ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! अब पापों को हरने वाली पुण्य और मुक्ति देने वाली एकादशी का माहात्म्य सुनिए। पृथ्वी पर गंगा की महत्ता और समुद्रों तथा तीर्थों का प्रभाव तभी तक है जब तक कि कार्तिक की देव प्रबोधिनी एकादशी तिथि नहीं आती। मनुष्य को जो फल एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञों से मिलता है वही प्रबोधिनी एकादशी से मिलता है। नारदजी कहने लगे कि हे पिता! एक समय भोजन करने, रात्रि को भोजन करने तथा सारे दिन उपवास करने से क्या फल मिलता है सो विस्तार से बताइए।
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र। एक बार भोजन करने से एक जन्म और रात्रि को भोजन करने से दो जन्म तथा पूरा दिन उपवास करने से सात जन्मों के पाप नाश होते हैं। जो वस्तु त्रिलोकी में न मिल सके और दिखे भी नहीं वह हरि प्रबोधिनी एकादशी से प्राप्त हो सकती है। मेरु और मंदराचल के समान भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किए हुए पाप समूह क्षणभर में भस्म हो जाते हैं।
जैसे रुई के बड़े ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिंगारी पलभर में भस्म कर देती है। विधिपूर्वक थोड़ा-सा पुण्य कर्म बहुत फल देता है परंतु विधि रहित अधिक किया जाए तो भी उसका फल कुछ नहीं मिलता। संध्या न करने वाले, नास्तिक, वेद निंदक, धर्मशास्त्र को दूषित करने वाले, पापकर्मों में सदैव रत रहने वाले, धोखा देने वाले ब्राह्मण और शूद्र, परस्त्री गमन करने वाले तथा ब्राह्मणी से भोग करने वाले ये सब चांडाल के समान हैं। जो विधवा अथवा सधवा ब्राह्मणी से भोग करते हैं, वे अपने कुल को नष्ट कर देते हैं।
परस्त्री गामी के संतान नहीं होती और उसके पूर्व जन्म के संचित सब अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो गुरु और ब्राह्मणों से अहंकारयुक्त बात करता है वह भी धन और संतान से हीन होता है। भ्रष्टाचार करने वाला, चांडाली से भोग करने वाला, दुष्ट की सेवा करने वाला और जो नीच मनुष्य की सेवा करते हैं या संगति करते हैं, ये सब पाप हरि प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं।
जो मनुष्य इस एकादशी के व्रत को करने का संकल्प मात्र करते हैं उनके सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इस दिन रात्रि जागरण करते हैं उनकी आने वाली दस हजार पीढि़याँ स्वर्ग को जाती हैं। नरक के दु:खों से छूटकर प्रसन्नता के साथ सुसज्जित होकर वे विष्णुलोक को जाते हैं। ब्रह्महत्यादि महान पाप भी इस व्रत के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। जो फल समस्त तीर्थों में स्नान करने, गौ, स्वर्ण और भूमि का दान करने से होता है, वही फल इस एकादशी की रात्रि को जागरण से मिलता है।
हे मुनिशार्दूल। इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। वही ज्ञानी तपस्वी और जितेंद्रीय है तथा उसी को भोग एवं मोक्ष मिलता है जिसने इस एकादशी का व्रत किया है। वह विष्णु को अत्यंत प्रिय, मोक्ष के द्वार को बताने वाली और उसके तत्व का ज्ञान देने वाली है। मन, कर्म, वचन तीनों प्रकार के पाप इस रात्रि को जागरण से नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन जो मनुष्य भगवान की प्रसन्नता के लिए स्नान, दान, तप और यज्ञादि करते हैं, वे अक्षय पुण्य को प्राप्त होते हैं। प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत करने से मनुष्य के बाल, यौवन और वृद्धावस्था में किए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन रात्रि जागरण का फल चंद्र, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने से हजार गुना अधिक होता है। अन्य कोई पुण्य इसके आगे व्यर्थ हैं। जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते उनके अन्य पुण्य भी व्यर्थ ही हैं।
अत: हे नारद! तुम्हें भी विधिपूर्वक इस व्रत को करना चाहिए। जो कार्तिक मास में धर्मपारायण होकर अन्न नहीं खाते उन्हें चांद्रायण व्रत का फल प्राप्त होता है। इस मास में भगवान दानादि से जितने प्रसन्न नहीं होते जितने शास्त्रों में लिखी कथाओं के सुनने से होते हैं। कार्तिक मास में जो भगवान विष्णु की कथा का एक या आधा श्लोक भी पढ़ते, सुनने या सुनाते हैं उनको भी एक सौ गायों के दान के बराबर फल मिलता है। अत: अन्य सब कर्मों को छोड़कर कार्तिक मास में मेरे सन्मुख बैठकर कथा पढ़नी या सुननी चाहिए।
जो कल्याण के लिए इस मास में हरि कथा कहते हैं वे सारे कुटुम्ब का क्षण मात्र में उद्धार कर देते हैं। शास्त्रों की कथा कहने-सुनने से दस हजार यज्ञों का फल मिलता है। जो नियमपूर्वक हरिकथा सुनते हैं वे एक हजार गोदान का फल पाते हैं। विष्णु के जागने के समय जो भगवान की कथा सुनते हैं वे सातों द्वीपों समेत पृथ्वी के दान करने का फल पाते हैं। कथा सुनकर वाचक को जो मनुष्य सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देते हैं उनको सनातन लोक मिलता है।
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने कहा कि भगवन! इस एकादशी के व्रत की विधि हमसे कहिए और बताइए कि कैसा व्रत करना चाहिए। इस ब्रह्माजी ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाए तब उठकर शौचादि से निवृत्त होकर दंत-धावन आदि कर नदी, तालाब, कुआँ, बावड़ी या घर में ही जैसा संभव हो स्नानादि करें, फिर भगवान की पूजा करके कथा सुनें। फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।
उस समय भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूँगा। आप मेरी रक्षा कीजिए। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूँगा। तत्पश्चात भक्तिभाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान के आगे नृत्य, गीतादि करना चाहिए। कृपणता त्याग कर बहुत से फूलों, फल, अगर, धूप आदि से भगवान का पूजन करना चाहिए। शंखजल से भगवान को अर्घ्य दें।
इसका समस्त तीर्थों से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं उनके आगे इंद्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके संतुष्ट होने पर हरि भगवान जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपत्र से भगवान की पूजा करते हैं वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यंत विष्णु लोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।
तुलसी रोपण का महत्वहे मुनि! रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यंत तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से श्रीहरि का पूजन करते हैं वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं उन्हें मुक्ति मिलती है।
जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं वे सूर्य-चंद्रमा रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य सफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और जो भगवान पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गायों के दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान की पूजा करते हैं वे सौ गुना पूजा का फल ग्रहण करते हैं।
जो शमी के पत्र से भगवान की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान को चंपा के फूलों से पूजते हैं वे फिर संसार में नहीं आते। केतकी के पुष्प चढ़ाने से करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान का पूजन करने वाले को श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है।
इस प्रकार रात्रि को भगवान का पूजन कर प्रात:काल होने पर नदी पर जाएँ और वहाँ स्नान, जप तथा प्रात:काल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दक्षिणा देकर क्षमायाचना करें। इसके पश्चात भोजन, गौ और दक्षिणा देक गुरु का पूजन कें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरंभ में छोड़ने का नियम किया था, वह ब्राह्मणों को दें। रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा स्वर्ण सहित बैलों का दान करे।
जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है वह गौदान करे। आँवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दान करना चाहिए। जो फलों को त्यागे वह फलदान करे। तेल छोड़ने से घृत और घृत छोड़ने से दूध, अन्न छोड़ने से चावल का दान किया जाता है।
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इसी प्रकार जो मनुष्य भूमि शयन का व्रत लेते हैं उन्हें शैयादान करना चाहिए, साथ ही तुलसी सब सामग्री सहित देना चाहिए। पत्ते पर भोजन करने वाले को सोने का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन कराना चाहिए। बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा, मंदिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए।
एकांत व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों को सिद्ध करने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुअओं की समाप्ति करें अर्थात ग्रहण करने लग जाएँ।
हे राजन! जो बुद्धिमान इस प्रकार चातुर्मास व्रत निर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाए तो व्रत करने वाला कोढ़ी या अंधा हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि राजन जो तुमने पूछा था वह सब मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से गौदान का फल प्राप्त होता है।
ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र। एक बार भोजन करने से एक जन्म और रात्रि को भोजन करने से दो जन्म तथा पूरा दिन उपवास करने से सात जन्मों के पाप नाश होते हैं। जो वस्तु त्रिलोकी में न मिल सके और दिखे भी नहीं वह हरि प्रबोधिनी एकादशी से प्राप्त हो सकती है। मेरु और मंदराचल के समान भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किए हुए पाप समूह क्षणभर में भस्म हो जाते हैं।
जैसे रुई के बड़े ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिंगारी पलभर में भस्म कर देती है। विधिपूर्वक थोड़ा-सा पुण्य कर्म बहुत फल देता है परंतु विधि रहित अधिक किया जाए तो भी उसका फल कुछ नहीं मिलता। संध्या न करने वाले, नास्तिक, वेद निंदक, धर्मशास्त्र को दूषित करने वाले, पापकर्मों में सदैव रत रहने वाले, धोखा देने वाले ब्राह्मण और शूद्र, परस्त्री गमन करने वाले तथा ब्राह्मणी से भोग करने वाले ये सब चांडाल के समान हैं। जो विधवा अथवा सधवा ब्राह्मणी से भोग करते हैं, वे अपने कुल को नष्ट कर देते हैं।
परस्त्री गामी के संतान नहीं होती और उसके पूर्व जन्म के संचित सब अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो गुरु और ब्राह्मणों से अहंकारयुक्त बात करता है वह भी धन और संतान से हीन होता है। भ्रष्टाचार करने वाला, चांडाली से भोग करने वाला, दुष्ट की सेवा करने वाला और जो नीच मनुष्य की सेवा करते हैं या संगति करते हैं, ये सब पाप हरि प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं।
जो मनुष्य इस एकादशी के व्रत को करने का संकल्प मात्र करते हैं उनके सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इस दिन रात्रि जागरण करते हैं उनकी आने वाली दस हजार पीढि़याँ स्वर्ग को जाती हैं। नरक के दु:खों से छूटकर प्रसन्नता के साथ सुसज्जित होकर वे विष्णुलोक को जाते हैं। ब्रह्महत्यादि महान पाप भी इस व्रत के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। जो फल समस्त तीर्थों में स्नान करने, गौ, स्वर्ण और भूमि का दान करने से होता है, वही फल इस एकादशी की रात्रि को जागरण से मिलता है।
हे मुनिशार्दूल। इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। वही ज्ञानी तपस्वी और जितेंद्रीय है तथा उसी को भोग एवं मोक्ष मिलता है जिसने इस एकादशी का व्रत किया है। वह विष्णु को अत्यंत प्रिय, मोक्ष के द्वार को बताने वाली और उसके तत्व का ज्ञान देने वाली है। मन, कर्म, वचन तीनों प्रकार के पाप इस रात्रि को जागरण से नष्ट हो जाते हैं।
इस दिन जो मनुष्य भगवान की प्रसन्नता के लिए स्नान, दान, तप और यज्ञादि करते हैं, वे अक्षय पुण्य को प्राप्त होते हैं। प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत करने से मनुष्य के बाल, यौवन और वृद्धावस्था में किए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन रात्रि जागरण का फल चंद्र, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने से हजार गुना अधिक होता है। अन्य कोई पुण्य इसके आगे व्यर्थ हैं। जो मनुष्य इस व्रत को नहीं करते उनके अन्य पुण्य भी व्यर्थ ही हैं।
अत: हे नारद! तुम्हें भी विधिपूर्वक इस व्रत को करना चाहिए। जो कार्तिक मास में धर्मपारायण होकर अन्न नहीं खाते उन्हें चांद्रायण व्रत का फल प्राप्त होता है। इस मास में भगवान दानादि से जितने प्रसन्न नहीं होते जितने शास्त्रों में लिखी कथाओं के सुनने से होते हैं। कार्तिक मास में जो भगवान विष्णु की कथा का एक या आधा श्लोक भी पढ़ते, सुनने या सुनाते हैं उनको भी एक सौ गायों के दान के बराबर फल मिलता है। अत: अन्य सब कर्मों को छोड़कर कार्तिक मास में मेरे सन्मुख बैठकर कथा पढ़नी या सुननी चाहिए।
जो कल्याण के लिए इस मास में हरि कथा कहते हैं वे सारे कुटुम्ब का क्षण मात्र में उद्धार कर देते हैं। शास्त्रों की कथा कहने-सुनने से दस हजार यज्ञों का फल मिलता है। जो नियमपूर्वक हरिकथा सुनते हैं वे एक हजार गोदान का फल पाते हैं। विष्णु के जागने के समय जो भगवान की कथा सुनते हैं वे सातों द्वीपों समेत पृथ्वी के दान करने का फल पाते हैं। कथा सुनकर वाचक को जो मनुष्य सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देते हैं उनको सनातन लोक मिलता है।
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने कहा कि भगवन! इस एकादशी के व्रत की विधि हमसे कहिए और बताइए कि कैसा व्रत करना चाहिए। इस ब्रह्माजी ने कहा कि ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाए तब उठकर शौचादि से निवृत्त होकर दंत-धावन आदि कर नदी, तालाब, कुआँ, बावड़ी या घर में ही जैसा संभव हो स्नानादि करें, फिर भगवान की पूजा करके कथा सुनें। फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।
उस समय भगवान से प्रार्थना करें कि हे भगवन! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूँगा। आप मेरी रक्षा कीजिए। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूँगा। तत्पश्चात भक्तिभाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान के आगे नृत्य, गीतादि करना चाहिए। कृपणता त्याग कर बहुत से फूलों, फल, अगर, धूप आदि से भगवान का पूजन करना चाहिए। शंखजल से भगवान को अर्घ्य दें।
इसका समस्त तीर्थों से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं उनके आगे इंद्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके संतुष्ट होने पर हरि भगवान जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपत्र से भगवान की पूजा करते हैं वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं।
कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यंत विष्णु लोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पौधा लगाते हैं, उनके कुटुम्ब से उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।
तुलसी रोपण का महत्वहे मुनि! रोपी तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है उतने ही हजार युग पर्यंत तुलसी रोपण करने वाले सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपणी की हुई तुलसी जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गए हैं और होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से श्रीहरि का पूजन करते हैं वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं उन्हें मुक्ति मिलती है।
जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं वे सूर्य-चंद्रमा रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य सफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान का पूजन करते हैं उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और जो भगवान पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गायों के दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान की पूजा करते हैं वे सौ गुना पूजा का फल ग्रहण करते हैं।
जो शमी के पत्र से भगवान की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान को चंपा के फूलों से पूजते हैं वे फिर संसार में नहीं आते। केतकी के पुष्प चढ़ाने से करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान का पूजन करने वाले को श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है।
इस प्रकार रात्रि को भगवान का पूजन कर प्रात:काल होने पर नदी पर जाएँ और वहाँ स्नान, जप तथा प्रात:काल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और दक्षिणा देकर क्षमायाचना करें। इसके पश्चात भोजन, गौ और दक्षिणा देक गुरु का पूजन कें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरंभ में छोड़ने का नियम किया था, वह ब्राह्मणों को दें। रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा स्वर्ण सहित बैलों का दान करे।
जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है वह गौदान करे। आँवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दान करना चाहिए। जो फलों को त्यागे वह फलदान करे। तेल छोड़ने से घृत और घृत छोड़ने से दूध, अन्न छोड़ने से चावल का दान किया जाता है।
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इसी प्रकार जो मनुष्य भूमि शयन का व्रत लेते हैं उन्हें शैयादान करना चाहिए, साथ ही तुलसी सब सामग्री सहित देना चाहिए। पत्ते पर भोजन करने वाले को सोने का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन कराना चाहिए। बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा, मंदिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए।
एकांत व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों को सिद्ध करने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुअओं की समाप्ति करें अर्थात ग्रहण करने लग जाएँ।
हे राजन! जो बुद्धिमान इस प्रकार चातुर्मास व्रत निर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाए तो व्रत करने वाला कोढ़ी या अंधा हो जाता है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि राजन जो तुमने पूछा था वह सब मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने और सुनने से गौदान का फल प्राप्त होता है।