Friday, 17 May 2013

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे,,,बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ भावार्थ : निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथाअहिंसा, समता, संतोष तप (स्वधर्म के आचरणसे इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है), दान, कीर्ति और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं॥

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