Thursday 7 September 2017

पितृपक्ष श्राद्ध पिंड दान श्राद्ध


पितृपक्ष श्राद्ध  पिंड दान
एक कथा के अनुसार भस्मासुर के वंशज गयासुर ने कठोर तप कर ब्रम्हा जी को प्रसन्न कर लिए। ब्रम्हा जी से यह वरदान माँगा की मेरा शरीर देवताओं को तरह पवित्र हो जाये और मेरे दर्शन मात्रा से जीव सभी पापों से मुक्त हो जाये और उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो। इस वरदान से स्वर्ग की व्यवस्था विगाड़ गयी और स्वर्ग में लोगों की संख्या बढ़ने लगी। लोगों में पापों की प्रवृति बढ़ गयी और लोग यह सोच कर की गयासुर के दर्शन से सभी पाप नष्ट हो जायेगा पाप कर्म से डरते नहीं थे।
 पितृ पक्ष का १५ दिन पितरों के लिए समर्पित होता है। इस समय में पितरों को पिंडदान देना उनको मोक्ष प्राप्ति सहज बनाता है। वैसे तो पितरों को तर्पण आदि घर पर भी किया जा सकता है, लेकिन गया में पितरों को पिंड दान देने का ख़ास महत्व है। ऐसा माना जाता है कि गयासुर को भगवान विष्णु के वरदान के कारण यहाँ से पिंड दान पाकर पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। यहाँ पर स्वय माता सीता ने अपने स्वसुर दशरथ जी को पिंड दान दिया था।

क्यों करते हैं गया में पितृपक्ष का पिंड दान

गया की चर्चा मोक्ष की नगरी के रूप में विष्णु पुराण और वायु पुराण में की गयी है। इसे विष्णु का नगर भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है की भगवान विष्णु यहाँ स्वय पितृ देवता के रूप में विराजमान हैं इसलिए गया को पितृ तीर्थ भी कहा गया है
गया में फल्गु नदी और पुनपुन नदी में पिंड दान करने का विधान है।
एक कथा के अनुसार भस्मासुर के वंशज गयासुर ने कठोर तप कर ब्रम्हा जी को प्रसन्न कर लिए। ब्रम्हा जी से यह वरदान माँगा की मेरा शरीर देवताओं को तरह पवित्र हो जाये और मेरे दर्शन मात्रा से जीव सभी पापों से मुक्त हो जाये और उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो। इस वरदान से स्वर्ग की व्यवस्था विगाड़ गयी और स्वर्ग में लोगों की संख्या बढ़ने लगी। लोगों में पापों की प्रवृति बढ़ गयी और लोग यह सोच कर की गयासुर के दर्शन से सभी पाप नष्ट हो जायेगा पाप कर्म से डरते नहीं थे।
इससे अव्यवस्था से बचने के लिए देवता गयासुर से यज्ञ के लिए पवित्र भूमि की याचना किये। देवताओं को गया सुर ने अपना पवित्र शरीर ही दान कर दिया। उसने समझ मेरे शरीर से पवित्र कोई भूमि नहीं हो सकती। अतः वह जमीं पर लेट गया और उसके शरीर पर यज्ञ हुआ। लेकिन गयासुर के मन से लोगों को पवित्र करने की इच्छा नहीं गयी उसने देवताओं और विष्णु से वरदान माँगा की जो कोई इस पवित्र भूमि में पूजन करे उसको मोक्ष की प्राप्ति हो। जो भी लोग यहाँ किसी को पिंडदान करे उसे मोक्ष की प्राप्ति हो। देवताओं ने गयासुर को यह बरदान सहर्ष दे दिया। गयासुर जब धरती पर लेता तो उसका शरीर पांच कोस के क्षेत्रफल को डांक लिए। यह स्थान पवित्र पितृ तीर्थ गया के नाम से विख्यात हुआ। यही कारण है की पितरों को पिंडदान देने यहाँ देश विदेश से लोग आते हैं

पिंडदान, गयासुर की कहानी
एक बार दैत्य राज गयासुर ने कठोर तप कर वरदान प्राप्त कर लिया था की जो कोई उसको देखेगा उसको मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। मोक्ष की प्राप्ति  के लिए जीवन पर्यन्त सही कर्म करने होतें हैं। गया सुर के इस वरदान के कारण लोग पाप कर्म करने लगे और गयासुर के दर्शन कर पापरहित होकर वैकुण्ठ पहुँच जाते थे। यमराज को इस बात की चिंता हुए। इस अव्यवस्था से बचने के लिए उन्होंने विष्णु की स्तुति की। भगवान विष्णु ने बुरे कर्म करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति रोकने के लिए गयासुर को पाताल लोक में जाने को कहा। इसके लिए विष्णु ने अपने चरण गयासुर के छाती पर रख दिया।  गयासुर धरती के अंदर चला गया। आज भी गया सुर के शरीर पर विष्णु पद चिन्ह है। उस स्थान पर भव्य  विष्णु पद मंदिर बना हैं. यह पद चिन्ह ९ प्रतीकों से युक्त है जिसमे शंख चक्र और गदा शामिल हैं। धरती के अंदर समाहित गयासुर ने भगवान विष्णु से अपने लिए आहार की याचना की और भविष्य में अपने लिए उपयुक्त कर्म भी पूछे । भगवन विष्णु ने उसे वरदान दिया कि प्रत्येक दिन कोई न कोई तुम्हे भोजन दे जाएगा। जो कोई तुम्हे भोजन कराएगा उसे स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होगी। ऐसी मान्यता है की जिस दिन गयासुर को भोजन नहीं मिलेगा वो धरती से बहार निकल आएगा। प्रत्येक दिन देश विदेश से लोग आतें हैं और अपने पितरों की शान्ति के लिए विष्णुपद की पूजा करते हैं।

 पितृपक्ष ।।आश्विनमास ,,क्वार,, के कृष्णपक्ष के पन्द्रह दिन ‘पितृपक्ष’ के नाम से जाने जाते हैं। इन पन्द्रह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर ‘श्राद्ध’ करते हैं। पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है।
यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है, तथापि आश्विन कृष्ण अमावस्या को ‘पितृविसर्जनी अमावस्या’ या महालया कहते हैं। जिनको अपने पितरों की तिथि याद नही हो, या जो पितृपक्ष में पन्द्रह दिनों में श्राद्ध नहीं करते हैं, वे अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इस दिन करते हैं। इस दिन के बाद सभी पितरों का विसर्जन होता है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देकर अपने लोक को लौट जाते हैं।
चौदह दिनों तक पितरों के लिए अन्न-जल दान से होती है चौदह फलों की प्राप्ति

प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की चौदह तिथियों में श्राद्ध-दान करने से मनुष्य इन चौदह फलों को पाता है–
1. रूप-शील युक्त कन्या, 2. बुद्धिमान व रूपवान दामाद,।3. श्रेष्ठ पुत्र,।4. पशुधन,।5. विजय,।6. व्यापार में लाभ,।7. खेती व नौकरी में लाभ,। 8. समृद्धि,। 9. ओज-तेज,। 10. नीरोगता, । 11. बल, । 12. जाति भाईयों में श्रेष्ठता,।  13. सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति,  । 14. परम गति।
श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थान गयातीर्थ है। उसी प्रकार माता के लिए काठियावाड़ का सिद्धपुर नामक स्थान परम पवित्र माना गया है। यहां माता का श्राद्ध करने से पुत्र अपने मातृ-ऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है।

श्राद्ध में ‘क्या करें’
और ‘क्या न करें’
पितरों के कार्य में बहुत सावधानी रखनी चाहिए, अत: श्राद्ध में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए

️वर्ष में दो बार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। जिस तिथि पर व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए। पितृपक्ष में मृत व्यक्ति की जो तिथि आए, उस तिथि पर मुख्यरूप से पार्वणश्राद्ध करने का विधान है।
️मनु ने श्राद्ध में तीन चीजों को अत्यन्त पवित्र कहा है

कुतप मुहूर्त ,दोपहर के बाद कुल 24 मिनट का समय ,,ब्रह्माजी ने पितरों को अपराह्नकाल दिया है। असमय में दिया गया अन्न पितरों तक नहीं पहुंचता है। सायंकाल में दिया हुआ कव्य राक्षस का भाग हो जाता है।
तिल, श्राद्ध की जगह पर तिल बिखेर देने से वह स्थान शुद्ध व पवित्र हो जाता है।
दौहित्र  ।लड़की का पुत्र  ।।
पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र न हो तो पत्नी कर सकती है।

️श्राद्ध में पवित्रता का बहुत महत्व है। पितृकार्य में वाक्य और कार्य की शुद्धता बहुत जरुरी है और इसे बहुत सावधानी से करना चाहिए।

श्राद्धकर्ता को क्रोध,
कलह व जल्दबाजी नही करनी चाहिए।

️श्राद्धकर्म करने वाले को पितृपक्ष में पूरे पन्द्रह दिन क्षौरकार्य ।दाढ़ी-मूंछ बनाना, नाखून काटना  ।नहीं करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

️श्राद्ध में सात्विक अन्न-फलों का प्रयोग करने से पितरों को सबसे अधिक तृप्ति मिलती है। काला उड़द, तिल, जौ, सांवा चावल, गेहूँ, दूध, दूध के बने सभी पदार्थ, मधु, चीनी, कपूर, बेल, आंवला, अंगूर, कटहल, अनार, अखरोट, कसेरु, नारियल, तेन्द, खजूर, नारंगी, बेर, सुपारी, अदरक, जामुन, परवल, गुड़, मखाना, नीबू आदि अच्छे माने जाते हैं।

️कोदो, चना, मसूर, कुलथी, सत्तू, काला जीरा, टेंटी, कचनार, कैथ, खीरा, लौकी, पेठा, सरसों, काला नमक व कोई भी बासी, गला-सड़ा, कच्चा व अपवित्र फल और अन्न श्राद्ध में प्रयोग नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध-कर्म में इन फूलों का प्रयोग नहीं करना चाहिए–कदम्ब, केवड़ा, बेलपत्र, कनेर, मौलसिरी, लाल व काले रंग के पुष्प और तेज गंध वाले पुष्प। इन पुष्पों को देखकर पितरगण निराश होकर लौट जाते हैं।

️श्राद्ध में अधिक ब्राह्मणों को निमन्त्रण नहीं देना चाहिए। पितृकार्य में एक या तीन ब्राह्मण पर्याप्त होते हैं। ज्यादा ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर यदि उनके आदर-सत्कार में कोई कमी रह जाए तो वह अकल्याणकारी हो सकता है।

श्राद्ध के लिए उत्तम ब्राह्मण को निमन्त्रित करना चाहिए जो योगी, वैष्णव, वेद-पुरान का ज्ञाता, विद्या, शील व तीन पीढ़ी से ब्राह्मणकर्म करने वाला व शान्त स्वभाव का हो। श्राद्ध में केवल अपने मित्रों और गोत्र वालों को खिलाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।

अंगहीन, रोगी, कोढ़ी, धूर्त, चोर, नास्तिक, ज्योतिषी, मूर्ख, नौकर, काना, लंगड़ा, जुआरी, अंधा, कुश्ती सिखाने वाले व मुर्दा जलाने वाले ब्राह्मण को श्राद्ध-भोजन के लिए नहीं बुलाना चाहिए।
️श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण को आदर से बैठाकर पाद-प्रक्षालन ,,पैर धोना,, चाहिए।

️श्राद्धकर्ता हाथ में पवित्री धारण किए रहे।
कुशा से बनाई गई अंगूठी।  धारण किए रहे।

️ब्राह्मण,,भोजन से श्राद्ध की सम्पन्नता–ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है। मृत व्यक्तियों की तिथियों पर केवल ब्राह्मण-भोजन कराने की परम्परा है। किसी कारणवश ब्राह्मण-भोजन न करा सकें तो मन में संकल्प करके केवल सूखे अन्न, घी, चीनी, नमक आदि वस्तुओं को श्राद्ध-भोजन के निमित्त किसी ब्राह्मण को दे दें। यदि इतना भी न कर सकें तो कम-से-कम दो ग्रास निकालकर गाय को श्राद्ध के निमित्त खिला देना चाहिए।
️श्राद्ध में हविष्यान्न के दान से एक मास तक और खीर के दान से एक वर्ष तक पितरों की तृप्ति बनी रहती है।

यदि कुछ भी न बन सके तो केवल घास ले आकर पितरों की तृप्ति के निमित्त से गौओं को अर्पित करे या जल और तिल से पितरों का तर्पण करे।

यदि पत्नी रजस्वला है तो ब्राह्मण को केवल दक्षिणा देकर श्राद्ध-कर्म करे।

तुलसी से पिण्डार्चन करने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं।

भोजन करते समय ब्राह्मणों से ‘भोजन कैसा बना है।’ यह नहीं पूछना चाहिए; इससे पितर अप्रसन्न होकर चले जाते हैं।
️श्राद्ध में भोजन करने व कराने वाले को मौन रहना चाहिए। यदि कोई ब्राह्मण उस समय हंसता या बात करता है तो वह हविष्य राक्षस का भाग हो जाता है।

️श्राद्ध ,कर्म में ताम्रपात्र का बहुत महत्व है। परन्तु लोहे के पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। केवल रसोई में फल, सब्जी काटने के लिए उनका प्रयोग कर सकते हैं।

️श्राद्ध में भोजन कराने के लिए चांदी, तांबे और कांसे के बर्तन उत्तम माने जाते है। इन बर्तनों के अभाव में पत्तलों में भोजन कराना चाहिए किन्तु केले के पत्ते पर श्राद्धभोजन नहीं कराना चाहिए।
 
पितरों से क्या मांगना चाहिए महर्षि वेदव्यास ने ‘पितरों से क्या-क्या मांगना चाहिए’ का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। श्राद्ध के अंत में पितररूप ब्राह्मणों से यह आशीर्वाद मांगना चाहिए।
दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदा: सन्ततिरव च।
श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहुदेयं च नोऽस्त्विति।। ,,अग्निपुराण ,,
अर्थात्   पितरगण आप ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि हमारे कुल में दान देने वाले दाताओं की वृद्धि हो, नित्य वेद और पुराण का स्वाध्याय करने वालों की वृद्धि हो, हमारी संतान-परम्परा लगातार बढ़ती रहे, सत्कर्म करने में हमारी श्रद्धा कम न हो और हमारे पास दान देने के लिए बहुत-सा धन-वैभव हो।
श्राद्ध की रात्रि में यजमान और ब्राह्मण दोनों को ब्रह्मचारी रहना चाहिए।

श्राद्ध का अर्थ,,,,श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्।’
श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

श्राद्ध-कर्म से व्यक्ति केवल अपने सगे-सम्बन्धियों को ही नहीं, बल्कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों व जगत को तृप्त करता है। पितरों की पूजा को साक्षात् विष्णुपूजा ही माना गया है।

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?

प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं–कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।

एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा–’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि–विश्वनियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति–इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्दतत्व से रहते हैं और स्पर्शतत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।
पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व
जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार
नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देवयोनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है। यदि पशुयोनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नागयोनि में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, राक्षसयोनि में आमिषरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रुधिररूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।

जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने किए राजा दशरथ व पितरों के दर्शन
श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधिरूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं–

मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारणकर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छायारूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघनकर वहां कैसे खड़ी रहती; इसलिए मैं ओट में हो गई।’

श्राद्ध में तुलसी की महिमा
तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरुढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।

पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न
श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है।

आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। ,,यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश,,

यमराजजी का कहना है कि
श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि

शास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाली हानियों का जो वर्णन किया गया है, उन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शास्त्रों में मृत व्यक्ति के दाहकर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दु:ख होता है।

आश्विनमास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे; यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोकपर आते हैं लेकिन जो लोग–पितर हैं ही कहां,,।यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं और बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं। फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है।

मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है।


श्राद्ध 2019 तिथियाँ 

पूर्णिमा श्राद्ध ,,यह कैसे हो सकता है यदि श्राद्ध का आरम्भ ही आश्विन माह के कृष्ण पक्ष से होता है। यह पूर्णिमा तो भादों माह की पूर्णमासी है।

पितृ पक्ष श्राद्ध 16 दिन तक मनाए जाते हैं जहाँ व्यक्ति अपने पूर्वजों अथवा पितरों का तर्पण करता है. जिस दिन भी श्राद्ध मनाया जाए उस दिन ब्राह्मण भोजन के समय पितृ स्तोत्र का पाठ किया जाना चाहिए जिसे सुनकर पितर प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं. इस पाठ को भोजन करने वाले ब्राह्मण के सामने खड़े होकर किया जाता है जिससे इस स्तोत्र को सुनने के लिए पितर स्वयं उस समय उपस्थित रहते हैं और उनके लिए किया गया श्राद्ध अक्षय होता है.
जो व्यक्ति सदैव निरोग रहना चाहता है, धन तथा पुत्र-पौत्र की कामना रखता है, उसे इस पितृ स्तोत्र से सदा पितरों की स्तुति करते रहनी चाहिए.
पितृस्तोत्र ।
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा ।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् ।।
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्याचन्द्रमसोस्तथा ।
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि ।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येsहं कृताञ्जलि:।।
प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरुणाय च ।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा ।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ।।
अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् ।
अग्नीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तय:।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।
तेभ्योsखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतमानस:।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुज:।।
पितृ स्तोत्र के अलावा श्राद्ध के समय “पितृसूक्त” तथा “रक्षोघ्न सूक्त” का पाठ भी किया जा सकता है. इन पाठों की स्तुति से भी पितरों का आशीर्वाद सदैव व्यक्ति पर बना रहता है.
पितृसूक्त ।
उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमा: पितर: सोम्यास:।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोsवन्तु पितरो हवेषु ।।
अंगिरसो न: पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगव: सोम्यास:।
तेषां वयँ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ।।
ये न: पूर्वे पितर: सोम्यासोsनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठा:।
तोभिर्यम: सँ रराणो हवीँ ष्युशन्नुशद्भि: प्रतिकाममत्तु ।।
त्वँ सोम प्र चिकितो मनीषा त्वँ रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम् ।
तव प्रणीती पितरो न इन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीरा: ।।
त्वया हि न: पितर: सोम पूर्वे कर्माणि चकु: पवमान धीरा:।
वन्वन्नवात: परिधी१ँ रपोर्णु वीरेभिरश्वैर्मघवा भवा न: ।।
त्वँ सोम पितृभि: संविदानोsनु द्यावापृथिवी आ ततन्थ।
तस्मै त इन्दो हविषा विधेम वयँ स्याम पतयो रयीणाम।।
बर्हिषद: पितर ऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
त आ गतावसा शन्तमेनाथा न: शं योररपो दधात।।
आsहं पितृन्सुविदत्रा२ँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णो:।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पितृवस्त इहागमिष्ठा:।।
उपहूता: पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेsवन्त्वस्मान् ।।
आ यन्तु न: पितर: सोम्यासोsग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै:।
अस्मिनन् यज्ञे स्वधया मदन्तोsधि ब्रुवन्तु तेsवन्त्वस्मान्।।
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सद: सद: सदत सुप्रणीतय:।
अत्ता हवीँ षि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिँ सर्ववीरं दधातन ।।
ये अग्निष्वात्ता ये अनग्निष्वात्ता मध्ये दिव: स्वधया मादयन्ते ।
तेभ्य: स्वराडसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयाति ।।
अग्निष्वात्तानृतुमतो हवामहे नाराशँ से सोमपीथं य आशु:।
ते नो विप्रास: सुहवा भवन्तु वयँ स्याम पतयो रयीणाम् ।।
रक्षोघ्न सूक्त ।
कृणुष्व पाज: प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवाँ२ इभेन ।
तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानोsस्ताsसि विध्य रक्षसस्तपिष्ठै:।।
तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनुस्पृश धृषता शोशुचान:।
तपुँ ष्यग्ने जुह्वा पतंगानसन्दितो वि सृज विष्वगुल्का:।।
प्रति स्पशो वि सृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदब्ध:।
यो नो दूरे अघशँ सो यो अर्न्तयग्ने मा किष्टे व्यथिरा दधर्षीत्।।
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्व न्यमित्राँ२ ओषतात्तिग्महेते।
यो नो अरार्तिँ समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यतसं न शुष्कम्।।
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने ।
अव स्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्र मृणीहि शत्रुन्।।
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि ।
धन के अभाव में कैसे करें श्राद्ध ।।
ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ; वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।
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