसे "श्राद्ध" कहते हैं.
श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में वर्णन मिलता है. श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है. पितरों को आहार और अपनी श्रद्धा पहुंचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है. मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है.
शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है. जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है. यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग रुप में होती है. पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है.
अमावस्या का महत्व
पितरों के निमित्त अमावस्या तिथि में श्राद्ध व दान का विशेष महत्व है. सूर्य की सहस्र किरणों में से अमा नामक किरण प्रमुख है जिस के तेज से सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता है. उसी अमावस्या में तिथि विशेष को चंद्र निवास करते हैं. इसी कारण से धर्म कार्यों में अमावस्या को विशेष महत्व दिया जाता है.
पितृगण अमावस्या के दिन वायु रूप में सूर्यास्त तक घर के द्वार पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं. पितृ पूजा करने से मनुष्य आयु ,पुत्र ,यश कीर्ति ,पुष्टि ,बल, सुख व धन धान्य प्राप्त करते हैं.
श्राद्ध संस्कार,,,मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को "पितर" को पितर कहा जाता है. वायु पुराण में लिखा है कि "मेरे पितर जो प्रेतरुप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से वह तृप्त हों. साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चाहे वह चर हो या अचर हो, मेरे द्वारा दिए जल से तृप्त हों".
श्राद्ध के मूल में उपरोक्त श्लोक की भावना छिपी हुई है. ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध करने की परम्परा वैदिक काल के बाद से आरम्भ हुई थी. शास्त्रों में दी विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मंत्रों के साथ दी गई दान-दक्षिणा ही श्राद्ध कहलाता है. जो कार्य पितरों के लिए "श्रद्धा" से किया जाए वह "श्राद्ध" है.
श्राद्ध का कारण
प्राचीन साहित्य के अनुसार सावन माह की पूर्णिमा से ही पितर पृथ्वी पर आ जाते हैं. वह नई आई कुशा की कोंपलों पर विराजमान हो जाते हैं. श्राद्ध अथवा पितृ पक्ष में व्यक्ति जो भी पितरों के नाम से दान तथा भोजन कराते हैं अथवा उनके नाम से जो भी निकालते हैं, उसे पितर सूक्ष्म रुप से ग्रहण करते हैं.
ग्रंथों में तीन पीढि़यों तक श्राद्ध करने का विधान बताया गया है. पुराणों के अनुसार यमराज हर वर्ष श्राद्ध पक्ष में सभी जीवों को मुक्त कर देते हैं. जिससे वह अपने स्वजनों के पास जाकर तर्पण ग्रहण कर सकते हैं.
तीन पूर्वज पिता, दादा तथा परदादा को तीन देवताओं के समान माना जाता है. पिता को वसु के समान माना जाता है. रुद्र देवता को दादा के समान माना जाता है. आदित्य देवता को परदादा के समान माना जाता है. श्राद्ध के समय यही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं.
शास्त्रों के अनुसार यह श्राद्ध के दिन श्राद्ध कराने वाले के शरीर में प्रवेश करते हैं अथवा ऐसा भी माना जाता है कि श्राद्ध के समय यह वहाँ मौजूद रहते हैं और नियमानुसार उचित तरीके से कराए गए श्राद्ध से तृप्त होकर वह अपने वंशजों को सपरिवार सुख तथा समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं. श्राद्ध कर्म में उच्चारित मंत्रों तथा आहुतियों को वह अपने साथ ले जाकर अन्य पितरों तक भी पहुंचाते हैं.
श्राद्ध के हर कर्म में तिल की आवश्यकता होती है. श्राद्ध पक्ष में दान करने वाले को कुछ भी दान करते समय हाथ में काला तिल लेकर दान करना चाहिए.
पितरों के निमित्त गुड़ एवं नमक का दान करना चाहिए. गरूड़ पुराण के अनुसार नमक के दान से यम का भय दूर होता है.
पितरों को धोती एवं दुपट्टा का दान करना उत्तम माना गया है. वस्त्र दान से यमदूतों का भय समाप्त हो जाता है.
पितरों की प्रसन्नता हेतु इन चांदी, चावल, दूध वस्तुओं का दान किया जा सकता है
पितृ दोष से मिलेगी मुक्ति
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चंद्र की पाप ग्रहों जैसे राहु और केतु से युति को पितृ दोष के रूप में व्यक्त किया गया है. इस युति से मनुष्य जीवन भर केवल संघर्ष करता रहता है. मानसिक और भावनात्मक आघात जीवन पर्यंत उसकी परीक्षा लेते रहते हैं. पितृ पक्ष में अधोलोखित मंत्रों से, या किसी एक मंत्र से काला तिल, चावल और कुशा मिश्रित जल से तर्पण देने से घोर पितृ दोष भी शांत हो जाता है.
1. ॐ पितृदोष शमनं हीं ॐ स्वधा 2. ॐ क्रीं क्लीं सर्वपितृभ्यो स्वात्म सिद्धये ॐ फट!! 3. ॐ सर्व पितृ प्रं प्रसन्नो भव ॐ!! 4. ॐ पितृभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम: पितामहेभ्य: स्वाधायिभ्य: स्वधानम प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम: अक्षन्न पितरो मीमदन्त पितरोतीतृपन्त पितर: पितर: शुन्दध्वम ॐ पितृभ्यो नम
कौए को अर्पित भोजन   *ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,
श्राद्ध पक्ष में कौओं को आमंत्रित कर उन्हें श्राद्ध का भोजन खिलाया जाता है. इसका एक कारण यह है कि हिन्दू पुराणों ने कौए को देवपुत्र माना है. एक कथा है कि, इन्द्र के पुत्र जयंत ने ही सबसे पहले कौए का रूप धारण किया था. त्रेता युग की घटना कुछ इस प्रकार है कि, जयंत ने कौऐ का रूप धर कर माता सीता को घायल कर दिया था.
तब भगवान श्रीराम ने तिनके से ब्रह्मास्त्र चलाकर जयंत की आँख को क्षतिगग्रस्त कर दिया था. जयंत ने अपने कृत्य के लिये क्षमा मांगी तब राम ने उसे यह वरदान दिया की कि तुम्हें अर्पित किया गया भोजन पितरों को मिलेगा. बस तभी से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराने की परंपरा चल पड़ी है.


Wednesday, 23 September 2015

गणेश जी के 108 नाम इस प्रकार

गणेश जी के 108 नाम इस प्रकार हैं
1. बालगणपति: सबसे प्रिय बालक
2. भालचन्द्र: जिसके मस्तक पर चंद्रमा हो
https://goo.gl/maps/N9irC7JL1Noar9Kt5  

3. बुद्धिनाथ: बुद्धि के भगवान
4. धूम्रवर्ण: अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक
5. एकाक्षर: एकल अक्षर
6. एकदन्त: एक दांत वाले
7. गजकर्ण: हाथी की तरह आंखें वाला
8. गजानन: हाथी के मुँख वाले भगवान
9. गजनान: हाथी के मुख वाले भगवान
10. गजवक्र: हाथी की सूंड वाला
11. गजवक्त्र: जिसका हाथी की तरह मुँह है
12. गणाध्यक्ष: सभी जणों का मालिक
13. गणपति: सभी गणों के मालिक
14. गौरीसुत: माता गौरी का बेटा
15. लम्बकर्ण: बड़े कान वाले देव
16. लम्बोदर: बड़े पेट वाले
17. महाबल: अत्यधिक बलशाली वाले प्रभु
18. महागणपति: देवातिदेव
19. महेश्वर: सारे ब्रह्मांड के भगवान
20. मंगलमूर्त्ति: सभी शुभ कार्य के देव
21. मूषकवाहन: जिसका सारथी मूषक है
22. निदीश्वरम: धन और निधि के दाता
23. प्रथमेश्वर: सब के बीच प्रथम आने वाला
24. शूपकर्ण: बड़े कान वाले देव
25. शुभम: सभी शुभ कार्यों के प्रभु
26. सिद्धिदाता: इच्छाओं और अवसरों के स्वामी
27. सिद्दिविनायक: सफलता के स्वामी
28. सुरेश्वरम: देवों के देव
29. वक्रतुण्ड: घुमावदार सूंड
30. अखूरथ: जिसका सारथी मूषक है
31. अलम्पता: अनन्त देव
32. अमित: अतुलनीय प्रभु
33. अनन्तचिदरुपम: अनंत और व्यक्ति चेतना
34. अवनीश: पूरे विश्व के प्रभु
35. अविघ्न: बाधाओं को हरने वाले
36. भीम: विशाल
37. भूपति: धरती के मालिक
38. भुवनपति: देवों के देव
39. बुद्धिप्रिय: ज्ञान के दाता
40. बुद्धिविधाता: बुद्धि के मालिक
41. चतुर्भुज: चार भुजाओं वाले
42. देवादेव: सभी भगवान में सर्वोपरी
43. देवांतकनाशकारी: बुराइयों और असुरों के विनाशक
44. देवव्रत: सबकी तपस्या स्वीकार करने वाले
45. देवेन्द्राशिक: सभी देवताओं की रक्षा करने वाले
46. धार्मिक: दान देने वाला
47. दूर्जा: अपराजित देव
48. द्वैमातुर: दो माताओं वाले
49. एकदंष्ट्र: एक दांत वाले
50. ईशानपुत्र: भगवान शिव के बेटे
51. गदाधर: जिसका हथियार गदा है
52. गणाध्यक्षिण: सभी पिंडों के नेता
53. गुणिन: जो सभी गुणों क ज्ञानी
54. हरिद्र: स्वर्ण के रंग वाला
55. हेरम्ब: माँ का प्रिय पुत्र
56. कपिल: पीले भूरे रंग वाला
57. कवीश: कवियों के स्वामी
58. कीर्त्ति: यश के स्वामी
59. कृपाकर: कृपा करने वाले
60. कृष्णपिंगाश: पीली भूरी आंखवाले
61. क्षेमंकरी: माफी प्रदान करने वाला
62. क्षिप्रा: आराधना के योग्य
63. मनोमय: दिल जीतने वाले
64. मृत्युंजय: मौत को हरने वाले
65. मूढ़ाकरम: जिन्में खुशी का वास होता है
66. मुक्तिदायी: शाश्वत आनंद के दाता
67. नादप्रतिष्ठित: जिसे संगीत से प्यार हो
68. नमस्थेतु: सभी बुराइयों और पापों पर विजय प्राप्त करने वाले
69. नन्दन: भगवान शिव का बेटा
70. सिद्धांथ: सफलता और उपलब्धियों की गुरु
71. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाला
72. प्रमोद: आनंद
73. पुरुष: अद्भुत व्यक्तित्व
74. रक्त: लाल रंग के शरीर वाला
75. रुद्रप्रिय: भगवान शिव के चहीते
76. सर्वदेवात्मन: सभी स्वर्गीय प्रसाद के स्वीकार्ता
77. सर्वसिद्धांत: कौशल और बुद्धि के दाता
78. सर्वात्मन: ब्रह्मांड की रक्षा करने वाला
79. ओमकार: ओम के आकार वाला
80. शशिवर्णम: जिसका रंग चंद्रमा को भाता हो
81. शुभगुणकानन: जो सभी गुण के गुरु हैं
82. श्वेता: जो सफेद रंग के रूप में शुद्ध है
83. सिद्धिप्रिय: इच्छापूर्ति वाले
84. स्कन्दपूर्वज: भगवान कार्तिकेय के भाई
85. सुमुख: शुभ मुख वाले
86. स्वरुप: सौंदर्य के प्रेमी
87. तरुण: जिसकी कोई आयु न हो
88. उद्दण्ड: शरारती
89. उमापुत्र: पार्वती के बेटे
90. वरगणपति: अवसरों के स्वामी 

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91. वरप्रद: इच्छाओं और अवसरों के अनुदाता
92. वरदविनायक: सफलता के स्वामी
93. वीरगणपति: वीर प्रभु
94. विद्यावारिधि: बुद्धि की देव
95. विघ्नहर: बाधाओं को दूर करने वाले
96. विघ्नहर्त्ता: बुद्धि की देव
97. विघ्नविनाशन: बाधाओं का अंत करने वाले
98. विघ्नराज: सभी बाधाओं के मालिक
99. विघ्नराजेन्द्र: सभी बाधाओं के भगवान
100. विघ्नविनाशाय: सभी बाधाओं का नाश करने वाला
101. विघ्नेश्वर: सभी बाधाओं के हरने वाले भगवान
102. विकट: अत्यंत विशाल
103. विनायक: सब का भगवान
104. विश्वमुख: ब्रह्मांड के गुरु
105. विश्वराजा: संसार के स्वामी
105. यज्ञकाय: सभी पवित्र और बलि को स्वीकार करने वाला
106. यशस्कर: प्रसिद्धि और भाग्य के स्वामी
107. यशस्विन: सबसे प्यारे और लोकप्रिय देव
108. योगाधिप: ध्यान के प्रभु
गणेश भगवान का जन्म


Thursday, 17 September 2015

जय श्री गणेश श्री गणेश भुजङ्गम् ॥

जय श्री गणेश  श्री गणेश भुजङ्गम् ॥
रणत्क्षुद्रघण्टानिनादाभिरामं
चलत्ताण्डवोद्दण्डवत्पद्मतालम् ।
लसत्तुन्दिलाङ्गोपरिव्यालहारं
गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ १॥

ध्वनिध्वंसवीणालयोल्लासिवक्त्रं
स्फुरच्छुण्डदण्डोल्लसद्बीजपूरम् ।
गलद्दर्पसौगन्ध्यलोलालिमालं
गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ २॥

प्रकाशज्जपारक्तरन्तप्रसून-
प्रवालप्रभातारुणज्योतिरेकम् ।
प्रलम्बोदरं वक्रतुण्डैकदन्तं
गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ ३॥

विचित्रस्फुरद्रत्नमालाकिरीटं
किरीटोल्लसच्चन्द्ररेखाविभूषम् ।
विभूषैकभूशं भवध्वंसहेतुं
गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ ४॥

उदञ्चद्भुजावल्लरीदृश्यमूलो-
च्चलद्भ्रूलताविभ्रमभ्राजदक्षम् ।
मरुत्सुन्दरीचामरैः सेव्यमानं
गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ ५॥

स्फुरन्निष्ठुरालोलपिङ्गाक्षितारं
कृपाकोमलोदारलीलावतारम् ।
कलाबिन्दुगं गीयते योगिवर्यै-
र्गणाधीशमीशानसूनुं तमीडे ॥ ६॥

यमेकाक्षरं निर्मलं निर्विकल्पं
गुणातीतमानन्दमाकारशून्यम् ।
परं परमोङ्कारमान्मायगर्भं ।
वदन्ति प्रगल्भं पुराणं तमीडे ॥ ७॥
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चिदानन्दसान्द्राय शान्ताय तुभ्यं
नमो विश्वकर्त्रे च हर्त्रे च तुभ्यम् ।
नमोऽनन्तलीलाय कैवल्यभासे
नमो विश्वबीज प्रसीदेशसूनो ॥ ८॥

इमं सुस्तवं प्रातरुत्थाय भक्त्या
पठेद्यस्तु मर्त्यो लभेत्सर्वकामान् ।
गणेशप्रसादेन सिध्यन्ति वाचो
गणेशे विभौ दुर्लभं किं प्रसन्ने ॥ ९॥

जय श्री गणेश वक्रतुण्ड गणेश कवचम् श्री गणेशाय नमः

वक्रतुण्ड गणेश कवचम्   श्री गणेशाय नमः ।
मौलिं महेशपुत्रोऽव्याद्भालं पातु विनायकः ।
त्रिनेत्रः पातु मे नेत्रे शूर्पकर्णोऽवतु श्रुती ॥ १॥

हेरम्बो रक्षतु घ्राणं मुखं पातु गजाननः ।
जिह्वां पातु गणेशो मे कण्ठं श्रीकण्ठवल्लभः ॥ २॥

स्कन्धौ महाबलः पातु विघ्नहा पातु मे भुजौ ।
करौ परशुभृत्पातु हृदयं स्कन्दपूर्वजः ॥ ३॥

मध्यं लम्बोदरः पातु नाभिं सिन्दूरभूषितः ।
जघनं पार्वतीपुत्रः सक्थिनी पातु पाशभृत् ॥ ४॥

जानुनी जगतां नाथो जङ्घे मूषकवाहनः ।
पादौ पद्मासनः पातु पादाधो दैत्यदर्पहा ॥ ५॥

एकदन्तोऽग्रतः पातु पृष्ठे पातु गणाधिपः ।
पार्श्वयोर्मोदकाहारो दिग्विदिक्षु च सिद्धिदः ॥ ६॥

व्रजतस्तिष्ठतो वापि जाग्रतः स्वपतोऽश्‍नतः ।
चतुर्थीवल्लभो देवः पातु मे भुक्तिमुक्तिदः ॥ ७॥

इदं पवित्रं स्तोत्रं च चतुर्थ्यां नियतः पठेत् ।
सिन्दूररक्तः कुसुमैर्दूर्वया पूज्य विघ्नपम् ॥ ८॥

राजा राजसुतो राजपत्नी मन्त्री कुलं चलम् ।
तस्यावश्यं भवेद्वश्यं विघ्नराजप्रसादतः ॥ ९॥

समन्त्रयन्त्रं यः स्तोत्रं करे संलिख्य धारयेत् ।
धनधान्यसमृद्धिः स्यात्तस्य नास्त्यत्र संशयः ॥ १०॥

अस्य मन्त्रः ।
ऐं क्लीं ह्रीं वक्रतुण्डाय हुं ।
रसलक्षं सदैकाग्र्यः षडङ्गन्यासपूर्वकम् ।
हुत्वा तदन्ते विधिवदष्टद्रव्यं पयो घृतम् ॥ ११॥

यं यं काममभिध्यायन् कुरुते कर्म किञ्चन ।
तं तं सर्वमवाप्नोति वक्रतुण्डप्रसादतः ॥ १२॥

भृगुप्रणीतं यः स्तोत्रं पठते भुवि मानवः ।
भवेदव्याहतैश्वर्यः स गणेशप्रसादतः ॥ १३॥
*!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !! ॥ इति गणेशरक्षाकरं स्तोत्रं समाप्तम् ॥

जय श्री गणेश मयूरेश्वरस्तोत्रम् श्री गणेशाय नमः

  श्री गणेशाय नमः  मयूरेश्वरस्तोत्रम्   श्री गणेशाय नमः ।
सर्वे उचुः ।  परब्रह्मरूपं चिदानन्दरूपं परेशं सुरेशं गुणाब्धिं गुणेशम् ।
गुणातीतमीशं मयूरेशवन्द्यं गणेशं नताः स्मो नताः स्मो नताः स्मः ॥ १॥

जगद्वन्द्यमेकं पराकारमेकं गुणानां परं कारणं निर्विकल्पम् ।
जगत्पालकं हारकं तारकं तं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ २॥

महादेवसूनुं महादैत्यनाशं महापूरुषं सर्वदा विघ्ननाशम् ।
सदा भक्तपोषं परं ज्ञानकोशं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ ३॥

अनादिं गुणादिं सुरादिं शिवाया महातोषदं सर्वदा सर्ववन्द्यम् ।
सुरार्यन्तकं भुक्तिमुक्तिप्रदं तं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ ४॥

परं मायिनं मायिनामप्यगम्यं मुनिध्येयमाकाशकल्पं जनेशम् ।
असङ्ख्यावतारं निजाज्ञाननाशं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ ५॥

अनेकक्रियाकारकं श्रुत्यगम्यं त्रयीबोधितानेककर्मादिबीजम् ।
क्रियासिद्धिहेतुं सुरेन्द्रादिसेव्यं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ ६॥

महाकालरूपं निमेषादिरूपं कलाकल्परूपं सदागम्यरूपम् ।
जनज्ञानहेतुं नृणां सिद्धिदं तं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ ७॥

महेशादिदेवैः सदा ध्येयपादं सदा रक्षकं तत्पदानां हतारिम् ।
मुदा कामरूपं कृपावारिधिं तं मयूरेशवन्द्यं नताः स्मो नताः स्मः ॥ ८॥

सदा भक्तिं नाथे प्रणयपरमानन्दसुखदो
यतस्त्वं लोकानां परमकरुणामाशु तनुषे ।
षडूर्मीनां वेगं सुरवर विनाशं नय विभो
ततो भक्तिः श्लाघ्या तव भजनतोऽनन्यसुखदात् ॥ ९॥

किमस्माभिः स्तोत्रं सकलसुरतापालक विभो
विधेयं विश्वात्मन्नगणितगुणानामधिपते ।
न सङ्ख्याता भूमिस्तव गुणगणानां त्रिभुवने
न रूपाणां देव प्रकटय कृपां नोऽसुरहते ॥ १०॥

मयूरेशं नमस्कृत्य ततो देवोऽब्रवीच्च तान् ।
य इदं पठते स्तोत्रं स कामान् लभतेऽखिलान् ॥ ११॥

सर्वत्र जयमाप्नोति मानमायुः श्रियं पराम् ।
पुत्रवान् धनसम्पन्नो वश्यतामखिलं नयेत् ॥ १२॥

सहस्रावर्तनात्कारागृहस्थं मोचयेज्जनम् ।
नियुतावर्तनान्मर्त्यो साध्यं यत्साधयेत्क्षणात् ॥ १३॥
'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
इति श्रीगणेशपुराणे उत्तरखण्डे बालचरित्रे मयूरेश्वरस्तोत्रं
सम्पूर्णम् ।

जय श्री गणेश वरदगणेशकवचम् श्री गणेशाय नमः

श्री गणेशाय नमः  वरदगणेशकवचम्   श्री गणेशाय नमः । श्रीभैरव उवाच ।
महादेवि गणेशस्य वरदस्य महात्मनः ।
कवचं ते प्रवक्ष्यामि वज्रपञ्जरकाभिधम् ॥ १॥
अस्य श्रीमहागणपतिवज्रपञ्जरकवचस्य श्रीभैरव ऋषिः ,
गायत्र्यं छन्दः , श्रीमहागणपतिर्देवता , गं बीजं ,
ह्रीं शक्तिः , कुरुकुरु कीलकं , वज्रविद्यादिसिद्ध्यर्थे
महागणपतिवज्रपञ्जरकवचपाठे विनियोगः ।
ध्यानम् । विघ्नेशं विश्ववन्द्यं सुविपुलयशसं लोकरक्षाप्रदक्षं
साक्षात् सर्वापदासु प्रशमनसुमतिं पार्वतीप्राणसूनुम् ।
प्रायः सर्वासुरेन्द्रैः ससुरमुनिगणैः साधकैः पूज्यमानं
कारुण्येनान्तरायामितभयशमनं विघ्नराजं नमामि ॥ २॥
ॐश्रींह्रीङ्गं शिरः पातु महागणपतिः प्रभुः ।
विनायको ललाटं मे विघ्नराजो भ्रुवौ मम ॥ ३॥
पातु नेत्रे गणाध्यक्षो नासिकां मे गजाननः ।
श्रुति मेऽवतु हेरम्बो गण्डौ मोदकाशनः ॥ ४॥
द्वैमातरो मुखं पातु चाधरौ पात्वरिन्दम् ।
दन्तान् ममैकदन्तोऽव्याद् वक्रतुण्डोऽवताद् रसाम् ॥ ५॥
गाङ्गेयो मे गलं पातु स्कन्धौ सिंहासनोऽवतु ।
विघ्नान्तको भुजौ पातु हस्तौ मूषकवाहनः ॥ ६॥
ऊरू ममावतान्नित्यं देवस्त्रिपुरघातनः ।
हृदयं मे कुमारोऽव्याञ्जयन्तः पार्श्वयुग्मकम् ॥ ७॥
प्रद्युम्नो मेऽवतात् पृष्ठं नाभिं शङ्करनन्दनः ।
कटिं नन्दिगणः पातु शिश्नं वीरेश्वरोऽवतु ॥ ८॥
मेढ्रे मेऽवतु सौभाग्यो भृङ्गिरीटी च गुह्यकम् ।
विराटकोऽवतादूरू जानू मे पुष्पदन्तकः ॥ ९॥
जङ्घे मम विकर्तोऽव्याद् गुल्फावन्त्यगणोऽवतु ।
पादौ चित्तगणः पातु पादाधो लोहितोऽवतु ॥ १०॥
पादपृष्ठं सुन्दरोऽव्याद् नूपुराढ्यो वपुर्मम ।
विचारो जठरं पातु भूतानि चोग्ररूपकः ॥ ११॥
शिरसः पादपर्यन्तं वपुः सुप्तगणोऽवतु ।
पादादिमूर्धपर्यन्तं वपुः पातु विनर्तकः ॥ १२॥
विस्मारितं तु यत् स्थानं गणेशस्तत् सदावतु ।
पूर्वे मां ह्रीं करालोऽव्यादाग्रेये विकरालकः ॥ १३॥
दक्षिणे पातु संहारो नैऋते रुरुभैरवः ।
पश्चिमे मां महाकालो वायौ कालाग्निभैरवः ॥ १४॥
उत्तरे मां सितास्युऽव्यादैशान्यामसितात्मकः ।
प्रभाते शतपत्रोऽव्यात् सहस्रारस्तु मध्यमे ॥ १५॥
दन्तमाला दिनान्तेऽव्यान्निशि पात्रं सदावतु ।
कलशो मां निशीथेऽव्यान्निशान्ते परशुस्तथा ॥ १६॥
सर्वत्र सर्वदा पातु शङ्खयुग्मं च मद्वपुः ।
ॐॐ राजकुले हहौं रणभये ह्रींह्रीं कुद्यूतेऽवतात्
श्रींश्रीं शत्रुगृहे शशौं जलभये क्लीङ्क्लीं वनान्तेऽवतु ।
ग्लौङ्ग्लूङ्ग्लैङ्ग्लङ्गुं सत्वभीतिषु महाव्याध्यार्तिषु ग्लौङ्गगौं
नित्यं यक्षपिशाचभूतफणिषु ग्लौङ्गं गणेशोऽवतु ॥ १७॥
इतीदं कवचं गुह्यं सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।
वज्रपञ्जरनामानं गणेशस्य महात्मनः ॥ १८॥
अङ्गभूतं मनुमयं सर्वाचारैकसाधनम् ।
विनानेन न सिद्धिः स्यात् पूजनस्य जपस्य च ॥ १९॥
तस्मात् तु कवचं पुण्यं पठेद्वा धारयेत् सदा ।
तस्य सिद्धिर्महादेवि करस्था पारलौकिकी ॥ २०॥
यंयं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति पाठतः ।
अर्धरात्रे पठेन्नित्यं सर्वाभीष्टफलं लभेत् ॥ २१॥
इति गुह्यं सुकवचं महागणपतेः प्रियम् ।
सर्वसिद्धिमयं दिव्यं गोपयेत् परमेश्वरि ॥ २२॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये महागणपतिकवचं समाप्तम् ॥


जय गणेश सङ्कष्टहरणं गणेशाष्टकम्

 जय गणेश सङ्कष्टहरणं गणेशाष्टकम् ॥  श्री गणेशाय नमः ।
ॐ अस्य श्रीसङ्कष्टहरणस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीमहागणपतिर्देवता,
सङ्कष्टहरणार्थ जपे विनियोगः ।
ॐ ॐ ॐकाररूपं त्र्यहमिति च परं यत्स्वरूपं तुरीयं
त्रैगुण्यातीतनीलं कलयति मनसस्तेज-सिन्दूर-मूर्तिम् ।
योगीन्द्रैर्ब्रह्मरन्ध्रैः सकल-गुणमयं श्रीहरेन्द्रेण सङ्गं
गं गं गं गं गणेशं गजमुखमभितो व्यापकं चिन्तयन्ति ॥ १॥

वं वं वं विघ्नराजं भजति निजभुजे दक्षिणे न्यस्तशुण्डं
क्रं क्रं क्रं क्रोधमुद्रा-दलित-रिपुबलं कल्पवृक्षस्य मूले ।
दं दं दं दन्तमेकं दधति मुनिमुखं कामधेन्वा निषेव्यं
धं धं धं धारयन्तं धनदमतिघियं सिद्धि-बुद्धि-द्वितीयम् ॥ २॥

तुं तुं तुं तुङ्गरूपं गगनपथि गतं व्याप्‍नुवन्तं दिगन्तान्
क्लीं क्लीं क्लीं कारनाथं गलितमदमिलल्लोल-मत्तालिमालम् ।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं कारपिङ्गं सकलमुनिवर-ध्येयमुण्डं च शुण्डं
श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रयन्तं निखिल-निधिकुलं नौमि हेरम्बबिम्बम् ॥ ३॥

लौं लौं लौं कारमाद्यं प्रणवमिव पदं मन्त्रमुक्‍तावलीनां
शुद्धं विघ्नेशबीजं शशिकरसदृशं योगिनां ध्यानगम्यम् ।
डं डं डं डामरूपं दलितभवभयं सूर्यकोटिप्रकाशं
यं यं यं यज्ञनाथं जपति मुनिवरो बाह्यमभ्यन्तरं च ॥ ४॥

हुं हुं हुं हेमवर्णं श्रुति-गणित-गुणं शूर्पकणं कृपालुं
ध्येयं सूर्यस्य बिम्बं ह्युरसि च विलसत् सर्पयज्ञोपवीतम् ।
स्वाहा हुं फट् नमोऽन्तैष्ठ-ठठठ-सहितैः पल्लवैः सेव्यमानं
मन्त्राणां सप्तकोटि-प्रगुणित-महिमाधारमीशं प्रपद्ये ॥ ५॥

पूर्वं पीठं त्रिकोणं तदुपरि-रुचिरं षट्कपत्रं पवित्रं
यस्योर्ध्वं शुद्धरेखा वसुदल कमलं वा स्वतेजश्चतुस्रम् ।
मध्ये हुङ्कार बीजं तदनु भगवतः स्वाङ्गषट्कं षडस्रे
अष्टौ शक्‍तीश्च सिद्धीर्बहुलगणपतिर्विष्टरश्चाऽष्टकं च ॥ ६॥

धर्माद्यष्टौ प्रसिद्धा दशदिशि विदिता वा ध्वजाल्यः कपालं
तस्य क्षेत्रादिनाथं मुनिकुलमखिलं मन्त्रमुद्रामहेशम् ।
एवं यो भक्‍तियुक्‍तो जपति गणपतिं पुष्प-धूपा-ऽक्षताद्यै-
र्नैवेद्यैर्मोदकानां स्तुतियुत-विलसद्-गीतवादित्र-नादैः ॥ ७॥

राजानस्तस्य भृत्या इव युवतिकुलं दासवत् सर्वदास्ते
लक्ष्मीः सर्वाङ्गयुक्‍ता श्रयति च सदनं किङ्कराः सर्वलोकाः ।
पुत्राः पुत्र्यः पवित्रा रणभुवि विजयी द्यूतवादेऽपि वीरो
यस्येशो विघ्नराजो निवसति हृदये भक्‍तिभाग्यस्य रूद्रः ॥ ८॥
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॥ इति सङ्कष्टहरणं गणेशाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

जय गणेश श्री विनायक स्तोत्रम्

 श्री गणेशाय नमः  श्री विनायक स्तोत्रम् ॥
                     
मूषिकवाहन मोदकहस्त चामरकर्ण विलम्बितसूत्र ।
वामनरूप महेश्वरपुत्र विघ्नविनायक पाद नमस्ते ॥

देवदेवसुतं देवं जगद्विघ्नविनायकम् ।
हस्तिरूपं महाकायं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ १॥

वामनं जटिलं कान्तं ह्रस्वग्रीवं महोदरम् ।
धूम्रसिन्दूरयुद्गण्डं विकटं प्रकटोत्कटम् ॥ २॥

एकदन्तं प्रलम्बोष्ठं नागयज्ञोपवीतिनम् ।
त्र्यक्षं गजमुखं कृष्णं सुकृतं रक्तवाससम् ॥ ३॥

दन्तपाणिं च वरदं ब्रह्मण्यं ब्रह्मचारिणम् ।
पुण्यं गणपतिं दिव्यं विघ्नराजं नमाम्यहम् ॥ ४॥

देवं गणपतिं नाथं विश्वस्याग्रे तु गामिनम् ।
देवानामधिकं श्रेष्ठं नायकं सुविनायकम् ॥ ५॥

नमामि भगवं देवं अद्भुतं गणनायकम् ।
वक्रतुण्ड प्रचण्डाय उग्रतुण्डाय ते नमः ॥ ६॥

चण्डाय गुरुचण्डाय चण्डचण्डाय ते नमः ।
मत्तोन्मत्तप्रमत्ताय नित्यमत्ताय ते नमः ॥ ७॥

उमासुतं नमस्यामि गङ्गापुत्राय ते नमः ।
ओङ्काराय वषट्कार स्वाहाकाराय ते नमः ॥ ८॥

मन्त्रमूर्ते महायोगिन् जातवेदे नमो नमः ।
परशुपाशकहस्ताय गजहस्ताय ते नमः ॥ ९॥

मेघाय मेघवर्णाय मेघेश्वर नमो नमः ।
घोराय घोररूपाय घोरघोराय ते नमः ॥ १०॥

पुराणपूर्वपूज्याय पुरुषाय नमो नमः ।
मदोत्कट नमस्तेऽस्तु नमस्ते चण्डविक्रम ॥ ११॥

विनायक नमस्तेऽस्तु नमस्ते भक्तवत्सल ।
भक्तप्रियाय शान्ताय महातेजस्विने नमः ॥ १२॥

यज्ञाय यज्ञहोत्रे च यज्ञेशाय नमो नमः ।
नमस्ते शुक्लभस्माङ्ग शुक्लमालाधराय च ॥ १३॥

मदक्लिन्नकपोलाय गणाधिपतये नमः ।
रक्तपुष्प प्रियाय च रक्तचन्दन भूषित ॥ १४॥

अग्निहोत्राय शान्ताय अपराजय्य ते नमः ।
आखुवाहन देवेश एकदन्ताय ते नमः ॥ १५॥

शूर्पकर्णाय शूराय दीर्घदन्ताय ते नमः ।
विघ्नं हरतु देवेश शिवपुत्रो विनायकः ॥ १६॥

फलश्रुति

जपादस्यैव होमाच्च सन्ध्योपासनसस्तथा ।
विप्रो भवति वेदाढ्यः क्षत्रियो विजयी भवेत् ॥

वैश्यो धनसमृद्धः स्यात् शूद्रः पापैः प्रमुच्यते ।
गर्भिणी जनयेत्पुत्रं कन्या भर्तारमाप्नुयात् ॥

प्रवासी लभते स्थानं बद्धो बन्धात् प्रमुच्यते ।
इष्टसिद्धिमवाप्नोति पुनात्यासत्तमं कुलं ॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
सर्वकामप्रदं पुंसां पठतां श्रुणुतामपि ॥

॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे स्कन्दप्रोक्त विनायकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

जय गणेश श्री सिद्धिविनायक नामावली ॥

 जय गणेश  श्री सिद्धिविनायक नामावली ॥

ॐ विनायकाय नमः ।
विघ्नराजाय नमः ।
गौरीपुत्राय नमः ।
गणेश्वराय नमः ।
स्कन्दाग्रजाय नमः ।
अव्ययाय नमः ।
पूताय नमः ।
दक्षाध्यक्ष्याय नमः ।
द्विजप्रियाय नमः ।
अग्निगर्भच्छिदे नमः ।
इन्द्रश्रीप्रदाय नमः ।
वाणीबलप्रदाय नमः ।
सर्वसिद्धिप्रदायकाय नमः ।
शर्वतनयाय नमः ।
गौरीतनूजाय नमः ।
शर्वरीप्रियाय नमः ।
सर्वात्मकाय नमः ।
सृष्टिकर्त्रे नमः ।
देवानीकार्चिताय नमः ।
शिवाय नमः ।
शुद्धाय नमः ।
बुद्धिप्रियाय नमः ।
शान्ताय नमः ।
ब्रह्मचारिणे नमः ।
गजाननाय नमः ।
द्वैमातुराय नमः ।
मुनिस्तुत्याय नमः ।
भक्त विघ्न विनाशनाय नमः ।
एकदन्ताय नमः ।
चतुर्बाहवे नमः ।
शक्तिसंयुताय नमः ।
चतुराय नमः ।
लम्बोदराय नमः ।
शूर्पकर्णाय नमः ।
हेरम्बाय नमः ।
ब्रह्मवित्तमाय नमः ।
कालाय नमः ।
ग्रहपतये नमः ।
कामिने नमः ।
सोमसूर्याग्निलोचनाय नमः ।
पाशाङ्कुशधराय नमः ।
छन्दाय नमः ।
गुणातीताय नमः ।
निरञ्जनाय नमः ।
अकल्मषाय नमः ।
स्वयंसिद्धार्चितपदाय नमः ।
बीजापूरकराय नमः ।
अव्यक्ताय नमः ।
गदिने नमः ।
वरदाय नमः ।
शाश्वताय नमः ।
कृतिने नमः ।
विद्वत्प्रियाय नमः ।
वीतभयाय नमः ।
चक्रिणे नमः ।
इक्षुचापधृते नमः ।
अब्जोत्पलकराय नमः ।
श्रीधाय नमः ।
श्रीहेतवे नमः ।
स्तुतिहर्षताय नमः ।
कलाद्भृते नमः ।
जटिने नमः ।
चन्द्रचूडाय नमः ।
अमरेश्वराय नमः ।
नागयज्ञोपवीतिने नमः ।
श्रीकान्ताय नमः ।
रामार्चितपदाय नमः ।
वृतिने नमः ।
स्थूलकान्ताय नमः ।
त्रयीकर्त्रे नमः ।
सङ्घोषप्रियाय नमः ।
पुरुषोत्तमाय नमः ।
स्थूलतुण्डाय नमः ।
अग्रजन्याय नमः ।
ग्रामण्ये नमः ।
गणपाय नमः ।
स्थिराय नमः ।
वृद्धिदाय नमः ।
सुभगाय नमः ।
शूराय नमः ।
वागीशाय नमः ।
सिद्धिदाय नमः ।
दूर्वाबिल्वप्रियाय नमः ।
कान्ताय नमः ।
पापहारिणे नमः ।
कृतागमाय नमः ।
समाहिताय नमः ।
वक्रतुण्डाय नमः ।
श्रीप्रदाय नमः ।
सौम्याय नमः ।
भक्ताकांक्षितदाय नमः ।
अच्युताय नमः ।
केवलाय नमः ।
सिद्धाय नमः ।
सच्चिदानन्दविग्रहाय नमः ।
ज्ञानिने नमः ।
मायायुक्ताय नमः ।
दन्ताय नमः ।
ब्रह्मिष्ठाय नमः ।
भयावर्चिताय नमः ।
प्रमत्तदैत्यभयदाय नमः ।
व्यक्तमूर्तये नमः ।
अमूर्तये नमः ।
पार्वतीशङ्करोत्सङ्गखेलनोत्सवलालनाय नमः ।
समस्तजगदाधाराय नमः ।
वरमूषकवाहनाय नमः ।
हृष्टस्तुताय नमः ।
प्रसन्नात्मने नमः ।
सर्वसिद्धिप्रदायकाय नमः ।*ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone 
॥ इति श्रीसिद्धिविनायकाष्टोत्तरशतनामावलिः ॥


जय गणेश श्री महा गणपति नवार्ण वेदपादस्तवः

 जय गणेश  श्री महा गणपति नवार्ण वेदपादस्तवः
श्रीकण्ठतनय श्रीश श्रीकर श्रीदलार्चित ।
श्रीविनायक सर्वेश श्रियं वासय मे कुले ॥ १॥

गजानन गणाधीश द्विजराज-विभूषित ।
भजे त्वां सच्चिदानन्द ब्रह्मणां ब्रह्मणास्पते ॥ २॥

णषाष्ठ-वाच्य-नाशाय रोगाट-विकुठारिणे ।
घृणा-पालित-लोकाय वनानां पतये नमः ॥ ३॥

धियं प्रयच्छते तुभ्यमीप्सितार्थ-प्रदायिने ।
दीप्त-भूषण-भूषाय दिशां च पतये नमः ॥ ४॥

पञ्च-ब्रह्म-स्वरूपाय पञ्च-पातक-हारिणे ।
पञ्च-तत्त्वात्मने तुभ्यं पशूनां पतये नमः ॥ ५॥

तटित्कोटि-प्रतीकाश-तनवे विश्व-साक्षिणे ।
तपस्वि-ध्यायिने तुभ्यं सेनानिभ्यश्च वो नमः ॥ ६॥

ये भजन्त्यक्षरं त्वां ते प्राप्नुवन्त्यक्षरात्मताम्।
नैकरूपाय महते मुष्णतां पतये नमः ॥ ७॥

नगजा-वर-पुत्राय सुर-राजार्चिताय च ।
सुगुणाय नमस्तुभ्यं सुमृडीकाय मीढुषे ॥ ८॥

महा-पातक-सङ्घात-तम-हारण-भयापह ।
त्वदीय-कृपया देव सर्वानव यजामहे ॥ ९॥

नवार्ण-रत्न-निगम-पाद-सम्पुटितां स्तुतिम् ।
भक्त्या पठन्ति ये तेषां तुष्टो भव गणाधिप ॥ १०॥

॥ इति श्रीमहागणपति-नवार्ण-वेदपाद-स्तवः समप्तः॥

जय गणेश श्री गणेश स्तोत्रम्

जय गणेश  श्री गणेश स्तोत्रम् 

ॐ कारमाद्यं प्रवदन्ति सन्तो वाचः श्रुतिनामपि ये गृणन्ति ।
गजाननं देवगणानताङ्घ्रिं भजेऽहमर्द्धेन्दुकृतावतंसम् ॥ १॥

पादारविन्दार्चनतत्पराणां संसारदावानलभङ्गदक्षम् ।
निरन्तरं निर्गतदानतोयैस्तं नौमि विघ्नेश्वरमम्बुजाभम् ॥ २॥

कृताङ्गरागं नवकुङ्कुमेन, मत्तालिमालां मदपङ्कलग्नाम् ।
निवारयन्तं निजकर्णतालैः, को विस्मरेत् पुत्रमनङ्गशत्रोः ॥ ३॥

शम्भोर्जटाजूटनिवासिगङ्गाजलं समानीय कराम्बुजेन ।
लीलाभिराराच्छिवमर्चयन्तं, गजाननं भक्तियुता भजन्ति ॥ ४॥

कुमारभुक्तौ पुनरात्महेतोः, पयोधरौ पर्वतराजपुत्र्याः । 
प्रक्षालयन्तं करशीकरेण, मौग्ध्येन तं नागमुखं भजामि ॥ ५॥

त्वया समुद्धृत्य गजास्यहस्तं, शीकराः पुष्कररन्ध्रमुक्ताः । 
व्योमाङ्गने ते विचरन्ति ताराः, कालात्मना मौक्तिकतुल्यभासः ॥ ६॥

क्रीडारते वारिनिधौ गजास्ये, वेलामतिक्रामति वारिपूरे ।
कल्पावसानं परिचिन्त्य देवाः, कैलासनाथं श्रुतिभिः स्तुवन्ति ॥ ७॥

नागानने नागकृतोत्तरीये, क्रीडारते देवकुमारसङ्घैः । 
त्वयि क्षणं कालगतिं विहाय, तौ प्रापतुः कन्दुकतामिनेन्दु ॥ ८॥

मदोल्लसत्पञ्चमुखैरजस्रमध्यापयन्तं सकलागमार्थान् ।
देवान् ऋषीन् भक्तजनैकमित्रं, हेरम्बमर्कारुणमाश्रयामि ॥ ९॥

पादाम्बुजाभ्यामतिकोमलाभ्यां, कृतार्थयन्तं कृपया धरित्रीम् ।
अकारणं कारणमाप्तवाचां, तन्नागवक्त्रं न जहाति चेतः ॥ १०॥

येनार्पितं सत्यवतीसुताय, पुराणमालिख्य विषाणकोट्या ।
तं चन्द्रमौलेस्तनयं तपोभिराराध्यमानन्दघनं भजामि ॥ ११॥

पदं श्रुतीनामपदं स्तुतीनां, लीलावतारं परमात्ममूर्तेः ।
नागात्मको वा पुरुषात्मको वेत्यभेद्यमाद्यं भज विघ्नराजम् ॥ १२॥

पाशाङ्कुशौ भग्नरदं त्वभीष्टं, करैर्दधानं कररन्ध्रमुक्तैः ।
मुक्ताफलाभैः पृथुशीकरौघैः, सिञ्चन्तमङ्गं शिवयोर्भजामि ॥ १३॥

अनेकमेकं गजमेकदन्तं, चैतन्यरूपं जगदादिबीजम् ।
ब्रह्मेति यं ब्रह्मविदो वदन्ति, तं शम्भुसूनुं सततं भजामि ॥ १४॥

अङ्के स्थिताया निजवल्लभाया, मुखाम्बुजालोकनलोलनेत्रम् ।
स्मेराननाब्जं मदवैभवेन, रुद्धं भजे विश्वविमोहनं तम् ॥ १५॥

ये पूर्वमाराध्य गजानन! त्वां, सर्वाणि शास्त्राणि पठन्ति तेषाम् ।
त्वत्तो न चान्यत् प्रतिपाद्यमस्ति, तदस्ति चेत् सत्यमसत्यकल्पम् ॥ १६॥

हिरण्यवर्णं जगदीशितारं, कविं पुराणं रविमण्डलस्थम् ।
गजाननं यं प्रवदन्ति सन्तस्तत् कालयोगैस्तमहं प्रपद्ये ॥ १७॥

वेदान्त गीतं पुरुषं भजेऽहमात्मानमानन्दघनं हृदिस्थम् ।
गजाननं यन्महसा जनानां, विघ्नान्धकारो विलयं प्रयाति ॥ १८॥

शम्भोः समालोक्य जटाकलापे, शशाङ्कखण्डं निजपुष्करेण ।
स्वभग्नदन्तं प्रविचिन्त्य मौग्ध्यादाकर्ष्टुकामः श्रियमातनोतु ॥ १९॥

विघ्नार्गलानां विनिपातनार्थं, यं नारिकेलैः कदलीफलाद्यैः ।
प्रभावयन्तो मदवारणास्यं, प्रभुं सदाऽभीष्टमहं भजे तम् ॥ २०॥
 फलश्रुति ॥  यज्ञैरनेकैर्बहुभिस्तपोभिराराध्यमाद्यं गजराजवक्त्रम् ।
स्तुत्याऽनया ये विधिना स्तुवन्ति, ते सर्वलक्ष्मीनिधयो भवन्ति ॥ १॥
 इति श्रीगणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥.Astrologer Gyanchand Bundiwal। nagpur . 0 8275555557

जय गणेश गणेश चालीसा आरती श्री गणेश जी की

जय गणेश   गणेश चालीसा ,,,,आरती श्री गणेश जी की

जय गणपति सद्गुणसदन कविवर बदन कृपाल । विघ्न हरण मङ्गल करण जय जय गिरिजालाल ॥ जय जय जय गणपति राजू । मङ्गल भरण करण शुभ काजू ॥ जय गजबदन सदन सुखदाता । विश्व विनायक बुद्धि विधाता ॥ वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन । तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन ॥ राजित मणि मुक्तन उर माला । स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला ॥ पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । मोदक भोग सुगन्धित फूलं ॥ सुन्दर पीताम्बर तन साजित । चरण पादुका मुनि मन राजित ॥ धनि शिवसुवन षडानन भ्राता । गौरी ललन विश्व-विधाता ॥ ऋद्धि सिद्धि तव चँवर सुधारे । मूषक वाहन सोहत द्वारे ॥ कहौं जन्म शुभ कथा तुम्हारी । अति शुचि पावन मङ्गल कारी ॥ एक समय गिरिराज कुमारी । पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी ॥ भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । तब पहुँच्यो तुम धरि द्विज रूपा ॥ अतिथि जानि कै गौरी सुखारी । बहु विधि सेवा करी तुम्हारी ॥ अति प्रसन्न ह्वै तुम वर दीन्हा । मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ॥ मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला । बिना गर्भ धारण यहि काला ॥ गणनायक गुण ज्ञान निधाना । पूजित प्रथम रूप भगवाना ॥ अस कहि अन्तर्ध्यान रूप ह्वै । पलना पर बालक स्वरूप ह्वै ॥ बनि शिशु रुदन जबहि तुम ठाना । लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना ॥ सकल मगन सुख मङ्गल गावहिं । नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं ॥ शम्भु उमा बहुदान लुटावहिं । सुर मुनि जन सुत देखन आवहिं ॥ लखि अति आनन्द मङ्गल साजा । देखन भी आये शनि राजा ॥ निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । बालक देखन चाहत नाहीं ॥ गिरजा कछु मन भेद बढ़ायो । उत्सव मोर न शनि तुहि भायो ॥ कहन लगे शनि मन सकुचाई । का करिहौ शिशु मोहि दिखाई ॥ नहिं विश्वास उमा कर भयऊ । शनि सों बालक देखन कह्यऊ ॥ पड़तहिं शनि दृग कोण प्रकाशा । बालक शिर इड़ि गयो आकाशा ॥ गिरजा गिरीं विकल ह्वै धरणी । सो दुख दशा गयो नहिं वरणी ॥ हाहाकार मच्यो कैलाशा । शनि कीन्ह्यों लखि सुत को नाशा ॥ तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधाये । काटि चक्र सो गज शिर लाये ॥ बालक के धड़ ऊपर धारयो । प्राण मन्त्र पढ़ शङ्कर डारयो ॥ नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हे ॥ बुद्धि परीक्शा जब शिव कीन्हा । पृथ्वी की प्रदक्शिणा लीन्हा ॥ चले षडानन भरमि भुलाई । रची बैठ तुम बुद्धि उपाई ॥ चरण मातु-पितु के धर लीन्हें । तिनके सात प्रदक्शिण कीन्हें ॥ धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे । नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे ॥ तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई । शेष सहस मुख सकै न गाई ॥ मैं मति हीन मलीन दुखारी । करहुँ कौन बिधि विनय तुम्हारी ॥ भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । लख प्रयाग ककरा दुर्वासा ॥ अब प्रभु दया दीन पर कीजै । अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै ॥ दोहा श्री गणेश यह चालीसा पाठ करें धर ध्यान । नित नव मङ्गल गृह बसै लहे जगत सन्मान ॥ सम्वत् अपन सहस्र दश ऋषि पञ्चमी दिनेश । पूरण चालीसा भयो मङ्गल मूर्ति गणेश ॥ ॥ आरती श्री गणेश जी की ॥ जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पारवती पिता महादेवा ॥ एकदन्त दयावन्त चारभुजाधारी । माथे पर तिलक सोहे मूसे की सवारी ॥ पान चढ़े फल चढ़े और चढ़े मेवा । लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा ॥ अन्धे को आँख देत कोढ़िन को काया ।बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया ॥ सूर श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा । जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ॥

जय गणेश श्री गणेश बाह्यपूजा ॥ श्री गणेशाय नमः ॥

जय गणेश   श्री गणेश बाह्यपूजा ॥  श्री गणेशाय नमः ॥
ऐल उवाच ॥  बाह्यपूजां वद विभो! गृत्समदप्रकीर्तिताम् ।
येन मार्गेण विघ्नेशं भजिष्यसि निरन्तरम् ॥ १॥
गार्ग्य उवाच ॥  आदौ च मानसीं पूजां कृत्वा गृत्समदो मुनिः ।
बाह्यां चकार विधिवत्तां श्रृणुष्व सुखप्रदाम् ॥ २॥

हृदि ध्यात्त्वा गणेशानं परिवारादिसंयुतम् ।
नासिकारन्ध्रमार्गेण तं बाह्याङ्ग चकार ह ॥ ३॥

आदौ वैदिकमन्त्रं स गणानां त्वेति सम्पठन् ।
पश्चाच्छ्लोक समुच्चार्य पूजयामास विघ्नपम् ॥ ४॥
गृत्समद उवाच ॥   चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं च गजास्यं रक्‍त वर्णकम् ।
पाशाङ्कुशादि-संयुक्‍तं मायायुक्‍त प्रचिन्तयेत् ॥ ५॥

आगच्छ ब्रह्मणां नाथ सुरा-ऽसुर-वरार्चित ।
सिद्धि-बुद्ध्यादि-संयुक्‍त! भक्‍तिग्रहणलालस!॥ ६॥

कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं तवागमनतः प्रभो ।
विघ्नेशाऽनुगृहीतोऽहं सफलो मे भवोऽभवत् ॥ ७॥

रत्नसिंहासनं स्वामिन् गृहाण गणनायक ।
तत्रोपविश्य विघ्नेश रक्ष भक्‍तान् विशेषतः ॥ ८॥

सुवासिताभिरद्भिश्च पादप्रक्षालनं प्रभो!।
शीतोष्णाम्भः करोमि ते गृहाण पाद्यमुत्तमम् ॥ ९॥

सर्वतीर्थाहृतं तोयं सुवासितं सुवस्तुभिः ।
आचमनं च तेनैव कुरूष्व गणनायक ॥ १०॥

रत्न-प्रवाल-मुक्‍ताद्यैरनर्ध्यैः संस्कृतं प्रभो ।
अर्ध्यं गृहाण हेरम्ब द्विरदानन तोषकम् ॥ ११॥

दधि-मधु-घृतैर्युक्‍तं मधुपर्कं गजानन ।
गृहाण भावसंयुक्‍तं मया दत्तं नमोऽस्तु ते ॥ १२॥

पाद्ये च मधुपर्के च स्नाने वस्त्रोपधारणे ।
उपवीते भोजनान्ते पुनराचमनं कुरू ॥ १३॥

चम्पकाद्यैर्गणाध्यक्ष वासितं तैलमुत्तमम् ।
अभ्यङ्गं कुरू सर्वेश! लम्बोदर! नमोऽस्तु ते ॥ १४॥

यक्ष-कर्दमकाद्यैश्च विघ्नेश भक्‍तवत्सल!।
उद्वर्तनं कुरुष्व त्वं मया दत्तैर्महाप्रभो ॥ १५॥

नानातीर्थजलैर्ढुण्ढे! सुखोष्णभावरूपकैः ।
कमण्डलूद्भवैः स्नानं कुरू ढुण्ढे समर्पितैः ॥ १६॥

कामधेनु समद्भूतं पयः परमपावनम् ।
तेन स्नानं कुरुष्व त्वं हेरम्ब परमार्थवित् ॥ १७॥

पञ्चामृतानां मध्ये तु जलैः स्नानं पुनः पुनः ।
कुरु त्वं सर्वतीर्थेभ्यो गङ्गादिभ्यः समाहृतैः ॥ १८॥

दधि धेनुपयोद्भूतं मलापहरणं परम् ।
गृहाण स्नानकार्यार्थं विनायक दयानिधे ॥ १९॥

धेनुदुग्धोद्भवं ढुण्ढे घृतं सन्तोषकारकम् ।
महामलापघातार्थं तेन स्नानं कुरू प्रभो ॥ २०॥

सारघं सस्कृतं पूर्णं मधु मधुरसोद्भवम् ।
गृहाण स्नानकार्यार्थं विनायक नमोऽस्तु ते ॥ २१॥

इक्षुदण्डसमुद्भूतां शर्करां मलनाशिनीम् ।
गृहाण गणनाथ त्वं तया स्नानं समाचर ॥ २२॥

यक्षकर्दमकाद्यैश्च स्नानं कुरू गणेश्वर ।
अन्त्यं मलहरं शुद्धं सर्वसौगन्ध्यकारकम् ॥ २३॥

ततो गन्धाक्षतादींश्च दूर्वाङ्कुरान् गजानन ।
समर्पयामि स्वल्पांस्त्वं गृहाण परमेश्वर ॥ २४॥

ब्रह्मणस्पत्यसूक्‍तैश्च ह्येकविंशतिवारकैः ।
अभिषेकं करोमि ते गृहाण द्विरदानन ॥ २५॥

तत आचमनं देव सुवासितजलेन च ।
कुरुष्व गणनाथ त्वं सर्वतीर्थभवेन वै ॥ २६॥

वस्त्रयुग्मं गृहाण त्वमनर्घ्यं रक्‍तवर्णकम् ।
लोकलज्जाहरं चैव विघ्ननाथ नमोऽस्तु ते ॥ २७॥

उत्तरीयं सुचित्रं वै नभस्ताराङ्कितं यथा ।
गृहाण सर्वसिद्धीश मया दत्तं सुभक्‍तितः ॥ २८॥

उपवीतं गणाध्यक्ष गृहाण च ततः परम् ।
त्रैगुण्यमयरूपं तु प्रणवग्रन्थिबन्धनम् ॥ २९॥

ततः सिन्दूरकं देव गृहाण गणनायक ।
अङ्गलेपनभावार्थं सदानन्दविवर्धनम् ॥ ३०॥

नानाभूषणकानि त्वमङ्गेषु विविधेषु च ।
भासुरस्वर्णरत्नैश्च निर्मितानि गृहाण भो ॥ ३१॥

अष्टगन्ध-समायुक्‍तं गन्धं रक्‍तं गजानन ।
द्वादशाङ्गेषु ते ढुण्ढे लेपयामि सुचित्रवत् ॥ ३२॥

रक्‍तचन्दनसंयुक्‍तानथ वा कुङ्कुमैर्युतान् ।
अक्षतान् विघ्नराज त्वं गृहाण भालमण्डले ॥ ३३॥

चम्पकादि-सुवृक्षेभ्यः सम्भूतानि गजानन ।
पुष्पाणि शमी-मन्दार-दूर्वादीनि गृहाण च ॥ ३४॥

दशाङ्ग गुग्गुलं धूपं सर्वसौरभकारकम् ।
गृहाण त्वं मया दत्तं विनायक महोदर ॥ ३५॥

नानाजातिभवं दीप गृहाण गणनायक ।
अज्ञानमलजं दोषं हरन्तं ज्योतिरूपकम् ॥ ३६॥

चतुर्विधान्नसम्पन्नं मधुरं लड्डुकादिकम् ।
नैवेद्यं ते मया दत्त भोजनं कुरू विघ्नप ॥ ३७॥

सुवासितं गृहाणेदं जलं तीर्थ समाहृतम् ।
भुक्‍तिमध्ये च पानार्थं देवदेवेश ते नमः ॥ ३८॥

भोजनान्ते करोद्वर्तं यक्षकर्दमकेन च ।
कुरुष्व त्वं गणाध्यक्ष पिब तोयं सुवासितम् ॥ ३९॥

दाडिमं खर्जुरं द्राक्षां रम्भादीनि फलानि वै ।
गृहाण देवदेवेश नानामधुरकाणि तु ॥ ४०॥

अष्टाङ्ग देव ताम्बूलं गृहाण मुखवासनम् ।
असकृद्विघ्नराज त्वं मया दत्तं विशेषतः ॥ ४१॥

दक्षिणां काञ्चनाद्यां तु नानाधातुसमुद्भवाम् ।
रत्नाद्यैः संयुतां ढुण्ढे गृहाण सकलप्रिय ॥ ४२॥

राजोपचारकाद्यानि गृहाण गणनायक ।
दानानि तु विचित्राणि मया दत्तानि विघ्नप ॥ ४३॥

तत आभरणं तेऽहमर्पयामि विधानतः ।
विविधैरूपचारैश्च तेन तुष्टो भव प्रभो ॥ ४४॥

ततो दूर्वाङ्कुरान् ढुण्ढे एकविंशतिसङ्ख्यकान् ।
गृहाण कार्यसिद्ध्यर्थं भक्‍तवात्सल्यकारणात् ॥ ४५॥

नानादीपसमायुक्‍तं नीराजनं गजानन ।
गृहाण भावसंयुक्‍तं सर्वाज्ञानादिनाशन ॥ ४६॥

गणानां त्वेति मन्त्रस्य जपं साहस्रकं परम् ।
गृहाण गणनाथ त्वं सर्वसिद्धिप्रदो भव ॥ ४७॥

आर्तिक्यं च सुकर्पूरं नानादीपमयं प्रभो ।
गृहाण ज्योतिषां नाथ तथा नीराजयाम्यहम् ॥ ४८॥

पादयोस्ते तु चत्वारि नाभौ द्वे वदने प्रभो ।
एकं तु सप्तवारं वै सर्वाङ्गेषु निरञ्जनम् ॥ ४९॥

चतुर्वेदभवैर्मन्त्रैर्गाणपत्यैर्गजानन ।
मन्त्रितानि गृहाण त्वं पुष्पपत्राणि विघ्नप ॥ ५०॥

पञ्चप्रकारकैः स्तोत्रैर्गाणपत्यैर्गणाधिप ।
स्तौमि त्वां तेन सन्तुष्टो भव भक्‍तिप्रदायक ॥ ५१॥

एकविंशतिसङ्ख्यं वा त्रिसङ्ख्यं वा गजानन ।
प्रादक्षिण्यं गृहाण त्वं ब्रह्मन् ब्रह्मेशभावन ॥ ५२॥

साष्टाङ्गा प्रणतिं नाथ एकविंशतिसम्मिताम् ।
हेरम्ब सर्वपूज्य त्वं गृहाण तु मया कृताम् ॥ ५३॥

न्यूनातिरिक्‍तभावार्थं किञ्चिद् दुर्वाङ्कुरान् प्रभो ।
समर्पयामि तेन त्वं साङ्गां पूजां कुरूष्व ताम् ॥ ५४॥

त्वया दत्तं स्वहस्तेन निर्माल्यं चिन्तयाम्यहम् ।
शिखायां धारयाम्येव सदा सर्वप्रदं च तत् ॥ ५५॥

अपराधानसङ्ख्यातान् क्षमस्व गणनायक ।
भक्‍तं कुरु च मां ढुण्ढे तव पादप्रियं सदा ॥ ५६॥

त्वं माता त्वं पिता मे वै सुहृत्सम्बन्धिकादयः ।
त्वमेव कुलदेवश्च सर्वं त्वं मे न संशयः ॥ ५७॥

जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिभिर्देह-वाङ्ग्मनसैः कृतम् ।
सांसर्गिकेण यत्कर्म गणेशाय समर्पये ॥ ५८॥

ब्राह्यं नानाविधं पापं महोग्रं तल्लयं व्रजेत् ।
गणेशपादतीर्थस्य मस्तके धारणात् किल ॥ ५९॥

पादोदकं गणेशस्य पीतं मर्त्येण तत्क्षणात् ।
सर्वान्तर्गतजं पापं नश्यति गणनातिगम् ॥ ६०॥

गणेशूच्छिष्टगन्धं वै द्वादशाङ्गेषु चर्चयेत् ।
गणेशतुल्यरूपः स दर्शनात् सर्वपापहा ॥ ६१॥

यदि गणेशपूजादौ गन्धभस्मादिकं चरेत् ।
अथवोच्छिष्टगन्धं तु नो चेत्तत्र विधिं चरेत् ॥ ६२॥

द्वादशाङ्गेषु विघ्नेशं नाममन्त्रेण चाऽर्चयेत् ।
तेन सोऽपि गणेशेन समो भवति भूतले ॥ ६३॥

आदौ गणेश्वरं मूर्ध्नि ललाटे विघ्ननायकम् ।
दक्षिणे कर्णमूले तु वक्रतुण्डं समर्चयेत् ॥ ६४॥

वामे कर्णस्य मूले वै चैकदन्तं समर्चयेत् ।
कण्ठे लम्बोदरं देवं हृदि चिन्तामणिं तथा ॥ ६५॥

बाहौ दक्षिणके चैव हेरम्बं वामबाहुके ।
विकटं नाभिदेशे तु विघ्ननाथं समर्चयेत् ॥ ६६॥

कुक्षौ दक्षिणगायां तु मयूरेशं समर्चयेत् ।
वामकुक्षौ गजास्यं वै पृष्ठे स्वानन्दवासिनम् ॥ ६७॥

सर्वाङ्गलेपनं शस्तं चित्रितं चाऽष्टगन्धकैः ।
गाणेशानां विशेषेण सर्वभद्रस्य कारणात् ॥ ६८॥

ततोच्छिष्टं तु नैवेद्यं गणेशस्य भुनज्म्यहम् ।
भुक्‍ति-मुक्‍तिप्रदं पूर्णं नानापापनिकृन्तनम् ॥ ६९॥

गणेशस्मरणेनैव करोमि कालखण्डनम् ।
गाणपत्यैश्च संवासः सदाऽस्तु मे गजानन ॥ ७०॥

गार्ग्य उवाच ॥    एवं गृत्समदश्चैव चकार बाह्यपूजनम् ।
त्रिकालेषु महायोगी सदा भक्‍तिसमन्वितः ॥ ७१॥

तथा कुरु महीपाल गाणपत्यो भविष्यसि ।
तथा गृत्समदः साक्षात्तथा त्वमपि निश्चितम् ॥ ७२॥
*ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone 
इति श्रीमदान्त्ये मुद्गलपुराणे गणेशबाह्यपूजा समाप्ता ॥

जय गणेश श्री गणेश कवचम् ॥

जय गणेश   श्री गणेश कवचम् ॥

         श्रीगणेशाय नमः ॥     गौर्युवाच ।एषोऽतिचपलो दैत्यान्बाल्येऽपि नाशयत्यहो ।
अग्रे किं कर्म कर्तेति न जाने मुनिसत्तम ॥ १॥
दैत्या नानाविधा दुष्टाः साधुदेवद्रुहः खलाः ।
अतोऽस्य कण्ठे किञ्चित्त्वं रक्षार्थं बद्धुमर्हसि ॥ २॥
         मुनिरुवाच ।
ध्यायेत्सिंहहतं विनायकममुं दिग्बाहुमाद्ये युगे
त्रेतायां तु मयूरवाहनममुं षड्बाहुकं सिद्धिदम् ।
द्वापारे तु गजाननं युगभुजं रक्ताङ्गरागं विभुम्
तुर्ये तु द्विभुजं सिताङ्गरुचिरं सर्वार्थदं सर्वदा ॥ ३॥

विनायकः शिखां पातु परमात्मा परात्परः ।
अतिसुन्दरकायस्तु मस्तकं सुमहोत्कटः ॥ ४॥

ललाटं कश्यपः पातु भृयुगं तु महोदरः ।
नयने भालचन्द्रस्तु गजास्यस्त्वोष्ठपल्लवौ ॥ ५॥

जिह्वां पातु गणक्रीडश्चिबुकं गिरिजासुतः ।
वाचं विनायकः पातु दन्तान् रक्षतु विघ्नहा ॥ ६॥

श्रवणौ पाशपाणिस्तु नासिकां चिन्तितार्थदः ।
गणेशस्तु मुखं कण्ठं पातु देवो गणञ्जयः ॥ ७॥

स्कन्धौ पातु गजस्कन्धः स्तनौ विघ्नविनाशनः ।
हृदयं गणनाथस्तु हेरम्बो जठरं महान् ॥ ८॥

धराधरः पातु पार्श्वौ पृष्ठं विघ्नहरः शुभः ।
लिङ्गं गुह्यं सदा पातु वक्रतुण्डो महाबलः ॥ ९॥

गणक्रीडो जानुसङ्घे ऊरु मङ्गलमूर्तिमान् ।
एकदन्तो महाबुद्धिः पादौ गुल्फौ सदाऽवतु ॥ १०॥

क्षिप्रप्रसादनो बाहू पाणी आशाप्रपूरकः ।
अङ्गुलीश्च नखान्पातु पद्महस्तोऽरिनाशनः ॥ ११॥

सर्वाङ्गानि मयूरेशो विश्वव्यापी सदाऽवतु ।
अनुक्तमपि यत्स्थानं धूम्रकेतुः सदाऽवतु ॥ १२॥

आमोदस्त्वग्रतः पातु प्रमोदः पृष्ठतोऽवतु ।
प्राच्यां रक्षतु बुद्धीश आग्नेयां सिद्धिदायकः ॥१३॥

दक्षिणास्यामुमापुत्रो नैरृत्यां तु गणेश्वरः ।
प्रतीच्यां विघ्नहर्ताऽव्याद्वायव्यां गजकर्णकः ॥ १४॥

कौबेर्यां निधिपः पायादीशान्यामीशनन्दनः ।
दिवाऽव्यादेकदन्तस्तु रात्रौ सन्ध्यासु विघ्नहृत् ॥ १५॥

राक्षसासुरवेतालग्रहभूतपिशाचतः ।
पाशाङ्कुशधरः पातु रजःसत्त्वतमः स्मृतिः ॥ १६॥

ज्ञानं धर्मं च लक्ष्मीं च लज्जां कीर्ति तथा कुलम् ।
वपुर्धनं च धान्यं च गृहान्दारान्सुतान्सखीन् ॥ १७॥

सर्वायुधधरः पौत्रान् मयूरेशोऽवतात्सदा ।
कपिलोऽजादिकं पातु गजाश्वान्विकटोऽवतु ॥ १८॥

भूर्जपत्रे लिखित्वेदं यः कण्ठे धारयेत्सुधीः ।
न भयं जायते तस्य  यक्षरक्षःपिशाचतः ॥ १८॥

त्रिसन्ध्यं जपते यस्तु वज्रसारतनुर्भवेत् ।
यात्राकाले पठेद्यस्तु निर्विघ्नेन फलं लभेत् ॥ २०॥

युद्धकाले पठेद्यस्तु विजयं चाप्नुयाद्द्रुतम् ।
मारणोच्चाटकाकर्षस्तम्भमोहनकर्मणि ॥ २१॥

सप्तवारं जपेदेतद्दिनानामेकविंशतिम् ।
तत्तत्फलवाप्नोति साधको नात्रसंशयः ॥२२॥

एकविंशतिवारं च पठेत्तावद्दिनानि यः ।
कारागृहगतं सद्योराज्ञा वध्यं च मोचयेत् ॥ २३॥

राजदर्शनवेलायां पठेदेतत्त्रिवारतः ।
स राजसं वशं नीत्वा प्रकृतीश्च सभां जयेत् ॥ २४॥

इदं गणेशकवचं कश्यपेन समीरितम् ।
मुद्गलाय च ते नाथ माण्डव्याय महर्षये ॥ २५॥

मह्यं स प्राह कृपया कवचं सर्वसिद्धिदम् ।
न देयं भक्तिहीनाय देयं श्रद्धावते शुभम् ॥ २६॥

यस्यानेन कृता रक्षा न बाधास्य भवेत्क्वचित् ।
राक्षसासुरवेतालदैत्यदानवसम्भवा ॥ २७॥

इति श्रीगणेशपुराणे उत्तरखण्डे बालक्रीडायां
षडशीतितमेऽध्याये गणेशकवचं सम्पूर्णम् ॥

जय गणेश गणेश जी को दुर्वा प्रिय है

जय गणेश     गणेश जी को दुर्वा प्रिय है इसलिए हम सुबह उठ कर ताज़ी हवा में घास पर चलते है और दुर्वा को स्पर्श करते हुए उन्हें तोड़ते है और फिर अर्पित करते है. इस सबका हमारे चित्त , मन , बुद्धि , संस्कार और शरीर पर बहुत सकारात्मक असर होता है.
दूब के आचमन से देवता, दूब आच्‍छादित मैदानों पर भ्रमण से मनुष्य और भोजन के रूप में पशु इसको पाकर प्रसन्न रहते हैं।
पौराणिक संदर्भों से ज्ञान होता है कि क्षीर सागर से उत्पन्न होने के कारण भगवान विष्णु को यह अत्यंत प्रिय रही और क्षीर सागर से जन्म लेने के कारण लक्ष्मीजी की छोटी बहन कहलाई।
विष्च्यवादि सर्व देवानां, दुर्वे त्वं प्रीतिदायदा।
क्षीरसागर सम्भूते, वंशवृद्धिकारी भव।।
अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई।
श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया। जब उनके पेट में जलन होने लगी, तब ऋषि कश्यप ने २१ दुर्वा की गाँठ उन्हें खिलाई और इससे उनकी पेट की ज्वाला शांत हुई।
गौरीपूजन, गणेश पूजन में दुर्वा दल से आचमन अ‍त्यंत शुभ माना गया है।

।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
बलवर्धक दुर्वा कालनेमि राक्षस का प्राकृतिक भोजन थी। इसके सेवन से वह अति बलशाली हो गया था।



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जय गणेश गौरीनंदन लंबोदर श्री गजानन, गणेश

जय गणेश      गौरीनंदन लंबोदर श्री गजानन, गणेश
गजानन म्हारे घर आओ, विनायक म्हारे घर आओ,
संग ल्याओ शुभ और लाभ गजानन रिद्ध-सिद्ध न ल्याओ.. गजानन म्हारे घर आओ...
थे आओ प्रभु आओ गजानन ब्रह्मा जी न ल्याओ, विनायक ब्रह्मा जी न ल्याओ,
वेदाँ क संग गायत्री माँ, वेदाँ क संग गायत्री माँ, सरस्वती न ल्याओ ! गजानन म्हारे घर आओ..
थे आओ प्रभु आओ गजानन, विष्णु जी न ल्याओ, विनायक विष्णु जी न ल्याओ,
कहियो चक्र सुदर्शन संग म लक्ष्मी जी न ल्याओ...गजानन म्हारे घर आओ
थे आओ प्रभु आओ गजानन शिव जी न ल्याओ, विनायक शिव जी न ल्याओ,
डमरू और त्रिशूल क सागे, गौरां न ल्याओ...गजानन म्हारे घर आओ.

जय गणेश श्री गणेशाय नमः वन्दौं श्री गणपति पद

 जय गणेश      श्री गणेशाय नमः वन्दौं श्री गणपति पद, विघ्नविनाशन हार।पवित्रता की शक्ति जो, सब जग मूलाधार॥१॥हे परम ‍‍ग्यान दाता, सकल विश्व आधार।छ्मा करें वर दें, विघ्नों से करें उबार॥२॥हे जग वंदन हे जग नायक!हे गौरी नंदन! हे वर दायक॥३॥हे विघ्नविनाशन ! हे गणनायक !हे भवभय मोचन ! हे जन सुख दायक ! ॥४॥दया करो हे प्रभु ! दे सबको निर्मल ‍‍ग्यान।हे सहज संत ! दें हम को यह वरदान॥५॥मंगलमय हो गीत हमारे करें जन कल्याण।मातृप्रेम में निरत रहें पावें पद निर्वाण॥६॥

जय गणेश श्री गणेश गायत्री

जय गणेश     श्री गणेश गायत्री
लम्बोदराय विद्महे महोदराय धीमहि ।तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
महोत्कटाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
तत्कराटाय विद्महे हस्तिमुखाय धीमहि ।तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
तत्पुरूषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥


Tuesday, 15 September 2015

हरतालिका तीज ,,,पौराणिक कथा

हरतालिका तीज ,,,पौराणिक कथा
हरितालिका तीज की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार शंकर-पार्वती कैलाश पर्वत पर बैठे थे। तब पार्वती ने शंकर जी से पूछा कि सभी व्रतों में श्रेष्ठ व्रत कौन-सा है और मैं आपको पत्नी के रूप में कैसे मिली। तब शंकर जी ने कहा कि जिस प्रकार नक्षत्रों में चंद्रमा, ग्रहों में सूर्य, चार वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु, नदियों में गंगा श्रेष्ठ है। उसी प्रकार व्रतों में हरितालिका व्रत श्रेष्ठ है। पार्वती ने पूर्व जन्म में हिमालय पर्वत पर हरितालिका व्रत किया था।
यह व्रत भाद्रपद महीने की तीज को किया जाता है। पार्वतीजी ने एक बार सखियों द्वारा हरित यानी अपर्हत होकर एक कन्दरा में इस व्रत का पालन किया था, इसलिए कालांतर में इसका नाम हरितालिका प्रसिद्ध हुआ। पार्वतीजी ने ६४ वर्षों तक बेलपत्री खाकर तपस्या की थी। देवी पार्वती ने यह व्रत घोर जंगल में बेलपत्री और फूलों का मंडप बनाकर किया था, इसलिए तीज की रात्रि में बेलपत्री और फूलों का फुलेहरा बांधा जाता है।
हिमालय पर्वत पर सखियां पार्वती को लेकर गईं और वहां पर पार्वती ने सखियों के साथ हरितालिका का व्रत किया। इस व्रत से भगवान शंकर प्रसन्न हुए और पति के रूप में प्राप्त हुए, तभी से सखियां श्रेष्ठ पति प्राप्त होने के लिए निर्जल रहकर हरितालिका व्रत करती हैं।
सुहागिन महिलाओं के साथ कुंवारी कन्याओं के लिए भी यह दिन बेहद शुभ होता है। इस दिन सुहागिनों द्वारा पति की दीर्घायु, सुखद वैवाहिक जीवन, संपन्नता और पुत्र प्राप्ति की कामना की जाती है, वहीं कन्याएं सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए यह व्रत रखती हैं। यह व्रत संसार के सभी क्लेश, कलह और पापों से मुक्ति दिलाता है।
यह व्रत पति के लिए किया जाता है इसलिए आज भी महिलाएं इस दिन पूरे सोलह श्रृंगार के साथ तैयार होकर पूजा में हिस्सा लेती हैं। साल भर होने वाले अन्य व्रतों की तुलना में तीजा का व्रत सबसे कठिन माना जाता है। दरअसल पूरे दिन बिना खाना-पानी के व्रत रखने के पीछे कुछ मान्यताएं चली आ रही हैं, जिन्हें आज भी उपवास रखने वाली वयोवृद्ध महिलाएं पूरी शिद्दत से मानती हैं।
ऐसा कहा जाता है कि उपवास रखने वाली जो स्त्री इस दिन मीठा खाती हैं वह अगले जन्म में चींटी बनती है। फल खाने वाली वानरी, सोने वाली अजगर की योनी प्राप्त करती है। जो दूध का सेवन करती है तो अगले जन्म में वह सांपनी बनती है। बदलते समय के साथ-साथ इसमें कई बहुत तेजी से परिवर्तन आया है। तीज के दिन कई घरों में गुजिया, खखरिया, पपड़ी और भी ढेर सारे पकवान बनते हैं।

 

गणेश चतुर्थी ,,,,चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए

गणेश चतुर्थी ,,,,चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए,,,गणेश चतुर्थी के दिन भगवान विनायक का जन्मोत्सव शुरू हो जाएगा। यद्यपि चंद्रमा उनके पिता शिव के मस्तक पर विराजमान हैं, किंतु गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए ,,शास्त्रीय मान्यता है कि इस दिन चंद्रदर्शन से मनुष्य को निश्चय ही मिथ्या कलंक का सामना करना पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार भाद्र शुक्ल चतुर्थी के दिन श्रीकृष्ण ने चंद्रमा का दर्शन कर लिया।,,,फलस्वरूप उन पर भी मणि चुराने का कलंक लगा। ज्योतिषाचार्यों का मानना है कि इस दिन किसी भी सूरत में चंद्रमा का दर्शन करने से बचना चाहिए। शास्त्रों में इसे कलंक चतुर्थी भी कहा गया है,,,चंद्रदर्शन देता मिथ्या कलंक
जब श्री गणेश का जन्म हुआ, तब उनके गज बदन को देख कर चंद्रमा ने हंसी उड़ाई। क्रोध में गणेश जी ने चंद्रमा को शाप दे दिया कि उस दिन से जो भी व्यक्ति चंद्रमा का दर्शन करेगा, उसे कलंक भोगने पड़ेंगे।
चंद्रमा के क्षमा याचना करने पर गणपति ने अपने शाप की अवधि घटाकर केवल अपने जन्मदिवस के लिए कर दी। फलस्वरूप यदि गलती से चंद्रमा का दर्शन गणेश चतुर्थी के दिन हो जाए तो गणेश सहस्त्रनाम का पाठ कर दोष निवारण करना चाहिए।,,,,गणपति की बेडोल काया देख कर चंद्रमा उन पर हंसे थे, इसलिए श्रीगणेश ने उन्हें श्रापित कर दिया था।,,,गणपति के श्राप के कारण चतुर्थी का चंद्रमा दर्शनीय होने के बावजूद दर्शनीय नहीं है। गणेश ने कहा था कि इस दिन जो भी तुम्हारा दर्शन करेगा, उसे कोई न कोई कलंक भुगतना पडे़गा। इस दिन यदि चंद्रदर्शन हो जाए, तो चांदी का चंद्रमा दान करना चाहिए।
 द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने चतुर्थी का चांद देख लिया तो उन पर स्यमन्तक मणि की चोरी का झूठा आरोप लगा था।
तुलसीदासजी ने भी रामचरित मानस में बताया है, 'पर नारी पर लीलार गौसांई, तजहूं चौथ के चंद्र की नांई।' गणेश पुराण में बताया है कि केवल भाद्रपद शुक्लपक्ष विनायकी गणेश चतुर्थी का चंद्रदर्शन नहीं करना चाहिए। वर्ष भर की अन्य चतुर्थीयों की पूजा चंद्रदर्शन से ही पूर्ण होती है।
गणेशजी ने चंद्रमा को दिया था श्राप,,,,,एक बार गणेशजी कहीं जा रहे थे तो गजमुख व लम्बोदर देखकर चंद्रमा ने उनका मजाक उड़ाया था। तभी गणेशजी ने चंद्रमा को श्राप दिया कि आज से जो भी तुम्हे देखेगा, उस पर मिथ्या ''कलंक"" लगेगा।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
यदि अनजाने में चंद्रमा का दर्शन हो जाए, तो इस दोष की शान्ति हेतु श्रीमद् भागवत जी के दशमस्कन्ध के 57 वें अध्याय को पढ़कर स्यमन्तक मणि की कथा सुने।
इसके अलावा इस श्लोक का पाठ भी कर सकते हैं -
सिह: प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हत:।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्मेषस्यमन्तक: !!

वराह जयंती,, भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया

वराह जयंती,,भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया
वराह अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से तृतीय अवतार हैं जो भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया को अवतरित हुए
वराह अवतार की कथा,,,,हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। ,,,,,
ब्रह्माजी का वरदान
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो।तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।'Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.
हिरण्याक्ष और वराहावतार,,,, वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे। हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके हृदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा

हरतालिका तीज भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया की कथा व महत्व

हरतालिका तीज  भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया की कथा व महत्व
इस व्रत से जुड़ी एक कथा भी है जो इस प्रकार है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत की कथा भगवान शंकर ने पार्वती को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के लिए कही थी।
पार्वती अपने पूर्व जन्म में राजा दक्ष की पुत्र सती थी। इस जन्म में भी वे भगवान शंकर की प्रिय पत्नी थीं। एक बार सती के पिता दक्ष ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया लेकिन उसमें द्वेषतावश भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। जब यह बात सती को पता चली तो उन्होंने भगवान शंकर से यज्ञ में चलने को कहा लेकिन आमंत्रित किए बिना भगवान शंकर ने जाने से इंकार कर दिया। तब सती स्वयं यज्ञ में शामिल होने चली गईं। वहां उन्होंने अपने पति शिव का अपमान होने के कारण यज्ञ की अग्नि में देह त्याग दी।
अगले जन्म में सती का जन्म हिमालय राजा और उनकी पत्नी मैना के यहां हुआ। बाल्यावस्था में ही पार्वती भगवान शंकर की आराधना करने लगी और उन्हें पति रूप में पाने के लिए घोर तप करने लगीं। यह देखकर उनके पिता हिमालय बहुत दु:खी हुए। हिमालय ने पार्वती का विवाह भगवान विष्णु से करना चाहा लेकिन पार्वती भगवान शंकर से विवाह करना चाहती थी। पार्वती ने यह बात अपनी सखी को बताई। वह सखी पार्वती को एक घने जंगल में ले गई।
पार्वती ने जंगल में मिट्टी का शिवलिंग बनाकर कठोर तप किया जिससे भगवान शंकर प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर पार्वती से वरदान मांगने को कहा। पार्वती ने भगवान शंकर से अपनी धर्मपत्नी बनाने का वरदान मांगा जिसे भगवान शंकर ने स्वीकार किया। इस तरह माता पार्वती को भगवान शंकर पति के रूप में प्राप्त हुए।
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.

Saturday, 12 September 2015

कर्जा मुक्ति के उपाय ,,आर्थिक तंगी उपाय

 कर्जा मुक्ति के उपाय ,,आर्थिक तंगी उपाय
कभी-कभी मज़बूरी वश या अपनी आवश्यकताओं के
कारण लोगो को कर्जा लेना ही पड़ता है। कर्ज लेने
वाले व्यक्ति को सामने वाले की बहुत सी सही और
गलत मनमानी शर्तों को भी मानना पड़ता है।
आजकल तो हर छोटा बड़ा आदमी कहीं न कहीं से
मकान, गाड़ी,गृह उपोयोगी वस्तुओं,शिक्षा,
व्यापार आदि के लिए कर्ज लेता है ।कई बार गलत
समय पर कर्ज लेने के कारण या किसी भी अन्य
कारण से कर्ज लेने के बाद उसे लौटाना व्यक्ति को
भारी हो जाता है वह लाख चाहकर भी कर्ज समय
पर नहीं चुका पाता है उस पर कर्ज लगातार बहुत
अधिक बड़ता ही जाता है और कई बार तो उसकी
पूरी जिंदगी कर्ज चुकाते-चुकाते समाप्त हो जाती
है।
वेसे व्यक्ति को यथा संभव कर्जा लेने से बचना
चाहिए। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार कर्ज लेने व
देने संबंधी कुछ आसान से उपाय बता रहे है इन पर अमल
करने पर निश्चित ही आपका कर्ज, बिलकुल समय से
सुविधानुसार आपके सिर से उतर जाएगा।
कर्जा मुक्ति मन्त्र:
“ॐ ऋण-मुक्तेश्वर महादेवाय नमः”
“ॐ मंगलमूर्तये नमः”
“ॐ गं ऋणहर्तायै नमः”
इनमे से किसी भी एक मन्त्र के नित्य कम से कम एक
माला के जप से व्यक्ति को अति शीघ्र कर्जे से
मुक्ति मिलती है ।
किसी के सिर पर कर्जा है तो एक सफेद कपड़ा ले
लिया और पाँच फूल गुलाब के ले लिए पहले एक फुल
हाथ में लिया और गायत्री मंत्र बोलना है :-
ॐ भू र्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो न: प्रचोदयात् |
अब इस फूल को कपड़े पर रख दिया इसी प्रकार ऐसे
ही पाँचो फुल गायत्री मंत्र जपते हुये कपडे पर रख
दिये और कपड़े को गठान लगाईं और प्रार्थना करना
है कि मेरे सिर पर जो भार है - हे भगवान, हे
भागीरथी गंगा !! वो भार भी बह जाये, दूर हो
जाये, नष्ट हो जाये ऐसा करके जो कपड़ा बाँधा है
फूल रखकर बहते जल में उसे प्रवाहित कर दे |
एक और कर्ज से मुक्ति हेतु उपाय
जब भी शुक्ल पक्ष हो किसी भी मास का, शुक्ल
पक्ष के प्रथम मंगलवार को शिवलिंग पर दूध व जल के
बाद मसूर की दाल अर्पण करते हुये ये मंत्र बोले :-
"ॐ ऋणमुक्तेश्वर महादेवाय नम: " तो इसे ऋण, कर्जे से
मुक्ति मिलती है |
गुरूवार के पूजन से स्थायी लक्ष्मी :
हर गुरुवार को तुलसी के पौधे में शुद्ध कच्चा दूध गाय
का थोडा-सा ही डाले तो, उस घर में लक्ष्मी
स्थायी होती है और गुरूवार को व्रत उपवास करके गुरु
की पूजा करने वाले के दिल में गुरु की भक्ति स्थायी
हो जाती है | तथा तुलसी की पूजा करने वाले के घर
में लक्ष्मी स्थायी हो जायेगी |
आर्थिक परेशानी से बचने हेतु :
हर महीने में शिवरात्रि (मासिक शिवरात्रि - कृष्ण
पक्ष की चतुर्दशी) को आती है | तो उस दिन
जिसको घर में आर्थिक कष्ट रहते है वो शाम के समय
या संध्या के समय जप-तप करें, दीप-दान शिवमंदिर में
कर दें और रात को जब १२ बज जायें तो थोड़ी देर
जाग कर जप और एक पाठ हनुमान चालीसा का करें
| तो आर्थिक परेशानी दूर हो जायेगी |
वर्ष में एक महाशिवरात्रि आती है और हर महीने में
एक मासिक शिवरात्रि आती है। उस दिन शाम को
बराबर सूर्यास्त हो रहा हो उस समय एक दिया पर
पाँच लंबी बत्तियाँ अलग-अलग उस एक में हो
शिवलिंग के आगे जला के रखना | प्रार्थना कर देना,
बैठ के जप करना | इससे व्यक्ति के सिर पे कर्जा हो
तो जलदी उतरता है, आर्थिक परेशानियाँ दूर होती
है |
वार्षिक महाशिवरात्रि :
इस दिन तो सुबह से सूर्योदय से लेकर अगले दिन के
सूर्योदय तक पानी भी न पिये | हर महाशिवरात्रि
को अगर कोई करे भाग्य की रेखा ही बदल सकती है
| ये करना ही चाहिये 15 से लेकर 45 साल के उम्र के
लोगों को |
त्रयोदशी को मंगलवार उसे भोम प्रदोष योग कहते है
....उस दिन नमक, मिर्च नहीं खाना चाहिये, उससे
जल्दी फायदा होता है | मंगलदेव ऋणहर्ता देव हैं। उस
दिन संध्या के समय यदि भगवान भोलेनाथ का पूजन
करें तो भोलेनाथ की, गुरु की कृपा से हम जल्दी ही
कर्ज से मुक्त हो सकते हैं। इस दैवी सहायता के साथ
थोड़ा स्वयं भी पुरुषार्थ करें। पूजा करते समय यह मंत्र
बोलें –
" मृत्युंजयमहादेव त्राहिमां शरणागतम्।
जन्ममृत्युजराव्याधिपीड़ितः कर्मबन्धनः।।"
कुछ बातो का ध्यान भी रक्खे :-
पूर्णिमा व मंगलवार के दिन उधार दें और बुधवार को
कर्ज लें।
कभी भूलकर भी मंगलवार को कर्ज न लें एवं लिए हुए
कर्ज की प्रथम किश्त मंगलवार से देना शुरू करें। इससे
कर्ज शीघ्र उतर जाता है।
कर्ज मुक्ति के लिए ऋणमोचन मंगल स्तोत्र का पाठ
करें |
कर्जे से मुक्ति पाने के लिए लाल मसूर की दाल का
दान दें।
अपने घर के ईशान कोण को सदैव स्वच्छ व साफ रखें।
ऋणहर्ता गणेश स्तोत्र का शुक्लपक्ष के बुधवार से
नित्य पाठ करें।
बुधवार को सवा पाव मूंग उबालकर घी-शक्कर
मिलाकर गाय को खिलाने से शीघ्र कर्ज से मुक्ति
मिलती है|
सरसों का तेल मिट्टी के दीये में भरकर, फिर मिट्टी
के दीये का ढक्कन लगाकर किसी नदी या तालाब
के किनारे शनिवार के दिन सूर्यास्त के समय जमीन
में गाड़ देने से कर्ज मुक्त हो सकते हैं।
घर की चौखट पर अभिमंत्रित काले घोड़े की नाल
शनिवार के दिन लगाएं।
5 गुलाब के फूल, 1 चाँदी का पत्ता, थोडे से चावल,
गुड़ लें। किसी सफेद कपड़े में 21 बार गायत्री मन्त्र
का जप करते हुए बांध कर जल में प्रवाहित कर दें। ऐसा
7 सोमवार को करें।
सर्व-सिद्धि-बीसा-यंत्र धारण करने से सफलता
मिलती है।
मंगलवार को शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर मसूर
की दाल “ॐ ऋण-मुक्तेश्वर महादेवाय नमः”मंत्र
बोलते हुए चढ़ाएं।
हनुमानजी के चरणों में मंगलवार व शनिवार के दिन
तेल-सिंदूर चढ़ाएं और माथे पर सिंदूर का तिलक
लगाएं।हनुमान चालीसा या बजरंगबाण का पाठ करें|
घर अथवा कार्यालय मे गाय के आगे खड़े होकर वंशी
बजाते हुए भगवान श्री कृष्ण का चित्र लगाने से
कर्जा नहीं चडता और दिए गए धन की डूबने की
सम्भावना भी कम रहती है |
यदि व्यक्ति अपने घर के मंदिर में माँ लक्ष्मी की
पूजा के साथ 21 हक़ीक पत्थरों की भी पूजा करें
फिर उन्हें अपने घर में कहीं पर भी जमीन में गाड़ दे
और ईश्वर से कर्जे से मुक्ति दिलाने के लिए प्रार्थना
करें तो उसे शीघ्र ही कर्जे से छुटकारा मिल जायेगा

कर्जे से मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति लाल
वस्त्र पहनें या लाल रूमाल साथ रखें। भोजन में गुड़ का
उपयोग करें।
बुधवार को स्नान पूजा के बाद व्यक्ति सर्वप्रथम
गाय को हरा चारा खिलाये उसके बाद ही खुद कुछ
ग्रहण करें तो उसे शीघ्र ही कर्जे से छुटकारा मिल
जाता है।*ज्योतिष और रत्न परामर्श 08275555557,,ज्ञानचंद बूंदीवाल,,,Gems For Everyone 
कर्जा लेने वाला व्यक्ति यदि अपनी तिजोरी में
स्फुटिक श्रीयंत्र के साथ साथ मंगल पिरामिड की
स्थापना करें और नित्य धूप दीप दिखाएँ तो उसे
शीघ्र ही ऋण से मुक्ति मिलती है ।

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