Friday, 17 May 2013

परशुराम जयंती

परशुराम जयंती,,, वैशाख शुक्ल द्वितीया को परशुराम जयंती है । इस उपलक्ष्यमें भगवान परशुरामसे संबंधित,,परशुरामकी कथाएं रामायण, महाभारत एवं कुछ पुराणोंमें पाई जाती हैं । पूर्वके अवतारोंके समान इनके नामका स्वतंत्र पुराण नहीं है ।
अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।
अर्थ : चार वेद मौखिक हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान है एवं पीठपर धनुष्य-बाण है अर्थात् शौर्य है । अर्थात् यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे । ऐसी उनकी विशेषता है ।
मूर्ति : भीमकाय देह, मस्तकपर जटाभार, कंधेपर धनुष्य एवं हाथमें परशु, ऐसी होती है परशुरामकी मूर्ति ।
पूजाविधि: परशुराम श्रीविष्णुके अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है । वैशाख शुक्ल तृतीयाकी परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सवके तौरपर मनाई जाती है 

परशुराम के अवतार हुए इसीलिए इस दिन इनकी जयंती मनाई जाती है। 
अक्षय तृतीया का भगवान परशुराम के अवतार से संबंध होने से यह पर्व राष्ट्रीय शासन व्यवस्था के लिए भी एक विशेष स्मरणीय एवं चिंतनीय पर्व है। दस महाविद्याओं में भगवती पीतांबरा (बगलामुखी) के अनन्य साधक परशुरामजी ने अपनी शक्ति का प्रयोग सदैव कुशासन के विरुद्ध किया। निर्बल और असहाय समाज की रक्षा के लिए उनका कुठार अत्याचारी कुशासकों के लिए काल बन चुका था।

अधर्मी कार्तवीर्य (सहस्रबाहु) जिसने परशुरामजी के पिता महर्षि जमदग्नि को मारा था, उसका वध कर उसकी राजसत्ता को परशुरामजी ने छिन्न-भिन्न कर दिया। आज लोग किसी भी जीत को प्रकट करने के लिए जिन दो उंगलियों को उठाकर विजय मुद्रा का प्रदर्शन करते हैं वह परशुरामजी की विजय मुद्रा की नकल मात्र है। भगवान परशुराम की इस विजय मुद्रा के कई भाव हैं। इसका इसका एक भाव है, जो शासक जीव और परमात्मा में अंतर समझते हैं उनका मैंने मर्दन किया है। 

दूसरा यह कि मनसुख और धर्मविमुख राजाओं को यह समझ लेना चाहिए कि या तो जनक की तरह निर्गुण निराकार ब्रह्म को जानने वाले तत्वज्ञानी राजा बनो या महाराजा दशरथ आदि की तरह सगुण साकार ब्रह्म को स्वीकार करो। अवैदिक अमर्यादित राजा मेरे कुठार से बच नहीं सकते इसीलिए उन्होंने तर्जनी और मध्यमा दो उंगलियों को प्रदर्शित कर ‍तात्विक विजय मुद्रा का प्रदर्शन किया। 

इसीलिए पुराणों में कहीं भी कौशल नरेश महाराजा दशरथ और मिथिला नरेश महाराज जनक के साथ परशुरामजी के मनमुटाव के उदाहरण नहीं दिखते। 

श्रीराम द्वारा धनुष तोड़ने के बाद समस्त राजाओं की दुरभिसंधि हुई कि श्रीराम ने धनुष तो तोड़ लिया है लेकिन इन्हें सीता स्वयंवर से रोकना होगा। अत: अपनी-अपनी सेनाओं की टु‍कड़ियों के साथ धनुष यज्ञ में आए समस्त राजा एकजुट होकर श्रीराम से युद्ध के लिए कमर कसकर तैयार हो गए। धनुष यज्ञ गृहयुद्ध में बदलने वाला था, ऐसी विकट स्थि‍ति में वहां अपना फरसा लहराते हुए परशुरामजी प्रकट हो जाते हैं। 

वे राजा जनक से पूछते हैं कि तुरंत बताओ कि यह शिव धनुष किसने तोड़ा है अन्यथा जितने भी राजा यहां बैठे हैं मैं क्रमश: उन्हें अपने परशु की भेंट चढ़ाता हूं। तब श्रीराम विनम्र भाव से कहते हैं- हे नाथ, शंकर के धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका ही दास होगा। परशुराम-राम संवाद के बीच में ही लक्ष्मण उत्तेजित हो उठे। विकट लीला प्रारंभ हो गई। संवाद चलते रहे। लीला आगे बढ़ती रही। 
परशुरामजी ने श्रीराम से कहा- अच्‍छा, मेरे विष्णु धनुष में तीर चढ़ाओ। तीर चढ़ गया, परशुरामजी ने प्रणाम किया और कहा- मेरा कार्य अब पूरा हुआ, आगे का कार्य करने के लिए श्रीराम आप आ गए हैं। गृहयुद्ध टल गया। सारे राजाओं ने श्रीराम को अपना सम्राट मान लिया, भेंट पूजा की एवं अपनी-अपनी राजधानी लौट गए। 

श्रीराम के केंद्रीय शासन नियमों से धर्मयुक्त राज्य करने लगे। देश में शांति छाने लगी। अब श्रीराम निश्चिंत थे, क्योंकि उन्हें तो देश की सीमाओं के पार संचालित आतंक के खिलाफ लड़ना था इसीलिए अयोध्या आते ही वन को चले गए। पंचवटी में लीला रची गई, लंका कूच हुआ। रावण का कुशासन समाप्त हुआ। राम राज्य की स्थापना हुई। अत: रामराज्य की भूमिका तैयार करने वाले भगवान परशुराम ही थे।



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