Saturday, 23 September 2017

दुर्गमासुर मर्दिनी देवी दुर्गा।

दुर्गमासुर मर्दिनी देवी दुर्गा।

एक बार पितामह ब्रह्मा जी से, दुर्गमासुर नाम दैत्य ने समस्त वेदों तथा मंत्रों को वर स्वरूप प्राप्त कर लिया तथा लुप्त कर दिया। मंत्रों तथा वेद के अभाव हेतु, पृथ्वी पर ऋषि-मुनि, ब्राह्मणों द्वारा देवताओं को हवि भाग अर्पण बंद हो गया, परिणामस्वरूप वर्षा का लोप हो गया। वर्षा के अभाव के कारण पृथ्वी में उगने वाले समस्त प्रकार के वनस्पति, शाक, मूल, वनस्पति इत्यादि का भी लोप हो गया तथा ऐसी स्थिति १०० वर्षों तक बनी रही और पृथ्वी पर मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों का अंत होने लगा। घर-घर शवों के ढेर लगने लगे तथा यत्र-तत्र पशुओं, अन्य जीवों के शव दिखने लगे। ब्राह्मणों तथा ऋषि-मुनियों ने हिमालय पर जाकर, वर्षा होने के निमित्त भगवती आदि शक्ति की आराधना स्तुति-साधना की। ब्राह्मणों तथा ऋषि मुनियों की तपस्या से संतुष्ट हो, जगत-जननी माता ने उन्हें दर्शन दिया, जो अपने हाथों में नाना शाक-मूल लेकर प्रकट हुई थीं तथा सभी जीवों को भोजन हेतु शाक-मूल आदि प्रदान की, देवी माँ का यह रूप शाकंभरी नाम से विख्यात हैं। तत्पश्चात, ७ दिनों तक हजारों नेत्रों से युक्त हो रुदन करती रही, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी जल से पूर्ण हो गई; देवी माँ इस रूप में शताक्षी नाम से विख्यात हुई। तदनंतर, दुर्गमासुर दैत्य का वध कर दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी दुर्गा साक्षात भगवान शिव की पत्नी पार्वती या सती हैं, परा शक्ति महामाया आदि शक्ति हैं, इनके नौ स्वरूप जिन्हें जो 'नव-दुर्गा' नाम से प्रसिद्ध हैं।
वर्ष में चार बार नव-रात्र उत्सव पौष, चैत्र, आषाढ़, अश्विन, प्रतिपद से नवमी तिथि तक मनाया जाता हैं। इन दिनों माता दुर्गा के नौ रूपों की विशेषकर पूजा आराधना की जाती हैं, गुजरात तथा उत्तर भारत में यह उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता हैं। भारत के पूर्वी भाग में अश्विन मास या शरद्-ऋतु में दुर्गा पूजा उत्सव बड़े हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता हैं; महर्षि कात्यायन की तरह ही देवी माँ का आवाहन छष्ठी तिथि में की जाती हैं तथा सप्तमी, अष्टमी, नवमी को विधिवत् पूजा आराधना कर, दशमी तिथि के दिन देवी माँ अपने ससुराल कैलाश चली जाती हैं। साथ ही चैत्र मास में भी देवी की पूजा आराधना की जाती हैं। भारत वर्ष के उत्तरी तथा पश्चिम भाग में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के साथ, माता के नौ रूपों की साधन की जाती हैं तथा पूर्वी भाग में महिषमर्दिनी दुर्गा की आराधना की जाती हैं। इस अवधि में देवी की किसी भी रूप में साधन-पूजा शुभकर तथा विशेष फलप्रद होती हैं। साधक, दिव्य तथा अलौकिक शक्तिओं का अवलोकन करता पाता हैं। विशेषकर, तंत्र के अनुसरण करने वाले इस अवधि में नाना प्रकार की साधन कर सिद्धि प्राप्त करते हैं।
दुर्गा सप्तशती में व्याप्त, देवी कवच में माता दुर्गा के नौ रूपों की व्याख्या की गयी हैं।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
शक्ति के तीन रूप माने गया हैं जो त्रिगुणात्मक गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं, परा-शक्ति, अप-राशक्ति तथा अविद्या शक्ति। प्रथम परा-शक्ति ही महामाया-योगनिद्रा हैं, जो पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार के रूप में विद्यमान हैं। परिणामस्वरूप दुर्गा सप्तशती में तीन बार 'नमस्तस्यै' का प्रयोग किया गया हैं, इससे तीनों शक्तिओं को नमन किया जाता हैं।Astrologer Gyanchand Bundiwal M. 0 8275555557

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