शिव-ब्रह्मा-विष्णु
कहीं भी श्री शिव या श्री विष्णु या श्री ब्रह्मा एक दूसरे की न तो निंदा
आदि की है और निंदा आदि करने के किसी से कहा ही है; बल्कि निंदा आदि का
निषेध और तीनों को एक मानने की प्रशंसा की है!
शिव पुराण में कहा है——एसे परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम!परस्परेण वर्धन्ते परस्परमनुव्रता:!!क्वचित द्ब्रह्मा क्वचितद्विष्णु: क्वाविद्रुद्र प्रशस्यते!नानेव तेषा माधिक्य मैश्चर्यन्चातिरिच्यते!!अयं परस्त्वयं नेति संम्भा भिनिवेशिन:!यातु भवन्त्येव पिशाचा वा ण संशय:!!
ये तीनों [ ब्रह्मा, विष्णु और शिव] एक दूसरे से उत्पन्न हुए हैं, एक दूसरे को धारण करते हैं, एक दूसरे के द्वारा वृद्विन्गत होते हैं और एक दूसरे के अनुकूल आचरण करते हैं! कहीं ब्रह्मा कि प्रशंसा की जाती है, कहीं विष्णु कि और कहीं महादेव कि! उनका उत्कर्ष एवं ऐश्वर्य एक दूसरे की अपेक्षा इस प्रकार अधिक कहा है मानो वे अनेक हों! जो संशयात्मा मनुष्य यह विचार करते हैं कि अमुक बड़ा है और अमुक छोटा है, वे अगले जन्म में राक्षस अथवा पिशाच होते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है!
स्वयं भगवान शिव जी विष्णु जी से कहते है मद्दर्शने फलं यद्वै तदेव तव दर्शने! ममैव हृदये विष्णुर्विष्नोश्च हृदये ह्यहम!! उभयोरन्तरं यो वै ण जानाति मतों मम!
मेरे दर्शन का जो फल है वही आपके दर्शन का है! आप मेरे ह्रदय में निवास करते हैं और मैं आपके ह्रदय में रहता हूँ! जो हम दोनों में भेद नहीं समझता, वही मुझे मान्य है!
भगवान श्रीराम भगवान श्रेशिव जी से कहते हैं ममास्ति हृदये शर्वो भवतो हृदये त्वहम ! आवयोरन्तरं नास्ति मूढ़ा: पश्यन्ति दुर्धिय:!! ये भेदन विदधत्यद्धा आवयोरेकरूपकम ! कुम्भीपाकेषु पच्यते नरा: कल्पसह्त्रकम!! ये त्वद्भक्ता: सदासंस्ते मद्भक्ता धर्मसंयुक्ता:! मद्भक्ता अपि भूयस्या भवत्या नातिन्करा:!!
आप [शंकर] मेरे ह्रदय में रहते हैं और मैं आपके ह्रदय में रहता हूँ! हम दोनों में कोई भेद नहीं है! मूर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हमारे अन्दर भेद समझते हैं! हम दोनों एकरूप हैं, जो मनुष्य हमारे अन्दर भेद-भावना करते हैं, वे हजार कल्पपर्यंत कुम्भीपाक नरक में यातना सहते हैं! जो आपके भक्त हैं वे धार्मिक पुरुष सदा ही मेरे भक्त रहे हैं और जो मेरे भक्त हैं वे प्रगाढ़ भक्ति से आपको भी प्रणाम करते हैं!
इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भी भगवान् श्रीशिव जी से कहते हैं!
त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मन: पर:! ये त्वां निदन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतस:!! पच्यन्ते कालसूत्रेण यावच्चंद्रदिवाकरौ! कृत्वा लिंगं सकृत्पूज्य वसेत कल्पायुतं दिवे! प्रजावान भूमिवान विद्वान पुत्रबान्धववांस्तथा!! ज्ञानवान मुक्तिमान साधु: शिवलिंगार्चनाद्भवेत! कोटिजन्मार्जितात पापान्मुक्तो मुक्तिं प्रयाति स:!
मुझे आपसे बढ़ कर कोई प्यारा नहीं है, आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं! जो पापी, अज्ञानी एवं बुद्धिहीन पुरुष आपकी निंदा करते हैं, वे जब तक चन्द्र और सूर्य का अस्तित्व रहेगा, तब तक काल सूत्र में [नरक में][ पचाते रहेंगे! जो शिवलिंग का निर्माण कर एक बार भी उसकी पूजा कर लेता है, वह दस हजार कल्प तक स्वर्ग में निवास करता है! शिन्लिंग के अर्चन से मनुष्य को प्रजा, भूमि, विद्या, पुत्र, बान्धव श्रेष्ठता, ज्ञान एवं मुक्ति सब कुछ प्राप्त हो जाता है! जो मनुष्य "शिव" शब्द का उच्चारण कर शरीर छोड़ता है, वह करोड़ों जन्मों के संचित पापों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त होता है!
भगवान विष्णु श्री मद्भागवत [४/७/५४] में दक्षप्रजापति के प्रति कहते हैं!
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम! सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन स शान्तिमधिगच्छति !!
हे विप्र! हम तीनों एकरूप हैं और समस्त भूतों की आत्मा हैं, हमारे अन्दर जो भेद-भावना नहीं करता, नि:संदेह वह शान्ति [मोक्ष] को प्राप्त होता है!
श्रीरामचरितमानस में भगवान श्री राम ने कहा है!—
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास! ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बॉस!! औरउ एक गुपुत मत सबहि कहऊँ कर जोरि! संकर भजन बिना नर भगति ण पावई मोरि!!
शांताकरम भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगम।लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगभिर्ध्यानिगम्यम।वंदे विष्णु भवभयहरणम् सर्वलोकैकनाथम ।।,,
शिव पुराण में कहा है——एसे परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम!परस्परेण वर्धन्ते परस्परमनुव्रता:!!क्वचित द्ब्रह्मा क्वचितद्विष्णु: क्वाविद्रुद्र प्रशस्यते!नानेव तेषा माधिक्य मैश्चर्यन्चातिरिच्यते!!अयं परस्त्वयं नेति संम्भा भिनिवेशिन:!यातु भवन्त्येव पिशाचा वा ण संशय:!!
ये तीनों [ ब्रह्मा, विष्णु और शिव] एक दूसरे से उत्पन्न हुए हैं, एक दूसरे को धारण करते हैं, एक दूसरे के द्वारा वृद्विन्गत होते हैं और एक दूसरे के अनुकूल आचरण करते हैं! कहीं ब्रह्मा कि प्रशंसा की जाती है, कहीं विष्णु कि और कहीं महादेव कि! उनका उत्कर्ष एवं ऐश्वर्य एक दूसरे की अपेक्षा इस प्रकार अधिक कहा है मानो वे अनेक हों! जो संशयात्मा मनुष्य यह विचार करते हैं कि अमुक बड़ा है और अमुक छोटा है, वे अगले जन्म में राक्षस अथवा पिशाच होते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है!
स्वयं भगवान शिव जी विष्णु जी से कहते है मद्दर्शने फलं यद्वै तदेव तव दर्शने! ममैव हृदये विष्णुर्विष्नोश्च हृदये ह्यहम!! उभयोरन्तरं यो वै ण जानाति मतों मम!
मेरे दर्शन का जो फल है वही आपके दर्शन का है! आप मेरे ह्रदय में निवास करते हैं और मैं आपके ह्रदय में रहता हूँ! जो हम दोनों में भेद नहीं समझता, वही मुझे मान्य है!
भगवान श्रीराम भगवान श्रेशिव जी से कहते हैं ममास्ति हृदये शर्वो भवतो हृदये त्वहम ! आवयोरन्तरं नास्ति मूढ़ा: पश्यन्ति दुर्धिय:!! ये भेदन विदधत्यद्धा आवयोरेकरूपकम ! कुम्भीपाकेषु पच्यते नरा: कल्पसह्त्रकम!! ये त्वद्भक्ता: सदासंस्ते मद्भक्ता धर्मसंयुक्ता:! मद्भक्ता अपि भूयस्या भवत्या नातिन्करा:!!
आप [शंकर] मेरे ह्रदय में रहते हैं और मैं आपके ह्रदय में रहता हूँ! हम दोनों में कोई भेद नहीं है! मूर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हमारे अन्दर भेद समझते हैं! हम दोनों एकरूप हैं, जो मनुष्य हमारे अन्दर भेद-भावना करते हैं, वे हजार कल्पपर्यंत कुम्भीपाक नरक में यातना सहते हैं! जो आपके भक्त हैं वे धार्मिक पुरुष सदा ही मेरे भक्त रहे हैं और जो मेरे भक्त हैं वे प्रगाढ़ भक्ति से आपको भी प्रणाम करते हैं!
इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भी भगवान् श्रीशिव जी से कहते हैं!
त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मन: पर:! ये त्वां निदन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतस:!! पच्यन्ते कालसूत्रेण यावच्चंद्रदिवाकरौ! कृत्वा लिंगं सकृत्पूज्य वसेत कल्पायुतं दिवे! प्रजावान भूमिवान विद्वान पुत्रबान्धववांस्तथा!! ज्ञानवान मुक्तिमान साधु: शिवलिंगार्चनाद्भवेत! कोटिजन्मार्जितात पापान्मुक्तो मुक्तिं प्रयाति स:!
मुझे आपसे बढ़ कर कोई प्यारा नहीं है, आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं! जो पापी, अज्ञानी एवं बुद्धिहीन पुरुष आपकी निंदा करते हैं, वे जब तक चन्द्र और सूर्य का अस्तित्व रहेगा, तब तक काल सूत्र में [नरक में][ पचाते रहेंगे! जो शिवलिंग का निर्माण कर एक बार भी उसकी पूजा कर लेता है, वह दस हजार कल्प तक स्वर्ग में निवास करता है! शिन्लिंग के अर्चन से मनुष्य को प्रजा, भूमि, विद्या, पुत्र, बान्धव श्रेष्ठता, ज्ञान एवं मुक्ति सब कुछ प्राप्त हो जाता है! जो मनुष्य "शिव" शब्द का उच्चारण कर शरीर छोड़ता है, वह करोड़ों जन्मों के संचित पापों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त होता है!
भगवान विष्णु श्री मद्भागवत [४/७/५४] में दक्षप्रजापति के प्रति कहते हैं!
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम! सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन स शान्तिमधिगच्छति !!
हे विप्र! हम तीनों एकरूप हैं और समस्त भूतों की आत्मा हैं, हमारे अन्दर जो भेद-भावना नहीं करता, नि:संदेह वह शान्ति [मोक्ष] को प्राप्त होता है!
श्रीरामचरितमानस में भगवान श्री राम ने कहा है!—
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास! ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बॉस!! औरउ एक गुपुत मत सबहि कहऊँ कर जोरि! संकर भजन बिना नर भगति ण पावई मोरि!!
शांताकरम भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगम।लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगभिर्ध्यानिगम्यम।वंदे विष्णु भवभयहरणम् सर्वलोकैकनाथम ।।,,