Saturday, 30 September 2017

विजयादशमी के दिन नीलकंठ का दर्शन शुभ माना जाता हैं

विजयादशमी के दिन नीलकंठ का दर्शन शुभ माना जाता हैं। ।भगवान राम के आराध्य शिव के प्रिय पक्षी नीलकंठ का विजयदशमी के दिन आपने दर्शन किया क्या।। नीले रंग की अनुपम छटा वाले इस पक्षी का विजय दशमी के दिन दर्शन करने मात्र से साल भर हर कार्य में विजय मिलती है। इसी मनोकामना के चलते इस बेहद खूबसूरत पक्षी को देखने के लिए विजयादशमी के दिन राजधानी लखनऊ के लोग सुबह-सुबह चंद्रिका देवी मंदिर के आसपास और कुकरैल पिकनिक स्पॉट जैसी जगहों पर जुट जाते हैं।
दशहरा पर दर्शन शुभ

नीलकंठ तुम नीले रहियो, दूध भात का भोजन करियो, हमरी बात राम से कहियो। विजयदशमी के दिन इस गीत से वातावरण गुंजायमान हो उठता है। जनश्रुति के अनुसार नीलकंठ भगवान का प्रतिनिधि है। इसीलिए दशहरा पर्व पर इस पक्षी से मिन्न्त कर लोगों ने अपनी बात शिव तक पहुंचाने की फरियाद की। माना जाता है कि विजय दशमी के दिन भगवान राम ने भी नीलकंठ के दर्शन किए थे।

ऐसा कहा जाता है कि, इस दिन नीलकंठ का दर्शन अत्यंत शुभ और भाग्य को जगाने वाला माना जाता है। इसीलिए विजयादशमी के दिन नीलकंठ के दर्शन की परम्परा रही है। ताकि साल भर उनके कार्य शुभ हों।
नीलकंठ का दर्शन मतलब श्री का आगमन

दशहरे के दिन नीलकंठ के दर्शन होने पर धन-धान्य में वृद्धि होती है। फलदायी एवं शुभ कार्य घर में अनवर‌त होते रहते हैं। सुबह से लेकर शाम तक किसी वक्त नीलकंठ दिख जाए तो शुभ होता है।

पौराणिक कथा
अवध में प्रचलित एक पौराणिक कथा के मुताबिक भगवान श्रीराम ने नीलकंठ का दर्शन करके ही रावण का वध किया था। लंका जीत के बाद जब भगवान राम को ब्रह्मण हत्या का पाप लगा था। भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण के साथ मिलकर भगवान शिव की पूजा अर्चना की ओर शिव पूजा पर ब्रह्मण हत्या के पाप से खूद को मुक्त कराया। ऐसी मान्यता है कि उस वक्त भगवान शिव नीलकंठ पक्षी के रुप में ही धरती पर आये थे। नीलकंठ पक्षी भगवान शिव का ही एक रुप है। माना जाता है कि भगवान शिव नीलकंठ पक्षी का रूप धारण कर ही धरती पर विचरण करते हैं।
विजयदशमी में क्यों पान खाने-खिलाने और नीलकंठ के दर्शन है जरूरी
जीत तो जीत है। इसका जश्न मनाना स्वाभाविक है। फिर चाहे बुराइयों पर अच्छाई की जीत हो या फिर असत्य पर सत्य की। विजय दशमी का पर्व भी जीत का पर्व है। अहंकार रूपी रावण पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की विजय से जुड़े पर्व का जश्न पान खाने-खिलाने और नीलकंठ के दर्शन से जुड़ा है। इस दिन हम सन्मार्ग पर चलने का बीड़ा उठाते हैं। दशहरे में रावण दहन के बाद पान का बीड़ा खाने की परम्परा है।

ऐसा माना जाता है दशहरे के दिन पान खाकर लोग असत्य पर हुई सत्य की जीत की खुशी को व्यक्त करते हैं और यह बीड़ा उठाते हैं कि वह हमेशा सत्य के मार्ग पर चलेंगे। इस विषय पर ज्योतिषाचार्य पंडित राम प्रसाद का कहना है कि पान का पत्ता मान और सम्मान का प्रतीक है। इसलिए हर शुभ कार्य में इसका उपयोग किया जाता है।
नीलकंठ
वैज्ञानिकों के अनुसार नीलकंठ भाग्य विधाता होने के साथ-साथ किसानों का मित्र भी है। नीलकंठ किसानों के खेतों में कीड़ों को खाकर फसलों की रखवाली करता है। राहत की बात यह है कि अभी भी यह पक्षी खात्मे की राह पर नहीं है मगर इसका दिखना कुछ कम जरुर हुआ है। भारतीय महाद्वीप में यह हिमालय से लेकर श्रीलंका ,पाकिस्तान आदि सभी जगह मिलता है। इसके अलावा बिहार,कर्नाटक,ओडिशा और आन्ध्रप्रदेश का यह राज्य पक्षी भी है।

ऋतु परिवर्तन
दशहरे के दिन पान खाने की परम्परा पर वैज्ञानिकों का मानना है कि चैत्र एवं शारदेय नवरात्र में पूरे नौ दिन तक मिश्री, नीम की पत्ती और काली मिर्च, खाने की परम्परा है। इनके सेवन से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। नवरात्रि का समय ऋतु परिवर्तन का समय होता है। इस समय संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा सबसे ज्यादा होता है। ऐसे में यह परम्परा लोगों की बीमारियों से रक्षा करती है। ठीक उसी प्रकार नौ दिन के उपवास के बाद लोग अन्न ग्रहण करते हैं जिसके कारण उनकी पाचन की प्रकिया प्रभावित होती है। पान का पत्ता पाचन की प्रक्रिया को सामान्य बनाए रखता है। इसलिए दशहरे के दिन शारीरिक प्रक्रियाओं को सामान्य बनाए रखने के लिए पान खाने की परम्परा है।
नीलकंठ तुम नीले रहियो, दूध भात के भोजन करियो।
हमार बात राम से कहियो, जगत् हिये तो जोर से कहियो।
सोअत हिये तो धीरे से कहियो, नीलकंठ तुम नीले रहियो।
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!


Tuesday, 26 September 2017

नवरात्र ,,नव दुर्गा ,,से जुडी नौ औष्धियां देती है

नवरात्र ,,नव दुर्गा,, से जुडी नौ औष्धियां देती है... सब कष्टों से छुटकारा
1,,पहली औष्धि जुडी है माँ शैलपुत्री से ,, हरड़...
माँ दुर्गा के नौ स्वरूप हैं. माँ दुर्गा जी के पहले स्वरूप को शैलपुत्री के नाम से जाना जाता हैं. ये ही नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं. विभिन्न प्रकार की बीमारियों में काम आने वाली हरड़ देवी शैलपुत्री का ही एक स्वरूप हैं. यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है. हरड़ सात प्रकार की होती है. इसे हरितकी के नाम से भी जाना जाता है. हरड़ का इस्तेमाल एंटी टॉक्सिन के स्वरूप में कंजक्टीवाइटिस, गैस्ट्रिक, पुराने बुखार, साइनस, एनीमिया तथा हिस्टीरिया के उपचार में किया जाता है.
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2,,दूसरी औष्धि जुडी है माँ ब्रह्मचारिणी से ,, ब्राह्मी
मां दुर्गा की शक्ति का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी यानी कि ब्राह्मी का है. इसे दिमाग का टॉनिक भी कहा जाता है. ब्राह्मी मस्तिष्‍क, मन और स्मरण शक्ति को बढ़ाने के साथ साथ रक्‍त संबंधी विकारों को भी दूर करती है. स्वर को मधुर करने में बहुत सहायक होती है. यह गैस व मूत्र संबंधी रोगों में भी लाभदायक है. यह पेशाब के जरिये रक्त के विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है. इन समस्‍याओं से जुड़े लोगों को माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा करनी चाहिए.
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3..तीसरी औष्धि जुडी है माँ चंद्रघंटा से ,,चन्दुसूर
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा यानी चन्दुसूर है. नवरात्र के तीसरे दिन माँ चंद्रघंटा का पूजन किया जाता है. यदि आप मोटापे से परेशान हैं. आज मां चंद्रघंटा को चंदुसूर चढ़ाएं. यह धनिये के जैसा दिखने वाला पौधा है. इसकी पत्तियों की सब्जी भी बनाई जाती है. इसमें बहुत से औषधीय गुण हैं. इससे व्यक्ति का मोटापा दूर होता है. यह शक्ति को बढ़ाने एवं हृदय रोग में लाभकारी चंद्रिका औषधि है. तो इस बीमारी से संबंधित व्यक्ति को मां चंद्रघंटा की उपासना करनी चाहिए और प्रसाद के रूप में चंदुसूर ग्रहण करना चाहिए.
4..चौथी औष्धि जुडी है माँ कुष्माण्डा से ,, पेठा
नवरात्र के चौथे दिन माँ भगवती दुर्गा के कुष्माण्डा स्‍वरूप की आराधना की जाती है. नव दुर्गा का चौथा स्वरूप कुष्माण्डा यानी कि पेठा है. इसे कुम्हड़ा भी कहा जाता हैं. यह हृदय के रोगियों के लिए बहुत लाभ दायक, कोलेस्ट्रॉल कम , ठंडक पहुंचाने वाला तथा मूत्र वर्धक होता है. यह पेट की गड़बड़ियों में भी बहुत असर दायक होता है. खून में शर्करा की मात्रा को कण्ट्रोल कर अग्न्याशय को सक्रिय करता है. मानसिक रूप से कमजोर के लिए यह अमृत से कम नही है. इन बीमारी से ग्रसित को पेठा के उपयोग के साथ माँ कुष्माण्डा देवी की आराधना करनी चाहिए.
5,,पांचवी औष्धि जुडी है माँ स्कंदमाता से ,, अलसी 
नवरात्रि का पांचवां दिन माँ स्कंदमाता की आराधना की जाती है. माँ स्कंदमाता औषधि के रूप में अलसी में उपस्थित हैं. यह पित्त, कफ, वात, , रोगों की नाशक दवा है. अलसी में बहुत सारे महत्व पूर्ण गुण होते हैं. अलसी का रोज सेवन करने से बहुत से रोगों का नाश होता हैं. अलसी में ओमेगा 3 और फाइबर बहुत ज्यादा मात्रा में होता है. यह बहुत से रोगों के इलाज में लाभदायक है. यह हमें विभिन्न बिमारिओं से लड़ने की शक्ति देता है. कफ तथा पेट से संबंधित रोगों से ग्रस्‍त लोगों को माँ स्कंदमाता की आराधना और अलसी का सेवन करना चाहिए.
6..छठी माँ औष्धि जुडी है कात्यायनी से ,, मोइया
नवदुर्गा का छठा दिन माँ कात्यायनी की आराधना का होता है. आयुर्वेद में इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है. जैसे अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका. इसे मोइया या माचिका भी कहा जाता हैं. यह पित्त,कफ एवं गले या कंठ के रोग का नाश करती है. इन रोगों से ग्रस्‍त लोगों को इसका सेवन व माँ कात्यायनी की आराधना करनी चाहिए
7,,सातवीं औष्धि जुडी है माँ कालरात्रि से ,, नागदौन
माँ दुर्गा का सातवाँ स्वरूप श्री कालरात्रि हैं. माँ कालरात्रि काल का नाश करने वाली हैं. इसलिए इन्हें कालरात्रि कहा जाता हैं. नवरात्र का सातवाँ दिन इनके नाम है. माँ कालरात्रि नागदौन के रूप में जानी जाती है. मां कालरात्रि की भक्ति से मन का भय दूर होता है. साथ बहुत सी बीमारियों से भी छुटकारा दिलाती है. जो भक्त मन या मस्तिष्क के रोग से ग्रसित है. उसे माँ कालरात्रि को नागदौन औषधि भेंट कर प्रसाद के रूप में इसे सेवन करना चाहिए. इस औषधि में गजब का प्रभाव होता है. यदि इसके पौधे को अपने आँगन में लगा दिया जाए तो घर के सभी सदस्यों की छोटी छोटी मौसमी बीमारियां हमेशा के लिए दूर हो जाती है.
8,,आठवीं औष्धि जुडी है माँ महागौरी से –,,तुलसी
नवदुर्गा का आठवां स्वरूप माँ महागौरी है. हर व्यक्ति इसके बारे में जानता है. इसका औषधीय नाम तुलसी है. यह एक पवित्र औष्धि पौधा है. हर घर में इसकी पूजा की जाती है. तुलसी एक जानी मानी औषधि भी है. जिसका प्रयोग बहुत सी बीमारियों में किया जाता है. तुलसी कई प्रकार की होती है. तुलसी के सभी प्रकार रक्त को साफ तथा हृदय रोग से मुक्ति देती है. इस देवी माँ की उपासना हर किसी को करनी चाहिए.
ये भी पढ़ें – तुलसी ,,Tulsi,, पवित्र होने के साथ साथ एक गुणकारी पौधा
9...नौवीं औष्धि जुडी है माँ सिद्धिदात्री से – शतावरी : मां दुर्गा अपने नौवें स्वरूप में माँ सिद्धिदात्री के नाम से प्रसिद्ध है. माँ सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली हैं. दुर्गा के इस रूप को नारायणी या शतावरी कहते हैं. शतावरी बल बुद्धि तथा वीर्य के लिए प्रमुख औषधि है. यह खून के विकार तथा वात, पित्त, शोध नाशक हृदय को बल देने वाली महा औषधि है. शतावरी के नियम से खाने वाले के सभी कष्ट अपने आप ही दूर हो जाते हैं. इसलिए हृदय को शक्ति देने के लिए माँ सिद्धिदात्री देवी की पूजा करनी चाहिए.
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.

Monday, 25 September 2017

नवदुर्गा 108 नाम,,


नवदुर्गा 108 नाम,,,नवदुर्गा में भक्तों ने हर प्रकार की पूजा और विधान से मां दुर्गा को प्रसन्न करने के जतन किए। लेकिन अगर आप व्यस्तताओं के चलते ‍विधिवत आराधना ना कर सकें तो मात्र 108 नाम के जाप करें इससे भी माता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है।
सती, साध्वी, भवप्रीता, भवानी, भवमोचनी, आर्या, दुर्गा, जया, आद्या, त्रिनेत्रा, शूलधारिणी, पिनाकधारिणी, चित्रा, चंद्रघंटा, महातपा, बुद्धि, अहंकारा, चित्तरूपा, चिता, चिति, सर्वमंत्रमयी, सत्ता, सत्यानंदस्वरुपिणी, अनंता, भाविनी, भव्या, अभव्या, सदागति, शाम्भवी, देवमाता, चिंता, रत्नप्रिया, सर्वविद्या, दक्षकन्या, दक्षयज्ञविनाशिनी, अपर्णा, अनेकवर्णा, पाटला, पाटलावती, पट्टाम्बरपरिधाना, कलमंजरीरंजिनी, अमेयविक्रमा, क्रूरा, सुन्दरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातंगी, मतंगमुनिपूजिता, ब्राह्मी, माहेश्वरी, एंद्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुंडा, वाराही, लक्ष्मी, पुरुषाकृति, विमला, उत्कर्षिनी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, ND बहुलप्रिया, सर्ववाहनवाहना, निशुंभशुंभहननी, महिषासुरमर्दिनी, मधुकैटभहंत्री, चंडमुंडविनाशिनी, सर्वसुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिनी, अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिनी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यत‍ि, अप्रौढ़ा, प्रौढ़ा, वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्तकेशी, घोररूपा, महाबला, अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी, शिवदुती, कराली, अनंता, परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रह्मावादिनी। ।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!



दुर्गा मां के कल्याणकारी 32 नाम

दुर्गा मां के कल्याणकारी 32 नाम हे देवी, भगवती माता, विद्यादायिनी, शक्ति प्रदान करने वाली, लक्ष्मी प्रदान करने वाली को बारंबार नमस्कार है। भगवती चैतन्यरूप से इस संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है, उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है। भगवतीसे हमेशा अपने कल्याण की प्रार्थना करना चाहिए। अपनी आपत्ति (विपदा, तकलीफ) के नाश की कामना करनी चाहिए। भगवती ने देवताओं पर विपत्ति आने पर उनका कल्याण किया है। उनसे इस प्रकार प्रार्थना करें। जिसप्रकार पूर्व काल में अपने अभिष्ट की प्राप्ति होने से देवताओं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इंद्र ने जिनके शरण में जाकर अपनी रक्षा मांगी। कल्याण ईश्वरी माता दुर्गा हमारा कल्याण और मंगल करें तथा सारी आपत्तियों का नाश करें। देवी से अपने शत्रुओं से बचने के लिए प्रार्थना करें। देवी स्वयं कहती है। मेरे भक्तों को अथवा जो मेरी शरण में आ जाता है, उसकी इच्छा मैं अवश्य पूर्ण करती हूं। यदि आप शत्रु (आंशिक, मानसिक, शारीरिक) से परेशान है तो निम्न बत्तीस (32) नामों का पाठ करें। आप नि:संदेह विजय प्राप्त करेंगे। नाम इस प्रकार है :-
दुर्गा, दुर्गातिशमनी, दुर्गापद्धिनिवारिणी, दुर्गमच्छेदनी, दुर्गसाधिनी, दुर्गनाशिनी, दुर्गतोद्धारिणी, दुर्गनिहन्त्री, दुर्गमापहा, दुर्गमज्ञानदा, दुर्गदैत्यलोकदवानला, दुर्गमा, दुर्गमालोका, दुर्गमात्मस्वरूपिणी, दुर्गमार्गप्रदा, दुर्गम विद्या, दुर्गमाश्रिता, दुर्गमज्ञानसंस्थाना, दुर्गमध्यानभासिनी, दुर्गमोहा, दुर्गमगा, दुर्गमार्थस्वरूपिणी, दुर्गमांसुरहंत्रि, दुर्गमायुधधारिणी, दुर्गमांगी, दुर्गमाता, दुर्गम्या, दुर्गमेश्वरी, दुर्गभीमा, दुर्गभामा, दुर्गभा, दुर्गदारिणी।
।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!

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51 शक्तिपीठो का जानकारी - वर्णन

51 शक्तिपीठो का जानकारी, 51- शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है कि सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया था। परन्तु सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमन्त्रण नहीं भेजा था। जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए लेकिन सती जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई, वहां शिव की निन्दा सुनकर वह यज्ञकुण्ड में कूद गईं तब भगवान शिव ने सती के वियोग में सती का शव अपने सिर पर धारण कर लिया और सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहा महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। इस पर विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड करने का विचार किया। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां जहां सती के अंग के टुकड़े, वस्त्र या आभूषण गिरे, वहीं शक्तिपीठ का उदय हुआ। हालांकि देवी भागवत में जहां - 108 - और देवी गीता में - 72- शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में - 52- शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में जरूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन - 51- शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं। ज्ञातव्य है की इन - 51- शक्तिपीठों में भारत ,,विभाजन के बाद - 5 - और भी कम हो गए और आज के भारत में - 42 - शक्ति पीठ रह गए है। पाकिस्तान में और बांग्लादेश में, श्रीलंका में, तिब्बत में तथा नेपाल में है। शक्तिपीठों के सन्दर्भ में कथा-देश-विदेश में स्थित इन - 51- शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है, वह यह है कि राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से विवाह किया। एक बार मुनियों का एक समूह यज्ञ करवा रहा था। यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था। जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए। भगवान शिव दक्ष के दामाद थे। यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए। दक्ष अपने दामाद शिव को हमेशा निरादर भाव से देखते थे। सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व / ब्रिहासनी' नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता और सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमन्त्रण नहीं भेजा था। जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी किपिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। 'तंत्र-चूड़ामणि' के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल - 51- स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या करशिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया। 1 - किरीट कात्यायनी पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है किरीट शक्तिपीठ, जहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं। 2 - कात्यायनी कात्यायनी वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं। 3 - करवीर शक्तिपीठ महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है। 4 - श्री पर्वत शक्तिपीठ इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं। 5 - विशालाक्षी शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं। 6 - गोदावरी तट शक्तिपीठ आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं। 7 - शुचीन्द्रम शक्तिपीठ तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं। 8 - पंच सागर शक्तिपीठ इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं। 9 - ज्वालामुखी शक्तिपीठ हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं। 10 - भैरव पर्वत शक्तिपीठ इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं। 11- अट्टहास शक्तिपीठ अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं। 12 - जनस्थान शक्तिपीठ महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं। 13 - कश्मीर शक्तिपीठ जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं। 14 - नन्दीपुर शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं। 15 - श्री शैल शक्तिपीठ आंध्रप्रदेश के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं। 16 - नलहरी शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहरी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं। 17 - मिथिला शक्तिपीठ इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं। 18 - रत्नावली शक्तिपीठ इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं। 19 - अम्बाजी शक्तिपीठ, प्रभास पीठ गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अिम्बका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है। 20 - जालंध्र शक्तिपीठ पंजाब के जालंध्र में स्थित है माता का जालंध्र शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं। 21- रामागरि शक्तिपीठ इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्राकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं। 22 - वैद्यनाथ का हार्द शक्तिपीठ झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था। 23 - वक्रेश्वर शक्तिपीठ माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैिन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं। 24 - कण्यकाश्रम कन्याकुमारी तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं। 25 - बहुला शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं। 26 - उज्जयिनी शक्तिपीठ मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं। 27 - मणिवेदिका शक्तिपीठ राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं। 28 - प्रयाग शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं। 29 - विरजाक्षेत्रा, उत्कल उत्कल शक्तिपीठ उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं। 30 - कांची शक्तिपीठ तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं। 31- कालमाध्व शक्तिपीठ इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं। 32 - शोण शक्तिपीठ मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं। 33 - कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ कामगिरि असम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं। 34 - जयन्ती शक्तिपीठ जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं। 35 - मगध् शक्तिपीठ बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं। 36v- त्रिस्तोता शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं। 37 - त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं। 38 - विभाष शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्रााम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं। 39 - देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र (शक्तिपीठ) हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप(भद्रकाली पीठ के नाम से मान्य है। माता का दहिने चरण (गुल्पफद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं। 40 - युगाद्या शक्तिपीठ (क्षीरग्राम शक्तिपीठ) पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था। 41- विराट का अम्बिका शक्तिपीठ राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पादांगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं। 42 - काली शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं। 43 - मानस शक्तिपीठ तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं। 44 - लंका शक्तिपीठ श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे। 45 - गण्डकी शक्तिपीठ नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड(कपोल) गिरा था। यहां शक्ति `गण्डकी´ तथा भैरव `चक्रपाणि´ हैं। 46 - गुह्येश्वरी शक्तिपीठ नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति `महामाया´ और भैरव `कपाल´ हैं। 47 . हिंगलाज शक्तिपीठ पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र गिरा था। 48 - सुगंध शक्तिपीठ बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं। 49 - करतोयाघाट शक्तिपीठ बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं। 50 - चट्टल शक्तिपीठ बंग्लादेश के चटगांव में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं। 51- यशोरेश्वरी शक्तिपीठ बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसि( यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं। Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!


Saturday, 23 September 2017

दुर्गमासुर मर्दिनी देवी दुर्गा।

दुर्गमासुर मर्दिनी देवी दुर्गा।

एक बार पितामह ब्रह्मा जी से, दुर्गमासुर नाम दैत्य ने समस्त वेदों तथा मंत्रों को वर स्वरूप प्राप्त कर लिया तथा लुप्त कर दिया। मंत्रों तथा वेद के अभाव हेतु, पृथ्वी पर ऋषि-मुनि, ब्राह्मणों द्वारा देवताओं को हवि भाग अर्पण बंद हो गया, परिणामस्वरूप वर्षा का लोप हो गया। वर्षा के अभाव के कारण पृथ्वी में उगने वाले समस्त प्रकार के वनस्पति, शाक, मूल, वनस्पति इत्यादि का भी लोप हो गया तथा ऐसी स्थिति १०० वर्षों तक बनी रही और पृथ्वी पर मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों का अंत होने लगा। घर-घर शवों के ढेर लगने लगे तथा यत्र-तत्र पशुओं, अन्य जीवों के शव दिखने लगे। ब्राह्मणों तथा ऋषि-मुनियों ने हिमालय पर जाकर, वर्षा होने के निमित्त भगवती आदि शक्ति की आराधना स्तुति-साधना की। ब्राह्मणों तथा ऋषि मुनियों की तपस्या से संतुष्ट हो, जगत-जननी माता ने उन्हें दर्शन दिया, जो अपने हाथों में नाना शाक-मूल लेकर प्रकट हुई थीं तथा सभी जीवों को भोजन हेतु शाक-मूल आदि प्रदान की, देवी माँ का यह रूप शाकंभरी नाम से विख्यात हैं। तत्पश्चात, ७ दिनों तक हजारों नेत्रों से युक्त हो रुदन करती रही, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी जल से पूर्ण हो गई; देवी माँ इस रूप में शताक्षी नाम से विख्यात हुई। तदनंतर, दुर्गमासुर दैत्य का वध कर दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी दुर्गा साक्षात भगवान शिव की पत्नी पार्वती या सती हैं, परा शक्ति महामाया आदि शक्ति हैं, इनके नौ स्वरूप जिन्हें जो 'नव-दुर्गा' नाम से प्रसिद्ध हैं।
वर्ष में चार बार नव-रात्र उत्सव पौष, चैत्र, आषाढ़, अश्विन, प्रतिपद से नवमी तिथि तक मनाया जाता हैं। इन दिनों माता दुर्गा के नौ रूपों की विशेषकर पूजा आराधना की जाती हैं, गुजरात तथा उत्तर भारत में यह उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता हैं। भारत के पूर्वी भाग में अश्विन मास या शरद्-ऋतु में दुर्गा पूजा उत्सव बड़े हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता हैं; महर्षि कात्यायन की तरह ही देवी माँ का आवाहन छष्ठी तिथि में की जाती हैं तथा सप्तमी, अष्टमी, नवमी को विधिवत् पूजा आराधना कर, दशमी तिथि के दिन देवी माँ अपने ससुराल कैलाश चली जाती हैं। साथ ही चैत्र मास में भी देवी की पूजा आराधना की जाती हैं। भारत वर्ष के उत्तरी तथा पश्चिम भाग में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के साथ, माता के नौ रूपों की साधन की जाती हैं तथा पूर्वी भाग में महिषमर्दिनी दुर्गा की आराधना की जाती हैं। इस अवधि में देवी की किसी भी रूप में साधन-पूजा शुभकर तथा विशेष फलप्रद होती हैं। साधक, दिव्य तथा अलौकिक शक्तिओं का अवलोकन करता पाता हैं। विशेषकर, तंत्र के अनुसरण करने वाले इस अवधि में नाना प्रकार की साधन कर सिद्धि प्राप्त करते हैं।
दुर्गा सप्तशती में व्याप्त, देवी कवच में माता दुर्गा के नौ रूपों की व्याख्या की गयी हैं।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
शक्ति के तीन रूप माने गया हैं जो त्रिगुणात्मक गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं, परा-शक्ति, अप-राशक्ति तथा अविद्या शक्ति। प्रथम परा-शक्ति ही महामाया-योगनिद्रा हैं, जो पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार के रूप में विद्यमान हैं। परिणामस्वरूप दुर्गा सप्तशती में तीन बार 'नमस्तस्यै' का प्रयोग किया गया हैं, इससे तीनों शक्तिओं को नमन किया जाता हैं।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

पद्मावती स्तोत्र संकटमोचक

देवी मां पद्मावती, ज्योति रूप महान।
पद्मावती स्तोत्र संकटमोचक

विघ्न हरो मंगल करो, करो मात कल्याण। (1)
चौपाई।।जय-जय-जय पद्मावती माता, तेरी महिमा त्रिभुवन गाता।
मन की आशा पूर्ण करो मां, संकट सारे दूर करो मां।। (2)

तेरी महिमा परम निराली, भक्तों के दुख हरने वाली।
धन-वैभव-यश देने वाली, शान तुम्हारी अजब निराली।। (3)

बिगड़ी बात बनेगी तुम से, नैया पार लगेगी तुम से।
मेरी तो बस एक अरज है, हाथ थाम लो यही गरज है।। (4)

चतुर्भुजी मां हंसवाहिनी, महर करो मां मुक्तिदायिनी।
किस विध पूजूं चरण तुम्हारे, निर्मल हैं बस भाव हमारे।। (5)

मैं आया हूं शरण तुम्हारी, तू है मां जग तारणहारी।
तुम बिन कौन हरे दुख मेरा, रोग-शोक-संकट ने घेरा।। (6)

तुम हो कल्पतरु कलियुग की, तुमसे है आशा सतयुग की।
मंदिर-मंदिर मूरत तेरी, हर मूरत में सूरत तेरी।। (7)

रूप तुम्हारे हुए हैं अनगिन, महिमा बढ़ती जाती निशदिन।
तुमने सारे जग को तारा, सबका तूने भाग्य संवारा।। (8)

हृदय-कमल में वास करो मां, सिर पर मेरे हाथ धरो मां।
मन की पीड़ा हरो भवानी, मूरत तेरी लगे सुहानी।। (9)

पद्मावती मां पद्‍म-समाना, पूज रहे सब राजा-राणा।
पद्‍म-हृदय पद्‍मासन सोहे, पद्‍म-रूप पद-पंकज मोहे।। (10)

महामंत्र का मिला जो शरणा, नाग-योनी से पार उतरना।
पारसनाथ हुए उपकारी, जय-जयकार करे नर-नारी।। (11)

पारस प्रभु जग के रखवाले, पद्मावती प्रभु पार्श्व उबारे।
जिसने प्रभु का संकट टाला, उसका रूप अनूप निराला।। (12)

कमठ-शत्रु क्या करे बिगाड़े, पद्मावती जहं काज सुधारे।
मेघमाली की हर चट्टानें, मां के आगे सब चित खाने।। (13)

मां ने प्रभु का कष्ट निवारा, जन्म-जन्म का कर्ज उतारा।
पद्मावती दया की देवी, प्रभु-भक्तों की अविरल सेवी।। (14)

प्रभु भक्तों की मंशा पूरे, चिंतामणि सम चिंता चूरे।
पारस प्रभु का जयकारा हो, पद्मावती का झंकारा हो।। (15)
माथे मुकुट भाल सूरज ज्यों, बिंदिया चमक रही चंदा।
अधरों पर मुस्कान शोभती, मां की मूरत नित्य मोहती।। (16)

सुरनर मुनिजन मां को ध्यावे, संकट नहीं सपने में आवे।
मां का जो जयकारा बोले, उनके घर सुख-संपत्ति बोले।। (17)

ॐ ह्रीं श्री क्लीं मंत्र से ध्याऊं, धूप-दीप-नैवेद्य चढ़ाऊं।
रिद्धि-सिद्धि सुख-संपत्ति दाता, सोया भाग्य जगा दो माता।। (18)

मां को पहले भोग लगाऊं, पीछे ही खुद भोजन पाऊं।
मां के यश में अपना यश हो, अंतरमन में भक्ति-रस हो।। (19)

सुबह उठो मां की जय बोलो, सांझ ढले मां की जय बोलो।
जय-जय मां जय-जय नित तेरी, मदद करो मां अविरल मेरी।। (20)

शुक्रवार मां का दिन प्यारा, जिसने पांच बरस व्रत धारा।
उसका काज सदा ही संवरे, मां उसकी हर मंशा पूरे।। (21)

एकासन-व्रत-नियम पालकर, धूप-दीप-चंदन पूजन कर।
लाल-वेश हो चूड़ी-कंगना, फल-श्रीफल-नैवेद्य भेंटना।। (22)

मन की आशा पूर्ण हुए जब, छत्र चढ़ाएं चांदी का तब।
अंतर में हो शुक्रगुजारी, मां का व्रत है मंगलकारी।। (23)

मैं हूं मां बालक अज्ञानी, पर तेरी महिमा पहचानी।
सांचे मन से जो भी ध्यावे, सब सुख भोग परम पद पावे।। (24)

जीवन में मां का संबल हो, हर संकट में नैतिक बल हो।
पाप न होवे पुण्य संजोएं, ध्यान धरें अंतरमन धोएं।। (25)

दीन-दुखी की मदद हो मुझसे, मात-पिता की अदब हो मुझसे।
अंतर-दृष्टि में विवेक हो, घर-संपति सब नेक-एक हो।। (26)

कृपादृष्टि हो माता मुझ पर, मां पद्मावती जरा रहम कर।
भूलें मेरी माफ करो मां, संकट सारे दूर करो मां।। (27)

पद्‍म नेत्र पद्मावती जय हो, पद्‍म-स्वरूपी पद्‍म हृदय हो।
पद्‍म-चरण ही एक शरण है, पद्मावती मां विघ्न-हरण है।। (28)
।।दोहा।।पद्‍म रूप पद्मावती, पारस प्रभु हैं शीष।
'सेवक' तुम्हारी शरण में, दो मंगल आशीष।। (29)
पार्श्व प्रभु जयवंत हैं, जिन शासन जयवंत।
पद्मावती जयवंत हैं, जयकारी भगवंत।। (30)
चरण-कमल में सेवक का, नमन करो स्वीकार।
भक्तों की अरजी सुनो, वरते मंगलाचार।। (31)
Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

नवरात्र की नौ देवियां

नवरात्र की नौ देवियां 
नवरात्र पर्व के प्रथम दिन को शैलपुत्री नामक देवी की आराधना की जाती है. पुराणों में यह कथा प्रसिद्ध है कि हिमालय के तप से प्रसन्न होकर आद्या शक्ति उनके यहां पुत्री के रूप में अवतरित हुई और इनके पूजन के साथ नवरात्र का शुभारंभ होता है.
ब्रह्मचारिणी
भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती की कठिन तपस्या से तीनों लोक उनके समक्ष नतमस्तक हो गए. देवी का यह रूप तपस्या के तेज से ज्योतिर्मय है. इनके दाहिने हाथ में मंत्र जपने की माला तथा बाएं में कमंडल है.
चंद्रघंटा
यह देवी का उग्र रूप है. इनके घंटे की ध्वनि सुनकर विनाशकारी शक्तियां तत्काल पलायन कर जाती हैं. व्याघ्र पर विराजमान और अनेक अस्त्रों से सुसज्जित मां चंद्रघंटा भक्त की रक्षा हेतु सदैव तत्पर रहती हैं.
कूष्मांडा
नवरात्र पर्व के चौथे दिन भगवती के इस अति विशिष्ट स्वरूप की आराधना की जाती है. ऐसी मान्यता है कि इनकी हंसी से ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ था. अष्टभुजी माता कूष्मांडा के हाथों में कमंडल, धनुष-बाण, कमल, अमृत-कलश, चक्र तथा गदा है. इनके आठवें हाथ में मनोवांछित फल देने वाली जपमाला है.
स्कंदमाता
नवरात्र पर्व की पंचमी तिथि को भगवती के पांचवें स्वरूप स्कंदमाता की पूजा की जाती है. देवी के एक पुत्र कुमार कार्तिकेय (स्कंद) हैं, जिन्हें देवासुर-संग्राम में देवताओं का सेनापति बनाया गया था. इस रूप में देवी अपने पुत्र स्कंद को गोद में लिए बैठी होती हैं. स्कंदमाता अपने भक्तों को शौर्य प्रदान करती हैं.
कात्यायनी
कात्यायन ऋषि की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती उनके यहां पुत्री के रूप में प्रकट हुई और कात्यायनी कहलाई. कात्यायनी का अवतरण महिषासुर वध के लिए हुआ था. यह देवी अमोघ फलदायिनी हैं. भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने देवी कात्यायनी की आराधना की थी. जिन लडकियों की शादी न हो रही हो या उसमें बाधा आ रही हो, वे कात्यायनी माता की उपासना करें.
कालरात्रि
नवरात्र पर्व के सातवें दिन सप्तमी को कालरात्रि की आराधना का विधान है. यह भगवती का विकराल रूप है. गर्दभ (गदहे) पर आरूढ़ यह देवी अपने हाथों में लोहे का कांटा तथा खड्ग (कटार) भी लिए हुए हैं. इनके भयानक स्वरूप को देखकर विध्वंसक शक्तियां पलायन कर जाती हैं.
महागौरी
नवरात्र पर्व की अष्टमी को महागौरी की आराधना का विधान है. यह भगवती का सौम्य रूप है. यह चतुर्भुजी माता वृषभ पर विराजमान हैं. इनके दो हाथों में त्रिशूल और डमरू है. अन्य दो हाथों द्वारा वर और अभय दान प्रदान कर रही हैं. भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए भवानी ने अति कठोर तपस्या की, तब उनका रंग काला पड गया था. तब शिव जी ने गंगाजल द्वारा इनका अभिषेक किया तो यह गौरवर्ण की हो गई. इसीलिए इन्हें गौरी कहा जाता है.
सिद्धिदात्री
नवरात्र पर्व के अंतिम दिन नवमी को भगवती के सिद्धिदात्री स्वरूप का पूजन किया जाता है. इनकी अनुकंपा से ही समस्त सिद्धियां प्राप्त होती हैं. अन्य देवी-देवता भी मनोवांछित सिद्धियों की प्राप्ति की कामना से इनकी आराधना करते हैं. मां सिद्धिदात्री चतुर्भुजी हैं. अपनी चारों भुजाओं में वे शंख, चक्र, गदा और पद्म (कमल) धारण किए हुए हैं. कुछ धर्मग्रंथों में इनका वाहन सिंह बताया गया है, परंतु माता अपने लोक प्रचलित रूप में कमल पर बैठी (पद्मासना) दिखाई देती हैं. सिद्धिदात्री की पूजा से नवरात्र में नवदुर्गा पूजा का अनुष्ठान पूर्ण हो जाता है.
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नवरात्र में की गई मंत्र साधना निष्फल नहीं जाती

नवरात्र में की गई मंत्र साधना निष्फल नहीं जाती।
दस महाविद्या व कामना मंत्र
सर्व प्रथम नवरात्रों की प्रमुख देवी सर्वेश्वर्यकारिणी माता को धूप, दीप, प्रसाद अर्पित करें। रुद्राक्ष की माला से प्रतिदिन ग्यारह माला ॐ ह्नीं सर्वैश्वर्याकारिणी देव्यै नमो नम:।’ मंत्र का जप करें। पेठे का भोग लगाएं। इसके बाद मनोकामना के अनुसार निम्न में से किसी मंत्र का जप करें। यह क्रम नौ दिनों तक गुप्त रूप से जारी रखें।
काली : लम्बी आयु, ग्रह जनित दुष्प्रभाव, कालसर्प, मांगलिक प्रभाव, अकाल मृत्यु का भय आदि के लिए काली की साधना करें।
मंत्र- ‘क्रीं ह्नीं ह्नुं दक्षिणे कालिके स्वाहा:।’
हकीक की माला से नौ माला जप प्रतिदिन करें।
तारा : तीव्र बुद्धि, रचनात्मकता, उच्च शिक्षा के लिए मां तारा की साधना नीले कांच की माला से बारह माला मंत्र जप प्रतिदिन करें।
मंत्र- ‘ह्नीं स्त्रीं हुम फट।’
त्रिपुर सुंदरी : व्यक्तित्व विकास, स्वस्थ्य और सुन्दर काया के लिए त्रिपुर सुंदरी देवी की साधना करें। रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करें। दस माला मंत्र जप अवश्य करें।
मंत्र- ‘ऐं ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:।’
भुवनेश्वरी: भूमि, भवन, वाहन सुख के लिए भुवनेश्वरी देवी की आराधना करें। स्फटिक की माला से ग्यारह माला प्रतिदिन जप करें।
मंत्र-‘ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:।’
छिन्नमस्ता : रोजगार में सफलता, नौकरी, पदोन्नति आदि के लिए छिन्नमस्ता देवी की आराधना करें। रुद्राक्ष की माला से दस माला प्रतिदिन जप करें।
मंत्र- ‘श्रीं ह्नीं ऐं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा’।
त्रिपुर भैरवी : सुन्दर पति या पत्नी प्राप्ति, शीघ्र विवाह, प्रेम में सफलता के लिए मूंगे की माला से पंद्रह माला मंत्र का जप करें।
मंत्र- ‘ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:।’
धूमावती : तंत्र, मंत्र, जादू टोना, बुरी नजर, भूत प्रेत, वशीकरण, उच्चाटन, सम्मोहन, स्तंभन, आकर्षण और मारण जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए देवी घूमावती के मंत्र की नौ माला का जप मोती की माला से करें।
मंत्र- ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:।’
बगलामुखी: शत्रु पराजय, कोर्ट कचहरी में विजय, प्रतियोगिता में सफलता के लिए हल्दी या पीले कांच की माला से आठ माला मंत्र का जप करें।
मंत्र- ‘ह्नीं बगुलामुखी देव्यै ह्नी ॐ नम:।’Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557.


सरस्वती,,,जो लोग सरस्वती माता की पूजा करने जा रहे हैं

सरस्वती,,,जो लोग सरस्वती माता की पूजा करने जा रहे हैं उन्हें सबसे पहले मां सरस्वती की प्रतिमा अथवा तस्वीर को सामने रखकर उनके सामने धूप-दीप और अगरबत्ती जलानी चाहिए।
इसके बाद पूजन आरंभ करना चाहिए। सबसे पहले अपने आपको तथा आसन को इस मंत्र से शुद्घ करें- "ऊं अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥" इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें फिर आचमन करें – ऊं केशवाय नम: ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें- ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥
पढ़ें, नहीं जानते होंगे, जल में क्यों विसर्जित करते हैं देवी देवताओं की मूर्तियों को?
शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें 'चन्‍दनस्‍य महत्‍पुण्‍यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्‍यम् लक्ष्‍मी तिष्‍ठतु सर्वदा।'

बिना संकल्प के की गयी पूजा सफल नहीं होती है इसलिए संकल्प करें। हाथ में तिल, फूल, अक्षत मिठाई और फल लेकर 'यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः भगवत्या: सरस्वत्या: पूजनमहं करिष्ये|' इस मंत्र को बोलते हुए हाथ में रखी हुई सामग्री मां सरस्वती के सामने रख दें। इसके बाद गणपति जी की पूजा करें।

गणपति पूजन
हाथ में फूल लेकर गणपति का ध्यान करें। मंत्र पढ़ें- गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्। हाथ में अक्षत लेकर गणपति का आवाहन: करें ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।। इतना कहकर पात्र में अक्षत छोड़ें।

अर्घा में जल लेकर बोलें- एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:। रक्त चंदन लगाएं: इदम रक्त चंदनम् लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:, इसी प्रकार श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं। इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ाएं "इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:। दुर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं। गणेश जी को वस्त्र पहनाएं। इदं पीत वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि।

पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें: इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम:

इसी प्रकार से नवग्रहों की पूजा करें। गणेश के स्थान पर नवग्रह का नाम लें।

कलश पूजन
घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें। कलश के गले में मोली लपेटें। नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें। ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांगं सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥)

इसके बाद जिस प्रकार गणेश जी की पूजा की है उसी प्रकार वरूण और इन्द्र देवता की पूजा करें।

सरस्वती पूजन
सबसे पहले माता सरस्वती का ध्यान करें
या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।1।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं ।
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।।
हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम् ।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।2।।

इसके बाद सरस्वती देवी की प्रतिष्ठा करें। हाथ में अक्षत लेकर बोलें “ॐ भूर्भुवः स्वः महासरस्वती, इहागच्छ इह तिष्ठ। इस मंत्र को बोलकर अक्षर छोड़ें। इसके बाद जल लेकर 'एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।” प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं: ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।।

ॐ श्री सरस्वतयै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ‘ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, सरस्वतयै नमो नमः।। ॐ सरस्वतयै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब सरस्वती देवी को इदं पीत वस्त्र समर्पयामि कहकर पीला वस्त्र पहनाएं।

नैवैद्य अर्पण
पूजन के पश्चात देवी को "इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं सरस्वतयै समर्पयामि" मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: "इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं सरस्वतयै समर्पयामि" बालें। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं सरस्वतयै नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं सरस्वतयै समर्पयामि। अब एक फूल लेकर सरस्वती देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं सरस्वतयै नम:। इसके बाद एक फूल लेकर उसमें चंदन और अक्षत लगाकर किताब कॉपी पर रख दें।
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पूजन के पश्चात् सरस्वती माता के नाम से हवन करें। इसके लिए भूमि को स्वच्छ करके एक हवन कुण्ड बनाएं। आम की अग्नि प्रज्वलित करें। हवन में सर्वप्रथम 'ऊं गं गणपतये नम:' स्वाहा मंत्र से गणेश जी एवं 'ऊं नवग्रह नमः' स्वाहा मंत्र से नवग्रह का हवन करें, तत्पश्चात् सरस्वती माता के मंत्र 'ॐ सरस्वतयै नमः स्वहा' से 108 बार हवन करें। हवन का भभूत माथे पर लगाएं। श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण करें इसके बाद सभी में वितरित करें।



नव-नौ दुर्गा उत्सव में जगन-माता आदि शक्ति के नाना अवतारों की आराधना।

नव-नौ दुर्गा उत्सव में जगन-माता आदि शक्ति के नाना अवतारों की आराधना।

नवरात्र दो शब्दों के मेल से बना हैं, 'नव एवं रात्र', 'नव या नौ' शब्द संख्या वाचक हैं तथा 'रात्र' का अर्थ काल विशेष रात्रियों के समूह से हैं। परंपरा के अनुसार, हिन्दुओं में नौ रात्रियों का समूह विशेष वर्ष में चार बार होता हैं, जिस अवधी में शक्ति साधना की जाती हैं। वर्ष में चार बार नवरात्र उत्सव पौष, चैत्र, आषाढ़, अश्विन, प्रतिपद से नवमी तिथि तक मनाया जाता हैं। इन नौ दिनों में सर्व कारण रूपा आदि शक्ति के भिन्न-भिन्न रूपों की पूजा-साधना की जाती हैं, जिन्हें नौ देवियों के नाम से जाना जाता हैं; प्रथम-शैलपुत्री, द्वितीय-ब्रह्मचारिणी, तृतीय-चन्द्रघण्टा, चतुर्थ-कूष्माण्डा, पंचम-स्कन्दमाता, षष्ठं-कात्यायनी, सप्तम-कालरात्रि, अष्टम-महागौरी, नवमं-सिद्धिदात्री। यह नौ दिन ३-३ दिन युक्त, तीन भागों में विभक्त हैं तथा विभक्त ३ काल अवधि में तीन महा-देवियों की पूजा की जाती हैं। प्रथम तीन दिन की अवधि! प्रतिपद, द्वितीय, तृतीया तिथि महा-लक्ष्मी जी को समर्पित हैं, दूसरी तीन दिन की अवधि चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी तिथि महा-सरस्वती जी को समर्पित हैं तथा अंत के तीन दिन की अवधि सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तिथि महा-काली देवी को समर्पित हैं | शक्ति परायण साधकों हेतु यह नौ दिन तथा रात्रि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं, नाना प्रकार की शक्तियां या सिद्धियां को प्राप्त करने हेतु यह नौ दिन तथा रात्रों की काल अवधी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।
साथ ही नव रात्रों के नौ रात्रियों में आदि शक्ति महामाया के निम्न शक्तिओं की साधना की जाती हैं :
प्रथम रात्रि में दक्षिणा या आद्या काली शक्ति की पूजा की जाती हैं, इसी शक्ति स्वरूप में आदि शक्ति देवी ने मधु-कैटभ नामक दैत्यों का वध कर, ब्रह्मा जी की रक्षा की थीं।
द्वितीय रात्रि, महिष नामक असुर का मर्दन कर, तीनों लोकों को दैत्य-राज के अत्याचार से मुक्त कर, महा-लक्ष्मी या महिषासुरमर्दिनी नाम से विख्यात देवी की पूजा की जाती हैं।
तृतीय रात्रि, शुंभ-निशुम्भ नामक दैत्य भ्राताओं के वध करने वाली महा-सरस्वती स्वरूप की साधना की जाती हैं।
चतुर्थ रात्रि, मथुरा पति कंस के कारगर में भगवान कृष्ण के जन्म धारण के साथ ही गोकुल में यशोदा के गर्भ से योगमाया परा शक्ति देवी ने जन्म धारण किया, चतुर्थ रात्रि में इन्हीं योगमाया शक्ति की साधना की जाती हैं।
पंचम रात्रि, वैप्रचिति नामक असुर के परिवार का नाश करने के हेतु आदि शक्ति माता ने रक्तदंतिका नाम से अवतार धारण किया तथा इन असुरों के वध करने के निमित्त रक्त का पान करती रही, पंचम रात्रि में रक्तदंतिका देवी की पूजा की जाती हैं।
षष्ठम रात्रि, शाकंभरी देवी की पूजा की जाती हैं, दुर्गमासुर नामक दैत्य ने ब्रह्मा जी से समस्त वेदों को आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त कर, लुप्त कर दिया, परिणामस्वरूप पृथ्वी में १०० वर्षों तक वर्षा का लोप हो गया। ऋषि-मुनियों तथा ब्राह्मणों द्वारा सहायता हेतु निवेदन करने पर आदि शक्ति, शाकंभरी नाम से, अपने हाथों में नाना प्रकार के शाक-मूल इत्यादि ले कर प्रकट हुई तथा मानवों की रक्षा की।
सप्तम रात्रि, दुर्गा देवी की पूजा साधना की जाती हैं, इसी रूप में आदि शक्ति दुर्गमासुर नामक दैत्य का वध किया था।
अष्टम रात्रि, में देवी भ्रामरी की पूजा की जाती हैं, जब देवताओं के पत्नियों की सतीत्व नष्ट करने हेतु दानव उद्धत हुए, असंख्य भ्रमरों के रूप में प्रकट हो आदि शक्ति ने अरुण नामक तथा अन्य असुरों का वध किया।
नवम रात्रि, अंतिम रात्रि में देवी चामुंडा की पूजा आराधना की जाती हैं, चण्ड तथा मुण्ड नामक दो दैत्य भ्राताओं के वध करने हेतु आदि शक्ति चामुंडा नाम से विख्यात हैं।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

Friday, 22 September 2017

श्री मीनाक्षी स्तुती

श्री मीनाक्षी स्तुती
अद्राक्षं बहुभाग्यतो गुरुवरैः सम्पूज्यमानां मुदा
पुल्लन्मल्लिमुखप्रसूननिवहैर्हालास्यनाथप्रियाम् ।
वीणावेणुमृदङ्गवाद्यमुदितामेणाङ्क बिम्बाननां
काणादादिसमस्तशास्त्रमतिताम् शोणाधरां श्यामलाम् ॥ १॥
मातङ्गकुम्भविजयीस्तनभारभुग्न
मध्यां मदारुणविलोचनवश्यकान्ताम् ।
ताम्राधरस्फुरितहासविधूततार
राजप्रवालसुषुमां भज मीननेत्राम् ॥ २॥
आपादमस्तकदयारसपूरपूर्णां
शापायुधोत्तमसमर्चितपादपद्माम् ।
चापयितेक्षुममलीमसचित्ततायै
नीपाटविविहर्णां भज मीननेत्रम् ॥ ३॥
कन्दर्प वैर्यपि यया सविलास हास
नेत्रावलोकन वशीकृत मानसोऽभूत् ।
तां सर्वदा सकल मोहन रूप वेषां
मोहान्धकार हरणां भज मीननेत्राम् ॥ ४॥
अद्यापि यत्पुरगतः सकलोऽपि जन्तुः
क्षुत्तृड् व्यथा विरहितः प्रसुवेव बालः ।
सम्पोश्यते करुणया भजकार्ति हन्त्रीं
भक्त्याऽन्वहं तां हृदय भज मीननेत्राम् ॥ ५॥
हालास्यनाथ दयिते करुणा पयोधे
बालं विलोल मनसं करुणैक पात्रम् ।
वीक्षस्व मां लघु दयार्मिल दृष्टपादैर्-
मातर्न मेऽस्ति भुवने गतिरन्द्रा त्वम् ॥ ६॥
श्रुत्युक्त कर्म निवहाकरणाद्विशुद्धिः
चित्तस्य नास्ति मम चञ्चलता निवृत्तैः ।
कुर्यां किमम्ब मनसा सकलाघ शान्त्यैः
मातस्तवदङ्घ्रि भजनं सततं दयस्व ॥ ७॥
त्वद्रूपदेशिकवरैः सततं विभाव्यं
चिद्रूपमादि निधनन्तर हीनमम्ब ।
भद्रावहं प्रणमतां सकलाघ हन्तृ
त्वद्रूपमेव मम हृत्कमले विभातु ॥ ८॥
॥ इति श्री जगद्गुरु शृङ्गगिरि चन्द्रशेखर
भारति स्वामिगळ् विरचितं मीनाक्षी स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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मीनाक्षी स्तोत्रम्

मीनाक्षी स्तोत्रम् 
 श्रीविद्ये शिववामभागनिलये श्रीराजराजार्चिते
श्रीनाथादिगुरुस्वरूपविभवे चिन्तामणीपीठिके ।
श्रीवाणीगिरिजानुताङ्घ्रिकमले श्रीशांभवि श्रीशिवे
मध्याह्ने मलयध्वजाधिपसुते मां पाहि मीनाम्बिके ॥ १ ॥

चक्रस्थेऽचपले चराचरजगन्नाथे जगत्पूजिते
आर्तालीवरदे नताभयकरे वक्षोजभारान्विते ।
विद्ये वेदकलापमौलिविदिते विद्युल्लताविग्रहे
मातः पूर्णसुधारसार्द्रहृदये मां पाहि मीनाम्बिके ॥ २ ॥

कोटीराङ्गदरत्नकुण्डलधरे कोदण्डबाणाञ्चिते
कोकाकारकुचद्वयोपरिलसत्प्रालम्बहाराञ्चिते ।
शिञ्जन्नूपुरपादसारसमणीश्रीपादुकालंकृते
मद्दारिद्र्यभुजंगगारुडखगे मां पाहि मीनाम्बिके ॥ ३॥

ब्रह्मेशाच्युतगीयमानचरिते प्रेतासनान्तस्थिते
पाशोदङ्कुशचापबाणकलिते बालेन्दुचूडाञ्चिते ।
बाले बालकुरङ्गलोलनयने बालार्ककोट्युज्ज्वले
मुद्राराधितदैवते मुनिसुते मां पाहि मीनाम्बिके ॥ ४ ॥

गन्धर्वामरयक्षपन्नगनुते गङ्गाधरालिङ्गिते
गायत्रीगरुडासने कमलजे सुश्यामले सुस्थिते ।
खातीते खलदारुपावकशिखे खद्योतकोट्युज्ज्वले
मन्त्राराधितदैवते मुनिसुते मां पाही मीनाम्बिके ॥ ५ ॥

नादे नारदतुम्बुराद्यविनुते नादान्तनादात्मिके
नित्ये नीललतात्मिके निरुपमे नीवारशूकोपमे ।
कान्ते कामकले कदम्बनिलये कामेश्वराङ्कस्थिते
मद्विद्ये मदभीष्टकल्पलतिके मां पाहि मीनाम्बिके ॥ ६ ॥

वीणानादनिमीलितार्धनयने विस्रस्तचूलीभरे
ताम्बूलारुणपल्लवाधरयुते ताटङ्कहारान्विते ।
श्यामे चन्द्रकलावतंसकलिते कस्तूरिकाफालिके
पूर्णे पूर्णकलाभिरामवदने मां पाहि मीनाम्बिके ॥ ७॥

शब्दब्रह्ममयी चराचरमयी ज्योतिर्मयी वाङ्मयी
नित्यानन्दमयी निरञ्जनमयी तत्त्वंमयी चिन्मयी ।
तत्त्वातीतमयी परात्परमयी मायामयी श्रीमयी
सर्वैश्वर्यमयी सदाशिवमयी मां पाहि मीनाम्बिके ॥ ८ ॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ
मीनाक्षीस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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श्री मीनाक्षी सुन्दरेश्वर स्तोत्रम्

श्री मीनाक्षी सुन्दरेश्वर स्तोत्रम् 
सुवर्णपद्मिनीतटान्तदिव्यहर्म्यवासिने
सुपर्णवाहनप्रियाय सूर्यकोटितेजसे ।
अपर्णया विहारिणे फणाधरेन्द्रधारिणे
सदा नमश्शिवाय ते सदाशिवाय शंभवे ॥ १ ॥
सुतुङ्गभङ्गजान्हुजासुधांशुखण्डमौलये
पतङ्गपङ्कजासुहृत्कृपीटयोनिचक्षुषे ।
भुजङ्गराजकुण्डलाय पुण्यशालिबन्धवे
सदा नमश्शिवाय ते सदाशिवाय शंभवे ॥ २ ॥
चतुर्मुखाननारविन्दवेदगीतमूर्तये
चतुर्भुजानुजाशरीरशोभमानमूर्तये ।
चतुर्विधार्थदानशौण्डताण्डवस्वरूपिने
सदा नमश्शिवाय ते सदाशिवाय शंभवे ॥ ३ ॥
शरन्निशाकरप्रकाशमन्दहासमञ्जुला-
धरप्रवालभासमानवक्त्रमण्डलश्रिये ।
करस्फुरत्कपालमुक्तविष्णुरक्तपायिने
सदा नमश्शिवाय ते सदाशिवाय शंभवे ॥ ४ ॥
सहस्रपुण्डरीकपूजनैकशून्यदर्शना
सहस्वनेत्रकल्पितार्चनाच्युताय भक्तितः ।
सहस्रभानुमण्डलप्रकाशचक्रदायिने
सदा नमश्शिवाय ते सदाशिवाय शंभवे ॥ ५ ॥
रसारथाय रम्यपत्रभृद्रथाङ्गपाणये
रसाधरेन्द्रचापशिञ्जिनीकृतानिलाशिने ।
स्वसारथीकृताजनुन्नवेदरूपवाजिने
सदा नमश्शिवाय ते सदाशिवाय शंभवे ॥ ६ ॥
अतिप्रगल्भवीरभद्रसिंहनादगर्जित
श्रुतिप्रभीतदक्षयागभोगिनाकसद्मनाम् ।
गतिप्रदाय गर्जिताखिलप्रपञ्चसाक्षिणे
सदा नमश्शिवाय ते सदा शिवाय शंभवे ॥ ७ ॥
मृकण्डुसूनुरक्षणावधूतदण्डपाणये
सुगण्डमण्डलस्फुरत्प्रभाजितामृतांशवे ।
अखण्डभोगसम्पदर्थिलोकभावितात्मने
सदा नमश्शिवाय ते सदा शिवाय शंभवे ॥ ८ ॥
मधुरिपुविधिशक्रमुख्यदेवैरपि नियमार्चितपादपङ्कजाय ।
कनकगिरिशरासनाय तुभ्यं रजतसभापतये नमः शिवाय ॥ ९ ॥
हालास्यनाथाय महेश्वराय हालाहलालङ्कृतकन्धराय ।
मीनेक्षनायाः पतये शिवाय नमो नमः सुन्दरताण्डवाय ॥ १० ॥
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त्वया कृतमिदं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुतः ।
तस्याऽऽयुर्दीर्घमारोग्यं सम्पदश्च ददाम्यहम् ॥ ११ ॥

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