गायत्री के तन्त्र ग्रन्थों में २४ गायत्रियों का वर्णन है। गायत्री मन्त्र के जप से श्रेष्ठ कोई जप न आज तक हुआ है और न होगा।’श्रीगणेश गीता ऊँ नम: शिवाय ऊँ गं गणपतये नम: |
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भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में गीता उपदेश दिया था, यह बात तो सब जानते हैं लेकिन विघ्न विनाशक गणपति ने भी गीता का उपदेश दिया था, ये कम लोगों को पता है।
श्रीकृष्ण गीता और गणेश गीता में लगभग सारे विषय समान हैं। बस दोनों में उपदेश देने की मन: स्थिति में अंतर है। भगवत गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र के मैदान में, मोह और अपना कर्तव्य भूल चुके अर्जुन को दिया गया था। लेकिन गणेश गीता में विघ्नविनाशक गणपति, यह उपदेश युद्ध के बाद , राजा वरेण्य को देते हैं। दोनों ही गीता में गीता सुनने वाले श्रोताओं अर्जुन और राजा वरेण्य की स्थिति और परिस्थिति में अंतर है।
भगवत गीता के पहले अध्याय अर्जुन विषाद योग से यह बात स्पष्ट होती है कि अर्जुन मोह के कारण मूढ़ावस्था में चले गये थे। लेकिन राजा वरेण्य मुमुक्षु स्थिति में थे। वह अपने धर्म और कर्तव्य को जानते थे
श्रीगणेश गीता ,,देवराज इंद्र समेत सारे देवी देवता, सिंदूरा दैत्य के अत्याचार से परेशान थे। जब ब्रह्मा जी से सिंदूरा से मुक्ति का उपाय पूछा गया तो उन्होने गणपति के पास जाने को कहा। सभी देवताओं ने गणपति से प्रार्थना की कि वह दैत्य सिंदूरा के अत्याचार से मुक्ति दिलायें। देवताओं और ऋषियों की आराधना से भगवान गणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने मां जगदंबा के घर गजानन रुप में अवतार लिया। इधर राजा वरेण्य की पत्नी पुष्पिका के घर भी एक बालक ने जन्म लिया। लेकिन प्रसव की पीड़ा से रानी मूर्छित हो गईं और उनके पुत्र को राक्षसी उठा ले गई। ठीक इसी समय भगवान शिव के गणों ने गजानन को रानी पुष्पिका के पास पहुंचा दिया। क्योंकि गणपति भगवान ने कभी राजा वरेण्य की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वह उनके यहां पुत्र रूप में जन्म लेंगे।
लेकिन जब रानी पुष्पिका की मूर्छा टूटी तो वो चतुर्भुज गजमुख गणपति के इस रूप को देखकर डर गईं। राजा वरेण्य के पास यह सूचना पहुंचाई गई कि ऐसा बालक पैदा होना राज्य के लिये अशुभ होगा। बस राजा वरेण्य ने उस बालक यानि गणपति को जंगल में छोड़ दिया। जंगल में इस शिशु के शरीर पर मिले शुभ लक्षणों को देखकर महर्षि पराशर उस बालक को आश्रम लाये।
यहीं पर पत्नी वत्सला और पराशर ऋषि ने गणपति का पालन पोषण किया। बाद में राजा वरेण्य को यह पता चला कि जिस बालक को उन्होने जंगल में छोड़ा था, वह कोई और नहीं बल्कि गणपति हैं।
अपनी इसी गलती से हुए पश्चाताप के कारण वह भगवान गणपति से प्रार्थना करते हैं कि मैं अज्ञान के कारण आपके स्वरूप को पहचान नहीं सका इसलिये मुझे क्षमा करें। करुणामूर्ति गजानन पिता वरेण्य की प्रार्थना सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने राजा को कृपापूर्वक अपने पूर्वजन्म के वरदान का स्मरण कराया|
भगवान् गजानन पिता वरेण्य से अपने स्वधाम-यात्रा की आज्ञा माँगी| स्वधाम-गमन की बात सुनकर राजा वरेण्य व्याकुल हो उठे अश्रुपूर्ण नेत्र और अत्यंत दीनता से प्रार्थना करते हुए बोले- ‘कृपामय! मेरा अज्ञान दूरकर मुझे मुक्ति का मार्ग प्रदान करे|’
राजा वरेण्य की दीनता से प्रसन्न होकर भगवान् गजानन ने उन्हें ज्ञानोपदेश प्रदान किया| यही अमृतोपदेश गणेश-गीता के नाम से विख्यात है|
गणेश गीता की मुख्य बातें:
श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में 700 श्लोक हैं, जबकि ‘गणेशगीता’ के 11 अध्यायों में 414 श्लोक हैं।
‘सांख्यसारार्थ’ नामक प्रथम अध्याय में गणपति ने योग का उपदेश दिया और राजा वरेण्य को शांति का मार्ग बतलाया।
‘कर्मयोग’ नामक दूसरे अध्याय में गणेशजी ने राजा को कर्म के मर्म का उपदेश दिया।
‘विज्ञानयोग’ नामक तीसरे अध्याय में भगवान गणेश ने वरेण्य को अपने अवतार-धारण करने का रहस्य बताया।
गणेशगीता के ‘वैधसंन्यासयोग’ नाम वाले चौथे अध्याय में योगाभ्यास तथा प्राणायाम से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें बतलाई गई हैं।
‘योगवृत्तिप्रशंसनयोग’ नामक पांचवें अध्याय में योगाभ्यास के अनुकूल-प्रतिकूल देश-काल-पात्र की चर्चा की गई है।
‘बुद्धियोग’ नाम के छठे अध्याय में श्रीगजानन कहते हैं, ‘अपने किसी सत्कर्म के प्रभाव से ही मनुष्य में मुझे (ईश्वर को) जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। जिसका जैसा भाव होता है, उसके अनुरूप ही मैं उसकी इच्छा पूर्ण करता हूं। अंतकाल में मेरी (भगवान को पाने की) इच्छा करने वाला मुझमें ही लीन हो जाता है। मेरे तत्व को समझने वाले भक्तों का योग-क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं।’
‘उपासनायोग’ नामक सातवें अध्याय में भक्तियोग का वर्णन है।
‘विश्वरूपदर्शनयोग’ नाम के आठवें अध्याय में भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को अपने विराट रूप का दर्शन कराया।
नौवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान तथा सत्व, रज, तम-तीनों गुणों का परिचय दिया गया है।
‘उपदेशयोग’ नामक दसवें अध्याय में दैवी, आसुरी और राक्षसी-तीनों प्रकार की प्रकृतियों के लक्षण बतलाए गए हैं। इस अध्याय में गजानन कहते हैं-‘काम, क्रोध, लोभ और दंभ- ये चार नरकों के महाद्वार हैं, अत: इन्हें त्याग देना चाहिए तथा दैवी प्रकृति को अपनाकर मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिए।
‘त्रिविधवस्तुविवेक-निरूपणयोग’ नामक अंतिम ग्यारहवें अध्याय में कायिक, वाचिक तथा मानसिक भेद से तप के तीन प्रकार बताए गए हैं।
श्रीमद्भगवत गीता और गणेश गीता
श्रीमद्भगवद्गीता और गणेशगीता का आरंभ भिन्न-भिन्न स्थितियों में हुआ था, उसी तरह इन दोनों गीताओं को सुनने के परिणाम भी अलग-अलग हुए। अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने के लिए तैयार हो गया, जबकि राजा वरेण्य राजगद्दी त्यागकर वन में चले गए। वहां उन्होंने गणेशगीता में कथित योग का आश्रय लेकर मोक्ष पा लिया।
गणेशगीता में लिखा है, ‘जिस प्रकार जल जल में मिलने पर जल ही हो जाता है, उसी तरह श्री गणेश का चिंतन करते हुए राजा वरेण्य भी ब्रह्मालीन हो गए।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
सर्वफलप्रदा, देवताओं और ऋषियों की उपास्य गायत्री
’करोड़ों मन्त्रों में सर्वप्रमुख मन्त्र गायत्री है जिसकी उपासना ब्रह्मा आदि देव भी करते हैं। यह गायत्री ही वेदों का मूल है।’
गायत्री यद्यपि एक वैदिक छन्द है, परन्तु इसकी एक देवी के रूप में मान्यता है। ‘समस्त लोकों में परमात्मस्वरूपिणी जो ब्रह्मशक्ति विराज रही है, वही सूक्ष्म-सत् प्रकृति के रूप में गायत्री के नाम से जानी जाती है।’ गायत्री के तीन रूप हैं–सरस्वती, लक्ष्मी एवं काली।
ह्रीं श्रीं क्लीं चेति रूपेभ्यस्त्रिभ्यो हि लोकपालिका।
भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका।। (गायत्रीसंहिता)
अर्थ–ह्रीं–अर्थात् ज्ञान, बुद्धि, विवेक, प्रेम, संयम, सदाचार। श्रीं–धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, भोग, ऐश्वर्य। क्लीं–अर्थात् स्वास्थ्य, बल, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ, तेज। इन तीन रूपों एवं विशेषताओं से पालन करने वाली त्रिगुणात्मक ईश्वरीय शक्ति ही गायत्री है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा वेद भी गायत्री का ध्यान और जप करते हैं, अत: गायत्री को ‘वेदोपास्या’ भी कहते हैं। ब्रह्माजी ने तराजू के एक पलड़े में चारों वेदों को और दूसरे में गायत्री को रखकर तौला तो गायत्री चारों वेदों की तुलना में भारी सिद्ध हुई। इसीलिए ऋषियों ने गायत्री उपासना को मनुष्यों के लिए वैसे ही आवश्यक बताया जैसे कि सांस लेना, भोजन ग्रहण करना और निद्रा आदि।
ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र आदि बड़े-बड़े दिव्य अस्त्र इसी गायत्री मन्त्र के अनुलोम-विलोम विधि से तैयार किए जाते हैं। सन्ध्यावन्दन के समय गायत्री मन्त्र के उच्चारण के साथ दिया गया अर्घ्य ऐसे ही ब्रह्मास्त्र का रूप धारणकर सूर्य के सभी शत्रु राक्षसों का सफाया करके उनके उदित होने के लिए निष्कण्टक मार्ग बना देता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ के वध के लिए भगवान शंकर से प्राप्त पचासों दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया तब वशिष्ठ ने केवल ब्रह्मदण्ड से ही उन सब दिव्यास्त्रों को निष्फल कर दिया। ऋषि वशिष्ठ ने इस ब्रह्मदण्ड का निर्माण गायत्री मन्त्र की साधना से ही किया था।
स्कन्दपुराण में महर्षि व्यास ने कहा है–‘गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धिदायक साधन और कोई नहीं है।’
गायत्री सद्बुद्धिदायक मन्त्र है
ॐ भू: भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।
अर्थ–‘पृथ्वीलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक में व्याप्त उस श्रेष्ठ परमात्मा का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सत् की ओर प्रेरित करे।’
गायत्री मन्त्र में ईश्वर से सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना की गई है। गायत्री मन्त्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई है कि उसकी साधना से अपने भीतर छुपे अनेक गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं। वह साधक के मन को, अंत:करण को, मस्तिष्क को और विचारों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है और सद्बुद्धि उत्पन्न करता है, जिसके कारण कुबुद्धि का अज्ञानान्धकार दूर होता है।
देवता पशुपालक की तरह दण्ड लेकर किसी की रक्षा के लिए उसके पीछे नहीं चलते, वरन् जिसकी रक्षा करनी होती है, उसे सद्बुद्धि दे देते हैं। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में २४ अमूल्य शिक्षा संदेश भरे हुए हैं। वेदमाता गायत्री का मन्त्र छोटा-सा है पर इतने थोड़े में ही अनन्त ज्ञान का समुद्र भरा पड़ा है।
गायत्री उपासना पारस पत्थर के समान
गायत्री उपासना पारस पत्थर के समान है। पारस का महत्व इसलिए है कि वह लोहे की तुच्छता को सोने की महानता में बदल देता है। गायत्री उपासना से भी साधक के अंत:करण में जो प्रकाश जगता है, वह साहस और पुरुषार्थ में बदलकर मानव को ऊंचे उद्देश्यों की प्राप्ति कराकर उसका कायाकल्प कर देता है। प्राचीनकाल में सावित्री ने एक वर्ष तक गायत्री जप करके वह शक्ति प्राप्त की थी जिससे वह अपने मृत पति सत्यवान के प्राणों को यमराज से लौटा सकी। गान्धारी आंखों पर पट्टी बांधकर तप करती थीं जिससे उनके नेत्रों में वह शक्ति उत्पन्न हो गयी कि उनके दृष्टिपातमात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया। जिस जंघा पर उसने लज्जावश कपड़ा डाल लिया, वह कच्ची रह गयी और उसी पर प्रहार करके भीम ने दुर्योधन को मारा था। देवी अनुसुइया ने तप से ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नन्हे बालक बना दिया। सुकन्या की तपस्या से जीर्ण-शीर्ण च्यवन ऋषि तरुण हो गए।
ब्रह्म गायत्री एवं देव गायत्री
गायत्री के तन्त्र ग्रन्थों में २४ गायत्रियों का वर्णन है। चौबीस देवताओं के लिए एक-एक गायत्री है। गायत्री छन्द में ग्रथित होने से उन्हें ‘गायत्री’ कहते हैं। इस प्रकार २४ गायत्रियों द्वारा २४ देवताओं से सम्बन्ध स्थापित किया गया है।
गायत्री त्रिपदा कही जाती है। गायत्री मन्त्र के २४ अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। गायत्री मन्त्र के ‘विद्महे’, ‘धीमहि’ और ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ शब्दों को लेकर चौबीस देवताओं की गायत्री रची गयी है। इससे गायत्री मन्त्र की पवित्रता, उच्चता और सर्वश्रेष्ठता सिद्ध होती है।
‘धीमहि’ कहते हैं–ध्यान को। पर किसका ध्यान? उस मंगलमय प्रकाशवान परमात्मा का ध्यान, जिसको हृदय में धारण करने पर सब प्रकार की सुख-शान्ति, ऐश्वर्य, प्राण-शक्ति और परमपद की प्राप्ति होती है।
यो न: प्रचोदयात्’ में कामनाओं की ओर संकेत किया गया है। मनुष्य कामनाओं से बना हुआ है। कामना (इच्छा) के कारण ही यह संसार चल रहा है। परन्तु मनुष्य की कामनाएं स्वार्थ से ऊपर उठकर धर्ममय होनी चाहिए जो सबके लिए हितकर हों। यही गायत्री का स्वरूप है। गायत्री मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि व श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करने की कामना की गयी है।
गायत्री-मन्त्र में चौबीस शक्तियां गुंथी हुई हैं। गायत्री मन्त्र की उपासना करने से उन शक्तियों का लाभ साधक को मिलता है। चौबीस देवताओं की चौबीस शक्तियां हैं। मनुष्य को जिस शक्ति की कामना हो या इन शक्तियों में से किसी शक्ति की अपने में कमी का अनुभव होता हो तो उसे उस शक्ति वाले देवता की उपासना करनी चाहिए। उस देवता का ध्यान करते हुए देव गायत्री का जप करना चाहिए। इनके जप से उस देवता के साथ साधक का विशेष रूप से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है और उस देव से सम्बन्ध रखने वाली चैतन्य शक्तियां, सिद्धियां साधक को प्राप्त हो जाती हैं। उस शक्ति के देवता की गायत्री का जप भी मूल गायत्री जप के साथ करने से लाभ होता है।
जैसे दूध में सभी पोषक तत्त्व होते हैं और दूध पीने वाले को सभी पोषक तत्त्वों का लाभ मिलता है। परन्तु यदि किसी को किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता होती है तो वह दूध के उसी विशेष तत्त्व का ही सेवन करता है। किसी को यदि चिकनाई की आवश्यकता है तो वह दूध के चिकनाई वाले भाग घी का सेवन करता है। किसी को छाछ की आवश्कता है तो वह दूध के छाछ वाले अंश को ग्रहण करता है। रोगियों को दूध फाड़कर उसका पानी देते हैं। उसी प्रकार विशेष शक्तियों की आवश्यकता होने पर मनुष्य को उसी शक्ति से सम्बन्धित देव की आराधना करनी चाहिए।
जिस देवता की जो गायत्री है उसका दशांश जप गायत्री मन्त्र साधना के साथ करना चाहिए। देवताओं की गायत्रियां वेदमाता गायत्री की छोटी-छोटी शाखाएं है, जो तभी तक हरी-भरी रहती हैं, जब तक वे मूलवृक्ष के साथ जुड़ी हुई हैं। वृक्ष से अलग कट जाने पर शाखा निष्प्राण हो जाती है, उसी प्रकार अकेले देव गायत्री भी निष्प्राण होती है, उसका जप महागायत्री (गायत्री मन्त्र) के साथ ही करना चाहिए।
चौबीस ,,24,,देवताओं के गायत्री मन्त्र
१. गणेश गायत्री–ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।
२. नृसिंह गायत्री–ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि। तन्नो नृसिंह: प्रचोदयात्।
३. विष्णु गायत्री–ॐ त्रैलोक्यमोहनाय विद्महे कामदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।
४. शिव गायत्री–ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।
५. कृष्ण गायत्री–ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्।
६. राधा गायत्री–ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि। तन्नो राधा प्रचोदयात्।
७. लक्ष्मी गायत्री–ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि । तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।
८. अग्नि गायत्री–ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि। तन्नो अग्नि: प्रचोदयात्।
९. इन्द्र गायत्री–ॐ सहस्त्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि। तन्नो इन्द्र: प्रचोदयात्।
१०. सरस्वती गायत्री–ॐ सरस्वत्यै विद्महे ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्।
११. दुर्गा गायत्री–ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि। तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्।
१२. हनुमान गायत्री–ॐ अांजनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि। तन्नो मारुति: प्रचोदयात्।
१३. पृथ्वी गायत्री–ॐ पृथ्वीदेव्यै विद्महे सहस्त्रमूत्यै धीमहि। तन्नो पृथ्वी प्रचोदयात्।
१४. सूर्य गायत्री–ॐ आदित्याय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि। तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।
१५. राम गायत्री–ॐ दशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि। तन्नो राम: प्रचोदयात्।
१६. सीता गायत्री–ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै धीमहि। तन्नो सीता प्रचोदयात्।
१७. चन्द्र गायत्री–ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्त्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्।
१८. यम गायत्री–ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि। तन्नो यम: प्रचोदयात्।
१९. ब्रह्मा गायत्री–ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारुढ़ाय धीमहि। तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्।
२०. वरुण गायत्री–ॐ जलबिम्वाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि। तन्नो वरुण: प्रचोदयात्।
२१. नारायण गायत्री–ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो नारायण: प्रचोदयात्।
२२. हयग्रीव गायत्री–ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि। तन्नो हयग्रीव: प्रचोदयात्।
२३. हंस गायत्री–ॐ परमहंसाय विद्महे महाहंसाय धीमहि। तन्नो हंस: प्रचोदयात्।
२४. तुलसी गायत्री–ॐ श्रीतुलस्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।
गायत्री साधना का प्रभाव तत्काल होता है जिससे साधक को आत्मबल प्राप्त होता है और मानसिक कष्ट में तुरन्त शान्ति मिलती है। इस महामन्त्र के प्रभाव से आत्मा में सतोगुण बढ़ता है।
ध्यान देने योग्य
गायत्री जप में आसन का भी विचार किया जाता है। बांस, पत्थर, लकड़ी, वृक्ष के पत्ते, घास-फूस के आसनों पर बैठकर जप करने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती, वरन् दरिद्रता आती है। गायत्री शक्ति का ध्यान करके करमाला, रुद्राक्ष या तुलसी की माला में जप करना चाहिए। मन में मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। न जीभ हिले, न होंठ।
गायत्री की महिमा के सम्बन्ध में क्या कहा जाए। ब्रह्म की जितनी महिमा है, वह सब गायत्री की भी मानी जाती हैं।
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भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में गीता उपदेश दिया था, यह बात तो सब जानते हैं लेकिन विघ्न विनाशक गणपति ने भी गीता का उपदेश दिया था, ये कम लोगों को पता है।
श्रीकृष्ण गीता और गणेश गीता में लगभग सारे विषय समान हैं। बस दोनों में उपदेश देने की मन: स्थिति में अंतर है। भगवत गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र के मैदान में, मोह और अपना कर्तव्य भूल चुके अर्जुन को दिया गया था। लेकिन गणेश गीता में विघ्नविनाशक गणपति, यह उपदेश युद्ध के बाद , राजा वरेण्य को देते हैं। दोनों ही गीता में गीता सुनने वाले श्रोताओं अर्जुन और राजा वरेण्य की स्थिति और परिस्थिति में अंतर है।
भगवत गीता के पहले अध्याय अर्जुन विषाद योग से यह बात स्पष्ट होती है कि अर्जुन मोह के कारण मूढ़ावस्था में चले गये थे। लेकिन राजा वरेण्य मुमुक्षु स्थिति में थे। वह अपने धर्म और कर्तव्य को जानते थे
श्रीगणेश गीता ,,देवराज इंद्र समेत सारे देवी देवता, सिंदूरा दैत्य के अत्याचार से परेशान थे। जब ब्रह्मा जी से सिंदूरा से मुक्ति का उपाय पूछा गया तो उन्होने गणपति के पास जाने को कहा। सभी देवताओं ने गणपति से प्रार्थना की कि वह दैत्य सिंदूरा के अत्याचार से मुक्ति दिलायें। देवताओं और ऋषियों की आराधना से भगवान गणेश प्रसन्न हुए और उन्होंने मां जगदंबा के घर गजानन रुप में अवतार लिया। इधर राजा वरेण्य की पत्नी पुष्पिका के घर भी एक बालक ने जन्म लिया। लेकिन प्रसव की पीड़ा से रानी मूर्छित हो गईं और उनके पुत्र को राक्षसी उठा ले गई। ठीक इसी समय भगवान शिव के गणों ने गजानन को रानी पुष्पिका के पास पहुंचा दिया। क्योंकि गणपति भगवान ने कभी राजा वरेण्य की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वह उनके यहां पुत्र रूप में जन्म लेंगे।
लेकिन जब रानी पुष्पिका की मूर्छा टूटी तो वो चतुर्भुज गजमुख गणपति के इस रूप को देखकर डर गईं। राजा वरेण्य के पास यह सूचना पहुंचाई गई कि ऐसा बालक पैदा होना राज्य के लिये अशुभ होगा। बस राजा वरेण्य ने उस बालक यानि गणपति को जंगल में छोड़ दिया। जंगल में इस शिशु के शरीर पर मिले शुभ लक्षणों को देखकर महर्षि पराशर उस बालक को आश्रम लाये।
यहीं पर पत्नी वत्सला और पराशर ऋषि ने गणपति का पालन पोषण किया। बाद में राजा वरेण्य को यह पता चला कि जिस बालक को उन्होने जंगल में छोड़ा था, वह कोई और नहीं बल्कि गणपति हैं।
अपनी इसी गलती से हुए पश्चाताप के कारण वह भगवान गणपति से प्रार्थना करते हैं कि मैं अज्ञान के कारण आपके स्वरूप को पहचान नहीं सका इसलिये मुझे क्षमा करें। करुणामूर्ति गजानन पिता वरेण्य की प्रार्थना सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने राजा को कृपापूर्वक अपने पूर्वजन्म के वरदान का स्मरण कराया|
भगवान् गजानन पिता वरेण्य से अपने स्वधाम-यात्रा की आज्ञा माँगी| स्वधाम-गमन की बात सुनकर राजा वरेण्य व्याकुल हो उठे अश्रुपूर्ण नेत्र और अत्यंत दीनता से प्रार्थना करते हुए बोले- ‘कृपामय! मेरा अज्ञान दूरकर मुझे मुक्ति का मार्ग प्रदान करे|’
राजा वरेण्य की दीनता से प्रसन्न होकर भगवान् गजानन ने उन्हें ज्ञानोपदेश प्रदान किया| यही अमृतोपदेश गणेश-गीता के नाम से विख्यात है|
गणेश गीता की मुख्य बातें:
श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में 700 श्लोक हैं, जबकि ‘गणेशगीता’ के 11 अध्यायों में 414 श्लोक हैं।
‘सांख्यसारार्थ’ नामक प्रथम अध्याय में गणपति ने योग का उपदेश दिया और राजा वरेण्य को शांति का मार्ग बतलाया।
‘कर्मयोग’ नामक दूसरे अध्याय में गणेशजी ने राजा को कर्म के मर्म का उपदेश दिया।
‘विज्ञानयोग’ नामक तीसरे अध्याय में भगवान गणेश ने वरेण्य को अपने अवतार-धारण करने का रहस्य बताया।
गणेशगीता के ‘वैधसंन्यासयोग’ नाम वाले चौथे अध्याय में योगाभ्यास तथा प्राणायाम से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें बतलाई गई हैं।
‘योगवृत्तिप्रशंसनयोग’ नामक पांचवें अध्याय में योगाभ्यास के अनुकूल-प्रतिकूल देश-काल-पात्र की चर्चा की गई है।
‘बुद्धियोग’ नाम के छठे अध्याय में श्रीगजानन कहते हैं, ‘अपने किसी सत्कर्म के प्रभाव से ही मनुष्य में मुझे (ईश्वर को) जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। जिसका जैसा भाव होता है, उसके अनुरूप ही मैं उसकी इच्छा पूर्ण करता हूं। अंतकाल में मेरी (भगवान को पाने की) इच्छा करने वाला मुझमें ही लीन हो जाता है। मेरे तत्व को समझने वाले भक्तों का योग-क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं।’
‘उपासनायोग’ नामक सातवें अध्याय में भक्तियोग का वर्णन है।
‘विश्वरूपदर्शनयोग’ नाम के आठवें अध्याय में भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को अपने विराट रूप का दर्शन कराया।
नौवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान तथा सत्व, रज, तम-तीनों गुणों का परिचय दिया गया है।
‘उपदेशयोग’ नामक दसवें अध्याय में दैवी, आसुरी और राक्षसी-तीनों प्रकार की प्रकृतियों के लक्षण बतलाए गए हैं। इस अध्याय में गजानन कहते हैं-‘काम, क्रोध, लोभ और दंभ- ये चार नरकों के महाद्वार हैं, अत: इन्हें त्याग देना चाहिए तथा दैवी प्रकृति को अपनाकर मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिए।
‘त्रिविधवस्तुविवेक-निरूपणयोग’ नामक अंतिम ग्यारहवें अध्याय में कायिक, वाचिक तथा मानसिक भेद से तप के तीन प्रकार बताए गए हैं।
श्रीमद्भगवत गीता और गणेश गीता
श्रीमद्भगवद्गीता और गणेशगीता का आरंभ भिन्न-भिन्न स्थितियों में हुआ था, उसी तरह इन दोनों गीताओं को सुनने के परिणाम भी अलग-अलग हुए। अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने के लिए तैयार हो गया, जबकि राजा वरेण्य राजगद्दी त्यागकर वन में चले गए। वहां उन्होंने गणेशगीता में कथित योग का आश्रय लेकर मोक्ष पा लिया।
गणेशगीता में लिखा है, ‘जिस प्रकार जल जल में मिलने पर जल ही हो जाता है, उसी तरह श्री गणेश का चिंतन करते हुए राजा वरेण्य भी ब्रह्मालीन हो गए।!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!
सर्वफलप्रदा, देवताओं और ऋषियों की उपास्य गायत्री
’करोड़ों मन्त्रों में सर्वप्रमुख मन्त्र गायत्री है जिसकी उपासना ब्रह्मा आदि देव भी करते हैं। यह गायत्री ही वेदों का मूल है।’
गायत्री यद्यपि एक वैदिक छन्द है, परन्तु इसकी एक देवी के रूप में मान्यता है। ‘समस्त लोकों में परमात्मस्वरूपिणी जो ब्रह्मशक्ति विराज रही है, वही सूक्ष्म-सत् प्रकृति के रूप में गायत्री के नाम से जानी जाती है।’ गायत्री के तीन रूप हैं–सरस्वती, लक्ष्मी एवं काली।
ह्रीं श्रीं क्लीं चेति रूपेभ्यस्त्रिभ्यो हि लोकपालिका।
भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका।। (गायत्रीसंहिता)
अर्थ–ह्रीं–अर्थात् ज्ञान, बुद्धि, विवेक, प्रेम, संयम, सदाचार। श्रीं–धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, भोग, ऐश्वर्य। क्लीं–अर्थात् स्वास्थ्य, बल, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ, तेज। इन तीन रूपों एवं विशेषताओं से पालन करने वाली त्रिगुणात्मक ईश्वरीय शक्ति ही गायत्री है।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा वेद भी गायत्री का ध्यान और जप करते हैं, अत: गायत्री को ‘वेदोपास्या’ भी कहते हैं। ब्रह्माजी ने तराजू के एक पलड़े में चारों वेदों को और दूसरे में गायत्री को रखकर तौला तो गायत्री चारों वेदों की तुलना में भारी सिद्ध हुई। इसीलिए ऋषियों ने गायत्री उपासना को मनुष्यों के लिए वैसे ही आवश्यक बताया जैसे कि सांस लेना, भोजन ग्रहण करना और निद्रा आदि।
ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र आदि बड़े-बड़े दिव्य अस्त्र इसी गायत्री मन्त्र के अनुलोम-विलोम विधि से तैयार किए जाते हैं। सन्ध्यावन्दन के समय गायत्री मन्त्र के उच्चारण के साथ दिया गया अर्घ्य ऐसे ही ब्रह्मास्त्र का रूप धारणकर सूर्य के सभी शत्रु राक्षसों का सफाया करके उनके उदित होने के लिए निष्कण्टक मार्ग बना देता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ के वध के लिए भगवान शंकर से प्राप्त पचासों दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया तब वशिष्ठ ने केवल ब्रह्मदण्ड से ही उन सब दिव्यास्त्रों को निष्फल कर दिया। ऋषि वशिष्ठ ने इस ब्रह्मदण्ड का निर्माण गायत्री मन्त्र की साधना से ही किया था।
स्कन्दपुराण में महर्षि व्यास ने कहा है–‘गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धिदायक साधन और कोई नहीं है।’
गायत्री सद्बुद्धिदायक मन्त्र है
ॐ भू: भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।
अर्थ–‘पृथ्वीलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक में व्याप्त उस श्रेष्ठ परमात्मा का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सत् की ओर प्रेरित करे।’
गायत्री मन्त्र में ईश्वर से सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना की गई है। गायत्री मन्त्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई है कि उसकी साधना से अपने भीतर छुपे अनेक गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं। वह साधक के मन को, अंत:करण को, मस्तिष्क को और विचारों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है और सद्बुद्धि उत्पन्न करता है, जिसके कारण कुबुद्धि का अज्ञानान्धकार दूर होता है।
देवता पशुपालक की तरह दण्ड लेकर किसी की रक्षा के लिए उसके पीछे नहीं चलते, वरन् जिसकी रक्षा करनी होती है, उसे सद्बुद्धि दे देते हैं। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में २४ अमूल्य शिक्षा संदेश भरे हुए हैं। वेदमाता गायत्री का मन्त्र छोटा-सा है पर इतने थोड़े में ही अनन्त ज्ञान का समुद्र भरा पड़ा है।
गायत्री उपासना पारस पत्थर के समान
गायत्री उपासना पारस पत्थर के समान है। पारस का महत्व इसलिए है कि वह लोहे की तुच्छता को सोने की महानता में बदल देता है। गायत्री उपासना से भी साधक के अंत:करण में जो प्रकाश जगता है, वह साहस और पुरुषार्थ में बदलकर मानव को ऊंचे उद्देश्यों की प्राप्ति कराकर उसका कायाकल्प कर देता है। प्राचीनकाल में सावित्री ने एक वर्ष तक गायत्री जप करके वह शक्ति प्राप्त की थी जिससे वह अपने मृत पति सत्यवान के प्राणों को यमराज से लौटा सकी। गान्धारी आंखों पर पट्टी बांधकर तप करती थीं जिससे उनके नेत्रों में वह शक्ति उत्पन्न हो गयी कि उनके दृष्टिपातमात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया। जिस जंघा पर उसने लज्जावश कपड़ा डाल लिया, वह कच्ची रह गयी और उसी पर प्रहार करके भीम ने दुर्योधन को मारा था। देवी अनुसुइया ने तप से ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नन्हे बालक बना दिया। सुकन्या की तपस्या से जीर्ण-शीर्ण च्यवन ऋषि तरुण हो गए।
ब्रह्म गायत्री एवं देव गायत्री
गायत्री के तन्त्र ग्रन्थों में २४ गायत्रियों का वर्णन है। चौबीस देवताओं के लिए एक-एक गायत्री है। गायत्री छन्द में ग्रथित होने से उन्हें ‘गायत्री’ कहते हैं। इस प्रकार २४ गायत्रियों द्वारा २४ देवताओं से सम्बन्ध स्थापित किया गया है।
गायत्री त्रिपदा कही जाती है। गायत्री मन्त्र के २४ अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। गायत्री मन्त्र के ‘विद्महे’, ‘धीमहि’ और ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ शब्दों को लेकर चौबीस देवताओं की गायत्री रची गयी है। इससे गायत्री मन्त्र की पवित्रता, उच्चता और सर्वश्रेष्ठता सिद्ध होती है।
‘धीमहि’ कहते हैं–ध्यान को। पर किसका ध्यान? उस मंगलमय प्रकाशवान परमात्मा का ध्यान, जिसको हृदय में धारण करने पर सब प्रकार की सुख-शान्ति, ऐश्वर्य, प्राण-शक्ति और परमपद की प्राप्ति होती है।
यो न: प्रचोदयात्’ में कामनाओं की ओर संकेत किया गया है। मनुष्य कामनाओं से बना हुआ है। कामना (इच्छा) के कारण ही यह संसार चल रहा है। परन्तु मनुष्य की कामनाएं स्वार्थ से ऊपर उठकर धर्ममय होनी चाहिए जो सबके लिए हितकर हों। यही गायत्री का स्वरूप है। गायत्री मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि व श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करने की कामना की गयी है।
गायत्री-मन्त्र में चौबीस शक्तियां गुंथी हुई हैं। गायत्री मन्त्र की उपासना करने से उन शक्तियों का लाभ साधक को मिलता है। चौबीस देवताओं की चौबीस शक्तियां हैं। मनुष्य को जिस शक्ति की कामना हो या इन शक्तियों में से किसी शक्ति की अपने में कमी का अनुभव होता हो तो उसे उस शक्ति वाले देवता की उपासना करनी चाहिए। उस देवता का ध्यान करते हुए देव गायत्री का जप करना चाहिए। इनके जप से उस देवता के साथ साधक का विशेष रूप से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है और उस देव से सम्बन्ध रखने वाली चैतन्य शक्तियां, सिद्धियां साधक को प्राप्त हो जाती हैं। उस शक्ति के देवता की गायत्री का जप भी मूल गायत्री जप के साथ करने से लाभ होता है।
जैसे दूध में सभी पोषक तत्त्व होते हैं और दूध पीने वाले को सभी पोषक तत्त्वों का लाभ मिलता है। परन्तु यदि किसी को किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता होती है तो वह दूध के उसी विशेष तत्त्व का ही सेवन करता है। किसी को यदि चिकनाई की आवश्यकता है तो वह दूध के चिकनाई वाले भाग घी का सेवन करता है। किसी को छाछ की आवश्कता है तो वह दूध के छाछ वाले अंश को ग्रहण करता है। रोगियों को दूध फाड़कर उसका पानी देते हैं। उसी प्रकार विशेष शक्तियों की आवश्यकता होने पर मनुष्य को उसी शक्ति से सम्बन्धित देव की आराधना करनी चाहिए।
जिस देवता की जो गायत्री है उसका दशांश जप गायत्री मन्त्र साधना के साथ करना चाहिए। देवताओं की गायत्रियां वेदमाता गायत्री की छोटी-छोटी शाखाएं है, जो तभी तक हरी-भरी रहती हैं, जब तक वे मूलवृक्ष के साथ जुड़ी हुई हैं। वृक्ष से अलग कट जाने पर शाखा निष्प्राण हो जाती है, उसी प्रकार अकेले देव गायत्री भी निष्प्राण होती है, उसका जप महागायत्री (गायत्री मन्त्र) के साथ ही करना चाहिए।
चौबीस ,,24,,देवताओं के गायत्री मन्त्र
१. गणेश गायत्री–ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।
२. नृसिंह गायत्री–ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि। तन्नो नृसिंह: प्रचोदयात्।
३. विष्णु गायत्री–ॐ त्रैलोक्यमोहनाय विद्महे कामदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।
४. शिव गायत्री–ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।
५. कृष्ण गायत्री–ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो कृष्ण: प्रचोदयात्।
६. राधा गायत्री–ॐ वृषभानुजायै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि। तन्नो राधा प्रचोदयात्।
७. लक्ष्मी गायत्री–ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि । तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्।
८. अग्नि गायत्री–ॐ महाज्वालाय विद्महे अग्निदेवाय धीमहि। तन्नो अग्नि: प्रचोदयात्।
९. इन्द्र गायत्री–ॐ सहस्त्रनेत्राय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि। तन्नो इन्द्र: प्रचोदयात्।
१०. सरस्वती गायत्री–ॐ सरस्वत्यै विद्महे ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्।
११. दुर्गा गायत्री–ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि। तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्।
१२. हनुमान गायत्री–ॐ अांजनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि। तन्नो मारुति: प्रचोदयात्।
१३. पृथ्वी गायत्री–ॐ पृथ्वीदेव्यै विद्महे सहस्त्रमूत्यै धीमहि। तन्नो पृथ्वी प्रचोदयात्।
१४. सूर्य गायत्री–ॐ आदित्याय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि। तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।
१५. राम गायत्री–ॐ दशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि। तन्नो राम: प्रचोदयात्।
१६. सीता गायत्री–ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे भूमिजायै धीमहि। तन्नो सीता प्रचोदयात्।
१७. चन्द्र गायत्री–ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे अमृतत्त्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्र: प्रचोदयात्।
१८. यम गायत्री–ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे महाकालाय धीमहि। तन्नो यम: प्रचोदयात्।
१९. ब्रह्मा गायत्री–ॐ चतुर्मुखाय विद्महे हंसारुढ़ाय धीमहि। तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्।
२०. वरुण गायत्री–ॐ जलबिम्वाय विद्महे नीलपुरुषाय धीमहि। तन्नो वरुण: प्रचोदयात्।
२१. नारायण गायत्री–ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो नारायण: प्रचोदयात्।
२२. हयग्रीव गायत्री–ॐ वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि। तन्नो हयग्रीव: प्रचोदयात्।
२३. हंस गायत्री–ॐ परमहंसाय विद्महे महाहंसाय धीमहि। तन्नो हंस: प्रचोदयात्।
२४. तुलसी गायत्री–ॐ श्रीतुलस्यै विद्महे विष्णुप्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।
गायत्री साधना का प्रभाव तत्काल होता है जिससे साधक को आत्मबल प्राप्त होता है और मानसिक कष्ट में तुरन्त शान्ति मिलती है। इस महामन्त्र के प्रभाव से आत्मा में सतोगुण बढ़ता है।
ध्यान देने योग्य
गायत्री जप में आसन का भी विचार किया जाता है। बांस, पत्थर, लकड़ी, वृक्ष के पत्ते, घास-फूस के आसनों पर बैठकर जप करने से सिद्धि प्राप्त नहीं होती, वरन् दरिद्रता आती है। गायत्री शक्ति का ध्यान करके करमाला, रुद्राक्ष या तुलसी की माला में जप करना चाहिए। मन में मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। न जीभ हिले, न होंठ।
गायत्री की महिमा के सम्बन्ध में क्या कहा जाए। ब्रह्म की जितनी महिमा है, वह सब गायत्री की भी मानी जाती हैं।
!!!! Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557 !!!